Book Title: Mahavaggatthakatha
Author(s): Vipassana Research Institute Igatpuri
Publisher: Vipassana Research Institute Igatpuri
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मगिरि-पालि-गन्थमाला [देवनागरी] दीघनिकाये सुमङ्गलविलासिनी दुतियो भागो महावग्गट्ठकथा विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी १९९८ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मगिरि-पालि-गन्थमाला-५ [देवनागरी] दीघनिकाय एवं तत्संबंधित पालि साहित्य ग्यारह ग्रंथों में प्रकाशित किया गया है। प्रथम आवृत्तिः १९९८ ताइवान में मुद्रित, १२०० प्रतियां मूल्य : अनमोल यह ग्रंथ निःशुल्क वितरण हेतु है, विक्रयार्थ नहीं। सर्वाधिकार मुक्त। पुनर्मुद्रण का स्वागत है। इस ग्रंथ के किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन के लिए लिखित अनुमति आवश्यक नहीं । ISBN 81-7414-054-9 यह ग्रंथ छट्ठ संगायन संस्करण के पालि ग्रंथ से लिप्यंतरित है। इस ग्रंथ को विपश्यना विशोधन विन्यास के भारत एवं म्यंमा स्थित पालि विद्वानों ने देवनागरी में लिप्यंतरित कर संपादित किया। कंप्यूटर में निवेशन और पेज-सेटिंग का कार्य विपश्यना विशोधन विन्यास, भारत में हुआ। प्रकाशक: विपश्यना विशोधन विन्यास धम्मगिरि, इगतपुरी, महाराष्ट्र- ४२२ ४०३, भारत फोन : (९१-२५५३) ८४०७६, ८४०८६ फैक्स : (९१-२५५३)८४१७६ सह-प्रकाशक, मुद्रक एवं दायक : दि कारपोरेट बॉडी ऑफ दि बुद्ध एज्युकेशनल फाउंडेशन ११ वीं मंजिल, ५५ हंग चाउ एस. रोड, सेक्टर १, ताइपे, ताइवान आर.ओ. सी. फोन : (८८६-२)२३९५-१९९८, फैक्स : (८८६-२)२३९१-३४१५ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā [Devanāgari] Dighanikāye Sumangalavilāsini Dutiyo Bhāgo Mahāvagga-Atthakathā Devanāgarī edition of the Pāli text of the Chattha Sangāyana Published by Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri -422403, India Co-published, Printed and Donated by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415 wwwjainelibrary.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā—5 [Devanāgari] The Digha Nikaya and related literature is being published together in eleven volumes. First Edition: 1998 Printed in Taiwan, 1200 copies Price: Priceless This set of books is for free distribution, not to be sold. No Copyright-Reproduction Welcome. All parts of this set of books may be freely reproduced without prior permission. ISBN 81-7414-054-9 This volume is prepared from the Pāli text of the Chattha Sangāyana edition. Typing and typesetting on computers have been done by Vipassana Research Institute, India. MS was transcribed into Devanāgari and thoroughly examined by the scholars of Vipassana Research Institute in Myanmar and India. Publisher: Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri, Maharashtra - 422 403, India Tel: (91-2553) 84076, 84086, 84302 Fax: (91-2553) 84176 Co-publisher, Printer and Donor: The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.O Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रंथ Present Text संकेत-सूची १. महापदान सुत्तवण्णना पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तकथा आयुपरिच्छेदवण्णना बोधिपरिच्छेदवण्णना सावकयुगपरिच्छेदवण्णना सावकसन्निपातपरिच्छेदवण्णना उपट्ठाकपरिच्छेदवण्णना सम्बहुलवारकथावण्णना सम्बहुलपरिच्छेदवण्णना बोधिसत्तधम्मतावण्णना द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणवण्णना विपस्सीसमञ्ञावण्णना जिण्णपुरिसवण्णा ब्याधिपुरिसवण्णना कालङ्कतपुरिसवण्णना पब्बजितवण्णना बोधिसत्तपब्बज्जावण्णना महाजनकाय अनुपब्बज्जावण्णना बोधिसत्तअभिवेसवण्णना विसय-सूची १ १ ६ ८ ९ १० १० १३ १४ १८ ३० ३८ ४१ ४१ ४२ ४२ ४२ ४३ ४४ ब्रह्मयाचनकथावण्णना अग्गसावकयुगवण्णना महाजनकायपब्बज्जावण्णना चारिकाअनुजाननवण्णना देवतारोचनवण्णना २. . महानिदान सुत्तवण्णना निदानवण्णना उस्सादनावण्णना पुब्बूपनिस्सयसम्पत्तिकथा तित्थवासादिवण्णना पटिच्चसमुप्पादगम्भीरता अपसादनावण्णना पटिच्चसमुप्पादवण्णना अत्तपञ्ञत्तिवण्णना अत्तपञ्ञत्तिवण्णना अत्तसमनुपस्सनावण्णना सत्तविञ्ञाणट्ठितिवण्णना अट्ठविमोक्खवण्णना ३. महापरिनिब्बानसुत्तवण्णना राज अपरिहानियधम्मवण्णना भिक्खु अपरिहानियधम्मवण्णना दुस्सीलआदीनववण्णना पाटलिपुत्तनगरमापनवण्णना ४९ ५५ ५८ ५८ ६२ ६४ ६४ ६८ ७० ७४ ७४ ७५ ७७ ८४ ८५ ८५ ८८ ९२ ९५ ९६ १०२ ११४ ११६ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० १७७ १८० १८६ १८६ १८७ १९३ १९४ १९४ १९५ अरियसच्चकथावण्णना ११९ अनावत्तिधम्मसम्बोधिपरायणवण्णना ११९ धम्मादासधम्मपरियायवण्णना १२० अम्बपालीगणिकावत्थुवण्णना १२१ वेळुवगामवस्सूपगमनवण्णना १२२ निमित्तोभासकथावण्णना १२४ मारयाचनकथावण्णना १३० आयुसङ्खारओस्सज्जनवण्णना १३१ महाभूमिचालवण्णना १३२ अट्ठपरिसवण्णना १३४ अट्ठअभिभायतनवण्णना अट्ठविमोक्खवण्णना आनन्दयाचनकथा नागापलोकितवण्णना १३८ चतुमहापदेसवण्णना १३९ कम्मारपुत्तचुन्दवत्थुवण्णना १४२ पानीयाहरणवण्णना पुक्कुसमल्लपुत्तवत्थुवण्णना १४३ यमकसालावण्णना १४६ उपवाणत्थेरवण्णना १५२ चतुसंवेजनीयठानवण्णना १५४ आनन्दपुच्छाकथावण्णना . १५६ थूपारहपुग्गलवण्णना १५७ आनन्दअच्छरियधम्मवण्णना १५७ महासुदस्सनसुत्तदेसनावण्णना १५९ मल्लानं वन्दनावण्णना १६० सुभद्दपरिब्बाजकवत्थुवण्णना १६१ तथागतपच्छिमवाचावण्णना परिनिब्बुतकथावण्णना बुद्धसरीरपूजावण्णना १६८ महाकस्सपत्थेरवत्थुवण्णना सरीरधातुविभजनवण्णना धातुथूपपूजावण्णना ४. महासुदस्सनसुत्तवण्णना कुसावतीराजधानीवण्णना चक्करतनवण्णना हत्थिरतनवण्णना अस्सरतनवण्णना मणिरतनवण्णना इत्थिरतनवण्णना गहपतिरतनवण्णना परिणायकरतनवण्णना चतुइद्धिसमन्नागतवण्णना धम्मपासादपोक्खरणिवण्णना झानसम्पत्तिवण्णना बोधिसत्तपुब्बयोगवण्णना चतुरासीतिनगरसहस्सादिवण्णना सुभद्दादेविउपसङ्कमनवण्णना ब्रह्मलोकूपगमवण्णना ५. जनवसभसुत्तवण्णना नातिकियादिब्याकरणवण्णना आनन्दपरिकथावण्णना जनवसभयक्खवण्णना देवसभावण्णना सनकुमारकथावण्णना भावितइद्धिपादवण्णना तिविधओकासाधिगमवण्णना चतुसतिपट्ठानवण्णना सत्तसमाधिपरिक्खारवण्णना १९७ १९७ १९७ १९९ २०० १४३ २०२ २०२ २०३ २०६ २०६ २०६ २०७ २०८ २०९ २१० १६३ २११ २१३ २१३ १६६ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ २२६ २३० ६. महागोविन्दसुत्तवण्णना कायानुपस्सना आनापानपब्बवण्णना ३१६ देवसभावण्णना इरियापथपब्बवण्णना ३२० अट्ठयथाभुच्चवण्णना २१८ चतुसम्पजञपब्बवण्णना ३२२ सनमारकथावण्णना पटिकूलमनसिकारपब्बवण्णना ३२३ गोविन्दब्राह्मणवत्थुवण्णना धातुमनसिकारपब्बवण्णना ३२४ रज्जसंविभजनवण्णना २२८ नवसिवथिकपब्बवण्णना ३२५ कित्तिसद्दअब्भुग्गमनवण्णना २२९ वेदनानुपस्सनावण्णना ३२७ ब्रह्मनासाकच्छावण्णना चित्तानुपस्सनावण्णना ३२९ रेणुराजआमन्तनावण्णना २३३ धम्मानुपस्सनानीवरणपब्बवण्णना ३३० छ खत्तियआमन्तनावण्णना २३४ खन्धपब्बवण्णना ३३५ ब्राह्मणमहासालादीनं आमन्तनावण्णना २३५ आयतनपब्बवण्णना ३३६ भरियानं आमन्तनावण्णना २३६ बोज्झङ्गपब्बवण्णना ३३८ महागोविन्दपब्बज्जावण्णना २३६ चतुसच्चपब्बवण्णना ३४७ ७. महासमयसुत्तवण्णना २३८ दुक्खसच्चनिद्देसवण्णना ३४८ समुदयसच्चनिद्देसवण्णना ३५० निदानवण्णना २३८ देवतासन्निपातवण्णना निरोधसच्चनिद्देसवण्णना ३५१ २४५ मग्गसच्चनिद्देसवण्णना ३५२ ८. सक्कपञ्हसुत्तवण्णना २६० १०. पायासिराजञसुत्तवण्णना ३५७ निदानवण्णना २६० मावण्णना पञ्चसिखगीतगाथावण्णना २६३ चोरादिउपमावण्णना ३५९ सक्कूपसङ्कमवण्णना २६६ गूथभारिकादिउपमावण्णना गोपकवत्थुवण्णना ३६१ २६८ मघमाणववत्थु | सद्दानुक्कमणिका [१] २७१ पहवेय्याकरणवण्णना २७८ गाथानुक्कमणिका [५७] वेदनाकम्मट्ठानवण्णना २८१ संदर्भ-सूची महासीवत्थेरवत्थु २८६ पातिमोक्खसंवरवण्णना २९१ इन्द्रियसंवरवण्णना २९४ सोमनस्सपटिलाभकथावण्णना २९७ ९. महासतिपट्टानसुत्तवण्णना २९९ उद्देसवारकथावण्णना ३५८ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिरं तिद्वतु सद्धम्मो! चिरस्थायी हो सद्धर्म ! ढेमे, भिक्खवे, धम्मा सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाय अनन्तरधानाय संवत्तन्ति। कतमे द्वे ? सुनिक्खित्तञ्च पदव्यञ्जनं अत्थो च सुनीतो। सुनिक्खित्तस्स, भिक्खवे, पदव्यञ्जनस्स अत्थोपि सुनयो होति। अ० नि० १.२.२१, अधिकरणवग्ग भिक्षुओ, दो बातें हैं जो कि सद्धर्म के कायम रहने का, उसके विकृत न होने का, उसके अंतर्धान न होने का कारण बनती हैं। कौनसी दो बातें ? धर्म वाणी सुव्यवस्थित, सुरक्षित रखी जाय और उसके सही, स्वाभाविक, मौलिक अर्थ कायम रखे जाय । भिक्षुओ, सुव्यवस्थित, सुरक्षित वाणी से अर्थ भी स्पष्ट, सही कायम रहते हैं। ...ये वो मया धम्मा अभिञा देसिता, तत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं ब्यञ्जनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरद्वितिकं...। दी०नि० ३.१७७, पासादिकसुत्त ...जिन धर्मों को तुम्हारे लिए मैंने स्वयं अभिज्ञात करके उपदेशित किया है, उसे अर्थ और ब्यंजन सहित सब मिल-जुल कर, बिना विवाद किये संगायन करो, जिससे कि यह धर्माचरण चिर स्थायी हो...। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रंथ दीघनिकाय साधना की दृष्टि से महत्वपूर्ण ग्रंथ है | यह भगवान बुद्ध के चौंतीस दीर्घाकार उपदेशों का संग्रह है जो कि तीन खंडों में विभक्त है - सीलक्खन्धवग्ग, महावग्ग, पाथिकवग्ग। इन उपदेशों में शील, समाधि तथा प्रज्ञा पर सरल ढंग से प्रचुर सामग्री उपलब्ध है । व्यावहारिक जीवन में आगत वस्तुओं एवं घटनाओं से जुड़ी हुई उपमाओं के सहारे इसमें साधना के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डाला गया है। बुद्ध की देशना सरल तथा हृदयस्पर्शी हुआ करती थी। उनकी यह शैली व्याख्यात्मिका थी पर कभी-कभी धर्म को सुबोध बनाने के लिये 'चूळनिद्देस' जैसी अट्ठकथाओं का उन्होंने सृजन किया । प्रथम धर्मसंगीति में बुद्धवचन के संगायन के साथ इनका भी संगायन हुआ। तदनंतर उनके अन्य वचनों पर भी अट्ठकथाएं तैयार हुईं। जब स्थविर महेन्द्र बुद्ध वचन को लेकर श्रीलंका गये, तो वे अपने साथ इन अट्ठकथाओं को भी ले गये । श्रीलंकावासियों ने इन अट्ठकथाओं को सिंहली भाषा में सुरक्षित रखा । पांचवी सदी के मध्य में बुद्धघोष ने उनका पालि में पुनः परिवर्तन किया । दीघनिकाय के अर्थों को प्रकाश में लाते हुए बुद्धघोष ने 'सुमङ्गलविलासिनी' नामक दीघनिकाय-अट्ठकथा का प्रणयन किया । यह भी तीन भागों में विभक्त है। इसके द्वितीय भागमहावग्ग-अट्ठकथा का मुद्रित संस्करण आपके सम्मुख प्रस्तुत है । हमें पूर्ण विश्वास है कि यह प्रकाशन विपश्यी साधकों और विशोधकों के लिए अत्यधिक लाभदायक सिद्ध होगा। निदेशक, विपश्यना विशोधन विन्यास Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dighanikāye Sumangalavilāsini Dutiyo Bhāgo Mahāvagga-Atthakathā 13 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ciram Titthatu Saddhammo! May the Truth-based Dhamma Endure for A Long Time ! “Doeme, Bbikebabe, Dhammã saddhammassa thitiyā asammosaya anantaradhānāya samvattanti. Katame dve? Sunikkhittañca padabyañjanam attho ca sunito. Sumikkeitasa, Bhikkbale, padabyañjanassa atthopi sunayo hoti." "There are two things, O monks, which A. N. 1. 2. 21, Adhikaranavagga make the Truth-based Dhamma endure for a long time, without any distortion and without (fear of) eclipse. Which two? Proper placement of words and their natural interpretation. Words properly placed help also in their natural interpretation.” ...ye vo mayā dhammā abhiññā desitā, tattha sabbeheva sangamma samăgamma atthena attham byañjanena byañjanam sangāyitabbam na vivaditabbam, yathayidam brahmacariyam addhaniyam assa ciratthitikam... ...the dhammas (truths) which I have D. N. 3.177, Pāsādikasutta taught to you after realizing them with my super-knowledge, should be recited by all, in concert and without dissension, in a uniform version collating meaning with meaning and wording with wording. In this way, this teaching with pure practice will last long and endure for a long time... 15 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Present Text The Dīgha Nikāya is an important collection from the perspective of meditation practice. It contains thirty-four important long discourses of the Buddha, divided into three sections—the Sīlakkhandhavagga, Mahāvagga and Pāthikavagga. In these discourses a lot of material related to sila, samādhi and pañña is available. Various aspects of practice have been elucidated by means of similes drawn from familiar objects and the everyday life of the times. The Buddha's tcachings were simple and endearing. His distinctive style was self-explanatory but, still, in order to make the Dhamma all the more lucid, he introduced the use of athakathā (commentaries), such as the Caļaniddesa and the Mahāniddesa. These were recited, along with the discourses of the Buddha, at the first Dhamma Council. In time the other atthakathā commenting on all his discourses came into being. When Ven. Mahinda conveyed the words of the Buddha to Sri Lanka he also took the atthakathā with him. The Sinhalese monks preserved these atthakathā in their own language. Later on, when they had been lost in India, Ven. Buddhaghosa was able to translate them back to Pāli, during the middle of the fifth century A.D. He then compiled the commentary on the Digha Nikāya named Sumangalavilāsini in three volumes to help clarify its meaning. We sincerely hope that this publication, Mahāvagga-Aythakathā will provide immense benefit to practitioners of Vipassana as well as research scholars. Director, Vipassana Research Institute, Igatpuri, India. 17 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Pali alphabets in Devanagari and Roman characters: Vowels: अ a आ ā इ i ई Consonants with Vowel अ (a ) : क ka ग ga च ज ja ट त ख्य BB B ग्व च्च ञ्च ड No. ण्य त्व द्व न्द न्ह भ म्भ pa य र ra ya One nasal sound (niggahita) : अं am Vowels in combination with consonants “k” and “kh” : (exceptions: रुru, रूrū) क ka का ka kha खा khā कि ki की ki कु ku कू ku के ke ख खि khi खी khi khu खे Conjunct-consonants: क्ख kkha क्क kka व्ह स्त्र ca ह्म ta ta १ 1 khya gva cca ख kha छ cha ñca dda tha थ tha फ pha nya tva dva nda nha bbha mbha yha stra hma २ 2 3 da द da a ba ल la ङ्क nka च्छ ccha ncha ड्ड ddha vụ nha द्द dda क्य kya ग्ग ख्व khva dhya न्द्र ndra प्ppa ब्य bya म्म ल्ल lla स्र sna ह्य hya ३ 3 mma घ gha झ jha dha धdha भ bha ४4 व va gga ह्व nkha ज्ज jja ञ्ज ñja ण्ट nta त्त ब्र tta addha ध्व dhva न्ध ndha फ ppha bra म्य mya ल्य lya स्य sya hva ५5 उ u 19 स sa खु ङ na ञ ña ण न म ६ 6 na ऊūए ओ na ma क्र kra घggha वय nkhya ज्झ jjha ñjha ntha त्थ ttha द्म dma न्त nta न प्य ssa nna pya म्mpa म्ह mha ल्हlha स्स हlha खू ha ७ 7 khū ळ la क्ल kla ग्य gya nga 5 ñña दृtta ण्ड nda त्य tya द्य dya न्त्व ntva न्य nya प्ल pla म्फ mpha य्य yya व्ह vha स्म ८ 8 sma khe ९ 9 O को ko खो kho क्व kva ग्र gra ngha ञ्हñha ttha ण्ण nna त्र tra द्र dra न्थ ntha न्व nva ब्ब bba म्ब mba व्य vya स्त sta स्व sva ०० Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Notes on the pronunciation of Pāli Pāli was a dialect of northern India in the time of Gotama the Buddha. The earliest known script in which it was written was the Brāhmi script of the third century B.C. After that it was preserved in the scripts of the various countries where Pāli was maintained. In Roman script, the following set of diacritical marks has been established to indicate the proper pronunciation. The alphabet consists of forty-one characters: eight vowels, thirty-two consonants and one nasal sound (niggahita). Vowels (a line over a vowel indicates that it is a long vowel): a - as the "a" in about ā - as the "a" in father i - as the “”in mint i - as the "ee" in see u - as the “u” in put ū - as the “oo” in cool e is pronounced as the "ay” in day, except before double consonants when it is pronounced as the “e” in bed: deva, mettā; o is pronounced as the "o" in no, except before double consonants when it is pronounced slightly shorter: Loka, photthabba. Consonants are pronounced mostly as in English. g - as the "g" in get C - soft like the "ch" in church V - a very soft -v- or -WAll aspirated consonants are pronounced with an audible expulsion of breath following the normal unaspirated sound. th - not as in 'three’; rather 't' followed by 'h' (outbreath) ph - not as in 'photo’; rather 'p' followed by 'h' (outbreath) The retroflex consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tip of the tongueturned back; and I is pronounced with the tongue retroflexed, almost a combined ‘rl sound. The dental consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tongue touching the upper front teeth. The nasal sounds: n - guttural nasal, like -ng- as in singer ñ - as in Spanish señor n - with tongue retroflexed m - as in hung, ring Double consonants are very frequent in Pāli and must be strictly pronounced as long consonants, thus -nn-is like the English 'nn' in "unnecessary”. 20 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-सूची अ० नि० = अत्तरनिकाय अट्ठ = अट्ठकथा अनु टी० = अनुटीका अप० = अपदान अभि० टी० = अभिनवटीका इतिवु० = इतिवृत्तक उदा० = उदान कङ्घा० टी० = कलावितरणी टीका कथाव० = कथावत्धु खु०नि० = खुद्दकनिकाय खु० पा० = खुद्दकपाठ चरिया० पि० = चरियापिटक चूळनि० = चूळनिहेस चूळव० = चूळवग्ग जा० = जातक टी० = टीका थेरगा०=थेरगाथा थेरीगा० =थेरीगाथा दी०नि० = दीघनिकाय ध०प० = धम्मपद ध० स० = धम्मसङ्गणी धातु०-धातुकथा नेत्ति० = नेत्तिपकरण पटि० म० = पटिसम्भिदामग्ग पट्ठा० = पट्ठान परि० = परिवार पाचि० = पाचित्तिय पारा० = पाराजिक पु० टी० = पुराणटीका पु० प० = पुग्गलपत्ति पे० व० = पेतवत्थु पेटको० = पेटकोपदेस बु० वं० = बुद्धवंस म० नि० = मज्झिमनिकाय महाव० = महावग्ग महानि० = महानिद्देस मि० प० = मिलिन्दपह मूल टी० = मूलटीका यम० = यमक वि०व० - विमानवत्थु वि० वि० टी० = विमतिविनोदनी टीका वि० सङ्ग० अट्ठ० = विनयसङ्गह अट्ठकथा विनय वि० टी० = विनयविनिच्छय टीका विभं० = विभङ्ग विसुद्धि० = विसुद्धिमग्ग सं० नि० = संयुत्तनिकाय सारत्थ० टी० = सारत्थदीपनी टीका सु० नि० = सुत्तनिपात Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सुमङ्गलविलासिनी दुतियो भागो महावग्गट्ठकथा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ।। दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा १. एवं मे सुतं... पे०... करेरिकुटिकायन्ति महापदानसुत्तं । तत्रायं अपुब्बपदवण्णना करेरिकुटिकायन्ति करेरीति वरुणरुक्खस्स नामं, करेरिमण्डपो तस्सा कुटिकाय द्वारे ठितो, तस्मा "करेरिकुटिका" ति वुच्चति, यथा कोसम्बरुक्खस्स द्वारे ठितत्ता ‘“कोसम्बकुटिका "ति । अन्तोजेतवने किर करेरिकुटि कोसम्बकुटि गन्धकुटि सलळागारन्ति चत्तारि महागेहानि, एकेकं सतसहस्सपरिच्चागेन निप्फन्नं । तेसु सलळागारं रञ पसेनदिना कारितं, सेसानि अनाथपिण्डिकेन कारितानि । इति भगवा अनाथपिण्डिकेन गहपतिना थम्भानं उपरि कारिताय देवविमानकप्पाय करेरिकुटिका - १. महापदानसुत्तवण्णना पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तकथा 1 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.१-१) विहरति । पच्छाभत्तन्ति एकासनिकखलुपच्छाभत्तिकानं पातोव भुत्तानं अन्तोमज्झन्हिकेपि पच्छाभत्तमेव। इध पन पकतिभत्तस्स पच्छतो "पच्छाभत्त"न्ति अधिप्पेतं । पिण्डपातपटिक्कन्तानन्ति पिण्डपाततो पटिक्कन्तानं, भत्तकिच्चं निट्टपेत्वा उठ्ठितानन्ति अत्थो । करेरिमण्डलमाळेति तस्सेव करेरिमण्डपस्स अविदूरे कताय निसीदनसालाय । सो किर करेरिमण्डपो गन्धकुटिकाय च सालाय च अन्तरे होति, तस्मा गन्धकुटीपि करेरिकुटिकापि सालापि - "करेरिमण्डलमाळो''ति वुच्चति । पुब्बेनिवासपटिसंयुत्ताति “एकम्पि जाति, द्वेपि जातियो"ति एवं विभत्तेन पुब्बेनिवुत्थक्खन्धसन्तानसङ्घातेन पुब्बेनिवासेन सद्धिं योजेत्वा पवत्तिता । धम्मीति धम्मसंयुत्ता । उदपादीति अहो अच्छरियं दसबलस्स पुब्बेनिवासजाणं, पुब्बेनिवासं नाम के अनुस्सरन्ति, के नानुस्सरन्तीति । तित्थिया अनुस्सरन्ति, सावका च पच्चेकबुद्धा च बुद्धा च अनुस्सरन्ति । कतरतित्थिया अनुस्सरन्ति ? ये अग्गप्पत्तकम्मवादिनो, तेपि चत्तालीसंयेव कप्पे अनुस्सरन्ति, न ततो परं। सावका कप्पसतसहस्सं अनुस्सरन्ति । द्वे अग्गसावका असङ्ख्येय्यञ्चेव कप्पसतसहस्सञ्च । पच्चेकबुद्धा द्वे असङ्ख्येय्यानि कप्पसतसहस्सञ्च । बुद्धानं पन एत्तकन्ति परिच्छेदो नत्थि, यावतकं आकङ्घन्ति, तावतकं अनुस्सरन्ति । तित्थिया खन्धपटिपाटिया अनुस्सरन्ति, पटिपाटिं मुञ्चित्वा न सक्कोन्ति । पटिपाटिया अनुस्सरन्तापि असञभवं पत्वा खन्धप्पवत्तिं न पस्सन्ति, जाले पतिता कुण्ठा विय, कूपे पतिता पङ्गुळा विय च होन्ति । ते तत्थ ठत्वा “एत्तकमेव, इतो परं नत्थी''ति दिहिँ गण्हन्ति । इति तित्थियानं पुब्बेनिवासानुस्सरणं अन्धानं यट्ठिकोटिगमनं विय होति । यथा हि अन्धा यट्टिकोटिग्गाहके सतियेव गच्छन्ति, असति तत्थेव निसीदन्ति, एवमेव तित्थिया खन्धपटिपाटियाव अनुस्सरितुं सक्कोन्ति, पटिपाटिं विस्सज्जेत्वा न सक्कोन्ति । सावकापि खन्धपटिपाटियाव अनुस्सरन्ति, असञभवं पत्वा खन्धप्पवत्तिं न पस्सन्ति । एवं सन्तेपि ते वट्टे संसरणकसत्तानं खन्धानं अभावकालो नाम नत्थि । असञ्जभवे पन पञ्चकप्पसतानि पवत्तन्तीति तत्तकं कालं अतिक्कमित्वा बुद्धेहि दिन्ननये ठत्वा परतो अनुस्सरन्ति; सेय्यथापि आयस्मा सोभितो । द्वे अग्गसावका पन पच्चेकबुद्धा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.२-३-४) पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तकथा mr | च चुतिपटिसन्धिं ओलोकेत्वा अनुस्सरन्ति । बुद्धानं चुतिपटिसन्धिकिच्चं नत्थि, यं यं ठानं पस्सितुकामा होन्ति, तं तदेव पस्सन्ति । तित्थिया च पुब्बेनिवासं अनुस्सरमाना अत्तना दिट्ठकतसुतमेव अनुस्सरन्ति । तथा सावका च पच्चेकबुद्धा च । बुद्धा पन अत्तना वा परेहि वा दिट्टकतसुतं सब्बमेव अनुस्सरन्ति । तिथियानं पुब्बेनिवासत्राणं खज्जोपनकओभाससदिसं, सावकानं पदीपोभाससदिसं, अग्गसावकानं ओसधितारकोभाससदिसं, पच्चेकबुद्धानं चन्दोभाससदिसं, बुद्धानं सरदसूरियमण्डलोभाससदिसं। तस्स एत्तकानि जातिसतानि जातिसहस्सानि जातिसतसहस्सानीति वा एत्तकानि कप्पसतानि कप्पसहस्सानि कप्पसतसहस्सानीति वा नत्थि, यं किञ्चि अनुस्सरन्तस्स नेव खलितं, न पटिघातं होति, आवज्जनपटिबद्धमेव आकङ्घमनसिकारचित्तुप्पादपटिबद्धमेव होति । दुब्बलपत्तपुटे वेगक्खित्तनाराचो विय, सिनेरुकूटे विस्सट्ठइन्दवजिरं विय च असज्जमानमेव गच्छति। “अहो महन्तं भगवतो पुब्बेनिवासञआणन्ति एवं भगवन्तंयेव आरब्भ कथा उप्पन्ना, जाता पवत्ताति अत्थो । तं सब्बम्पि सङ्केपतो दस्सेतुं “इतिपि पुब्बेनिवासो, इतिपि पुब्वेनिवासो''ति एत्तकमेव पाळियं वुत्तं । तत्थ इतिपीति एवम्पि । । २-३. अस्सोसि खो...पे०... अथ भगवा अनुप्पत्तोति एत्थ यं वत्तब्बं, तं ब्रह्मजालसुत्तवण्णनायं वुत्तमेव । अयमेव हि विसेसो- तत्थ सब्बञ्जतञाणेन अस्सोसि, इध दिब्बसोतेन । तत्थ च वण्णावण्णकथा विप्पकता. इध पब्बेनिवासकथा । तस्मा भगवा"इमे भिक्खू मम पुब्बेनिवासत्राणं आरब्भ गुणं थोमेन्ति, पुब्बेनिवासजाणस्स पन मे निप्फत्तिं न जानन्ति; हन्द नेसं तस्स निप्फत्तिं कथेत्वा दस्सामी''ति आगन्त्वा पकतियापि बुद्धानं निसीदित्वा धम्मदेसनत्थमेव ठपिते तङ्खणे भिक्खूहि पप्फोटेत्वा दिन्ने वरबुद्धासने निसीदित्वा “काय नुत्थ, भिक्खवेति पुच्छाय च "इध, भन्ते''तिआदिपटिवचनस्स च परियोसाने तेसं पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तं धम्मिं कथं कथेतुकामो इच्छेय्याथ नोतिआदिमाह । तत्थ इच्छेय्याथ नोति इच्छेय्याथ नु। अथ नं पहट्ठमानसा भिक्खू याचमाना एतस्स भगवातिआदिमाहंसु । तत्थ एतस्साति एतस्स धम्मिकथाकरणस्स । ४. अथ भगवा तेसं याचनं गहेत्वा कथेतुकामो “तेन हि, भिक्खवे, सुणाथा'"ति Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्टकथा (१.४-४) ते सोतावधारणसाधुकमनसिकारेसु नियोजत्वा अङ्ग्रेसं असाधारणं छिन्नवटुमकानुस्सरणं पकासेतुकामो इतो सो, भिक्खवेतिआदिमाह । तत्थ यं विपस्सीति यस्मिं कप्पे विपस्सी । अयहि 'यन्ति सद्दो "यं मे, भन्ते, देवानं तावतंसानं सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं, आरोचेमि तं, भगवतो''तिआदीसु (दी० नि० २.२०३) पच्चत्तवचने दिस्सति । “यं तं अपुच्छिम्ह अकित्तयी नो, अझं तं पुच्छाम तदिच ब्रूही"तिआदीसु (सु० नि० ८८१) उपयोगवचने । “अट्ठानमेतं, भिक्खवे, अनवकासो, यं एकिस्सा लोकधातुया''तिआदीसु (अ० नि० १.१.२७७) करणवचने । इध पन भुम्मत्थेति दट्टब्बो । तेन वुत्तं - “यस्मिं कप्पे''ति । उदपादीति दससहस्सिलोकधातुं उन्नादेन्तो उप्पज्जि । भद्दकप्पेति पञ्चबुद्धप्पादपटिमण्डितत्ता सुन्दरकप्पे सारकप्पेति भगवा इमं कप्पं थोमेन्तो एवमाह । यतो पट्ठाय किर अम्हाकं भगवता अभिनीहारो कतो, एतस्मिं अन्तरे एककप्पेपि पञ्च बुद्धा निब्बत्ता नाम नत्थि । अम्हाकं भगवतो अभिनीहारस्स पुरतो पन तण्हङ्करो, मेधङ्करो, सरणङ्करो, दीपङ्करोति चत्तारो बुद्धा एकस्मिं कप्पे निब्बत्तिंसु । तेसं ओरभागे एकं असङ्ख्येय्यं बुद्धसुझमेव अहोसि ।। असङ्ख्येय्यकप्पपरियोसाने पन कोण्डञो नाम बुद्धो एकोव एकस्मिं कप्पे उप्पन्नो । ततोपि असङ्ख्येय्यं बुद्धसुझमेव अहोसि । असङ्ख्येय्यकप्पपरियोसाने मङ्गलो, सुमनो, रेवतो, सोभितोति चत्तारो बुद्धा एकस्मिं कप्पे उप्पन्ना । ततोपि असङ्ख्येय्यं बुद्धसुझमेव अहोसि । असङ्ख्येय्यकप्पपरियोसाने पन इतो कप्पसतसहस्साधिकस्स असङ्खयेय्यस्स उपरि अनोमदस्सी, पदुमो, नारदोति तयो बुद्धा एकस्मिं कप्पे उप्पन्ना । ततोपि असङ्ख्येय्यं बुद्धसुझमेव अहोसि । असङ्खयेय्यकप्पपरियोसाने पन इतो कप्पसतसहस्सानं उपरि पदुमुत्तरो भगवा एकोव एकस्मिं कप्पे उप्पन्नो । तस्स ओरभागे इतो तिंसकप्पसहस्सानं उपरि सुमेधो, सुजातोति द्वे बुद्धा एकस्मिं कप्पे उप्पन्ना। ततो ओरभागे इतो अट्ठारसन्नं कप्पसहस्सानं उपरि पियदस्सी, अत्थदस्सी, धम्मदस्सीति तयो बुद्धा एकस्मिं कप्पे उप्पन्ना । अथ इतो चतुनवुतिकप्पे सिद्धत्थो नाम बुद्धो एकोव एकस्मिं कप्पे उप्पन्नो। इतो द्वे नवुतिकप्पे तिस्सो, फुस्सोति द्वे बुद्धा एकस्मिं कप्पे उप्पन्ना। इतो एकनवुतिकप्पे विपस्सी भगवा उप्पन्नो । इतो एकतिंसे कप्पे सिखी, वेस्सभूति द्वे बुद्धा उप्पन्ना । इमस्मिं भद्दकप्पे ककुसन्धो, कोणागमनो, कस्सपो, गोतमो अम्हाकं सम्मासम्बुद्धोति चत्तारो बुद्धा उप्पन्ना, मेत्तेय्यो उप्पज्जिस्सति । एवमयं कप्पो पञ्चबुद्धप्पादपटिमण्डितत्ता सुन्दरकप्पो सारकप्पोति भगवा इमं कप्पं थोमेन्तो एवमाह । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.४-४) पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तकथा किं पनेतं बुद्धानंयेव पाकटं होति - “इमस्मिं कप्पे एत्तका बुद्धा उप्पन्ना वा उप्पज्जिस्सन्तीति वा''ति, उदाहु अ सम्पि पाकटं होतीति ? अञसम्पि प्राकटं होति । केसं ? सुद्धावासब्रह्मानं । कप्पसण्ठानकालस्मिहि एकमसङ्ख्येय्यं एकङ्गणं हुत्वा ठिते लोकसन्निवासे लोकस्स सण्ठानत्थाय देवो वस्सितुं आरभति । आदितोव अन्तरट्ठके हिमपातो विय होति । ततो तिलमत्ता कणमत्ता तण्डुलमत्ता मुग्ग-मास-बदर-आमलकएळालुक-कुम्भण्ड-अलाबुमत्ता उदकधारा हुत्वा अनुक्कमेन उसभद्वेउसभअड्डगावुतगावुतद्वेगावुतअड्ढयोजनयोजनद्वियोजन...पे०... योजनसतयोजनसहस्सयोजनसतसहस्समत्ता हुत्वा कोटिसतसहस्सचक्कवाळब्भन्तरे याव अविनडुब्रह्मलोका पूरेत्वा तिट्ठन्ति । अथ तं उदकं अनुपुब्बेन भस्सति, भस्सन्ते उदके पकतिदेवलोकट्ठानेसु देवलोका सण्ठहन्ति, तेसं सण्ठहनविधानं विसुद्धिमग्गे पुब्बेनिवासकथायं वुत्तमेव । मनुस्सलोकसण्ठहनट्टानं पन पत्ते उदके धमकरणमुखे पिहिते विय वातवसेन तं उदकं सन्तिट्ठति, उदकपिढे उप्पलिनिपण्णं विय पथवी सण्ठहति । महाबोधिपल्लङ्को विनस्समाने लोके पच्छा विनस्सति, सण्ठहमाने पठमं सण्ठहति । तत्थ पुब्बनिमित्तं हुत्वा एको पदुमिनिगच्छो उप्पज्जति, तस्स सचे तस्मिं कप्पे बुद्धो निब्बत्तिस्सति, पुष्पं उप्पज्जति । नो चे, नुप्पज्जति । उप्पज्जमानञ्च सचे एको बुद्धो निब्बत्तिस्सति, एकं उप्पज्जति । सचे द्वे, तयो, चत्तारो, पञ्च बुद्धा निब्बत्तिस्सन्ति, पञ्च उप्पज्जन्ति । तानि च खो एकस्मिंयेव नाळे कणिकाबद्धानि हुत्वा । सुद्धावासब्रह्मानो “आयाम, मयं मारिसा, पुब्बनिमित्तं पस्सिस्सामा"ति महाबोधिपल्लङ्कट्ठानं आगच्छन्ति, बुद्धानं अनिब्बत्तनकप्पे पुष्कं न होति । ते पन अपुप्फितगच्छं दिस्वा – “अन्धकारो वत भो लोको भविस्सति, मता मता सत्ता अपाये पूरेस्सन्ति, छ देवलोका नव ब्रह्मलोका सुझा भविस्सन्ती''ति अनत्तमना होन्ति । पुप्फितकाले पन पुष्पं दिस्वा - “सब्ब बोधिसत्तेसु मातुकुच्छिं ओक्कमन्तेसु निक्खमन्तेसु सम्बुज्झन्तेसु धम्मचक्कं पवत्तेन्तेसु यमकपाटिहारियं करोन्तेसु देवोरोहनं करोन्तेसु आयुसङ्घारं ओस्सज्जन्तेसु परिनिब्बायन्तेसु दससहस्सचक्कवाळकम्पनादीनि पाटिहारियानि दक्खिस्सामा"ति च “चत्तारो अपाया परिहायिस्सन्ति, छ देवलोका नव ब्रह्मलोका परिपूरेस्सन्तीति च अत्तमना उदानं उदानेन्ता अत्तनो अत्तनो ब्रह्मलोकं गच्छन्ति । इमस्मिं भद्दकप्पे पञ्च पदुमानि उप्पज्जिंसु । तेसं निमित्तानं आनुभावेन चत्तारो बुद्धा उप्पन्ना, पञ्चमो उप्पज्जिस्सति । सुद्धावासब्रह्मानोपि तानि पदुमानि दिस्वा इममत्थं जानिंसु । तेन वुत्तं - "अञसम्पि पाकटं होती''ति । 5 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा आयुपरिच्छेदवण्णना ५. इति भगवा "इतो सो, भिक्खवे "तिआदिना नयेन कप्पपरिच्छेदवसेन पुब्बेनिवासं दस्सेत्वा इदानि तेसं बुद्धानं जातिपरिच्छेदादिवसेन दस्सेतुं विपस्सी, भिक्खवेतिआदिमाह । तत्थ आयुपरिच्छेदे परित्तं लहुकन्ति उभयमेतं अप्पकस्सेव वेवचनं । यहि अप्पकं, तं परित्तञ्चैव लहुकञ्च होति । अप्पं वा भिय्योति वस्ससततो वा उपरि अप्पं, अञ्ञ वस्ससतं अपत्वा वीसं वा तिंसं वा चत्तालीसं वा पण्णासं वा सट्ठि वा वस्सानि जीवति । एवं दीघायुको पन अतिदुल्लभो, असुको किर एवं चिरं जीवतीति तत्थ तत्थ गन्त्वा दट्ठब्बो होति । तत्थ विसाखा उपासिका वीसवस्ससतं जीवति, तथा पोक्खरसाति ब्राह्मणो, ब्रह्मायु ब्राह्मणो, सेलो ब्राह्मणो, बावरियब्राह्मणो, आनन्दत्थेरो, महाकस्सपत्थेरोति । अनुरुद्धत्थेरो पन वस्ससतञ्चेव पण्णासञ्च वस्सानि, बाकुलत्थेरो वस्ससतञ्चैव सट्टि च वस्सानि । अयं सब्बदीघायुको । सोपि द्वे वस्ससतानि न जीवति । विपस्सी आयो पन सब्बे प बोधिसत्ता मेत्तापुब्बभागेन सोमनस्ससहगतञाणसम्पयुत्तअसङ्घारिकचित्तेन मातुकुच्छिस्मिं पटिसन्धिं गहिंसु । तेन चित्तेन गहिताय पटिसन्धिया असङ्ख्येय्यं आयु, इति सब्बे बुद्धा असङ्ख्येय्यायुका । ते कस्मा असङ्ख्येय्यं न अट्ठसु ? उतुभोजनविपत्तिया । उतुभोजनवसेन हि आयु हायतिपि वड्डतिपि । (१.५-५) तत्थ यदा राजानो अधम्मिका होन्ति, तदा उपराजानो, सेनापति, सेट्ठि, सकलनगरं, सकलरट्टं अधम्मिकमेव होति; अथ तेसं आरक्खदेवता, तासं देवतानं मित्ता भूमट्ठदेवता, तासं देवतानं मित्ता आकासट्टकदेवता, आकासट्ठकदेवतानं मित्ता उण्हवलाहका देवता, तासं मित्ता अब्भवलाहका देवता, तासं मित्ता सीतवलाहका देवता, तासं मित्ता वस्सवलाहका देवता, तासं मित्ता चातुमहाराजिका देवता, तासं मित्ता तावतिंसा देवता, तासं मित्ता यामा देवताति एवमादि । एवं याव भवग्गा ठपेत्वा अरियसावके सब्बा देवब्रह्मपरिसापि अधम्मिकाव होन्ति । तासं अधम्मिकताय विसमं चन्दिमसूरिया परिहरन्ति, वातो यथामग्गेन न वायति, अयथामग्गेन वायन्तो आकासक विमानानि खोभेति, विमानेसु खोभितेसु देवतानं कीळनत्थाय चित्तानि न नमन्ति देवतानं कीळनत्थाय चित्तेसु 6 , Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुपरिच्छेदवण्णना अनमन्तेसु सीतुण्हभेदो उतु यथाकालेन न सम्पज्जति, तस्मिं असम्पज्जन्ते न सम्मा देवो वस्सति, कदाचि वस्सति, कदाचि न वस्सति; कत्थचि वस्सति, कत्थचि न वस्सति, वस्सन्तोपि वप्पकाले अङ्कुरकाले नाळकाले पुप्फकाले खीरग्गहणादिकालेसु यथा यथा सस्सानं उपकारो न होति, तथा तथा वस्सति च विगच्छति च, तेन सस्सानि विसमपाकानि होन्ति, विगतगन्धवण्णरसादिसम्पन्नानि । एकभाजने पक्खित्ततण्डुलेसुपि एकस्मिं पदेसे भत्तं उत्तण्डुलं होति, एकस्मिं अतिकिलिन्नं, एकस्मिं समपाकं । तं परिभुत्तं कुच्छियम्पि तीहाकारेहि पच्चति । तेन सत्ता बह्वाबाधा चेव होन्ति, अप्पायुका च । एवं ताव उतुभोजनवसेन आयु हायति । यदा पन राजानो धम्मिका होन्ति, तदा उपराजानोपि धम्मिका होन्तीति पुरिमनयेनेव याव ब्रह्मलोका सब्बेपि धम्मिका होन्ति । तेसं धम्मिकत्ता समं चन्दिमसूरिया परिहरन्ति, यथामग्गेन वातो वायति, यथामग्गेन वायन्तो आकासट्टकविमानानि न खोभेति, तेसं अखोभा देवतानं कीळनत्थाय चित्तानि नमन्ति । एवं कालेन उतु सम्पज्जति, देवो सम्मा वस्सति, वप्पकालतो पट्ठाय सस्सानं उपकारं करोन्तो काले वस्सति, काले विगच्छति, तेन सस्सानि समपाकानि सुगन्धानि सुवण्णानि सुरसानि ओजवन्तानि होन्ति, तेहि सम्पादितं भोजनं परिभुत्तम्पि सम्मा परिपाकं गच्छति, तेन सत्ता अरोगा दीघायुका होन्ति । एवं उतुभोजनवसेन आयु वड्डति । तत्थ विपस्सी भगवा असीतिवस्ससहस्सायुककाले निब्बत्तो, सिखी सत्ततिवस्ससहस्सायुककालेति इदं अनुपुब्बेन परिहीनसदिसं कतं, न पन एवं परिहीनं, वड्डित्वा वड्डित्वा परिहीनन्ति वेदितब्बं । कथं ? इमस्मिं ताव कप्पे ककुसन्धो भगवा चत्तालीसवस्ससहस्सायुककाले निब्बत्तो, आयुप्पमाणं पञ्च कोट्ठासे कत्वा चत्तारि ठत्वा पञ्चमे विज्जमानेयेव परिनिब्बुतो। तं आयु परिहायमानं दसवस्सकालं पत्वा पुन वड्डमानं असङ्ख्येय्यं हुत्वा ततो परिहायमानं तिंसवस्ससहस्सकाले ठितं; तदा कोणागमनो भगवा निब्बत्तो। तस्मिम्पि तथैव परिनिब्बते तं आयु दसवस्सकालं पत्वा पुन वड्डमानं असङ्ख्येय्यं हुत्वा परिहायित्वा वीसतिवस्ससहस्सकाले ठितं; तदा कस्सपो भगवा निब्बत्तो। तस्मिम्पि तथैव परिनिब्बुते तं आयु दसवस्सकालं पत्वा पुन वड्वमानं असङ्ख्येय्यं हुत्वा परिहायित्वा वस्ससतकालं पत्तं, अथ अम्हाकं सम्मासम्बुद्धो निब्बत्तो । एवं अनुपुब्बेन परिहायित्वा परिहायित्वा वड्डित्वा वड्डित्वा परिहीनन्ति वेदितब्बं । तत्थ यं यं Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.८-८) आयुपरिमाणेसु मनुस्सेसु बुद्धा निब्बत्तन्ति, तेसम्पि तं तदेव आयुपरिमाणं होतीति वेदितब्बं । आयुपरिच्छेदवण्णना निहिता । बोधिपरिच्छेदवण्णना ८. बोधिपरिच्छेदे पन पाटलिया मूलेति पाटलिरुक्खस्स हेट्ठा । तस्सा पन पाटलिया खन्धो तं दिवसं पण्णासरतनो हुत्वा अब्भुग्गतो, साखा पण्णासरतनाति उब्बेधेन रतनसतं अहोसि । तं दिवसञ्च सा पाटलि कण्णिकाबद्धेहि विय पुप्फेहि मूलतो पट्ठाय एकसञ्छन्ना अहोसि, दिब्बगन्धं वायति । न केवलञ्च तदा अयमेव पुप्फिता, दससहस्सचक्कवाळे सब्बपाटलियो पुष्फिता। न केवलञ्च पाटलियो, दससहस्सचक्कवाळे सब्बरुक्खानं खन्धेसु खन्धपदुमानि, साखासु साखापदुमानि, लतासु लतापदुमानि, आकासे आकासपदुमानि पुप्फितानि, पथवितलं भिन्दित्वापि महापदुमानि उहितानि । महासमुद्दोपि पञ्चवण्णेहि पदुमेहि नीलुप्पलरत्तुप्पलेहि च सञ्छन्नो अहोसि। सकलदससहस्सचक्कवाळं धजमालाकुलं तत्थ तत्थ निबद्धपुप्फदामविस्सट्ठमालागुळविप्पकिण्णं नानावण्णकुसुमसमुज्जलं नन्दनवनचित्तलतावनमिस्सकवनफारुसकवनसदिसं अहोसि । पुरथिमचक्कवाळमुखवट्टियं उस्सितद्धजा पच्छिमचक्कवाळमुखवट्टि अभिहनन्ति । पच्छिमदक्खिणउत्तरचक्कवाळमुखवट्टियं उस्सितद्धजा दक्खिणचक्कवाळमुखवट्टि अभिहनन्ति । एवं अञ्चमझसिरीसम्पत्तानि चक्कवाळानि अहेसुं। अभिसम्बुद्धोति सकलं बुद्धगुणविभवसिरिं पटिविज्झमानो चत्तारि सच्चानि अभिसम्बुद्धो । “सिखी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो पुण्डरीकस्स मूले अभिसम्बुद्धो''तिआदीसु पि इमिनाव नयेन पदवण्णना वेदितब्बा । एत्थ पन पुण्डरीकोति सेतम्बरुक्खो। तस्सापि तदेव परिमाणं । तं दिवसञ्च सोपि दिब्बगन्धेहि पुप्फेहि सुसञ्छन्नो अहोसि । न केवलञ्च पुप्फेहि, फलेहिपि सञ्छन्नो अहोसि । तस्स एकतो तरुणानि फलानि, एकतो मज्झिमानि फलानि, एकतो नातिपक्कानि फलानि, एकतो सुपक्कानि पक्खित्तदिब्बोजानि विय सुरसानि ओलम्बन्ति । यथा सो, एवं Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.९-९) सावकयुगपरिच्छेदवण्णना सकलदससहस्सचक्कवाळेसु पुफूपगरुक्खा पुप्फेहि, फलूपगरुक्खा फलेहि पटिमण्डिता अहेसुं। सालोति सालरुक्खो। तस्सापि तदेव परिमाणं, तथैव पुप्फसिरीविभवो वेदितब्बो । सिरीसरुक्खेपि एसेव नयो। उदुम्बररुक्खे पुप्फानि नाहेसुं, फलविभूति पनेत्थ अम्बे वुत्तनयाव, तथा निग्रोधे, तथा अस्सत्थे । इति सब्बबुद्धानं एकोव पल्लङ्को, रुक्खा पन अञ्जपि होन्ति । तेसु यस्स यस्स रुक्खस्स मूले चतुमग्गजाणसङ्घातबोधिं बुद्धा पटिविज्झन्ति, सो सो बोधीति बुच्चति । अयं बोधिपरिच्छेदो नाम । सावकयुगपरिच्छेदवण्णना ९. सावकयुगपरिच्छेदे पन खण्डतिस्सन्ति खण्डो च तिस्सो च। तेसु खण्डो एकपितिको कनिट्ठभाता, तिस्सो पुरोहितपुत्तो । खण्डो पञापारमिया मत्थकं पत्तो, तिस्सो समाधिपारमिया मत्थकं पत्तो । अग्गन्ति ठपेत्वा विपस्सिं भगवन्तं अवसेसेहि सद्धिं असदिसगुणताय उत्तमं । भद्दयुगन्ति अग्गत्तायेव भद्दयुगं । अभिभूसम्भवन्ति अभिभू च सम्भवो च। तेसु अभिभू पञापारमिया मत्थकं पत्तो। सिखिना भगवता सद्धिं अरुणवतितो ब्रह्मलोकं गन्त्वा ब्रह्मपरिसाय विविधानि पाटिहारियानि दस्सेन्तो धम्म देसेत्वा दससहस्सिलोकधातुं अन्धकारेन फरित्वा – “किं इदन्ति सञ्जातसंवेगानं ओभासं फरित्वा - “सब्बे मे रूपञ्च पस्सन्तु, सद्दञ्च सुणन्तूति अधिट्टहित्वा - “आरम्भथा'ति गाथाद्वयं (सं० नि० १.१.