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[ समयसुन्दर रासपंचक बीजउ मइ क्यं पलइ नहीं, हुं पालिसि व्यवहार सुद्धो रे। साबासि समयसुंदर कहै, धनदत्त साह प्रतिबुद्धो रे ॥१०॥सं०।।
[सर्वगाथा ४८]
तूं धन तूं कृत-पुण्य तुं, साध कहै, धनदत्त ! पिण रूड़ी परि पालजे, निश्चल करि निज चित्त ॥१॥ व्यवहार शुद्ध पणु ग्रही, आव्यउ आपणे गेह। भलउ कीयउ कहै भारिजा, पिण दुक्कर छइ एह ॥२॥ व्यापार मांड्यउ वाणिय, सगलउ बोलै साच । वांड कहै तंत पांडि नै, न वदै बीजी वाच ।।३। साचा तोला त्राकनी, साचा गज श्रीकार । ओछु नहिं ये आपणुं, अधिकउ न ल्यै लिगार ॥ ४ ॥ साच ऊपरि राचै सही, लोक हठी कहै एह । विणज व्यापार माठउ पड्यउ, द्रव्य नो आव्यो छेह ।।५।। महुलति पूगी वाणिय आवी मांगइ दाम। घर माहे देवा नहीं, चिंतातुर थयउ ताम । ॥ ६॥ तेहवई बोली भारिजा, सामी सास वात । धन तूटा लागै खरच, किम गमिस्यां दिन रात ॥ ७ ॥ घर धंधा दुख पालणा, सायर कूखि समाण । एकणि रात्रे नीसऱ्या, गाहा पंच सयाण ।। ८॥ रूडं करतां पाडुयउ, थाइयं कलियुगि तेह । पणि धरमंइ जई भेटि छ, अहि राखइ नर जेह ॥६॥
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