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| समयसुन्दर रासत्रय इम कहि माणस मोकल्यौ, पंथ में तू दुख पाइस रे ।।१६।। कपट कोश्या हरखित थकी, पाछी लीधी पेई रे। सेठ साम्हो जोई रह्यो, नाची फरगट देई रे ।।२०।। ब० महसेन पिण नाच्यौ तिहां, वंचनामति पण नाच्यौ रे । लोके पूछ्यौ कहो तुम्हें, कुण कहै हेत राच्यौ रे॥२१॥ बहिन जीवी वेश्या कहै. आणंद अंग न माया रे। महासेन कहै माहरा, गया रतन मै पाया रे ॥२२॥ उ० सेठ कहै सहु सांभलौ, जग सगलौ आज ताइ रे। मैं वंच्यौ पणि मुझ नैं, वंच्यौ नहिं किण कांइ रे ।।२३।। उ० कपट कोश्या वंच्यौ मु., रतन पांच लेवाव्या रे। मंदिर ग्रहणै मूकि नै, भामिनी भीख मंगाव्या रे ॥२४।। उ०. लोक माहे सेठ लाजीयौ, सगले फिट-फिट कीधो रे। वैरागे मन वालीयो, तिण तापस नो व्रत लीधौ रे ॥२शा उ० कपटकोश्या वेश्या थकी, लोक मांहि स्याबाश लीधी रे । पर उपगार कीधौ भलौ, महासेन स्यु ए कीधी रे ॥२६॥ महासेन धन माल ले, तिहां थी चाल्यौ वहतौ रे। कुशल खेम कल्याण सु, पोतानै गामे पहुंतो रे ॥२७॥ उ० महासेन महारिद्ध सु, सुखी थको रहै तेथो रे। समयसुन्दर कहै सांभलौ, पूरब पुण्य छे एथो रे ॥२८॥ उ०
. [ सर्वगाथा १११ ]
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