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प्रियमेलक चौपई ] .
[२१ भाव खंडाणउ ते भणी, वियोग पड्यउ ति त्रिण वेला रे। वलि रहिनइ विहरावीयउ, महिला मिली तिण मेला रे ॥२०॥ कीधउ रूप कुरूप मई, वीर ते एणि विचारइ रे । अधम पुरोहित ओलखी, मत तुझनई ते मारइ रे ॥२१॥ ए० सुर वाणी सुणतां थकां, ईहा पोह मनि आण्यउ रे । पूरब भव पणि आपणउ, जातीसमरण जाण्यउ रे ।।२२।। एक प्रोहित ऊपरि कोपीयउ, कुण अखत्र कमायउ रे । मारण राजा मांडियउ, कुमर कृपाल मुकायउ रे ।।२३।। एक सिंहलसुत सुख भोवगई, देव गयउ वात दाखी रे। दानइ दउलति पामीयइ, समय सुन्दर छइ साखी रे ॥२४॥ ए०
[सर्व गाथा १६६]
दूहा ६ मात पिता मिलवा भणी, उत्कंठा धरइ एह । पांख कारी पहुंचु तिहां, साचउ पुत्र सनेह ॥१॥ अठसठि तीरथ छइ इहां, धुरि गंगा परधान। अधिकी मातो एहवी, मात-पिता बहु मान ।।२।। धर्माचारिज-धर्मगुरु, मा-बाप सेठ महंत । उसिंकल ए त्रिहुं तणा, हा किम माणस हुंत ॥३॥ जाव जीव जउ जुगति सु, सेवा कीजइ सार । माता नी राति माह नी, ऊरण नहीं अपार ॥४॥ माता कूखि धर्यउ मुनइ, दस मासां सीम दुक्ख । पाली नइ पोढउ कीयउ, सरज्यउ नही मा सुक्ख ॥५॥
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