१८५) भणन्तो सदं सावेसि । सम्भवो समाधिपारमिया मत्थकं पत्तो अहोसि । सोणुत्तरन्ति सोणो च उत्तरो च। तेसुपि सोणो पञापारमिं पत्तो, उत्तरो समाधिपारमिं पत्तो अहोसि । विधुरसञ्जीवन्ति विधुरो च सञ्जीवो च। तेसु विधुरो पञापारमिं पत्तो अहोसि, सजीवो समाधिपारमिं पत्तो। समापज्जनबहुलो रत्तिट्टानदिवाट्टानकटिलेणमण्डपादीस समापत्तिबलेन झायन्तो एकदिवसं अरञ्ने निरोधं समापज्जि, अथ नं वनकम्मिकादयो “मतो''ति सल्लक्खेत्वा झापेसुं। सो यथापरिच्छेदेन समापत्तितो उट्ठाय चीवरानि पप्फोटेत्वा गाम पिण्डाय पाविसि । तदुपादायेव च नं "सञ्जीवो''ति सञ्जानिंसु । भिय्योसुत्तरन्ति भिय्योसो च उत्तरो च। तेसु भिय्योसो पञाय उत्तरो, उत्तरो समाधिना अग्गो अहोसि | तिस्सभारद्वाजन्ति तिस्सो च भारद्वाजो Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा च। तेसु तिस्सो पञ्ञापारमिं पत्तो, भारद्वाजो समाधिपारमिं पत्तो अहोसि । सारिपुत्तमोग्गल्लानन्ति सारिपुत्तो च मोग्गल्लानो च । तेसु सारिपुत्तो पञ्ञविसये, मोग्गल्लानो समाधिविसये अग्गो अहोसि । अयं सावकयुगपरिच्छेदो नाम । सावकसन्निपातपरिच्छेदवण्णना १०. सावकसन्निपातपरिच्छेदे विपस्सिस्स भगवतो पठमसन्निपातो चतुरङ्गिको अहोसि, सब्बे एहिभिक्खू, सब्बे इद्धिया निब्बत्तपत्तचीवरा, सब्बे अनामन्तिताव आगता, इति ते च खो पन्नरसे उपोसथदिवसे । अथ सत्था बीजनिं गत्वा निसिन्नो उपोसथं ओसारेसि । दुतियततियेसुपि एसेव नयो । तथा सेसबुद्धानं सब्बसन्निपातेसु । यस्मा पन अम्हाकं भगवतो पठमबोधियाव सन्निपातो अहोसि, इदञ्च सुत्तं अपरभागे वुत्तं, तस्मा " मय्हं, भिक्खवे, एतरहि एको सावकानं सन्निपातो ति अनिट्टपेत्वा “ अहोसी "ति वृत्तं । १० तत्थ अढळसानि भिक्खुसतानीति पुराणजटिलानं सहस्सं, द्विन्नं अग्गसावकानं परिवारानि अड्ढतेय्यसतानीति अड्डतेळसानि भिक्खुसतानि । तत्थ द्विन्नं अग्गसावकानं अभिनीहारतो पट्ठाय वत्युं कथेत्वा पब्बज्जा दीपेतब्बा । पब्बजितानं पन तेसं महामोग्गल्लानो सत्तमे दिवसे अरहत्तं पत्तो धम्मसेनापति पन्नरसमे दिवसे गिज्झकूटपब्बतमज्झे सूकरखतलेणपब्भारे भागिनेय्यस्स दीघनखपरिब्बाजकस्स सज्जिते धम्मयागे वेदनापरिग्गहसुत्तन्ते (म० नि० २.२०१) देसियमाने देसनं अनुबुज्झमानं आणं पेसेत्वा सावकपारमिञाणं पत्तो । भगवा थेरस्स अरहत्तप्पत्तिं जत्वा वेहासं अब्भुग्गन्त्वा वेळुवनेयेव पच्चट्ठासि । थेरो– “कुहिं नु खो भगवा गतो 'ति आवज्जन्तो वेळुवने पतिट्टितभावं ञत्वा सयम्पि वेहासं अब्भुग्गन्त्वा वेळुवनेयेव पच्चुट्टासि । अथ भगवा पातिमोक्खं ओसारेसि । तं सन्निपातं सन्धाय भगवा- “अड्ढतेळसानि भिक्खुसतानी" ति आह । अयं सावकसन्निपातपरिच्छेदो नाम । उपट्टाकपरिच्छेदवण्णना ११. उपट्टाकपरिच्छेदे पन आनन्दोति निबद्धपट्ठाकभावं सन्धाय वृत्तं । भगवतो हि पठमबोधियं अनिबद्धा उपट्टाका अहेसुं | एकदा नागसमालो पत्तचीवरं गत्वा विचरि, एकदा नागितो, एकदा उपवानो, एकदा सुनक्खत्तो, एकदा चुन्दो समणुद्देसो, एकदा ( १.१०-११) 10 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.११-११) उपट्ठाकपरिच्छेदवण्णना सागतो, एकदा मेघियो । तत्थ एकदा भगवा नागसमालत्थेरेन सद्धिं अद्धानमग्गपटिपन्नो वेधापथं पत्तो । थेरो मग्गा ओक्कम्म- "भगवा, अहं इमिना मग्गेन गच्छामी"ति आह । अथ नं भगवा - “एहि भिक्खु, इमिना मग्गेन गच्छामा''ति आह । सो- “हन्द, भगवा, तुम्हाकं पत्तचीवरं गण्हथ, अहं इमिना मग्गेन गच्छामी''ति वत्वा पत्तचीवरं छमायं ठपेतुं आरद्धो। अथ नं भगवा - “आहर, भिक्खू"ति वत्वा पत्तचीवरं गहेत्वा गतो। तस्सपि भिक्खुनो इतरेन मग्गेन गच्छतो चोरा पत्तचीवरञ्चेव हरिंसु, सीसञ्च भिन्दिंसु । सो- "भगवा इदानि मे पटिसरणं, न अञ्जो''ति चिन्तेत्वा लोहितेन गळितेन भगवतो सन्तिकं अगमासि । “किमिदं भिक्खू''ति च वुत्ते तं पवत्तिं आरोचेसि | अथ नं भगवा -- “मा चिन्तयि, भिक्खु, एतंयेव ते कारणं सल्लक्खेत्वा निवारयिम्हा"ति वत्वा नं समस्सासेसि । एकदा पन भगवा मेघियत्थेरेन सद्धिं पाचीनवंसमिगदाये जन्तुगामं अगमासि । तत्रापि मेघियो जन्तुगामे पिण्डाय चरित्वा नदीतीरे पासादिकं अम्बवनं दिस्वा"भगवा, तुम्हाकं पत्तचीवरं गण्हथ, अहं तस्मिं अम्बवने समणधम्मं करोमी"ति वत्वा भगवता तिक्खत्तुं निवारियमानोपि गन्त्वा अकुसलवितक्केहि उपद्दुतो अन्वासत्तो (अ० नि० ३.९.३; उदान परिच्छेदो ३१ दट्टब्बो)। पच्चागन्त्वा तं पवत्तिं आरोचेसि । तम्पि भगवा- "इदमेव ते कारणं सल्लक्खेत्वा निवारयिम्हा"ति वत्वा अनुपुब्बेन सावत्थिं अगमासि । तत्थ गन्धकुटिपरिवेणे पञत्तवरबुद्धासने निसिन्नो भिक्खुसङ्घपरिवुतो भिक्खू आमन्तेसि -- “भिक्खवे, इदानिम्हि महल्लको, 'एकच्चे भिक्खू इमिना मग्गेन गच्छामा'ति वुत्ते अञ्जेन गच्छन्ति, एकच्चे मय्हं पत्तचीवरं निक्खिपन्ति, मय्हं निबद्धपट्ठाकं एकं भिक्खुं जानाथा"ति । भिक्खून धम्मसंवेगो उदपादि । अथायस्मा सारिपुत्तो उट्ठायासना भगवन्तं वन्दित्वा- “अहं, भन्ते, तुम्हेयेव पत्थयमानो सतसहस्सकप्पाधिकं असङ्ख्येय्यं पारमियो पूरयिं, ननु मादिसो महापञो उपट्ठाको नाम वट्टति, अहं उपट्टहिस्सामी''ति आह । तं भगवा - “अलं सारिपुत्त, यस्सं दिसायं त्वं विहरसि, असुझायेव मे सा दिसा, तव ओवादो बुद्धानं ओवादसदिसो, न मे तया उपट्ठाककिच्चं अत्थी''ति पटिक्खिपि । एतेनेवुपायेन महामोग्गल्लानं आदि कत्वा असीतिमहासावका उट्ठहिंसु । ते सब्बेपि भगवा पटिक्खिपि । आनन्दत्थेरो पन तुण्हीयेव निसीदि । अथ नं भिक्खू एवमाहंसु-- “आवुसो, आनन्द, भिक्खुसङ्घो उपट्टाकट्ठानं याचति, त्वम्पि याचाही''ति । सो आह - “याचित्वा 11 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.११-११) लडुपट्टानं नाम आवुसो कीदिसं होति, किं मं सत्था न पस्सति, सचे रोचिस्सति, आनन्दो मं उपट्ठातूति वक्खती'ति । अथ भगवा – “न, भिक्खवे, आनन्दो अजेन उस्साहेतब्बो, सयमेव जानित्वा मं उपट्टहिस्सती''ति आह । ततो भिक्खू - "उद्धेहि, आवुसो आनन्द, उद्वेहि आवुसो आनन्द, दसबलं उपट्ठाकट्ठानं याचाही''ति आहंसु । थेरो उद्यहित्वा चत्तारो पटिक्खेपे, चतस्सो च आयाचनाति अट्ठ वरे याचि ।। चत्तारो पटिक्खेपा नाम – “सचे मे, भन्ते, भगवा अत्तना लद्धं पणीतं चीवरं न दस्सति, पिण्डपातं न दस्सति, एकगन्धकुटियं वसितुं न दस्सति, निमन्तनं गहेत्वा न गमिस्सति, एवाहं भगवन्तं उपट्ठहिस्सामी''ति वत्वा - "किं पनेत्थ, आनन्द, आदीनवं पस्ससी"ति वुत्ते - “सचाहं, भन्ते, इमानि वत्थूनि लभिस्सामि, भविस्सन्ति वत्तारो'आनन्दो दसबलेन लद्धं पणीतं चीवरं परिभुञ्जति, पिण्डपातं परिभुञ्जति, एकगन्धकुटियं वसति, एकतो निमन्तनं गच्छति, एतं लाभं लभन्तो तथागतं उपट्ठाति, को एवं उपट्ठहतो भारो'ति'' इमे चत्तारो पटिक्खेपे याचि । चतस्सो आयाचना नाम - "सचे, भन्ते, भगवा मया गहितनिमन्तनं गमिस्सति, सचाहं तिरोरट्ठा तिरोजनपदा भगवन्तं दटुं आगतं परिसं आगतक्खणे एव भगवन्तं दस्सेतुं लच्छामि, यदा मे का उप्पज्जति, तस्मिंयेव खणे भगवन्तं उपसङ्कमितुं लच्छामि, यं भगवा मय्हं परम्मुखा धम्म देसेति, तं आगन्त्वा महं कथेस्सति, एवाहं भगवन्तं उपट्टहिस्सामीति वत्वा – “कं पनेत्थ, आनन्द, आनिसंसं पस्ससी''ति वुत्ते -- “इध, भन्ते, सद्धा कुलपुत्ता भगवतो ओकासं अलभन्ता मं एवं वदन्ति - 'स्वे, भन्ते आनन्द, भगवता सद्धिं अम्हाकं घरे भिक्खं गण्हेय्याथा'ति, सचे भन्ते भगवा तत्थ न गमिस्सति, इच्छितक्खणेयेव परिसं दस्सेतुं, कङ्खञ्च विनोदेतुं ओकासं न लच्छामि, भविस्सन्ति वत्तारो- 'किं आनन्दो दसबलं उपट्ठाति, एत्तकम्पिस्स अनुग्गहं भगवा न करोती'ति । भगवतो च परम्मुखा मं पुच्छिस्सन्ति - 'अयं, आवुसो आनन्द, गाथा, इदं सुत्तं, इदं जातकं, कत्थ देसित न्ति । सचाहं तं न सम्पादयिस्सामि, भविस्सन्ति वत्तारो - ‘एत्तकम्पि, आवुसो, न जानासि, कस्मा त्वं छाया विय भगवन्तं अविजहन्तो दीघरत्तं विचरसी'ति । तेनाहं परम्मुखा देसितस्सपि धम्मस्स पुन कथनं इच्छामी''ति इमा चतस्सो आयाचना याचि । भगवापिस्स अदासि | एवं इमे अट्ठ वरे गहेत्वा निबद्धुपट्ठाको अहोसि। तरसेव ठानन्तरस्सत्थाय 12 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१२-१२) सम्बहुलवारकथावण्णना ३ कप्पसतसहस्सं पूरितानं पारमीनं फलं पापुणीति इमस्स निबद्धपट्ठाकभावं सन्धाय - "मव्हं, भिक्खवे, एतरहि आनन्दो भिक्खु उपट्ठाको अग्गुपट्ठाको''ति आह । अयं उपट्ठाकपरिच्छेदो नाम । १२. पितिपरिच्छेदो उत्तानत्थोयेव । विहारं पाविसीति कस्मा विहारं पाविसि ? भगवा किर एत्तकं कथेत्वा चिन्तेसि - “न ताव मया सत्तन्नं बुद्धानं वंसो निरन्तरं मत्थकं पापेत्वा कथितो, अज्ज मयि पन विहारं पविढे इमे भिक्खू भिय्योसो मत्ताय पुब्बेनिवासञाणं आरब्भ वण्णं कथयिस्सन्ति । अथाहं आगन्त्वा निरन्तरं बुद्धवंसं कथेत्वा मत्थकं पापेत्वा दस्सामी''ति भिक्खूनं कथावारस्स ओकासं दत्वा उट्ठायासना विहारं पाविसि । यञ्चेतं भगवा तन्तिं कथेसि, तत्थ कप्पपरिच्छेदो, जातिपरिच्छेदो, गोत्तपरिच्छेदो, आयुपरिच्छेदो, बोधिपरिच्छेदो, सावकयुगपरिच्छेदो, सावकसन्निपातपरिच्छेदो, उपट्ठाकपरिच्छेदो, पितिपरिच्छेदोति नविमे वारा आगता, सम्बहुलवारो अनागतो, आनेत्वा पन दीपेतब्बो । सम्बहुलवारकथावण्णना सब्बबोधिसत्तानहि एकस्मिं कुलवंसानुरूपे पुत्ते जाते निक्खमित्वा पब्बजितब्बन्ति अयमेव वंसो, अयं पवेणी। कस्मा ? सब्ब बोधिसत्तानहि मातृकुच्छिं ओक्कमनतो पट्ठाय पुब्बे वुत्तप्पकारानि अनेकानि पाटिहारियानि होन्ति, तत्र नेसं यदि नेव जातनगरं, न पिता, न माता, न भरिया, न पुत्तो पायेय्य, “इमस्स नेव जातनगरं, न पिता, न भरिया, न पुत्तो पायति, देवो वा सक्को वा मारो वा ब्रह्मा वा एस मओ, देवानञ्च ईदिसं पाटिहारियं अनच्छरिय''न्ति मञमानो जनो नेव सोतब्बं, न सद्धातब्बं मओय्य । ततो अभिसमयो न भवेय्य, अभिसमये असति निरत्थकोव बुद्धप्पादो, अनिय्यानिकं सासनं होति । तस्मा सब्बबोधिसत्तानं – “एकस्मिं कुलवंसानुरूपे पुत्ते जाते निक्खमित्वा पब्बजितब्ब''न्ति अयमेव वंसो अयं पवेणी। तस्मा पुत्तादीनं वसेन सम्बहुलवारो आनेत्वा दीपेतब्बो । 13 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.१२-१२) सम्बहुलपरिच्छेदवण्णना तत्थ - समवत्तक्खन्धो अतुलो, सुप्पबुद्धो च उत्तरो । सत्थवाहो विजितसेनो, राहुलो भवति सत्तमोति ।। एते ताव सत्तन्नम्पि बोधिसत्तानं अनुक्कमेनेव सत्त पुत्ता वेदितब्बा । तत्थ राहुलभद्दे ताव जाते पण्णं आहरित्वा महापुरिसस्स हत्थे ठपयिंसु । अथस्स तावदेव सकलसरीरं खोभेत्वा पुत्तसिनेहो अट्ठासि । सो चिन्तेसि - “एकस्मिं ताव जाते एवरूपो पुत्तसिनेहो, परोसहस्सं किर मे पुत्ता भविस्सन्ति, तेसु एकेकस्मिं जाते इदं सिनेहबन्धनं एवं वड्डन्तं दुब्भेज्जं भविस्सति, राहु जातो, बन्धनं जात"न्ति आह । तं दिवसमेव च रज्जं पहाय निक्खन्तो। एस नयो सब्बेसं पुत्तुप्पत्तियन्ति । अयं पुत्तपरिच्छेदो। सुतना सब्बकामा च, सुचित्ता अथ रोचिनी । रुचग्गती सुनन्दा च, बिम्बा भवति सत्तमाति ।। एता तेसं सत्तन्नम्पि पुत्तानं मातरो अहेसुं । बिम्बादेवी पन राहुलकुमारे जाते राहुलमाताति पायित्थ । अयं भरियपरिच्छेदो । विपस्सी ककुसन्धोति इमे पन द्वे बोधिसत्ता पयुत्तआजञरथमारुय्ह महाभिनिक्खमनं निक्खमिंसु । सिखी कोणागमनोति इमे द्वे हथिक्खन्धवरगता हुत्वा निक्खमिंसु । वेस्सभू सुवण्णसिविकाय निसीदित्वा निक्खमि। कस्सपो उपरिपासादे महातले निसिन्नोव आनापानचतुत्थज्झानं निब्बत्तेत्वा झाना उट्ठाय तं झानं पादकं कत्वा – “पासादो उग्गन्त्वा बोधिमण्डे ओतरतू"ति अधिट्टासि । पासादो आकासेन गन्त्वा बोधिमण्डे ओतरि । महापुरिसोपि ततो ओतरित्वा भूमियं ठत्वा - “पासादो यथाठानेयेव पतिट्ठातू"ति चिन्तेसि । सो यथाठाने पतिहासि । महापुरिसोपि सत्त दिवसानि पधानमनुयुञ्जित्वा 14 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१२-१२) सम्बहुलपरिच्छेदवण्णना बोधिपल्लङ्के निसीदित्वा सब्बञ्जतं पटिविज्झि। अम्हाकं पन बोधिसत्तो कण्टकं अस्सवरमारुय्ह निक्खन्तोति । अयं यानपरिच्छेदो। विपस्सिस्स पन भगवतो योजनप्पमाणे पदेसे विहारो पतिठ्ठासि, सिखिस्स तिगाते, वेस्सभुस्स अड्डयोजने, ककुसन्धस्स गावुते, कोणागमनस्स अड्डगावुते, कस्सपस्स वीसतिउसभे । अम्हाकं भगवतो पकतिमानेन सोळसकरीसे, राजमानेन अट्टकरीसे पदेसे विहारो पतिद्वितोति । अयं विहारपरिच्छेदो । विपस्सिस्स पन भगवतो एकरतनायामा विदत्थिवित्थारा अट्ठङ्गुलुब्बेधा सुवण्णिट्ठका कारेत्वा चूळंसेन छादेत्वा विहारट्ठानं किणिंसु । सिखिस्स सुवण्णयट्ठिफालेहि छादेत्वा किणिंसु । वेस्सभुस्स सुवण्णहत्थिपादानि कारेत्वा तेसं चूळंसेन छादेत्वा किणिंसु । ककुसन्धस्स वुत्तनयेनेव सुवण्णिट्ठकाहि छादेत्वा किणिंसु । कोणागमनस्स वुत्तनयेनेव सुवण्णकच्छपेहि छादेत्वा किणिंसु । कस्सपस्स सुवण्णकट्टीहियेव छादेत्वा किणिंसु । अम्हाकं भगवतो सलक्खणानं कहापणानं चूळंसेन छादेत्वा किणिंसु । अयं विहारभूमिग्गहणधनपरिच्छेदो । तत्थ विपस्सिस्स भगवतो तथा भूमिं किणित्वा विहारं कत्वा दिन्नुपट्टाको पुनब्बसुमित्तो नाम अहोसि, सिखिस्स सिरिवडनो नाम, वेस्सभुस्स सोत्थियो नाम, ककुसन्धस्स अच्चुतो नाम, कोणागमनस्स उग्गो नाम, कस्सपस्स सुमनो नाम, अम्हाकं भगवतो सुदत्तो नाम । सब्बे चेते गहपतिमहासाला सेट्ठिनो अहेसुन्ति । अयं उपट्ठाकपरिच्छेदो नाम । अपरानि चत्तारि अविजहितहानानि नाम होन्ति । सब्बबुद्धानहि बोधिपल्लङ्को अविजहितो, एकस्मिंयेव ठाने होति । धम्मचक्कप्पवत्तनं इसिपतने मिगदाये अविजहितमेव होति । देवोरोहनकाले सङ्कस्सनगरद्वारे पठमपदगण्ठिका अविजहिताव होति । जेतवने गन्धकुटिया चत्तारि मञ्चपादट्ठानानि अविजहितानेव होन्ति । विहारो पन खुद्दकोपि महन्तोपि होति, विहारोपि न विजहितोयेव, नगरं पन विजहति । यदा नगरं पाचीनतो होति, तदा विहारो पच्छिमतो; यदा नगरं दक्खिणतो, तदा विहारो उत्तरतो। यदा नगरं पच्छिमतो, तदा विहारो पाचीनतो; यदा नगरं उत्तरतो, तदा विहारो दक्खिणतो । इदानि पन नगरं उत्तरतो, विहारो दक्खिणतो । 15 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.१३-१३) सब्बबुद्धानञ्च आयुवेमत्तं, पमाणवेमत्तं, कुलवेमत्तं, पधानवेमत्तं, रस्मिवेमत्तन्ति पञ्च वेमत्तानि होन्ति । आयुवेमत्तं नाम केचि दीघायुका होन्ति, केचि अप्पायुका । तथा हि दीपङ्करस्स वस्ससतसहस्सं आयुप्पमाणं अहोसि, अम्हाकं भगवतो वस्ससतं आयुष्पमाणं। पमाणवेमत्तं नाम केचि दीघा होन्ति केचि रस्सा। तथा हि दीपङ्करो असीतिहत्थो अहोसि, सुमनो नवुतिहत्थो, अम्हाकं भगवा अट्ठारसहत्थो। कुलवमत्तं नाम केचि खत्तियकुले निब्बत्तन्ति, केचि ब्राह्मणकुले | पधानवेमत्तं नाम केसञ्चि पधानं इत्तरकालमेव होति, यथा कस्सपस्स भगवतो। केसञ्चि अद्धनियं, यथा अम्हाकं भगवतो। रस्मिवेमत्तं नाम मङ्गलस्स भगवतो सरीररस्मि दससहस्सिलोकधातुप्पमाणा अहोसि | अम्हाकं भगवतो समन्ता ब्याममत्ता। तत्र रस्मिवेमत्तं अज्झासयप्पटिबद्ध, यो यत्तकं इच्छति, तस्स तत्तकं सरीरप्पभा फरति । मङ्गलस्स पन निच्चम्पि दससहस्सिलोकधातुं फरतूति अज्झासयो अहोसि । पटिविद्धगुणेसु पन कस्सचि वेमत्तं नाम नत्थि । अपरं अम्हाकंयेव भगवतो सहजातपरिच्छेदञ्च नक्खत्तपरिच्छेदञ्च दीपेसुं । सब्ब बोधिसत्तेन किर सद्धिं राहुलमाता, आनन्दत्थेरो, छनो, कण्टको, निधिकुम्भो, महाबोधि, काळुदायीति इमानि सत्त सहजातानि । महापुरिसो च उत्तरासाळहनक्खत्तेनेव मातुकुच्छिं ओक्कमि, महाभिनिक्खमनं निक्खमि, धम्मचक्कं पवत्तेसि, यमकपाटिहारियं अकासि । विसाखानक्खत्तेन जातो च अभिसम्बुद्धो च परिनिब्बुतो च । माघनक्खत्तेनस्स सावकसन्निपातो च अहोसि, आयुसङ्खारोस्सज्जनञ्च, अस्सयुजनक्खत्तेन देवोरोहनन्ति एत्तकं आहरित्वा दीपेतब्बं । अयं सम्बहुलपरिच्छेदो नाम । १३. इदानि अथ खो तेसं भिक्खूनन्तिआदीसु ते भिक्खू - “आवुसो, पुब्बेनिवासस्स नाम अयं गति, यदिदं चुतितो पट्ठाय पटिसन्धिआरोहनं । यं पन इदं पटिसन्धितो पट्ठाय पच्छामुखं जाणं पेसेत्वा चुति गन्तब्ब, इदं अतिगरुकं । आकासे पदं दस्सेन्तो विय भगवा कथेसी"ति अतिविम्हयजाता हुत्वा - "अच्छरियं, आवुसो,"तिआदीनि वत्वा पुन अपरम्प कारणं दस्सेन्तो- “यत्र हि नाम 16 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१४-१६) सम्बहुलपरिच्छेदवण्णना १७ तथागतो''तिआदिमाहंसु । तत्थ यत्र हि नामाति अच्छरियत्थे निपातो, यो नाम तथागतोति अत्थो । छिनपपञ्चेति एत्थ पपञ्चा नाम तण्हा मानो दिट्ठीति इमे तयो किलेसा । छिन्नवटुमेति एत्थ वटुमन्ति कुसलाकुसलकम्मवर्ल्ड वुच्चति । परियादिनवट्टेति तस्सेव वेवचनं, परियादिन्नसब्बकम्मवट्टेति अत्थो। सब्बदुक्खवीतिवत्तेति सब्बं विपाकवट्टसङ्खातं दुक्खं वीतिवत्ते। अनुस्सरिस्सतीति इदं यत्राति निपातवसेन अनागतवचनं, अत्थो पनेत्थ अतीतवसेन वेदितब्बो। भगवा हि ते बुद्ध अनुस्सरि, न इदानि अनस्सरिस्सति । एवंसीलाति मग्गसीलेन फलसीलेन लोकियलोकुत्तरसीलेन एवंसीला। एवंधम्माति एत्थ समाधिपक्खा धम्मा अधिप्पेता, मग्गसमाधिना फलसमाधिना लोकियलोकुत्तरसमाधिना, एवंसमाधयोति अत्थो । एवंपञाति मग्गपञादिवसेनेव एवंपञ्जा । एवंविहारीति एत्थ पन हेट्ठा समाधिपक्खानं धम्मानं गहितत्ता विहारो गहितोव पुन कस्मा गहितमेव गण्हातीति चे; न इदं गहितमेव, इदहि निरोधसमापत्तिदीपनत्थं वुत्तं । तस्मा एवं निरोधसमापत्तिविहारी ते भगवन्तो अहेसुन्ति एवमेत्थ अत्थो दट्ठब्बो । एवंविमुत्ताति एत्थ विक्खम्भनविमुत्ति, तदङ्गविमुत्ति, समुच्छेदविमुत्ति, पटिप्पस्सद्धिविमुत्ति, निस्सरणविमुत्तीति पञ्चविधा विमुत्ति । तत्थ अट्ठ समापत्तियो सयं विक्खम्भितेहि नीवरणादीहि विमुत्तत्ता विक्खम्भनविमुत्तीति सङ्ख्यं गच्छन्ति । अनिच्चानुपस्सनादिका सत्तानुपस्सना सयं तस्स तस्स पच्चनीकङ्गवसेन परिच्चत्ताहि निच्चसञ्जादीहि विमुत्तत्ता तदङ्गविमुत्तीति सङ्ख्यं गच्छन्ति । चत्तारो अरियमग्गा सयं समुच्छिन्नेहि किलेसेहि विमुत्तत्ता समुच्छेदविमुत्तीति सङ्ख्यं गच्छन्ति । चत्तारि सामञफलानि मग्गानुभावेन किलेसानं पटिप्पस्सद्धन्ते उप्पन्नत्ता पटिप्पस्सद्धिविमुत्तीति सङ्ख्यं गच्छन्ति | निब्बानं सब्बकिलेसेहि निस्सटत्ता अपगतत्ता दूरे ठितत्ता निस्सरणविमुत्तीति सङ्ख्यं गच्छति । इति इमासं पञ्चन्नं विमुत्तीनं वसेन – “एवं विमुत्ता''ति एत्थ अत्थो दट्ठब्बो । १४. पटिसल्लाना बुद्वितोति एकीभावा वुट्टितो । १६. "इतो सो, भिक्खवे"ति को अनुसन्धि ? इदहि सुत्तं - "तथागतस्सेवेसा, भिक्खवे, धम्मधातु सुप्पटिविद्धा 'ति च “देवतापि तथागतस्स एतमत्थं आरोचेसुन्ति च इमेहि द्वीहि पदेहि आबद्धं । तत्थ देवतारोचनपदं सुत्तन्तपरियोसाने देवचारिककोलाहलं दस्सेन्तो विचारेस्सति । धम्मधातुपदानुसन्धिवसेन पन अयं देसना आरद्धा । तत्थ खत्तियो जातियातिआदीनि एकादसपदानि निदानकण्डे वुत्तनयेनेव वेदितब्बानि । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.१७-१७) बोधिसत्तधम्मतावण्णना १७. अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी बोधिसत्तोतिआदीसु पन विपस्सीति तस्स नाम, तञ्च खो विविधे अत्थे पस्सनकुसलताय लद्धं । बोधिसत्तोति पण्डितसत्तो बुज्झनकसत्तो । बोधिसङ्खातेसु वा चतूसु मग्गेसु सत्तो आसत्तो लग्गमानसोति बोधिसत्तो। सतो सम्पजानोति एत्थ सतोति सतियेव । सम्पजानोति आणं । सतिं सूपट्टितं कत्वा जाणेन परिच्छिन्दित्वा मातुकृच्छि ओक्कमीति अत्थो । ओक्कमीति इमिना चस्स ओक्कन्तभावो पाळियं दस्सितो, न ओक्कमनक्कमो । सो पन यस्मा अट्ठकथं आरूळ्हो, तस्मा एवं वेदितब्बो सब्बबोधिसत्ता हि समतिंस पारमियो पूरेत्वा, पञ्च महापरिच्चागे परिच्चजित्वा, आतत्थचरियलोकत्थचरियबुद्धचरियानं कोटिं पत्वा, वेस्सन्तरसदिसे ततिये अत्तभावे ठत्वा, सत्त महादानानि दत्वा, सत्तक्खत्तुं पथविं कम्पेत्वा, कालङ्कत्वा, दुतियचित्तवारे तुसितभवने निब्बत्तन्ति । विपस्सी बोधिसत्तोपि तथेव कत्वा तुसितपुरे निब्बत्तित्वा सद्विसतसहस्साधिका सत्तपञास वस्सकोटियो तत्थ अट्ठासि । अझदा पन दीघायुकदेवलोके निब्बत्ता बोधिसत्ता न यावतायुकं तिठ्ठन्ति । कस्मा ? तत्थ पारमीनं दुप्पूरणीयत्ता । ते अधिमुत्तिकालकिरियं कत्वा मनुस्सपथेयेव निब्बत्तन्ति । पारमीनं पूरेन्तो पन यथा इदानि एकेन अत्तभावेन सब्ब तं उपनेतुं सक्कोन्ति, एवं सब्बसो पूरितत्ता तदा विपस्सी बोधिसत्तो तत्थ यावतायुकं अट्ठासि। देवतानं पन - "मनुस्सानं गणनावसेन इदानि सत्तहि दिवसेहि चुति भविस्सती"ति पञ्च पुब्बनिमित्तानि उप्पज्जन्ति - माला मिलायन्ति, वत्थानि किलिस्सन्ति, कच्छेहि सेदा मुच्चन्ति, काये दुब्बणियं ओक्कमति, देवो देवासने न सण्ठाति । तत्थ मालाति पटिसन्धिग्गहणदिवसे पिळन्धनमाला, ता किर सट्ठिसतसहस्साधिका सत्तपण्णास वस्सकोटियो अमिलायित्वा तदा मिलायन्ति । वत्थेसुपि एसेव नयो । एत्तकं पन कालं देवानं नेव सीतं न उण्हं होति, तस्मिं काले सरीरा बिन्दुबिन्दुवसेन सेदा मुच्चन्ति । एत्तकञ्च कालं तेसं सरीरे खण्डिच्चपालिच्चादिवसेन विवण्णता न पायति, देवधीता सोळसवस्सुद्देसिका विय खायन्ति, देवपुत्ता वीसतिवस्सुद्देसिका विय खायन्ति, मरणकाले पन तेसं किलन्तरूपो अत्तभावो होति । एत्तकञ्च तेसं कालं देवलोके उक्कण्ठिता नाम नत्थि, मरणकाले पन निस्ससन्ति विजम्भन्ति, सके आसने नाभिरमन्ति । 18 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१७-१७) बोधिसत्तधम्मतावण्णना इमानि पन पुब्बनिमित्तानि यथा लोके महापुञानं राजराजमहामत्तादीनंयेव उक्कापातभूमिचालचन्दग्गाहादीनि निमित्तानि पञ्जायन्ति, न सब्बेस; एवं महेसक्खदेवतानंयेव पञ्जायन्ति, न सब्बेसं। यथा च मनुस्सेसु पुब्बनिमित्तानि नक्खत्तपाठकादयोव जानन्ति, न सब्बे; एवं तानिपि न सब्बदेवता जानन्ति, पण्डिता एव पन जानन्ति । तत्थ ये मन्देन कुसलकम्मेन निब्बत्ता देवपुत्ता, ते तेसु उप्पन्नेसु - "इदानि को जानाति, 'कुहिं निब्बत्तेस्सामा'ति' भायन्ति । ये महापुञ्जा, ते “अम्हेहि दिन्नं दानं, रक्खितं सीलं, भावितं भावनं आगम्म उपरि देवलोकेसु सम्पत्तिं अनुभविस्सामा"ति न भायन्ति । विपस्सी बोधिसत्तोपि तानि पुब्बनिमित्तानि दिस्वा "इदानि अनन्तरे अत्तभावे बुद्धो भविस्सामी''ति न भायति । अथस्स तेसु निमित्तेसु पातुभूतेसु दससहस्सचक्कवाळदेवता सन्निपतित्वा- “मारिस, तुम्हेहि दस पारमियो पूरेन्तेहि न सक्कसम्पत्तिं, न मारसम्पत्तिं, न ब्रह्मसम्पत्तिं, न चक्कवत्तिसम्पत्तिं पत्थेन्तेहि पूरिता, लोकनित्थरणत्थाय पन बुद्धत्तं पत्थयमानेहि पूरिता । सो वो, इदानि कालो, मारिस, बुद्धत्ताय, समयो, मारिस, बुद्धत्ताया'ति याचन्ति । अथ महासत्तो तासं देवतानं पटिझं अदत्वाव कालदीपदेसकुलजनेत्तिआयुपरिच्छेदवसेन पञ्चमहाविलोकनं नाम विलोकेसि । तत्थ "कालो नु खो, न कालो''ति पठमं कालं विलोकेसि । तत्थ वस्ससतसहस्सतो उद्धं वड्डितआयुकालो कालो नाम न होति । कस्मा ? तदा हि सत्तानं जातिजरामरणानि न पायन्ति, बुद्धानञ्च धम्मदेसना नाम तिलक्खणमुत्ता नत्थि । ते तेसं– “अनिच्चं दुक्खमनत्ता''ति कथेन्तानं – “किं नामेतं कथेन्ती"ति नेव सोतुं, न सद्दहितुं मञ्जन्ति, ततो अभिसमयो न होति, तस्मिं असति अनिय्यानिकं सासनं होति । तस्मा सो अकालो । वस्ससततो ऊनआयुकालोपि कालो न होति । कस्मा ? तदा हि सत्ता उस्सन्नकिलेसा होन्ति, उस्सन्नकिलेसानञ्च दिन्नो ओवादो ओवादट्ठाने न तिठ्ठति, उदके दण्डराजि विय खिप्पं विगच्छति । तस्मा सोपि अकालोव । वस्ससतसहस्सतो पट्ठाय हेट्टा, वस्ससततो पट्ठाय उद्धं आयुकालो कालो नाम, तदा च असीतिवस्ससहस्सायुका मनुस्सा । अथ महासत्तो – “निब्बत्तितब्बकालो''ति कालं पस्सि । ततो दीपं विलोकेन्तो सपरिवारे चत्तारो दीपे ओलोकेत्वा -- “तीसु दीपेसु बुद्धा न निब्बत्तन्ति, जम्बुदीपेयेव निब्बत्तन्ती''ति दीपं पस्सि । 19 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.१७-१७) ततो – “जम्बुदीपो नाम महा, दसयोजनसहस्सपरिमाणो, कतरस्मिं नु खो पदेसे बुद्धा निब्बत्तन्ती''ति देसं विलोकेन्तो मज्झिमदेसं पस्सि । मज्झिमदेसो नाम - “पुरत्थिमाय दिसाय गजङ्गलं नाम निगमो''तिआदिना (महाव० २५९) नयेन विनये वुत्तोव । सो आयामतो तीणि योजनसतानि, वित्थारतो अड्डतेय्यानि, परिक्खेपतो नवयोजनसतानीति । एतस्मिहि पदेसे बुद्धा पच्चेकबुद्धा अग्गसावका असीति महासावका चक्कवत्तिराजानो अझे च महेसक्खा खत्तियब्राह्मणगहपतिमहासाला उप्पज्जन्ति । इदञ्चेत्थ बन्धुमती नाम नगरं, तत्थ मया निब्बत्तितब्बन्ति निठें अगमासि । ततो कुलं विलोकेन्तो– “बुद्धा नाम लोकसम्मते कुले निब्बत्तन्ति । इदानि च खत्तियकुलं लोकसम्मतं, तत्थ निब्बत्तिस्सामि, बन्धुमा नाम मे राजा पिता भविस्सती''ति कुलं पस्सि। ततो मातरं विलोकेन्तो – “बुद्धमाता नाम लोला सुराधुत्ता न होति, कप्पसतसहस्सं पूरितपारमी, जातितो पट्ठाय अखण्डपञ्चसीला होति, अयञ्च बन्धुमती नाम देवी ईदिसा, अयं मे माता भविस्सति, "कित्तकं पनस्सा आयू''ति आवज्जन्तो “दसन्नं मासानं उपरि सत्त दिवसानी"ति पस्सि । इति इमं पञ्चमहाविलोकनं विलोकेत्वा "कालो, मे मारिसा, बुद्धभावाया''ति देवतानं सङ्गहं करोन्तो पटिनं दत्वा – “गच्छथ, तुम्हे''ति ता देवता उय्योजेत्वा तुसितदेवताहि परिवुतो तुसितपुरे नन्दनवनं पाविसि । सब्बदेवलोकेसु हि नन्दनवनं अत्थियेव । तत्र नं देवता इतो चुतो सुगतिं गच्छाति पुब्बेकतकुसलकम्मोकासं सारयमाना विचरन्ति । सो एवं देवताहि कुसलं सारयमानाहि परिवुतो तत्थ विचरन्तोयेव चवि । एवं चुतो च 'चवामी'ति जानाति, चुतिचित्तं न जानाति | पटिसन्धिं गहेत्वापि जानाति, पटिसन्धिचित्तमेव न जानाति । "इमस्मिं मे ठाने पटिसन्धिं गहिता''ति एवं पन जानाति । केचि पन थेरा – “आवज्जनपरियायो नाम लढे वट्टति, दुतियततियचित्तवारे एव जानिस्सती''ति वदन्ति । तिपिटकमहासीवत्थेरो पन आह – “महासत्तानं पटिसन्धि न अञ्जेसं पटिसन्धिसदिसा, कोटिप्पत्तं पन तेसं सतिसम्पजङ । यस्मा पन तेनेव चित्तेन तं चित्तं ज्ञातुं न सक्का, तस्मा चुतिचित्तं न जानाति । चुतिक्खणेपि 'चवामीति जानाति । पटिसन्धिचित्तं न जानाति । 'असुकस्मिं मे ठाने पटिसन्धि गहिता ति जानाति, 20 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१७-१७) बोधिसत्तधम्मतावण्णना तस्मिं काले दससहस्सिलोकधातु कम्पती'ति । एवं सतो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमन्तो पन एकूनवीसतिया पटिसन्धिचित्तेसु मेत्तापुब्बभागस्स सोमनस्ससहगतञाणसम्पयुत्तअसङ्घारिककुसलचित्तस्स सदिसमहाविपाकचित्तेन पटिसन्धि गण्हि । महासीवत्थेरो पन उपेक्खासहगतेनाति आह । यथा च अम्हाकं भगवा, एवं सोपि आसाळ्हीपुण्णमायं उत्तरासाळहनक्खत्तेनेव पटिसन्धिं अग्गहेसि । तदा किर पुरे पुण्णमाय सत्तमदिवसतो पट्ठाय विगतसुरापानं मालागन्धादिविभूतिसम्पन्नं नक्खत्तकीळं अनुभवमाना बोधिसत्तमाता सत्तमे दिवसे पातो उट्ठाय गन्धोदकेन नहायित्वा सब्बालङ्कारविभूसिता वरभोजनं भुञ्जित्वा उपोसथङ्गानि अधिट्ठाय सिरिगल्भं पविसित्वा सिरिसयने निपन्ना निदं ओक्कममाना इदं सुपिनं अद्दस - "चत्तारो किर नं महाराजानो सयनेनेव सद्धिं उक्खिपित्वा अनोतत्तदहं नेत्वा नहापेत्वा दिब्बवत्थं निवासेत्वा दिब्बगन्धेहि विलिम्पेत्वा दिब्बपुप्फानि पिळन्धित्वा, ततो अविदूरे रजतपब्बतो, तस्स अन्तो कनकविमानं अत्थि, तस्मिं पाचीनतो सीसं कत्वा निपज्जापेसुं । अथ बोधिसत्तो सेतवरवारणो हुत्वा ततो अविदूरे एको सुवण्णपब्बतो, तत्थ चरित्वा ततो ओरुय्ह रजतपब्बतं अभिरुहित्वा कनकविमानं पविसित्वा मातरं पदक्खिणं कत्वा दक्खिणपरसं फालेत्वा कुच्छिं पविट्ठसदिसो अहोसि'। अथ पबुद्धा देवी तं सुपिनं रञो आरोचेसि । राजा विभाताय रत्तिया चतुसट्ठिमत्ते ब्राह्मणपामोक्खे पक्कोसापेत्वा हरितूपलित्ताय लाजादीहि कतमङ्गलसक्काराय भूमिया महारहानि आसनानि पञपेत्वा तत्थ निसिन्नानं ब्राह्मणानं सप्पिमधुसक्कराभिसङ्घतस्स वरपायासस्स सुवण्णरजतपातियो पूरेत्वा सुवण्णरजतपातीहेव पटिकुज्जित्वा अदासि, अञ्जेहि च अहतवत्थकपिलगावीदानादीहि नेसं सन्तप्पेसि । अथ नेसं सब्बकामसन्तप्पितानं तं सुपिनं आरोचेत्वा – “किं भविस्सती"ति पुच्छि । ब्राह्मणा आहंसु - "मा चिन्तयि, महाराज, देविया ते कुच्छिम्हि गब्भो पतिहितो, सो च खो पुरिसगब्भो न इत्थिगब्भो, पुत्तो ते भविस्सति । सो सचे अगारं अज्झावसिस्सति, राजा भविस्सति चक्कवत्ती । सचे अगारा निक्खम्म पब्बजिस्सति, बुद्धो भविस्सति लोके विवट्टच्छदो'ति । अयं ताव"मातुकुच्छिं ओक्कमी''ति एत्थ वण्णनाक्कमो । अयमेत्थ धम्मताति अयं एत्थ मातुकुच्छिओक्कमने धम्मता, अयं सभावो, अयं Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.१८-१८) नियामोति वुत्तं होति । नियामो च नामेस कम्मनियामो, उतुनियामो, बीजनियामो, चित्तनियामो, धम्मनियामोति पञ्चविधो (ध० स० अठ्ठ० ४९८)। तत्थ कुसलस्स इट्ठविपाकदानं, अकुसलस्स अनिट्ठविपाकदानन्ति अयं कम्पनियामो। तस्स दीपनत्थं - “न अन्तलिक्खे"ति (खु० पा० १२७) गाथाय वत्थूनि वत्तब्बानि । अपिच एका किर इत्थी सामिकेन सद्धिं भण्डित्वा उब्बन्धित्वा मरितुकामा रज्जुपासे गीवं पवेसेसि । अञ्जतरो पुरिसो वासिं निसेन्तो तं इत्थिकम्मं दिस्वा रज्जु छिन्दितुकामो“मा भायि, मा भायी"ति तं समस्सासेन्तो उपधावि । रज्जु आसीविसो हुत्वा अठ्ठासि । सो भीतो पलायि । इतरा तत्थेव मरि । एवमादीनि चेत्थ वत्थूनि दस्सेतब्बानि । तेसु तेसु जनपदेसु तस्मिं तस्मिं काले एकप्पहारेनेव रुक्खानं पुप्फफलगहणादीनि, वातस्स वायनं अवायनं, आतपस्स तिक्खता मन्दता, देवस्स वस्सनं अवस्सनं, पदुमानं दिवा विकसनं रत्तिं मिलायनन्ति एवमादि उतुनियामो। यं पनेतं सालिबीजतो सालिफलमेव, मधुरतो मधुरसंयेव, तित्ततो तित्तरसंयेव फलं होति, अयं बीजनियामो। ___ पुरिमा पुरिमा चित्तचेतसिका धम्मा पच्छिमानं पच्छिमानं चित्तचेतसिकानं धम्मानं उपनिस्सयपच्चयेन पच्चयोति एवं यदेतं चक्खुविज्ञाणादीनं अनन्तरा सम्पटिच्छनादीनं निब्बत्तनं, अयं चित्तनियामो। या पनेसा बोधिसत्तानं मातुकुच्छिओक्कमनादीसु दससहस्सिलोकधातुकम्पनादीनं पवत्ति, अयं धम्मनियामो नाम । तेसु इध धम्मनियामो अधिप्पेतो । तस्मा तमेवत्थं दस्सेन्तो धम्मता एसा भिक्खवेतिआदिमाह । १८. तत्थ कुच्छिं ओक्कमतीति एत्थ कुच्छिं ओक्कन्तो होतीति अयमेवत्थो । ओक्कन्ते हि तस्मिं एवं होति, न ओक्कममाने । अप्पमाणोति वुड्डिप्पमाणो, विपुलोति अत्थो । उळारोति तस्सेव वेवचनं । उळारानि उळारानि खादनीयानि खादन्तीतिआदीसु (म० नि० १.३९९) हि मधुरं उळारन्ति वुत्तं । उळाराय खलु भवं वच्छायनो समणं गोतमं पसंसाय पसंसतीतिआदीसु (म० नि० १.२८८) सेठें उळारन्ति वुत्तं । इध पन 22 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१८-१८) बोधिसत्तधम्मतावण्णना २३ विपुलं अधिप्पेतं । देवानं देवानुभावन्ति एत्थ देवानं अयमानुभावो निवत्थवत्थस्स पभा द्वादसयोजनानि फरति, तथा सरीरस्स, तथा अलङ्कारस्स, तथा विमानस्स, तं अतिक्कमित्वाति अत्थो । लोकन्तरिकाति तिण्णं तिण्णं चक्कवाळानं अन्तरा एकेको लोकन्तरिको होति, तिण्णं सकटचक्कानं वा तिण्णं पत्तानं वा अञमज आहच्च ठपितानं मज्झे ओकासो विय । सो पन लोकन्तरिकनिरयो परिमाणतो अट्ठयोजनसहस्सो होति। अघाति निच्चविवटा । असंवुताति हेट्ठापि अप्पतिट्ठा । अन्धकाराति तमभूता । अन्धकारतिमिसाति चक्खुविाणुप्पत्तिनिवारणतो अन्धभावकरणतिमिसेन समन्नागता । तत्थ किर चक्खुविज्ञाणं न जायति । एवंमहिद्धिकाति चन्दिमसूरिया किर एकप्पहारेनेव तीसु दीपेसु पञ्जायन्ति, एवं महिद्धिका | एकेकाय दिसाय नव नव योजनसतसहस्सानि अन्धकारं विधमित्वा आलोकं दस्सेन्ति, एवंमहानुभावा। आभाय नानुभोन्तीति अत्तनो पभाय नप्पहोन्ति । ते किर चक्कवाळपब्बतस्स वेमज्झेन विचरन्ति, चक्कवाळपब्बतञ्च अतिक्कम्म लोकन्तरिकनिरया । तस्मा ते तत्थ आभाय नप्पहोन्ति । येपि तत्थ सत्ताति येपि तस्मिं लोकन्तरिकमहानिरये सत्ता उप्पन्ना । किं पन कम्म कत्वा तत्थ उप्पज्जन्तीति । भारियं दारुणं मातापितूनं धम्मिकसमणब्राह्मणानञ्च उपरि अपराधं, अञञ्च दिवसे दिवसे पाणवधादिसाहसिककम्मं कत्वा उप्पज्जन्ति, तम्बपण्णिदीपे अभयचोरनागचोरादयो विय । तेसं अत्तभावो तिगावुतिको होति, वग्गुलीनं विय दीघनखा होन्ति । ते रुक्खे वग्गुलियो विय नखेहि चक्कवाळपब्बते लग्गन्ति । यदा संसप्पन्ता अञमञस्स हत्थपासं गता होन्ति, अथ “भक्खो नो लद्धोति मञ्चमाना तत्थ वावटा विपरिवत्तित्वा लोकसन्धारकउदके पतन्ति, वाते पहरन्तेपि मधुकफलानि विय छिज्जित्वा उदके पतन्ति, पतितमत्ताव अच्चन्तखारे उदके पिट्ठपिण्डि विय विलीयन्ति । अञपि किर भो सन्ति सत्ताति भो यथा मयं महादुक्खं अनुभवाम, एवं अञ्झे किर सत्तापि इमं दुक्खमनुभवनत्थाय इधूपपन्नाति तं दिवसं पस्सन्ति । अयं पन ओभासो एकयागुपानमत्तम्पि न तिट्ठति, अच्छरासङ्घाटमत्तमेव विज्जोभासो विय निच्छरित्वा - "किं इद''न्ति भणन्तानंयेव अन्तरधायति । सङ्कम्पतीति समन्ततो कम्पति । इतरद्वयं पुरिमपदस्सेव वेवचनं । पुन अप्पमाणो चातिआदि निगमनत्थं वुत्तं । 23 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ दीघनिकाये महावग्गट्टकथा (१.१९-२०) १९. चत्तारो नं देवपुत्ता चातुहिसं रक्खाय उपगच्छन्तीति एत्थ चत्तारोति चतुन्नं महाराजानं वसेन वुत्तं । दससहस्सचक्कवाळेसु पन चत्तारो चत्तारो कत्वा चत्तालीससहस्सानि होन्ति । तत्थ इमस्मिं चक्कवाळे महाराजानो खग्गहत्था बोधिसत्तस्स आरक्खत्थाय उपगन्त्वा सिरिगल्भं पविठ्ठा, इतरे गब्भद्वारतो पट्ठाय अवरुद्धके पंसुपिसाचकादियक्खगणे पटिक्कमापेत्वा याव चक्कवाळा आरक्खं गण्हिंसु । किमत्थाय पनायं रक्खा ? नन पटिसन्धिक्खणे कललकालतो पट्ठाय सचेपि कोटिसतसहस्समारा कोटिसतसहस्ससिनेरुं उक्खिपित्वा बोधिसत्तस्स वा बोधिसत्तमातुया वा अन्तरायकरणत्थं आगच्छेय्युं, सब्बे अन्तराव अन्तरधायेय्युं । वुत्तम्पि चेतं भगवता रुहिरुप्पादवत्थुस्मिं - "अट्ठानमेतं, भिक्खवे, अनवकासो, यं परुपक्कमेन तथागतं जीविता वोरोपेय्य । अनुपक्कमेन, भिक्खवे, तथागता परिनिब्बायन्ति । गच्छथ, तुम्हे भिक्खवे, यथाविहारं, अरक्खिया, भिक्खवे तथागता''ति (चूळव० ३४१)। एवमेव, तेन परुपक्कमेन न तेसं जीवितन्तरायो अत्थि, सन्ति खो पन अमनुस्सा विरूपा दुद्दसिका भेरवरूपा मिगपक्खिनो, येसं रूपं वा दिस्वा सदं वा सुत्वा बोधिसत्तमातु भयं वा सन्तासो वा उप्पज्जेय्य, तेसं निवारणत्थाय रक्खं अग्गहेसुं । अपिच बोधिसत्तस्स पुञतेजेन सजातगारवा अत्तनो गारवचोदितापि ते एवमकंसु । किं पन ते अन्तोगब्भं पविसित्वा ठिता चत्तारो महाराजानो बोधिसत्तस्स मातुया अत्तानं दस्सेन्ति, न दस्सेन्तीति ? नहानमण्डनभोजनादिसरीरकिच्चकाले न दस्सेन्ति, सिरिगल्भं पविसित्वा वरसयने निपन्नकाले पन दस्सेन्ति । तत्थ किञ्चापि अमनुस्सदस्सनं नाम मनुस्सानं सप्पटिभयं होति, बोधिसत्तस्स माता पन अत्तनो चेव पुत्तस्स च पुञानुभावेन ते दिस्वा न भायति, पकतिअन्तेपुरपालकेसु विय अस्सा एतेसु चित्तं उप्पज्जति । २०. पकतिया सीलवतीति सभावेनेव सीलसम्पन्ना । अनुप्पन्ने किर बुद्धे मनुस्सा तापसपरिब्बाजकानं सन्तिके वन्दित्वा उक्कुटिकं निसीदित्वा सीलं गण्हन्ति । बोधिसत्तमातापि कालदेविलस्स इसिनो सन्तिके सीलं गण्हाति । बोधिसत्ते पन कुच्छिगते अञस्स पादमूले निसीदितुं नाम न सक्का, समानासने निसीदित्वा गहितसीलम्पि आवज्जनकरणमत्तं होति । तस्मा सयमेव सीलं अग्गहेसीति वुत्तं होति । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.२१ - २३) बोधिसत्तधम्मतावण्णना २१. पुरिसेसूति बोधिसत्तस्स पितरं आदि कत्वा केसुचि मनुस्सेसु पुरिसाधिप्पायचित्तं नुपज्जति । बोधिसत्तमातुरूपं पन कुसला सिप्पिका पोत्थकम्मादीसुपि कातुं न सक्कोन्ति । तं दिस्वा पुरिसस्स रागो नुप्पज्जतीति न सक्का वत्तुं सचे पन तं रत्तचित्तो उपसङ्कमितुकामो होति, पादा न वहन्ति, दिब्बसङ्घलिका विय बज्झन्ति । तस्मा ‘“अनतिक्कमनीया’’तिआदि वृत्तं । २२. पञ्चन्नं कामगुणानन्ति पुब्बे कामगुणूपसहितन्ति इमिना पुरिसाधिप्पायवसेन वत्थुपटिक्खेपो कतो, इध आरम्मणप्पटिलाभो दस्सितो । तदा किर देविया एवरूपो पुत्ती कुच्छिं उपपन्नोति सुत्वा समन्ततो राजानो महग्घआभरणतूरियादिवसेन पञ्चद्वारारम्मणवत्थुभूतं पण्णाकारं पेसेन्ति । बोधिसत्तस्स च बोधिसत्तमातु च कतकम्मरस उस्सन्नत्ता लाभसक्कारस्स पमाणपरिच्छेदो नत्थि । २५ २३. अकिलन्तकायाति यथा अञ्ञा इत्थियो गब्भभारेन किलमन्ति हत्थपादा उद्धुमाततादीनि पापुणन्ति एवं तस्सा कोचि किलमथो नाहोसि । तिरोकुच्छिगतन्ति अन्तोकुच्छिगतं । परसतीति कललादिकालं अतिक्कमित्वा सञ्जातअङ्गपच्चङ्गअहीनिन्द्रियभावं उपगतंयेव पस्सति । किमत्थं पस्सति ? सुखवासत्थंयेव । यथेव हि माता पुत्तेन सद्धिं निपन्ना वा निसिन्ना वा - “हत्थं वास्स पादं वा ओलम्बन्तं उक्खिपित्वा सण्ठपेस्सामी "ति सुखवासत्थं पुत्तं ओलोकेति एवं बोधिसत्तमातापि यं तं मातु उट्ठानगमनपरिवत्तननिसज्जादीसु उण्हसीतलोणिकतित्तककटुकाहार अज्झोहरणकालेसु च गब्भस्स दुक्खं उप्पज्जति, “अत्थि नु खो मे तं पुत्तस्सा "ति सुखवासत्थं ओलोकयमाना पल्लङ्कं आभुजित्वा निसिन्नं बोधिसत्तं परसति । यथा हि अञ्ञ अन्तोकुच्छिगता पक्का यं अवत्थरित्वा आमासयं उक्खिपित्वा उदरपटलं पिट्ठितो कत्वा पिट्ठिकण्डकं निस्साय उक्कुटिकं द्वीसु मुट्ठीसु हनुकं ठपेत्वा देवे वस्सन्ते रुक्खसुसिरे मक्कटा विय निसीदन्ति, न एवं बोधिसत्तो, बोधिसत्तो पन पिट्ठिकण्डकं पिट्ठितो कत्वा धम्मासने धम्मकथिको विय पल्लङ्कं आभुजित्वा पुरत्याभिमुखो निसीदति । पुब्बेकतकम्मं पनस्सा वत्युं सोधेति, सुद्धे वत्थुम्हि सुखमच्छविलक्खणं निब्बत्तति । अथ नं कुच्छितचो पटिच्छादेतुं न सक्कोति, ओलोकेन्तिया बहिठितो विय पञ्ञायति । तमत्थं उपमाय विभावेन्तो भगवा सेय्यथापीति आदिमाह । बोधिसत्तो पन अन्तोकुच्छिगतो मातरं न परसति । न हि अन्तोकुच्छियं चक्खुविञ्ञाणं उप्पज्जति । 25 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.२४--२९) २४. कालङ्करोतीति न विजातभावपच्चया, आयुपरिक्खयेनेव । बोधिसत्तेन वसितठ्ठानहि चेतियकुटिसदिसं होति, अनेसं अपरिभोगारहं, न च सक्का बोधिसत्तमातरं अपनेत्वा अझं अग्गमहेसिट्ठाने ठपेतुन्ति तत्तकंयेव बोधिसत्तमातु आयुप्पमाणं होति, तस्मा तदा कालङ्करोति । कतरस्मिं पन वये कालं करोतीति ? मज्झिमवये । पठमवयस्मिहि सत्तानं अत्तभावे छन्दरागो बलवा होति, तेन तदा सञ्जातगब्भा इत्थी गब्भं अनुरक्खितुं न सक्कोति, गब्भो बह्वाबाधो होति । मज्झिमवयस्स पन द्वे कोट्ठासे अतिक्कम्म ततिये कोट्ठासे वत्थु विसदं होति, विसदे वत्थुम्हि निब्बत्तदारका अरोगा होन्ति, तस्मा बोधिसत्तमातापि पठमवये सम्पत्तिं अनुभवित्वा मज्झिमवयस्स ततिये कोट्ठासे विजायित्वा कालं करोतीति अयमेत्थ धम्मता ।। २५. नव वा दस वाति एत्थ वा सदस्स विकप्पनवसेन सत्त वा अट्ट वा एकादस वा द्वादस वाति एवमादीनं सङ्गहो वेदितब्बो । तत्थ सत्तमासजातो जीवति, सीतुण्हक्खमो पन न होति । अट्टमासजातो न जीवति, अवसेसा जीवन्ति । २७. देवा पठमं पटिग्गण्हन्तीति खीणासवा सुद्धावासब्रह्मानो पटिग्गण्हन्ति । कथं पटिग्गण्हन्ति ? “सूतिवेसं गण्हित्वा''ति एके । तं पन पटिक्खिपित्वा इदं वुत्तं - 'तदा बोधिसत्तमाता सुवण्णखचितं वत्थं निवासेत्वा मच्छक्खिसदिसं दुकूलपटं याव पादन्ता पारुपित्वा अट्ठासि। अथस्सा सल्लहुकगब्भवुट्टानं अहोसि, धमकरणतो उदकनिक्खमनसदिसं। अथ ते पकतिब्रह्मवेसेनेव उपसङ्कमित्वा पठमं सुवण्णजालेन पटिग्गहेसुं । तेसं हत्थतो चत्तारो महाराजानो अजिनप्पवेणिया पटिग्गहेसुं। ततो मनुस्सा दुकूलचुम्बटकेन पटिग्गहेसुं'। तेन वुत्तं - "देवा पठमं पटिग्गण्हन्ति, पच्छा मनुस्सा''ति । २८. चत्तारो नं देवपुत्ताति चत्तारो महाराजानो। पटिग्गहेत्वाति अजिनप्पवेणिया पटिग्गहेत्वा । महेसक्खोति महातेजो महायसो लक्खणसम्पन्नो । २९. विसदोव निक्खमतीति यथा अञ्चे सत्ता योनिमग्गे लग्गन्ता भग्गविभग्गा निक्खमन्ति, न एवं निक्खमति, अलग्गो हुत्वा निक्खमतीति अत्थो उदेनाति उदकेन । केन चि असुचिनाति यथा अछे सत्ता कम्मजवातेहि उद्धंपादा अधोसिरा योनिमग्गे पक्खित्ता सतपोरिसं नरकपपातं पतन्ता विय, ताळच्छिद्देन निक्कड्डियमाना हत्थी विय महादुक्खं अनुभवन्ता नानाअसुचिमक्खिताव निक्खमन्ति, न एवं बोधिसत्तो । बोधिसत्तन्हि 26 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.