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( १७ )
आश्रम में रहते हुए सोमचंद्र ने जब रानी धारिणी को गर्भवती देखकर उसका कारण पूछा तो रानी ने कहा-मेरे गृहस्थावस्था में ही गर्भ था पर दीक्षा लेने में अन्तराय पड़ने के भय से मैंने उसे अप्रकट रखा। गर्भकाल पूर्ण होने पर धारिणी ने पुत्र प्रसव किया और तत्काल बीमार होकर मर गई। वल्कलवस्त्र में लपेटा हुआ होने से पिता ने उसका 'वल्कलचीरी' नाम दिया। कुछ दिन तक तो धाय माता ने उसका लालन पालन किया पर जब वह भी काल प्राप्त हो गई तो पिता ने उसे भैंस का दूध, वनफल और बिना बोये हुए अन्न से पाल पोष कर बड़ा किया। वल्कलचीरी मृगशावकों के साथ खेलता, पढ़ता-लिखता और पिता की सेवा किया करता। वह तरुण हो जाने पर भी भोला-भाला ब्रह्मचारी था, स्त्री जाति क्या होती है ? यह भी उसे मालूम नहीं था।
राजा प्रसन्नचंद्र ने जब सुना कि धारिणी माता पुत्र प्रसव करने के बाद दिवंगत हो गई और मेरा भाई अब तरुण हो गया है तो उसका हृदय भ्रातृ स्नेह से अभिभूत हो गया। वह उसे देखने के लिए उत्कण्ठित हुआ। उसने चित्रकारों को
आश्रम में भेज कर वल्कलचीरी का चित्रपट बनवा कर मँगाया । जब चित्रकारों ने उसका चित्र राजा को लाकर दिया तो उस सुन्दर तरुण भ्राता के चित्र को हृदय से लगाकर विचार करने लगा कि पिताजी तो वृद्धावस्था में वैराग्यपूर्ण हृदय से दुष्कर तप करते हैं पर मेरा छोटा भाई इस तरुण अवस्था में
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