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[ समयसुन्दर रासत्रय
दूहा १८
बलकलचीरी वहि गयउ, उटलइ बइठउ आवि । तापस ना उपग्रहण तिहां, पेख्या तिण प्रस्तावि ||१|| पात्र केसरिया पुंजिकरी, आणी अधिक उच्छाहि । पातरा हुं पड़िलेहतो, पड्यउ इहापोह मांहि ||२|| जातीसमरण जाणीयउ, पूरबभव परबंध | सुर नर ना भव सांभस्या, साधु हुंतउ ते संबंध ||३|| भावना मन मांहि भावतो, वेगि चड्यउ वयराग । ध्यान सकल सूधउ धर्थउ, तुरत कीयउ सहु त्याग ||४|| लोकालोक प्रकाशत, निरमल केवल न्यान । लहु वलकलचीरी थयउ, निश्चल जाणि निधान ||५|| दीघउ सासणदेवता, वेगड साधुन वेस । प्रत्येकबुद्ध थयउ प्रगट, दयइ भ्रम नउ उपदेस || ६ || पिता बन्धु प्रतिबोध कर, पिता मुकि अम्ह पासि । विचर्यउ आप अनेथि वलि, करतउ करम नउ नासि ||७||
प्रसनचन्द पुहतउ घरे, परि मनि परम वयराग । किण वेलायइ हुं करू, राज रमणि रउ त्याग ||८|| अन्य दिवस वलि अवसरइ, पोतनपुर उद्यान । श्रेणिक ! अम्हे समोसऱ्या, बदइ एम ब्रधमांन ॥ ॥ प्रसनचंद पृथिवीपती, वलि वांदवा निमित्त । आव्यउ घणुं उतावलउ, चोखइ निरमल चित्त ||१०||
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