३१-३१) बोधिसत्तधम्मतावण्णना २७ कम्मजवाता उद्धपादं अधोसिरं कातुं न सक्कोन्ति । सो धम्मासनतो ओतरन्तो धम्मकथिको विय, निस्सेणितो ओतरन्तो पुरिसो विय च द्वे हत्थे च द्वे पादे च पसारेत्वा ठितकोव मातुकुच्छिसम्भवेन केनचि असुचिना अमक्खितोव निक्खमति । उदकस्स धाराति उदकवट्टियो । तासु सीता सुवण्णकटाहे पतति उण्हा रजतकटाहे । इदञ्च पथवितले केनचि असुचिना असम्मिस्सं तेसं पानीयपरिभोजनीयउदकञ्चेव अजेहि असाधारणं कीळाउदकञ्च दस्सेतुं वुत्तं, अञस्स पन सुवण्णरजतघटेहि आहरियमानउदकस्स चेव हंसवत्तकादिपोक्खरणीगतस्स च उदकस्स परिच्छेदो नत्थि । ३१. सम्पतिजातोति मुहुत्तजातो। पाळियं पन मातुकुच्छितो निक्खन्तमत्तो विय दस्सितो, न एवं दट्ठब्बं । निक्खन्तमत्तहि नं पठमं ब्रह्मानो सुवण्णजालेन पटिग्गव्हिंसु, तेसं हत्थतो चत्तारो महाराजानो अजिनप्पवेणिया, तेसं हत्थतो मनुस्सा दुकूलचुम्बटकेन । मनुस्सानं हत्थतो मुच्चित्वा पथवियं पतिहितो । सेतम्हि छत्ते अनुधारियमानेति दिब्बसेतच्छत्ते अनुधारियमानम्हि । एत्थ च छत्तस्स परिवारानि खग्गादीनि पञ्च राजककुधभण्डानिपि आगतानेव । पाळियं पन राजगमने राजा विय छत्तमेव वुत्तं । तेसु छत्तमेव पचायति, न छत्तग्गाहको | तथा खग्गतालवण्टमोरहत्थकवाळबीजनीउण्हीसमत्तायेव पायन्ति, न तेसं गाहका । सब्बानि किर तानि अदिस्समानरूपा देवता गण्डिंसु । वुत्तञ्चेतं -- "अनेकसाखञ्च सहस्समण्डलं, छत्तं मरू धारयुमन्तलिक्खे । सुवण्णदण्डा विपतन्ति चामरा, न दिस्सरे चामरछत्तगाहका''ति ।। (सु० नि० ६९३) सब्बा च दिसाति इदं सत्तपदवीतिहारूपरि ठितस्स विय सब्बदिसानुविलोकनं वुत्तं, न खो पनेवं दट्ठबं | महासत्तो हि मनुस्सानं हत्थतो मुच्चित्वा पठवियं पतिट्टितो पुरथिमं दिसं ओलोकेसि । अनेकानि चक्कवाळसहस्सानि एकङ्गणानि अहेसुं। तत्थ देवमनुस्सा गन्धमालादीहि पूजयमाना – “महापुरिस, इध तुम्हेहि सदिसोपि नत्थि, कुतो उत्तरितरो''ति आहंसु । एवं चतस्सो दिसा, चतस्सो अनुदिसा, हेट्ठा, उपरीति दस दिसा अनुविलोकेत्वा अत्तना सदिसं अदिस्वा- “अयं उत्तरा दिसा''ति उत्तराभिमुखो सत्तपदवीतिहारेन अगमासीति एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो | आसभिन्ति उत्तमं । अग्गोति गुणेहि सब्बपठमो । 27 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा इतरानि द्वे पदानि एतस्सेव वेवचनानि । अयमन्तिमा जाति, नत्थि दानि पुनब्भवोति पदद्वयेन इमस्मिं अत्तभावे पत्तब्बं अरहत्तं ब्याकासि । एत्थ च समेहि पादेहि पथविया पतिट्ठानं चतुरिद्धिपादपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं, उत्तराभिमुखभावो महाजनं अज्झोत्थरित्वा अभिभवित्वा गमनस्स पुब्बनिमित्तं, सत्तपदगमनं सत्तबोज्झङ्गरतनपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं, दिब्बसेतच्छत्तधारणं विमुत्तिवरछत्तपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं पञ्चराजककुधभण्डानं पटिलाभो पञ्चहि विमुत्तीहि विमुच्चनस्स पुब्बनिमित्तं, सब्बदिसानुविलोकनं अनावरणञाणपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं, आसभिवाचाभासनं अप्पटिवत्तियधम्मचक्कप्पवत्तनस्स पुब्बनिमित्तं, “अयमन्तिमा जाती "ति सीहनादो अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बानस्स पुब्बनिमित्तन्ति वेदितब्बं । इमे वारा पाळियं आगता, सम्बहुलवारो पन नागतो, आहरित्वा दीपेतब्बो । (१.३१--३१) 1 महापुरिसस्स हि जातदिवसे दससहस्सिलोकधातु कम्पि । दससहस्सिलोकधातुम्हि देवता एकचक्कवाळे सन्निपतिंसु । पठमं देवा पटिग्गहिंसु, पच्छा मनुस्सा । तन्तिबद्धा वीणा चम्मबद्धा भेरियो च केनचि अवादिता सयमेव वज्जिंसु । मनुस्सानं अन्दुबन्धनादीनि खण्डाखण्डं छिज्जिंसु । सब्बरोगा वूपसमिंसु, अम्बिलेन धोततम्बमलं वि विगच्छिंसु । जच्चन्धा रूपानि पस्सिंसु । जच्चबधिरा सद्दं सुणिसु । पीठसप्पी जवसम्पन्ना अहेसुं । जातिजळानम्पि एळमूगानं सति पतिट्ठासि । विदेसपक्खन्दा नावा सुपट्टनं पापुर्णिसु । आकासट्ठकभूमट्ठकरतनानि सकतेजोभासितानि अहेसुं । वेरिनो मेत्तचित्तं पटिलभिंसु । अवीचिम्हि अग्गि निब्बायि । लोकन्तरेसु आलोको उदपादि । नदीसु जलं नप्पवत्तति । महासमुद्दे मधुरसं उदकं अहोसि । वातो न वायि । आकासपब्बत रुक्खगता सकुणा भस्सित्वा पथविगता अहेसुं । चन्दो अतिविरोचि । सूरियो न उण्हो, न सीतलो, निम्मलो उतुसम्पन्नो अहोसि | देवता अत्तनो अत्तनो विमानद्वारे ठत्वा अप्फोटनसेळनचेलुक्खेपादीहि महाकीळकं कीळिंसु । चातुद्दीपिकमहामेघो वस्ति । महाजनं नेव खुदा न पिपासा पीळेसि । द्वारकवाटानि सयमेव विवरिंसु । पुप्फूपगफलूपगा रुक्खा पुप्फफलानि गहिंसु । दससहस्सिलोकधातु एकद्धजमाला अहोसि । तत्रापि दससहस्सिलोकधातुकम्पो सब्बञ्जतञ्ञाणपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं । देवतानं एकचक्कवाळे सन्निपातो धम्मचक्कप्पवत्तनकाले एकप्पहारेनेव सन्निपतित्वा धम्मं पटिग्गण्हनस्स पुब्बनिमित्तं । पठमं देवतानं पटिग्गहणं चतुन्नं रूपावचरज्झानानं 28 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.३१-३१) बोधिसत्तधम्मतावण्णना पटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं । पच्छा मनुस्सानं पटिग्गहणं चतुन्नं अरूपावचरज्झानानं पटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं । तन्तिबद्धवीणानं सयं वज्जनं अनुपुब्बविहारपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं । चम्मबद्धभेरीनं वज्जनं महतिया धम्मभेरिया अनुस्सावनस्स पुब्बनिमित्तं । अन्दुबन्धनादीनं छेदो अस्मिमानसमुच्छेदस्स पुब्बनिमित्तं । महाजनस्स रोगविगमो चतुसच्चपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं । जच्चन्धानं रूपदस्सनं दिब्बचक्खुपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं । बधिरानं सद्दस्सवनं दिब्बसोतधातुपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं । पीठसप्पीनं जवसम्पदा चतुरिद्धिपादपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं । जळानं सतिपतिट्ठानं चतुसतिपट्ठानपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं । विदेसपक्खन्दनावानं सुपट्टनसम्पापुणनं चतुपटिसम्भिदाधिगमस्स पुब्बनिमित्तं । रतनानं सकतेजोभासितत्तं यं लोकस्स धम्मोभासं दस्सेस्सति, तस्स पुब्बनिमित्तं । वेरीनं मेत्तचित्तपटिलाभो चतुब्रह्मविहारपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं । अवीचिम्हि अग्गिनिब्बायनं एकादस अग्गिनिब्बायनस्स पुब्बनिमित्तं । लोकन्तरिकालोको अविज्जन्धकारं विधमित्वा आणालोकदस्सनस्स पुब्बनिमित्तं । महासमुहस्स मधुरता निब्बानरसेन एकरसभावस्स पुब्बनिमित्तं । वातस्स अवायनं द्वासट्टिदिट्ठिगतभिन्दनस्स पुब्बनिमित्तं । सकुणानं पथविगमनं महाजनस्स ओवादं सुत्वा पाणेहि सरणगमनस्स पुब्बनिमित्तं । चन्दस्स अतिविरोचनं बहुजनकन्तताय पुब्बनिमित्तं । सूरियस्स उण्हसीतविवज्जनउतुसुखता कायिकचेतसिकसुखप्पत्तिया पुब्बनिमित्तं । देवतानं विमानद्वारेसु ठत्वा अप्फोटनादीहि कीळनं बुद्धभावं पत्वा उदानं उदानस्स पुब्बनिमित्तं । चातुद्दीपिकमहामेघवस्सनं महतो धम्ममेघवरसनस्स पुब्बनिमित्तं । खुदापीळनस्स अभावो कायगतासतिअमतपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं । पिपासापीळनस्स अभावो विमुत्तिसुखेन सुखितभावस्स पुब्बनिमित्तं । द्वारकवाटानं सयमेव विवरणं अट्ठङ्गिकमग्गद्वारविवरणस्स पुब्बनिमित्तं । रुक्खानं पुप्फफलग्गहणं विमुत्तिपुप्फेहि पुप्फितस्स च सामञ्ञफलभारभरितभावस्स च पुब्बनिमित्तं । दससहस्सिलोकधातुया एकद्वजमालिता अरियद्धजमालमालिताय पुब्बनिमित्तन्ति वेदितब्बं । अयं सम्बहुलवारो नाम । २९ एत्थ पहं पुच्छन्ति- “यदा महापुरिसो पथवियं पतिट्ठहित्वा उत्तराभिमुखो पदसा गन्त्वा आसभिं वाचं अभासि, तदा किं पथविया गतो, उदाहु आकासेन; दिस्समानो गतो, उदाहु अदिस्समानो; अचेलको गतो, उदाहु अलङ्कतपटियत्तो; दहरो हुत्वा गतो, उदाहु महल्लको; पच्छापि किं तादिसोव अहोसि, उदाहु पुन बालदारको "ति ? अयं पन पञ्हो हेट्ठालोहपासादे समुट्ठितो तिपिटकचूळाभयत्थेरेन विस्सज्जितोव । थेरो किर एत्थ 29 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.३३-३३) नियतिपुब्बेकतकम्मइस्सरनिम्मानवादवसेन तं तं बहुं वत्वा अवसाने एवं ब्याकरि"महापुरिसो पथविया गतो, महाजनस्स पन आकासेन गच्छन्तो विय अहोसि | दिस्समानो गतो, महाजनस्स पन अदिस्समानो विय अहोसि। अचेलको गतो, महाजनस्स पन अलङ्कतपटियत्तो विय उपट्ठासि । दहरोव गतो, महाजनस्स पन सोळसवस्सुद्देसिको विय अहोसि । पच्छा पन बालदारकोव अहोसि, न तादिसो''ति । परिसा चस्स – “बुद्धेन विय हुत्वा भो थेरेन पञ्हो कथितो"ति अत्तमना अहोसि । लोकन्तरिकवारो वुत्तनयो एव । इमा च पन आदितो पट्ठाय कथिता सब्बधम्मता सब्बबोधिसत्तानं होन्तीति वेदितब्बा। द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणवण्णना ३३. अद्दसा खोति दुकूलचुम्बटके निपज्जापेत्वा आनीतं अद्दस | महापुरिसस्साति जातिगोत्तकुलपदेसादिवसेन महन्तस्स पुरिसस्स । द्वे गतियोति द्वे निट्ठा, द्वे निप्फत्तियो । अयहि गतिसद्दो- “पञ्च खो इमा, सारिपुत्त, गतियो''ति (म० नि० १.१५३) एत्थ निरयादिभेदाय सत्तेहि गन्तब्बगतिया वत्तति । “इमेसं खो अहं भिक्खून सीलवन्तानं कल्याणधम्मानं नेव जानामि आगतिं वा गतिं वा''ति (म० नि० १.५०८) एत्थ अज्झासये । “निब्बानं अरहतो गतीति (परि० ३३९) एत्थ पटिस्सरणे । “अपि च त्याहं ब्रह्मे गतिञ्च पजानामि, जुतिञ्च पजानामि एवंमहिद्धिको बको ब्रह्मा"ति (म० नि० १.५०३) एत्थ निप्फत्तियं वत्तति | स्वायमिधापि निप्फत्तियं वत्ततीति वेदितब्बो । अनजाति अञ्जा गति निष्फत्ति नाम नत्थि । ___ धम्मिकोति दसकुसलधम्मसमन्नागतो अगतिगमनविरहितो। धम्मराजाति इदं पुरिमपदस्सेव वेवचनं । धम्मेन वा लद्धरज्जत्ता धम्मराजा । चातुरन्तोति पुरथिमसमुद्दादीनं चतुन्नं समुद्दानं वसेन चतुरन्ताय पथविया इस्सरो । विजितावीति विजितसङ्गामो । जनपदो अस्मिं थावरियं थिरभावं पत्तोति जनपदत्थावरियप्पत्तो। चण्डस्स हि रओ बलिदण्डादीहि लोकं पीळयतो मनुस्सा मज्झिमजनपदं छड्दुत्वा पब्बतसमुद्दतीरादीनि निस्साय पच्चन्ते वासं कप्पेन्ति । अतिमुदुकस्स रञो चोरेहि साहसिकधनविलोपपीळिता मनुस्सा पच्चन्तं पहाय जनपदमज्झे वासं कप्पेन्ति, इति एवरूपे राजिनि जनपदो थिरभावं न पापुणाति । इमस्मिं 30 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.३३-३३) द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणवण्णना ३१ पन कुमारे रज्जं कारयमाने एतस्स जनपदो पासाणपिट्ठियं ठपेत्वा अयोपट्टेन परिक्खित्तो विय थिरो भविस्सतीति दस्सेन्तो – “जनपदत्थावरियप्पत्तो''ति आहंसु । सत्तरतनसमत्रागतोति एत्थ रतिजननटेन रतनं। अपिच - “चित्तीकतं महग्घञ्च, अतुलं दुल्लभदस्सनं । अनोमसत्तपरिभोगं, रतनं तेन वुच्चति' ।। चक्करतनस्स च निब्बत्तकालतो पट्टाय अनं देवट्ठानं नाम न होति, सब्बे गन्धपुप्फादीहि तस्सेव पूजञ्च अभिवादनादीनि च करोन्तीति चित्तीकतट्टेन रतनं । चक्करतनस्स च एत्तकं नाम धनं अग्घतीति अग्यो नत्थि, इति महग्घटेनापि रतनं । चक्करतनञ्च अञहि लोके विज्जमानरतनेहि असदिसन्ति अतुलटेनापि रतनं । यस्मा च पन यस्मिं कप्पे बुद्धा उप्पज्जन्ति, तस्मिंयेव चक्कवत्तिनो उप्पज्जन्ति, बुद्धा च कदाचि करहचि उप्पज्जन्ति, तस्मा दुल्लभदस्सनटेनापि रतनं । तदेतं जातिरूपकुलइस्सरियादीहि अनोमस्स उळारसत्तस्सेव उप्पज्जति, न अञस्साति अनोमसत्तपरिभोगटेनापि रतनं । यथा चक्करतनं, एवं सेसानिपीति । इमेहि सत्तहि रतनेहि परिवारभावेन चेव सब्बभोगूपकरणभावेन च समन्नागतोति सत्तरतनसमन्नागतो। इदानि तेसं सरूपतो दस्सनत्थं तस्सिमानीतिआदि वुत्तं । तत्थ चक्करतनन्तिआदीसु अयं सोपाधिप्पायो- द्वेसहस्सदीपपरिवारानं चतुन्नं महादीपानं सिरिविभवं गहेत्वा दातुं समत्थं चक्करतनं पातुभवति । तथा पुरेभत्तमेव सागरपरियन्तं पथविं अनुसंयायनसमत्थं वेहासङ्गमं हत्थिरतनं, तादिसमेव अस्सरतनं, चतुरङ्गसमन्नागते अन्धकारे योजनप्पमाणं अन्धकारं विधमित्वा आलोकदस्सनसमत्थं मणिरतनं, छब्बिधदोसविवज्जितं मनापचारि इत्थिरतनं, योजनप्पमाणे अन्तोपथविगतं निधिं दस्सनसमत्थं गहपतिरतनं, अग्गमहेसिया कुच्छिम्हि निब्बत्तित्वा सकलरज्जमनुसासनसमत्थं जेट्टपुत्तसङ्खातं परिणायकरतनं पातुभवति । परोसहस्सन्ति अतिरेकसहस्सं | सूराति अभीरुका । वीरङ्गरूपाति वीरानं अङ्गं वीरङ्ग, वीरियस्सेतं नामं, वीरङ्गं रूपमेतेसन्ति वीरङ्गरूपा, वीरियजातिका वीरियसभावा वीरियमया अकिलासुनो अहेसुं । दिवसम्पि युज्झन्ता न किलमन्तीति वुत्तं होति । सागरपरियन्तन्ति चक्कवाळपब्बतं सीमं कत्वा ठितसमुद्दपरियन्तं । अदण्डेनाति ये कतापराधे सत्ते सतम्पि 31 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.३५-३५) सहस्सम्पि गण्हन्ति, ते धनदण्डेन रज्जं कारेन्ति । ये छेज्जभेज्जं अनुसासन्ति, ते सत्थदण्डेन । अयं पन दुविधम्पि दण्डं पहाय अदण्डेन अज्झावसति । असत्थेनाति ये एकतोधारादिना सत्थेन परं विहेसन्ति, ते सत्थेन रज्जं कारेन्ति नाम । अयं पन सत्थेन खुद्दमक्खिकायपि पिवनमत्तं लोहितं कस्सचि अनुप्पादेत्वा धम्मेनेव - “एहि खो महाराजा'"ति एवं पटिराजूहि सम्पटिच्छितागमनो वुत्तप्पकारं पथविं अभिविजिनित्वा अज्झावसति, अभिभवित्वा सामी हुत्वा वसतीति अत्थो। एवं एकं निप्फत्तिं कथेत्वा दुतियं कथेतुं सचे खो पनातिआदि वुत्तं । तत्थ रागदोसमोहमानदिविकिलेसतण्हासङ्खातं छदनं आवरणं विवटं विद्धंसितं विवटकं एतेनाति विवटच्छदो। “विवट्टच्छदा"तिपि पाठो, अयमेव अत्थो । ३५. एवं दुतियं निप्फत्तिं कथेत्वा तासं निमित्तभूतानि लक्खणानि दस्सेतुं अयहि, देव, कुमारोतिआदि वुत्तं । तत्थ सुप्पतिद्वितपादोति यथा अञसं भूमियं पादं ठपेन्तानं अग्गपादतलं वा पण्हि वा पस्सं वा पठमं फुसति, वेमज्झे वा पन छिदं होति, उक्खिपन्तानं अग्गतलादीसु एककोट्ठासोव पठमं उट्ठहति, न एवमस्स । अस्स पन सुवण्णपादुकतलमिव एकप्पहारेनेव सकलं पादतलं भूमिं फुसति, एकप्पहारेनेव भूमितो उट्ठहति । तस्मा अयं सुप्पतिट्टितपादो । चक्कानीति द्वीसु पादतलेसु द्वे चक्कानि, तेसं अरा च नेमि च नाभि च पाळियं वुत्ताव। सब्बाकारपरिपूरानीति इमिना पन अयं विसेसो वेदितब्बो, तेसं किर चक्कानं पादतलस्स मज्झे नाभि दिस्सति, नाभिपरिच्छिन्ना वट्टलेखा दिस्सति, नाभिमुखपरिक्खेपपट्टो दिस्सति, पनाळिमुखं दिसति, अरा दिस्सन्ति, अरेसु वट्टिलेखा दिस्सन्ति, नेमिमणिका दिस्सन्ति । इदं ताव पाळियं आगतमेव । सम्बहुलवारो पन अनागतो, सो एवं दट्टब्बो - सत्ति, सिरिवच्छो, नन्दि, सोवत्तिको, वटंसको, वड्डमानकं, मच्छयुगळं, भद्दपीठं, अङ्कुसको, पासादो, तोरणं, सेतच्छत्तं, खग्गो, तालवण्टं, मोरहत्थको, वाळबीजनी, उण्हीसं, मणि, पत्तो, सुमनदामं, नीलुप्पलं, रत्तुप्पलं, सेतुप्पलं, पदुमं, पुण्डरीकं, पुण्णघटो, पुण्णपाति, समुद्दो, चक्कवाळो, हिमवा, सिनेरु, चन्दिमसूरिया, नक्खत्तानि, चत्तारो महादीपा, द्विपरित्तदीपसहस्सानि, अन्तमसो चक्कवत्तिरो परिसं उपादाय सब्बो चक्कलक्खणस्सेव परिवारो। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.३५-३५) द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणवण्णना ३ आयतपण्हीति दीघपण्हि, परिपुण्णपण्हीति अत्थो । यथा हि अञ्जेसं अग्गपादो दीघो होति, पण्हिमत्थके जङ्घा पतिठ्ठाति, पण्हिं तच्छेत्वा ठपिता विय होति, न एवं महापुरिसस्स । महापुरिसस्स पन चतूसु कोट्ठासेसु द्वे कोट्ठासा अग्गपादो होति, ततिये कोट्ठासे जङ्घा पतिठ्ठाति, चतुत्थकोट्ठासे आरग्गेन वट्टेत्वा ठपिता विय रत्तकम्बलगेण्डुकसदिसा पण्हि होति । दीघङ्गुलीति यथा अञ्ओसं काचि अङ्गुलियो दीघा होन्ति, काचि रस्सा, न एवं महापुरिसस्स । महापुरिसस्स पन मक्कटस्सेव दीघा हत्थपादङ्गुलियो मूले थूला, अनुपुब्बेन गन्त्वा अग्गे तनुका, निय्यासतेलेन महित्वा वट्टितहरितालवट्टिसदिसा होन्ति । तेन वुत्तं - “दीघङ्गुली''ति । मुदुतलुनहत्थपादोति सप्पिमण्डे ओसारेत्वा ठपितं सतवारविहतकप्पासपटलं विय मुदु । यथा च इदानि जातमत्तस्स, एवं वुड्डकालेपि मुदुतलुनायेव भविस्सन्ति, मुदुतना हत्थपादा एतस्साति मुदुतलुनहत्थपादो । जालहत्थपादोति न चम्मेन पटिबद्धअङ्गुलन्तरो | एदिसो हि फणहत्थको पुरिसदोसेन उपहतो पब्बज्जं न पटिलभति । महापुरिसस्स पन चतस्सो हत्थङ्गुलियो पञ्चपि पादङ्गुलियो एकप्पमाणा होन्ति, तासं एकप्पमाणताय यवलक्खणं अञमचं पटिविज्झित्वा तिठ्ठति । अथस्स हत्थपादा कुसलेन वड्डकिना योजितजालवातपानसदिसा होन्ति । तेन वुत्तं - "जालहत्थपादो''ति । उद्धं पतिट्ठितगोप्फकत्ता उस्सङ्खा पादा अस्साति उस्सङ्खपादो। अञसहि पिट्ठिपादे गोप्फका होन्ति, तेन तेसं पादा आणिबद्धा विय बद्धा होन्ति, न यथासुखं परिवन्ति, गच्छन्तानं पादतलानिपि न दिस्सन्ति । महापुरिसस्स पन आरुहित्वा उपरि गोप्फका पतिट्ठहन्ति, तेनस्स नाभितो पट्टाय उपरिमकायो नावाय ठपितसुवण्णपटिमा विय निच्चलो होति, अधोकायोव इञ्जति, सुखेन पादा परिवन्ति, पुरतोपि पच्छतोपि उभयपस्सेसुपि ठत्वा पस्सन्तानं पादतलानि पञ्जायन्ति, न हत्थीनं विय पच्छतोयेव । एणिजोति एणिमिगसदिसजङ्घो मंसुस्सदेन परिपुण्णजङ्घो, न एकतो Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.३५-३५) सुवट्टिताहि बद्धपिण्डिकमंसो, समन्ततो समसण्ठितेन मंसेन परिक्खित्ताहि सालिगब्भयवगब्भसदिसाहि जवाहि समन्नागतोति अत्थो । अनोनमन्तोति अनमन्तो, एतेनस्स अखुज्जअवामनभावो दीपितो। अवसेसजना हि खुज्जा वा होन्ति वामना वा। खुज्जानं उपरिमकायो अपरिपुण्णो होति, वामनानं हेट्ठिमकायो । ते अपरिपुण्णकायत्ता न सक्कोन्ति अनोनमन्ता जण्णुकानि परिमज्जितुं । महापुरिसो पन परिपुण्णउभयकायत्ता सक्कोति ।। कोसोहितवत्थगुयहोति उसभवारणादीनं विय सुवण्णपदुमकण्णिकसदिसेहि कोसेहि ओहितं पटिच्छन्नं वत्थगुहं अस्साति कोसोहितवत्थगुटहो । वत्थगुप्हन्ति वत्थेन गुहितब्बं अङ्गजातं वुच्चति । सुवण्णवण्णोति जातिहिङ्गुलकेन मज्जित्वा दीपिदाठाय घंसित्वा गेरुकपरिकम्मं कत्वा ठपितघनसुवण्णरूपसदिसोति अत्थो। एतेनस्स घनसिनिद्धसण्हसरीरतं दरसेत्वा छविवण्णदस्सनत्थं कञ्चनसन्निभत्तचोति वुत्तं । पुरिमस्स वा वेवचनमेतं । रजोजल्लन्ति रजो वा मलं वा । न उपलिम्पतीति न लग्गति पदुमपलासतो उदकबिन्दु विय विवट्टति । हत्थधोवनादीनि पन उतुग्गहणत्थाय चेव दायकानं पुञफलत्थाय च बुद्धा करोन्ति, वत्तसीसेनापि च करोन्तियेव । सेनासनं पविसन्तेन हि भिक्खुना पादे धोवित्वा पविसितब्बन्ति वुत्तमेतं । उद्धग्गलोमोति आवट्टपरियोसाने उद्धग्गानि हुत्वा मुखसोभं उल्लोकयमानानि विय ठितानि लोमानि अस्साति उद्धग्गलोमो । ___ ब्रह्मजुगत्तोति ब्रह्मा विय उजुगत्तो, उजुमेव उग्गतदीघसरीरो भविस्सति । येभुय्येन हि सत्ता खन्धे कटियं जाणूसूति तीसु ठानेसु नमन्ति, ते कटियं नमन्ता पच्छतो नमन्ति, इतरेसु द्वीसु ठानेसु पुरतो । दीघसरीरा पन एके पस्सवङ्का होन्ति, एके मुखं उन्नमेत्वा नक्खत्तानि गणयन्ता विय चरन्ति, एके अप्पमंसलोहिता सूलसदिसा होन्ति, एके पुरतो पब्भारा होन्ति, पवेधमाना गच्छन्ति । अयं पन उजुमेव उग्गन्त्वा दीघप्पमाणो देवनगरे उस्सितसुवण्णतोरणं विय भविस्सतीति दीपेन्ति । यथा चेतं, एवं यं यं 34 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.३५-३५) द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणवण्णना ३५ जातमत्तस्स सब्बसो अपरिपुण्णं महापुरिसलक्खणं होति, तं तं आयतिं तथाभावितं सन्धाय वुत्तन्ति वेदितब्बं । सत्तुस्सदोति द्वे हत्थपिट्ठियो द्वे पादपिट्टियो द्वे अंसकूटानि खन्धोति इमेसु सत्तसु ठानेसु परिपुण्णो मंसुस्सदो अस्साति सत्तुस्सदो। अञ्जेसं पन हत्थपादपिट्ठादीसु सिराजालं पचायति, अंसकूटक्खन्धेसु अट्ठिकोटियो। ते मनुस्सा पेता विय खायन्ति, न तथा महापुरिसो, महापुरिसो पन सत्तसु ठानेसु परिपुण्णमंसुस्सदत्ता निगूळ्हसिराजालेहि हत्थपिट्ठादीहि वठूत्वा सुट्ठपितसुवण्णाळिङ्गसदिसेन खन्धेन सिलारूपकं विय खायति, चित्तकम्मरूपकं विय च खायति । सीहस्स पुब्बद्धं विय कायो अस्साति सीहपुब्बद्धकायो। सीहस्स हि पुरथिमकायोव परिपुण्णो होति, पच्छिमकायो अपरिपुण्णो । महापुरिसस्स पन सीहस्स पुब्बद्धकायो विय सब्बो कायो परिपुण्णो । सोपि सीहस्सेव तत्थ तत्थ विनतुन्नतादिवसेन दुस्सण्ठितविसण्ठितो न होति, दीघयुत्तट्टाने पन दीघो, रस्सथूलकिसपुथुलअनुवट्टितयुत्तट्टानेसु तथाविधोव होति । वुत्तञ्हेतं भगवता - ___“मनापियेव खो, भिक्खवे, कम्मविपाके पच्चुपट्ठिते येहि अङ्गेहि दीघेहि सोभति, तानि अङ्गानि दीघानि सण्ठन्ति । येहि अङ्गेहि रस्सेहि सोभति, तानि अङ्गानि रस्सानि सण्ठन्ति । येहि अङ्गेहि थूलेहि सोभति, तानि अङ्गानि थूलानि सण्ठन्ति । येहि अङ्गेहि किसेहि सोभति, तानि अङ्गानि किसानि सण्डन्ति । येहि अङ्गेहि पुथुलेहि सोभति, तानि अङ्गानि पुथुलानि सण्ठन्ति । येहि अङ्गेहि वट्टेहि सोभति, तानि अङ्गानि वट्टानि सण्ठन्ती"ति । इति नानाचित्तेन पुञ्जचित्तेन चित्तितो दसहि पारमीहि सज्जितो महापुरिसस्स अत्तभावो, लोके सब्बसिप्पिनो वा सब्बइद्धिमन्तो वा पतिरूपकम्पि कातुं न सक्कोन्ति । चितन्तरंसोति अन्तरंसं वुच्चति द्विन्नं कोट्टानं अन्तरं, तं चितं परिपुण्णं अन्तरंसं अस्साति चितन्तरंसो। अ सहि तं ठानं निन्नं होति, द्वे पिट्ठिकोडा पाटियेक्का पञायन्ति। महापुरिसस्स पन कटितो पट्ठाय मंसपटलं याव खन्धा उग्गम्म समुस्सितसुवण्णफलकं विय पिढेि छादेत्वा पतिट्टितं । 35 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.३५-३५) निग्रोधपरिमण्डलोति निग्रोधो विय परिमण्डलो । यथा पञ्जासहत्थताय वा सतहत्थताय वा समक्खन्धसाखो निग्रोधो दीघतोपि वित्थारतोपि एकप्पमाणोव होति, एवं कायतोपि ब्यामतोपि एकप्पमाणो । यथा अजेसं कायो दीघो वा होति ब्यामो वा, न एवं विसमप्पमाणोति अत्थो । तेनेव यावतक्वस्स कायोतिआदि वुत्तं । तत्थ यावतको अस्साति यावतक्वस्स। समवट्टक्खन्धोति समवट्टितक्खन्धो । यथा एके कोञ्चा विय च बका विय च वराहा विय च दीघगला वङ्कगला पुथुलगला च होन्ति, कथनकाले सिराजालं पञ्जायति, मन्दो सरो निक्खमति, न एवं महापुरिसस्स । महापुरिसस्स पन सुवट्टितसुवण्णाळिङ्गसदिसो खन्धो होति, कथनकाले सिराजालं न पचायति, मेघस्स विय गज्जितो सरो महा होति । रसग्गसग्गीति एत्थ रसं गसन्ति हरन्तीति रसग्गसा । रसहरणीनमेतं अधिवचनं, ता अग्गा अस्साति रसग्गसग्गी । महापुरिसस्स किर सत्तरसहरणीसहस्सानि उद्धग्गानि हुत्वा गीवायमेव पटिमुक्कानि । तिलफलमत्तोपि आहारो जिव्हग्गे ठपितो सब्बकायं अनुफरति । तेनेव महापधानं पदहन्तस्स एकतण्डुलादीहिपि कळाययूसपसतमत्तेनापि कायस्स यापनं अहोसि । अञ्जेसं पन तथा अभावा न सकलं कायं ओजा फरति । तेन ते बह्वाबाधा होन्ति । सीहस्सेव हनु अस्साति सीहहनु। तत्थ सीहस्स हेट्टिमहनुमेव परिपुण्णं होति, न उपरिमं । महापुरिसस्स पन सीहस्स हेट्ठिमं विय द्वेपि परिपुण्णानि द्वादसिया पक्खस्स चन्दसदिसानि होन्ति । अथ नेमित्तका हनुकपरियन्तं ओलोकेन्ताव इमेसु हनुकेसु हेट्टिमे वीसति उपरिमे वीसतीति चत्तालीसदन्ता समा अविरळा पतिद्वहिस्सन्तीति सल्लक्खेत्वा अयहि देव, कुमारो चत्तालीसदन्तो होतीतिआदिमाहंसु । तत्रायमत्थो, अ सहि परिपुण्णदन्तानम्पि द्वत्तिंस दन्ता होन्ति । इमस्स पन चत्तालीसं भविस्सन्ति । अञसञ्च केचि दन्ता उच्चा, केचि नीचाति विसमा होन्ति, इमस्स पन अयपट्टकेन छिन्नसङ्खपटलं विय समा भविस्सन्ति । अजेसं कुम्भिलानं विय दन्ता विरळा होन्ति, मच्छमंसानि खादन्तानं दन्तन्तरं पूरेन्ति । इमस्स पन कनकफलकायं समुस्सितवजिरपन्ति विय अविरळा तूलिकाय दस्सितपरिच्छेदा विय दन्ता भविस्सन्ति । अञसञ्च पूतिदन्ता उठ्ठहन्ति । तेन काचि दाठा काळापि विवण्णापि होन्ति । अयं पन सुटु सुक्कदाठो ओसधितारकम्पि अतिक्कम्म विरोचमानाय पभाय समन्नागतदाठो भविस्सति । 36 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.३५-३५) द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणवण्णना पहूतजिव्होति पुथुलजिव्हो । असं जिव्हा थूलापि होन्ति किसापि रस्सापि थद्धापि विसमापि, महापुरिसस्स पन जिव्हा मुदु दीघा पुथुला वण्णसम्पन्ना होति । सो हि एतं लक्खणं परियेसितुं आगतानं कलाविनोदनत्थं मुदुकत्ता तं जिव्हं कथिनसूचिं विय वठूत्वा उभो नासिकसोतानि परामसति, दीघत्ता उभो कण्णसोतानि परामसति, पुथुलत्ता केसन्तपरियोसानं केवलम्पि नलाटं पटिच्छादेति । एवमस्स मुदुदीघपुथुलभावं पकासेन्तो तेसं कचं विनोदेति । एवं तिलक्खणसम्पन्नं जिव्हं सन्धाय “पहूतजिव्हो"ति वुत्तं । ब्रह्मस्सरोति अछे छिन्नस्सरापि भिन्नस्सरापि काकस्सरापि होन्ति, अयं पन महाब्रह्मनो सरसदिसेन सरेन समन्नागतो भविस्सति, महाब्रह्मनो हि पित्तसेम्हेहि अपलिबुद्धत्ता सरो विसदो होति । महापुरिसेनापि कतकम्मं तस्स वत्थु सोधेति । वत्थुनो सुद्धत्ता नाभितो पट्ठाय समुट्ठहन्तो सरो विसदो अट्ठङ्गसमन्नागतोव समुट्ठाति । करवीको विय भणतीति करवीकभाणी, मत्तकरवीकरुतमञ्जुघोसोति अत्थो । अभिनीलनेत्तोति न सकलनीलनेत्तो, नीलयुत्तट्ठाने पनस्स उमापुप्फसदिसेन अतिविसुद्धेन नीलवण्णेन समन्नागतानि नेत्तानि होन्ति, पीतयुत्तट्टाने कणिकारपुप्फसदिसेन पीतवण्णेन, लोहितयुत्तट्ठाने बन्धुजीवकपुप्फसदिसेन लोहितवण्णेन, सेतयुत्तहाने ओसधितारकसदिसेन सेतवण्णेन, काळयुत्तट्ठाने अद्दारिट्ठकसदिसेन काळवण्णेन समन्नागतानि । सुवण्णविमाने उग्घाटितमणिसीहपञ्जरसदिसानि खायन्ति । गोपखुमोति एत्थ पखुमन्ति सकलचक्खुभण्डं अधिप्पेतं, तं काळवच्छकस्स बहलधातुकं होति, रत्तवच्छकस्स विप्पसन्नं, तंमुहुत्तजाततरुणरत्तवच्छकसदिसचक्खुभण्डोति अत्थो । अञ्चेसहि चक्खुभण्डा अपरिपुण्णा होन्ति, हथिमूसिकादीनं अक्खिसदिसेहि विनिग्गतेहिपि गम्भीरेहिपि अक्खीहि समन्नागता होन्ति । महापुरिसस्स पन धोवित्वा मज्जित्वा ठपितमणिगुळिका विय मुदुसिनिद्धनीलसुखुमपखुमाचितानि अक्खीनि । उण्णाति उण्णलोमं । भमुकन्तरेति द्विन्नं भमुकानं वेमज्झे नासिकमत्थकेयेव जाता, उग्गन्त्वा पन नलाटवेमज्झे जाता । ओदाताति परिसुद्धा, ओसधितारकसमानवण्णा | मुदूति सप्पिमण्डे ओसारेत्वा ठपितसतवारविहतकप्पासपटलसदिसा । तूलसन्निभाति सिम्बलितूललतातूलसमाना, अयमस्स ओदातताय उपमा । सा पनेसा कोटियं गहेत्वा आकड्वियमाना उपड्ढबाहुप्पमाणा होति, विस्सट्ठा दक्खिणावट्टवसेन आवट्टित्वा उद्धग्गा 37 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.३७-३८) हुत्वा सन्तिट्ठति । सुवण्णफलकमज्झे ठपितरजतपुब्बुळकं विय, सुवण्णघटतो निक्खममाना खीरधारा विय, अरुणप्पभारञ्जिते गगनप्पदेसे ओसधितारका विय च अतिमनोहराय सिरिया विरोचति । उण्हीससीसोति इदं परिपुण्णनलाटतञ्च परिपुण्णसीसतं चाति द्वे अत्थवसे पटिच्च वुत्तं । महापुरिसस्स हि दक्खिणकण्णचूळिकतो पट्ठाय मंसपटलं उट्ठहित्वा सकलनलाटं छादयमानं पूरयमानं गन्त्वा वामकण्णचूळिकायं पतिट्टितं, तं रो बन्धउण्हीसपट्टो विय विरोचति । महापुरिसस्स किर इमं लक्खणं दिस्वा राजूनं उण्हीसपढें अकंसु । अयं ताव एको अत्थो । अछे पन जना अपरिपुण्णसीसा होन्ति, केचि कपिसीसा, केचि फलसीसा, केचि अट्ठिसीसा, केचि हथिसीसा, केचि तुम्बसीसा, केचि पब्भारसीसा । महापुरिसस्स पन आरग्गेन वठूत्वा ठपितं विय सुपरिपुण्णं उदकपुब्बुळसदिसं सीसं होति । तत्थ पुरिमनये उण्हीसवेठितसीसो वियाति उण्हीससीसो । दुतियनये उण्हीसं विय सब्बत्थ परिमण्डलसीसोति उण्हीससीसो । विपस्सीसमावण्णना ३७. सब्बकामेहीति इदं लक्खणानि परिग्गण्हापेत्वा पच्छा कतं विय वुत्तं, न पनेवं दट्ठब्बं । पठमहि ते नेमित्तके सन्तप्पेत्वा पच्छा लक्खणपरिग्गण्हनं कतन्ति वेदितब्बं । तस्स वित्थारो गब्भोक्कन्तियं वुत्तोयेव । पायेन्तीति थझं पायेन्ति । तस्स किर निद्दोसेन मधुरेन खीरेन समन्नागता सट्टि धातियो उपट्ठापेसि, तथा सेसापि तेसु तेसु कम्मेसु कुसला सट्ठिसट्ठियेव । तासं पेसनकारके सट्ठि पुरिसे, तस्स तस्स कताकतभावं सल्लक्खणे सढि अमच्चे उपट्ठापेसि । एवं चत्तारि सट्ठियो इत्थीनं, द्वे सट्ठियो पुरिसानन्ति छ सट्ठियो उपट्ठकानंयेव अहेसुं । सेतच्छत्तन्ति दिब्बसेतच्छत्तं । कुलदत्तियं पन सिरिगब्भेयेव तिट्टति । मा नं सीतं वातिआदीसु मा अभिभवीति अत्थो वेदितब्बो । स्वास्सुदन्ति सो अस्सुदं । अङ्केनेव अङ्कन्ति अञस्स बाहुनाव अञस्स बाहुं । अञस्स च अंसकूटेनेव अञस्स अंसकूटं । परिहरियतीति नीयति, सम्पापियतीति अत्थो । ३८. मञ्जुस्सरोति अखरस्सरो। वग्गुस्सरोति छेकनिपुणस्सरो। मधुरस्सरोति सातस्सरो। पेमनियस्सरोति पेमजनकस्सरो। तत्रिदं करवीकानं मधुरस्सरताय - करवीकसकुणे किर मधुररसं अम्बपक्कं मुखतुण्डकेन पहरित्वा पग्घरितरसं पिवित्वा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.३९-४०) विपस्सीसमजावण्णना पक्खेन तालं दत्वा विकूजमाने चतुप्पदा मत्ता विय लळितुं आरभन्ति । गोचरपसुतापि चतुप्पदा मुखगतानि तिणानि छड्डेत्वा तं सदं सुणन्ति । वाळमिगा खुद्दकमिगे अनुबन्धमाना उक्खित्तं पादं अनिक्खिपित्वाव तिट्ठन्ति । अनुबद्धमिगा च मरणभयं जहित्वा तिट्ठन्ति । आकासे पक्खन्दा पक्खिनोपि पक्खे पसारेत्वा तं सदं सुणमानाव तिट्ठन्ति । उदके मच्छापि कण्णपटलं पप्फोटेत्वा तं सदं सुणमानाव तिट्ठन्ति । एवं मधुरस्सरा करवीका । असन्धिमित्तापि धम्मासोकस्स देवी - "अस्थि नु खो, भन्ते, बुद्धस्सरेन सदिसो कस्सचि सरो''ति सद्धं पुच्छि । अस्थि करवीकसकुणस्साति । कुहि, भन्ते, ते सकुणाति ? हिमवन्तेति । सा राजानं आह - “देव, अहं करवीकसकुणं पस्सितुकामाम्ही"ति । राजा"इमस्मिं पञ्जरे निसीदित्वा करवीको आगच्छतू''ति सुवण्णपञ्जरं विस्सज्जेसि । पञ्जरो गन्त्वा एकस्स करवीकस्स पुरतो अट्ठासि । सो- “राजाणाय आगतो पञ्जरो, न सक्का न गन्तुन्ति तत्थ निसीदि । पञ्जरो आगन्त्वा रो पुरतो अट्ठासि । न करवीकसदं कारापेतुं सक्कोन्ति । अथ राजा- “कथं, भणे, इमे सदं न करोन्ती"ति आह । जातके अदिस्वा देवाति । अथ नं राजा आदासेहि परिक्खिपापेसि । सो अत्तनो छायं दिस्वा - "आतका मे आगता"ति मञ्जमानो पक्खेन तालं दत्वा मधुरस्सरेन मणिवंसं धममानो विय विरवि । सकलनगरे मनुस्सा मत्ता विय ललिंसु । असन्धिमित्ता चिन्तेसि - “इमस्स ताव तिरच्छानगतस्स एवं मधुरो सद्दो, कीदिसो नु खो सब्ब ताणसिरिपत्तस्स भगवतो सद्दो अहोसी"ति पीति उप्पादेत्वा तं पीति अविजहित्वा सत्तहि जङ्घसतेहि सद्धिं सोतापत्तिफले पतिट्ठासि । एवं मधुरो किर करवीकसद्दोति । ततो पन सतभागेन सहस्सभागेन च मधुरतरो विपस्सिस्स कुमारस्स सद्दो अहोसीति वेदितब्बो । ३९. कम्मविपाकजन्ति न भावनामयं, कम्मविपाकवसेन पन देवतानं चक्खुसदिसमेव मंसचक्खु अहोसि, येन निमित्तं कत्वा तिलवाहे पक्खित्तं एकतिलम्पि अयं सोति उद्धरित्वा दातुं सक्कोति । ४०. विपस्सीति एत्थ अयं वचनत्थो, अन्तरन्तरा निमीलजनितन्धकारविरहेन विसुद्धं पस्सति, विवटेहि च अक्खीहि पस्सतीति विपस्सी; दुतियवारे विचेय्य विचेय्य पस्सतीति विपस्सी; विचिनित्वा विचिनित्वा पस्सतीति अत्थो । अत्थे पनायतीति अत्थे जानाति पस्सति, नयति वा पवत्तेतीति अत्थो । एकदिवसं 39 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.४२-४२) किर विनिच्छयट्ठाने निसीदित्वा अत्थे अनुसासन्तस्स रञो अलङ्कतपटियत्तं महापुरिसं आनेत्वा हत्थे ठपयिंसु । तस्स तं अङ्केकत्वा उपलाळयमानस्सेव अमच्चा सामिकं अस्सामिकं अकंसु । बोधिसत्तो अनत्तमनसई निच्छारेसि । राजा - "किमेतं, उपधारेथा''ति आह । उपधारियमाना अचं अदिस्वा- “अड्डुस्स दुब्बिनिच्छितत्ता एवं कतं भविस्सती''ति पुन सामिकंयेव सामिकं कत्वा “ञत्वा नु खो कुमारो एवं करोती''ति वीमंसन्ता पुन सामिकं अस्सामिकं अकंसु । पुनपि बोधिसत्तो तथैव सदं निच्छारेसि । अथ राजा - “जानाति महापुरिसो''ति ततो पट्ठाय अप्पमत्तो अहोसि । इदं सन्धाय वुत्तं - “विचेय्य विचेय्य कुमारो अत्थे पनायतीति । ४२. वस्सिकन्तिआदीसु यत्थ सुखं होति वस्सकाले वसितुं, अयं वस्सिको । इतरेसुपि एसेव नयो । अयं पनेत्थ वचनत्थो वस्सावासो वस्सं, वस्सं अरहतीति वस्सिको । इतरेसुपि एसेव नयो। तत्थ वस्सिको पासादो नातिउच्चो होति, नातिनीचो, द्वारवातपानानिपिस्स नातिबहूनि नातितनूनि, भूमत्थरणपच्चत्थरणखज्जभोज्जानिपेत्थ मिस्सकानेव वन्ति । हेमन्तिके थम्भापि भित्तियोपि नीचा होन्ति, द्वारवातपानानि तनुकानि सुखुमच्छिद्दानि, उण्हप्पवेसनत्थाय भित्तिनियूहानि नीहरियन्ति । भूमत्थरणपच्चत्थरणनिवासनपारुपनानि पनेत्थ उण्हविरियानि कम्बलादीनि वट्टन्ति। खज्जभोज्जं सिनिलु कटुकसन्निस्सितं निरुदकसन्निस्सितञ्च । गिम्हिके थम्भापि भित्तियोपि उच्चा होन्ति, द्वारवातपानानि पनेत्थ बहूनि विपुलजातानि होन्ति, भूमत्थरणादीनि दुकूलमयानि वट्टन्ति । खज्जभोज्जानि मधुरससन्निस्सितभरितानि । वातपानसमीपेसु चेत्थ नव चाटियो ठपेत्वा उदकस्स पूरेत्वा नीलुप्पलादीहि सञ्छादेन्ति । तेसु तेसु पदेसेसु उदकयन्तानि करोन्ति, येहि देवे वस्सन्ते विय उदकधारा निक्खमन्ति । निप्पुरिसेहीति पुरिसविरहितेहि। न केवलञ्चेत्थ तूरियानेव निप्पुरिसानि, सब्बट्ठानानिपि निप्पुरिसानेव, दोवारिकापि इत्थियोव, नहापनादिपरिकम्मकरापि इत्थियोव । राजा किर - "तथारूपं इस्सरियसुखसम्पत्तिं अनुभवमानस्स पुरिसं दिस्वा पुरिसासङ्का उप्पज्जति, सा मे पुत्तस्स मा अहोसी"ति सब्बकिच्चेसु इत्थियोव ठपेसीति । पठमभाणवारवण्णना निविता । 40 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.४३-४४-४७) जिण्णपुरिसवण्णना जिण्णपुरिसवण्णना ४३-४४. दुतियभाणवारे गोपानसिवन्ति गोपानसी विय वङ्कं । भोग्गन्ति खन्धे, कटियं, जाणूसूति तीसु ठानेसु भोग्गवङ्कं । दण्डपरायनन्ति दण्डगतिकं दण्डपटिसरणं । आतुरन्ति जरातुरं । गतयोब्बनन्ति अतिक्कन्तयोब्बनं पच्छिमवये ठितं । दिस्वाति अड्ढयोजनप्पमाणेन बलकायेन परिवुतो सुसंविहितारक्खोपि गच्छन्तो यदा रथो पुरतो होति, पच्छा बलकायो, तादिसे ओकासे सुद्धावासखीणासवब्रह्मेहि अत्तनो आनुभावेन रथस्स पुरतोव दस्सितं, तं पुरिसं पस्सित्वा । सुद्धावासा किर- " महापुरिसो पङ्के गजो विय पञ्चसु कामगुणेसु लग्गो, सतिमस्स उप्पादेस्सामा 'ति तं दस्सेसुं । एवं दस्सितञ्च तं बोधिसत्तो चेव पस्सति सारथि च । ब्रह्मानो हि बोधिसत्तस्स अप्पमादत्थं सारथिस्स च कथासल्लापत्थं तं दस्सेसुं । किं पनेसोति " एसो जिणोति किं वुत्तं होति, नाहं, भो इतो पुब्बे एवरूपं अद्दसन्ति पुच्छि । " तेन हीति यदि मय्हम्पि एवरूपेहि केसेहि एवरूपेन च कायेन भवितब्बं तेन हि सम्म सारथि । अलं दानज्ज उय्यानभूमियाति - 'अज्ज उय्यानभूमिं पस्सिस्सामा 'ति गच्छाम, अलं ताय उय्यानभूमियाति संविग्गहदयो संवेगानुरूपमाह । अन्तेपुरं गतोति इत्थिजनं विस्सज्जेत्वा सिरिगब्भे एककोव निसिन्नो । यत्र हि नामाति याय जातिया सति जरा पञ्ञायति, सा जाति धिरत्थु धिक्कता अत्थु, जिगुच्छामेतं जातिन्ति, जातिया मूलं खणन्तो निसीदि, पठमेन सल्लेन हदये विद्धो विय । ४१ ४५. सारथिं आमन्तापेत्वाति राजा किर नेमित्तकेहि कथितकालतो पट्ठाय ओहितसोतो विचरति, सो “कुमारो उय्यानं गच्छन्तो अन्तरामग्गे निवत्तो" ति सुत्वा सारथिं आमन्तापेसि । मा हेव खोतिआदीसु रज्जं कारेतु, मा पब्बजतु, ब्राह्मणानं वचनं मा सच्चं होतूति एवं चिन्तेसीति अत्थो । ब्याधिपुरिसवण्णना ४७. अद्दसा खोति पुब्बे वृत्तनयेनेव सुद्धावासेहि दस्सितं अद्दस । आबाधिकन्ति इरियापथभञ्जनकेन विसभागबाधेन आबाधिकं । दुक्खितन्ति रोगदुक्खेन दुक्खितं । बाळ्हगिलानन्ति अधिमत्तगिलानं । पलिपन्नन्ति निमुग्गं । जरा पञ्ञायिस्सति ब्याधि 41 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.५०-५४) पञायिस्सतीति इधापि याय जातिया सति इदं द्वयं पञ्जायति, धिक्कता सा जाति, अजातं खेमन्ति जातिया मूलं खणन्तो निसीदि, दुतियेन सल्लेन विद्धो विय । कालङ्कतपुरिसवण्णना ५०. विलातन्ति सिविकं । पेतन्ति इतो पटिगतं । कालङ्कतन्ति कतकालं, यत्तकं तेन कालं जीवितब्बं, तं सब्बं कत्वा निट्ठपेत्वा मतन्ति अत्थो । इमम्पिस्स पुरिमनयेनेव ब्रह्मानो दस्सेसुं । यत्र हि नामाति इधापि याय जातिया सति इदं तयं पञ्जायति, धिक्कता सा जाति, अजातं खेमन्ति जातिया मूलं खणन्तो निसीदि, ततियेन सल्लेन विद्धो विय । पब्बजितवण्णना ५२. भण्डुन्ति मुण्डं। इमम्पिस्स पुरिमनयेनेव ब्रह्मानो दस्सेसुं। साधु धम्मचरियातिआदीसु अयं देव धम्मचरणभावो साधूति चिन्तेत्वा पब्बजितोति एवं एकमेकस्स पदस्स योजना वेदितब्बा। सब्बानि चेतानि दसकुसलकम्मपथवेवचनानेव । अवसाने पन अविहिंसाति करुणाय पुब्बभागो। अनुकम्पाति मेत्ताय पुब्बभागो । तेनहीति उय्योजनत्थे निपातो। पब्बजितं हिस्स दिस्वा चित्तं पब्बज्जाय निन्नं जातं । अथ तेन सद्धिं कथेतुकामो हुत्वा सारथिं उय्योजेन्तो तेन हीतिआदिमाह । बोधिसत्तपब्बज्जावण्णना ५४. अथ खो, भिक्खवेति - “पब्बजितस्स साधु धम्मचरिया'तिआदीनि च अञञ्च बहु महाजनकायेन रक्खियमानस्स पुत्तदारसम्बाधे घरे वसतो आदीनवपटिसंयुत्तञ्चेव मिगभूतेन चेतसा यथासुखं वने वसतो पब्बजितस्स विवेकानिसंसपटिसंयुत्तञ्च धम्मिं कथं सुत्वा पब्बजितुकामो हुत्वा - अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो सारथिं आमन्तेसि । इमानि चत्तारि दिस्वा पब्बजितं नाम सब्बबोधिसत्तानं वंसोव तन्तियेव पवेणीयेव । अजेपि च बोधिसत्ता यथा अयं विपस्सी कुमारो, एवं चिरस्सं चिरस्सं पस्सन्ति । अम्हाकं पन बोधिसत्तो चत्तारिपि एकदिवसंयेव दिस्वा महाभिनिक्खमनं निक्खमित्वा 42 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.५५-५५) महाजनकायअनुपब्बज्जावण्णना अनोमानदीतीरे पब्बजितो। तेनेव राजगहं पत्वा तत्थ रञा बिम्बिसारेन – “किमत्थं, पण्डित, पब्बजितोसीति" पुट्ठो आह - “जिण्णञ्च दिस्वा दुखितञ्च ब्याधितं, मतञ्च दिस्वा गतमायुसङ्खयं । कासायवत्थं पब्बजितञ्च दिस्वा, तस्मा अहं पब्बजितोम्हि राजा''ति ।। महाजनकायअनुपब्बज्जावण्णना ५५. सुत्वान तेसन्ति तेसं चतुरासीतिया पाणसहस्सानं सुत्वा एतदहोसि । ओरकोति ऊनको लामको । अनुपब्बजिंसूति अनुपब्बजितानि | कस्मा पनेत्थ यथा परतो खण्डतिस्सानं अनुपब्बज्जाय – “बन्धुमतिया राजधानिया निक्खमित्वा"ति वुत्तं, एवं न वुत्तन्ति ? निक्खमित्वा सुतत्ता। एते किर सब्बेपि विपस्सिस्स कुमारस्स उपट्ठाकपरिसाव, ते पातोव उपट्टानं आगन्त्वा कुमारं अदिस्वा पातरासत्थाय गन्त्वा भुत्तपातरासा आगम्म “कुहिं कुमारो''ति पुच्छित्वा “उय्यानभूमिं गतो"ति सुत्वा “तत्थेव नं दक्खिस्सामा'ति निक्खमन्ता निवत्तमानं सारथिं दिस्वा – “कुमारो पब्बजितो''ति चस्स वचनं सुत्वा सुतठ्ठानेयेव सब्बाभरणानि ओमुञ्चित्वा अन्तरापणतो कासावपीतानि वत्थानि आहरापेत्वा केसमस्सुं ओहारेत्वा पब्बजिंसु । इति नगरतो निक्खमित्वा बहिनगरे सुतत्ता एत्थ"बन्धुमतिया राजधानिया निक्खमित्वाति न वुत्तं । ___चारिकं चरतीति गतगतट्टाने महामण्डपं कत्वा दानं सज्जेत्वा आगम्म स्वातनाय निमन्तितो जनस्स आयाचितभिक्खमेव पटिग्गण्हन्तो चत्तारो मासे चारिकं चरि । आकिण्णोति इमिना गणेन परिवुतो। अयं पन वितक्को बोधिसत्तस्स कदा उप्पन्नोति ? स्वे विसाखपुण्णमा भविस्सतीति चातुद्दसीदिवसे । तदा किर सो- “यथेव मं इमे पुब्बे गिहिभूतं परिवारेत्वा चरन्ति, इदानिपि तथेव, किं इमिना गणेना''ति गणसङ्गणिकाय उक्कण्ठित्वा “अज्जेव गच्छामी''ति चिन्तेत्वा पुन “अज्ज अवेला, सचे इदानि गमिस्सामि, सब्बेव इमे जानिस्सन्ति, स्वेव गमिस्सामी"ति चिन्तेसि । तं दिवसञ्च उरुवेलगामसदिसे गामे गामवासिनो स्वातनाय निमन्तयिंसु। ते चतुरासीतिसहस्सानम्पि 43 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.