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[समयसुन्दर रासत्रय
ढाल ( ४ ), प्राणपीयारी जानुकी, २ नाचै इंद्र आणंद सु . अन्य दिवस तिहां आवीया, चंपानयरी उद्यान रे। घणां साधु सु परवस्या, केवलिज्ञान प्रधान रे॥ १ ॥ केवल गुरू कहै ते खरू, सांभलै सहु सावधान रे। परमाणंद पामै, धरै, नर नारी ध्रम ध्यान रे ॥२॥ के० चंपकपण गयौ वांदिवा, त्रिण्ह वार प्रदक्षण दीध रे।। वारु विनय संघातै, कर जोड़ी वंदना कीध रे ॥३॥ के० चंपक नौ चित रंजीयौ, सांभल गुरु देसणा सार रे । पूछे कर जोड़ी करी, पूरब भव नो प्रकार रे ॥ ४ ॥ के० कही सामी भव पाछलो, मै केहा कीधा पुण्य रे । इण भव में पामी साही, इवड़ी लखमी अगण्य रे ॥ ५॥ के० वृद्धदत्त विवहारीयौ, कंचण छिन्नु कोड़ी लाधा रे। पणि भोगवी न सकी, ते कुण करम नै बाधा रे ॥ ६ ॥ के० अज्ञात कुल हुऔ माहरौ, डोकरी ऊपर राग रे।। डोकरी मुझ नै पालीयो, ते कुण करम विभाग रे ॥ ७ ॥ के० विण अपराध मो ऊपरै, मारण मांड्या उपाय रे। .. वृद्धदत्त वाणीये पिण, ते कुण वयर कहाय रे ॥ ८ । के० कहै केवलि ते सांभलो, सगलां नो उत्तर एह रे। .. पुण्य पाप पूठे कीया, भोगवै सहु फल तेह रे॥ ६ ॥ के० नगरी एक सुमेलिका, वन में तापस नो ठाम रे॥.. तापस बे तिहां रहैं, भवदत्त भवभूत नाम रे ॥ १० ॥ के०
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