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वल्कलचीरी चौपई ]
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सुखिया तापस ए सहु, मृग मोटा उदमाद । तात-तात कहि तेहिनइ, अभ्याद हो अभ्याद ॥ ३ ॥ नगर लोक कहि कुण नर, एहवउ ए अजाण । लागा हसिवा लोक ते, भमतां आथम्यउ भाण ।। ४ ।। आपइ को नहिं आसरउ, रहिवा रिषि नइ ठाम । वहतो वेश्या घरि गय उ, ए उटज अभिराम ॥ ५॥ द्रव्य घणउ देई करी, रह्यउ मुनीसर रंग। वेश्या आवी विलसती, उत्तम दीठा अंग ।। ६ ।। तुरत नापित तेडावि नइ, नख लिवराख्या नारि । सूपड़ा सरिखा जे हुता, अंगनउ मल उतारि ।। ७ ।। जष्टाजूट उखेलि नइ, उहलउ कांकसि आणि । . सुगंध तेल संचारियउ, परम सुकोमल पाणि ।। ८ ।। अंग सुंआला अंग सु, वेश्या करि विगन्यान । 'फुट परगट फरस्या सहु, धरि रह्यउ रिषि ध्रमध्यान ।। ६ ।। हां हां हुं हु रिषि करइ, कहइ स्यु करउ मुझ एम । अतिथि आयां अम्ह एहवी, प्रतिपति कीजइ प्रेम ।। १० ।। इण उटले रहिवा करइ, तउ तू मकरे ताणि । करिवा देज्ये जिम करां, वेश्या बोली वाणि ।। ११ ।। ए रहिवा द्यइ ओटलइ, न कह्यउ तिण नाकार | रिषि निश्चल बइसी राउ, वसि कीधउ तिणवार ।। १२ ।।
[ सर्वगाथा १२३]
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