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________________ ( १६ ) तापसों (वेश्याओं) को न देख कर वल्कलचीरी भयभ्रान्त होकर वन में घूमने लगा, इतने ही मैं उसने एक रथी को देखा और उसे अभिवादन पूर्वक पूछा कि तुम कहां जाओगे ? उसने कहा मैं पोतन जा रहा हूँ ! वल्कलचीरी भी पोतन आश्रम जाने को उत्सुक तो था ही, अतः उससे अनुमति लेकर उसके साथ साथ चलने लगा । वल्कलचीरी रथ के पीछे चलता हुआ रथी की स्त्री को तात ! तात !! कहकर पुकारने लगा । उसकी स्त्री ने जब इस व्यवहार पर आश्चर्य प्रगट किया तो रथी ने कहा - यह ऋषिपुत्र भोला है, इसने कभी स्त्री देखी नहीं है । इसके लिए तो सारा संसार ही तापस है । आगे चलकर वल्कलचीरी ने पूछाबड़े-बड़े मृगों को मारते हुए इस में क्यों चलाते हो ? तो रथी ने कहा- यह इनके कर्मों का दोष है, मैं क्या करूँ ? रथी ने ऋषिपुत्र को खाने के लिए लडू दिये तो उसके स्वाद से प्रसन्न होकर कहा - पोतन आश्रम के तापसों ( वेश्याओं ) ने भी मुझे ऐसे फल दिये थे । वल्कलचीरी जंगल के निरस फलों से विरक्त हो गया और शीघ्र पोतन आश्रम पहुँचने के लिए उसके हृदय में तालावेली लग गई। आगे चलकर एक चोर के साथ रथी की भिड़न्त हो गई । रथी के वार से घायल चोर ने प्रसन्न होकर मरते हुए अपना सारा माल उसे दे दिया । पोतनपुर पहुँचने पर रथी ने धन का बँटवारा करते हुए वल्कलचीरी से कहा- तुम मेरे राह के मित्र हो, अपने हिस्से का यह धन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003820
Book TitleSamaysundar Ras Panchak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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