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धनदत्त श्रेष्ठि चौपई]
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धनदत्त कहइ धन मइ इहां जी, खाटयु नहीं लवलेस ॥१८॥ दो० पुत्र शिष्य सरिखा कह्या जी, रिष नइ देवता जेम । मूरख तिरयंच सारिखा जी, मुआ दालिद्री तेम रे॥ १६ ॥ दो० ॥
यत :जसु घरि वहिल न दीसइं गाडउ,
जसु घरि भइंसि न रीकै पाडउ जसु घरि नारि न चूड़उ खलकई,
तसु घरि दालिद लहरे लहकइ ॥१॥ पुनः लोक वाक्यं यथा :दोकड़ा वाल्हा रे दोकड़ा वाल्हा,
दोकड़े रोता रहई छै काल्हा दो। दोकड़े ताल मादल भलां बाजइ,
दोकड़े जिनवर ना गुण गाजइरादो०। दोकड़े लाडी हाथ बे जोड़इ,
दोकड़ा पाखइ करड़का मोड़इ ।३।दो। जउ हिवणां नावी सकइ जी, तउ पणि कांह एक मूकि । बईरि वाटि जोती हुस्यइजी, अवसर थी तूम चूकि रे ।२०/दो। सुमूकु मित्र माहरइ जी, छोहडै नही काई वित्त । मित्र कहइ हितुयउ थकउजी, सांभलि तु धनदत्त रे ।२शदो सखर बीजोरा इहां घणा जी, सुहगा मोला सोय । तपति छमासी ते गमइ जी, अति मीठा वलि होय रे ।२२।दो। मित्र मानी बात ताहरी जी, ल्यइ बीजोरा डालि। तउ जाइनै भेटण करे जी, करंडिया मांहे घालि रे ।२३।दो।
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