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बिना सिर पर पगड़ी, घड़े बिना इंढाणी, नीव विहीन इमारत की भांति व्यर्थ हैं। गांव ही नहीं तो सीमा क्या ? ठंढ नहीं तो हिम कहां ? उसी प्रकार व्यवहार शुद्धि के बिना मनुष्य की शोभा नहीं । अग्नि के बिना धुंआ कहाँ ? स्त्री ही नहीं तो बेटा कहाँ ? धर्म बिना सुख नहीं, द्रव्य बिना हाट नहीं, गुरुः बिना बाट नहीं, उसी प्रकार व्यवहार शुद्धि बिना सारे गुण, बिना अंक के शून्य हैं। साधु के लिए शुद्ध आहार और श्रावक के लिए शुद्ध व्यवहार ये प्रधान गुण हैं।
अयोध्या नगरी में उग्रसेन राजा और उसके पद्मावती पटरानी थी। उसके सुबुद्धि नामक मन्त्री था। इसी नगर में धनदेव व्यवहारी का पुत्र धनदत्त निवास करता था, जिसके पापोदय से माता-पिता का देहान्त हो गया। जब वह आठ वर्ष का हुआ तो शास्त्राभ्यास में लग गया और पिता का कमाया हुआ द्रव्य खाकर काल निर्गमन करने लगा। एक बार धर्मघोषसूरि के पधारने पर धनदत्त ने उनका वैराग्यपूर्ण व्याख्यान सुना तो उपदेश से प्रभावित होकर कुछ नियम लेने का विचार किया। उसने अपने को संयम मार्ग में असमर्थ बताते हुए मुनिराज के समक्ष व्यवहार शुद्धि का नियम स्वीकार किया। घर आने पर उसकी स्त्री ने व्यवहार-शुद्धि नियम की बड़ी प्रशंसा की। . धनदत्त ने दुकान खोली और सचाई के साथ अपना नियम पालन करता हुआ व्यापार करने लगा। लोग सत्यता के
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