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( ३४ ) कुमार ही रखा। राजा ने कहा-जो भी वस्तु चाहिए, हमारे यहाँ से मंगा लेना, पर बच्चे के भरण-पोषण में न्यूनता न करना। जब चम्पक आठ वर्ष का हुआ तो उसे पाठशाला में भेजा गया, वह अल्पकाल में ही अपने बुद्धिबल से बहत्तर कलाओं में निष्णात हो गया। एक बार दूसरे बच्चों द्वारा उसे बिना बाप का कहने पर चम्पक ने वृद्धा से अपना सारा वृतान्त ज्ञात किया और अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए व्यापार प्रारम्भ कर दिया। थोड़े दिनों में उसने प्रचुर द्रव्योपार्जन कर लिया और वह राजमान्य हो गया। राजा ने उसे नगरसेठ की पदवी दी और व्यापार विस्तार से वह चार करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का स्वामी हो गया।
एक वार चम्पकसेठ अपने मित्र की बरात में चम्पानगर के निकटवर्ती किसी गाँव में गया। वहाँ कन्या का पिता वृद्धदत्त का मित्र था। अतः वृद्धदत्त भी विवाह समारोह में सम्मिलित हुआ था। बाराती लोग सब मौज शौक में घूम रहे थे। चम्पक सेठ भी वापी पर जब दतवन कर रहा था तो वृद्धदत्त से साक्षात्कार हो गया। वृद्धदत्त इसके शालीनता
और सौन्दर्य पर मुग्ध होकर मन ही मन अपनी पुत्री के योग्य वर ज्ञात कर जात-पाँत पूछने लगा। सरल स्वभावी चम्पक सेठ ने अपनी उत्पत्ति का यथाज्ञात वृतान्त कह सुनाया। उसे सुनकर वृद्धदत्त के हृदय पर साँप लोटने लगे। उसे अपने धन के भोक्ता के बच जाने और देवी-वचन सत्य
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