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( ३६ ) से खेल रही थी। चम्पक सेठ ने तिलोत्तमा को पत्र दिया। उसने पत्र खोलकर पढ़ा तो उसमें देवकुमार सदृश गुणवान कुमार को बध करने की पितृ-आज्ञा देख कर सन्न रह गई। उसने कुमार चम्पक को स्वागतपूर्वक ठहराया और घोड़े वहिली शाला में बँधवा दिये। तिलोत्तमा पूर्वजन्म के संयोगवश सोचने लगी कि-पिताजी ने यह क्या पापकार्य सोचा ? यदि सौभाग्यवश यह मेरा पति हो जाय तो मैं अपनेको धन्य मान! उसने पिता के अक्षरों में दूसरा पत्र लिखकर तैयार किया और माँ के आने पर उसे सौंप दिया। सन्ध्या समय साधुदत्त भी घर आ गया। सब की उपस्थिति में पत्र पढ़कर देखा तो उसमें लिखा था कि आज सन्ध्या के शुभ लग्न में चम्पक के साथ तिलोत्तमा का ब्याह कर देना। समय कम था, पर साधुदत्त ने थैलियों का मुंह खोल दिया और बड़े धूमधाम से महोत्सवपूर्वक चम्पक सेठ के साथ तिलोत्तमा का पाणिग्रहण करा दिया।
चम्पक की मृत्यु के समाचार सुनने के उत्सुक वृद्धदत्त ने जब याचकों के मुख से तिलोत्तमा के साथ उसका पाणिग्रहण होने का संवाद सुना तो वह मन ही मन जल भुन गया। वृद्धदत्त घर आया और जानी-मानी जीमते देखकर शीघ्रतापूर्वक काम तमाम करने के लिये ऊपरी मन से धन्यवाद देने लगा। विवाह कार्य निपटने पर उसने साधुदत्त से कहा--भाई ! तुमने यह क्या अनर्थ कर डाला ? साधुदत्त ने कहा-यह देखिये
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