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हुआ है। तीन रात तक जब लगातार सेठ को यही संवाद मिला तो वह अपने कष्टोपार्जित द्रव्य को स्वयं अपुत्रिया होने के कारण दूसरे द्वारा भोगने की बात जानकर अत्यन्त चिन्तातुर हुआ। उसने इसके भोगने वाले का पता लगाने के हेतु कुलदेवी की आराधना की और अन्नजल त्याग कर सो गया। सातवें दिन देवी ने प्रत्यक्ष होकर सेठ से पूछा कि तुमने मुझे क्यों आराधन किया। सेठ ने देवी से पूछा कि मेरा धन भोगने वाला कहाँ उत्पन्न हुआ है ? देवी-कम्पिलपुर के त्रिविक्रम वणिक के यहाँ पुष्पवती दासी की कुक्षि में तुम्हारे 'धन का भोक्ता उत्पन्न हुआ है-बतला कर अदृश्य हो गई।
दूसरे दिन प्रातःकाल वृद्धदत्त पारणा करने के पश्चात् अपने भ्राता साधुदत्त से एकान्त में इस विषय में विचार विमर्श करने लगा। साधुदत्त ने कहा-देववाणी असत्य नहीं होती, कर्मों के आगे कोई जोर नहीं ! वृद्धदत्त ने कहा-भाग्य करोसे न बैठकर किसी भी उपाय से अपने द्रव्य की रक्षा करनी चाहिए। उद्यम, धैर्य, पराक्रम, बल साहस और बुद्धि के सामने देव भी भय खाते हैं, अतः पुरुषार्थ नहीं छोड़ना चाहिए! साधुदत्त ने कहा-भाग्य के बिना उद्यम का कोई मूल्य नहीं, पपीहा तालाव का पानी पीता है तो गले में से निकल जाता है ! अतः भावी को कोई मिटा नहीं सकता, मैं इस विषय में एक दृष्टान्त सुनाता हूँ !
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