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पुण्यसार चरित्र चौपई ]
॥ सोरठा ॥
पूछइ प्रश्न पडूरि, सेठ पुरन्दर धम सुणी ।
स्यु की पुण्य सूरि, पूरव भव पुण्यसार प्रभु || १ || सूरि कहइ सुणि सन्त, न्यानइ सब लाधी निरति । पूरब भव पुण्यवंत, सुणज्यो सहु पुण्यसार नो ||२|| पुरनीतइ परसिद्ध, कुल पुत्र कोइक हुंतउ ।
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सरल सभाव सबुद्ध, संतति कुल उच्छिन्न सब ॥३॥ जुगति करी नइ जीपि, पाँचे इन्द्री पवर मति । सुगुरु सुधर्म्मसमीप, व्रत लीघउ विरमी भवा ॥४॥ ॥ दोहा ॥
सुमति पंच पालइ सदा, गुपति धरइ गुणवंत | काय गुपति खण्डन करइ, सुध नवि राखइ सन्त ॥ १ ॥ दंस मशा जब देहनइ, लागइ सबला लारि । कारसंग पूरउ नवि करइ, उडावइ बार बार ||२|| गुरु बोलइ मधुरी गिरा, सुणि हो शिष्य सुजाण । आवश्यक आराधतां, मोटउ दूषण माण || ३ || भव्य जीव भयभीत हुइ, सहइ परीसह सोइ । वेयावच गुरुनी करइ, करइ क्रिया मन धोइ ||४|| ॥ सोरठा ॥ मर सुर हूय महंत, सौधर्म शुभ ध्यान थी । दीप ते द्युतिमंत, भली परइ सुख भोगवइ ||१|| ढाल (१५) राग-धन्याश्री धर्म भलो छइ भावना एहनी,
सुर सुख भोगवि न सही, सुणि सेठ अपार । ए अंगज तुम्हनउ थयो, पुण्य थी पुण्यसार ॥१॥
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