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[समयसुन्दर रासपंचक ध्रमघोषसूरि तिहां एकदा आव्या, भव्य हुँता तेहनइ मनि
भाव्या। वांदण काजि गया नर नारी, कर जोड़ि कहइ तुं तारि हो
तारि ॥५॥ धनदत्त पिण आवी तिहां बइठउ, दरसणि लोयणु अमीय पयट्ठउ साधइ देसणा दीधी एम, सांभलतां उपजइ अति प्रेम ॥ ६ ॥ दसे दृष्टांते नर भव लाधउ, घर धंधइ ते गमाड़यउ आधउ । निफल जनम जायइंध्रम पाखइ, दुरगति पडतां कहउकुण
राखइं ॥७॥ राज नइ रिद्धि छती थकी छोड़ि, कुटुंब अंतेउर द्रव्य नी कोड़ि। धन्य तिकौ जिण संयम लीधउ, तेह तणउ आत्मार्थ सीधउ।८ एक माणस पड्यां देखइ दुख, संसार नउ पणि नहिं को सुख । तिरणां ना झंपड़ा नागेह, नउलिया कोल आकुल कीआ जेह ॥६॥ अन्न नहीं घरे जीमण वेला, माणस मांहो मांहि अमेला । वईअरि ते पणि वांगड़ बोली, काली कुछित गालि द्यइ गोली॥१०॥ हांडी कुंडी ते पणि चोपी, वइसण ऊठण धरती अचोखी। पहिरण ओढण फाटां बेटा, प्रवहण खरते काने वुटा ।। ११ ॥ गृहस्थपणइ रहइ दुखिआ एहवा, पणि दीक्षा न ल्यइ ते पणि
एहवा। पणि संयम माहे घणा सुक्ख, जउ रहइ परिणामे कर लुक्ख ।।१२।। बईर नी पणि नहीं का गालि, कुटुम्ब तणी पण नही काई दुआल। प्रणमे मोटा राजवी पाय, परभवि सासता सुख थाय ।। १३ ॥
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