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बल्कलचीरी चौपई]
दीधी त्रिण्ह प्रदक्षणा, प्रणमि अम्हारा पाय । श्रवणे देशना सांभली, आणंद अंगि न माय ॥११॥ कर जोड़ी राजा कहइ, ए संसार असार । तुम्ह पासे लेइसि तुरत, सामी संजम भार ।।१२।। पुत्र नइ पाटइ थापियउ, बेटउ ते अति बाल । अम्ह पासे व्रत आदरी, तप मांड्यउ ततकाल ।।१३।। श्रेणिक आगइ जिण समइ, वात कहइ श्रीवीर । वागी दुदुभि तेहवइ, गयणंगणि गंभीर ॥१४॥ दीठा आवता देवता, पवन नइ आसन्न । वांदी नइ वलि वीरनइ, श्रेणिक करइ प्रसन्न ॥१५॥ देव तणी ए दुदुभी, वागी किहां ऋधमान । प्रसनचंद रिषि पामीयउ, कहइ प्रभु केवलज्ञान ॥१६॥ अचरिज श्रेणिक ऊपनउ, ऐ ऐ अध्यवसाय । खिण नरक खिण मुगति द्यइ, करणी किसू पुसाय ॥१७॥ प्रसनचंद मुगति गयउ, वलि श्रीवलकलचीरि। वार वार करू वंदना, तुरत लहुं भवतीरि ॥१८॥
[सर्व गाथा २१८ ] ढाल (२०) राग-धन्यासी, तीर्थंकर रे चउवामइ मइ संस्तव्या रे श्रीवलकल रे चीरी साधु वांदियइ रे।। हारे गुण गावतां अभिराम, अति आणंदियइ रे ॥१॥ श्री० तापस ना उपग्रहण तिहां, पडिलेहता, हारे निरमल केवल न्यान। अति भलुं ऊपनं, शिवरमणी रे, संगम नुं सुख संपर्नु रे ॥२॥ श्री०
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