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श्री पुन्यसार चरित्र चउपई ]
[१३१ तिणि वचनइ ततकालं, कुपी थकी कामिणि कहइ। बाहिर काढी बाल, तूं घर आयो किउं तुरत ॥३॥ जाई जोवउ जेथि, आणो इहां ऊतावलो। आयो नहीं सुत एथि, निरति करउ सब नगर मइ ॥४॥
दूहा ॥ गाढि रोषि गृहिणी कहइ, समरी सुत नइ सेठि । नगर मांहि निरखइ फिरी, दीरघ फाटी देठि ।। १ ।। पुण्यसिरी चिंतइ पछइ, मूरख हुं सुमहंत । किण वेला काढ्यउ घरा, कोप करी मई कंत ॥ २॥ पहिली मूरखता पणो, कीधी सेठि कुनीति । पति काढतां मई पछइ, राखी भली न रीति ।।३।। चिंता करती चित्त मई, बइठी घर के बार। कुमर तणो कहिस्युहवइ, वारू अधिक विचार ।। ४ ।।
[सर्व गाथा १००] ढाल (७) राग-खंभाइती, सोहलानी कुमर उभउ हिव तिहां किणइ रे, देखइ देवति दोइ रे। वड़ ऊपरि वातां करइ रे, आणंद अधिकइ होइ रे ॥ १ ॥ थारे वारणइ सखि, कहउ काई बात विनोद नी जी, सुणइ कुमर सुजाण । एक कहइ आपे सखी रे, इच्छा फिरइ अपारो रे। चंद्र सहित राति चांदणी रे, अनुपम एह उदारो रे ॥२॥ थारे।
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