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वल्कलचीरी चौपई ]
[२६ ध्यान हीयइ सूधां धरइ हु०, निरमल निरहंकार रे । हुँ० दुख आपइ निज देहनइ हुँ०, ए सहु जाणइ असार रे । हुं० ॥४॥ समुख दुमुख श्रेणिक तणा हुँ०, दूत आया तिहां दोय रे । हुँ समुख प्रशंसा इम करइ हुँ०, कलि तुझ समउ नहिं कोय रे ।हुं० ॥५॥ राज छोड़ी वन मइ रह्यउ हुं०, द्यइ देही नइ दुक्ख रे । हुं० जनम जीवित सफलउ करइ हुँ०, त्रोडइ करम नु तिक्ख रे । हुं।६।। धन माता जिण उर धस्यउ हुँ०, धन्न पिता धन वंश रे । हुँ । एहवउ रतन जिहाँ ऊपनउ हुँ०, सुरनर करइ परसंस रे । हुँ० ॥७॥ दरसण तोरउ देखता हुं०, प्रणमंता तोरा पाय रे । हुँ० आज निहाल अम्हे हुआ हुं०, पाप गया ते पुलाई रे । हुं ॥८॥ तू जंगम तीरथ मिल्यउ हुँ०, सुरतरु वृक्ष समाण रे । हुं० । मन वांछित फल्या माहरा हुँ०, पेख्यउ पुण्य प्रमाण रे । हुं ॥६॥ बीजी ढाल इम बोलतां हुं०, सुकृत संच्यउ हुयइ जेह रे । हुँ० बोधि हुज्यो बीजे भवे हुं०, समयसुंदर कहइ एह रे । हुँ० ॥१०॥
[सर्वगाथा ३२]
दूहा ११ दुमुख दूत मुनि देखिनइ, असमंजस कहइ एम । पाखंडी फिट पापीया, कहि व्रत लीधउ केम ॥१॥ गृहि ब्रत गाढउ दोहिलउ, निरवाह्यउ नवि जाय । कायर फिट तई सुं कीयउ, सहू पूठिइ सीदाय ॥२।।
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