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धनदत्त श्रेष्ठि चौपई ]
[१०६ साच काउ तई सुंदरी, पिण हिव करिस्यां केम। सुस न भांजु सर्वथा, मांगरण रउ मुझ नेम ॥ १० ॥ परदेसि चालसि पाधरउ, दरियइ चढिसि हुँ देखि । लखमी तिहां लहिये घणी, वारू भाग्य विशेषि ॥ ११ ॥ बईरि बोली चालतां, सांभलिज्यो भरतार । हुँ बैठी शील पालिसु, तु पाले व्यवहार ॥१२॥ [सर्व गा०६०]
ढाल-(8) हिव करकंडू आवियउ जी, एहनी । साथ संघातीय ओ चालीयउ जी, आव्यउ गाम विचाल । पूछयौ को छै इहा भलजी, व्यवहार नउ प्रतिपाल रे ॥१॥ दोहिलउ दीसइ व्यवहार सुद्धि । विवहार शुद्धि विना काउ जी, श्रावक धरम अशुद्ध रे ॥२॥ गांम तणा लोकै इम कहैजी, इहां छै घणा दातार। शीलवंत पिण छै घणा जी, साच बोला साहूकार रे ॥३॥ दो० तप करइ तपणि छै घणा जी, भावना भावइति केइ । पणि व्यवहार पालइ जिके जी, जाण्या नहीं इक बेय रे ॥४॥ तू किम पूछ तेहनै जी, ते कहै मुझ छै काम । वाणउत्तर हुं जउ तेहनउ जी, तउ मुझ ध्रम पडै ठाम रे ॥४॥ दो० किण ही काउ इक वाणियउ जी, व्यवहार शुद्ध छइं एथि । धनदत्त जाय मिल्यउ तेहनइ जी वाणउत्त थई रह्यउ तेथि रे ॥५॥ गाय भइंसि घणी तेहनइ जी, वाहरि चरिवा जाय । पारका खेत मइं पइसि नई जी, फल्या फूल्या धान खाय रे॥६॥ करसणी आवी कूकीया जी, स्या भणी घण चारेसि ।
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