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सुमेलिका नगरी के वन में तापसों का आश्रम था, जिसमें भवदत्त और भवभूति नामक तापस कन्द-मूल खाकर पंचाग्नि साधना करते थे। इनमें भवदत्त कुटिल बुद्धि और भवभूति सरल स्वभावी था। दोनों मर के यक्ष हुए, फिर भवदत्त तो अन्यायपुर पाटण में वंचनामति सेठ हुआ और भवभूति पाडलीपुर में महासेन नामक क्षत्रिय हुआ। वह बड़ा पुण्यात्मा था, एक बार वह तीर्थयात्रा के लिए निकला तो आवश्यक व 'सारभूत द्रव्य अपने साथ ले लिया और फिर अन्यायपुर पाटण में उसने वंचनामति सेठ के यहाँ एक गाँठ अनामत रखी, जिसमें पाँच बहुमूल्य रत्न भी थे। महासेन तो सेठ पर विश्वास करके तीर्थयात्रा में चला गया। इधर सेठ ने गाँठ खोलकर देखी और पाँच रत्न पाकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने उनमें से एक रत्न लेकर एक लाख में किसी महर्द्धिक के यहाँ गिरवे रख दिया और स्वयं उन रुपयों से ऊँची हवेली बनाकर रहने लगा। अवशिष्ट चार रत्नों को उसने गुप्त रूप से छिपा कर रख लिया ! जब महासेन तीर्थयात्रा से लौटा तो उसने वंचनामति सेठ से अपनी धरोहर वापिस माँगी। सेठ ने कहा-तुम कौन हो ? मैं तुम्हें पहचानता भी नहीं एवं न मैं किसी की धरोहर अपने यहाँ रखता हूँ ! महासेन यह सुनते ही खिन्न होकर सोचने लगा कि ये वणिक भी कैसा चौहटे का चोर है, प्रत्यक्ष दी हुई वस्तु को डकार जाने में नहीं हिचकिचाता, यों क्रय-विक्रय में लूटना तो वणिकों की वृत्ति ही हो
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