५७-५७) तेसं पब्बजितानं महापुरिसस्स च पायासमेव पटियादयिंसु । अथ महापुरिसो पुनदिवसे तस्मिंयेव गामे तेहि पब्बजितेहि सद्धिं भत्तकिच्चं कत्वा वसनट्ठानमेव अगमासि । तत्थ ते पब्बजिता महापुरिसस्स वत्तं दस्सेत्वा अत्तनो अत्तनो रत्तिट्ठानदिवाढानानि पविठ्ठा । बोधिसत्तोपि पण्णसालं पविसित्वा निसिन्नो । "ठिते मज्झन्हिके काले, सन्निसीवेसु पक्खिसु । सणतेव ब्रहारचं, तं भयं पटिभाति मन्ति ।। (सं० नि० १.१.१५) एवरूपे अविवेकारामानं भयकाले सब्बसत्तानं सदरथकालेयेव - “अयं कालो"ति निक्खमित्वा पण्णसालाय द्वारं पिदहित्वा बोधिमण्डाभिमुखो पायासि । अञदापि च तस्मिं ठाने विचरन्तो बोधिमण्डं पस्सति, निसीदितुं पनस्स चित्तं न नमितपुब्बं । तं दिवसं पनस्स जाणं परिपाकगतं, तस्मा अलङ्कतं बोधिमण्डं दिस्वा आरोहनत्थाय चित्तं उप्पन्नं । सो दक्खिणदिसाभागेन उपगम्म पदक्खिणं कत्वा पुरत्थिमदिसाभागे चुद्दसहत्थं पल्लङ्क पञपेत्वा चतुरङ्गवीरियं अधिट्ठहित्वा – “याव बुद्धो न होमि, न ताव इतो वुट्ठहामी''ति पटिझं कत्वा निसीदि । इदमस्स वूपकासं सन्धाय - "एकोव गणम्हा वूपकट्ठो विहासी''ति वुत्तं । अज्ञेनेव तानीति ते किर सायं बोधिसत्तस्स उपट्टानं आगन्त्वा पण्णसालं परिवारेत्वा निसिन्ना “अतिविकालो जातो, उपधारेथा''ति वत्वा पण्णसालं विवरित्वा तं अपस्सन्तापि “कुहिं गतो''ति नानुबन्धिंसु, “गणवासे निबिन्नो एको विहरितुकामो मझे महापुरिसो, बुद्धभूतंयेव नं पस्सिस्सामा"ति वत्वा अन्तोजम्बुदीपाभिमुखा चारिकं पक्कन्ता। बोधिसत्तअभिवेसवण्णना ५७. वासूपगतस्साति बोधिमण्डे एकरत्तिवासं उपगतस्स। रहोगतस्साति रहसि गतस्स। पटिसल्लीनस्साति एकीभाववसेन निलीनस्स । किच्छन्ति दुक्खं । चवति च उपपज्जति चाति इदं द्वयं पन अपरापरं चुतिपटिसन्धिं सन्धाय वुत्तं । जरामरणस्साति एत्थ यस्मा पब्बजन्तो जिण्णब्याधिमत्तेयेव दिस्वा पब्बजितो, तस्मास्स जरामरणमेव उपट्ठाति । 44 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.५८-५८) बोधिसत्तअभिवेसवण्णना ४५ तेनेवाह - “जरामरणस्सा''ति । इति जरामरणं मूलं कत्वा अभिनिविट्ठस्स भवग्गतो ओतरन्तस्स विय - अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि । योनिसोमनसिकाराति उपायमनसिकारा पथमनसिकारा । अनिच्चादीनि हि अनिच्चादितोव मनसिकरोतो योनिसोमनसिकारो नाम होति । अयञ्च – “किस्मिं नु खो सतिजातिआदीनि होन्ति, किस्मिं असति न होन्ती''ति उदयब्बयानुपस्सनावसेन पवत्तत्ता तेसं अञतरो। तस्मास्स इतो योनिसोमनसिकारा इमिना उपायमनसिकारेन अहु पञ्जाय अभिसमयो, बोधिसत्तस्स पाय यस्मिं सति जरामरणं होति, तेन जरामरणकारणेन सद्धिं समागमो अहोसि । किं पन तन्ति ? जाति । तेनाह – “जातिया खो सति जरामरणं होती''ति । या चायं जरामरणस्स कारणपरिग्गाहिका पञ्जा, ताय सद्धिं बोधिसत्तस्स समागमो अहोसीति अयमेत्थ अत्थो । एतेनुपायेन सब्बपदानि वेदितब्बानि । नामरूपे खो सति विज्ञाणन्ति एत्थ पन सङ्घारेसु सति विज्ञाणन्ति च, अविज्जाय सति सङ्घाराति च वत्तब्बं भवेय्य, तदुभयम्पि न गहितं । कस्मा ? अविज्जासङ्घारा हि अतीतो भवो तेहि सद्धिं अयं विपस्सना न घटियति । महापुरिसो हि पच्चुप्पन्नवसेन अभिनिविट्ठोति । ननु च अविज्जासङ्खारेहि अदितुहि न सक्का बुद्धेन भवितुन्ति । सच्चं न सक्का, इमिना पन ते भवउपादानतण्हावसेनेव दिट्ठाति । इमस्मिं ठाने वित्थारतो पटिच्चसमुप्पादकथा कथेतब्बा । सा पनेसा विसुद्धिमग्गे कथिताव । ५८. पच्चुदावत्ततीति पटिनिवत्तति । कतमं पनेत्थ विज्ञाणं पच्चुदावत्ततीति ? पटिसन्धिविज्ञाणम्पि विपस्सनाञाणम्पि । तत्थ पटिसन्धिविज्ञाणं पच्चयतो पटिनिवत्तति, विपस्सनाञआणं आरम्मणतो । उभयम्पि नामरूपं नातिक्कमति, नामरूपतो परं न गच्छति । एत्तावता जायेथ वातिआदीसू विज्ञाणे नामरूपस्स पच्चये होन्ते, नामरूपे च विज्ञाणस्स पच्चये होन्ते, द्वीसुपि अञमञपच्चयेसु होन्तेसु एत्तकेन जायेथ वा...पे०... उपपज्जेथ वा, इतो हि परं किं अनं जायेय्य वा...पे०... उपपज्जेय्य वा । ननु एतदेव जायति च...पे०... उपपज्जति चाति ? एवं सद्धिं अपरापरचुतिपटिसन्धीहि पञ्च पदानि दस्सेत्वा पुन तं एत्तावताति वुत्तमत्थं निय्यातेन्तो- “यदिदं नामरूपपच्चया विज्ञाणं, विज्ञाणपच्चया नामरूप''न्ति वत्वा ततो परं अनुलोमपच्चयाकारवसेन विज्ञाणपच्चया Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.५९-६३) नामरूपमूलं आयतिम्पि जातिजरामरणं दस्सेतुं नामरूपपच्चया सळायतनन्तिआदिमाह । तत्थ केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होतीति सकलस्स जातिजरामरणसोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासादिभेदस्स दुक्खरासिस्स निब्बत्ति होति । इति महापुरिसो सकलस्स वट्टदुक्खस्स निब्बत्तिं अद्दस । ५९. समुदयो समुदयोति खोति निब्बत्ति निब्बत्तीति खो | पुब्बे अननुस्सुतेसूति न अनुस्सुतेसु अस्सुतपुब्बेसु । चक् उदपादीतिआदीसु उदयदस्सनपावेसा। दस्सनट्रेन चक्खु, आतकरणढेन आणं, पजाननटेन पञ्जा, निब्बिज्झित्वा पटिविज्झित्वा उप्पन्नटेन विज्जा, ओभासढेन च आलोकोति वुत्ता । यथाह - "चक्खू उदपादीति दस्सनटेन । आणं उदपादीति आतद्वेन | पञ्जा उदपादीति पजाननटेन । विज्जा उदपादीति पटिवेधटेन । आलोको उदपादीति ओभासढेन । चक्खुधम्मो दस्सनट्ठो अत्थो । आणधम्मो जातट्ठो अत्थो । पञाधम्मो पजाननट्ठो अत्थो । विज्जाधम्मो पटिवेधठ्ठो अत्थो । आलोको धम्मो ओभासट्ठो अत्थोति (पटि० म० २.३९)। एत्तकेहि पदेहि किं कथितन्ति ? इमस्मिं सति इदं होतीति पच्चयसञ्जाननमत्तं कथितं । अथवा वीथिपटिपन्ना तरुणविपस्सना कथिताति । ६१. अधिगतो खो म्यायन्ति अधिगतो खो मे अयं । मग्गोति विपस्सनामग्गो । बोधायाति चतुसच्चबुज्झनत्थाय, निब्बानबुज्झनत्थाय एव वा । अपि च बुज्झतीति बोधि, अरियमग्गस्सेतं नामं, तदत्थायातिपि वुत्तं होति । विपस्सनामग्गमूलको हि अरियमग्गोति । इदानि तं मग्गं निय्यातेन्तो- “यदिदं नामरूपनिरोधातिआदिमाह। एत्थ च विज्ञाणनिरोधोतिआदीहि पच्चत्तपदेहि निब्बानमेव कथितं । इति महापुरिसो सकलस्स वट्टदुक्खस्स अनिब्बत्तिनिरोधं अद्दस । ६२. निरोधो निरोधोति खोति अनिब्बत्ति अनिब्बत्तिति खो। चक्खुन्तिआदीनि वुत्तत्थानेव । इध पन सब्बेहेव एतेहि पदेहि - "इमस्मिं असति इदं न होती''ति निरोधसञ्जाननमत्तमेव कथितं, अथवा वुढानगामिनी बलवविपस्सना कथिताति।। ६३. अपरेन समयेनाति एवं पच्चयञ्च पच्चयनिरोधञ्च विदित्वा ततो अपरभागे। उपादानक्खन्धेसूति उपादानस्स पच्चयभूतेसु खन्धेसु । उदयब्बयानुपस्सीति तमेव पठमं दिटुं उदयञ्च वयञ्च अनुपस्समानो । विहासीति सिखापत्तं वुढानगामिनिविपस्सनं वहन्तो विहरि । इदं कस्मा वुत्तं ? सब्बेयेव हि पूरितपारमिनो बोधिसत्ता पच्छिमभवे पुत्तस्स 46 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.६३-६३) बोधिसत्तअभिवेसवण्णना ४७ जातदिवसे महाभिनिक्खमनं निक्खमित्वा पब्बजित्वा पधानमनुयुञ्जित्वा बोधिपल्लङ्कमारुय्ह मारबलं विधमित्वा पठमयामे पुब्बेनिवासं अनुस्सरन्ति, दुतिययामे दिब्बचक्टुं विसोधेन्ति, ततिययामे पच्चयाकारं सम्मसित्वा आनापानचतुत्थज्झानतो उट्ठाय पञ्चसु खन्धेसु अभिनिविसित्वा उदयब्बयवसेन समपास लक्खणानि दिस्वा याव गोत्रभुञाणा विपस्सनं वड्वेत्वा अरियमग्गेन सकले बुद्धगुणे पटिविज्झन्ति । अयम्पि महापुरिसो पूरितपारमी । सो यथावुत्तं सब्बं अनुक्कम कत्वा पच्छिमयामे आनापानचतुत्थज्झानतो उट्ठाय पञ्चसु खन्धेसु अभिनिविसित्वा वुत्तप्पकारं उदयब्बयविपस्सनं आरभि । तं दस्सेतुं इदं वुत्तं | तत्थ इति रूपन्ति इदं रूपं, एत्तकं रूपं, इतो उद्धं रूपं नत्थीति रुप्पनसभावञ्चेव भूतुपादायभेदञ्च आदि कत्वा लक्खणरसपच्चुपट्टानपदट्ठानवसेन अनवसेसरूपपरिग्गहो वुत्तो। इति रूपस्स समुदयोति इमिना एवं परिग्गहितस्स रूपस्स समुदयदस्सनं वुत्तं । तत्थ इतीति एवं समुदयो होतीति अत्थो। तस्स वित्थारो – “अविज्जासमुदया रूपसमुदयो, तण्हासमुदया रूपसमुदयो, कम्मसमुदया रूपसमुदयो, आहारसमुदया रूपसमुदयोति, निब्बत्तिलक्खणं पस्सन्तोपि रूपक्खन्धस्स उदयं पस्सती''ति एवं वेदितब्बो। अत्थङ्गमेपि "अविज्जानिरोधा रूपनिरोधो...पे०... विपरिणामलक्खणं पस्सन्तोपि रूपक्खन्धस्स निरोधं पस्सती''ति (पटि० म० १.५०) अयमस्स वित्थारो । इति वेदनातिआदीसुपि अयं वेदना, एत्तका वेदना, इतो उद्धं वेदना नत्थि । अयं सञआ, इमे सङ्घारा, इदं विज्ञाणं, एत्तकं विज्ञाणं, इतो उद्धं विज्ञाणं नत्थीति वेदयितसञ्जाननअभिसङ्खरणविजाननसभावञ्चेव सुखादिरूपसञ्जादि फस्सादि चक्खुविज्ञाणादि भेदञ्च आदि कत्वा लक्खणरसपच्चुपट्टानपदट्ठानवसेन अनवसेसवेदनासासङ्घारविज्ञाणपरिग्गहो वुत्तो । इति वेदनाय समुदयोतिआदीहि पन एवं परिग्गहितानं वेदनासासङ्घारविज्ञाणानं समुदयदस्सनं वुत्तं । तत्रापि इतीति एवं समुदयो होतीति अत्थो । तेसम्पि वित्थारो - "अविज्जासमुदया वेदनासमुदयो''ति (पटि० म० १.५०) रूपे वुत्तनयेनेव वेदितब्बो । अयं पन विसेसो - तीसु खन्धेसु “आहारसमुदया''ति अवत्वा "फस्ससमुदया''ति वत्तब्बं । विज्ञाणक्खन्धे “नामरूपसमुदया''ति अत्थङ्गमपदम्पि तेसंयेव वसेन योजेतब्बं । अयमेत्थ सङ्केपो, वित्थारो पन उदयब्बयविनिच्छयो सब्बाकारपरिपूरो विसुद्धिमग्गे वुत्तो। तस्स पञ्चसु उपादानखन्धेसु उदयब्बयानुपस्सिनो विहरतोति तस्स विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स इमेसु रूपादीसु पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु समपञासलक्खणवसेन उदयब्बयानुपस्सिनो विहरतो यथानुक्कमेन वड्डिते विपस्सनाजाणे अनुप्पादनिरोधेन Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.६३-६३) निरुज्झमानेहि आसवसङ्घातेहि किलेसेहि अनुपादाय अग्गहेत्वाव चित्तं विमुच्चति, तदेतं मग्गक्खणे विमुच्चति नाम, फलक्खणे विमुत्तं नाम; मग्गक्खणे वा विमुत्तञ्चेव विमुच्चति च, फलक्खणे विमुत्तमेव | एत्तावता च महापुरिसो सब्बबन्धना विप्पमुत्तो सूरियरस्मिसम्फुट्ठमिव पदुमं सुविकसितचित्तसन्तानो चत्तारि मग्गजाणानि, चत्तारि फलाणानि, चतस्सो पटिसम्भिदा, चतुयोनिपरिच्छेदकआणं, पञ्चगतिपरिच्छेदकजाणं, छ असाधारणञाणानि, सकले च बुद्धगुणे हत्थगते कत्वा परिपुण्णसङ्कप्पो बोधिपल्लङ्के निसिन्नोव - "अनेकजातिसंसार, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं । गहकारं गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं ।। गहकारक दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि । सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसङ्घतं । विसङ्घारगतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगा''ति ।। (ध० प० १५३, १५४) "अयोधनहतस्सेव, जलतो जातवेदसो | अनुपुब्बूपसन्तस्स, यथा न आयते गति ।। एवं सम्माविमुत्तानं, कामबन्धोघतारिनं । पञ्जापेतुं गति नत्थि, पत्तानं अचलं सुख'"न्ति ।। (उदा० ८०) एवं मनसि करोन्तो सरदे सूरियो विय, पुण्णचन्दो विय च विरोचित्थाति । दुतियभाणवारवण्णना निहिता। 48 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.६४-६४) ब्रह्मयाचनकथावण्णना ब्रह्मयाचनकथावण्णना ६४. ततियभाणवारे यंनूनाहं धम्मं देतेय्यन्ति यदि पनाहं धम्मं देसेय्यं । अयं पन वितक्को कदा उप्पन्नोति ? बुद्धभूतस्स अट्ठमे सत्ताहे । सो किर बुद्धो हुत्वा सत्ताहं बोधिपल्लङ्के निसीदि, सत्ताहं बोधिपल्लङ्कं ओलोकेन्तो अट्ठासि, सत्ताहं रतनचङ्कमे चङ्कमि, सत्ताहं रतनगब्भे धम्मं विचिनन्तो निसीदि, सत्ताहं अजपालनिग्रोधे निसीदि, सत्ताहं मुचलिन्दे निसीदि, सत्ताहं राजायतने निसीदि । ततो उट्ठाय अट्ठमे सत्ताहे पुन आगन्त्वा अजपालनिग्रोधे निसिन्नमत्तस्सेव सब्बबुद्धानं आचिण्णसमाचिण्णो अयञ्चेव इतो अनन्तरो च वितक्को उप्पन्नोति । तत्थ अधिगतो पटिविद्धो । धम्मति चतुसच्चधम्मो । गम्भीरोति उत्तानभावपटिक्खेपवचनमेतं । दुद्दसोति गम्भीरत्ताव दुद्दसो दुक्खेन दट्ठब्बो, न सक्का सुखेन दद्धुं । दुद्दसत्ताव दुरनुबोधो दुक्खेन अवबुज्झितब्बो, न सक्का सुखेन अवबुज्झितुं । सन्तोति निब्बुतो । पणीतोति अतप्पको । इदं द्वयं लोकुत्तरमेव सन्धाय वुत्तं । अतक्कावचरोति तक्केन अवचरितब्बो ओगाहितब्बो न होति, ञाणेनेव अवचरितब्बो । निपुणोति सहो । पण्डितवेदनीयोति सम्मापटिपदं पटिपन्नेहि पण्डितेहि वेदितब्बो | आलयरामाति सत्ता पञ्चसु कामगुणेसु अल्लीयन्ति, तस्मा ते आलयाति वुच्चन्ति । अट्ठसततण्हाविचरितानि आलयन्ति, तस्मा आलयाति वुच्चन्ति । तेहि आलयेहि रमन्तीति आलयरामा । आलयेसु रताति आलयरता । आलयेसु सुट्टु मुदिताति आलयसम्मुदिता । यथेव हि सुसज्जितं पुप्फफलभरितरुक्खादिसम्पन्नं उय्यानं पविट्ठो राजा ताय ताय सम्पत्तिया रमति, पमुदितो आमोदितो होति, न उक्कण्ठति, सायं निक्खमितुं न इच्छति, एवमिमेहिपि कामालयतण्हालयेहि सत्ता रमन्ति संसारवट्टे पमुदिता अनुक्कण्ठिता वसन्ति । तेन नेसं भगवा दुविधम्पि आलयं उय्यानभूमिं विय दस्सेन्तो'आलय रामा'तिआदिमाह । यदिदन्ति निपातो, तस्स ठानं सन्धाय “यं इदन्ति, पटिच्चसमुप्पादं सन्धाय“यो अयन्ति एवमत्थो दट्ठब्बो । इदप्पच्चयतापटिच्चसमुप्पादोति इमेसं पच्चया इदप्पच्चया, इदप्पच्चया एव इदप्पच्चयता, इदप्पच्चयता च सा पटिच्चसमुप्पादो चाति इदप्पच्चयतापटिच्च समुप्पादो । सङ्घारादिपच्चयानं अविज्जादीनं एतं अधिवचनं । सब्बसङ्घारसमथोतिआदि सब्बं निब्बानमेव । यस्मा हि तं आगम्म सब्बसङ्घारविप्फन्दितानि ४९ - 49 1 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.६५--६५) सम्मन्ति वूपसम्मन्ति तस्मा – “सब्बसङ्घारसमथो''ति वुच्चति । यस्मा च तं आगम्म सब्बे उपधयो पटिनिस्सट्ठा होन्ति, सब्बा तण्हा खीयन्ति, सब्बे किलेसरागा विरज्जन्ति, सब्बं दुक्खं निरुज्झति, तस्मा "सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो तण्हाक्खयो विरागो निरोधो''ति वुच्चति । सा पनेसा तण्हा भवेन भवं, फलेन वा सद्धिं कम्मं विनति संसिब्बतीति कत्वा वानन्ति वुच्चति । ततो वानतो निक्खन्तन्ति निब्बानं। सो ममस्स किळमथोति या अजानन्तानं देसना नाम, सो मम किलमथो अस्स, सा मम विहेसा अस्साति अत्थो । कायकिलमथो चेव कायविहेसा च अस्साति वुत्तं होति, चित्ते पन उभयम्पेतं बुद्धानं नस्थि । ६५. अपिस्सूति अनुब्रूहनत्थे निपातो । सो – “न केवलं एतदहोसि, इमापि गाथा पटिभंसूति दीपेति। विपस्सिन्तिआदीसु विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्साति अत्थो । अनच्छरियाति अनुअच्छरिया । पटिभंसूति पटिभानसङ्घातस्स आणस्स गोचरा अहेसुं, परिवितक्कयितब्बतं पापुणिंसु । किच्छेनाति दुक्खेन, न दुक्खाय पटिपदाय। बुद्धानहि चत्तारोपि मग्गा सुखपटिपदाव होन्ति । पारमीपूरणकाले पन सरागसदोससमोहस्सेव सतो आगतागतानं याचकानं अलङ्कतपटियत्तं सीसं छिन्दित्वा गललोहितं नीहरित्वा सुअञ्जितानि अक्खीनि उप्पाटेत्वा कुलवंसपदीपकं पुत्तं मनापचारिनिं भरियन्ति एवमादीनि देन्तस्स अनानि च खन्तिवादिसदिसेसु अत्तभावेसु छेज्जभेज्जादीनि पापुणन्तस्स आगमनीयपटिपदं सन्धायेतं वुत्तं । हलन्ति एत्थ हकारो निपातमत्तो, अलन्ति अत्थो । पकासितुन्ति देसेतुं; एवं किच्छेन अधिगतस्स धम्मस्स अलं देसेतुं; को अत्थो देसितेनाति वुत्तं होति । रागदोसपरेतेहीति रागदोसफुढेहि रागदोसानुगतेहि वा। पटिसोतगामिन्ति निच्चादीनं पटिसोतं अनिच्चं दुक्खमनत्तासुभन्ति एवं गतं चतुसच्चधम्मं । रागरत्ताति कामरागेन भवरागेन दिद्विरागेन च रत्ता। न दक्खन्तीति अनिच्चं दुक्खमनत्ता असुभन्ति इमिना सभावेन न पस्सिस्सन्ति, ते अपस्सन्ते को सक्खिस्सति एवं गाहापेतुं ? तमोखन्धेन आवुटाति अविज्जारासिना अज्झोत्थटा । अप्पोस्सुक्कतायाति निरुस्सुक्कभावेन, अदेसेतुकामतायाति अत्थो । कस्मा पनस्स एवं चित्तं नमि ? ननु एस - "मुत्तो मोचेस्सामी, तिण्णो तारेस्सामि", 50 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.६६-६६) ब्रह्मयाचनकथावण्णना " किं मे अञ्ञातवेसेन, धम्मं सच्छिकतेनिध | सब्बतं पापुणित्वा, सन्तारेस्सं सदेवक "न्ति ।। पत्थनं कत्वा पारमियो पूरेत्वा सब्बञ्जतं पत्तोति । सच्चमेतं, पच्चवेक्खणानुभावेन पनस्स एवं चित्तं नमि । तस्स हि सब्बञ्जुतं पत्वा सत्तानं किलेसगहनतं धम्मस्स च गम्भीरतं पच्चवेक्खन्तस्स सत्तानं किलेसगहनता च धम्मगम्भीरता च सब्बाकारेन पाकटा जाता । अथस्स "इमे सत्ता कञ्जिकपुण्णलाबु विय तक्कभरितचाटि विय वसातेलपीतपिलोतिका विय अञ्जनमक्खितहत्था विय किलेसभरिता अतिसंकिलिट्ठा रागरत्ता दोसदुट्टा मोहमूळ्हा, ते किं नाम पटिविज्झिस्सन्तीति चिन्तयतो किलेसगहनपच्चवेक्खणानुभावेनापि एवं चित्तं नमि | " अयञ्च धम्मो पथवीसन्धारकउदकक्खन्धो विय गम्भीरो, पब्बतेन पटिच्छादेत्वा ठपितो सासपो विय दुद्दसो, सतधा भिन्नस्स वालरस कोटिया कोटिं पटिपादनं विय दुरनुबोधो, ननु मया हि इमं धम्मं पटिविज्झितुं वायमन्तेन अदिन्नं दानं नाम नत्थि, अरक्खितं सीलं नाम नत्थि, अपरिपूरिता काचि पारमी नाम नत्थि । तस्स में निरुत्साहं विय मारबलं विधमन्तस्सापि पथवी न कम्पित्थ, पठमयामे पुब्बेनिवासं अनुस्सरन्तरसापि न कम्पित्थ मज्झिमयामे दिब्बचक्खु विसोधेन्तस्सापि न कम्पित्थ पच्छिमयामे पन पटिच्चसमुप्पादं पटिविज्झन्तस्सेव मे दससहस्सिलोकधातु कम्पित्थ । इति मादिसेनापि तिक्खमाणेन किच्छेनेवायं धम्मो पटिविद्धो तं लोकियमहाजना कथं पटिविज्झिस्सन्ती "ति धम्मगम्भीरतापच्चवेक्खणानुभावेनापि एवं चित्तं नमीति वेदितब्बं । ५१ अपिच ब्रह्मना याचिते देसेतुकामतायपिस्स एवं चित्तं नमि । जानाति हि भगवा - " मम अप्पोस्सुक्कताय चित्ते नममाने मं महाब्रह्मा धम्मदेसनं याचिस्सति इमे च सत्ता ब्रह्मगरुका, ते 'सत्था किर धम्मं न देसेतुकामो अहोसि, अथ नं महाब्रह्मा याचित्वा देसापेसि, सन्तो वत भो धम्मो, पणीतो वत भो धम्मो 'ति मञ्ञमाना सुस्सूसिस्सन्तीति । इमम्पिस कारणं पटिच्च अप्पोस्सुक्कताय चित्तं नमि, नो धम्मदेसनायाति वेदितब्बं । ६६. अञ्ञतरस्साति एत्थ किञ्चापि “ अञ्ञतरो "ति वुत्तं, अथ खो इमस्मि चक्कवाले जेट्ठकमहाब्रह्मा एसोति वेदितब्बो । नस्सति वत भो लोकोति सो किर इमं सद्दं तथा निच्छारेसि, यथा दससहस्सिलोकधातुब्रह्मानो सुत्वा सब्बे सन्निपतिंसु । यत्र हि 51 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.६९-६९) नामाति यस्मिं नाम लोके। पुरतो पातुरहोसीति तेहि दसहि ब्रह्मसहस्सेहि सद्धिं पातुरहोसि । अप्परजक्खजातिकाति पञामये अक्खिम्हि अप्पं परित्तं रागदोसमोहरजं एतेसं, एवं सभावाति अप्परजक्खजातिका । अस्सवनताति अस्सवनताय । भविस्सन्तीति पुरिमबुद्धेसु दसपुञ्जकिरियवत्थुवसेन कताधिकारा परिपाकगता पदुमानि विय सूरियरस्मिसम्फस्सं, धम्मदेसनंयेव आकङ्घमाना चतुष्पदिकगाथावसाने अरियभूमि ओक्कमनारहा न एको, न द्वे, अनेकसतसहस्सा धम्मस्स अज्ञातारो भविस्सन्तीति दस्सेति । ६९. अज्झेसनन्ति एवं तिक्खत्तुं याचनं । बुद्धचक्खुनाति इन्द्रियपरोपरियत्ताणेन च आसयानुसयजाणेन च । इमेसहि द्विन्नं आणानं "बुद्धचक्खू"ति नामं, सब्ब ताणस्स “समन्तचक्खू''ति, तिण्णं मग्गजाणानं "धम्मचक्खू''ति । अप्परजक्खेतिआदीसु येसं वुत्तनयेनेव पञाचक्खुम्हि रागादिरजं अप्पं, ते अप्परजक्खा। येसं तं महन्तं, ते महारजक्खा। येसं सद्धादीनि इन्द्रियानि तिक्खानि, ते तिक्खिन्द्रिया। येसं तानि मुदूनि, ते मुदिन्द्रिया। येसं तेयेव सद्धादयो आकारा सुन्दरा, ते स्वाकारा। ये कथितकारणं सल्लक्खेन्ति, सुखेन सक्का होन्ति विज्ञापेतुं, ते सुविज्ञापया। ये परलोकञ्चेव वज्जञ्च भयतो पस्सन्ति, ते परलोकवज्जभयदस्साविनो नाम | अयं पनेत्थ पाळि -- “सद्धो पुग्गलो अप्परजक्खो, अस्सद्धो पुग्गलो महारजक्खो |... आरद्धवीरियो...पे०... कुसीतो... उपट्टितस्सति... मुट्ठस्सति... समाहितो... असमाहितो.... पञवा... दुप्पो पुग्गलो महारजक्खो । तथा सद्धो पुग्गलो तिक्खिन्द्रियो...पे०... पञवा पुग्गलो परलोकवज्जभयदस्सावी, दुप्पो पुग्गलो न परलोकवज्जभयदस्सावी । लोकोति खन्धलोको, धातुलोको, आयतनलोको, सम्पत्तिभवलोको, विपत्तिभवलोको, सम्पत्तिसम्भवलोको, विपत्तिसम्भवलोको । एको लोको- सब्बे सत्ता आहारट्ठितिका । द्वे लोका - नामञ्च रूपञ्च । तयो लोका - तिस्सो वेदना । चत्तारो लोका - चत्तारो आहारा । पञ्च लोका- पञ्चुपादानक्खन्धा । छ लोका -- छ अज्झत्तिकानि आयतनानि । सत्त लोका - सत्त विआणट्टितियो । अट्ट लोका -- अट्ठ लोकधम्मा । नव लोका - नव सत्तावासा । दस लोका - दसायतनानि । द्वादस लोका - द्वादसायतनानि । अट्ठारस लोका - अट्ठारस धातुयो । वज्जन्ति सब्बे किलेसा वज्ज, सब्बे दुच्चरिता वज्जं, सब्बे अभिसङ्खारा वज्जं, सब्बे भवगामिकम्मा वज्जं । इति इमस्मिञ्च लोके इमस्मिञ्च वज्जे तिब्बा भयसञा पच्चुपट्टिता होति, सेय्यथापि उक्खित्तासिके 52 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.६९-६९) ब्रह्मयाचनकथावण्णना वधके । इमेहि पञ्ञासाय आकारेहि इमानि पञ्चिन्द्रियानि जानाति पस्सति अञ्ञाति पटिविज्झति, इदं तथागतस्स इन्द्रियपरोपरियत्ते आण "न्ति (पटि० म० १.११२) । उदका उप्पलिनियन्ति उप्पलवने । इतरेसुपि एसेव नयो । अन्तोनिमुग्गपोसीनीति यानि अञ्ञानिपि पदुमानि अन्तोनिमुग्गानेव पोसयन्ति । उदकं अच्चुग्गम्म ठितानीति उदकं अतिक्कमित्वा ठितानि । तत्थ यानि अच्चुग्गम्म ठितानि तानि सूरियरस्मिसम्फस्सं आगमयमानानि ठितानि अज्ज पुप्फनकानि । यानि समोदकं ठितानि तानि स्वे पुप्फनकानि । यानि उदकानुग्गतानि अन्तोउदकपोसीनि तानि ततियदिवसे पुप्फनकानि । पन अनुग्गतानि अञ्ञानिपि सरोजउप्पलादीनि नाम अत्थि, यानि नेव पुप्फिस्सन्ति मच्छकच्छपभक्खानेव भविस्सन्ति, तानि पाळिं नारूळ्हानि । आहरित्वा पन दीपेतब्बानीति दीपितानि । यथेव हि तानि चतुब्बिधानि पुप्फानि, एवमेव उग्घटितञ्जू, विपञ्चितञ्ञ, नेय्यो, पदपरमोति चत्तारो पुग्गला । तत्थ यस्स पुग्गलस्स सह उदाहटवेलाय धम्माभिसमयो होति, अयं वुच्चति पुग्गलो उग्घटितञ्ञू । यस्स पुग्गलस्स सङ्घित्तेन भासितस्स वित्थारेन अत्थे विभजियमाने धम्माभिसमयो होति, अयं वुच्चति पुग्गलो विपञ्चितञ्ञू । यस्स पुग्गलस्स उद्देसतो परिपुच्छतो योनिसोमनसिकरोतो कल्याणमित्ते सेवतो भजतो पयिरुपासतो अनुपुब्बेन धम्माभिसमयो होति, अयं वुच्चति पुग्गलो नेय्यो । यस्स पुग्गलस्स बहुम्पि सुणतो बहुम्पि भणतो बहुम्पि गण्हतो बहुम्पि धारयतो बहुम्पि वाचयतो न ताय जातिया धम्माभिसमयो होति, अयं वुच्चति पुग्गलो पदपरमो ( पु० प० १४८, १४९, १५०, १५१) । ५३ "अज्ज तत्थ भगवा उप्पलवनादिसदिसं दससहस्सिलोकधातुं ओलोकेन्तो - पुप्फनकानि विय उग्घटितञ्जू, स्वे पुप्फनकानि विय विपञ्चितञ्जू, ततियदिवसे पुप्फनकानि विय नेय्यो, मच्छकच्छपभक्खानि विय पदपरमो 'ति अद्दस । पस्सन्तो च" एत्तका अप्परजक्खा, एत्तका महारजक्खा । तत्रापि एत्तका उग्घटितञ्जू"ति एवं सब्बाकारतो अस । तत्थ तिण्णं पुग्गलानं इमस्मिंयेव अत्तभावे भगवतो धम्मदेसना अत्थं साधेति, पदपरमानं अनागते वासनत्थाय होति । अथ भगवा इमेसं चतुन्नं पुग्गलानं अत्थावहं धम्मदेसनं विदित्वा देसेतुकम्यतं उप्पादेत्वा पुन ते सब्बेसुपि तीसु भवेसु सब्बे सत्ते भब्बाभब्बवसेन द्वे कोट्ठासे अकासि | ये सन्धाय वुत्तं - “ये ते सत्ता कम्मावरणेन समन्नागता, विपाकावरणेन समन्नागता, 53 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.७०-७०) किलेसावरणेन समन्नागता, अस्सद्धा अच्छन्दिका दुप्पञा अभब्बा नियामं ओक्कमितुं कुसलेसु धम्मेसु सम्मत्तं, इमे ते सत्ता अभब्बा । कतमे सत्ता भब्बा ? ये ते सत्ता न कम्मावरणेन...पे०...इमे ते सत्ता भब्बा"ति (विभं० ८२७; पटि० म० १.११४) । तत्थ सब्बेपि अभब्बपुग्गले पहाय भब्बपुग्गलेयेव आणेन परिग्गहेत्वा -- “एत्तका रागचरिता, एत्तका दोसमोहवितक्कसद्धाबुद्धिचरिता''ति छ कोट्ठासे अकासि । एवं कत्वा – “धम्म देसेस्सामी''ति चिन्तेसि । ब्रह्मा तं ञत्वा सोमनस्सजातो भगवन्तं गाथाहि अज्झभासि । इदं सन्धाय – “अथ खो सो, भिक्खवे, महाब्रह्मा"तिआदि वुत्तं । ७०. तत्थ अज्झभासीति अधिअभासि, अधिकिच्च आरब्भ अभासीति अत्थो । सेले यथा पब्बतमुद्भनिद्वितोति सेलमये एकग्घने पब्बतमुद्धनि यथाठितोव, न हि तत्थ ठितस्स दस्सनत्थं गीवुक्खिपनपसारणादिकिच्चं अस्थि । तथूपमन्ति तप्पटिभागं सेलपब्बतूपमं । अयं पनेत्थ सङ्घपत्थो, यथा सेलपब्बतमुद्धनि यथाठितोव चक्खुमा पुरिसो समन्ततो जनतं पस्सेय्य, तथा त्वम्पि सुमेध, सुन्दरपञसब्ब ताणेन समन्तचक्खु भगवा धम्ममयं पञ्जामयं पासादमारुयह सयं अपेतसोको सोकावतिण्णं जातिजराभिभूतं जनतं अपेक्खस्सु, उपधारय उपपरिक्ख । अयमेत्थ अधिप्पायो - यथा हि पब्बतपादे समन्ता महन्तं खेत्तं कत्वा तत्थ केदारपाळीसु कुटिकायो कत्वा रत्तिं अग्गिं जालेय्युं । चतुरङ्गसमन्नागतञ्च अन्धकारं अस्स | अथस्स पब्बतस्स मत्थके ठत्वा चक्खुमतो पुरिसस्स भूमिं ओलोकयतो नेव खेत्तं, न केदारपाळियो, न कुटियो, न तत्थ सयितमनुस्सा पञ्जायेय्यु, कुटिकासु पन अग्गिजालमत्तमेव पायेय्य । एवं धम्मपासादमारुयह सत्तनिकायं ओलोकयतो तथागतस्स ये ते अकतकल्याणा सत्ता, ते एकविहारे दक्खिणजाणुपस्से निसिन्नापि बुद्धचक्खुस्स आपाथं नागच्छन्ति, रत्तिं खित्तसरा विय होन्ति । ये पन कतकल्याणा वेनेय्यपुग्गला, ते तस्स दूरे ठितापि आपाथं आगच्छन्ति, सो अग्गि विय हिमवन्तपब्बतो विय च । वुत्तम्पि चेतं - "दूरे सन्तो पकासेन्ति, हिमवन्तोव पब्बतो । असन्तेत्थ न दिस्सन्ति, रत्तिं खित्ता यथा सरा"ति ।। (ध० प० ३०४) 54 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.७१-७५) अग्गसावकयुगवण्णना ५५ उटेहीति भगवतो धम्मदेसनत्थं चारिकचरणं याचन्तो भणति । वीरातिआदीसु भगवा वीरियवन्तताय वीरो, देवपुत्तमच्चुकिलेसमारानं विजितत्ता विजितसङ्गामो, जातिकन्तरादिनित्थरणत्थाय वेनेय्यसत्थवाहनसमत्थताय सत्थवाहो, कामच्छन्दइणस्स अभावतो अणणोति वेदितब्बो। ७१. अपारुताति विवटा । अमतस्स द्वाराति अरियमग्गो। सो हि अमतसङ्घातस्स निब्बानस्स द्वारं । सो मया विवरित्वा ठपितोति दस्सेति । पमुञ्चन्तु सद्धन्ति सब्बे अत्तनो सद्धं पमुञ्चन्तु विस्सज्जेन्तु । पच्छिमपदद्वये अयमत्थो, अहहि अत्तनो पगुणं सुप्पवत्तितम्पि इमं पणीतं उत्तमं धम्म कायवाचाकिलमथसञ्जी हुत्वा न भासिं, इदानि पन सब्बे जना सद्धाभाजनं उपनेन्तु, पूरेस्सामि तेसं सङ्कप्पन्ति । अग्गसावकयुगवण्णना ७३. बोधिरुक्खमूलेति बोधिरुक्खस्स अविदूरे अजपालनिग्रोधे अन्तरहितोति अत्थो । खेमे मिगदायेति इसिपतनं तेन समयेन खेमं नाम उय्यानं होति, मिगानं पन अभयवासत्थाय दिन्नत्ता मिगदायोति वुच्चति । तं सन्धाय वुत्तं - "खेमे मिगदाये"ति । यथा च विपस्सी भगवा, एवं अञपि बुद्धा पठमं धम्मदेसनत्थाय गच्छन्ता आकासेन गन्त्वा तत्थेव ओतरन्ति । अम्हाकं पन भगवा उपकस्स आजीवकस्स उपनिस्सयं दिस्वा - "उपको इमं अद्धानं पटिपन्नो, सो मं दिस्वा सल्लपित्वा गमिस्सति । अथ पुन निबिन्दन्तो आगम्म अरहत्तं सच्छिकरिस्सती"ति ञत्वा अट्ठारसयोजनमग्गं पदसाव अगमासि । दायपालं आमन्तेसीति दिस्वाव पुनप्पुनं ओलोकेत्वा – “अय्यो नो, भन्ते, आगतो"ति वत्वा उपगतं आमन्तेसि । ७५. अनुपुब्बिं कथन्ति दानकथं, दानानन्तरं सीलं, सीलानन्तरं सग्गं, सग्गानन्तरं मग्गन्ति एवं अनुपटिपाटिकथं कथेसि । तत्थ दानकथन्ति इदं दानं नाम सुखानं निदानं, सम्पत्तीनं मूलं, भोगानं पतिट्ठा, विसमगतस्स ताणं लेणं गति परायणं, इधलोकपरलोकेसु दानसदिसो अवस्सयो पतिठ्ठा आरम्मणं ताणं लेणं गति परायणं नत्थि । इदहि अवस्सयटेन रतनमयसीहासनसदिसं, पतिट्ठानद्वेन महापथवीसदिसं, आरम्मणद्वेन आलम्बनरज्जुसदिसं। इदहि दुक्खनित्थरणढेन नावा, समस्सासनतुन सङ्गामसूरो, भयपरित्ताणद्वेन सुसङ्खतनगरं, मच्छेरमलादीहि अनुपलित्तटेन पदुमं, तेसं निदहनटेन अग्गि, 55 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ दुरासदट्ठेन आसीविसो, असन्तासनट्ठेन सीहो, बलवन्तट्ठेन हत्थी, अभिमङ्गलसम्मतट्ठेन सेतउसभो, खेमन्तभूमिसम्पापनट्टेन वलाहक अस्सराजा । दानञ्हि लोके सक्कसम्पत्तिं मारसम्पत्तिं ब्रह्मसम्पत्तिं चक्कवत्तिसम्पत्तिं सावकपारमित्राणं पच्चेकबोधिजाणं अभिसम्बोधिञाणं देतीति एवमादिदानगुणपटिसंयुत्तं कथं । दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा यस्मा पन दानं ददन्तो सीलं समादातुं सक्कोति, तस्मा तदनन्तरं सीलकथं कथेसि | सीलकथन्ति सीलं नामेतं अवस्सयो पतिट्ठा आरम्मणं ताणं लेणं गति परायणं । इधलोकपरलोकसम्पत्तीनहि सीलसदिसो अवस्सयो पतिट्टा आरम्मणं ताणं लेणं गति परायणं नत्थि, सीलसदिसो अलङ्कारो नत्थि, सीलपुप्फसदिसं पुप्फं नत्थि, सीलगन्धसदिसो गन्धो नत्थि, सीलालङ्कारेन हि अलङ्कतं सीलकुसुमपिळन्धनं सीलगन्धानुलित्तं सदेवकोपि लोको ओलोकेन्तो तित्तिं न गच्छतीति एवमादिसीलगुणपटिसंयुत्तं कथं । इदं पन सीलं निस्साय अयं सग्गो लब्भतीति दस्सेतुं सीलानन्तरं सग्गकथं कथेसि | सग्गकथन्ति अयं सग्गो नाम इट्ठो कन्तो मनापो, निच्चमेत्थ कीळा, निच्चं सम्पत्तियो लब्भन्ति, चातुमहाराजिका देवा नवुतिवस्ससतसहस्सानि दिब्बसुखं दिब्बसम्पत्तिं पटिलभन्ति, तावतिंसा तिस्सो च वस्सकोटियो सट्ट च वस्ससतसहस्सानीति एवमादिसग्गगुणपटिसंयुत्तं कथं । सग्गसम्पत्तिं कथयन्तानहि बुद्धानं मुखं नप्पहोति । वृत्तम्पि चेतं - " अनेकपरियायेन खो अहं, भिक्खवे, सग्गकथं कथेय्य "न्तिआदि । " एवं सग्गकथाय पलोभेत्वा पुन हत्थिं अलङ्कारित्वा तस्स सोण्डं छिन्दन्तो विय - "अयम्पि सग्गो अनिच्चो अद्भुवो न एत्थ छन्दरागो कातब्बो "ति दस्सनत्थं - 'अप्पस्सादा कामा बहुदुक्खा बहुपायासा, आदीनवो एत्थ भिय्यो 'तिआदिना (म० नि० १.२३५; २.४२) नयेन कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं कथेसि। तत्थ आदीनवोति दोसो । ओकारोति अवकारो लामकभावो । संकिलेसोति तेहि सत्तानं संसारे संकिलिस्सनं । यथाह “किलिस्सन्ति वत भो सत्ता "ति (म० नि० २.३५१) । एवं कामादीनवेन तेज्जत्वा नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि, पब्बज्जाय गुणं पकासेसीति अत्थो । सेसं अम्बट्ठसुत्तवण्णनायं वृत्तनयञ्चेव उत्तानत्थञ्च । - (१.७७-७७) ७७. अलत्थुन्ति कथं अलत्युं ? एहिभिक्खुभावेन । भगवा किर तेसं इद्धिमयपत्तचीवरस्सूपनिस्तयं ओलोकेन्तो अनेकासु जातीसु चीवरदानादीनि दिवा एथ 56 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.७७-७७) अग्गसावकयुगवण्णना ५७ भिक्खवोतिआदिमाह । ते तावदेव भण्डू कासायवसना अट्ठहि भिक्खुपरिक्खारेहि सरीरपटिमुक्केहेव वस्ससतिकत्थेरा विय भगवन्तं नमस्समानाव निसीदिंसु । सन्दस्सेसीतिआदीसु इधलोकत्थं सन्दस्सेसि, परलोकत्थं सन्दस्सेसि । इधलोकत्थं दस्सेन्तो अनिच्चन्ति दस्सेसि, दुक्खन्ति दस्सेसि, अनत्ताति दस्सेसि, खन्धे दस्सेसि, धातुयो दस्सेसि, आयतनानि दस्सेसि, पटिच्चसमुप्पादं दस्सेसि, रूपक्खन्धस्स उदयं दस्सेन्तो पञ्च लक्खणानि दस्सेसि, तथा वेदनाक्खन्धादीनं, तथा वयं दस्सेन्तोपि उदयब्बयवसेन पञासलक्खणानि दस्सेसि, परलोकत्थं दस्सेन्तो निरयं दस्सेसि, तिरच्छानयोनिं, पेत्तिविसयं, असुरकायं, तिण्णं कुसलानं विपाकं, छन्नं देवलोकानं, नवन्नं ब्रह्मलोकानं सम्पत्तिं दस्सेसि । समादपेसीति चतुपारिसुद्धिसीलतेरसधुतङ्गदसकथावत्थुआदिके कल्याणधम्मे गण्हापेसि। समुत्तेजेसीति सुट्ठ उत्तेजेसि, अब्भुस्साहेसि । इधलोकत्थञ्चेव परलोकत्थञ्च तासेत्वा तासेत्वा अधिगतं विय कत्वा कथेसि । द्वत्तिंसकम्मकारणपञ्चवीसतिमहाभयप्पभेदहि इधलोकत्थं बुद्धे भगवति तासेत्वा तासेत्वा कथयन्ते पच्छाबाहं, गाळहबन्धनं बन्धित्वा चातुमहापथे पहारसतेन ताळेत्वा दक्खिणद्वारेन निय्यमानो विय आघातनभण्डिकाय ठपितसीसो विय सूले उत्तासितो विय मत्तहत्थिना मद्दियमानो विय च संविग्गो होति । परलोकत्थञ्च कथयन्ते निरयादीसु निब्बत्तो विय देवलोकसम्पत्तिं अनुभवमानो विय च होति। सम्पहंसेसीति पटिलद्धगुणेन चोदेसि, महानिसंसं कत्वा कथेसीति अत्थो । सकारानं आदीनवन्ति हेट्ठा पठममग्गाधिगमत्थं कामानं आदीनवं कथेसि, इध पन उपरिमग्गाधिगमत्थं - “अनिच्चा, भिक्खवे, सङ्घारा अर्द्धवा अनस्सासिका, यावञ्चिदं, भिक्खवे, अलमेव सब्बसङ्खारेसु निब्बिन्दितुं अलं विरज्जितुं अलं विमुच्चितु"न्तिआदिना (अ० नि० २.७.६६; सं० नि० १.२.१३४) नयेन सङ्घारानं आदीनवञ्च लामकभावञ्च तप्पच्चयञ्च किलमथं पकासेसि । यथा च तत्थ नेक्खम्मे, एवमिध – “सन्तमिदं, भिक्खवे, निब्बानं नाम पणीतं ताणं लेण''न्तिआदिना नयेन निब्बाने आनिसंसं पकासेसि । 7 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.७८-८५) महाजनकायपब्बज्जावण्णना ७८. महाजनकायोति तेसंयेव द्विन्नं कुमारानं उपट्ठाकजनकायोति । ८०. भगवन्तं सरणं गच्छाम, धम्मञ्चाति सङ्घस्स अपरिपुण्णत्ता द्वेवाचिकमेव सरणमगमंसु। ८१. अलत्थुन्ति पुब्बे वुत्तनयेनेव एहिभिक्खुभावेनेव अलत्थु । इतो अनन्तरे पब्बजितवारेपि एसेव नयो । चारिकाअनुजाननवण्णना ८५. परिवितक्को उदपादीति कदा उदपादि ? सम्बोधितो सत्त संवच्छरानि सत्त मासे सत्त दिवसे अतिक्कमित्वा उदपादि । भगवा किर पितुसङ्गहं करोन्तो विहासि । राजापि चिन्तेसि -- "मय्हं जेठ्ठपुत्तो निक्खमित्वा बुद्धो जातो, दुतियपुत्तो मे निक्खमित्वा अग्गसावको जातो, पुरोहितपुत्तो दुतियअग्गसावको, इमे च अवसेसा भिक्खू गिहिकालेपि मरहं पुत्तमेव परिवारेत्वा विचरिंसु । इमे सब्बे इदानिपि मव्हंयेव भारो, अहमेव च ने चतूहि पच्चयेहि उपट्टहिस्सामि, अजेसं ओकासं न दस्सामी''ति विहारद्वारकोटकतो पट्ठाय याव राजगेहद्वारा उभयतो खदिरपाकारं कारापेत्वा किलजेहि छादापेत्वा वत्थेहि पटिच्छादापेत्वा उपरि च छादापेत्वा सुवण्णतारकविचित्तं समोलम्बिततालक्खन्धमत्तं विविधपुप्फदामवितानं कारापेत्वा हेट्ठा भूमियं चित्तत्थरणेहि सन्थरापेत्वा अन्तो उभोसु पस्सेसु मालावच्छके पुण्णघटे, सकलमग्गवासत्थाय च गन्धन्तरे पुप्फानि पुप्फन्तरे गन्धे च ठपापेत्वा भगवतो कालं आरोचापेसि । भगवा भिक्खुसङ्घपरिवुतो अन्तोसाणियाव राजगेहंगन्त्वा भत्तकिच्चं कत्वा विहारं पच्चागच्छति । अञ्जो कोचि दलुम्पि न लभति, कुतो पन भिक्खं वा दातुं, पूजं वा कातुं, धम्मं वा सोतुं । नागरा चिन्तेसुं- “अज्ज सत्थु लोके उप्पन्नस्स सत्तमासाधिकानि सत्तसंवच्छरानि, मयञ्च दट्ठम्पि न लभाम, पगेव भिक्खं वा दातुं, पूजं वा कातुं, धम्म वा सोतुं । राजा - 'मय्हमेव बुद्धो, मय्हमेव धम्मो, मव्हमेव सङ्घोति ममायित्वा सयमेव उपट्ठहि । सत्था च उप्पज्जमानो सदेवकस्स लोकस्स अत्थाय हिताय उप्पन्नो । न हि 58 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.८५-८५) चारिकाअनुजाननवण्णना रोयेव निरयो उण्हो अस्स, अछेसं नीलुप्पलवनसदिसो । तस्मा राजानं वदाम । सचे नो सत्थारं देति, इच्चेतं कुसलं । नो चे देति, रञा सद्धिं युज्झित्वापि सङ्घ गहेत्वा दानादीनि पुञानि करोम । न सक्का खो पन सुद्धनागरेहेव एवं कातुं, एकं जेठ्ठपुरिसम्पि गण्हामा''ति । ते सेनापति उपसङ्कमित्वा तस्सेतमत्थं आरोचेत्वा – “सामि, किं अम्हाकं पक्खो होसि, उदाहु रञो''ति आहंसु । सो – “अहं तुम्हाकं पक्खो होमि, अपि च खो पन पठमदिवसो महं दातब्बो''ति । ते सम्पटिच्छिंसु । सो राजानं उपसङ्कमित्वा – “नागरा, देव, तुम्हाकं कुपिता''ति आह । किमत्थं ताताति ? सत्थारं किर तुम्हेयेव उपट्टहथ, अम्हे न लभामाति । सचे इदानिपि लभन्ति, न कुप्पन्ति, अलभन्ता तुम्हेहि सद्धिं युज्झितुकामा देवाति । युज्झामि, तात, नाहं भिक्खुसङ्घ देमीति । देव तुम्हाकं दासा तुम्हेहि सद्धिं युज्झामाति वदन्ति, तुम्हे कं गण्हित्वा युज्झिस्सथाति ? ननु त्वं सेनापतीति ? नागरेहि विना न समत्थो अहं देवाति । ततो राजा - "बलवन्तो नागरा, सेनापतिपि तेस व पक्खो''ति ञत्वा “अञ्जानिपि सत्तमासाधिकानि सत्तसंवच्छरानि महं भिक्खुसङ्घ ददन्तू''ति आह । नागरा न सम्पटिच्छिंसु | राजा - “छ वस्सानि, पञ्च, चत्तारि, तीणि, द्वे, एकवस्स''न्ति हापेसि । एवं हापेन्तेपि न सम्पटिच्छिंसु । अछे सत्त दिवसे याचि । नागरा- “अतिकक्खळं दानि रञा सद्धिं कातुं न वट्टती"ति अनुजानिंसु । राजा सत्तमासाधिकानं सत्तन्नं संवच्छरानं सज्जितं दानमुखं सत्तन्नमेव दिवसानं विस्सज्जेत्वा छ दिवसे केसञ्चि अपस्सन्तानंयेव दानं दत्वा सत्तमे दिवसे नागरे पक्कोसापेत्वा – “सक्खिस्सथ, तात, एवरूपं दानं दातु"न्ति आह । तेपि - "ननु अम्हेयेव निस्साय तं देवस्स उप्पन्न''न्ति वत्वा – “सक्खिस्सामा''ति आहंसु । राजा पिट्टिहत्थेन अस्सूनि पुञ्छमानो भगवन्तं वन्दित्वा -- “भन्ते, अहं अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं अञ्जस्स वारं अकत्वा यावजीवं चतूहि पच्चयेहि उपट्टहिस्सामीति चिन्तेसिं । नागरा न दानि मे अनुञाता, नागरा हि ‘मयं दानं दातुं न लभामा'ति कुप्पन्ति । भगवा स्वे पट्ठाय तेसं अनुग्गहं करोथा''ति आह । अथ दुतियदिवसे सेनापति महादानं सज्जेत्वा - "अज्ज यथा अञो कोचि एकभिक्खम्पि न देति, एवं रक्खथा"ति समन्ता पुरिसे ठपेसि । तं दिवसं सेटिभरिया रोदमाना धीतरं आह - "सचे, अम्म, तव पिता जीवेय्य, अज्जाहं पठमं दसबलं 59 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्टकथा (१.८५-८५) भोजेय्यन्ति । सा तं आह - “अम्म, मा चिन्तयि, अहं तथा करिस्सामि यथा बुद्धप्पमुखो भिक्खुसङ्घो पठमं अम्हाकं भिक्खं परिभुञ्जिस्सती"ति । ततो सतसहस्सग्घनिकाय सवण्णपातिया निरुदकपायासस्स परेत्वा सप्पिमधसक्करादीहि अभिसङ्खरित्वा अञआय पातिया पटिकुज्जित्वा तं सुमनमालागुळेहि परिक्खिपित्वा मालागुळसदिसं कत्वा भगवतो गामं पविसनवेलाय सयमेव उक्खिपित्वा दासिगणपरिवुता नगरा निक्खमि । अन्तरामग्गे सेनापतिउपट्टाका – “अम्म, मा इतो अगमा"ति वदन्ति । महापुञा नाम मनापकथा होन्ति, न च तेसं पुनप्पुनं भणन्तानं कथा पटिक्खिपितुं सक्का होति । सा- "चूळपिता महापिता मातुला किस्स तुम्हे गन्तुं न देथा''ति आह । सेनापतिना – “अञस्स कस्सचि खादनीयभोजनीयं दातुं मा देथा"ति ठपितम्ह अम्माति । किं पन मे हत्थे खादनीयं भोजनीयं पस्सथाति ? मालागुळं पस्सामाति । किं तुम्हाकं सेनापति मालागुळपूजम्पि कातुं न देतीति ? देति, अम्माति । तेन हि, अपेथ, अपेथाति भगवन्तं उपसङ्कमित्वा मालागुळं गण्हापेथ भगवाति आह | भगवा एकं सेनापतिस्सुपट्ठाकं ओलोकेत्वा मालागुळं गण्हापेसि । सा भगवन्तं वन्दित्वा -- "भगवा, भवाभवे निब्बत्तियं मे सति परितस्सनजीवितं नाम मा होतु, अयं सुमनमाला विय निब्बत्तनिब्बत्तहाने पियाव होमि, नामेन च सुमना येवा''ति पत्थनं कत्वा सत्थारा- “सुखिनी होही''ति वुत्ता वन्दित्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि । भगवा सेनापतिस्स गेहं गन्वा पञ्जत्तासने निसीदि। सेनापति यागु गहेत्वा उपगञ्छि, सत्था पत्तं पिदहि । निसिन्नो, भन्ते, भिक्खुसङ्घोति । अस्थि नो एको अन्तरा पिण्डपातो लद्धोति । सो मालं अपनेत्वा पिण्डपातं अद्दस | चूळुपट्ठाको आह - “सामि, मालाति मं वत्वा मातुगामो वञ्चेसी''ति । पायासो भगवन्तं आदि कत्वा सब्बेसं भिक्खूनं पहोति । सेनापतिपि अत्तनो देय्यधम्मं अदासि । सत्था भत्तकिच्चं कत्वा मङ्गलं वत्वा पक्कामि । सेनापति - "का नाम सा पिण्डपातमदासी''ति पुच्छि! सेट्ठिधीता, सामीति । सप्पञा सा इत्थी, एवरूपाय घरे वसन्तिया पुरिसस्स सग्गसम्पत्ति नाम न दुल्लभाति तं आनेत्वा जेट्टिकट्ठाने ठपेसि । पुनदिवसे नागरा दानमदंसु, पुनदिवसे राजाति एकन्तरिकाय दानं दातुं आरभिंसु । राजापि चरपुरिसे ठपेत्वा नागरेहि दिन्नदानतो अतिरेकतरं देति, नागरापि तथैव कत्वा रञा दिन्नदानतो अतिरेकतरं। राजगेहे नाटकित्थियो दहरसामणेरे वदन्ति- "गण्हथ, ताता, न गहपतिकानं गत्तवत्थादीसु पुञ्छित्वा बाळदारकानं खेळसिङ्घाणिकादिधोवनहत्थेहि Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.