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चम्पक सेठ चौपई]
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ऊंघ छमासी एहनी, कुभकरण कहिवायो रे। विभीषण थी सहु को बीहै, बांधव सबल सहायो रे ।।२।। रा० अढार कोड़ि अक्षौहिणी, साथे चढे सनूर रे । त्रिण्ह खंड नो ते धणी, पृथिवी मांहि पडूर रे ॥३॥रा० बत्रीस सहस अंतेउरी, पामी पुण्य संयोगो रे, । अपछर सेती इन्द्र जिम, भोगवै सगला भोगो रे ॥४॥रा० जसु घर विह कोदव दल, जम राणौ वहै नीरो रे। पवन बुहारै आंगणे, सबल हटक नै हीरो रे ॥५॥ रा० नव ग्रह सेवा नित कर, खड़ातड़ा जसु खाटो रे। इन्द्र तिके डरता रहै, नांख्या रिपु निरधाटो रे ॥६॥ रा० अष्टापद ऊपरि इणै, वाई सखरी वीणो रे। नाची नार मंदोदरी, भगवंत सु लयलीणो रे॥॥ रा० कहुं वात हुँ केतली, रावण तणीय प्रसिद्धो रे। पदवी प्रतिवासुदेवनी, भोगवै भली समृद्धो रे ॥८॥ रा० राणौ रावण एकदा, बैठो सभा मझारो रे। चामर छत्र धरावती, कोइ न लोपै कारो रे ॥६॥ रा० मनमइं जाणइ मुझ समउ, को नही इण संसारो रे। अजर अमर सहि हुँ अछु, आणइ ए अहंकारो रे ॥१॥ रा० एहव एक निमत्तीयौ, आयौ सभा मझारो रे। ऊभो आसिरवाद दे, दरसणीक दीदारो रे ॥११॥रा०
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