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धनदत्त श्रेष्ठि चौपई ]
[ १०७ साधजी दीधउ ए उपदेश, पाप तणउ नहीं तिहां लवलेश। समयसुदर कहै ढाल ए बीजी, सांभलतां सहु को करउ जी जी
॥१४॥ [ सर्वगाथा ३८] ढाल - (३) कुमरी बोलावइ कूबड़छ।। कहै धनदत्त सामी सांभलउ, तुम्हे काउ साचउं धम्मो रे । पण तउ ते मई पलइ नहीं, हुं छं भारी कम्मों रे ।। १ ।। संजम मारग दोहिलउ, कायर नउ नहिं कामो रे । सूरवीर पालइ तिके, नित लीजइ तसु नामो रे ॥२॥ सं०॥ पंच मेरु ऊपाड़िवा, माथा ऊपरि भारो रे। माथइ लोच कराविवउ, स्नान न करिवउ किवारो रे ॥३॥ सं०॥ भूमि संथारउ सूयवउ, उसीसइ दे बांहो रे। राति दिवस रहिवउं वली, गुरुनी शिक्षा मांहो रे ।।४।। सं०॥ घरि घरि भिक्षा मांगवी, सूझतउ लेवलं आहारो रे । लोक देखतां करिवउ नहीं, आहार नइ नीहारो रे ॥५॥ सं०॥ बावीस परीसा बोलीया, ते सहिवा निस दीसो रे। लोक ना कुवचन सांभलइ, पणि करवी नहीं रीसो रे ॥६॥ सं०॥ राधावेध नी पूतली, बींधवी एकणि बाणो रे। खडग धार ऊपरि खरउ, चालेवो पगे अलवाणो रे ॥७॥ सं०॥ त्रांकडीयै मेरु तोलिवउ, आंगि उल्हावणी पायो रे। गंगा नदी साम्हे पगे, कहउ किण परि पहुचायो रे ॥ ८॥सं०॥ तप जप किरिआ करी, परिग्रह नहीं लवलेसो रे। एक ठामि रहिवउ नहीं, भविवउ देस प्रदेसो रे॥६॥ सं०॥
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