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[समयसुन्दर रासत्रय
सखर केसरीया, चंपक सेठ, वागा वणाया जी। चोवा चंपेल नै मोगरेल, डील लगाया जी ॥२।। चं० घम-घम करती घोड़ा वहिल, ऊपर बैठा जी। मित्र संघाते माहोमांहि, बोलइ मीठा जी ॥३॥ चं० कन्या हुंती चंपा पास, एगै गामै जी। वीवाह वेला पहुंती जान, तेणे ठामै जी ॥४॥ चं० कन्या बाप अनै वृद्धदत्त, मित्र कहीजै जी। ते पिण तेड्यो आव्यौ तेथि, वरग वहीजै जी ॥५॥ चं० रली रंग सुं थयौ वीवाह, परण्या पांत्या जी। जानी मानी सहु संतोष, मन नी खांत्या जी ॥६।। चं० वली वीवाही राखी जान, भगत करेवा जी। जानी लोक सिगला लागा, फिरवा घिरवा जी ||७|| चं० वावड़ी बैठो चंपक सेठ, दांतण करतौ जी।। वृद्धदत्त ते दीठौ दृष्टि, लीला धरतो जी ||८|| चं० एतौ दीसै देवकुमार, गोष्ठी करीजै जी। वारू थायै जो पुत्री मुझ, एहने दीजै जी ।।६।। चं० पहिली पूछून्यात नै पांत, किहां ना वासी जी।। सरल सभावी चंपक सेठ, वात प्रकाशी जी ।।१०।। चं० वृद्धदत्त नै हीया माहि, साल्यो गाढो जी। हा ! मैं दासी मारी गर्भ, हुं थयौ ताढो जी ॥११।। चं० देवी कही ते साची वात, जिम हीज हुइस्यैजी। म्हारी लखमी नौ भोगवणहार, थातौ दीस्यैजी ॥१२॥ चं०
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