८७-९०) चारिकाअनुजाननवण्णना कतं, सुचिं पणीतं कतन्ति । पुनदिवसे नागरापि ददमाना वदन्ति - “गण्हथ, ताता, न नगरगामनिगमादीसु सङ्कडिततण्डुलखीरदधिसप्पिआदीहि, न अ सं जङ्घसीसपिट्ठिआदीनि भजित्वा आहरापितेहि कतं, जातिसप्पिखीरादीहियेव कतन्ति । एवं सत्तसु संवच्छरेसु सत्तसु मासेसु सत्तसु दिवसेसु च अतिक्कन्तेसु अथ भगवतो अयं वितक्को उदपादि । तेन वुत्तं - “सम्बोधितो सत्त संवच्छरानि सत्त मासानि सत्त दिवसानि अतिक्कमित्वा उदपादी''ति । ८७. अञतरो महाब्रह्माति धम्मदेसनं आयाचितब्रह्माव । ८९. चतुरासीति आवाससहस्सानीति चतुरासीति विहारसहस्सानि । ते सब्बेपि द्वादससहस्सभिक्खुगण्हनका महाविहारा अभयगिरिचेतियपब्बतचित्तलपब्बतमहाविहारसदिसाव अहेसुं। __ ९०. खन्ती परमं तपोति अधिवासनखन्ति नाम परमं तपो । तितिक्खाति खन्तिया एव वेवचनं । तितिक्खा सङ्घाता अधिवासनखन्ति उत्तमं तपोति अत्थो । निब्बानं परमन्ति सब्बाकारेन पन निब्बानं परमन्ति वदन्ति बुद्धा । न हि पब्बजितो परूपघातीति यो अधिवासनखन्तिविरहितत्ता परं उपघातेति बाधेति हिंसति, सो पब्बजितो नाम न होति । चतुत्थपादो पन तरसेव वेवचनं । “न हि पब्बजितो'"ति एतस्स हि न समणो होतीति वेवचनं । परूपघातीति एतस्स परं विहेठयन्तोति वेवचनं । अथ वा परूपघातीति सीलूपघाती । सीलहि उत्तमद्वेन परन्ति वुच्चति । यो च समणो परं यं कञ्चि सत्तं विहेठयन्तो परूपघाती होति, अत्तनो सीलं विनासको, सो पब्बजितो नाम न होतीति अत्थो। अथवा यो अधिवासनखन्तिया अभावतो परूपघाती होति, परं अन्तमसो डंसमकसम्पि सञ्चिच्च जीविता वोरोपेति, सो न हि पब्बजितो। किं कारणा ? मलस्स अपब्बाजितत्ता । “पब्बाजयमत्तनो मलं, तस्मा पब्बजितोति वुच्चतीति (ध० प० ३८८) इदग्हि पब्बजितलक्खणं । योपि न हेव खो उपघातेति, न मारेति, अपि च दण्डादीहि विहेटेति, सो परं विहेठयन्तो समणो न होति । किं कारणा ? विहेसाय असमितत्ता । “समितत्ता हि पापानं, समणोति पवुच्चती''ति (ध० प० २६५) इदहि समणलक्खणं । दुतियगाथाय सब्बपापस्साति सब्बाकुसलस्स। अकरणन्ति अनुप्पादनं । कुसलस्साति चतुभूमिककुसलस्स । उपसम्पदाति पटिलाभो । सचित्तपरियोदपनन्ति अत्तनो चित्तजोतनं, तं 61 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१.९१-९१) पन अरहत्तेन होति । इति सीलसंवरेन सब्बपापं पहाय समथविपस्सनाहि कुसलं सम्पादेत्वा अरहत्तफलेन चित्तं परियोदापेतब्बन्ति एतं बुद्धानं सासनं ओवादो अनुसिट्ठी ति । ततियगाथाय अनूपवादोति वाचाय कस्सचि अनुपवदनं । अनूपघातोति कायेन उपघातस्स अकरणं । पातिमोक्खेति यं तं पअतिमोक्खं, अतिपमोक्खं, उत्तमसीलं, पाति वा अगतिविसेसेहि मोक्खेति दुग्गतिभयेहि, यो वा नं पाति, तं मोक्खेतीति "पातिमोक्ख"न्ति वच्चति । तस्मिं पातिमोक्खे च संवरो। मत्त ताति पटिग्गहणपरिभोगवसेन पमाण ता । पन्तञ्च सयनासनन्ति सयनासनञ्च सङ्घट्टनविरहितन्ति अत्थो । तत्थ द्वीहियेव पच्चयेहि चतुपच्चयसन्तोसो दीपितो होतीति वेदितब्बो । एतं बुद्धान सासनन्ति एतं परस्स अनुपवदनं अनुपघातनं पातिमोक्खसंवरो पटिग्गहणपरिभोगेसु मत्त ता अट्ठसमापत्तिवसिभावाय विवित्तसेनासनसेवनञ्च बुद्धानं सासनं ओवादो अनुसिट्ठीति । इमा पन सब्बबुद्धानं पातिमोक्खुद्देसगाथा होन्तीति वेदितब्बा । देवतारोचनवण्णना ९१. एत्तावता च इमिना विपस्सिस्स भगवतो अपदानानुसारेन वित्थारकथनेन"तथागतस्सेवेसा, भिक्खवे, धम्मधातु सुप्पटिविद्धाति एवं वुत्ताय धम्मधातुय सुप्पटिविद्धभावं पकासेत्वा इदानि – “देवतापि तथागतस्स एतमत्थं आरोचेसु"न्ति वुत्तं देवतारोचनं पकासेतुं एकमिदाहन्तिआदिमाह । तत्थ सुभगवनेति एवंनामके वने । सालराजमूलेति वनप्पतिजेट्ठकस्स मूले । कामच्छन्दं विराजेत्वाति अनागामिमग्गेन मूलसमुग्धातवसेन विराजेत्वा । यथा च विपस्सिस्स, एवं सेसबुद्धानम्पि सासने वुत्थब्रह्मचरिया देवता आरोचयिंसु, पाळि पन विपस्सिस्स चेव अम्हाकञ्च भगवतो वसेन आगता । तत्थ अत्तनो सम्पत्तिया न हायन्ति, न विहायन्तीति अविहा। न कञ्चि सत्तं तपन्तीति अतप्पा। सुन्दरदस्सना अभिरूपा पासादिकाति सुदस्सा। सुटु पस्सन्ति, सुन्दरमेतेसं वा दस्सनन्ति सुदस्सी। सब्बेहेव च सगुणेहि भवसम्पत्तिया च जेट्ठा, नत्थेत्थ कनिट्ठाति अकनिट्ठा। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.९१-९१) देवतारोचनवण्णना ___ इध ठत्वा भाणवारा समोधानेतब्बा। इमस्मिहि सुत्ते विपस्सिस्स भगवतो अपदानवसेन तयो भाणवारा वुत्ता। यथा च विपस्सिस्स, एवं सिखीआदीनम्पि अपदानवसेन वुत्ताव । पाळि पन सङ्घित्ता । इति सत्तन्नं बुद्धानं वसेन अम्हाकं भगवता एकवीसति भाणवारा कथिता । तथा अविहेहि । तथा अतप्पेहि । तथा सुदस्सेहि । तथा सुदस्सीहि । तथा अकनिटेहीति सब्बम्पि छब्बीसतिभाणवारसतं होति । तेपिटके बुद्धवचने अजं सुत्तं छब्बीसतिभाणवारसतपरिमाणं नाम नत्थि, सुत्तन्तराजा नाम अयं सुत्तन्तोति वेदितब्बो । इतो परं अनुसन्धिद्वयम्पि निय्यातेन्तो इति खो भिक्खवेतिआदिमाह । तं सब्बं उत्तानमेवाति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं महापदानसुत्तवण्णना निविता। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. महानिदानसुत्तवण्णना निदानवण्णना ९५. एवं मे सुतं...पे०... कुरूसूति महानिदानसुत्तं । तत्रायं अनुत्तानपदवण्णना | कुरूसु विहरतीति कुरू नाम जानपदिनो राजकुमारा, तेसं निवासी एकोपि जनपदो रुळ्हीसद्देन 'कुरूति वुच्चति । तस्मिं कुरूसु जनपदे। अट्ठकथाचरिया पनाहुमन्धातुकाले तीसु दीपेसु मनुस्सा "जम्बुदीपो नाम बुद्धपच्चेकबुद्धमहासावकचक्कवत्तिप्पभुतीनं उत्तममनुस्सानं उप्पत्तिभूमि उत्तमदीपो अतिरमणीयो''ति सुत्वा रा मन्धातुचक्कवत्तिना चक्करतनं पुरक्खत्वा चत्तारो दीपे अनुसंयायन्तेन सद्धिं आगमंसु । ततो राजा परिणायकरतनं पछि - "अत्थि न खो मनुस्सलोकतो रमणीयतरं ठान"न्ति । कस्मा देव एवं भणसि ? किं न पस्ससि चन्दिमसूरियानं आनुभावं, ननु एतेसं ठानं इतो रमणीयतरन्ति ? राजा चक्करतनं पुरक्खत्वा तत्थ अगमासि । चत्तारो महाराजानो - "मन्धातुमहाराजा आगतो''ति सुत्वाव “महिद्धिको महानुभावो राजा, न सक्का युद्धन पटिबाहितु"न्ति सकं रज्जं निय्यातेसुं । सो तं गहेत्वा पुन पुच्छि – “अत्थि नु खो इतो रमणीयतरं ठान''न्ति ? अथस्स तावतिसभवनं कथयिंसु । "तावतिसभवनं, देव, इतो रमणीयतरं । तत्थ सक्कस्स देवरो इमे चत्तारो महाराजानो परिचारका दोवारिकभूमियं तिठ्ठन्ति, सक्को देवराजा महिद्धिको महानुभावो, तस्सिमानि उपभोगट्ठानानि - योजनसहस्सुब्बेधो वेजयन्तो पासादो, पञ्चयोजनसतुब्बेधा सुधम्मा देवसभा, दियड्डयोजनसतिको वेजयन्तरथो तथा एरावणो हत्थी, दिब्बरुक्खसहस्सप्पटिमण्डितं नन्दनवनं, चित्तलतावनं, फारुसकवनं, मिस्सकवनं, योजनसतुब्बेधो पारिच्छत्तको कोविळारो, तस्स हेट्ठा सट्ठियोजनायामा h4 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.९५-९५) निदानवण्णना पञ्चासयोजनवित्थता पञ्चदसयोजनुब्बेधा जयकुसुमपुप्फवण्णा पण्डुकम्बलसिला, यस्सा मुदुताय सक्कस्स निसीदतो उपड्ढकायो अनुपविसती''ति । तं सुत्वा राजा तत्थ गन्तुकामो चक्करतनं अब्भुक्किरि । तं आकासे पतिहासि सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय । अथ द्विन्नं देवलोकानं वेमज्झतो चक्करतनं ओतरित्वा पथवियं पतिठ्ठासि सद्धिं परिणायकरतनपमुखाय चतुरङ्गिनिया सेनाय | राजा एककोव तावतिसभवनं अगमासि । सक्को - “मन्धाता आगतो"ति सुत्वाव तस्स पच्चुग्गमनं कत्वा - "स्वागतं, ते महाराज, सकं ते महाराज, अनुसास महाराजा''ति वत्वा सद्धिं नाटकेहि रज्जं द्वे भागे कत्वा एकं भागमदासि । रञो तावतिसभवने पतिट्टितमत्तस्सेव मनुस्सभावो विगच्छि, देवभावो पातुरहोसि । तस्स किर सक्केन सद्धिं पण्डुकम्बलसिलायं निसिन्नस्स अक्खिनिमिसमत्तेन नानत्तं पञ्जायति । तं असल्लक्खेन्ता देवा सक्कस्स च तस्स च नानत्ते मुव्हन्ति । सो तत्थ दिब्बसम्पत्तिं अनुभवमानो याव छत्तिंस सक्का उप्पज्जित्वा चुता, ताव रज्जं कारेत्वा अतित्तोव कामेहि ततो चवित्वा अत्तनो उय्याने पतिट्ठितो वातातपेन फुट्ठगत्तो कालमकासि । चक्करतने पन पुन पथवियं पतिहिते परिणायकरतनं सुवण्णपट्टे मन्धातु उपाहनं लिखापेत्वा इदं मन्धातु रज्जन्ति रज्जमनुसासि । तेपि तीहि दीपेहि आगतमनुस्सा पुन गन्तुं असक्कोन्ता परिणायकरतनं उपसङ्कमित्वा – “देव, मयं रओ आनुभावेन आगता, इदानि गन्तुं न सक्कोम, वसनट्ठानं नो देही''ति याचिंसु । सो तेसं एकमेकं जनपदमदासि । तत्थ पुब्बविदेहतो आगतमनुस्सेहि आवसितपदेसो तायेव पुरिमसञाय - “विदेहरहन्ति नामं लभि, अपरगोयानतो आगतमनुस्सेहि आवसितपदेसो "अपरन्तजनपदो"ति नामं लभि, उत्तरकुरुतो आगतमनुस्सेहि आवसितपदेसो "कुरुरट्ठन्ति नामं लभि, बहुके पन गामनिगमादयो उपादाय बहुवचनेन वोहरियति । तेन वुत्तं - "कुरूसु विहरती''ति । कम्मासधर्म नाम कुरूनं निगमोति कम्मासधम्मन्ति एत्थ केचि ध-कारस्स द-कारेन अत्थं वण्णयन्ति । कम्मासो एत्थ दमितोति कम्मासदम्मो। कम्मासोति कम्मासपादो पोरिसादो वुच्चति । तस्स किर पादे खाणुकेन विद्धट्ठाने वणो रुहन्तो चित्तदारुसदिसो हुत्वा रुहि । तस्मा कम्मासपादोति पञायित्थ । सो च तस्मिं ओकासे दमितो पोरिसादभावतो 65 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (२.९५-९५) पटिसेधितो । केन ? महासत्तेन । कतरस्मिं जातकेति ? महासुतसोमजातकेति एके। इमे पन थेरा जयद्दिसजातकेति वदन्ति । तदा हि महासत्तेन कम्मासपादो दमितो । यथाह - "पुत्तो यदा होमि जयसिस्स । पञ्चालरट्ठधिपतिस्स अत्रजो।। चजित्वान पाणं पितरं पमोचयिं । कम्मासपादम्पि चहं पसादयि"न्ति ।। केचि पन ध-कारेनेव अत्थं वण्णयन्ति । कुरूरट्ठवासीनं किर कुरुवत्तधम्मो, तस्मिं कम्मासो जातो, तस्मा तं ठानं कम्मासो एत्थ धम्मो जातोति कम्मासधम्मन्ति वुच्चति । तत्थ निविठ्ठनिगमस्सापि एतदेव नामं । भुम्मवचनेन कस्मा न वुत्तन्ति । अवसनोकासतो । भगवतो किर तस्मिं निगमे वसनोकासो कोचि विहारो नाम नाहोसि । निगमतो पन अपक्कम्म अञ्जतरस्मिं उदकसम्पन्ने रमणीये भूमिभागे महावनसण्डो अहोसि तत्थ भगवा विहासि, तं निगमं गोचरगामं कत्वा । तस्मा एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो- “कुरूसु विहरति कम्मासधम्म नाम कुरूनं निगमो, तं गोचरगामं कत्वा''ति । आयस्माति पियवचनमेतं, गारववचनमेतं । आनन्दोति तस्स थेरस्स नाम । एकमन्तन्ति भावनपुंसकनिद्देसो- “विसमं चन्दिमसूरिया परिवत्तन्ती''तिआदीसु (अ० नि० २.४.७०) विय । तस्मा यथा निसिन्नो एकमन्तं निसिन्नो होति, तथा निसीदीति एवमेत्थ अत्थो दट्ठब्बो । भुम्मत्थे वा एतं उपयोगवचनं निसीदीति उपाविसि । पण्डिता हि गरुडानियं उपसङ्कमित्वा आसनकुसलताय एकमन्तं निसीदन्ति । अयञ्च तेसं अञ्जतरो, तस्मा एकमन्तं निसीदि । कथं निसिन्नो खो पन एकमन्तं निसिन्नो होतीति ? छ निसज्जदोसे वज्जेत्वा | सेय्यथिदं - अतिदूर, अच्चासन्नं, उपरिवातं, उन्नतप्पदेसं, अतिसम्मुखं, अतिपच्छाति । अतिदूरे निसिन्नो हि सचे कथेतुकामो होति, उच्चासद्देन कथेतब्बं होति। अच्चासन्ने निसिन्नो सङ्घट्टनं करोति । उपरिवाते निसिन्नो सरीरगन्धेन बाधति । उन्नतप्पदेसे निसिन्नो अगारवं पकासेति । अतिसम्मुखा निसिन्नो सचे दद्रुकामो होति, चक्खुना चर्पा आहच्च दट्ठब्बं होति । अतिपच्छा निसिन्नो सचे दट्टकामो होति, गीवं परिवत्तेत्वा दट्टब्बं होति । तस्मा अयम्पि तिक्खत्तुं भगवन्तं पदक्खिणं कत्वा सक्कच्चं वन्दित्वा एते छ निसज्जदोसे 66 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.९५--९५) निदानवण्णना वज्जेत्वा दक्खिणजाणुमण्डलस्स अभिमुखट्ठाने छब्बण्णानं बुद्धरस्मीनं अन्तो पविसित्वा पसन्नलाखारसं विगाहन्तो विय सुवण्णपटं पारुपन्तो विय रत्तुप्पलमालावितानमज्झं पविसन्तो विय च धम्मभण्डागारिको आयस्मा आनन्दो निसीदि । तेन वुत्तं – “एकमन्तं निसीदी''ति । काय पन वेलाय, केन कारणेन अयमायस्मा भगवन्तं उपसङ्कमन्तोति ? सायन्हवेलायं पच्चयाकारपञ्हपुच्छनकारणेन । तं दिवसं किरायमायस्मा कुलसङ्गहत्थाय घरद्वारे घरद्वारे सहस्सभण्डिकं निक्खिपन्तो विय कम्मासधम्मगामं पिण्डाय चरित्वा पिण्डपातपटिक्कन्तो सत्थु वत्तं दस्सेत्वा सत्थरि गन्धकुटिं पविढे सत्थारं वन्दित्वा अत्तनो दिवाहानं गन्त्वा अन्तेवासिकेसु वत्तं दस्सेत्वा पटिक्कन्तेसु दिवाट्टानं पटिसम्मज्जित्वा चम्मक्वण्डं पञपेत्वा उदकतुम्बतो उदकं गहेत्वा उदकेन हत्थपादे सीतले कत्वा पल्लङ्घ आभुजित्वा निसिन्नो सोतापत्तिफलसमापत्तिं समापज्जि। अथ परिच्छिन्नकालवसेन समापतितो उट्ठाय पच्चयाकारे आणं ओतारेसि। सो- “अविज्जापच्चया सङ्घारा''तिआदितो पट्ठाय अन्तं, अन्ततो पट्ठाय आदि, उभयन्ततो पट्ठाय मज्झं, मज्झतो पट्ठाय उभो अन्ते पापेन्तो तिक्खत्तुं द्वादसपदं पच्चयाकारं सम्मसि । तस्सेवं सम्मसन्तस्स पच्चयाकारो विभूतो हुत्वा उत्तानकुत्तानको विय उपट्ठासि । ततो चिन्तेसि- "अयं पच्चयाकारो सब्बबुद्धेहि - 'गम्भीरो चेव गम्भीरावभासो चाति कथितो, मय्हं खो पन पदेसाणे ठितस्स सावकस्स सतो उत्तानो विभूतो पाकटो हुत्वा उपट्ठाति, महंयेव नु खो एस उत्तानको हुत्वा उपट्टाति, उदाहु अझेसम्पी''ति ? अथस्स एतदहोसि - "हन्दाहं इमं पऽहं गहेत्वा भगवन्तं पुच्छामि, अद्धा मे भगवा इमं अथुप्पत्तिं कत्वा सालिन्दं सिनेरु उक्खिपन्तो विय एकं सुत्तन्तकथं कथेत्वा दस्सेस्सति । बुद्धानहि विनयपत्तिं, भुम्मन्तरं, पच्चयाकारं, समयन्तरन्ति इमानि चत्तारि ठानानि पत्वा गज्जितं महन्तं होति, आणं अनुपविसति, बुद्धञाणस्स महन्तभावो पञ्जायति, देसना गम्भीरा होति तिलक्खणब्भाहता सुञतपटिसंयुत्ता''ति । सो किञ्चापि पकतियाव एकदिवसे सतवारम्पि सहस्सवारम्पि भगवन्तं उपसङ्कमन्तो न अहेतुअकारणेन उपसङ्कमति, तं दिवसं पन इमं पहं गहेत्वा - “इमं बुद्धगन्धहत्थिं आपज्ज आणकोञ्चनादं सोस्सामि, बुद्धसीहं आपज्ज आणसीहनादं सोस्सामि, बुद्धसिन्धवं आपज्ज आणपदविक्कम पस्सिस्सामी''ति चिन्तेत्वा दिवाठाना उट्ठाय चम्मक्खण्डं Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (२.९५-९५) पप्फोटेत्वा आदाय सायन्हसमये भगवन्तं उपसङ्कमि । तेन वुत्तं- “सायन्हवेलायं पच्चयाकारपञ्हपुच्छनकारणेन उपसङ्कमन्तो''ति । याव गम्भीरोति एत्थ यावसद्दो पमाणातिक्कमे, अतिक्कम्म पमाणं गम्भीरो, अतिगम्भीरोति अत्थो। गम्भीरावभासोति गम्भीरोव हुत्वा अवभासति, दिस्सतीति अत्थो । एकहि उत्तानमेव गम्भीरावभासं होति पूतिपण्णादिवसेन काळवण्णपुराणउदकं विय । तहि जाणुप्पमाणम्पि सतपोरिसं विय दिस्सति । एकं गम्भीरं उत्तानावभासं होति मणिगङ्गाय विप्पसन्नउदकं विय । तहि सतपोरिसम्पि जाणुप्पमाणं विय खायति । एकं उत्तानं उत्तानावभासं होति चाटिआदीसु उदकं विय । एकं गम्भीरं गम्भीरावभासं होति सिनेरुपादकमहासमुद्दे उदकं विय। एवं उदकमेव चत्तारि नामानि लभति । पटिच्चसमुप्पादे पनेतं नत्थि । अयहि गम्भीरो चेव गम्भीरावभासो चाति एकमेव नामं लभति । एवरूपो समानोपि अथ च पन मे उत्तानकुत्तानको विय खायति, यदिदं अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं भन्तेति । एवं अत्तनो विम्हयं पकासेन्तो पऽहं पुच्छित्वा तुण्हीभूतो निसीदि । भगवा तस्स वचनं सुत्वा - “आनन्दो भवग्गग्गहणाय हत्थं पसारेन्तो विय, सिनेरुं छिन्दित्वा मिजं नीहरितुं वायममानो विय, विना नावाय महासमुई तरितुकामो विय, पथविं परिवत्तेत्वा पथवोजं गहेतुं वायममानो विय बुद्धविसयपहं अत्तनो उत्तानं वदति । हन्दस्स गम्भीरभावं आचिक्खिस्सामी''ति चिन्तेत्वा मा हेवन्तिआदिमाह । तत्थ मा हेवन्ति ह-कारो निपातमत्तं । एवं मा भणीति अत्थो । मा हेवन्ति च इदं वचनं भगवा आयस्मन्तं आनन्दं उस्सादेन्तोपि भणति अपसादेन्तोपि । उस्सादनावण्णना तत्थ उस्सादेन्तो- आनन्द, त्वं महापञो विसदत्राणो, तेन ते गम्भीरोपि पटिच्चसमुप्पादो उत्तानको विय खायति । अञसं पनेस उत्तानकोति न सल्लक्खेतब्बो, गम्भीरोयेव च गम्भीरावभासो च । तत्थ चतस्सो उपमा वदन्ति । छमासे सुभोजनरसपुट्ठस्स किर कतयोगस्स महामल्लस्स समज्जसमये कतमल्लपासाणपरिचयस्स युद्धभूमिं गच्छन्तस्स अन्तरा मल्लपासाणं दस्सेसुं, सो - किं एतन्ति आह । मल्लपासाणोति । आहरथ नन्ति । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.९५-९५) उस्सादनावण्णना उक्खिपितुं न सक्कोमाति वुत्ते सयं गन्त्वा कुहिं इमस्स भारियट्ठानन्ति वत्वा द्वीहि हत्थेहि द्वे पासाणे उक्खिपित्वा कीळागुळे विय खिपित्वा अगमासि । तत्थ मल्लस्स मल्लपासाणो लहुकोपि न अञ्ञेसं लहुकोति वत्तब्बो । छमासे सुभोजनरसपुट्ठो मल्लो विय हि कप्पसतसहस्सं अभिनीहारसम्पन्नो आयस्मा आनन्दो, यथा मल्लस्स महाबलताय मल्लपासाणो लहुको, एवं थेरस्स महापञ्ञताय पटिच्चसमुप्पादो उत्तानो, सो अञेसं उत्तानोति न वत्तब्बो | महासमुद्दे च तिमिनाम मच्छो द्वियोजनसतिको तिमिङ्गलो तियोजनसतिको, तिमिपिङ्गलो चतुयोजनसतिको तिमिरपिङ्गलो पञ्चयोजनसतिको, आनन्दो तिमिनन्दो अज्झारोहो महातिमीति इमे चत्तारो योजनसहस्सिका । तत्थ तिमिरपिङ्गलेनेव दीपेन्ति । तस्स किर दक्खिणकण्णं चालेन्तस्स पञ्चयोजनसते पदेसे उदकं चलति । तथा वामकण्णं । तथा नङ्गुट्टं, तथा सीसं । द्वे पन कण्णे चालेत्वा नङ्गुट्ठेन उदकं पहरित्वा सीसं अपरापरं कत्वा कीळितुं आरद्धस्स सत्तट्ठयोजनसते पदेसे भाजने पक्खिपित्वा उद्धने आरोपितं विय उदकं पक्कुथति, तियोजनसतमत्ते पदेसे उदकं पिट्ठि छादेतुं न सक्कोति । सो एवं वदेय्य - " अयं महासमुद्दो गम्भीरो गम्भीरोति वदन्ति तस् गम्भीरता, मयं पिट्ठिपटिच्छादनमत्तम्पि उदकं न लभामा " ति । तत्थ कायुपपन्नस्स तिमिरपिङ्गलस्स महासमुद्दो उत्तानोति, अञ्ञेसं खुद्दकमच्छानं उत्तानोति न वत्तब्बो, एवमेव आणुपपन्नस्स थेरस्स पटिच्चसमुप्पादो उत्तानोति, अञ्ञसम्पि उत्तानोति न वत्तब्बो | ६९ सुपण्णराजा च दिययोजनसतिको तस्स दक्खिणपक्खो पञ्ञासयोजनिको होत तथा वामपक्खो, पिञ्छवट्टि सट्ठियोजनिका, गीवा तिंसयोजनिका, मुखं नवयोजनं, पादा द्वादसयोजनिका । तस्मिं सुपण्णवातं दस्सेतुं आरद्धे सत्तट्टयोजनसतं ठानं नप्पहोति । सो एवं वदेय्य - "अयं आकासो अनन्तो अनन्तोति वदन्ति कुतस्स अनन्तता, मयं पक्खवातप्पसारणोकासम्पि न लभामा 'ति । तत्थ कायुपपन्नस्स सुपण्णरज्ञो आकासो परित्तोति, असं खुद्दकपक्खीनं परित्तोति न वत्तब्बो, एवमेव आणुपपन्नस्स थेरस्स पटिच्चसमुप्पादो उत्तानोति, अञ्ञसम्पि उत्तानोति न वत्तब्बो । राहु असुरिन्दो पन पादन्ततो याव केसन्ता योजनानं चत्तारि सहस्सानि अट्ट च सतानि होति । तस्स द्विन्नं बाहानं अन्तरं द्वादसयोजनसतिकं । बहलत्तेन छयोजनसतिकं । 69 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा , हत्थपादतलानि तियोजनसतिकानि तथा मुखं । एकैकं अङ्गुलिपब्बं पञ्ञासयोजनं, तथा भमुकन्तरं । नलाटं तियोजनसतिकं । सीसं नवयोजनसतिकं । तस्स महासमुदं ओतिण्णस्स गम्भीरं उदकं जाणुष्पमाणं होति । सो एवं वदेय्य - " अयं महासमुद्दो गम्भीरो गम्भीरोति वदन्ति कुतस्स गम्भीरता, मयं जाणुप्पटिच्छादनमत्तम्पि उदकं न लभामा "ति । तत्थ कायुपपन्नस्स राहुनो महासमुद्दो उत्तानोति, अञ्ञेसं उत्तानोति न वत्तब्बो, एवमेव जणुपपन्नस्स थेरस्स पटिच्चसमुप्पादो उत्तानोति, अञ्ञसम्पि उत्तानोति न वत्तब्बो । एतमत्थं सन्धाय भगवा - " मा हेवं, आनन्द, अवच मा हेवं, आनन्द अवचा "ति आह । ७० थेरस्स हि चतूहि कारणेहि गम्भीरोपि पटिच्चसमुप्पादो उत्तानोति उपट्टाति । कतमेहि चतूहि ? पुब्बूपनिस्सयसम्पत्तिया, तित्थवासेन, सोतापन्नताय, बहुस्सुतभावेनाति । पुब्बूपनिस्सयसम्पत्तिकथा इतो फिर सतसहस्सिमे कप्पे पदुमुत्तरो नाम सत्था लोके उप्पज्जि । तस्स हंसवती नाम नगरं अहोसि, आनन्दो नाम राजा पिता, सुमेधा नाम देवी माता, बोधिसत्तो उत्तरकुमारो नाम अहोसि । सो पुत्तस्स जातदिवसे महाभिनिक्खमनं निक्खम्म पब्बजित्वा पधानमनुयुञ्जन्तो अनुक्कमेन सब्बञ्तं पत्वा- “ अनेकजातिसंसार "न्ति उदानं उदानेत्वा सत्ताहं बोधिपल्लङ्के वीतिनामेत्वा पथवियं ठपेस्सामीति पादं अभिनीहरि । अथ पथवि भिन्दित्वा महन्तं पदुमं उट्ठासि । तस्स धुरपत्तानि नवतिहत्थानि, केसरं तिसहत्थं, कण्णिका द्वादसहत्था, नवघटप्पमाणो रेणु अहोसि । (२.९५ - ९५) सत्था पन उब्बेधतो अट्टपण्णासहत्थुब्बेधो अहोसि । तस्स उभिन्न बाहानमन्तरं अट्ठारसहत्थं, नलाटं पञ्चहत्थं, हत्थपादा एकादसहत्था । तस्स एकादसहत्थेन पादेन द्वादसत्थाय कणिकाय अक्कन्तमत्ताय नवघटप्पमाणो रेणु उट्ठाय अट्टपण्णासहत्थं पदेसं उग्गन्त्वा ओकिण्णमनोसिलाचुण्णं विय पच्चोकिण्णो । तदुपादाय भगवा पदुमुत्तरोत्वेव पञ्ञायित्थ । तस्स देविलो च सुजातो च द्वे अग्गसावका अहेसुं । अमिता च असमा च द्वे अग्गसाविका । सुमनो नाम उपट्टाको । पदुमुत्तरो भगवा पितुसङ्ग्रहं कुरुमानो भिक्खुसतसहस्सपरिवारो हंसवतिया राजधानिया वसति । 70 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.९५-९५) पुब्बूपनिस्सयसम्पत्तिकथा कनिट्ठभाता पनस्स सुमनकुमारो नाम । तस्स राजा हंसवतितो वीसतियोजनसते ठाने भोगगामं अदासि | सो कदाचि आगन्त्वा पितरञ्च सत्थारञ्च पस्सति । अथेकदिवसं पच्चन्तो कुपितो । सुमनो रओ पेसेसि - “पच्चन्तो कुपितो'ति । राजा "मया त्वं तत्थ कस्मा ठपितो''ति टिपेसेसि । सो निक्खम्म चोरे वूपसमेत्वा - “उपसन्तो, देव, जनपदो''ति रञो पेसेसि । राजा तुट्ठो- “सीघं मम पुत्तो आगच्छतू"ति आह । तस्स सहस्समत्ता अमच्चा होन्ति । सो तेहि सद्धिं अन्तरामग्गे मन्तेसि - “मव्हं पिता तुट्ठो, सचे मे वरं देति, किं गण्हामी''ति । अथ नं एकच्चे “हत्थिं गण्हथ, अस्सं गण्हथ, रथं गण्हथ, जनपदं गण्हथ, सत्तरतनानि गण्हथा''ति आहंसु । अपरे - "तुम्हे पथविस्सरस्स पुत्ता, तुम्हाकं धनं न दुल्लभं, लद्धम्पि चेतं सब पहाय गमनीयं, पुञ्जमेव एकं आदाय गमनीयं; तस्मा ते देवे वरं ददमाने तेमासं पदुमुत्तरं भगवन्तं उपट्ठातुं वरं गण्हथा''ति । सो - "तुम्हे मव्हं कल्याणमित्ता, न ममेतं चित्तं अस्थि, तुम्हेहि पन उप्पादितं, एवं करिस्सामी'"ति गन्त्वा पितरं वन्दित्वा पितरापि आलिङ्गेत्वा तस्स मत्थके चुम्बित्वा - “वरं ते पुत्त, देमी''ति वुत्ते “साधु महाराज, इच्छामहं महाराज भगवन्तं तेमासं चतूहि पच्चयेहि उपहन्तो जीवितं अवझं कातुं, इममेव वरं देहीति आह । “न सक्का तात, अनं वरेही''ति वुत्ते “देव, खत्तियानं नाम द्वे कथा नत्थि, एतमेव देहि, न मे अञ्चेनत्थो''ति । तात बुद्धानं नाम चित्तं दुज्जानं, सचे भगवा न इच्छिरसति, मया दिन्नेपि किं भविस्सतीति ? सो -- “साधु, देव, अहं भगवतो चित्तं जानिस्सामी''ति विहारं गतो। तेन च समयेन भत्तकिच्चं निट्ठपेत्वा भगवा गन्धकुटिं पविठ्ठो होति । सो मण्डलमाळे सन्निसिन्नानं भिक्खूनं सन्तिकं अगमासि । ते तं आहंसु - "राजपुत्त, कस्मा आगतोसी''ति ? भगवन्तं दस्सनाय, दस्सेथ मे भगवन्तन्ति । न मयं, राजपुत्त, इच्छितिच्छितक्खणे सत्थारं दटुं लभामाति । को पन, भन्ते, लभतीति ? सुमनत्थेरो नाम राजपुत्ताति । “सो कुहि, भन्ते, थेरो"ति । थेरस्स निसिन्नट्ठानं पुच्छित्वा गन्त्वा वन्दित्वा - "इच्छामहं, भन्ते, भगवन्तं पस्सितुं, दस्सेथ मे"ति आह । थेरो- “एहि राजपुत्ता''ति तं गहेत्वा तं गन्धकुटिपरिवेणे ठपेत्वा गन्धकुटिं अभिरुहि । अथ नं भगवा - "सुमन, कस्मा आगतोसी''ति आह । राजपुत्तो, भन्ते, भगवन्तं दस्सनाय आगतोति । तेन हि भिक्खु आसनं पञापेहीति । थेरो आसनं पञापेसि, निसीदि भगवा पञत्ते आसने । राजपुत्तो भगवन्तं वन्दित्वा पटिसन्थारं अकासि । कदा आगतोसि राजपुत्ताति ? भन्ते, तुम्हेसु गन्धकुटिं पविट्टेसु । भिक्खू पन - "न मयं इच्छितिच्छितक्खणे भगवन्तं दटुं लभामा''ति Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (२.९५-९५) मं थेरस्स सन्तिकं पाहेसुं । थेरो पन एकवचनेनेव दस्सेसि । थेरो, भन्ते, तुम्हाकं सासने वल्लभो मजेति । आम राजकुमार, वल्लभो एस भिक्खु मव्हं सासनेति । भन्ते, बुद्धानं सासने किं कत्वा वल्लभो होतीति ? दानं दत्वा सीलं समादियित्वा उपोसथकम्मं कत्वा कुमाराति । भगवा, अहं थेरो विय बुद्धसासने वल्लभो होतुकामो, तेमासं मे वस्सावासं अधिवासेथाति । भगवा – “अस्थि नु खो तत्थ गतेन अत्थो"ति ओलोकेत्वा अस्थीति दिस्वा “सुझागारे, खो राजकुमार तथागता अभिरमन्ती''ति आह । कुमारो “अातं भगवा, अज्ञातं सुगता''ति वत्वा “अहं, भन्ते, पुरिमतरं गन्त्वा विहारं कारेमि, मया पेसिते भिक्खुसतसहस्सेन सद्धिं आगच्छथा''ति पटिनं गहेत्वा पितुसन्तिकं गन्त्वा “दिन्ना मे, देव, भगवता पटिञा, मया पहिते भगवन्तं पेसेय्याथा'ति पितरं वन्दित्वा निक्खमित्वा योजने योजने विहारं कारेत्वा वीसयोजनसतं अद्धानं गन्त्वा अत्तनो नगरे विहारट्ठानं विचिनन्तो सोभनं नाम कुटुम्बिकस्स उय्यानं दिस्वा सतसहस्सेन किणित्वा सतसहस्सं विस्सज्जेत्वा विहारं कारेसि । तत्थ भगवतो गन्धकुटिं सेसभिक्खूनञ्च रत्तिट्ठानदिवाट्ठानत्थाय कुटिलेणमण्डपे कारापेत्वा पाकारपरिक्खेपे कत्वा द्वारकोटकञ्च निट्ठपेत्वा पितुसन्तिकं पेसेसि - “निट्टितं मय्हं किच्चं, सत्थारं पहिणथा''ति । राजा भगवन्तं भोजेत्वा - "भगवा, सुमनस्स किच्चं निहितं, तुम्हाकं गमनं पच्चासीसती"ति आह । भगवा सतसहस्सभिक्खुपरिवारो योजने योजने विहारेसु वसमानो अगमासि । कुमारो “सत्था आगतो''ति सुत्वा योजनं पच्चुग्गन्त्वा मालादीहि पूजयमानो विहारं पवेसेत्वा - "सतसहस्सेन मे कीतं, सतसहस्सेन मापितं । सोभनं नाम उय्यानं, पटिग्गण्ह महामुनी'ति ।। विहारं निय्यातेसि । सो वस्सूपनायिकदिवसे दानं दत्वा अत्तनो पुत्तदारे च अमच्चे च पक्कोसापेत्वा आह - “अयं सत्था अम्हाकं सन्तिकं दूरतो आगतो, बुद्धा च नाम धम्मगरुनो न आमिसगरुका। तस्मा अहं तेमासं द्वे साटके निवासेत्वा दस सीलानि समादियित्वा इधेव वसिस्सामि, तुम्हे खीणासवसतसहस्सस्स इमिनाव नीहारेन तेमासं दानं ददेय्याथा''ति । सो सुमनत्थेरस्स वसनट्ठानसभागेयेव ठाने वसन्तो यं थेरो भगवतो वत्तं करोति, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.९५-९५) पुब्बूपनिस्सयसम्पत्तिकथा तं सब्बं दिस्वा “इमस्मिं ठाने एकन्तवल्लभो एस थेरो, एतस्सेव मे ठानन्तरं पत्थेतुं वट्टती''ति चिन्तेत्वा उपकट्ठाय पवारणाय गामं पविसित्वा सत्ताहं महादानं दत्वा सत्तमे दिवसे भिक्खुसतसहस्सस्स पादमूले तिचीवरं ठपेत्वा भगवन्तं वन्दित्वा - “भन्ते, यदेतं मया मग्गे योजनन्तरिकं योजनन्तरिकं विहारं कारापनतो पट्ठाय पुञ्ज कतं, तं नेव सक्कसम्पत्तिं, न मारसम्पत्तिं, न ब्रह्मसम्पत्तिं पत्थयन्तेन, बुद्धस्स पन उपट्ठाकभावं पत्थयन्तेन कतं । तस्मा अहम्पि, भगवा, अनागते सुमनत्थेरो विय बुद्धस्स उपट्टाको भवेय्य''न्ति पञ्चपतिहितेन निपतित्वा वन्दि । भगवा – “महन्तं कुलपुत्तस्स चित्तं, समिज्झिस्सति नु खो नोति ओलोकेन्तो"अनागते इतो सतसहस्सिमे कप्पे गोतमो नाम बुद्धो उप्पज्जिस्सति, तस्सेव उपट्टाको भविस्सती"ति अत्वा "इच्छितं पत्थितं तुम्हं, सब्बमेव समिज्झतु । सब्बे पूरेन्तु सङ्कप्पा, चन्दो पन्नरसो यथा''ति ।। आह । कुमारो तं सुत्वा - "बुद्धा नाम अद्वेज्झकथा होन्ती"ति दुतियदिवसेयेव तस्स भगवतो पत्तचीवरं गहेत्वा पिट्टितो पिट्टितो गच्छन्तो विय अहोसि । सो तस्मिं बुद्धप्पादे वस्ससतसहस्सं दानं दत्वा सग्गे निब्बत्तित्वा कस्सपबुद्धकालेपि पिण्डाय चरतो थेरस्स पत्तग्गहणत्थं उत्तरिसाटकं दत्वा पूजमकासि । पुन सग्गे निब्बत्तित्वा ततो चुतो बाराणसिराजा हुत्वा अठ्ठन्नं पच्चेकबुद्धानं पण्णसालायो कारेत्वा मणिआधारके उपट्टपेत्वा चतूहि पच्चयेहि दसवस्ससहस्सानि उपट्ठानं अकासि | एतानि पाकटट्ठानानि । कप्पसतसहस्सं पन दानं ददमानोव अम्हाकं बोधिसत्तेन सद्धिं तुसितपुरे निब्बत्तित्वा ततो चुतो अमितोदनसक्कस्स गेहे पटिसन्धिं गहेत्वा अनुपुब्बेन कताभिनिक्खमनो सम्मासम्बोधिं पत्वा पठमगमनेन कपिलवत्थु आगन्त्वा ततो निक्खमन्ते भगवति भगवतो परिवारत्थं राजकुमारेसु पब्बजितेसु भद्दियादीहि सद्धिं निक्खमित्वा भगवतो सन्तिके पब्बजित्वा नचिरस्सेव आयस्मतो पुण्णस्स मन्ताणिपुत्तस्स सन्तिके धम्मकथं सुत्वा सोतापत्तिफले पतिठ्ठहि (सं० नि० २.३.८३)। एवमेस आयस्मा पुब्बूपनिस्सयसम्पन्नो तस्सिमाय पुब्बूपनिस्सयसम्पत्तिया गम्भीरोपि पटिच्चसमुप्पादो उत्तानको विय उपट्ठासि । 73 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (२.९५-९५) तित्थवासादिवण्णना तित्थवासोति पुनप्पुनं गरूनं सन्तिके उग्गहणसवनपरिपुच्छनधारणानि वुच्चन्ति । सो थेरस्स अतिविय परिसुद्धो, तेनापिस्सायं गम्भीरोपि पटिच्चसमुप्पादो उत्तानको विय उपट्टासि । सोतापन्नानञ्च नाम पच्चयाकारो उत्तानकोव हुत्वा उपट्टाति, अयञ्च आयस्मा सोतापन्नो। बहुस्सुतानञ्च चतुहत्थे ओवरके पदीपे जलमाने मञ्चपीठं विय नामरूपपरिच्छेदो पाकटो होति, अयञ्च आयस्मा बहुस्सुतानं अग्गो होति, बाहुसच्चानुभावेनपिस्स गम्भीरोपि पच्चयाकारो उत्तानको विय उपट्टासि । पटिच्चसमुप्पादगम्भीरता तत्थ अत्थगम्भीरताय, धम्मगम्भीरताय, देसनागम्भीरताय, पटिवेधगम्भीरतायाति चतूहि आकारेहि पटिच्चसमुप्पादो गम्भीरो नाम | तत्थ जरामरणस्स जातिपच्चयसम्भूतसमुदागतठ्ठो गम्भीरो...पे०... सङ्खारानं अविज्जापच्चयसम्भूतसमुदागतट्ठो गम्भीरोति अयं अत्थगम्भीरता। अविज्जाय सङ्घारानं पच्चयट्ठो गम्भीरो...पे०... जातिया जरामरणस्स पच्चयट्ठो गम्भीरोति अयं धम्मगम्भीरता। कत्थचि सुत्ते पटिच्चसमुप्पादो अनुलोमतो देसियति, कत्थचि पटिलोमतो, कत्थचि अनुलोमपटिलोमतो, कत्थचि मज्झतो पट्ठाय अनुलोमतो वा पटिलोमतो वा अनुलोमपटिलोमतो वा, कत्थचि तिसन्धि चतुसङ्ग्रेपो, कत्थचि द्विसन्धि तिसङ्केपो, कत्थचि एकसन्धि द्विस पोति अयं देसनागम्भीरता। अविज्जाय पन अञ्जाणअदस्सनसच्चापटिवेधट्ठो गम्भीरो, सङ्घारानं अभिसङ्खरणायूहनसरागविरागट्ठो, विज्ञाणस्स सुझतअब्यापारअसङ्कन्तिपटिसन्धिपातुभावट्ठो, नामरूपस्स एकुप्पादविनिब्भोगाविनिब्भोगनमनरुप्पनट्ठो, सळायतनस्स अधिपतिलोकद्वारक्खेत्त Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.९५-९५) अपसादनावण्णना ७५ विसयिभावट्ठो, फस्सस्स फुसनसट्टनसङ्गतिसन्निपातठ्ठो, वेदनाय आरम्मणरसानुभवनसुखदुक्खमज्झत्तभावनिज्जीववेदयितट्ठो, तण्हाय अभिनन्दितअज्झोसानसरितालतातण्हानदीतण्हासमुद्ददुप्पूरणट्ठो, उपादानस्स आदानग्गहणाभिनिवेसपरामासदुरतिक्कमट्ठो, भवस्स आयूहनाभिसङ्घरणयोनिगतिठितिनिवासेसु खिपनट्ठो, जातिया जातिसञ्जातिओक्कन्तिनिब्बत्तिपातुभावट्ठो, जरामरणस्स खयवयभेदविपरिणामट्ठो गम्भीरोति । एवं यो अविज्जादीनं सभावो, येन पटिवेधेन अविज्जादयो सरसलक्खणतो पटिविद्धा होन्ति; सो गम्भीरोति अयं पटिवेधगम्भीरताति वेदितब्बा । सा सब्बापि थेरस्स उत्तानका विय उपट्ठासि । तेन भगवा आयस्मन्तं आनन्दं उस्सादेन्तो– “मा हेव''न्तिआदिमाह । अयञ्चेत्थ अधिप्पायो – आनन्द, त्वं महापञो विसदत्राणो, तेन ते गम्भीरोपि पटिच्चसमुप्पादो उत्तानको विय खायति, तस्मा - “मय्हमेव नु खो एस उत्तानको हुत्वा उपट्टाति, उदाहु अञ्जसम्पीति मा एवं अवचाति । अपसादनावण्णना यं पन वुत्तं- “अपसादेन्तो''ति, तत्थ अयं अधिप्पायो - आनन्द, “अथ च पन मे उत्तानकुत्तानको विय खायती"ति मा हेवं अवच । यदि हि ते एस उत्तानकुत्तानको विय खायति, कस्मा त्वं अत्तनो धम्मताय सोतापन्नो नाहोसि, मया दिन्ननयेव ठत्वा सोतापत्तिमग्गं पटिविज्झसि । आनन्द, इदं निब्बानमेव गम्भीरं, पच्चयाकारो पन तव उत्तानको जातो, अथ कस्मा ओळारिकं कामरागसंयोजनं पटिघसंयोजनं, ओळारिकं कामरागानुसयं पटिघानुसयन्ति इमे चत्तारो किलेसे समुग्घाटेत्वा सकदागामिफलं न सच्छिकरोसि ? तेयेव अणुसहगते चत्तारो किलेसे समुग्घाटेत्वा अनागामिफलं न सच्छिकरोसि ? रूपरागादीनि पञ्च संयोजनानि, भवरागानुसयं, मानानुसयं, अविज्जानुसयन्ति इमे अट्ठ किलेसे समुग्घाटेत्वा अरहत्तं न सच्छिकरोसि ? कस्मा च सतसहस्सकप्पाधिकं एकं असङ्ख्येय्यं पूरितपारमिनो सारिपुत्तमोग्गल्लाना विय सावकपारमिञाणं नप्पटिविज्झसि ? सतसहस्सकप्पाधिकानि द्वे असङ्ख्येय्यानि पूरितपारमिनो पच्चेकबुद्धा विय च पच्चेकबोधिञाणं नप्पटिविज्झसि ? यदि वा ते सब्बथाव एस उत्तानको हुत्वा उपट्ठाति, अथ कस्मा सतसहस्सकप्पाधिकानि चत्तारि अट्ठ सोळस वा असङ्खयेय्यानि पूरितपारमिनो बुद्धा विय सब्बञ्जतञाणं न सच्छिकरोसि ? किं अनत्थिकोसि एतेहि विसेसाधिगमेहि, पस्स यावञ्च ते अपरद्धं, त्वं नाम सावको 15 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा तरसते पदेसत्राणे ठितो अतिगम्भीरं पच्चयाकारं- "उत्तानको मे उपट्ठाती 'ति वदसि, इदं वचनं बुद्धानं कथाय पच्चनीकं होति, न तादिसेन नाम भिक्खुना बुद्धानं कथाय पच्चनीकं कथेतब्बन्ति युत्तमेतं । ७६ ननु मय्हं, आनन्द, इदं पच्चयाकारं पटिविज्झितुं वायमन्तस्सेव सतसहस्सकप्पाधिकानि चत्तारि असङ्ख्येय्यानि अतिक्कन्तानि ? पच्चयाकारं पटिविज्झनत्थाय च पन मे अदिन्नं दानं नाम नत्थि, अपूरितपारमी नाम नत्थि । पच्चयाकारं पटिविज्झस्सामीति पन मे निरुत्साहं विय मारबलं विधमन्तस्स अयं महापथवी द्वङ्गुलमत्तम्पि न कम्पि तथा पठमयामे पुब्बेनिवासं, मज्झिमयामे दिब्बचक्खु सम्पादेन्तस्स । पच्छिमयामे पन मे बलवपच्चूससमये “अविज्जा सङ्घारानं नवहि आकारेहि पच्चयो होती”ति दिट्ठमत्तेव दससहस्सिलोकधातु अयदण्डकेन आकोटितकंसतालं विय विरवसतं विरवसहस्सं मुञ्चमाना वाताहते पटुमिनिपण्णे उदकबिन्दु विय कम्पित्थ । एवं गम्भीरो चायं, आनन्द, पटिच्चसमुप्पादो, गम्भीरावभासो च । एतस्स आनन्द, धम्मस्स अननुबोधा...पे०... नातिवत्ततीति । एतस्स धम्मस्साति एतस्स पच्चयधम्मस्स | अननुबोधाति जातपरिञवसेन अननुबुज्झना। अप्पटिवेधाति तीरणप्पहानपरिञवसेन अप्पटिविज्झना । तन्ताकुलकजातात तन्तं विय आकुलकजाता । यथा नाम दुन्निक्खित्तं मूसिकच्छिन्नं पेसकारानं तन्तं तहिं तहिं आकुलं होति, इदं अग्गं इदं मूलन्ति अग्गेन वा अग्गं मूलेन वा मूलं समानेतुं दुक्करं होति; एवमेव सत्ता इमस्मिं पच्चयाकारे खलिता आकुला ब्याकुला होन्ति, न सक्कोन्ति तंपच्चयाकारं उजुं कातुं । तत्थ तन्तं पच्चत्तपुरिसकारे ठत्वा सक्कापि भवेय्य उजुं कातुं, ठपेत्वा पन द्वे बोधिसत्ते अ सत्ता अत्तनो धम्मताय पच्चयाकारं उजुं कातुं समत्था नाम नत्थि । यथा पन आकुलं तन्तं कञ्जियं दत्वा कोच्छेन पहतं तत्थ तत्थ गुळकजातं होति गण्ठिबद्धं, एवमिमे सत्ता पच्चयेसु पक्खलित्वा पच्चये उजुं कातुं असक्ोन्ा द्वासट्ठिदिट्ठिगतवसेन आकुलकजाता होन्ति, गण्ठिबद्धा । ये हि केचि दिट्ठिगतनिस्सिता, सब्बे पच्चयाकारं उजुं कातुं असक्कोन्तायेव । (२.९५ - ९५ ) कुलागण्ठिकजाताति कुलागण्ठिकं वुच्चति पेसकारकञ्जियसुत्तं । कुला नाम सकुणिका, तस्सा कुलावको तिपि एके । यथा हि तदुभयम्पि आकुलं अग्गेन वा अग्गं मूलेन वा मूलं समानेतुं दुक्करन्ति पुरिमनयेनेव योजेब्बं । 76 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चिसमुप्पादवण्णना मुञ्जपब्बभूताति मुञ्जतिणं विय पब्बजतिणं विय च भूता । यथा तानि तानि कोट्टेत्वा कतरज्जु जिण्णकाले कत्थचि पतितं गत्वा तेसं तिणानं इदं अग्गं, इदं मूलन्ति अग्गेन वा अग्गं मूलेन वा मूलं समानेतुं दुक्करन्ति । तम्पि पच्चत्तपुरिसकारे ठत्वा सक्का भवेय्य उजुं कातुं, ठपेत्वा पन द्वे बोधिसत्ते अजे सत्ता अत्तनो धम्मताय पच्चयाकारं उजुं कातुं समत्था नाम नत्थि । एवमयं पजा पच्चयाकारे उजुं कातुं असक्कोन्ती दिट्ठगतवसेन गण्ठिकजाता हुत्वा अपायं दुग्गतिं विनिपातं संसारं नातिवत्तति । (२.९६-९६) तत्थ अपायोति निरयतिरच्छानयोनिपेत्तिविसय असुरकाया । सब्बे प हि ते वड्ढिसङ्घातस्स अयस्स अभावतो - " अपायो 'ति वुच्चन्ति । तथा दुक्खस्स गतिभावतो दुग्गति । सुखसमुस्सयतो विनिपतितत्ता विनिपातो । इतरो पन - " खन्धानञ्च परिपाटि, धातुआयतनान च । अब्बोच्छिन्नं वत्तमाना, संसारोति पवुच्चती 'ति । । तं सब्बम्पि नातिवत्तति नातिक्कमति । अथ खो चुतितो पटिसन्धिं, पटिसन्धितो चुतिन्ति एवं पुनपुनं चुतिपटिसन्धियो गण्हन्ता तीसु भवेसु चतूसु योनीसु पञ्चसु गती सत्तसु विञ्ञाणद्वितीसु नवसु सत्तावासेसु महासमुद्दे वातुक्खित्तनावा विय यन्तेसु युत्त गोणी विय च परिब्भमतियेव । इति सब्बं पेतं भगवा आयस्मन्तं आनन्दं अपसादेन्तो आहात वेदितब्बं । ७७ पटिच्चसमुप्पादबण्णना ९६. इदानि यस्मा इदं सुत्तं - " गम्भीरो चायं, आनन्द, पटिच्चसमुप्पादोति च " तन्ताकुलकजाता "ति च द्वीहियेव पदेहि आबद्धं, तस्मा - " गम्भीरो चार्य, आनन्द, पटिच्चसमुप्पादो 'ति इमिना ताव अनुसन्धिना पच्चयाकारस्स गम्भीरभावदस्सनत्थं देसनं आरभन्तो अत्थि इदप्पच्चया जरामरणन्ति आदिमाह । तत्रायमत्थो- इमस्स जरामरणस्स पच्चयो इदप्पच्चयो, तस्मा इदप्पच्चया अत्थि जरामरणं, अत्थि नु खो जरामरणस्स पच्चयो, यम्हा पच्चया जरामरणं भवेय्याति एवं पुट्ठेन सता आनन्द, पण्डितेन पुग्गलेन यथा - "तं जीवं तं सरीर "न्ति वुत्ते ठपनीयत्ता पञ्हस्स तुम्ही भवितब्बं होति, 77 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (२.९८-९८) "अब्याकतमेतं तथागतेना"ति वा वत्तबं होति, एवं अप्पटिपज्जित्वा, यथा- "चक्खु सस्सतं असस्सत"न्ति वुत्ते असस्सतन्ति एकंसेनेव वत्तब्बं . होति, एवं एकंसेनेव अत्थीतिस्स वचनीयं । पुन किं पच्चया जरामरणं, को नाम सो पच्चयो, यतो जरामरणं होतीति वुत्ते जातिपच्चया जरामरणन्ति इच्चस्स वचनीयं, एवं वत्तब्बं भवेय्याति अत्थो । एस नयो सब्बपदेसु । नामरूपपच्चया फस्सोति इदं पन यस्मा सळायतनपच्चयाति वुत्ते चक्खुसम्फस्सादीनं छन्नं विपाकसम्फस्सानंयेव गहणं होति, इध च “सळायतनपच्चया''ति इमिना पदेन गहितम्पि अगहितम्पि पच्चयुप्पन्नविसेसं फस्सस्स च सळायतनतो अतिरित्तं अचम्पि विसेसपच्चयं दस्सेतुकामो, तस्मा वुत्तन्ति वेदितब् । इमिना पन वारेन भगवता किं कथितन्ति ? पच्चयानं निदानं कथितं । इदहि सुत्तं पच्चये निज्जटे निग्गुम्बे कत्वा कथितत्ता महानिदानन्ति वुच्चति।। ९८. इदानि तेसं तेसं पच्चयानं तथं अवितथं अनञथं पच्चयभावं दस्सेतुं जातिपच्चया जरामरणन्ति इति खो पनेतं वुत्तन्तिआदिमाह । तत्थ परियायेनाति कारणेन । सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बन्ति निपातद्वयमेतं । तस्सत्थो - “सब्बाकारेन सब्बा सब्बेन सभावेन सब्बा जाति नाम यदि न भवेय्या'ति । भवादीसुपि इमिनाव नयेन अत्थो वेदितब्बो। कस्सचीति अनियमवचनमेतं, देवादीसु यस्स कस्सचि। किम्हिचीति इदम्पि अनियमवचनमेव, कामभवादीसु नवसु भवेसु यत्थ कत्थचि। सेय्यथिदन्ति अनियमितनिक्खित्तअत्थविभजनत्थे निपातो, तस्सत्थो- “यं वुत्तं 'कस्सचि किम्हिची'ति, तस्स ते अत्थं विभजिस्सामी''ति। अथ नं विभजन्तो- “देवानं वा देवत्ताया"तिआदिमाह । तत्थ देवानं वा देवत्तायाति या अयं देवानं देवभावाय खन्धजाति, याय खन्धजातिया देवा "देवा"ति वुच्चन्ति । सचे हि जाति सब्बेन सब्बं नाभविस्साति इमिना नयेन सब्बपदेसु अत्थो वेदितब्बो। एत्थ च देवाति उपपत्तिदेवा । गन्धब्बाति मूलखन्धादीसु अधिवत्थदेवताव | यक्खाति अमनुस्सा। भूताति ये केचि निब्बत्तसत्ता । पक्खिनोति ये केचि अट्ठिपक्खा वा चम्मपक्खा वा लोमपक्खा वा । सरीसपाति ये केचि भूमियं सरन्ता गच्छन्ति । तेसं तेसन्ति तेसं तेसं देवगन्धब्बादीनं । तदत्यायाति देवगन्धब्बादिभावाय । जातिनिरोधाति जातिविगमा, जातिअभावाति अत्थो। हेतूतिआदीनि सब्बानिपि कारणवेवचनानि एव । कारणज्हि यस्मा अत्तनो फलत्थाय 78 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.