________________
किहां गोपाचल किहां वलहि, किहां लंबोदर देव । आव्यो बेटो विहि वसहि, गयो सत्तवि परणेवि ।।१।। गोपाचल पुरा दागां, वल्लभ्यां नियतेर्वशात् परिणीय वधू सप्त, पुनर्तत्र गतोस्म्यहं ॥१॥
गुणसुन्दरी ने लज्जावश उपर्युक्त लेख की ओर ध्यान नहीं दिया। पुण्यसार ने उससे तुम द्वार पर खड़ी रहो, मैं देह चिन्ता निवारण करके आता हूँ ! कह कर जहाँ वट वृक्ष था,. वहाँ जाकर कोटर में बैठ गया। थोड़ी देर में दोनों देवियाँ आई और वट वृक्ष को उड़ाकर अपने स्थान में लाकर पुनः. स्थापित कर दिया।
पुरन्दर सेठ रात्रि के समय पुत्र की खोज में घूमता हुआ थक कर वट वृक्ष के नीचे आ बैठा था। जब सूर्योदय होने पर पुण्यसार कोटर में से निकला तो उसे पित्त दर्शन हुए ! पिता. ने भी पुत्र को वस्त्रालंकारों से सुसज्जित प्रसन्न मुद्रा में देखा तो आलिंगन पूर्वक मिल कर अपने घर ले आया । पुण्यश्री को पति और पुत्र के आने पर अपार हर्ष हुआ और रात्रि का सारा वृतान्त ज्ञात किया । परस्पर अपने अपराधों की क्षमायाचना कर पुण्यसार ने वल्लभी से लाये हुए अलंकारों को बेच डाला और रानी का हार छुड़ा कर राजा को भेज दिया और वह व्यसन त्याग कर पिता के साथ दुकान में बैठकर काम काज करने लगा।
इधर पति के न लौटने पर गुणसुन्दरी ने अन्य ६ बहिनों
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org