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प्रियमेलक चौपई]
[१६ पुण्य घणउ तुझ पाछिलउ, सबलउ तुझ सनेह । सानिधकारी हुँ थयउ, इहाँ कणि कारण एह ॥३॥ कुमर कहइ सगपण किस्यउ, मुझ तुझ माहोमांहि । नाग कहइ सांभलि निपुण, आणी अंगि उछाह ॥४॥
[सर्वगाथा १७२] ढाल (९) पूरव भव तुम्हें सांभलउ, एहनी धनपुर नगर धरम तिलउ, सेठ धनंजय सारो रे । धनवती नारि धरम निलउ, आभ्रण शील उदारो रे ।। १ ।। एहवा मुनिवर आविया, नाम थी हुयइ निस्तारो रे। दरसण जेहनउ निरखतां, पामीजइ भव पारो रे ॥२॥ ए० सेठ दातार सिरोमणि, साधु भगति आचारो रे। ऊन्हालइ लू आकरी, तावड़उ तपइ अति तारो रे ॥ ३ ॥ एक तिण अवसरि आया तिहां, सूधा साध निग्रंथो रे। गाम नगर गुरु विहरता, पालइ मुगति नउ पंथो रे ॥४॥ ए० सतावीस गुण सोहता, जीव तणी करइंजयणा रे। किम ही कूड़ बोलइ नहीं, लव अदत्त न लयणा रे ।। ५॥ ए० मैथुन थी विरमा मुनि, नहीं परिग्रह नहीं माया रे। रात्रइ क्यु राखइ नहीं, न हणइ छज्जीव निकाया रे ।। ६ ।। ए० इंद्री वसि करइ आपणी, लोभ तउ नहीं लागारो रे। क्षमावंत मुनिवर खरा, भावना गुण भण्डारो रे ॥ ७ ॥ ए० पड़िकमणउ पडिलेहणा, किरिया ना खप कारो रे। संयम योग धरई सदा, चरण करण सुविचारो रे ॥ ८॥ ए०
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