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________________ १४०] [समयसुन्दर रासपंचक तिण कारण मुझ तात तुरत थे, वारू द्यउ नरवेश जी। .. गोपाचलपुर जाइ जुगति सु, देखसु पति नो देश जी ॥६॥ जाई जोस्यूं जनक धणी नै, अवधि अछइ षटमास जी। निरति कीयां नवि लाभु पति ने, पावक पइसिसु पास जी ॥७॥ कर परतगन्या चाली कुमरी, पिता दियो पति वेश जी। मेली मोटो साथ महीपति, आई अधिक निवेश जी ॥८॥ पुर गोपाचल पहुता प्रगटी, करइ ते वणिज कुमार जी। गुणसुन्दर नामइ गुणवंतो, अति दाता सु उदार जी ॥६॥ पुहवी मांही र्थयो ते प्रगटो, सुन्दर सहज सरूप जी। नगर मांहि ए सहीय नगीनो, भलो भलो भणइ भूप जी ॥१०॥ क्रय विक्रय ते करइ विचक्षण, पुण्यसार सु प्रीति जी। विविध विनोद करइ बातां वलि, चालइ ते इक चीति जी ॥११॥ अन्य दिवस दीठो आवतउ, गुणसुदरि गज गेलि जी। रतनसुदरी राग धर्यो अति, मन मई अपणइ मेलि जी ॥१२॥ तेड़ी तात नइ तुरत कहइ ते, मन मान्यो मुझ कंत जी । परणावउ गुणसुंदर परगट, खरी अछइ मन खंत जी ॥१३॥ सेठइ जाण्यो भाव सुता नो, तुरत गयो तसु पास जी । कर जोड़ी नइ करइ वोनति, वारू वचन विलास जी ॥१४।। गोडी रागइ गिणज्यो गुणवंत, एह इग्यारमी ढाल जी । कहिस्यै वात तिकाहुँ कहिस्युं, सुणिज्यो सजन सुहाल जी ॥१५॥ [सर्वगाथा १६०] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003820
Book TitleSamaysundar Ras Panchak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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