९९-१०३) पटिच्चसमुप्पादवण्णना ७९ हिनोति पवत्तति, तस्मा "हेतू"ति वुच्चति । यस्मा तं फलं निदेति- "हन्द, नं गण्हथा'"ति अप्पेति विय तस्मा निदान। यस्मा फलं ततो समुदेति उप्पज्जति, तञ्च पटिच्च एति पवत्तति, तस्मा समुदयोति च पच्चयोति च वुच्चति । एस नयो सब्बत्थ । अपि च यदिदं जातीति एत्थ यदिदन्ति निपातो। तस्स सब्बपदेसु लिङ्गानुरूपतो अत्थो वेदितब्बो । इध पन- “या एसा जाती"ति अयमस्स अत्थो । जरामरणस्स हि जाति उपनिस्सयकोटिया पच्चयो होति । ९९. भवपदे - “किम्हिची"ति इमिना ओकासपरिग्गहो कतो। तत्थ हेट्ठा अवीचिपरियन्तं कत्वा उपरि परनिम्मितवसवत्तिदेवे अन्तोकरित्वा कामभवो वेदितब्बो । अयं नयो उपपत्तिभवे । इध पन कम्मभवे युज्जति । सो हि जातिया उपनिस्सयकोटियाव पच्चयो होति । उपादानपदादीसुपि- “किम्हिची"ति इमिना ओकासपरिग्गहोव कतोति वेदितब्बो। १००. उपादानपच्चया भवोति एत्थ कामुपादानं तिण्णम्पि कम्मभवानं तिण्णञ्च उपपत्तिभवानं पच्चयो, तथा सेसानिपीति उपादानपच्चया चतुवीसतिभवा वेदितब्बा । निप्परियायेनेत्थ द्वादस कम्मभवा लब्भन्ति । तेसं उपादानानि सहजातकोटियापि उपनिस्सयकोटियापि पच्चयो । १०१. रूपतहाति रूपारम्मणे तण्हा । एस नयो सद्दतण्हादीसु । सा पनेसा तण्हा उपादानस्स सहजातकोटियापि उपनिस्सयकोटियापि पच्चयो होति । १०२. एस पच्चयो तण्हाय, यदिदं वेदनाति एत्थ विपाकवेदना तण्हाय उपनिस्सयकोटिया पच्चयो होति, अञ्जा अञथापीति । १०३. एत्तावता पन भगवा वट्टमूलभूतं पुरिमतण्हं दस्सेत्वा इदानि देसनं, पिट्ठियं पहरित्वा केसेसु वा गहेत्वा विरवन्तं विरवन्तं मग्गतो ओक्कमेन्तो विय नवहि पदेहि समुदाचारतण्हं दस्सेन्तो – “इति खो पनेतं, आनन्द, वेदनं पटिच्च तण्हा"तिआदिमाह । तत्थ तण्हाति द्वे तण्हा एसनतण्हा च, एसिततण्हा च । याय तण्हाय अजपथसङ्घपथादीनि पटिपज्जित्वा भोगे एसति गवसति, अयं एसनतण्हा नाम । या तेसु एसितेसु गवेसितेसु पटिलद्धेसु तण्हा, अयं एसिततण्हा नाम । तदुभयम्पि समुदाचारतण्हाय एव अधिवचनं । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा I तस्मा दुविधापेसा वेदनं पटिच्च तण्हा नाम । परियेसना नाम रूपादिआरम्मणपरियेसना, सा हि तण्हाय सति होति । लाभोति रूपादिआरम्मणपटिलाभो, सो हि परियेसनाय सति होति । विनिच्छयो पन ञाणतण्हादिट्ठिवितक्कवसेन चतुब्बिधो । तत्थ - "सुखविनिच्छयं जञ्ञ, सुखविनिच्छ्यं ञत्वा अज्झत्तं सुखमनुयुञ्जेय्या "ति (म० नि० ३.३२३) अयं आणविनिच्छयो । “विनिच्छयोति द्वे विनिच्छया- तण्हाविनिच्छयो च दिट्ठिविनिच्छयो चा"ति (महानि० १०२ ) । एवं आगतानि अट्ठसततण्हाविचरितानि तण्हाविनिच्छयो । द्वासट्ठि दिट्टियो दिट्ठविनिच्छयो । “छन्दो खो, देवानमिन्द, वितक्कनिदानो" ति (दी० नि० २.३५८) इमस्मिं पन सुत्ते इध विनिच्छयोति वुत्तो वितक्कोयेव आगतो । लाभं लभत्वा हि इट्ठानिट्टं सुन्दरासुन्दरञ्च वितक्केनेव विनिच्छिनाति - " एत्तकं में रूपारम्मणत्थाय भविस्सति, एत्तकं सद्दादिआरम्मणत्थाय, एत्तकं मय्हं भविस्सति, एत्तकं परस्स, एत्तकं परिभुजिस्सामि, एत्तकं निदहिस्सामी 'ति । तेन वुत्तं - “लाभं पटिच्च विनिच्छयो 'ति । छन्दरागोति एवं अकुसलवितक्केन वितक्कितवत्थुस्मिं दुब्बलरागो च बलवरागो च उप्पज्जति, इदञ्हि इध तण्हा | छन्दोति दुब्बलरागस्साधिवचनं । अज्झोसानन्ति अहं ममन्ति बलवसन्निट्ठानं । परिग्गहोति तण्हादिट्ठवसेन परिग्गहणकरणं । मच्छरियन्ति परेहि साधारणभावस्स असहनता । तेनेवस्स पोराणा एवं वचनत्थं वदन्ति - " इदं अच्छरियं महमेव होतु, मा अञ्ञेसं अच्छरियं होतूति पवत्तत्ता मच्छरियन्ति वुच्चती 'ति । आरक्खोति द्वारपिदहनमञ्जूसगोपनादिवसेन सुट्टु रक्खणं । अधिकरोतीति अधिकरणं, कारणस्सेतं नामं । आरक्खाधिकरणन्ति भावनपुंसकं, आरक्खहेतूति अत्थो । दण्डादानादीसु परनिसेधनत्थं दण्डस्स आदानं दण्डादानं । एकतो धारादिनो सत्थस्स आदानं सत्थादानं । कलहोति कायकलहोपि वाचाकलहोपि । पुरिमो पुरिमो विरोधो विग्गहो । पच्छिमो पच्छिमो विवादो । तुवंतुवन्ति अगारववचनं तुवंतुवं । (२.११२ - ११२) ११२. दानि पटिलोमनयेनापि तंसमुदाचार दस्सेतुं पुन - "आरक्खाधिकरण "न्ति आरभतो देसनं निवत्तेस । तत्थ पञ्चकामगुणिकरागवसेन उप्पन्ना रूपादितण्हा । भवतण्हाति सस्सतदिट्ठिसहगतो रागो । विभवतण्हाति उच्छेददिट्टिसहगतो रागो । इमे द्वे धम्माति वट्टमूलतण्हा च समुदाचारतण्हा चाति इमे द्वे धम्मा । द्वयेनाति तण्हालक्खणवसेन एकभावं गतापि वट्टमूलसमुदाचारवसेन द्वीहि कोट्ठासेहि वेदनाय एकसमोसरणा भवन्ति, वेदनापच्चयेन एकपच्चयाति अत्थो । तिविधञ्हि समोसरणं ओसरणसमोसरणं, सहजातसमोसरणं, पच्चयसमोसरणञ्च । तत्थ 80 - Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.११३-११४) पटिच्चसमुप्पादवण्णना “अथ खो सब्बानि तानि कामसमोसरणानि भवन्ती"ति इदं ओसरणसमोसरणं नाम । “छन्दमूलका, आवुसो, एते धम्मा फस्ससमुदया वेदनासमोसरणा"ति (अ० नि० ३.८.८३) इदं सहजातसमोसरणं नाम | "द्वयेन वेदनाय एकसमोसरणा''ति इदं पन पच्चयसमोसरणन्ति वेदितब्बं । ११३. चक्खुसम्फस्सोति आदयो सब्बे विपाकफस्सायेव । तेसु ठपेत्वा चत्तारो लोकुत्तरविपाकफस्से अवसेसा द्वत्तिंस फस्सा होन्ति । यदिदं फस्सोति एत्थ पन फस्सो बहुधा वेदनाय पच्चयो होति । ११४. येहि, आनन्द, आकारेहीतिआदीसु आकारा वुच्चन्ति वेदनादीनं अञ्जमलं असदिससभावा । तेयेव साधुकं दस्सियमाना तं तं लीनमत्थं गमेन्तीति लिङ्गानि। तस्स तस्स सञ्जाननहेतुतो निमित्तानि । तथा तथा उद्दिसितब्बतो उद्देसा। तस्मा अयमेत्थ अत्थो“आनन्द, येहि आकारेहि...पे०... येहि उद्देसेहि नामकायस्स नामसमूहस्स पञत्ति होति, या एसा च वेदनाय वेदयिताकारे वेदयितलिङ्गे वेदयितनिमित्ते वेदनाति उद्देसे सति, सञ्जाय सञ्जाननाकारे सञ्जाननलिने सजानननिमित्ते साति उद्देसे सति, सङ्घारानं चेतनाकारे चेतनालिङ्गे चेतनानिमित्ते चेतनाति उद्देसे सति, विज्ञाणस्स विजाननाकारे विजाननलिङ्गे विजानननिमित्ते विज्ञाणन्ति उद्देसे सति- 'अयं नामकायोति नामकायस्स पञत्ति होति । तेसु नामकायप्पत्तिहेतूसु वेदनादीसु आकारादीसु असति अपि नु खो रूपकाये अधिवचनसम्फस्सो पञआयेथ ? य्वायं चत्तारो खन्धे वत्थु कत्वा मनोद्वारे अधिवचनसम्फस्सवेवचनो मनोसम्फस्सो उप्पज्जति, अपि नु खो सो रूपकाये पायेथ, पञ्च पसादे वत्थु कत्वा कत्वा उप्पज्जेय्या'ति । अथ आयस्मा आनन्दो अम्बरुक्खे असति जम्बुरुक्खतो अम्बपक्कस्स उप्पत्तिं विय रूपकायतो तस्स उप्पत्तिं असम्पटिच्छन्तो नो हेतं भन्तेति आह । दुतियपज्हे रुप्पनाकाररुप्पनलिङ्गप्पननिमित्तवसेन रूपन्ति उद्देसवसेन च आकारादीनं अत्थो वेदितब्बो। पटिघसम्फस्सोति सप्पटिघं रूपक्खन्धं वत्थु कत्वा उप्पज्जनकसम्फस्सो । इधापि थेरो जम्बुरुक्खे असति अम्बरुखतो जम्बुपक्कस्स उप्पत्तिं विय नामकायतो तस्स उप्पत्तिं असम्पटिच्छन्तो “नो हेतं भन्ते"ति आह । 81 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा ततियपञ्हो उभयवसेनेव वृत्तो । तत्र थेरो आकासे अम्बजम्बुपक्कानं उप्पत्तिं विय नामरूपाभावे द्विन्नम्पि फस्सानं उप्पत्तिं असम्पटिच्छन्तो “नो हेतं भन्ते 'ति आह । एवं द्विन्नं फस्सानं विसुं विसुं पच्चयं दस्सेत्वा इदानि द्विन्नपि ते अविसेसतो नामरूपपच्चयतं दस्सेतुं - "येहि आनन्द आकारेही 'ति चतुत्थं पञ्हें आरभि । यदिदं नामरूपन्ति यं इदं नामरूपं यं इदं छसुपि द्वारेसु नामरूपं, एसेव हेतु एसेव पच्चयोति अत्थो । चक्खुद्वारादीसु हि चक्खादीनि चेव रूपारम्मणादीनि च रूपं, सम्पयुत्तका खन्धा नामन्ति एवं पञ्चविधोपि सो फस्सो नामरूपपच्चयाव फस्सो । मनोद्वारेपि हृदयवत्थुञ्चेव यञ्च रूपं आरम्मणं होति इदं रूपं । सम्पयुत्तधम्मा चेव यञ्च अरूपं आरम्मणं होति, इदं अरूपं नाम । एवं मनोसम्फस्सोपि नामरूपपच्चया फस्सोति वेदितब्बो । नामरूपं पनस्स बहुधा पच्चयो होति । (२.११५-११५) ११५. न ओक्कमिस्सथाति पविसित्वा पवत्तमानं विय पटिसन्धिवसेन न वत्तिस्सथ । समुच्चिस्तथाति पटिसन्धिविञ्ञाणे असति अपि नु खो सुद्धं अवसेसं नामरूपं अन्तोमातुकुच्छिस्मिं कललादिभावेन समुच्चितं मिस्सकभूतं हुत्वा वत्तिस्तथ । ओक्कमित्वा वोक्कमिस्सथाति पटिसन्धिवसेन ओक्कमित्वा चुतिवसेन वोक्कमिस्सथ, निरुज्झिस्सथाति अत्थो । सो पनस्स निरोधो न तस्सेव चित्तस्स निरोधेन, न ततो दुतियततियानं निरोधेन होति । पटिसन्धिचित्तेन हि सद्धिं समुट्ठितानि समतिंस कम्मजरूपानि निब्बत्तन्ति । तेसु पन ठितेसुयेव सोळस भवङ्गचित्तानि उप्पज्जित्वा निरुज्झन्ति । एतस्मिं अन्तरे गहितपटिसन्धिकस्स दारकस्स वा मातुया वा पनस्स अन्तरायो नत्थि । अयहि अनोकासो नाम । सचे पन पटिसन्धिचित्तेन सद्धिं समुट्ठितरूपानि सत्तरसमस्स भवङ्गस्स पच्चयं दातुं सक्कोन्ति, पवत्ति पवत्तति, पवेणी घटियति । सचे पन न सक्कोन्ति, पवत्ति नप्पवत्तति, पवेणी न घटियति, वोक्कमति नाम होति । तं सन्धाय " ओक्कमित्वा वोक्कमिस्सथा 'ति वृत्तं । इत्थत्तायाति इत्थभावाय, एवं परिपुण्णपञ्चक्खन्धभावायाति अत्थो । दहरस्सेव सतोति मन्दस्स बालस्सेव सन्तस्स । वोच्छिज्जिस्सथाति उपच्छिज्जिस्सथ बुद्धिं विरुळ्हिं वेपुल्लन्ति विञ्ञाणे उपच्छिन्ने सुद्धं नामरूपमेव उट्ठहित्वा पठमवयवसेन वुद्धिं मज्झिमवयवसेन विरुळ्हिं, पच्छिमवयवसेन वेल्लं अपि नु खो आपज्जिस्सथाति । 82 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.११६-११६) पटिच्चसमुप्पादवण्णना दसवस्सवीसतिवस्सवस्ससतवस्ससहस्ससम्पापनेन वा अपि नु खो वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जिस्सथाति अत्थो। तस्मातिहानन्दाति यस्मा मातुकुच्छियं पटिसन्धिग्गहणेपि कुच्छिवासेपि कुच्छितो निक्खमनेपि, पवत्तियं दसवस्सादिकालेपि विज्ञाणमेवस्स पच्चयो, तस्मा एसेव हेतु एस पच्चयो नामरूपस्स, यदिदं विज्ञाणं । यथा हि राजा अत्तनो परिसं निग्गण्हन्तो एवं वदेय्य - "त्वं उपराजा, त्वं सेनापतीति केन कतो ननु मया कतो, सचे हि मयि अकरोन्ते त्वं अत्तनो धम्मताय उपराजा वा सेनापति वा भवेय्यासि, जानेय्याम वो बल"न्ति; एवमेव विज्ञाणं नामरूपस्स पच्चयो होति । अत्थतो एवं नामरूपं वदति विय "त्वं नामं, त्वं रूपं, त्वं नामरूपं नामाति केन कतं, ननु मया कतं, सचे हि मयि पुरेचारिके हुत्वा मातुकुच्छिस्मिं पटिसन्धिं अगण्हन्ते त्वं नामं वा रूपं वा नामरूपं वा भवेय्यासि, जानेय्याम वो बल"न्ति । तं पनेतं विज्ञाणं नामरूपस्स बहुधा पच्चयो होति । ११६. दुक्खसमुदयसम्भवोति दुक्खरासिसम्भवो। यदिदं नामरूपन्ति यं इदं नामरूपं, एसेव हेतु एस पच्चयो । यथा हि राजपुरिसा राजानं निग्गण्हन्तो एवं वदेय्युं - "त्वं राजाति केन कतो, ननु मया कतो, सचे हि मयि उपराजट्ठाने, मयि सेनापतिद्वाने अतिठ्ठन्ते त्वं एककोव राजा भवेय्यासि, पस्सेय्याम ते राजभाव"न्ति; एवमेव नामरूपम्पि अत्थतो एवं विज्ञाणं वदति विय “त्वं पटिसन्धिविज्ञाणन्ति केन कतं, ननु अम्हेहि कतं, सचे हि त्वं तयो खन्धे हदयवत्थुञ्च अनिस्साय पटिसन्धिविज्ञाणं नाम भवेय्यासि, पस्सेय्याम ते पटिसन्धिविज्ञाणभाव"न्ति । तञ्च पनेतं नामरूपं विज्ञाणस्स बहुधा पच्चयो होति । एत्तावता खोति विज्ञाणे नामरूपस्स पच्चये होन्ते, नामरूपे विआणस्स पच्चये होन्ते, द्वीसु अञमञपच्चयवसेन पवत्तेसु एत्तकेन जायेथ वा...पे०... उपपज्जेथ वा, जातिआदयो पायेय्युं अपरापरं वा चुतिपटिसन्धियोति । अधिवचनपथोति “सिरिवड्डको धनवड्डको"तिआदिकस्स अत्थं अदिस्वा वचनमत्तमेव अधिकिच्च पवत्तस्स वोहारस्स पथो। निरुत्तिपयोति सरतीति सतो, सम्पजानातीति सम्पजानोतिआदिकस्स कारणापदेसवसेन पवत्तस्स वोहारस्स पथो। पञत्तिपथोति 83 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (२.११७-११८) “पण्डितो ब्यत्तो मेधावी निपुणो कतपरप्पवादो"तिआदिकस्स नानप्पकारतो आपनवसेन पवत्तस्स वोहारस्स पथो। इति तीहि पदेहि अधिवचनादीनं वत्थुभूता खन्धाव कथिता । पञ्जावचरन्ति पञाय अवचरितब्बं जानितब्बं । वढें वत्ततीति संसारवटुं वत्तति । इत्थत्तन्ति इत्थंभावो, खन्धपञ्चकस्सेतं नामं। पञापनायाति नामपञत्तत्थाय । “वेदना सञ्जा''तिआदिना नामपञत्तत्थाय, खन्धपञ्चकम्पि एत्तावता पञ्जायतीति अत्थो । यदिदं नामरूपं सह विज्ञाणेनाति यं इदं नामरूपं सह विाणेन अञमञ्ञपच्चयताय पवत्तति, एत्तावताति वुत्तं होति । इदञ्हेत्थ निय्यातितवचनं । अत्तपञत्तिवण्णना ११७. इति भगवा - “गम्भीरो चायं, आनन्द, पटिच्चसमुप्पादो, गम्भीरावभासो चा''ति पदस्स अनुसन्धिं दस्सेत्वा इदानि “तन्ताकुलकजाता"ति पदस्स अनुसन्धिं दस्सेन्तो "कित्तावता चा''तिआदिकं देसनं आरभि । तत्थ रूपिं वा हि, आनन्द, परितं अत्तानन्तिआदीसु यो अवड्डितं कसिणनिमित्तं अत्ताति गण्हाति, सो रूपिं परित्तं पञपेति । यो पन नानाकसिणलाभी होति, सो तं कदाचि नीलो, कदाचि पीतकोति पञपेति । यो वदितं कसिणनिमित्तं अत्ताति गण्हाति, सो रूपिं अनन्तं पञपेति । यो वा पन अवड्डितं कसिणनिमित्तं उग्घाटेत्वा निमित्तफुट्ठोकासं वा तत्थ पवत्ते चत्तारो खन्धे वा तेसु विज्ञाणमत्तमेव वा अत्ताति गण्हाति, सो अरूपिं परित्तं पञपेति । यो वड्डितं निमित्तं उग्घाटेत्वा निमित्तफुट्ठोकासं वा तत्थ पवत्ते चत्तारो खन्धे वा तेसु विज्ञाणमत्तमेव वा अत्ताति गण्हाति, सो अरूपिं अनन्तं पञपेति । ११८. तत्रानन्दाति एत्थ तत्राति तेसु चतूसु दिद्विगतिकेसु । एतरहि वाति इदानेव, न इतो परं। उच्छेदवसेनेतं वुत्तं । तत्थभाविं वाति तत्थ वा परलोके भावि । सस्सतवसेनेतं वुत्तं । अतथं वा पन सन्तन्ति अतथसभावं समानं । तथत्तायाति तथभावाय । उपकप्पेस्सामीति सम्पादेस्सामि । इमिना विवादं दस्सेति । उच्छेदवादी हि “सस्सतवादिनो अत्तानं अतथं अनुच्छेदसभावम्पि समानं तथत्थाय उच्छेदसभावाय उपकप्पेस्सामि, सस्सतवादञ्च जानापेत्वा उच्छेदवादमेव नं गाहेस्सामी"ति चिन्तेति । सस्सतवादीपि "उच्छेदवादिनो अत्तानं अतथं असस्सतसभावम्पि समानं तथत्थाय सस्सतभावाय उपकप्पेस्सामि, उच्छेदवादञ्च जानापेत्वा सस्सतवादमेव नं गाहेस्सामी''ति चिन्तेति । 84 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.११९-१२१) नअत्तपञत्तिवण्णना ___ एवं सन्तं खोति एवं समानं रूपिं परित्तं अत्तानं पचपेन्तन्ति अत्थो । रूपिन्ति रूपकसिणलाभिं । परित्तत्तानुदिट्टि अनुसेतीति परित्तो अत्ताति अयं दिट्ठि अनुसेति, सा पन न वल्लि विय च लता विय च अनुसेति । अप्पहीनतुन अनुसेतीति वेदितब्बो। इच्चालं वचनायाति तं पुग्गलं एवरूपा दिट्ठि अनुसेतीति वत्तुं युत्तं । एस नयो सब्बत्थ । अरूपिन्ति एत्थ पन अरूपकसिणलाभिं, अरूपक्खन्धगोचरं वाति एवमत्थो दट्ठब्बो । एत्तावता लाभिनो चत्तारो, तेसं अन्तेवासिका चत्तारो, तक्किका चत्तारो, तेसं अन्तेवासिका चत्तारोति अत्ततो सोळस दिट्ठिगतिका दस्सिता होन्ति । नअत्तपञ्जत्तिवण्णना ११९. एवं ये अत्तानं पञपेन्ति, ते दस्सेत्वा इदानि ये न पञपेन्ति, ते दस्सेतुं - "कित्तावता च आनन्दा"तिआदिमाह । के पन न पञपेन्ति ? सब्बे ताव अरियपुग्गला न पञपेन्ति । ये च बहुस्सुता तिपिटकधरा द्विपिटकधरा एकपिटकधरा, अन्तमसो एकनिकायम्पि साधुकं विनिच्छिनित्वा उग्गहितधम्मकथिकोपि आरद्धविपस्सकोपि पुग्गलो, ते न पञपेन्तियेव । एतेसहि पटिभागकसिणे पटिभागकसिणमिच्चेव आणं होति । अरूपक्खन्धेसु च अरूपक्खन्धा इच्चेव । अत्तसमनुपस्सनावण्णना __१२१. एवं ये न पञपेन्ति, ते दस्सेत्वा इदानि ये ते पञपेन्ति, ते यस्मा दिट्ठिवसेन समनुपस्सित्वा पञपेन्ति, सा च नेसं समनुपस्सना वीसतिवत्थुकाय सक्कायदिट्ठिया अप्पहीनत्ता होति, तस्मा तं वीसतिवत्थुकं सक्कायदिहिँ दस्सेतुं पुन कित्तावता च आनन्दातिआदिमाह। ___ तत्थ वेदनं वा हीति इमिना वेदनाक्खन्धवत्थुका सक्कायदिट्ठि कथिता | अप्पटिसंवेदनो मे अत्ताति इमिना रूपक्खन्धवत्थुका । अत्ता मे वेदियति, वेदनाधम्मो हि मे अत्ताति इमिना सञ्जासङ्खारविज्ञाणक्खन्धवत्थुका । इदहि खन्धत्तयं वेदनासम्पयुत्तत्ता वेदियति । एतस्स च वेदनाधम्मो अविप्पयुत्तसभावो । 85 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (२.१२२ - १२४) १२२. इदानि तत्थ दोसं दस्सेन्तो- “ तत्रानन्दा तिआदिमाह । तत्थ तत्राति तेसु तीसु दिट्टिगतिकेसु । यस्मिं, आनन्द, समयेतिआदि यो यो यं यं वेदनं अत्ताति समनुपस्सति, तस्स तस्स अत्तनो कदाचि भावं, कदाचि अभावन्ति एवमादिदोसदस्सनत्थं वृत्तं । ८६ १२३. अनिच्चादीसु हुत्वा अभावतो अनिच्चा । तेहि तेहि कारणेहि सङ्गम्म समागम्म कताति सङ्घता । तं तं पच्चयं पटिच्च सम्मा कारणेनेव उप्पन्नाति पटिच्चसमुप्पन्ना । खयोतिआदि सब्बं भङ्गस्स वेवचनं । यहि भिज्जति, तं खियतिपि वयतिपि विरज्झतिपि निरुज्झतिपि, तस्मा खयधम्माति आदि वृत्तं । ब्यगा मेति विअगाति ब्यगा, विगतो निरुद्धो मे अत्ताति अत्थो । किं पन एकस्सेव तीसुपि कालेसु - " एसो मे अत्ता" ति होतीति किं पन न भविस्सति ? दिट्टिगतिकस्स हि थुसरासिम्हि निक्खित्तखाणुकस्सेव निच्चलता नाम नत्थि, वनमक्कटो विय अञ्ञ्जं गण्हाति, अञ्ञ मुञ्चति । अनिच्चसुखदुक्खवोकिण्णन्ति विसेसेन तं तं वेदनं अत्ताति समनुपस्सन्तो अनिच्चञ्चेव सुखञ्च दुक्खञ्च अत्तानं समनुपस्सति अविसेसेन वेदनं अत्ताति समनुपस्सन्तो वोकिण्णं उप्पादवयधम्मं अत्तानं समनुपस्सति । वेदना हि तिविधा चेव उप्पादवयधम्मा च तञ्चेस अत्ताति समनुपस्सति । इच्चस्स अनिच्चो चेव अत्ता आपज्जति, एकक्खणे च बहूनं वेदनानं उप्पादो । तं खो पनेस अनिच्चं अत्तानं अनुजानाति, न एकक्खणे बहूनं वेदनानं उप्पत्ति अत्थि । इममत्थं सन्धाय - “तस्मातिहानन्द, एतेनपेतं नक्खमति 'वेदना मे अत्ता'ति समनुपस्सितु न्ति वृत्तं । , १२४. यत्थ पनावुसोति यत्थ सुद्धरूपक्खन्धे सब्बसो वेदयितं नत्थि । अपि नु खो तत्थाति अपि नु खो तस्मिं वेदनाविरहिते तालवण्टे वा वातपाने वा अस्मीति एवं अहंकारो उप्पज्जेय्याति अत्थो । तस्मातिहानन्दाति यस्मा सुद्धरूपक्खन्धो उट्ठाय अहमस्मीति न वदति, तस्मा एतेनपि एतं नक्खमतीति अत्थो । अपि नु खो तत्थ अयमहमस्मीति सियाति अपि नु खो तेसु वेदनाधम्मेसु तीसु खन्धेसु एकधम्मोपि अयं नाम अहमस्मीति एवं वत्तब्बो सिया । अथ वा वेदनानिरोधा सहेव वेदनाय निरुद्धेसु तेसु तीसु खन्धेसु अपि तु खो अयमहमस्मीति वा अहमस्मीति वा उप्पज्जेय्याति अत्थो । अथ आनन्दो ससविसाणस्स तिखिणभावं विय तं असम्पटिच्छन्तो नो हेतं भन्तेति आह । 86 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१२६-१२६) अत्तसमनुपस्सनावण्णना ८७ एत्तावता किं कथितं होति ? वट्टकथा कथिता होति । भगवा हि वट्टकथं कथेन्तो कत्थचि अविज्जासीसेन कथेसि, कत्थचि तण्हासीसेन, कत्थचि दिट्ठिसीसेन । तत्थ “पुरिमा, भिक्खवे, कोटि नप्पञ्जायति अविज्जाय, 'इतो पुब्बे अविज्जा नाहोसि, अथ पच्छा समभवी'ति । एवञ्चिदं, भिक्खवे, वुच्चति । अथ च पन पञ्जायति इदप्पच्चया अविज्जा"ति (अ० नि० ३.१०.६१) एवं अविज्जासीसेन कथिता । “पुरिमा, भिक्खवे, कोटि नप्पायति भवतण्हाय, 'इतो पुब्बे भवतण्हा नाहोसि, अथ पच्छा समभवी'ति । एवञ्चिदं, भिक्खवे, वुच्चति । अथ च पन पञायति इदप्पच्चया भवतण्हा'"ति (अ० नि० ३.१०.६२) एवं तण्हासीसेन कथिता | "पुरिमा, भिक्खवे, कोटि नप्पायति भवदिट्ठिया, 'इतो पुब्बे भवदिट्ठि नाहोसि, अथ पच्छा समभवी'ति, एवञ्चिदं, भिक्खवे, वुच्चति । अथ च पन पायति इदप्पच्चया भवदिट्ठी''ति एवं दिट्ठिसीसेन कथिता | इधापि दिट्ठिसीसेनेव कथिता। दिट्ठिगतिको हि सुखादिवेदनं अत्ताति गहेत्वा अहङ्कारममङ्कारपरामासवसेन सब्बभवयोनिगति- विज्ञाणट्ठितिसत्तावासेसु ततो ततो चवित्वा तत्थ तत्थ उपपज्जन्तो महासमुद्दे वातुक्खित्तनावा विय सततं समितं परिब्भमति, वट्टतो सीसं उक्खिपितुंयेव न सक्कोति। १२६. इति भगवा पच्चयाकारमूळ्हस्स दिट्ठिगतिकस्स एत्तकेन कथामग्गेन वर्ल्ड कथेत्वा इदानि विवढें कथेन्तो यतो खो पन, आनन्द, भिक्खूतिआदिमाह । तञ्च पन विवट्टकथं भगवा देसनासु कुसलत्ता विस्सट्टकम्मट्ठानं नवकम्मादिवसेन विक्खित्तपुग्गलं अनामसित्वा कारकस्स सतिपट्टानविहारिनो पुग्गलस्स वसेन आरभन्तो नेव वेदनं अत्तानं समनुपस्सतीतिआदिमाह । एवरूपो हि भिक्खु- “यं किञ्चि रूपं अतीतानागतपच्चुप्पन्नं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा ओळारिकं वा सुखुमं वा हीनं वा पणीतं वा यं दूरे वा सन्तिके वा, सब्बं रूपं अनिच्चतो ववत्थपेति, एकं सम्मसनं । दुक्खतो ववत्थति, एकं सम्मसनं । अनत्ततो ववत्थपेति, एकं सम्मसन"न्तिआदिना नयेन वुत्तस्स सम्मसनञाणस्स वसेन सब्बधम्मेसु पवत्तत्ता नेव वेदनं अत्ताति समनुपस्सति, न अलं, सो एवं असमनुपस्सन्तो न किञ्चि लोके उपादियतीति खन्धलोकादिभेदे लोके रूपादीसु धम्मेसु किञ्चि एकधम्मम्पि अत्ताति वा अत्तनियन्ति वा न उपादियति । 87 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (२.१२७–१२७) ___ अनुपादियं न परितस्सतीति अनुपादियन्तो तण्हादिट्ठिमानपरितस्सनायापि न परितस्सति। अपरितस्सन्ति अपरितस्समानो। पच्चत्तंयेव परिनिब्बायतीति अत्तनाव किलेसपरिनिब्बानेन परिनिब्बायति । एवं परिनिब्बुतस्स पनस्स पच्चवेक्खणापवत्तिदस्सनत्थं खीणा जातीतिआदि वुत्तं । __इति सा दिट्ठीति या तथाविमुत्तस्स अरहतो दिवि, सा एवं दिट्ठि। “इतिस्स दिट्ठी"तिपि पाठो । यो तथाविमुत्तो अरहा, एवमस्स दिट्ठीति अत्थो। तदकल्लन्ति तं न युत्तं । कस्मा ? एवम्हि सति- “अरहा न किञ्चि जानाती"ति वुत्तं भवेय्य, एवं ञत्वा विमुत्तञ्च अरहन्तं "न किञ्चि जानाती"ति वत्तुं न युत्तं । तेनेव चतुन्नम्पि नयानं अवसाने - "तं किस्स हेतू"तिआदिमाह । तत्थ यावता आनन्द अधिवचनन्ति यत्तको अधिवचनसातो वोहारो अस्थि । यावता अधिवचनपथोति यत्तको अधिवचनस्स पथो, खन्धा आयतनानि धातुयो वा अस्थि । एस नयो सब्बत्थ । पञआवचरन्ति पञाय अवचरितब्बं खन्धपञ्चकं । तदभिञाति तं अभिजानित्वा । एत्तकेन भगवता किं दस्सितं ? तन्ताकुलपदस्सेव अनुसन्धि दस्सितो। सत्तविआणहितिवण्णना १२७. इदानि यो- “न पञपेती"ति वुत्तो, सो यस्मा गच्छन्तो गच्छन्तो उभतोभागविमुत्तो नाम होति । यो च- "न समनुपस्सती"ति वुत्तो, सो यस्मा गच्छन्तो गच्छन्तो पाविमुत्तो नाम होति । तस्मा तेसं हेट्ठा वुत्तानं द्विनं भिक्खूनं निगमनञ्च नामञ्च दस्सेतुं सत्त खो इमानन्द विज्ञाणद्वितियोतिआदिमाह । तत्थ सत्ताति पटिसन्धिवसेन वुत्ता, आरम्मणवसेन सङ्गीतिसुत्ते (दी० नि० ३.३११) वुत्ता चतस्सो आगमिस्सन्ति । विज्ञाणं तिट्ठति एत्थाति विज्ञाणद्विति, विज्ञाणपतिट्ठानस्सेतं अधिवचनं । द्वे च आयतनानीति द्वे निवासद्वानानि । निवासट्टानहि इधायतनन्ति अधिप्पेतं । तेनेव वक्खति - “असञसत्तायतनं नेवसञ्जानासचायतनमेव दुतिय"न्ति । कस्मा पनेतं सब् गहितन्ति ? वट्टपरियादानत्थं । वट्टहि न सुद्धविज्ञाणट्ठितिवसेन सुद्धायतनवसेन वा परियादानं गच्छति, भवयोनिगतिसत्तावासवसेन पन गच्छति, तस्मा सब्बमेतं गहितं । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१२७-१२७) सत्तविणट्ठितिवण्णना इदानि अनुक्कमेन तमत्थं विभजन्तो कतमा सत्तातिआदिमाह । तत्थ सेय्यथापीति निदस्सनत्थे निपातो, यथा मनुस्साति अत्थो । अपरिमाणेसु हि चक्कवाळेसु अपरिमाणानं मनुस्सानं वण्णसण्ठानादिवसेन द्वेपि एकसदिसा नत्थि। येपि हि कत्थचि यमकभातरो वण्णेन वा सण्ठानेन वा एकसदिसा होन्ति, तेसम्पि आलोकितविलोकितकथितहसितगमनठानादीहि विसेसो होतियेव । तस्मा नानत्तकायाति वुत्ता। पटिसन्धिसञा पन नेसं तिहेतुकापि द्विहेतुकापि अहेतुकापि होन्ति, तस्मा नानत्तसञिनोति वुत्ता। एकच्चे च देवाति छ कामावचरदेवा। तेसु हि केसञ्चि कायो नीलो होति, केसञ्चि पीतकादिवण्णो । सञा पन नेसं द्विहेतुकापि तिहेतुकापि होन्ति, अहेतुका नत्थि । एकच्चे च विनिपातिकाति चतुअपायविनिमुत्ता उत्तरमाता यक्खिनी, पियङ्करमाता, फुस्समित्ता, धम्मगुत्ताति एवमादिका अछे च वेमानिका पेता। एतेसहि पीतओदातकाळमङ्गुरच्छविसामवण्णादिवसेन चेव किसथूलरस्सदीघवसेन च कायो नाना होति, मनुस्सानं विय द्विहेतुकतिहेतुकअहेतुकवसेन सापि । ते पन देवा विय न महेसक्खा, कपणमनुस्सा विय अप्पेसक्खा, दुल्लभघासच्छादना दुक्खपीळिता विहरन्ति । एकच्चे काळपक्खे दुक्खिता जुण्हपक्खे सुखिता होन्ति, तस्मा सुखसमुस्सयतो विनिपतितत्ता विनिपातिकाति वुत्ता। ये पनेत्थ तिहेतुका तेसं धम्माभिसमयोपि होति, पियङ्करमाता हि यक्खिनी पच्चूससमये अनुरुद्धत्थेरस्स धम्मं सज्झायतो सुत्वा "मा सहमकरि पियङ्कर, भिक्ख धम्मपदानि भासति । अपि धम्मपदं विजानिय, पटिपज्जेम हिताय नो सिया । पाणेसु च संयमामसे, सम्पजानमुसा न भणामसे । सिक्खेम सुसील्यमत्तनो, अपि मुच्चेम पिसाचयोनिया''ति ।। (सं० नि० १.२.४०) एवं पुत्तकं सज्ञापेत्वा तं दिवसं सोतापत्तिफलं पत्ता । उत्तरमाता पन भगवतो धम्म सुत्वाव सोतापन्ना जाता। ब्रह्मकायिकाति ब्रह्मपारिसज्जब्रह्मपुरोहितमहाब्रह्मानो। पठमाभिनिब्बत्ताति ते सब्बेपि पठमेन झानेन अभिनिब्बत्ता । तेसु ब्रह्मपारिसज्जा पन परित्तेन अभिनिब्बत्ता, तेसं कप्पस्स ततियो भागो आयुप्पमाणं । ब्रह्मपुरोहिता मज्झिमेन, तेसं उपड्डकप्पो आयुप्पमाणं, 89 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (२.१२७-१२७) कायो च तेसं विप्फारिकतरो होति । महाब्रह्मानो पणीतेन, तेसं कप्पो आयुप्पमाणं, कायो पन तेसं अतिविप्फारिको होति । इति ते कायस्स नानत्ता, पठमज्झानवसेन सञ्जाय एकत्ता नानत्तकाया एकत्तसचिनोति वेदितब्बा । यथा च ते, एवं चतूसु अपायेसु सत्ता । निरयेसु हि केसञ्चि गावुतं, केसञ्चि अड्ढयोजनं, केसञ्चि योजनं अत्तभावो होति, देवदत्तस्स पन योजनसतिको जातो । तिरच्छानेसुपि केचि खुद्दका, केचि महन्ता । पेत्तिविसयेपि केचि सट्ठिहत्था, केचि सत्ततिहत्था, केचि असीतिहत्था होन्ति, केचि सुवण्णा, केचि दुब्बण्णा होन्ति । तथा कालकञ्जिका असुरा । अपि चेत्थ दीघपिट्ठिकपेता नाम सट्ठियोजनिकापि होन्ति । सञ्जा पन सब्बेसम्पि अकुसलविपाकअहेतुकाव होन्ति। इति आपायिकापि नानत्तकाया एकत्तसञिनोत्वेव सङ्ख्यं गच्छन्ति । आभस्सराति दण्डउक्काय अच्चि विय एतेसं सरीरतो आभा छिज्जित्वा छिज्जित्वा पतन्ती विय सरति विस्सरतीति आभस्सरा । तेसु पञ्चकनयेन दुतियततियज्झानद्वयं परित्तं भावेत्वा उपपन्ना परित्ताभा नाम होन्ति, तेसं द्वे कप्पा आयुप्पमाणं । मज्झिमं भावेत्वा उपपन्ना अप्पमाणाभा नाम होन्ति, तेसं चत्तारो कप्पा आयुप्पमाणं । पणीतं भावेत्वा उपपन्ना आभस्सरा नाम होन्ति, तेसं अट्ठ कप्पा आयुप्पमाणं। इध पन उक्कठ्ठपरिच्छेदवसेन सब्बेपि ते गहिता। सब्बेसहि तेसं कायो एकविप्फारोव होति, सञा पन अवितक्कविचारमत्ता वा अवितक्कअविचारा वाति नाना । सुभकिण्हाति सुभेन ओकिण्णा विकिण्णा, सुभेन सरीरप्पभावण्णेन एकग्घनाति अत्थो । एतेसहि आभस्सरानं विय न छिज्जित्वा छिज्जित्वा पभा गच्छति । पञ्चकनये पन परित्तमज्झिमपणीतस्स चतुत्थज्झानस्स वसेन सोळसद्वत्तिंसचतुसट्ठिकप्पायुका परित्तसुभअप्पमाणसुभसुभकिण्हा नाम हुत्वा निब्बत्तन्ति । इति सब्बेपि ते एकत्तकाया चेव चतुत्थज्झानसजाय एकत्तसञिनो चाति वेदितब्बा। वेहप्फलापि चतुत्थविज्ञाणट्ठितिमेव भजन्ति । असञसत्ता विज्ञाणाभावा एत्थ सङ्गहं न गच्छन्ति, सत्तावासेसु गच्छन्ति । सुद्धावासा विवट्टपक्खे ठिता न सब्बकालिका, कप्पसतसहस्सम्पि असङ्ख्येय्यम्पि बुद्धसुजे लोके नुप्पज्जन्ति । सोळसकप्पसहस्सब्भन्तरे बुद्धेसु उप्पन्नेसुयेव उप्पज्जन्ति, धम्मचक्कप्पवत्तस्स भगवतो खन्धवारट्टानसदिसा होन्ति । तस्मा नेव विज्ञाणहितिं न 90 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१२८-१२८) सत्तविज्ञआणद्वितिवण्णना सत्तावासं भजन्ति । महासीवत्थेरो पन - "न खो पन सो सारिपुत्त सत्तावासो सुलभरूपो यो मया अनिवुत्थपुब्बो इमिना दीघेन अद्भुना अञत्र सुद्धावासेहि देवेही''ति (म० नि० १.१६०) इमिना सुत्तेन सुद्धावासापि चतुत्थविज्ञाणट्ठितिं चतुत्थसत्तावासंयेव भजन्तीति वदति, तं. अप्पटिबाहियत्ता सुत्तस्स अनुज्ञातं । सब्बसो रूपसज्ञानन्तिआदीनं अत्थो विसुद्धिमग्गे वुत्तो। नेवसञ्जानासज्ञायतनं पन यथेव सञ्जाय, एवं विज्ञाणस्सपि सुखुमत्ता नेव विज्ञाणं नाविज्ञाणं। तस्मा विज्ञाणहितीसु अवत्वा आयतनेसु वुत्तं । १२८. तत्राति तासु विज्ञाणहितीसु। तञ्च पजानातीति तञ्च विज्ञाणहितिं पजानाति । तस्सा च समुदयन्ति “अविज्जासमुदया रूपसमुदयो"तिआदिना (पटि० म० १.४९) नयेन तस्सा समुदयञ्च पजानाति । तस्सा च अत्थङ्गमन्ति- "अविज्जानिरोधा रूपनिरोधो"तिआदिना नयेन तस्सा अत्थङ्गमञ्च पजानाति । अस्सादन्ति यं रूपं पटिच्च...पे०... यं विज्ञाणं पटिच्च उप्पज्जति सुखं सोमनस्सं, अयं विज्ञाणस्स अस्सादोति, एवं तस्सा अस्सादञ्च पजानाति । आदीनवन्ति यं रूपं...पे०... यं विज्ञाणं अनिच्चं दुक्खं विपरिणामधम्मं, अयं विज्ञाणस्स आदीनवोति, एवं तस्सा आदीनवञ्च पजानाति । निस्सरणन्ति यो रूपस्मि...पे०... यो विज्ञाणे छन्दरागविनयो, छन्दरागप्पहानं, इदं विज्ञाणस्स निस्सरणन्ति (सं० नि० २.२.२६) एवं तस्सा निस्सरणञ्च पजानाति । कल्लं नु तेनाति युत्तं नु तेन भिक्खुना तं विआणट्ठितिं तण्हामानदिट्टीनं वसेन अहन्ति वा ममन्ति वा अभिनन्दितुन्ति । एतेनुपायेन सब्बत्थ वेदितब्बो । यत्थ पन रूपं नत्थि, तत्थ चतुन्नं खन्धानं वसेन, यत्थ विज्ञाणं नत्थि, तत्थ एकस्स खन्धस्स वसेन समुदयो योजेतब्बो। आहारसमुदया आहारनिरोधाति इदञ्चेत्थ पदं योजेतब्बं । यतो खो, आनन्द, भिक्खूति यदा खो आनन्द, भिक्खु । अनुपादा विमुत्तोति चतूहि उपादानेहि अग्गहेत्वा विमुत्तो। पाविमुत्तोति पाय विमुत्तो। अट्ठ विमोक्खे असच्छिकत्वा पञ्जाबलेनेव नामकायस्स च रूपकायस्स च अप्पवत्तिं कत्वा विमुत्तोति अत्थो । सो सुक्खविपस्सको च पठमज्झानादीसु अञ्जतरस्मिं ठत्वा अरहत्तं पत्तो चाति पञ्चविधो । वुत्तम्पि चेतं- “कतमो च पुग्गलो पञ्जाविमुत्तो ? इधेकच्चो पुग्गलो न हेव खो अट्ठ विमोक्खे कायेन फुसित्वा विहरति, पञाय चस्स दिस्वा आसवा परिक्खीणा होन्ति, अयं वुच्चति पुग्गलो पञाविमुत्तो" (पु० प० १५) ति । 91 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (२.१२९-१२९) अट्ठविमोक्खवण्णना १२९. एवं एकस्स भिक्खुनो निगमनञ्च नामञ्च दस्सेत्वा इतरस्स दस्सेतुं अट्ठ खो इमेतिआदिमाह । तत्थ विमोक्खोति केनटेन विमोक्खो ? अधिमुच्चनढेन । को पनायं अधिमुच्चनट्ठो नाम ? पच्चनीकधम्मेहि च सुट्ट मुच्चनट्ठो, आरम्मणे च अभिरतिवसेन सुटु मुच्चनट्ठो, पितुअङ्के विस्सट्ठङ्गपच्चङ्गस्स दारकस्स सयनं विय अनिग्गहितभावेन निरासङ्कताय आरम्मणे पवत्तीति वुत्तं होति । अयं पनत्थो पच्छिमे विमोक्खे नत्थि, पुरिमेसु सब्बेसु अत्थि। __ रूपी रूपानि पस्सतीति एत्थ अज्झत्तं केसादीसु नीलकसिणादीसु नीलकसिणादिवसेन उप्पादितं रूपज्झानं रूपं, तदस्सत्थीति रूपी। बहिद्धा रूपानि पस्सतीति बहिद्धापि नीलकसिणादीनि रूपानि झानचक्खुना पस्सति । इमिना अज्झत्तबहिद्धावत्थुकेसु कसिणेसु उप्पादितज्झानस्स पुग्गलस्स चत्तारि रूपावचरज्झानानि दस्सितानि । अज्झत्तं अरूपसञ्जीति अज्झत्तं न रूपसञी, अत्तनो केसादीसु अनुप्पादितरूपावचरज्झानोति अत्थो । इमिना बहिद्धा परिकम्मं कत्वा बहिद्धाव उप्पादितज्झानस्स पुग्गलस्स रूपावचरज्झानानि दस्सितानि । सुभन्त्वेव अधिमुत्तो होतीति इमिना सुविसुद्धेसु नीलादीसु वण्णकसिणेसु झानानि दस्सितानि । तत्थ किञ्चापि अन्तोअप्पनायं सुभन्ति आभोगो नत्थि, यो पन विसुद्धं सुभं कसिणमारम्मणं करित्वा विहरति, सो यस्मा सुभन्ति अधिमुत्तो होतीति वत्तब्बतं आपज्जति, तस्मा एवं देसना कता। पटिसम्भिदामग्गे पन - "कथं सुभन्त्वेव अधिमुत्तो होतीति विमोक्खो? इध भिक्खु मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति...पे०... मेत्ताय भावितत्ता सत्ता अप्पटिकूला होन्ति। करुणा, मुदिता, उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति...पे०... उपेक्खाय भावितत्ता सत्ता अप्पटिकूला होन्ति । एवं सुभं त्वेव अधिमुत्तो होतीति विमोक्खो''ति (पटि० म० १.२१२) वुत्तं । सब्बसो रूपसज्ञानन्तिआदीसु यं वत्तब्बं, तं सबं विसुद्धिमग्गे वुत्तमेव । अयं अट्ठमो विमोक्खोति अयं चतुन्नं खन्धानं सब्बसो विसुद्धत्ता विमुत्तत्ता अट्ठमो उत्तमो विमोक्खो नाम। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१३०-१३०) अट्ठविमोक्खवण्णना ९३ १३०. अनुलोमन्ति आदितो पट्ठाय याव परियोसाना। पटिलोमन्ति परियोसानतो पट्ठाय याव आदितो। अनुलोमपटिलोमन्ति इदं अतिपगुणत्ता समापत्तीनं अट्ठत्वाव इतो चितो च सञ्चरणवसेन वुत्तं । यत्थिच्छकन्ति ओकासपरिदीपनं, यत्थ यत्थ ओकासे इच्छति । यदिच्छकन्ति समापत्तिदीपनं, यं यं समापत्तिं इच्छति । यावतिच्छकन्ति अद्धानपरिच्छेददीपनं, यावतकं अद्धानं इच्छति । समापज्जतीति तं तं समापत्तिं पविसति । बुट्ठातीति ततो उट्ठाय तिठ्ठति । ___ उभतोभागविमुत्तोति द्वीहि भागेहि विमुत्तो, अरूपसमापत्तिया रूपकायतो विमुत्तो, मग्गेन नामकायतो विमुत्तोति । वुत्तम्पि चेतं “अच्ची यथा वातवेगेन खित्ता, (उपसिवाति भगवा) अत्थं पलेति न उपेति सङ्ख । एवं मुनी नामकाया विमुत्तो, अत्थं पलेति न उपेति सङ्ख'न्ति ।। (सु० नि० १०८०) सो पनेस उभतोभागविमुत्तो आकासानञ्चायतनादीसु अञतरतो उट्ठाय अरहत्तं पत्तो च अनागामी हुत्वा निरोधा उट्ठाय अरहत्तं पत्तो चाति पञ्चविधो । केचि पन - “यस्मा रूपावचरचतुत्थज्झानम्पि दुवङ्गिकं उपेक्खासहगतं, अरूपावचरज्झानम्पि तादिसमेव । तस्मा रूपावचरचतुत्थज्झानतो उट्ठाय अरहत्तं पत्तोपि उभतोभागविमुत्तो''ति । अयं पन उभतोभागविमुत्तपञ्हो हेट्ठा लोहपासादे समुट्ठहित्वा तिपिटकचूळसुमनत्थेरस्स वण्णनं निस्साय चिरेन विनिच्छयं पत्तो। गिरिविहारे किर थेरस्स अन्तेवासिको एकस्स पिण्डपातिकस्स मुखतो तं पऽहं सुत्वा आह - “आवुसो, हेट्ठालोहपासादे अम्हाकं आचरियस्स धम्मं वण्णयतो न केनचि सुतपुब्ब''न्ति । किं पन, भन्ते, थेरो अवचाति ? रूपावचरचतुत्थज्झानं किञ्चापि दुवङ्गिकं उपेक्खासहगतं किलेसे विक्खम्भेति, किलेसानं पन आसन्नपक्खे विरूहनट्ठाने समुदाचरति । इमे हि किलेसा नाम पञ्चवोकारभवे नीलादीसु अञ्जतरं आरम्मणं उपनिस्साय समुदाचरन्ति, रूपावचरज्झानञ्च तं आरम्मणं न समतिक्कमति । तस्मा सब्बसो रूपं निवत्तेत्वा अरूपज्झानवसेन किलेसे विक्खम्भेत्वा अरहत्तं पत्तोव उभतोभागविमुत्तोति, इदं आवुसो थेरो अवच । इदञ्च एन वत्वा इदं सुत्तं आहरि - “कतमो च पुग्गलो उभतोभागविमुत्तो। इधेकच्चो पुग्गलो Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (२.१३०-१३०) अट्ठविमोक्खे कायेन फुसित्वा विहरति, पञाय चस्स दिस्वा आसवा परिक्खीणा होन्ति, अयं वुच्चति पुग्गलो उभतोभागविमुत्तो''ति (पु० प० २४) । इमाय च आनन्द उभतोभागविमुत्तियाति आनन्द इतो उभतोभागविमुत्तितो। सेसं सब्बत्थ उत्तानमेवाति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं महानिदानसुत्तवण्णना निद्विता। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. महापरिनिब्बानसुत्तवण्णना १३१. एवं मे सुतन्ति महापरिनिब्बानसुत्तं । तत्रायमनुपुब्बपदवण्णना- गिज्झकूटेति गिज्झा तस्स कूटेसु वसिंसु, गिज्झसदिसं वा तस्स कूटं अत्थीति गिज्झकूटो, तस्मिं गिज्झकूटे। अभियातुकामोति अभिभवनत्थाय यातुकामो। वज्जीति वज्जिराजानो । एवंमहिद्धिकेति एवं महतिया राजिद्धिया समन्नागते, एतेन नेसं समग्गभावं कथेसि । एवंमहानुभावेति एवं महन्तेन आनुभावेन समन्नागते, एतेन नेसं हत्थिसिप्पादीसु कतसिक्खतं कथेसि, यं सन्धाय वुत्तं- “सिक्खिता वतिमे लिच्छविकुमारका, सुसिक्खिता वतिमे लिच्छविकुमारका, यत्र हि नाम सुखुमेन ताळच्छिग्गलेन असनं अतिपातयिस्सन्ति पोङ्खानुपोy अविराधित"न्ति (सं० नि० ३.५.१११५)। उच्छेच्छामीति उच्छिन्दिस्सामि । विनासेस्सामीति नासेस्सामि, अदस्सनं पापेस्सामि । अनयव्यसनन्ति एत्थ न अयोति अनयो, अवड्डिया एतं नामं। हितञ्च सुखञ्च वियस्सति विक्खिपतीति ब्यसनं, आतिपारिजुञादीनं एतं नामं । आपादेस्सामीति पापयिस्सामि।। इति किर सो ठाननिसज्जादीसु इमं युद्धकथमेव कथेति, गमनसज्जा होथाति एवं बलकायं आणापेति । कस्मा ? गङ्गायं किर एकं पट्टनगामं निस्साय अड्ढयोजनं अजातसत्तुनो आणा, अड्ढयोजनं लिच्छवीनं । एत्थ पन आणापवत्तिट्टानं होतीति अत्थो । तत्रापि च पब्बतपादतो महग्घभण्डं ओतरति । तं सुत्वा - "अज्ज यामि, स्वे यामी"ति अजातसत्तुनो संविदहन्तस्सेव लिच्छविराजानो समग्गा सम्मोदमाना पुरेतरं गन्त्वा सब्बं गण्हन्ति । अजातसत्तु पच्छा आगन्त्वा तं पवत्तिं ञत्वा कुज्झित्वा गच्छति । ते पुनसंवच्छरेपि तथेव करोन्ति । अथ सो बलवाघातजातो तदा एवमकासि । ततो चिन्तेसि- “गणेन सद्धिं युद्धं नाम भारियं, एकोपि मोघप्पहारो नाम नत्थि, एकेन खो पन पण्डितेन सद्धिं मन्तेत्वा करोन्तो निप्पराधो होति, पण्डितो च सत्थारा 95 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१३४-१३४) सदिसो नत्थि, सत्था च अविदूरे धुरविहारे वसति, हन्दाहं पेसेत्वा पुच्छामि । सचे मे गतेन कोचि अत्थो भविस्सति, सत्था तुण्ही भविस्सति, अनत्थे पन सति किं रो तत्थ गमनेनाति वक्खती"ति । सो वस्सकारब्राह्मणं पेसेसि । ब्राह्मणो गन्त्वा भगवतो एतमत्थं आरोचेसि । तेन वुत्तं - “अथ खो राजा...