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प्रियमेलक चौपई ]
सोरठिया दूहा ४ सिंहलसुत सोभाग, रूपई दीसई रूयड़उ । रमणी आणई राग, केड़ि न मुकई कामिनी ॥१॥ जिण जिण गलिए जाय, तिण गलीए तरुणी फिरइ। काज काम न कराय, चिटपट लागी चित्त मई ॥२॥ पंच मिली पोकार, अवनीपति आगई करी। के तुकुमर निवारि, अथवा अम्हनई सीख दे ॥३॥ महाजन मन संतोष, राजा रूड़ी परि कीयउ । दाख्यउ दुसमण दोष, कुमर नइ राख्यउ क्रीड़तउ ॥४॥
[सर्वगाथा ४८ ]
ढाल ( ३) वालुरे सवायउं वयर हुं माहरु जो, एहनी । अमरप कुमर नई आवीयउ जी, कीयउ मुझ सुपिता कूड़। अवहील्यां जे आधा पड़ई जी, धिग ते जनम नई धूड़ि ॥१॥ करम परीक्षा करण कुमर चल्यउ जी, धणवती चली धण साथि । कंत विहूणी किसी कामिनी जी, अस्त्री नइ प्रियु आथि ॥ २ ॥ देश प्रदेसे अचरिज देखस्यु जी, भाग्य नउ लहस्युभेद । साजण दूजण समझस्यु जी, इम मनि धरी रे उमेद ॥३॥ क० .
यतः
दोसइ विविहं चरियं, जाणिज्जइ सयण दुज्जण विसेसो। अप्पाणं च कलिज्जइ, हिंडिज्जइ तेण पुहवीए ॥ १ ॥
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