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( ४२ ) गई है। अब क्या उपाय करूं ? अन्त में न्याय की शरण लेने के विचार से राजसभा में गया और वहाँ के राजा, न्यायपद्धति आदि की आवश्यक जानकारी प्राप्त की।
इस अन्यायपुर पाटण का राजा निर्विचार, तलारक्षक सर्वलूटाक और मुंहता सर्वङ्गिल था। यहाँ का राजगुरु अज्ञानराशि और राजवैद्य जन्तुकेतु था। नगरसेठ वही वंचनामति और पुरोहित का नाम सिलापात था । वहाँ की कपटकोशा वेश्या अपने दांव-पेच में बड़ी निष्णात है। यह सब खेल जान कर उसने सोचा मैं अपने रत्न किस युक्ति से प्राप्त करूँ ? इतने ही में एक वृद्धा ने रोते कलपते हुए आकर राजा के पास पुकार की कि-महाराज ! मेरा न्याय कीजिये, मैं अत्यन्त दुखिनी ही गई ! राजा ने कहा मैं न्याय करूँगा, तुम अपना दुख कहो! वृद्धा ने कहा-मैं आपके नगर में रहती हूँ, किसी से लड़ाई-झगड़ा न कर शान्ति से रहती हूँ। राजाने कहाडोकरी कैसी सुशील है ! इसकी अवश्य न्याय सहायता की जायगी! वृद्धा ने कहा-मैं चोर की माँ हूँ, मेरा पुत्र प्रसिद्ध चोर था, आज वह देवदत्त के घर चोरी करने गया, जब वह खात डालने के लिए दीवाल के नीचे बैठा तो जर्जर दीवाल गिर पड़ी और मेरे पुत्र की मृत्यु हो गई। मेरे एक ही पुत्र था, अब मेरा कौन आधार ? राजा ने कहा तुम निर्दोष हो, अपने घर जाओ, देवदत्त को मैं दण्ड दूंगा!
राजा ने देवदत्त को बुलाकर कहा-तुमने जर्जर दीवाल
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