पे०... आपादेस्सामी''ति । राजअपरिहानियधम्मवण्णना १३४. भगवन्तं बीजयमानोति थेरो वत्तसीसे ठत्वा भगवन्तं बीजति, भगवतो पन सीतं वा उण्हं वा नत्थि । भगवा ब्राह्मणस्स वचनं सुत्वा तेन सद्धिं अमन्तेत्वा थेरेन सद्धिं मन्तेतुकामो किन्ति ते, आनन्द, सुतन्तिआदिमाह । अभिण्हं सन्निपाताति दिवसस्स तिक्खत्तुं सन्निपतन्तापि अन्तरन्तरा सन्निपतन्तापि अभिण्हं सन्निपाताव । सन्निपातबहुलाति हिय्योपि सन्निपतिम्हा, पुरिमदिवसम्पि सन्निपतिम्हा, पुन अज्ज किमत्थं सन्निपतिता होमाति वोसानं अनापज्जन्ता सन्निपातबहुला नाम होन्ति । यावकीवञ्चाति यत्तकं कालं । वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानीति- अभिण्हं असन्निपतन्ता हि दिसाविदिसासु आगतं सासनं न सुणन्ति, ततो- “असुकगामसीमा वा निगमसीमा वा आकुला, असुकट्ठाने चोरा वा परियुट्ठिता"ति न जानन्ति, चोरापि “पमत्ता राजानो''ति अत्वा गामनिगमादीनि पहरन्ता जनपदं नासेन्ति । एवं राजूनं परिहानि होति । अभिण्हं सन्निपतन्ता पन तं तं पवत्तिं सुणन्ति, ततो बलं पेसेत्वा अमित्तमद्दनं करोन्ति, चोरापि- “अप्पमत्ता राजानो, न सक्का अम्हेहि वग्गबन्धेहि विचरितु"न्ति भिज्जित्वा पलायन्ति । एवं राजूनं वुद्धि होति । तेन वुत्तं - "वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकवा नो परिहानी''ति । तत्थ पाटिकङ्घाति इच्छितब्बा, अवस्सं भविस्सतीति एवं दट्ठब्बाति अत्थो । समग्गातिआदीसु सन्निपातभेरिया निग्गताय - "अज्ज मे किच्चं अत्थि, मङ्गलं अत्थी'"ति विक्खेपं करोन्ता न समग्गा सन्निपतन्ति नाम । भेरिसदं पन सुत्वाव भुञ्जन्तापि अलङ्करियमानापि वत्थानि निवासेन्तापि अड्डभुत्ता वा अड्डालङ्कता वा वत्थं निवासयमाना वा सन्निपतन्ता समग्गा सन्निपतन्ति नाम । सन्निपतिता पन चिन्तेत्वा मन्तेत्वा कत्तब्बं कत्वा एकतोव अवुट्टहन्ता न समग्गा वुट्टहन्ति नाम । एवं बुट्टितेसु हि ये पठमं गच्छन्ति, तेसं एवं होति- “अम्हेहि बाहिरकथाव सुता, इदानि विनिच्छयकथा भविस्सती''ति । एकतो वुट्टहन्ता पन समग्गा वुट्टहन्ति नाम । अपिच - "असुकट्ठानेसु 96 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१३४-१३४) राजअपरिहानियधम्मवण्णना ९७ गामसीमा वा निगमसीमा वा आकुला, चोरा परियुट्ठिता"ति सुत्वा- “को गन्त्वा इमं अमित्तमद्दनं करिस्सती"ति वुत्ते - "अहं पठमं, अहं पठमन्ति वत्वा गच्छन्तापि समग्गा वुट्टहन्ति नाम । एकस्स पन कम्मन्ते ओसीदमाने सेसा राजानो पुत्तभातरो पेसेत्वा तस्स कम्मन्तं उपत्थम्भयमानापि, आगन्तुकराजानं - "असुकस्स गेहं गच्छतु, असुकस्स गेहं गच्छतू''ति अवत्वा सब्बे एकतो सङ्गण्हन्तापि, एकस्स मङ्गले वा रोगे वा अञ्जस्मिं वा पन तादिसे सुखदुक्खे उप्पन्ने सब्बे तत्थ सहायभावं गच्छन्तापि समग्गा वज्जिकरणीयानि करोन्ति नाम । अपञत्तन्तिआदीसु पुब्बे अकतं सुकं वा बलिं वा दण्डं वा आहरापेन्ता अपञत्तं पञपेन्ति नाम । पोराणपवेणिया आगतमेव पन अनाहरापेन्ता पञ्चत्तं समुच्छिन्दन्ति नाम । चोरोति गहेत्वा दस्सिते अविचिनित्वाव छेज्जभेज्जं अनुसासेन्ता पोराणं वज्जिधम्म समादाय न वत्तन्ति नाम । तेसं अपञत्तं पञपेन्तानं अभिनवसुङ्कादीहि पीळिता मनुस्सा- “अतिउपद्दतम्ह, को इमेसं विजिते वसिस्सती"ति पच्चन्तं पविसित्वा चोरा वा चोरसहाया वा हुत्वा जनपदं पहरन्ति । पञत्तं समुच्छिन्दन्तानं पवेणीआगतानि सुङ्कादीनि अगण्हन्तानं कोसो परिहायति । ततो हथिअस्सबलकायओरोधादयो यथानिबद्धं वढं अलभमाना थामेन बलेन परिहायन्ति । ते नेव युद्धक्खमा होन्ति, न पारिचरियक्खमा । पोराणं वज्जिधम्मं समादाय अवत्तन्तानं विजिते मनुस्सा – “अम्हाकं पुत्तं पितरं भातरं अचोरंयेव चोरोति कत्वा छिन्दिंसु भिन्दिसूति कुज्झित्वा पच्चन्तं पविसित्वा चोरा वा चोरसहाया वा हुत्वा जनपदं पहरन्ति, एवं राजूनं परिहानि होति, पञत्तं पञपेन्तानं पन “पवेणीआगतमेव राजानो करोन्तीति मनुस्सा हट्टतुट्ठा कसिवाणिज्जादिके कम्मन्ते सम्पादेन्ति । पञत्तं असमुच्छिन्दन्तानं पवेणीआगतानि सुङ्कादीनि गण्हन्तानं कोसो वड्डति, ततो हत्थिअस्सबलकायओरोधादयो यथानिबद्धं वर्ल्ड लभमाना थामबलसम्पन्ना युद्धक्खमा चेव पारिचरियक्खमा च होन्ति । पोराणं वज्जिधम्मन्ति एत्थ पुब्बे किर वज्जिराजानो “अयं चोरो"ति आनेत्वा दस्सिते "गण्हथ नं चोर"न्ति अवत्वा विनिच्छयमहामत्तानं देन्ति । ते विनिच्छिनित्वा सचे अचोरो होति, विस्सज्जेन्ति । सचे चोरो, अत्तना किञ्चि अवत्वा वोहारिकानं देन्ति । तेपि अचोरो चे, विस्सज्जेन्ति । चोरो चे, सुत्तधरानं देन्ति । तेपि विनिच्छिनित्वा अचोरो चे, विस्सज्जेन्ति। चोरो चे, अट्ठकुलिकानं देन्ति। तेपि तथैव कत्वा सेनापतिस्स, सेनापति उपराजस्स, उपराजा रञो, राजा विनिच्छिनित्वा अचोरो चे, विस्सज्जेति । 97 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१३४-१३४) सचे पन चोरो होति, पवेणीपोत्थकं वाचापेति । तत्थ - "येन इदं नाम कतं, तस्स अयं नाम दण्डो''ति लिखितं । राजा तस्स किरियं तेन समानेत्वा तदनुच्छविकं दण्डं करोति । इति एतं पोराणं वज्जिधम्मं समादाय वत्तन्तानं मनुस्सा न उज्झायन्ति, “राजानो पोराणपवेणिया कम्मं करोन्ति, एतेसं दोसो नत्थि, अम्हाकंयेव दोसो"ति अप्पमत्ता कम्मन्ते करोन्ति । एवं राजूनं वुद्धि होति । तेन वुत्तं - "वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानी''ति । ___ सक्करोन्तीति यंकिञ्चि तेसं सक्कारं करोन्ता सुन्दरमेव करोन्ति । गरुं करोन्तीति गरुभावं पच्चुपट्ठपेत्वाव करोन्ति | मानेन्तीति मनेन पियायन्ति । पूजेन्तीति निपच्चकारं दस्सेन्ति | सोतब्बं मञन्तीति दिवसस्स द्वे तयो वारे उपट्टानं गन्त्वा तेसं कथं सोतब्ब सद्धातब्बं मञ्जन्ति । तत्थ ये एवं महल्लकानं राजूनं सक्कारादीनि न करोन्ति, ओवादत्थाय च नेसं उपट्टानं न गच्छन्ति, ते तेहि विस्सट्ठा अनोवदियमाना कीळापसुता रज्जतो परिहायन्ति । ये पन तथा पटिपज्जन्ति, तेसं महल्लकराजानो- “इदं कातब्बं, इदं न कातब्बन्ति पोराणं पवेणिं आचिक्खन्ति । सङ्गामं पत्वापि- “एवं पविसितब्ब, एवं निक्खमितब्ब''न्ति उपायं दस्सेन्ति । ते तेहि ओवदियमाना यथाओवादं पटिपज्जन्ता सक्कोन्ति राजप्पवेणिं सन्धारेतुं । तेन वुत्तं – “वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानी"ति । कुलिथियोति कुलघरणियो। कुलकुमारियोति अनिविद्धा तासं धीतरो। ओक्कस्स पसरहाति एत्थ “ओक्कस्सा"ति वा “पसव्हा''ति वा पसरहाकारस्सेवेतं नामं | "उक्कस्सा"तिपि पठन्ति । तत्थ ओक्कस्साति अवकस्सित्वा आकड्डित्वा । पसरहाति अभिभवित्वा अज्झोत्थरित्वाति अयं वचनत्थो। एवञ्हि करोन्तानं विजिते मनुस्सा - "अम्हाकं गेहे पुत्तमातरोपि, खेळसिङ्घाणिकादीनि मुखेन अपनेत्वा संवड्डितधीतरोपि इमे राजानो बलक्कारेन गहेत्वा अत्तनो घरे वासेन्ती"ति कुपिता पच्चन्तं पविसित्वा चोरा वा चोरसहाया वा हुत्वा जनपदं पहरन्ति । एवं अकरोन्तानं पन विजिते मनुस्सा अप्पोस्सुक्का सकानि कम्मानि करोन्ता राजकोसं वड्डेन्ति । एवमेत्थ वुद्धिहानियो वेदितब्बा। वज्जीनं वज्जिचेतियानीति वज्जिराजूनं वज्जिरढे चित्तीकतढेन चेतियानीति लद्धनामानि यक्खट्ठानानि । अब्भन्तरानीति अन्तोनगरे ठितानि । बाहिरानीति बहिनगरे 98 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१३५-१३५) राजअपरिहानियधम्मवण्णना ठितानि । दिनपुब्बन्ति पुब्बे दिन्नं । कतपुबन्ति पुब्बे कतं । नो परिहापेस्सन्तीति अपरिहापेत्वा यथापवत्तमेव करिस्सन्ति धम्मिकं बलिं परिहापेन्तानहि देवता आरक्खं सुसंविहितं न करोन्ति, अनुप्पन्नं दुक्खं जनेतुं असक्कोन्तापि उप्पन्नं काससीसरोगादिं वड्डेन्ति, सङ्गामे पत्ते सहाया न होन्ति । अपरिहापेन्तानं पन आरक्खं सुसंविहितं करोन्ति, अनुप्पन्नं सुखं उप्पादेतुं असक्कोन्तापि उप्पन्नं काससीसरोगादिं हनन्ति, सङ्गामसीसे सहाया होन्तीति एवमेत्थ वुद्धिहानियो वेदितब्बा । धम्मिका रक्खावरणगुत्तीति एत्थ रक्खा एव यथा अनिच्छितं न गच्छति, एवं आवरणतो आवरणं । यथा इच्छितं न विनस्सति, एवं गोपायनतो गुत्ति । तत्थ बलकायेन परिवारेत्वा रक्खणं पब्बजितानं धम्मिका रक्खावरणगुत्ति नाम न होति । यथा पन विहारस्स उपवने रुखे न छिन्दन्ति, वाजिका वज्झं न करोन्ति, पोक्खरणीसु मच्छे न गण्हन्ति, एवं करणं धम्मिका रक्खावरणगुत्ति नाम । किन्ति अनागता चाति इमिना पन नेसं एवं पच्चुपट्टितचित्तसन्तानोति चित्तप्पवत्तिं पुच्छति । तत्थ ये अनागतानं अरहन्तानं आगमनं न इच्छन्ति, ते अस्सद्धा होन्ति अप्पसन्ना । पब्बजिते च सम्पत्ते पच्चुग्गमनं न करोन्ति, गन्त्वा न पस्सन्ति, पटिसन्थारं न करोन्ति, पऽहं न पुच्छन्ति, धम्मं न सुणन्ति, दानं न देन्ति, अनुमोदनं न सुणन्ति, निवासनट्ठानं न संविदहन्ति । अथ नेसं अवण्णो अब्भुग्गच्छति - “असुको नाम राजा अस्सद्धो अप्पसन्नो, पब्बजिते सम्पत्ते पच्चुग्गमनं न करोति...पे०... निवासनट्ठानं न संविदहतीति । तं सुत्वा पब्बजिता तस्स नगरद्वारेन न गच्छन्ति, गच्छन्तापि नगरं न पविसन्ति । एवं अनागतानं अरहन्तानं अनागमनमेव होति। आगतानम्पि फासुविहारे असति येपि अजानित्वा आगता, ते- “वसिस्सामाति ताव चिन्तेत्वा आगतम्हा, इमेसं पन राजूनं इमिना नीहारेन को वसिस्सती"ति निक्खमित्वा गच्छन्ति । एवं अनागतेसु अनागच्छन्तेसु, आगतेसु दुक्खं विहरन्तेसु सो देसो पब्बजितानं अनावासो होति । ततो देवतारक्खा न होति, देवतारक्खाय असति अमनुस्सा ओकासं लभन्ति । अमनुस्सा उस्सन्ना अनुप्पन्नं ब्याधिं उप्पादेन्ति, सीलवन्तानं दस्सनपञ्हापुच्छनादिवत्थुकस्स पुञस्स अनागमो होति । विपरियायेन पन यथावुत्तकण्हपक्खविपरीतस्स सुक्कपक्खस्स सम्भवो होतीति एवमेत्थ वुद्धिहानियो वेदितब्बा । १३५. एकमिदाहन्ति इदं भगवा पुब्बे वज्जीनं इमस्स वज्जिसत्तकस्स 99 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१३५-१३५) - देसितभावप्पकासनत्थमाह । तत्थ सारन्ददे चेतियेति एवंनामके विहारे । अनुप्पन्ने किर बुद्ध तत्थ सारन्ददस्स यक्खस्स निवासनट्ठानं चेतियं अहोसि । अथेत्थ भगवतो विहारं कारापेसुं, सो सारन्ददे चेतिये कतत्ता सारन्ददचेतियन्त्वेव सङ्ख्यं गतो। अकरणीयाति अकातब्बा, अग्गहेतब्बाति अत्थो । यदिदन्ति निपातमत्तं । युद्धस्साति करणत्थे सामिवचनं, अभिमुखयुद्धेन गहेतुं न सक्काति अत्थो । अत्र उपलापनायाति ठपेत्वा उपलापनं । उपलापना नाम - “अलं विवादेन, इदानि समग्गा होमा''ति हत्थिअस्सरथहिरञसुवण्णादीनि पेसेत्वा सङ्गहकरणं । एवहि सङ्गहं कत्वा केवलं विस्सासेन सक्का गण्हितुन्ति अत्थो । अझत्र मिथुभेदायाति ठपेत्वा मिथुभेदं । इमिना अञमञ्जभेदं कत्वापि सक्का एते गहेतुन्ति दस्सेति । इदं ब्राह्मणो भगवतो कथाय नयं लभित्वा आह । किं पन भगवा ब्राह्मणस्स इमाय कथाय नयलाभं न जानातीति ? आम, जानाति । जानन्तो कस्मा कथेसीति ? अनुकम्पाय | एवं किरस्स अहोसि- "मया अकथितेपि कतिपाहेन गन्त्वा सब्बे गहिस्सति, कथिते पन समग्गे भिन्दन्तो तीहि संवच्छरेहि गण्हिस्सति, एत्तकम्पि जीवितमेव वरं, एत्तकहि जीवन्ता अत्तनो पतिट्ठानभूतं पुञ्ज करिस्सन्ती'ति । अभिनन्दित्वाति चित्तेन अभिनन्दित्वा । अनुमोदित्वाति "याव सुभासितञ्चिदं भोता गोतमेना"ति वाचाय अनुमोदित्वा । पक्कामीति रञो सन्तिकं गतो। ततो नं राजा"किं आचरिय, भगवा अवचा"ति पुच्छि। सो- "यथा भो समणस्स गोतमस्स वचनं न सक्का वज्जी केनचि गहेतुं, अपि च उपलापनाय वा मिथुभेदेन वा सक्का''ति आह । ततो नं राजा - “उपलापनाय अम्हाकं हथिअस्सादयो नस्सिस्सन्ति, भेदेनेव ते गहेस्सामि, किं करोमा”ति पुच्छि। तेन हि, महाराज, तुम्हे वज्जिं आरब्भ परिसति कथं समुट्ठापेथ । ततो अहं- "किं ते महाराज तेहि, अत्तनो सन्तकेहि कसिवाणिज्जादीनि कत्वा जीवन्तु एते राजानो''ति वत्वा पक्कमिस्सामि । ततो तुम्हे - “किन्नु खो भो एस ब्राह्मणो वज्जिं आरब्भ पवत्तं कथं पटिबाहती"ति वदेय्याथ, दिवसभागे चाहं तेसं पण्णाकारं पेसेस्सामि, तम्पि गाहापेत्वा तुम्हेपि मम दोसं आरोपेत्वा बन्धनतालनादीनि अकत्वाव केवलं खुरमुण्डं मं कत्वा नगरा नीहरापेथ । अथाहं - "मया ते नगरे पाकारो परिखा च कारिता, अहं किर दुब्बलट्ठानञ्च उत्तानगम्भीरट्ठानञ्च जानामि, न चिरस्सेव 100 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१३५-१३५) राजअपरिहानियधम्मवण्णना १०१ दानि उजुं करिस्सामी''ति वक्खामि । तं सुत्वा तुम्हे – “गच्छतू"ति वदेय्याथाति । राजा सब्बं अकासि । लिच्छवी तस्स निक्खमनं सुत्वा - "सठो ब्राह्मणो, मा तस्स गङ्गं उत्तरितुं अदत्था''ति आहंसु । तत्र एकच्चेहि - “अम्हे आरब्भ कथितत्ता किर सो एवं कतो"ति वुत्ते "तेन हि, भणे, एतू"ति भणिंसु । सो गन्त्वा लिच्छवी दिस्वा "किं आगतत्था"ति पुच्छितो तं पवत्तिं आरोचेसि, लिच्छविनो- “अप्पमत्तकेन नाम एवं गरुं दण्डं कातुं न युत्त"न्ति वत्वा - "किं ते तत्र ठानन्तर'"न्ति पुच्छिंसु । “विनिच्छयामच्चोहमस्मी"ति । तदेव ते ठानन्तरं होतूति । सो सुटुतरं विनिच्छयं करोति, राजकुमारा तस्स सन्तिके सिप्पं उग्गण्हन्ति । सो पतिहितगुणो हुत्वा एकदिवसं एकं लिच्छविं गहेत्वा एकमन्तं गन्त्वा - दारका कसन्तीति पुच्छि । आम, कसन्ति । द्वे गोणे योजेत्वाति ? आम, द्वे गोणे योजेत्वाति । एत्तकं वत्वा निवत्तो । ततो तं अजओ- "किं आचरियो आहा''ति पुच्छित्वा तेन वुत्तं असद्दहन्तो "न मे एस यथाभूतं कथेती"ति तेन सद्धिं भिज्जि । ब्राह्मणो अस्मिं दिवसे एकं लिच्छविं एकमन्तं नेत्वा -- “केन ब्यञ्जनेन भुत्तोसी"ति पुच्छित्वा निवत्तो । तम्पि अञो पुच्छित्वा असद्दहन्तो तथैव भिज्जि । ब्राह्मणो अपरम्प दिवसं एकं लिच्छविं एकमन्तं नेत्वा- “अतिदुग्गतोसि किरा"ति पुच्छि। को एवमाहाति पुच्छितो असुको नाम लिच्छवीति । अपरम्प एकमन्तं नेत्वा- “त्वं किर भीरुकजातिको''ति पुच्छि । को एवमाहाति ? असुको नाम लिच्छवीति । एवं अज्ञेन अकथितमेव अञस्स कथेन्तो तीहि संवच्छरेहि ते राजानो अञमनं भिन्दित्वा यथा द्वे एकमग्गेन न गच्छन्ति, तथा कत्वा सन्निपातभेरिं चरापेसि । लिच्छविनो- “इस्सरा सन्निपतन्तु, सूरा सनिपतन्तू''ति वत्वा न सन्निपतिंसु। ब्राह्मणो- “अयं दानि कालो, सीघं आगच्छतू"ति रञो सासनं पेसेसि । राजा सुत्वाव बलभेरि चरापेत्वा निक्खमि । वेसालिका सुत्वा - "रो गङ्गं उत्तरितुं न दस्सामा''ति भेरिं चरापेसुं। तम्पि सुत्वा- “गच्छन्तु सूरराजानो"तिआदीनि वत्वा न सन्निपतिंसु । “नगरप्पवेसनं न दस्साम, द्वारानि पिदहित्वा ठस्सामा''ति भेरि चरापेसुं । एकोपि न सन्निपति । यथाविवटेहेव द्वारेहि पविसित्वा सब्बे अनयब्यसनं पापेत्वा गतो । 101 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१३६-१३६) भिक्खुअपरिहानियधम्मवण्णना १३६. अथ खो भगवा अचिरपक्कन्तेतिआदिम्हि सन्निपातेत्वाति दूरविहारेसु इद्धिमन्ते पेसेत्वा सन्तिकविहारेसु सयं गन्त्वा -- “सन्निपतथ, आयस्मन्तो; भगवा वो सन्निपातं इच्छती''ति सन्निपातेत्वा । अपरिहानियेति अपरिहानिकरे, वुद्धिहेतुभूतेति अत्थो। धम्मे देसेस्सामीति चन्दसहस्सं सूरियसहस्सं उट्ठपेन्तो विय चतुकुट्टके गेहे अन्तो तेलदीपसहस्सं उज्जालेन्तो विय पाकटे कत्वा कथयिस्सामीति । तत्थ अभिण्हं सन्निपाताति इदं वज्जिसत्तके वुत्तसदिसमेव । इधापि च अभिण्हं असन्निपतिता दिसासु आगतसासनं न सुणन्ति । ततो- “असुकविहारसीमा आकुला, उपोसथपवारणा ठिता, असुकस्मिं ठाने भिक्खू वेज्जकम्मदूतकम्मादीनि करोन्ति, विज्ञत्तिबहुला पुप्फदानादीहि जीविकं कप्पेन्ती''तिआदीनि न जानन्ति, पापभिक्खूपि “पमत्तो भिक्खुसङ्घो''ति ञत्वा रासिभूता सासनं ओसक्कापेन्ति । अभिण्हं सन्निपतिता पन तं तं पवत्तिं सुणन्ति, ततो भिक्खुसङ्घ पेसेत्वा सीमं उजुं करोन्ति, उपोसथपवारणादयो पवत्तापेन्ति, मिच्छाजीवानं उस्सन्नट्ठाने अरियवंसके पेसेत्वा अरियवंसं कथापेन्ति, पापभिक्खूनं विनयधरेहि निग्गहं कारापेन्ति, पापभिक्खूपि “अप्पमत्तो भिक्खुसङ्घो, न सक्का अम्हेहि वग्गबन्धेन विचरितु"न्ति भिज्जित्वा पलायन्ति । एवमेत्थ हानिवुद्धियो वेदितब्बा। ___ समग्गातिआदीसु चेतियपटिजग्गनत्थं वा बोधिगेहउपोसथागारच्छादनत्थं वा कतिकवत्तं वा ठपेतुकामताय ओवादं वा दातुकामताय – “सङ्घो सन्निपततू"ति भेरिया वा घण्टिया वा आकोटिताय- “महं चीवरकम्मं अत्थि, महं पत्तो पचितब्बो, मम्हं नवकम्म अत्थी"ति विक्खेपं करोन्ता न समग्गा सन्निपतन्ति नाम । सब्बं पन तं कम्मं ठपेत्वा"अहं पुरिमतरं, अहं पुरिमतर'"न्ति एकप्पहारेनेव सन्निपतन्ता समग्गा सन्निपतन्ति नाम । सन्निपतिता पन चिन्तेत्वा मन्तेत्वा कत्तब्ध कत्वा एकतो अवुट्ठहन्ता समग्गा न वुट्टहन्ति नाम । एवं बुट्टितेसु हि ये पठमं गच्छन्ति, तेसं एवं होति - "अम्हेहि बाहिरकथाव सुता, इदानि विनिच्छयकथा भविस्सती"ति । एकप्पहारेनेव वुद्रुहन्ता पन समग्गा वुट्टहन्ति नाम । अपिच “असुकट्ठाने विहारसीमा आकुला, उपोसथपवारणा ठिता, असुकट्ठाने वेज्जकम्मादिकारका पापभिक्खू उस्सन्नाति सुत्वा -- “को गन्त्वा तेसं निग्गहं 102 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१३६-१३६) भिक्खुअपरिहानियधम्मवण्णना १०३ करिस्सती"ति वुत्ते - “अहं पठमं, अहं पठम"न्ति वत्वा गच्छन्तापि समग्गा वुट्ठहन्ति नाम। आगन्तुकं पन दिस्वा- "इमं परिवेणं याहि, एतं परिवेणं याहि, अयं को"ति अवत्वा सब्बे वत्तं करोन्तापि, जिण्णपत्तचीवरकं दिस्वा तस्स भिक्खाचारवत्तेन पत्तचीवरं परियेसमानापि, गिलानस्स गिलानभेसज्जं परियेसमानापि, गिलानमेव अनाथं - "असुकपरिवेणं याहि, असुकपरिवेणं याहीति अवत्वा अत्तनो अत्तनो परिवेणे पटिजग्गन्तापि, एको ओलियमानको गन्थो होति, पवन्तं भिक्खु सङ्गण्हित्वा तेन तं गन्थं उक्खिपापेन्तापि समग्गा सचं करणीयानि करोन्ति नाम । अपञत्तन्तिआदीसु नवं अधम्मिकं कतिकवत्तं वा सिक्खापदं वा बन्धन्ता अपञत्तं पञपेन्ति नाम, पुराणसन्थतवत्थुस्मिं सावत्थियं भिक्खू विय। उद्धम्मं उब्बिनयं सासनं दीपेन्ता पञत्तं समुच्छिन्दन्ति नाम, वस्ससतपरिनिब्बुते भगवति वेसालिका वज्जिपुत्तका विय । खुद्दानुखुद्दका पन आपत्तियो सञ्चिच्च वीतिक्कमन्ता यथापञ्जत्तेसु सिक्खापदेसु समादाय न वत्तन्ति नाम, अस्सजिपुनब्बसुका विय। नवं पन कतिकवत्तं वा सिक्खापदं वा अबन्धन्ता, धम्मविनयतो सासनं दीपेन्ता, खुद्दानुखुद्दकानि सिक्खापदानि असमूहनन्ता अपञत्तं न पञपेन्ति, पञत्तं न समुच्छिन्दन्ति, यथापञत्तेसु सिक्खापदेसु समादाय वत्तन्ति नाम, आयस्मा उपसेनो विय, आयस्मा यसो काकण्डकपुत्तो विय च । ___ "सुणातु, मे आवुसो सङ्घो, सन्तम्हाकं सिक्खापदानि गिहिगतानि, गिहिनोपि जानन्ति, 'इदं वो समणानं सक्यपुत्तियानं कप्पति, इदं वो न कप्पती'ति । सचे हि मयं खुद्दानुखुद्दकानि सिक्खापदानि समूहनिस्साम, भविस्सन्ति. वत्तारो'धूमकालिकं समणेन गोतमेन सावकानं सिक्खापदं पञत्तं, याविमेसं सत्था अट्टासि, ताविमे सिक्खापदेसु सिक्खिंसु । यतो इमेसं सत्था परिनिब्बुतो, न दानिमे सिक्खापदेसु सिक्खन्तीति । यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं, सङ्घो अपञत्तं न पचपेय्य, पञत्तं न समुच्छिन्देय्य, यथापञ्जत्तेसु सिक्खापदेसु समादाय वत्तेय्या"ति (चुळव० ४४२) इमं तन्तिं ठपयन्तो आयस्मा महाकस्सपो विय च । वुद्धियेवाति सीलादीहि गुणेहि वुड्डियेव, नो परिहानि । 103 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा थेराति थिरभावप्पत्ता थेरकारकेहि गुणेहि समन्नागता । बहू रत्तियो जानन्तीति रत्त । चिरं पब्बजितानं एतेसन्ति चिरपब्बजिता । सङ्घस्स पितुट्ठाने ठिताति सङ्घपितरो । पितुट्टाने ठितत्ता सङ्घ परिनेन्ति पुब्बङ्गमा हुत्वा तीसु सिक्खासु पवत्तेन्तीति सङ्घपरिणायका । ये ते सक्कारादीनि न करोन्ति, ओवादत्थाय द्वे तयो वारे उपट्ठानं न गच्छन्ति, तेपि तेसं ओवादं न देन्ति, पवेणीकथं न कथेन्ति, सारभूतं धम्मपरियायं न सिक्खापेन्ति । ते तेहि विस्सट्ठा सीलादीहि धम्मक्खन्धेहि सत्तहि च अरियधनेहीति एवमादीहि गुणेहि परिहायन्ति । ये पन तेसं सक्कारादीनि करोन्ति, उपट्ठानं गच्छन्ति, तेपि तेसं ओवादं देन्ति । “एवं ते अभिक्कमितब्बं, एवं ते पटिक्कमितब्बं, एवं ते आलोकितब्बं, एवं ते विलोकितब्बं, एवं ते समिञ्जितब्बं, एवं ते पसारितब्बं, एवं ते सङ्घाटिपत्तचीवरं धारेतब्ब"न्ति पवेणीकथं कथेन्ति, सारभूतं धम्मपरियायं सिक्खापेन्ति, तेरसहि धुतङ्गेहि दसहि कथावत्थूहि अनुसासन्ति । ते तेसं ओवादे ठत्वा सीलादीहि गुणेहि वड्डमाना सामञ्ञत्थं अनुपापुणन्ति। एवमेत्थ हानिवुद्धियो वेदितब्बा । (३.१३६-१३६) पुनब्भवदानं पुनब्भवो, पुनब्भवो सीलमस्साति पोनोब्भविका, पुनब्भवदायिकाति अत्थो, तस्मा पोनोब्भविकाय । न वसं गच्छन्तीति एत्थ ये चतुन्नं पच्चयानं कारणा उपट्ठाकानं पदानुपदिका हुत्वा गामतो गामं विचरन्ति ते तस्सा तण्हाय व गच्छन्ति नाम, इतरे न गच्छन्ति नाम । तत्थ हानिवुद्धियो पाकटायेव । आरञ्ञकेसूति पञ्चधनुसतिकपच्छिमेसु । सापेक् सतण्हा सालया । गामन्तसेनासनेसु हि झानं अप्पेत्वापि ततो वुट्ठितमत्तोव इत्थिपुरिसदारिकादिसद्दं सुणाति, येनस्स अधिगतविसेसोपि हायतियेव । अरञ पन निद्दायित्वा पबुिद्धमत्तो सीहब्यग्घमोरादीनं सद्दं सुणाति, येन आरञ्ञकं पीतिं लभित्वा तमेव सम्मसन्तो अग्गफले पतिट्ठाति । इति भगवा गामन्तसेनासने झानं अप्पेत्वा निसिन्नभिक्खुनो अर निद्दायन्तमेव पसंसति। तस्मा तमेव अत्थवसं पटिच्च - “आरञ्ञकेसु सेनासनेसु सापेक्खा भविस्सन्ती "ति आह । पच्चत्तञ्ञेव सतिं उपट्टपेस्सन्तीति अत्तनाव अत्तनो अब्भन्तरे सतिं उपट्टपेस्सन्ति । पेसलाति पियसीला । इधापि सब्रह्मचारीनं आगमनं अनिच्छन्ता नेवासिका अस्सद्धा होन्ति 104 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१३७-१३७) भिक्खुअपरिहानियधम्मवण्णना १०५ अप्पसन्ना | सम्पत्तभिक्खूनं पच्चुग्गमनपत्तचीवरप्पटिग्गहणआसनपञापनतालवण्टग्गहणादीनि न करोन्ति, अथ नेसं अवण्णो उग्गच्छति- “असुकविहारवासिनो भिक्खू अस्सद्धा अप्पसन्ना विहारं पविट्ठानं वत्तपटिवत्तं न करोन्ती''ति । तं सुत्वा पब्बजिता विहारद्वारेन गच्छन्तापि विहारं न पविसन्ति । एवं अनागतानं अनागमनमेव होति । आगतानं पन फासुविहारे असति येपि अजानित्वा आगता, ते- “वसिस्सामाति ताव चिन्तेत्वा आगताम्ह, इमेसं पन नेवासिकानं इमिना नीहारेन को वसिस्सती"ति निक्खमित्वा गच्छन्ति । एवं सो विहारो अक्षेसं भिक्खूनं अनावासोव होति । ततो नेवासिका सीलवन्तानं दस्सनं अलभन्ता कङ्खाविनोदनं वा आचारसिक्खापकं वा मधुरधम्मस्सवनं वा न लभन्ति, तेसं नेव अग्गहितधम्मग्गहणं, न गहितसज्झायकरणं होति । इति नेसं हानियेव होति, न वुद्धि । ये पन सब्रह्मचारीनं आगमनं इच्छन्ति, ते सद्धा होन्ति पसन्ना, आगतानं सब्रह्मचारीनं पच्चुग्गमनादीनि कत्वा सेनासनं पञपेत्वा देन्ति, ते गहेत्वा भिक्खाचारं पविसन्ति, कॉ विनोदेन्ति, मधुरधम्मस्सवनं लभन्ति । अथ नेसं कित्तिसद्दो उग्गच्छति"असुकविहारभिक्खू एवं सद्धा पसन्ना वत्तसम्पन्ना सङ्गाहका''ति । तं सुत्वा भिक्खू दूरतोपि एन्ति, तेसं नेवासिका वत्तं करोन्ति, समीपं आगन्त्वा वुडतरं आगन्तुकं वन्दित्वा निसीदन्ति, नवकतरस्स सन्तिके आसनं गहेत्वा निसीदन्ति । निसीदित्वा - "इमस्मिं विहारे वसिस्सथ गमिस्सथा'ति पुच्छन्ति । ‘गमिस्सामी'ति वुत्ते- “सप्पायं सेनासनं, सुलभा भिक्खा"तिआदीनि वत्वा गन्तुं न देन्ति। विनयधरो चे होति, तस्स सन्तिके विनयं सज्झायन्ति । सुत्तन्तादिधरो चे, तस्स सन्तिके तं तं धम्म सज्झायन्ति । आगन्तुकानं थेरानं ओवादे ठत्वा सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं पापुणन्ति । आगन्तुका “एकं द्वे दिवसानि वसिस्सामाति आगताम्ह, इमेसं पन सुखसंवासताय दसद्वादसवस्सानि वसिस्सामा"ति वत्तारो होन्ति । एवमेत्थ हानिवुद्धियो वेदितब्बा । १३७. दुतियसत्तके कम्मं आरामो एतेसन्ति कम्मारामाति । कम्मे रताति कम्मरता। कम्मारामतमनुयुत्ताति युत्ता पयुत्ता अनुयुत्ता। तत्थ कम्पन्ति इतिकातब्बकम्मं वुच्चति । सेय्यथिदं -- चीवरविचारणं, चीवरकरणं, उपत्थम्भनं, सूचिघरं, पत्तत्थविकं, असंबद्धकं, कायबन्धनं, धमकरणं, आधारकं, पादकथलिकं, सम्मज्जनीआदीनं करणन्ति । एकच्चो हि एतानि करोन्तो सकलदिवसं एतानेव करोति । तं सन्धायेस पटिक्खेपो । यो पन एतेसं करणवेलायमेव एतानि करोति, उद्देसवेलायं उद्देसं गण्हाति, सज्झायवेलायं सज्झायति, 105 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा चेतियङ्गणवत्तवेलायं चेतियङ्गणवत्तं करोति, मनसिकारवेलायं मनसिकारं करोति, न सो कम्मारामो नाम । १०६ न भस्सारामाति एत्थ यो इत्थिवण्णपुरिसवण्णादिवसेन आलापसल्लापं करोन्तोयेव दिवसञ्च रत्तिञ्च वीतिनामेति, एवरूपे भस्से परियन्तकारी न होति, अयं भस्सारामो नाम । यो पन रत्तिन्दिवं धम्मं कथेति पञ्हं विस्सज्जेति, अयं अप्पभस्सोव भस्से परियन्तकारीयेव । कस्मा ? “सन्निपतितानं वो, भिक्खवे, द्वयं करणीयं- धम्मी वा कथा, अरियो वा तुण्हीभावो 'ति (म० नि० १.२७३ ) वुत्तत्ता । , न निद्दारामाति एत्थ यो गच्छन्तोपि निसिन्नोपि निपन्नोपि थिनमिद्धाभिभूतो निद्दायतियेव, अयं निद्दारामो नाम । यस्स पन करजकायगेलन चित्तं भवङ्गे ओतरति, नायं निद्दारामो । तेनेवाह - " अभिजानामहं अग्गिवेस्सन, गिम्हानं पच्छिमे मासे पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो चतुग्गुणं सङ्घाटिं पञ्ञपेत्वा दक्खिणेन परसेन सतो सम्पजानो निद्दं ओक्कमिता "ति (म० नि० १.३८७) । (३.१३७-१३७) न सङ्गणिकारामाति एत्थ यो एकस्स दुतियो द्विन्नं ततियो तिण्णं चतुत्थोति एवं संसट्ठोव विहरति, एकको अस्सादं न लभति, अयं सङ्गणिकारामो । यो पन चतूसु इरियापथेसु एकको अस्सादं लभति, नायं सङ्गणिकारामोति वेदितब्बो । न पापिच्छाति एत्थ असन्तसम्भावनाय इच्छाय समन्नागता दुस्सीला पापिच्छा नाम । न पापमित्तादीसु पापा मित्ता एतेसन्ति पापमित्ता । चतूसु इरियापथेसु सह अयनतो सहाया एतेसन्ति पापसहाया । तन्निन्नतप्पोणतप्प भारताय पापेसु सम्पवङ्काति पापा पापसम्पवङ्का । ओरमत्तकेनाति अवरमत्तकेन अप्पमत्तकेन । अन्तराति अरहत्तं अपत्वाव एत्थन्तरे । वोसानन्ति परिनिट्ठितभावं - “ अलमेत्तावता "ति ओसक्कनं ठितकिच्चतं । इदं वृत्तं होति - "याव सीलपारिसुद्धिमत्तेन वा विपस्सनामत्तेन वा झानमत्तेन वा सोतापन्नभावमत्तेन वा सकदागामिभावमत्तेन वा अनागामिभावमत्तेन वा वोसानं न आपज्जिस्सन्ति, ताव वुद्धियेव भिक्खूनं पाटिकङ्क्षा, नो परिहानी 'ति । 106 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१३८-१३८) भिक्खुअपरिहानियधम्मवण्णना १०७ १३८. ततियसत्तके सद्धाति सद्धासम्पन्ना। तत्थ आगमनीयसद्धा, अधिगमसद्धा, पसादसद्धा, ओकप्पनसद्धाति चतुब्बिधा सद्धा। तत्थ आगमनीयसद्धा सब्ब बोधिसत्तानं होति । अधिगमसद्धा अरियपुग्गलानं । बुद्धो धम्मो सङ्घोति वुत्ते पन पसादो पसादसद्धा। ओकप्पेत्वा पकप्पेत्वा पन सद्दहनं ओकप्पनसद्धा। सा दुविधापि इधाधिप्पेता। ताय हि सद्धाय समन्नागतो सद्धाविमुत्तो, वक्कलित्थेरसदिसो होति । तस्स हि चेतियङ्गणवत्तं वा, बोधियङ्गणवत्तं वा कतमेव होति । उपज्झायवत्तआचरियवत्तादीनि सब्बवत्तानि पूरेति । हिरिमनाति पापजिगुच्छनलक्खणाय हिरिया युत्तचित्ता । ओत्तप्पीति पापतो भायनलक्खणेन ओत्तप्पेन समन्नागता । बहुस्सुताति एत्थ पन परियत्तिबहुस्सुतो, पटिवेधबहुस्सुतोति द्वे बहुस्सुता । परियत्तीति तीणि पिटकानि । पटिवेधोति सच्चप्पटिवेधो । इमस्मिं पन ठाने परियत्ति अधिप्पेता । सा येन बहु सुता, सो बहुस्सुतो। सो पनेस निस्सयमुच्चनको, परिसुपट्ठाको, भिक्खुनोवादको, सब्बत्थकबहुस्सुतोति चतुब्बिधो होति । तत्थ तयो बहुस्सुता समन्तपासादिकाय विनयट्ठकथाय ओवादवग्गे वुत्तनयेन गहेतब्बा। सब्बत्थकबहुस्सुता पन आनन्दत्थेरसदिसा होन्ति । ते इध अधिप्पेता। आरद्धवीरियाति येसं कायिकञ्च चेतसिकञ्च वीरियं आरद्धं होति । तत्थ ये कायसङ्गणिकं विनोदेत्वा चतूसु इरियापथेसु अट्ठआरब्भवत्थुवसेन एकका होन्ति, तेसं कायिकवीरियं आरद्धं नाम होति । ये चित्तसङ्गाणिकं विनोदेत्वा अट्ठसमापत्तिवसेन एकका होन्ति, गमने उप्पन्नकिलेसस्स ठानं पापुणितुं न देन्ति, ठाने उप्पन्नकिलेसस्स निसज्जं, निसज्जाय उप्पन्नकिलेसस्स सयनं पापुणितुं न देन्ति, उप्पन्नुप्पन्नट्ठानेयेव किलेसे निग्गण्हन्ति, तेसं चेतसिकवीरियं आरद्धं नाम होति । उपद्वितस्सतीति चिरकतादीनं सरिता अनुस्सरिता महागतिम्बयअभयत्थेरदीघभाणकअभयत्थेरतिपिटकचूळाभयत्थेरा विय। महागतिम्बयअभयत्थेरो किर जातपञ्चमदिवसे मङ्गलपायासे तुण्डं पसारेन्तं वायसं दिस्वा हुं हुन्ति सद्दमकासि । अथ सो थेरकाले - “कदा पट्ठाय, भन्ते, सरथा''ति भिक्खूहि पुच्छितो "जातपञ्चमदिवसे कतसद्दतो पट्ठाय आवुसो"ति आह। दीघभाणकअभयत्थेरस्स जातनवमदिवसे माता चुम्बिस्सामीति ओनता तस्सा मोळि 107 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा मुच्चित्थ । ततो तुम्बमत्तानि सुमनपुप्फानि दारकस्स उरे पतित्वा दुक्खं जनयिंसु । सो थेरकाले - "कदा पट्ठाय, भन्ते, सरथाति पुच्छितो- "जातनवमदिवसतो पट्ठायाति आह । तिपिटकचूळाभयत्थेरो – “अनुराधपुरे तीणि द्वारेन निक्खमनं कत्वा- ' त्वं किन्नामो, त्वं अपुच्छित्वाव तेसं नामानि सम्पटिच्छापेतुं - “सक्का “ उपट्टितरसती 'ति वृत्तं । सन्धाय - (३.१३९ - १४१) द्वारानि पिदहापेत्वा मनुस्सानं एकेन किन्नामो 'ति पुच्छित्वा सायं पुन आवुसो "ति आह । एवरूपे भिक्खू पञ्ञवन्तोति पञ्चन्नं खन्धानं उदयब्बयपरिग्गाहिकाय पञ्ञाय समन्नागता । द्वीहिपि एतेहि पदेहि विपस्सकानं भिक्खूनं विपस्सनासम्भारभूता सम्मासति चेव विपस्सनापञ्ञा च कथिता । १३९. चतुत्थसत्तके सतियेव सम्बोज्झङ्गो सतिसम्बोज्झङ्गोति । एस नयो सब्बत्थ । तत्थ उपट्ठानलक्खणो सतिसम्बोज्झङ्गो, पविचयलक्खणो धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो, पग्ग लक्ख वीरियसम्बोज्झङ्गो, फरणलक्खणो पीतिसम्बोज्झङ्गो, उपसमलक्खणो पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गो, अविक्खेपलक्खणो समाधिसम्बोज्झङ्गो, पटिसङ्घानलक्खणो उपेक्खासम्बोज्झङ्गो । भावेस्सन्तीति सतिसम्बोज्झङ्गं चतूहि कारणेहि समुट्ठापेन्ता, छहि कारणेहि धम्मविचयसम्बोज्झङ्गं समुट्ठापेन्ता, नवहि कारणेहि वीरियसम्बोज्झङ्गं समुट्ठापेन्ता, दसहि कारणेहि पीतिसम्बोज्झङ्गं समुट्ठापेन्ता, सत्तहि कारणेहि पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गं समुट्ठापेन्ता, दसहि कारणेहि समाधिसम्बोज्झङ्गं समुट्ठापेन्ता, पञ्चहि कारणेहि उपेक्खासम्बोज्झङ्गं समुट्ठापेन्ता वढेस्सन्तीति अत्थो । इमिना विपस्सनामग्गफलसम्पयुत्ते लोकियलोकुत्तरमिस्सके सम्बोज्झने कथेसि | १४०. पञ्चमसत्तके अनिच्चसञ्ञति अनिच्चानुपस्सनाय सद्धिं उप्पन्नसञ्ञा । अनत्तसञ्ञादीसुपि एसेव नयो । इमा सत्त लोकियविपस्सनापि होन्ति । “एतं सन्तं एतं पणीतं, यदिदं सब्बसङ्घारसमथो विरागो निरोधोति (अ० नि० ३.९.३६) आगतवसेनेत्थ द्वे लोकुत्रापि होन्तीति वेदितब्बा । १४१. छक्के मेत्तं कायकम्पन्ति त्तचित्तेन कत्तब्बं कायकम् । वचीकम्पमनोकम्मे सुपि एसेव नयो । इमानि पन भिक्खूनं वसेन आगतानि गिहीसुपि 108 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१४१-१४१) भिक्खुअपरिहानियधम्मवण्णना १०९ लब्भन्ति । भिक्खूनहि मेत्तचित्तेन आभिसमाचारिकधम्मपूरणं मेत्तं कायकम्मं नाम । गिहीनं चेतियवन्दनत्थाय बोधिवन्दनत्थाय सङ्घनिमन्तनत्थाय गमनं, गामं पिण्डाय पविटुं भिक्खुं दिस्वा पच्चुग्गमनं, पत्तप्पटिगंहणं, आसनपञापनं, अनुगमनन्ति एवमादिकं मेत्तं कायकम्मं नाम। भिक्खूनं मेत्तचित्तेन आचारपञत्तिसिक्खापदपज्ञापनं, कम्मट्ठानकथनं, धम्मदेसना, तेपिटकम्पि बुद्धवचनं मेत्तं वचीकम्मं नाम । गिहीनं चेतियवन्दनत्थाय गच्छाम, बोधिवन्दनत्थाय गच्छाम, धम्मस्सवनं करिस्साम, दीपमालपुएफपूजं करिस्साम, तीणि सुचरितानि समादाय वत्तिस्साम, सलाकभत्तादीनि दस्साम, वस्सवासिकं दस्साम, अज्ज सङ्घस्स चत्तारो पच्चये दस्साम, सङ्घ निमन्तेत्वा खादनीयादीनि संविदहथ, आसनानि पापेथ, पानीयं उपट्ठपेथ, सङ्घ पच्चुग्गन्त्वा आनेथ, पत्तासने निसीदापेथ, छन्दजाता उस्साहजाता वेय्यावच्चं करोथातिआदिकथनकाले मेत्तं वचीकम्मं नाम । भिक्खूनं पातोव उट्ठाय सरीरप्पटिजग्गनं, चेतियङ्गणवत्तादीनि च कत्वा विवित्तासने निसीदित्वा इमस्मिं विहारे भिक्खू सुखी होन्तु अवेरा अब्यापज्जाति चिन्तनं मेत्तं मनोकम्मं नाम । गिहीनं 'अय्या सुखी होन्तु, अवेरा अब्यापज्जा'ति चिन्तनं मेत्तं मनोकम्मं नाम । आवि चेव रहो चाति सम्मुखा च परम्मुखा च । तत्थ नवकानं चीवरकम्मादीसु सहायभावगमनं सम्मुखा मेत्तं कायकम्मं नाम । थेरानं पन पादधोवनवन्दनबीजनदानादिभेदं सब्बं सामीचिकम्मं सम्मुखा मेत्तं कायकम्मं नाम । उभयेहिपि दुन्निक्खित्तानं दारुभण्डादीनं तेसु अवमधे अकत्वा अत्तना दुनिक्खित्तानं विय पटिसामनं परम्मुखा मेत्तं कायकम्म नाम। देवत्थेरो तिस्सत्थेरोति एवं पग्गयह वचनं सम्मुखा मेत्तं वचीकम्मं नाम । विहारे असन्तं पन पटिपुच्छन्तस्स कुहिं अम्हाकं देवत्थेरो, कुहिं अम्हाकं तिस्सत्थेरो, कदा नु खो आगमिस्सतीति एवं ममायनवचनं परम्मुखा मेत्तं वचीकम्मं नाम । मेत्तासिनेहसिनिद्धानि पन नयनानि उम्मीलेत्वा पसन्नेन मुखेन ओलोकनं सम्मुखा 109 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१४१-१४१) मेत्तं मनोकम्मं नाम । देवत्थेरो तिस्सत्थेरो अरोगो होतु, अप्पाबाधोति समन्नाहरणं परम्मुखा मेत्तं मनोकम्मं नाम । लाभाति चीवरादयो लद्धपच्चया। धम्मिकाति कुहनादिभेदं मिच्छाजीवं वज्जेत्वा धम्मेन समेन भिक्खाचारवत्तेन उप्पन्ना | अन्तमसो पत्तपरियापन्नमत्तम्पीति पच्छिमकोटिया पत्ते परियापन्नं पत्तस्स अन्तोगतं द्वितिकटच्छुभिक्खामत्तम्पि | अप्पटिविभत्तभोगीति एत्थ द्वे पटिविभत्ता नाम - आमिसप्पटिविभत्तञ्च, पुग्गलप्पटिविभत्तञ्च | तत्थ - “एत्तकं दस्सामि, एत्तकं न दस्सामी"ति एवं चित्तेन विभजनं आमिसप्पटिविभत्तं नाम । “असुकस्स दस्सामि, असुकस्स न दस्सामी''ति एवं चित्तेन विभजनं पन पुग्गलप्पटिविभत्तं नाम | तदुभयम्पि अकत्वा यो अप्पटिविभत्तं भुञ्जति, अयं अप्पटिविभत्तभोगी नाम । सीलवन्तेहि सब्रह्मचारीहि साधारणभोगीति एत्थ साधारणभोगिनो इदं लक्खणं, यं यं पणीतं लब्भति, तं तं नेव लाभेन लाभं निजिगीसनतामुखेन गिहीनं देति, न अत्तना भुजति, पटिग्गण्हन्तो च- “सङ्घन साधारणं होतू"ति गहेत्वा घण्टिं पहरित्वा परिभुजितब् सङ्घसन्तकं विय पस्सति । इमं पन सारणीयधम्मं को पूरेति, को न पूरेतीति ? दुस्सीलो ताव न पूरेति । न हि तस्स सन्तकं सीलवन्ता गण्हन्ति । परिसुद्धसीलो पन वत्तं अखण्डेन्तो पूरेति । तत्रिदं वत्तं - यो हि ओदिस्सकं कत्वा मातु वा पितु वा आचरियुपज्झायादीनं वा देति, सो दातब्बं देति, सारणीयधम्मो पनस्स न होति, पलिबोधजग्गनं नाम होति । सारणीयधम्मो हि मुत्तपलिबोधस्सेव वट्टति। तेन पन ओदिस्सकं देन्तेन गिलानगिलानुपट्ठाकआगन्तुकगमिकानञ्चेव नवपब्बजितस्स च सङ्घाटिपत्तग्गहणं अजानन्तस्स दातब्बं । एतेसं दत्वा अवसेसं थेरासनतो पट्ठाय थोकं अदत्वा यो यत्तकं गण्हाति, तस्स तत्तकं दातब्बं । अवसिढे असति पुन पिण्डाय चरित्वा थेरासनतो पट्ठाय यं यं पणीतं, तं दत्वा सेसं परिभुजितब्बं । “सीलवन्तेही"ति वचनतो दुस्सीलस्स अदातुम्पि वट्टति । अयं पन सारणीयधम्मो सुसिक्खिताय परिसाय सुपूरो होति, नो असिक्खिताय परिसाय । सुसिक्खिताय हि परिसाय यो अञतो लभति, सो न गण्हाति । अञतो अलभन्तोपि पमाणयुत्तमेव गण्हाति, नातिरेकं । अयं पन सारणीयधम्मो एवं पुनप्पुनं पिण्डाय चरित्वा लद्धं लद्धं देन्तस्सापि द्वादसहि वस्सेहि पूरति, न ततो ओरं । सचे हि 110 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१४१-१४१) भिक्खुअपरिहानियधम्मवण्णना द्वादसमे वस्से सारणीयधम्मपूरको पिण्डपातपूरं पत्तं आसनसालायं ठपेत्वा नहायितुं गच्छति सङ्घत्थेरो च कस्सेसो पत्तोति, “सारणीयधम्मपूरकस्सा"ति वुत्ते “आहरथ नन्ति सब् पिण्डपातं विचारेत्वा भुजित्वा च रित्तं पत्तं ठपेति, अथ सो भिक्खु रित्तं पत्तं दिस्वा “महं अनवसेसेत्वाव परिभुजिंसू"ति दोमनस्सं उप्पादेति, सारणीयधम्मो भिज्जति, पुन द्वादसवस्सानि पूरेतब्बो होति । तित्थियपरिवाससदिसो हेस, सकिं खण्डे जाते पुन पूरेतब्बोव । यो पन- “लाभा वत मे, सुलद्धं वत मे, यस्स मे पत्तगतं अनापुच्छाव सब्रह्मचारी परिभुञ्जन्ती"ति सोमनस्सं जनेति, तस्स पुण्णो नाम होति । एवं पूरितसारणीयधम्मस्स पन नेव इस्सा, न मच्छरियं होति । सो मनुस्सानं पियो होति, सुलभपच्चयो च, पत्तगतमस्स दिय्यमानम्पि न खीयति, भाजनीयभण्डट्ठाने अग्गभण्डं लभति, भये वा छातके वा सम्पत्ते देवता उस्सुक्कं आपज्जन्ति । तत्रिमानि वत्थूनि- सेनगिरिवासी तिस्सत्थेरो किर महागिरिगामं उपनिस्साय विहरति । पञ्जास महाथेरा नागदीपं चेतियवन्दनत्थाय गच्छन्ता गिरिगामे पिण्डाय चरित्वा किञ्चि अलद्धा निक्खमिंसु । थेरो पन पविसन्तो ते दिस्वा पुच्छि - "लद्धं, भन्ते"ति ? विचरिम्ह आबुसोति । सो तेसं अलद्धभावं ञत्वा आह - "भन्ते यावाहं आगच्छामि, ताव इधेव होथा"ति । मयं, आवुसो, पचास जना पत्ततेमनमत्तम्पि न लभिम्हाति । भन्ते, नेवासिका नाम पटिबला होन्ति, अलभन्तापि भिक्खाचारमग्गसभागं जानन्तीति । थेरा आगमेसुं। थेरो गामं पाविसि । धुरगेहेयेव महाउपासिका खीरभत्तं सज्जेत्वा थेरं ओलोकयमाना ठिता । अथ थेरस्स द्वारं सम्पत्तस्सेव पत्तं पूरेत्वा अदासि, सो तं आदाय थेरानं सन्तिकं गन्त्वा गण्हथ, भन्तेति, सङ्घत्थेरं आह । थेरो- “अम्हेहि एत्तकेहि किञ्चि न लद्धं, अयं सीघमेव गहेत्वा आगतो, किं नु खो''ति सेसानं मुखं ओलोकेसि । थेरो ओलोकनाकारेनेव ञत्वा "भन्ते, धम्मेन समेन लद्धपिण्डपातो, निक्कुक्कुच्चा गण्हथा"तिआदितो पट्ठाय सब्बेसं यावदत्थं दत्वा अत्तनापि यावदत्थं भुञ्जि।। __ अथ नं भत्तकिच्चावसाने थेरा पुच्छिंसु - “कदा, आवुसो, लोकुत्तरधम्म पटिविज्झी''ति ? नत्थि मे, भन्ते, लोकुत्तरधम्मोति । झानलाभीसि, आवुसोति ? एतम्पि मे, भन्ते, नत्थीति । ननु, आवुसो, पाटिहारियन्ति ? सारणीयधम्मो मे, भन्ते, पूरितो, तस्स मे धम्मस्स पूरितकालतो पट्ठाय सचेपि भिक्खुसतसहस्सं होति, पत्तगतं न खीयतीति । ते 111 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा ( ३.१४१ - १४१ ) सुत्वा - " साधु साधु सप्पुरिस, अनुच्छविकमिदं तुम्ह "न्ति आहंसु । इदं ताव - “पत्तगतं न खीयतीति एत्थ वत्थु | ११२ अयमेव पन थेरो चेतियपब्बते गिरिभण्डमहापूजाय दानट्ठानं गन्त्वा इमस्मिं ठाने किं वरभण्डन्ति पुच्छि । द्वे साटका, भन्तेति । एते मय्हं पापुणिस्सन्तीति । तं त्वा अमच्चो रञ्ञ आरोचेसि - "एको दहरो एवं वदतीति । दहरस्स एवं चित्तं, महाथेरानं पन सुखमसाटका वट्टन्तीति वत्वा महाथेरानं दस्सामीति ठपेति । तस्स भिक्खुस परिपाटिया ठिते देन्तस्स मत्थके ठपितापि ते साटका हत्थं नारोहन्ति । अञ्ञ आरोहन्ति । दहरस्स दानकाले पन हत्थं आरुळ्हा । सो तस्स हत्थे पातेत्वा अमच्चस्स मुखं ओलोकेत्वा दहरं निसीदापेत्वा दानं दत्वा सङ्घ विस्सज्जेत्वा दहरस्स सन्तिके निसीदित्वा - " भन्ते, इमं धम्मं कदा पटिविज्झित्था "ति आह । सो परियायेनापि असन्तं अवदन्तो“नत्थि मय्हं महाराज लोकुत्तरधम्मो " ति आह । ननु, भन्ते, पुब्बे अवचुत्थाति । आम, महाराज, सारणीयधम्मपूरको अहं, तस्स मे धम्मस्स पूरितकालतो पट्ठाय भाजनीयभण्डट्ठाने अग्गभण्डं पापुणातीति । “साधु साधु, भन्ते, अनुच्छविकमिदं तुम्ह "न्ति वन्दित्वा पक्कामि । इदं – “भाजनीयभण्डट्ठाने अग्गभण्डं पापुणाती 'ति एत्थ वत्थु | ब्राह्मणतिस्सभये पन भातरगामवासिनो नागत्थेरिया अनारोचेत्वाव पलायिंसु । थे पच्चूससमये – “अतिविय अप्पनिग्घोसो गामो, उपधारेथ तावा ति दहरभिक्खुनियो आह । ता गन्त्वा सब्बेसं गतभावं ञत्वा आगम्म थेरिया आरोचेसुं । सा सुत्वा “ मा तुम्हे तेसं गतभावं चिन्तयित्थ, अत्तनो उद्देसपरिपुच्छायोनिसोमनसिकारेसुयेव योगं करोथा "ति वत्वा भिक्खाचारवेलायं पारुपित्वा अत्तद्वादसमा गामद्वारे निग्रोधमूले अट्ठासि । रुक्खे अधिवत्थादेवता द्वादसन्नम्पि भिक्खुनीनं पिण्डपातं दत्वा " अय्ये, मा अञ्ञत्थ गच्छथ, निच्चं इधेव एथा "ति आह । थेरिया पन कनिभाता नागत्थेरो नाम अत्थि, सो- “महन्तं भयं, न सक्का इध यापेतुं, परतीरं गमिस्सामी 'ति अत्तद्वादसमोव अत्तनो वसनट्ठाना निक्खन्तो थेरिं दिस्वा गमिस्सामीति भातरगामं आगतो । थेरी - " थेरा आगता "ति सुत्वा तेसं सन्तिकं गन्त्वा किं अय्याति पुच्छि । सो तं पवत्तिं आचिक्खि । सा- "अज्ज एकदिवसं विहारेयेव वसित्वा स्वे गमिस्सथा" ति आह । थेरा विहारं अगमंसु । 1 थेरी पुनदिवसे रुक्खमूले पिण्डाय चरित्वा थेरं उपसङ्कमित्वा “इमं पिण्डपातं परिभुञ्जथा "ति आह । थेरो - " वट्टिस्सति थेरी "ति वत्वा तुम्ही अट्टासि । धम्मिको तात 112 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१४१-१४१) भिक्खुअपरिहानियधम्मवण्णना ११३ पिण्डपातो, कुक्कुच्चं अकत्वा परिभुञ्जथाति । “वट्टिस्सति थेरी'ति । सा पत्तं गहेत्वा आकासे खिपि । पत्तो आकासे अट्ठासि । थेरो- “सत्ततालमत्ते ठितम्पि भिक्खुनिभत्तमेव थेरी"ति वत्वा - "भयं नाम सब्बकालं न होति, भये वूपसन्ते अरियवंसं कथयमानो, 'भो पिण्डपातिक, भिक्खुनिभत्तं भुञ्जित्वा वीतिनामयित्था ति चित्तेन अनुवदियमानो सन्थम्भेतुं न सक्खिस्सामि, अप्पमत्ता होथ थेरियोति मग्गं आरुहि । रुक्खदेवतापि- “सचे थेरो थेरिया हत्थतो पिण्डपातं परिभुञ्जिस्सति, न नं निवत्तेस्सामि । सचे न परिभुजिस्सति, निवत्तेस्सामी''ति चिन्तयमाना ठत्वा थेरस्स गमनं दिस्वा रुक्खा ओरुयह पत्तं, भन्ते, देथाति पत्तं गहेत्वा थेरं रुक्खमूलंयेव आनेत्वा आसनं पञपेत्वा पिण्डपातं दत्वा कतभत्तकिच्चं पटिनं कारेत्वा द्वादस भिक्खुनियो द्वादस भिक्खू च सत्तवस्सानि उपट्टहि । इदं - "देवता उस्सुक्कं आपज्जन्ती"ति एत्थ वत्थु । तत्र हि थेरी सारणीयधम्मपूरिका अहोसि । अखण्डानीतिआदीसु यस्स सत्तसु आपत्तिक्खन्धेसु आदिम्हि वा अन्ते वा सिक्खापदं भिन्नं होति, तस्स सीलं परियन्ते छिन्नसाटको विय खण्डं नाम । यस्स पन वेमज्झे भिन्नं, तस्स मज्झे छिद्दसाटको विय छिदं नाम होति । यस्स पन पटिपाटिया द्वे तीणि भिन्नानि, तस्स पिट्ठियं वा कुच्छियं वा उहितेन विसभागवण्णेन काळरत्तादीनं अञतरवण्णा गावी विय सबलं नाम होति । यस्स पन अन्तरन्तरा विसभागबिन्दुचित्रा गावी विय कम्मासं नाम होति । यस्स पन सब्बेनसबं अभिन्नानि, तस्स तानि सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि अकम्मासानि नाम होन्ति । तानि पनेतानि तण्हादासब्यतो मोचेत्वा भुजिस्सभावकरणतो भुजिस्सानि । बुद्धादीहि विग्रूहि पसत्थत्ता वित्रुपसत्थानि, तण्हादिट्ठीहि अपरामट्ठत्ता- "इदं नाम त्वं आपन्नपुब्बो"ति केनचि परामटुं असक्कुणेय्यत्ता च अपरामट्ठानि, उपचारसमाधि वा अप्पनासमाधि वा संवत्तयन्तीति समाधिसंवत्तनिकानीति वुच्चन्ति । सीलसामञ्जगता विहरिस्सन्तीति तेसु तेसु दिसाभागेसु विहरन्तेहि भिक्खूहि सद्धिं समानभावूपगतसीला विहरिस्सन्ति। सोतापन्नादीनहि सीलं समुद्दन्तरेपि देवलोकेपि वसन्तानं अनेसं सोतापन्नादीनं सीलेन सपानमेव होति, नत्थि मग्गसीले नानत्तं । तं सन्धायेतं वुत्तं । 113 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१४२-१४८) यायं दिट्ठीति मग्गसम्पयुत्ता सम्मादिट्टि । अरियाति निदोसा । निय्यातीति निय्यानिका । तक्करस्साति यो तथाकारी होति। सब्बदुक्खक्खयायाति सब्बदुक्खक्खयत्थं । दिद्विसामञगताति समानदिट्ठिभावं उपगता हुत्वा विहरिस्सन्ति । वुद्धियेवाति एवं विहरन्तानं वुद्धियेव भिक्खून पाटिका, नो परिहानीति । १४२. एतदेव बहुलन्ति आसन्नपरिनिब्बानत्ता भिक्खु ओवदन्तो पुनप्पुनं एतंयेव धम्मिं कथं करोति । इति सीलन्ति एवं सीलं, एत्तकं सीलं । एत्थ चतुपारिसुद्धिसीलं सीलं चित्तेकग्गता समाधि, विपस्सनापञ्जा पञ्जाति वेदितब्बा । सीपरिभावितोति आदीसु यस्मिं सीले ठत्वाव मग्गसमाधिं फलसमाधिं निब्बत्तेन्ति । एसो तेन सीलेन परिभावितो महप्फलो होति, महानिसंसो । यम्हि समाधिम्हि ठत्वा मग्गपनं फलपनं निब्बत्तेन्ति, सा तेन समाधिना परिभाविता महप्फला होति, महानिसंसा । याय पाय ठत्वा मग्गचित्तं फलचित्तं निब्बत्तेन्ति, तं ताय परिभावितं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति। यथाभिरन्तन्ति बुद्धानं अनभिरतिपरितस्सितं नाम नत्थि, यथारुचि यथाअज्झासयन्ति पन वुत्तं होति । आयामाति एहि याम । “अयामा"तिपि पाठो, गच्छामाति अत्थो । आनन्दाति भगवा सन्तिकावचरत्ता थेरं आलपति । थेरो पन - "गण्हथावुसो पत्तचीवरानि, भगवा असुकट्ठानं गन्तुकामो''ति भिक्खूनं आरोचेति । १४४-१४५. अम्बलविकागमनं उत्तानमेव । अथ खो आयस्मा सारिपुत्तोतिआदि (दी० नि० ३.१४१) सम्पसादनीये वित्थारितं । दुस्सीलआदीनववण्णना १४८. पाटलिगमने आवसथागारन्ति आगन्तुकानं आवसथगेहं । पाटलिगामे किर निच्चकालं द्विन्नं राजूनं सहायका आगन्त्वा कुलानि गेहतो नीहरित्वा मासम्पि अड्डमासम्पि वसन्ति । ते मनुस्सा निच्चुपडुता - "एतेसं आगतकाले वसनट्ठानं भविस्सती"ति नगरमज्झे महतिं सालं करित्वा तस्सा एकस्मिं पदेसे भण्डपटिसामनहानं, एकस्मिं पदेसे निवासट्टानं अकंसु । ते- “भगवा आगतो"ति सुत्वाव - "अम्हेहि गन्त्वापि भगवा आनेतब्बो सिया, सो सयमेव अम्हाकं वसनट्ठानं सम्पत्तो, अज्ज भगवन्तं आवसथे मङ्गलं वदापेस्सामा"ति एतदत्थमेव उपसङ्कमन्ता। तस्मा एवमाहंसु । येन आवसथागारन्ति ते 114 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१४९-१४९) दुस्सीलआदीनववण्णना ११५ किर - “बुद्धा नाम अरञज्झासया अरञारामा अन्तोगामे वसितुं इच्छेय्युं वा नो वा'"ति भगवतो मनं अजानन्ता आवसथागारं अप्पटिजग्गित्वाव आगमंसु । इदानि भगवतो मनं ञत्वा पुरेतरं गन्त्वा पटिजग्गिस्सामाति येनावसथागारं, तेनुपसङ्कमिंसु । सब्बसन्थरिन्ति यथा सब् सन्थतं होति, एवं सन्थरिं। १४९. दुस्सीलोति असीलो निस्सीलो। सीलविपन्नोति विपन्नसीलो भिन्नसंवरो । पमादाधिकरणन्ति पमादकारणा । इदञ्च सुत्तं गहट्ठानं वसेन आगतं पब्बजितानम्पि पन लब्भतेव । गहट्ठो हि येन येन सिप्पट्ठानेन जीवितं कप्पेति - यदि कसिया, यदि वणिज्जाय, पाणातिपातादिवसेन पमत्तो तं तं यथाकालं सम्पादेतुं न सक्कोति, अथस्स मूलम्पि विनस्सति । माघातकाले पाणातिपातं पन अदिन्नादानादीनि च करोन्तो दण्डवसेन महतिं भोगजानं निगच्छति । पब्बजितो दुस्सीलो च पमादकारणा सीलतो बुद्धवचनतो झानतो सत्तअरियधनतो च जानिं निगच्छति । गहट्ठस्स - “असुको नाम असुककुले जातो दुस्सीलो पापधम्मो परिच्चत्तइधलोकपरलोको सलाकभत्तमत्तम्पि न देती"ति चतुपरिसमज्झे पापको कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छति । पब्बजितस्स वा - "असुको नाम नासक्खि सीलं रक्खितुं, न बुद्धवचनं उग्गहेतुं, वेज्जकम्मादीहि जीवति, छहि अगारवेहि समन्नागतो''ति एवं अब्भुग्गच्छति । अविसारदोति गहट्ठो ताव - “अवस्सं बहूनं सन्निपातवाने केचि मम कम्म जानिस्सन्ति, अथ मं निग्गहिस्सन्ती''ति वा, "राजकुलस्स वा दस्सन्ती''ति सभयो उपसङ्कमति, मङ्खभूतो पत्तक्खन्धो अधोमुखो अङ्गलिकेन भूमि कसन्तो निसीदति, विसारदो हुत्वा कथेतुं न सक्कोति । पब्बजितोपि- "बहू भिक्खू सन्निपतिता, अवस्सं कोचि मम कम्मं जानिस्सति, अथ मे उपोसथम्पि पवारणम्पि ठपेत्वा सामञतो चावेत्वा निक्कड्डिस्सन्ती"ति सभयो उपसङ्कमति, विसारदो हुत्वा कथेतुं न सक्कोति। एकच्चो पन दुस्सीलोपि दप्पितो विय विचरति, सोपि अज्झासयेन मङ्गु होतियेव । सम्मूळ्हो कालङ्करोतीति तस्स हि मरणमञ्चे निपन्नस्स दुस्सीलकम्मे समादाय पवत्तितट्ठानं आपाथमागच्छति, सो उम्मीलेत्वा इधलोकं पस्सति, निमीलेत्वा परलोकं 115 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१५०-१५३) पस्सति, तस्स चत्तारो अपाया उपट्ठहन्ति, सत्तिसतेन सीसे पहरियमानो विय होति । सो- “वारेथ, वारेथा''ति विरवन्तो मरति । तेन वुत्तं – “सम्मूळ्हो कालं करोती"ति । पञ्चमपदं उत्तानमेव । १५०. आनिसंसकथा वुत्तविपरियायेन वेदितब्बा । १५१. बहुदेव रत्तिं धम्मिया कथायाति अज्ञाय पाळिमुत्तकाय धम्मिकथाय चेव आवसथानुमोदनाय च आकासगङ्गं ओतारेन्तो विय योजनप्पमाणं महामधुं पीळेत्वा मधुपानं पायेन्तो विय बहुदेव रत्तिं सन्दस्सेत्वा सम्पहंसेत्वा उय्योजेसि । अभिक्कन्ताति अतिक्कन्ता खीणा खयवयं उपेता । सुझागारन्ति पाटियेक्कं सुझागारं नाम नत्थि, तत्थेव पन एकपस्से साणिपाकारेन परिक्खिपित्वा - “इध सत्था विस्समिस्सती"ति मञ्चकं पञपेसुं । भगवा - "चतूहिपि इरियापथेहि परिभुत्तं एतेसं महप्फलं भविस्सती"ति तत्थ सीहसेय्यं कप्पेसि । तं सन्धाय वुत्तं - “सुझागारं पाविसी''ति । पाटलिपुत्तनगरमापनवण्णना १५३. सुनिधवस्सकाराति सुनिधी च वस्सकारो च द्वे ब्राह्मणा। मगधमहामत्ताति मगधरञो महामत्ता महाअमच्चा, मगधरतु वा महामत्ता महतिया इस्सरियमत्ताय समन्नागताति मगधमहामत्ता। पाटलिगामे नगरन्ति पाटलिगाम नगरं कत्वा मापेन्ति । वज्जीनं पटिबाहायाति वज्जिराजकुलानं आयमुखपच्छिन्दनत्थं । सहस्सेवाति एकेकवग्गवसेन सहस्सं सहस्सं हुत्वा । वत्थूनीति घरवत्थूनि । चित्तानि नमन्ति निवेसनानि मापेतुन्ति रञञ्च राजमहामत्तानञ्च निवेसनानि मापेतुं वत्थुविज्जापाठकानं चित्तानि नमन्ति । ते किर अत्तनो सिप्पानुभावेन हेट्ठा पथवियं तिंसहत्थमत्ते ठाने - "इध नागग्गाहो, इध यक्खग्गाहो, इध भूतग्गाहो, पासाणो वा खाणुको वा अत्थी''ति पस्सन्ति । ते तदा सिप्पं जप्पित्वा देवताहि सद्धिं मन्तयमाना विय मापेन्ति । अथवा नेसं सरीरे देवता अधिमुच्चित्वा तत्थ तत्थ निवेसनानि मापेतुं चित्तं नामेन्ति । ता चतूसु कोणेसु खाणुके कोट्टेत्वा वत्थुम्हि गहितमत्ते पटिविगच्छन्ति । सद्धानं कुलानं सद्धा देवता तथा करोन्ति, अस्सद्धानं कुलानं अस्सद्धा देवताव । किं कारणा ? सद्धानव्हि एवं होति - "इध मनुस्सा निवेसनं मापेत्वा पठमं भिक्खुसद्धं निसीदापेत्वा मङ्गलं वड्डापेस्सन्ति । अथ मयं सीलवन्तानं दस्सनं, धम्मकथं, 116 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१५३-१५३) पाटलिपुत्तनगरमापनवण्णना ११७ पहाविस्सज्जनं, अनुमोदनञ्च सोतुं लभिस्साम, मनुस्सा दानं दत्वा अम्हाकं पत्तिं दस्सन्ती"ति । तावतिसेहीति यथा हि एकस्मिं कुले एकं पण्डितमनुस्सं, एकस्मिं वा विहारे एकं बहुस्सुतभिक्खुं उपादाय – “असुककुले मनुस्सा पण्डिता, असुकविहारे भिक्खू बहुस्सुता"ति सद्दो अब्भुग्गच्छति, एवमेव सक्कं देवराजानं विस्सकम्मञ्च देवपुत्तं उपादाय - "तावतिंसा पण्डिता''ति सद्दो अब्भुग्गतो। तेनाह - "तावतिसेही''ति । तावतिंसेहि सद्धिं मन्तेत्वापि विय मापेन्तीति अत्थो । यावता अरियं आयतनन्ति यत्तकं अरियकमनुस्सानं ओसरणट्ठानं नाम अत्थि । यावता वणिप्पथोति यत्तकं वाणिजानं आभतभण्डस्स रासिवसेनेव कयविक्कयट्ठानं नाम, वाणिजानं वसनट्ठानं वा अस्थि । इदं अग्गनगरन्ति तेसं अरियायतनवणिप्पथानं इदं अग्गनगरं जेट्टकं पामोक्खं भविस्सतीति । पुटभेदनन्ति भण्डपुटभेदनट्ठानं, भण्डभण्डिकानं मोचनट्ठानन्ति वुत्तं होति । सकलजम्बुदीपे अलद्धभण्डम्पि हि इधेव लभिस्सन्ति, अञ्जत्थ विक्कयेन अगच्छन्तम्पि च इधेव गमिस्सति । तस्मा इधेव पुटं भिन्दिस्सन्तीति अत्थो । चतूसु हि द्वारेसु चत्तारि सभायं एकन्ति एवं दिवसे दिवसे पञ्चसतसहस्सानि उहिस्सन्तीति दस्सेति । अग्गितो वातिआदीसु चकारत्थो वा-सद्दो । अग्गिना च उदकेन च मिथुभेदेन च नस्सिस्सतीति अत्थो । एककोट्ठासो अग्गिना नस्सिस्सति, निब्बापेतुं न सक्खिस्सन्ति । एकं गङ्गा गहेत्वा गमिस्सति । एको – “इमिना अकथितं अमुस्स, अमुना अकथितं इमस्सा"ति वदन्तानं पिसुणवाचानं वसेन भिन्नानं मनुस्सानं अञमञभेदेनेव नस्सिस्सतीति अत्थो । इति वत्वा भगवा पच्चूसकाले गङ्गाय तीरं गन्त्वा कतमुखधोवनो भिक्खाचारवेलं आगमयमानो निसीदि । १५३. सुनिधवस्सकारापि- “अम्हाकं राजा समणस्स गोतमस्स उपट्ठाको, सो अम्हे पुच्छिस्सति, ‘सत्था किर पाटलिगामं अगमासि, तस्स सन्तिकं उपसङ्कमित्थ, न उपसङ्कमित्था'ति । उपसङ्कमिम्हाति च वुत्ते- 'निमन्तयित्थ, न निमन्तयित्था'ति च पुच्छिस्सति । न निमन्तयिम्हाति च वुत्ते अम्हाकं दोसं आरोपेत्वा निग्गहिस्सति । इदं चापि मयं आगतट्ठाने नगरं मापेम, समणस्स खो पन गोतमस्स गतगतछाने 117 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१५४-१५४) काळकण्णिसत्ता पटिक्कमन्ति, तं मयं नगरमङ्गलं वदापेस्सामा"ति चिन्तेत्वा सत्थारं उपसङ्कमित्वा निमन्तयिंसु । तस्मा – “अथ खो सुनिधवस्सकारा'"तिआदि वुत्तं । पुब्बण्हसमयन्ति पुब्बण्हकाले । निवासेत्वाति गामप्पवेसननीहारेन निवासनं निवासेत्वा कायबन्धनं बन्धित्वा । पत्तचीवरमादायाति पत्तञ्च चीवरञ्च आदियित्वा कायप्पटिबद्धं कत्वा । सीलवन्तेत्थाति सीलवन्ते एत्थ । सञतेति कायवाचामनेहि सचते । तासं दक्षिणमादियेति सङ्घस्स दिन्ने चत्तारो पच्चये तासं घरदेवतानं आदिसेय्य, पत्तिं ददेय्य । पूजिता पूजयन्तीति - "इमे मनुस्सा अम्हाकं ज्ञातकापि न होन्ति, एवम्पि नो पत्तिं देन्ती"ति आरक्खं सुसंविहितं करोथाति सुट्टु आरक्खं करोन्ति । मानिता मानयन्तीति कालानुकालं बलिकम्मकरणेन मानिता “एते मनुस्सा अम्हाकं ज्ञातकापि न होन्ति, चतुमासछमासन्तरे नो बलिकम्मं करोन्ती"ति मानेन्ति, मानेन्तियो उप्पन्नं परिस्सयं हरन्ति । ततो नन्ति ततो नं पण्डितजातिकं मनुस्सं । ओरसन्ति उरे ठपेत्वा संवडितं, यथा माता ओरसं पुतं अनुकम्पति, उप्पन्नपरिस्सयहरणत्थमेव तस्स वायमति, एवं अनुकम्पन्तीति अत्थो । भद्रानि पस्सतीति सुन्दरानि पस्सति । १५४. उलुम्पन्ति पारगमनत्थाय आणियो कोठूत्वा कतं । कुल्लन्ति वल्लिआदीहि बन्धित्वा कतं। "ये तरन्ति अण्णव'"न्ति गाथाय अण्णवन्ति सब्बन्तिमेन परिच्छेदेन योजनमत्तं गम्भीरस्स च पुथुलस्स च उदकट्ठानस्सेतं अधिवचनं । सरन्ति इध नदी अधिप्पेता । इदं वुत्तं होति, ये गम्भीरवित्थतं तण्हासरं तरन्ति, ते अरियमग्गसङ्खातं सेतुं कत्वान । विसज्ज पल्ललानि अनामसित्वा उदकभरितानि निन्नहानानि । अयं पन इदं अप्पमत्तकं तरितुकामोपि कुल्लन्हि जनो पबन्धति । बुद्धा च बुद्धसावका च विनायेव कुल्लेन तिण्णा मेधाविनो जनाति । पठमभाणवारवण्णना निहिता । 118 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१५५-१५७) अरियसच्चकथावण्णना अरियसच्चकथावण्णना १५५. कोटिगामोति महापनादस्स पासादकोटियं कतगामो। अरियसच्चानन्ति अरियभावकरानं सच्चानं । अननुबोधाति अबुज्झनेन अजाननेन। अप्पटिवेधाति अप्पटिविज्झनेन | सन्धावितन्ति भवतो भवं गमनवसेन सन्धावितं । संसरितन्ति पुनप्पुनं गमनागमनवसेन संसरितं । ममञ्चेव तुम्हाकञ्चाति मया च तुम्हेहि च । अथ वा सन्धावितं संसरितन्ति सन्धावनं संसरणं ममञ्चेव तुम्हाकञ्च अहोसीति एममेत्थ - अत्थो वेदितब्बो । भवनेत्ति समूहताति भवतो भवं नयनसमत्था तण्हारज्जु सुटु हता छिन्ना अप्पवत्तिकता । अनावत्तिधम्मसम्बोधिपरायणवण्णना १५६. नातिकाति एकं तळाकं निस्साय द्विन्नं चूळपितुमहापितुपुत्तानं द्वे गामा । नातिकेति एकस्मिं आतिगामके । गिञ्जकावसथेति इट्टकामये आवसथे । १५७. ओरम्भागियानन्ति हेट्ठाभागियानं, कामभवेयेव पटिसन्धिग्गाहापकानन्ति अत्थो । ओरन्ति लद्धनामेहि वा तीहि मग्गेहि पहातब्बानीतिपि ओरम्भागियानि । तत्थ कामच्छन्दो, ब्यापादोति इमानि द्वे समापत्तिया वा अविक्खम्भितानि, मग्गेन वा असमुच्छिन्नानि निब्बत्तवसेन उद्धं भागं रूपभवञ्च अरूपभवञ्च गन्तुं न देन्ति । सक्कायदिट्ठिआदीनि तीणि तत्थ निब्बत्तम्पि आनेत्वा पुन इधेव निब्बत्तापेन्तीति सब्बानिपि ओरम्भागियानेव। अनावत्तिधम्माति पटिसन्धिवसेन अनागमनसभावा । रागदोसमोहानं तनुत्ताति एत्थ कदाचि करहचि उप्पत्तिया च, परियुट्ठानमन्दताय चाति द्वेधापि तनुभावो वेदितब्बो । सकदागामिस्स हि पुथुज्जनानं विय अभिण्हं रागादयो नुप्पज्जन्ति, कदाचि करहचि उप्पज्जन्ति । उप्पज्जमाना च पुथुज्जनानं विय बहलबहला नुप्पज्जन्ति, मक्खिकापत्तं विय तनुकतनुका उप्पज्जन्ति । दीघभाणकतिपिटकमहासीवत्थेरो पनाह - “यस्मा सकदागामिस्स पुत्तधीतरो होन्ति, ओरोधा च होन्ति, तस्मा बहला किलेसा । इदं पन भवतनुकवसेन कथित"न्ति । तं अट्ठकथायं - "सोतापन्नस्स सत्तभवे ठपेत्वा अट्ठमे भवे भवतनुकं नस्थि । सकदागामिस्स द्वे भवे ठपेत्वा पञ्चसु भवेसु भवतनुकं नत्थि । अनागामिस्स रूपारूपभवे ठपेत्वा कामभवे भवतनुकं नत्थि । खीणासवस्स किस्मिञ्चि भवे भवतनुकं नत्थी''ति वुत्तत्ता पटिक्खित्तं होति । 119 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१५८-१५८) इमं लोकन्ति इमं कामावचरलोकं सन्धाय वुत्तं । अयञ्चेत्थ अधिप्पायो, सचे हि मनुस्सेसु सकदागामिफलं पत्तो देवेसु निब्बत्तित्वा अरहत्तं सच्छिकरोति, इच्चेतं कुसलं । असक्कोन्तो पन अवस्सं मनुस्सलोकं आगन्त्वा सच्छिकरोति । देवेसु सकदागामिफलं पत्तोपि सचे मनुस्सेसु निब्बत्तित्वा अरहत्तं सच्छिकरोति, इच्चेतं कुसलं । असक्कोन्तो पन अवस्सं देवलोकं गन्त्वा सच्छिकरोतीति । अविनिपातधम्मोति एत्थ विनिपतनं विनिपातो, नास्स विनिपातो धम्मोति अविनिपातधम्मो । चतूसु अपायेसु अविनिपातधम्मो चतूसु अपायेसु अविनिपातसभावोति अत्थो । नियतोति धम्मनियामेन नियतो । सम्बोधिपरायणोति उपरिमग्गत्तयससाता सम्बोधि परं अयनं अस्स गति पटिसरणं अवस्सं पत्तब्बाति सम्बोधिपरायणो । धम्मादासधम्मपरियायवण्णना १५८. विहेसाति तेसं तेसं आणगतिं आणूपपत्तिं आणाभिसम्परायं ओलोकेन्तस्स कायकिलमथोव एस, आनन्द, तथागतस्साति दीपेति, चित्तविहेसा पन बुद्धानं नस्थि । धम्मादासन्ति धम्ममयं आदासं। येनाति येन धम्मादासेन समन्नागतो । खीणापायदुग्गतिविनिपातोति इदं निरयादीनंयेव वेवचनवसेन वुत्तं । निरयादयो हि वड्विसङ्घाततो अयतो अपेतत्ता अपाया। दुक्खस्स गति पटिसरणन्ति दुग्गति। ये दुक्कटकारिनो, ते एत्थ विवसा निपतन्तीति विनिपाता। __ अवेच्चप्पसादेनाति बुद्धगुणानं यथाभूततो आतत्ता अचलेन अच्चुतेन पसादेन । उपरि पदद्वयेपि एसेव नयो । इतिपि सो भगवातिआदीनं पन वित्थारो विसुद्धिमग्गे वुत्तो । __ अरियकन्तेहीति अरियानं कन्तेहि पियेहि मनापेहि। पञ्च सीलानि हि अरियसावकानं कन्तानि होन्ति, भवन्तरेपि अविजहितब्बतो। तानि सन्धायेतं वुत्तं । सब्बोपि पनेत्थ संवरो लब्भतियेव । सोतापन्नोहमस्मीति इदं देसनासीसमेव । सकदागामिआदयोपि. पन सकदागामीहमस्मीतिआदिना नयेन ब्याकरोन्ति येवाति । सब्बेसम्पि हि सिक्खापदाविरोधेन युत्तट्ठाने ब्याकरणं अनुञातमेव होति । 120 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१६१-१६१) अम्बपालीगणिकावत्थुवण्णना १२१ अम्बपालीगणिकावत्थुवण्णना १६१. वेसालियं विहरतीति एत्थ तेन खो पन समयेन वेसाली इद्धा चेव होति फीताचातिआदिना खन्धके वुत्तनयेन वेसालिया सम्पन्नभावो वेदितब्बो। अम्बपालिवनेति अम्बपालिया गणिकाय उय्यानभूते अम्बवने । सतो भिक्खवेति भगवा अम्बपालिदस्सने सतिपच्चुपट्ठानत्थं विसेसतो इध सतिपट्ठानदेसनं आरभि । तत्थ सरतीति सतो। सम्पजानातीति सम्पजानो। सतिया च सम्पज न च समन्नागतो हुत्वा विहरेय्याति अत्थो । काये कायानुपस्सीतिआदीसु यं वत्तब्ध, तं महासतिपट्ठाने वक्खाम । नीलाति इदं सब्बसङ्गाहकं । नीलवण्णातिआदि तस्सेव विभागदस्सनं । तत्थ न तेसं पकतिवण्णो नीलो, नीलविलेपनविलित्तत्ता पनेतं वुत्तं । नीलवत्थाति पटदुकूलकोसेय्यादीनिपि तेसं नीलानेव होन्ति । नीलालङ्काराति नीलमणीहि नीलपुप्फेहि अलङ्कता, रथापि तेसं नीलमणिखचिता नीलवत्थपरिस्खित्ता नीलद्धजा नीलवम्मिकेहि नीलाभरणेहि नीलअस्सेहि युत्ता, पतोदलट्ठियोपि नीला येवाति । इमिना नयेन सब्बपदेसु अत्थो वेदितब्बो । परिवट्टेसीति पहरि । किं जे अम्बपालीति जेति आलपनवचनं, भोति अम्बपालि, किं कारणाति वुत्तं होति । “किञ्चा''तिपि पाठो, अयमेवेत्थ अत्थो। साहारन्ति सजनपदं । अङ्गुलिं फोटेसुन्ति अङ्गुलिं चालेसुं। अम्बकायाति इत्थिकाय | येसन्ति करणत्थे सामिवचनं, येहि अदिठ्ठाति वुत्तं होति । ओलोकेथाति पस्सथ । अवलोकेथाति पुनप्पुनं पस्सथ । उपसंहरथाति उपनेथ । इमं लिच्छविपरिसं तुम्हाकं चित्तेन तावतिंससदिसं उपसंहरथ उपनेथ अल्लीयापेथ | यथेव तावतिंसा अभिरूपा पासादिका नीलादिनानावण्णा, एवमिमे लिच्छविराजानोपीति तावतिंसेहि समके कत्वा पस्सथाति अत्थो । कस्मा पन भगवा अनेकसतेहि सुत्तेहि चक्खादीनं रूपादीसु निमित्तग्गाहं पटिसेधेत्वा इध महन्तेन उस्साहेन निमित्तग्गाहे उय्योजेतीति ? हितकामताय । तत्र किर एकच्चे भिक्खू ओसन्नवीरिया, तेसं सम्पत्तिया पलोभेन्तो- “अप्पमादेन समणधम्मं करोन्तानं एवरूपा इस्सरियसम्पत्ति सुलभा"ति समणधम्मे उस्साहजननत्थं आह । अनिच्चलक्खणविभावनत्थञ्चापि एवमाह । नचिरस्सेव हि सब्बेपिमे अजातसत्तुस्स वसेन विनासं पापुणिस्सन्ति । अथ नेसं रज्जसिरिसम्पत्तिं दिस्वा ठितभिक्खू - "तथारूपायपि 121 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा नाम सिरिसम्पत्तिया विनासो पञ्ञायिस्सती "ति अनिच्चलक्खणं भावेत्वा सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं पापुणिस्सन्तीति अनिच्चलक्खणविभावनत्थं आह । १२२ अधिवासेतूति अम्बपालिया निमन्तितभावं ञत्वापि कस्मा निमन्तेन्तीति ? असद्दहनताय चेव वत्तसीसेन च । सा हि धुत्ता इत्थी अनिमन्तेत्वापि निमन्तेमीति वदेय्याति तेसं चित्तं अहोसि, धम्मं सुत्वा गमनकाले च निमन्तेत्वा गमनं नाम मनुस्सानं वत्तमेव । वेळुवगामवस्सूपगमनवण्णना १६३. वेळुवगामकोति वेसालिया समीपे वेळुवगामी । यथामित्तन्तिआदीसु मित्ता मित्ताव | सन्दिट्ठाति तत्थ तत्थ सङ्गम्म दिट्ठमत्ता नातिदहमित्ता । सम्भत्ताति सुदु भत्ता सिनेहवन्तो दहमित्ता । येसं येसं यत्थ यत्थ एवरूपा भिक्खू अत्थि, ते ते तत्थ तत्थ वस्सं उपेथाति अत्थो । कस्मा एवमाह ? तेसं फासुविहारत्थाय । तेसहि वेळुवगामके सेनासनं नप्पहोति, भिक्खापि मन्दा । समन्ता वेसालिया पन बहूनि सेनासनानि, भिक्खापि सुलभा, तस्मा एवमाह । अथ कस्मा - " यथासुखं गच्छथा ''ति न विस्सज्जेसि ? तेसं अनुकम्पाय । एवं किरस्स अहोसि – “अहं दसमासमत्तं ठत्वा परिनिब्बायिस्सामि, सचे इमे दूरं गच्छिस्सन्ति मम परिनिब्बानकाले दट्टु न सक्खिस्सन्ति । अथ नेसं"सत्था परिनिब्बायन्तो अम्हाकं सतिमत्तम्पि न अदासि, सचे जानेय्याम, एवं न दूरे वसेय्यामा”ति विप्पटिसारो भवेय्य । वेसालिया समन्ता पन वसन्ता मासस्स अट्ठ वारे आगन्त्वा धम्मं सुणिस्सन्ति, सुगतोवादं लभिस्सन्ती 'ति न विस्सज्जेसि । (३.१६३-१६४) १६४. खरोति फरुसो । आबाधोति विसभागरोगो । बाळ्हाति बलवतियो । मारणन्तिकाति मरणन्तं मरणसन्तिकं पापनसमत्था । सतो सम्पजानो अधिवासेसीति सतिं सूपट्ठितं कत्वा आणेन परिच्छिन्दित्वा अधिवासेसि। अविहञ्ञमानोति वेदनानुवत्तनवसेन अपरापरं परिवत्तनं अकरोन्तो अपीळियमानो अदुक्खयमानो अधिवासेसि । अनामन्तेत्वाति अजानापेत्वा । अनपलोकेत्वाति न अपलोकेत्वा ओवादानुसासनिं अदत्वाति वृत्तं होति । वीरियेनाति पुब्बभागवीरियेन चेव फलसमापत्तिवीरियेन च । पटिपणामेत्वाति विक्खम्भेत्वा । जीवितसङ्घारन्ति एत्थ जीवितम्पि जीवितसङ्घारो । येन जीवितं सङ्घरियति छिज्जमानं घटेत्वा ठपियति, सो फलसमापत्तिधम्मोपि जीवितसङ्घारो । सो इध अधिप्पेतो । 122 — Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१६५-१६५) वेळुवगामवस्सूपगमनवण्णना १२३ अधिट्ठायाति अधिट्ठहित्वा पवत्तेत्वा, जीवितट्ठपनसमत्थं फलसमापत्तिं समापज्जेय्यन्ति अयमेत्थ स पत्थो । किं पन भगवा इतो पुब्बे फलसमापत्तिं न समापज्जतीति ? समापज्जति । सा पन खणिकसमापत्ति । खणिकसमापत्ति च अन्तोसमापत्तियंयेव वेदनं विक्खम्भेति, समापत्तितो वुट्ठितमत्तस्स कट्ठपातेन वा कठलपातेन वा छिन्नसेवालो विय उदकं पुन सरीरं वेदना अज्झोत्थरति । या पन रूपसत्तकं अरूपसत्तकञ्च निग्गुम्बं निज्जट कत्वा महाविपस्सनावसेन समापन्ना समापत्ति, सा सुटु विक्खम्भेति । यथा नाम पुरिसेन पोखरणिं ओगाहेत्वा हत्थेहि च पादेहि च सुटु अपब्यूळ्हो सेवालो चिरेन उदकं ओत्थरति; एवमेव ततो वुद्वितस्स चिरेन वेदना उप्पज्जति । इति भगवा तं दिवसं महाबोधिपल्लङ्के अभिनवविपस्सनं पट्ठपेन्तो विय रूपसत्तकं अरूपसत्तकं निग्गुम्बं निज्जट कत्वा चुद्दसहाकारेहि सन्नेत्वा महाविपस्सनाय वेदनं विक्खम्भेत्वा- “दसमासे मा उप्पज्जित्था"ति समापत्तिं समापज्जि । समापत्तिविक्खम्भिता वेदना दसमासे न उप्पज्जि येव । गिलाना बुद्वितोति गिलानो हुत्वा पुन वुट्टितो । मधुरकजातो वियाति सजातगरुभावो सञ्जातथद्धभावो सूले उत्तासितपुरिसो विय । न पक्खायन्तीति नप्पकासन्ति, नानाकारतो न उपट्टहन्ति । धम्मापि मं न पटिभन्तीति सतिपट्टानादिधम्मा मय्हं पाकटा न होन्तीति दीपेति । तन्तिधम्मा पन थेरस्स सुपगुणा | न उदाहरतीति पच्छिमं ओवादं न देति । तं सन्धाय वदति । १६५. अनन्तरं अबाहिरन्ति धम्मवसेन वा पुग्गलवसेन वा उभयं अकत्वा । “एत्तकं धम्मं परस्स न देसेस्सामी"ति हि चिन्तेन्तो धम्म अब्भन्तरं करोति नाम । “एत्तकं परस्स देसेस्सामी"ति चिन्तेन्तो धम्म बाहिरं करोति नाम । “इमस्स पुग्गलस्स देसेस्सामी"ति चिन्तेन्तो पन पुग्गलं अब्भन्तरं करोति नाम । “इमस्स न देसेस्सामी"ति चिन्तेन्तो पुग्गलं बाहिरं करोति नाम । एवं अकत्वा देसितोति अत्थो । आचरियमुट्ठीति यथा बाहिरकानं आचरियमुट्ठि नाम होति । दहरकाले कस्सचि अकथेत्वा पच्छिमकाले मरणमञ्चे निपन्ना पियमनापस्स अन्तेवासिकस्स कथेन्ति, एवं तथागतस्स - "इदं महल्लककाले पच्छिमट्ठाने कथेस्सामी"ति मुढिं कत्वा “परिहरिस्सामी"ति ठपितं किञ्चि नत्थीति दस्सेति । 123 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ दीघनिकाये महावग्गट्टकथा (३.१६६-१६६) अहं भिक्खुसङ्घन्ति अहमेव भिक्खुसङ्घ परिहरिस्सामीति वा ममुद्देसिकोति अहं उद्दिसितब्बतुन उद्देसो अस्साति ममुद्देसिको। मंयेव उद्दिसित्वा मम पच्चासीसमानो भिक्खुसङ्घो होतु, मम अच्चयेन वा मा अहेसुं, यं वा तं वा होतूति इति वा यस्स अस्साति अत्थो । न एवं होतीति बोधिपल्लङ्केयेव इस्सामच्छरियानं विहतत्ता एवं न होति । स किन्ति सो किं । आसीतिकोति असीतिसंवच्छरिको । इदं पच्छिमवयअनुप्पत्तभावदीपनत्थं वुत्तं । वेठमिस्सकेनाति बाहबन्धचक्कबन्धादिना पटिसङ्खरणेन वेठमिस्सकेन । मञ्जति जिण्णसकटं विय वेठमिस्सकेन मजे यापेति । अरहत्तफलवेठनेन चतुइरियापथकप्पनं तथागतस्स होतीति दस्सेति । इदानि तमत्थं पकासेन्तो यस्मिं, आनन्द, समयेतिआदिमाह । तत्थ सब्बनिमित्तानन्ति रूपनिमित्तादीनं | एकच्चानं वेदनानन्ति लोकियानं वेदनानं । तस्मातिहानन्दाति यस्मा इमिना फलसमापत्तिविहारेन फासु होति, तस्मा तुम्हेपि तदत्थाय एवं विहरथाति दस्सेति । अत्तदीपाति महासमुद्दगतदीपं विय अत्तानं दीपं पतिहँ कत्वा विहरथ । अत्तसरणाति अत्तगतिकाव होथ, मा अञ्जगतिका । धम्मदीपधम्मसरणपदेसुपि एसेव नयो। तमतग्गेति तमअग्गे। मज्झे तकारो पदसन्धिवसेन वुत्तो। इदं वुत्तं होति- “इमे अग्गतमाति तमतग्गा''ति । एवं सब्बं तमयोगं छिन्दित्वा अतिविय अग्गे उत्तमभावे एते, आनन्द, मम भिक्खू भविस्सन्ति । तेसं अतिअग्गे भविस्सन्ति, ये केचि सिक्खाकामा, सब्बेपि ते चतुसतिपट्टानगोचराव भिक्खू अग्गे भविस्सन्तीति अरहत्तनिकूटेन देसनं सङ्गण्हाति । दुतियभाणवारवण्णना निद्विता । निमित्तोभासकथावण्णना १६६. वेसालिं पिण्डाय पाविसीति कदा पाविसि ? उक्कचेलतो निक्खमित्वा वेसालिं गतकाले | भगवा किर वुट्ठवस्सो वेळुवगामका निक्खमित्वा सावत्थिं गमिस्सामीति आगतमग्गेनेव पटिनिवत्तन्तो अनुपुब्बेन सावत्थिं पत्वा जेतवनं पाविसि । धम्मसेनापति भगवतो वत्तं दस्सेत्वा दिवाट्टानं गतो । सो तत्थ अन्तेवासिकेसु वत्तं दस्सेत्वा पटिक्कन्तेसु दिवाट्ठानं सम्मज्जित्वा चम्मक्खण्डं पञपेत्वा पादे पक्खालेत्वा पल्लवं आभुजित्वा 124 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१६६-१६६) निमित्तोभासकथावण्णना फलसमापत्तिं पाविसि । अथस्स यथापरिच्छेदेन ततो वुट्ठितस्स अयं परिवितक्को उदपादि"बुद्धा नु खो पठमं परिनिब्बायन्ति, अगसावका नु खोति ? ततो- "अग्गसावका पठम''न्ति ञत्वा अत्तनो आयुसङ्घारं ओलोकेसि । सो- “सत्ताहमेव मे आयुसङ्घारो पवत्तती 'ति ञत्वा - “कत्थ परिनिब्बायिस्सामी 'ति चिन्तेसि । ततो- “राहुलो तावतिंसेसु परिनिब्बुतो, अञ्ञासिकोण्डञ्ञत्थेरो छद्दन्तदहे, अहं कत्थ परिनिब्बास्सिामीति पुन चिन्तेन्तो मातरं आरम्भ सतिं उप्पादेसि - " मय्हं माता सत्तन्नं अरहन्तानं माता हुत्वापि बुद्धधम्मसङ्घेसु अप्पसन्ना, अत्थि नु खो तस्सा उपनिस्सयो, नत्थि नु खो’'ति आवज्जेत्वा सोतापत्तिमग्गस्स उपनिस्सयं दिस्वा - "कस्स देसनाय अभिसमयो भविस्सती 'ति ओलोकेन्तो - "ममेव धम्मदेसनाय भविस्सति, न अञ्ञस्स । सचे खो पनाहं अप्पोसुक्को भवेय्यं भविस्सन्ति मे वत्तारो - 'सारिपुत्तत्थेरो अवसेसजनानम्पि अवस्सयो होति । तथा हिस्स समचित्तसुत्तदेसनादिवसे (अ० नि० १.१.३७) कोटिसतसहस्सदेवता अरहत्तं पत्ता । तयो मग्गे पटिविद्धदेवतानं गणना नत्थि । अञ्ञेसु च ठानेसु अनेका अभिसमया दिस्सन्ति | थेरेव चित्तं पसादेत्वा सग्गे निब्बत्तानेव असीतिकुलसहस्सानि । सो दानि सकमातुमिच्छादस्सनमत्तम्पि हरितुं नासक्खी 'ति । तस्मा मातरं मिच्छादस्सना मोचेत्वा जातोवरकेयेव परिनिब्बायिस्सामी "ति सन्निट्ठानं कत्वा "अज्जेव भगवन्तं अनुजानात्वा निक्खमिस्सामीति चुन्दत्थेरं आमन्तेसि | "आवुसो, चुन्द, अम्हाकं भिक्खुपरिसाय सञ्ञ देहि - 'गण्हथावुसो पत्तचीवरानि, धम्मसेनापति नाळकगामं गन्तुकामो 'ति” । थेरो तथा अकासि । भिक्खू सेनासनं संसामेत्वा पत्तचीवरमादाय थेरस्स सन्तिकं आगमंसु । थेरो सेनासनं संसामेत्वा दिवाट्ठानं सम्मज्जित्वा दिवाट्ठानद्वारे ठत्वा दिवाट्ठानं ओलोकेन्तो- “ इदं दानि पच्छिमदस्सनं, पुन आगमनं नत्थी ति पञ्चसतभिक्खुपरिवुतो भगवन्तं उपसङ्कमित्वा वन्दित्वा एतदवोच " पञ्चसताय - “छिन्नो दानि भविस्सामि, लोकनाथ महामुनि । गमनागमनं नत्थि, पच्छिमा वन्दना अयं । । जीवितं अप्पकं मय्हं, इतो सत्ताहमच्चये । निक्खिपेय्यामहं देहं भारवोरोपनं यथा । । " अनुजानातु मे भन्ते, भगवा, अनुजानातु सुगतो । परिनिब्बानकालो मे, ओस्सट्टो आयुसङ्घारो 'ति । । 125 १२५ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१६६-१६६) बुद्धा पन यस्मा "परिनिब्बाही"ति वुत्ते मरणसंवण्णनं संवण्णेन्ति नाम, "मा परिनिब्बाही"ति वुत्ते वट्टस्स गुणं कथेन्तीति मिच्छादिट्टिका दोसं आरोपेस्सन्ति, तस्मा तदुभयम्पि न वदन्ति । तेन नं भगवा आह - "कत्थ परिनिब्बायिस्ससि सारिपुत्ता"ति ? "अस्थि, भन्ते, मगधेसु नाळकगामे जातोवरको, तत्थाहं परिनिब्बायिस्सामी"ति वुत्ते “यस्स दानि त्वं, सारिपुत्त, कालं मञ्जसि, इदानि पन ते जेट्टकनिट्ठभातिकानं तादिसस्स भिक्खुनो दस्सनं दुल्लभं भविस्सतीति देसेहि तेसं धम्म''न्ति आह। थेरो- “सत्था मय्हं इद्धिविकुब्बनपुब्बङ्गमं धम्मदेसनं पच्चासीसती"ति अत्वा भगवन्तं वन्दित्वा तालप्पमाणं अब्भुग्गन्त्वा पुन ओरुयह भगवन्तं वन्दित्वा सत्ततालप्पमाणे अन्तलिक्खे ठितो इद्धिविकुब्बनं दस्सेत्वा धम्मं देसेसि । सकलनगरं सन्निपति । थेरो ओरुय्ह भगवन्तं वन्दित्वा “गमनकालो मे, भन्ते"ति आह । भगवा "धम्मसेनापति पटिपादेस्सामी"ति धम्मासना उट्ठाय गन्धकुटिअभिमुखो गन्त्वा मणिफलके अट्ठासि । थेरो तिक्खत्तुं पदक्खिणं कत्वा चतूसु ठानेसु वन्दित्वा- “भगवा इतो कप्पसतसहस्साधिकस्स असङ्ख्येय्यस्स उपरि अनोमदस्सिसम्मासम्बुद्धस्स पादमूले निपतित्वा तुम्हाकं दस्सनं पत्थेसि । सा मे पत्थना समिद्धा, दिट्ठा तुम्हे, तं पठमदस्सनं, इदं पच्छिमदस्सनं । पुन तुम्हाकं दस्सनं नत्थी'"ति- वत्वा दसनखसमोधानसमुज्जलं अञ्जलिं पग्गयह याव दस्सनविसयो, ताव अभिमुखोव पटिक्कमित्वा “इतो पट्ठाय चुतिपटिसन्धिवसेन किस्मिञ्चि ठाने गमनागमनं नाम नत्थी'"ति वन्दित्वा पक्कामि । उदकपरियन्तं कत्वा महाभूमिचालो अहोसि । भगवा परिवारेत्वा ठिते भिक्खू आह – “अनुगच्छथ, भिक्खवे, तुम्हाकं जेठ्ठभातिक"न्ति । भिक्खू याव द्वारकोट्टका अगमंसु । थेरो- “तिठ्ठथ, तुम्हे आवुसो, अप्पमत्ता होथा''ति निवत्तापेत्वा अत्तनो परिसायेव सद्धिं पक्कामि । मनुस्सा - "पुब्बे अय्यो पच्चागमनचारिकं चरति, इदं दानि गमनं न पुन पच्चागमनाया"ति परिदेवन्ता अनुबन्धिंसु । तेपि “अप्पमत्ता होथ आवुसो, एवंभाविनो नाम सङ्खारा''ति निवत्तापेसि । अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो अन्तरामग्गे सत्ताहं मनुस्सानं अनुग्गहं करोन्तो सायं नाळकगामं पत्वा गामद्वारे निग्रोधरुक्खमूले अट्ठासि । अथ उपरेवतो नाम थेरस्स भागिनेय्यो बहिगामं गच्छन्तो थेरं दिस्वा उपसङ्कमित्वा वन्दित्वा अठ्ठासि । थेरो तं आह - "अत्थि गेहे ते अय्यिका'ति ? आम, भन्तेति । गच्छ अम्हाकं इधागतभावं आरोचेहि । "कस्मा आगतो"ति च वुत्ते “अज्ज किर एकदिवसं अन्तोगामे भविस्सति, जातोवरकं पटिजग्गथ, पञ्चन्नं भिक्खुसतानं निवासनट्ठानं जानाथा''ति । सो गन्त्वा “अय्यिके, मय्हं 126 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१६६-१६६) निमित्तोभासकथावण्णना १२७ मातुलो आगतो''ति आह । इदानि कुहिन्ति ? गामद्वारेति । एककोव, अोपि कोचि अत्थीति ? अस्थि पञ्चसता भिक्खूति । किं कारणा आगतोति ? सो तं पवत्तिं आरोचेसि । ब्राह्मणी- "किं नु खो एत्तकानं वसनट्ठानं पटिजग्गापेति, दहरकाले पब्बजित्वा महल्लककाले गिही होतुकामो"ति चिन्तेन्ती जातोवरकं पटिजग्गापेत्वा पञ्चसतानं भिक्खूनं वसनट्ठानं कारेत्वा दण्डदीपिकायो जालेत्वा थेरस्स पाहेसि । JohHHATH थेरो भिक्खूहि सद्धिं पासादं अभिरुहि । अभिरुहित्वा च जातोवरकं पविसित्वा निसीदि । निसज्जेव- "तुम्हाकं वसनट्ठानं गच्छथा''ति भिक्खू उय्योजेसि। तेसु गतमत्तेसुयेव थेरस्स खरो आबाधो उप्पज्जि, लोहितपक्खन्दिका मारणन्तिका वेदना वत्तन्ति, एकं भाजनं पविसति, एकं निक्खमति । ब्राह्मणी- "मम पुत्तस्स पवत्ति महं न रुच्चती''ति अत्तनो वसनगब्भद्वारं निस्साय अठ्ठासि । चत्तारो महाराजानो "धम्मसेनापति कुहिं विहरती"ति ओलोकेन्ता “नाळकगामे जातोवरके परिनिब्बानमञ्चे निपन्नो, पच्छिमदस्सनं गमिस्सामा"ति आगम्म वन्दित्वा अटुंसु । थेरो- के तुम्हेति ? महाराजानो, भन्तेति । कस्मा आगतत्थाति ? गिलानुपट्ठाका भविस्सामाति । होतु, अत्थि गिलानुपट्ठाको, गच्छथ तुम्हेति उय्योजेसि। तेसं गतावसाने तेनेव नयेन सक्को देवानमिन्दो, तस्मिं गते सुयामादयो महाब्रह्मा च आगमिंसु । तेपि तथैव थेरो उय्योजेसि | । ब्राह्मणी देवतानं आगमनञ्च गमनञ्च दिस्वा - “के नु खो एते मम पुत्तं वन्दित्वा गच्छन्ती"ति थेरस्स गब्भद्वारं गन्त्वा- “तात, चुन्द, का पवत्ती"ति पुच्छि । सो तं पवत्तिं आचिक्खित्वा- “महाउपासिका, भन्ते आगता"ति आह । थेरो कस्मा अवेलाय आगतत्थाति पुच्छि। सा तुम्हं तात दस्सनत्थायाति वत्वा “तात के पठमं आगता"ति पुच्छि। चत्तारो महाराजानो, उपासिकेति । तात, त्वं चतूहि महाराजेहि महन्ततरोति ? आरामिकसदिसा एते उपासिके, अम्हाकं सत्थु पटिसन्धिग्गहणतो पट्ठाय खग्गहत्था हुत्वा आरक्खं अकंसूति । तेसं तात, गतावसाने को आगतोति ? सक्को देवानमिन्दोति । देवराजतोपि त्वं तात, महन्ततरोति ? भण्डगाहकसामणेरसदिसो एस उपासिके, अम्हाकं सत्थु तावतिसतो ओतरणकाले पत्तचीवरं गहेत्वा ओतिण्णोति । तस्स तात गतावसाने जोतमानो विय को आगतोति ? उपासिके तुम्हं भगवा च सत्था च महाब्रह्मा नाम एसोति । मय्हं भगवतो महाब्रह्मतोपि त्वं तात महन्ततरोति ? आम उपासिके, एते नाम किर अम्हाकं सत्थु जातदिवसे चत्तारो महाब्रह्मानो महापुरिसं सुवण्णजालेन पटिग्गहिंसूति । 127 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१६६-१६६) अथ ब्राह्मणिया - “पुत्तस्स ताव मे अयं आनुभावो, कीदिसो वत मय्ह पुत्तस्स भगवतो सत्थु आनुभावो भविस्सती"ति चिन्तयन्तिया सहसा पञ्चवण्णा पीति उप्पज्जित्वा सकलसरीरे फरि। थेरो- “उप्पन्नं मे मातु पीतिसोमनस्सं, अयं दानि कालो धम्मदेसनाया"ति चिन्तेत्वा - "किं चिन्तेसि महाउपासिके"ति आह । सा- “पुत्तस्स ताव मे अयं गुणो, सत्थु पनस्स कीदिसो गुणो भविस्सतीति इदं, तात, चिन्तेमी"ति आह । महाउपासिके, मय्हं सत्थु जातक्खणे, महाभिनिक्खमने, सम्बोधियं, धम्मचक्कप्पवत्तने च दससहस्सिलोकधातु कम्पित्थ, सीलेन समाधिना पञाय विमुत्तिया विमुत्तित्राणदस्सनेन समो नाम नत्थि, इतिपि सो भगवाति वित्थारेत्वा बुद्धगुणप्पटिसंयुत्तं धम्मदेसनं कथेसि । ब्राह्मणी पियपुत्तस्स धम्मदेसनापरियोसाने सोतापत्तिफले पतिट्ठाय पुत्तं आह"तात, उपतिस्स, कस्मा एवमकासि, एवरूपं नाम अमतं मय्हं एत्तकं कालं न अदासी"ति । थेरो- “दिन्नं दानि मे मातु रूपसारिया ब्राह्मणिया पोसावनिकमूलं, एत्तकेन वट्टिस्सती"ति चिन्तेत्वा “गच्छ महाउपासिके"ति ब्राह्मणिं उय्योजेत्वा “चुन्द का वेला"ति आह । बलवपच्चूसकालो, भन्तेति । तेन हि भिक्खुसङ्घ सन्निपातेहीति । सन्निपतितो, भन्ते, सङ्घोति । मं उक्खिपित्वा निसीदापेहि चुन्दाति उक्खिपित्वा निसीदापेसि । थेरो भिक्खू आमन्तेसि – “आवुसो चतुचत्तालीसं वो वस्सानि मया सद्धिं विचरन्तानं यं मे कायिकं वा वाचसिकं वा न रोचेथ, खमथ तं आवुसोति । एत्तकं, भन्ते, अम्हाकं छाया विय तुम्हे अमुञ्चित्वा विचरन्तानं अरुच्चनकं नाम नत्थि, तुम्हे पन अम्हाकं खमथाति । अथ थेरो अरुणसिखाय पञ्जायमानाय महापथविं उन्नादयन्तो अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायि | बहू देवमनुस्सा थेरस्स परिनिब्बाने सक्कारं करिंसु । आयस्मा चुन्दो थेरस्स पत्तचीवरञ्च धातुपरिस्सावनञ्च गहेत्वा जेतवनं गन्त्वा आनन्दत्थेरं गहेत्वा भगवन्तं उपसङ्कमि । भगवा धातुपरिस्तावनं गहेत्वा पञ्चहि गाथासतेहि थेरस्स गुणं कथेत्वा धातुचेतियं कारापेत्वा राजगहगमनत्थाय आनन्दत्थेरस्स सधे अदासि | थेरो भिक्खूनं आरोचेसि । भगवा महाभिक्खुसङ्घपरिवुतो राजगहं अगमासि । तत्थ गतकाले महामोग्गल्लानत्थेरो परिनिब्बायि | भगवा तस्स धातुयो गहेत्वा चेतियं कारापेत्वा राजगहतो निक्खमित्वा अनुपुब्बेन गङ्गाभिमुखो गन्त्वा उक्कचेलं अगमासि । तत्थ गङ्गातीरे भिक्खुसङ्घपरिवुतो निसीदित्वा तत्थ सारिपुत्तमोग्गल्लानानं परिनिब्बानप्पटिसंयुत्तं सुत्तं देसेत्वा उक्कचेलतो निक्खमित्वा वेसालिं अगमासि। एवं गते अथ खो भगवा 128 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१६७-१६७) निमित्तोभासकथावण्णना १२९ पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय वेसालिं पिण्डाय पाविसीति अयमेत्थ अनुपुब्बी कथा। निसीदनन्ति एत्थ चम्मक्खण्डं अधिप्पेतं । उदेनचेतियन्ति उदेनयक्खस्स चेतियट्ठाने कतविहारो वुच्चति । गोतमकादीसुपि एसेव नयो। भाविताति वड्डिता । बहुलीकताति पुनप्पुनं कता। यानीकताति युत्तयानं विय कता । वत्थुकताति पतिट्ठानद्वेन वत्थु विय कता। अनुट्टिताति अधिट्ठिता । परिचिताति समन्ततो चिता सुवड्डिता । सुसमारद्धाति सुट्ठ समारद्धा। ___ इति अनियमेन कथेत्वा पुन नियमेत्वा दस्सेन्तो तथागतस्स खोतिआदिमाह । एत्थ च कप्पन्ति आयुकप्पं । तस्मिं तस्मिं काले यं मनुस्सानं आयुप्पमाणं होति, तं परिपुण्णं करोन्तो तिट्टेय्य | कप्पावसेसं वाति- “अप्पं वा भिय्यो"ति (दी० नि० २.७; अ० नि० २.६.७४) वुत्तवस्ससततो अतिरेकं वा । महासीवत्थेरो पनाह - "बुद्धानं अट्ठाने गज्जितं नाम नत्थि। यथेव हि वेळुवगामके उप्पन्नं मारणन्तिकं वेदनं दस मासे विक्खम्भेति, एवं पुनप्पुनं तं समापत्तिं समापज्जित्वा दस दस मासे विक्खम्भेन्तो इमं भद्दकप्पमेव तिठेय्य, कस्मा पन न ठितोति ? उपादिन्नकसरीरं नाम खण्डिच्चादीहि अभिभुय्यति, बुद्धा च खण्डिच्चादिभावं अपत्वा पञ्चमे आयुकोट्ठासे बहुजनस्स पियमनापकालेयेव परिनिब्बायन्ति । बुद्धानुबुद्धेसु च महासावकेसु परिनिब्बुतेसु एककेनेव खाणुकेन विय ठातब्बं होति, दहरसामणेरपरिवारितेन वा। ततो- 'अहो बुद्धानं परिसा'ति हीळेतब्बतं आपज्जेय्य । तस्मा न ठितो''ति । एवं वुत्तेपि सो न रुच्चति, "आयुकप्पो'"ति इदमेव अट्ठकथायं नियमितं । १६७. यथा तं मारेन परियुद्वितचित्तोति एत्थ तन्ति निपातमत्तं । यथा मारेन परियुट्टितचित्तो अज्झोत्थटचित्तो अझोपि कोचि पुथुज्जनो पटिविज्झितुं न सक्कुणेय्य, एवमेव नासक्खि पटिविज्झितुन्ति अत्थो। किं कारणा ? मारो हि यस्स सब्बेन सब्बं द्वादस विपल्लासा अप्पहीना, तस्स चित्तं परियुट्टाति । थेरस्स चत्तारो विपल्लासा अप्पहीना, तेनस्स मारो चित्तं परियुट्ठाति । सो पन चित्तपरियुट्टानं करोन्तो किं करोतीति ? भेरवं रूपारम्मणं वा दस्सेति, सद्दारम्मणं वा सावेति, ततो सत्ता तं दिस्वा वा सुत्वा वा सतिं विस्सज्जेत्वा विवटमुखा होन्ति । तेसं मुखेन हत्थं पवेसेत्वा हदयं मद्दति। ततो विसाव हुत्वा तिट्ठन्ति। थेरस्स पनेस मुखेन हत्थं पवेसेतुं किं 129 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा सक्खिस्सति ? भेरवारम्मणं पन दस्सेति । तं दिस्वा थेरो निमित्तोभासं न पटिविज्झि । भगवा जानन्तोयेव – “किमत्थं यावततियं आमन्तेसी" ति ? परतो " तिट्ठतु, भन्ते, भगवा "ति याचिते "तुम्हेवेतं दुक्कटं, अपरद्ध "न्ति दोसारोपनेन सोकतनुकरणत्थं । तुम्हेवेतं १३० मारयाचनकथावण्णना १६८. मारो पापिमाति एत्थ मारोति सत्ते अनत्थे नियोजेन्तो मारेतीति मारो । पापिमाति तस्सेव वेवचनं । सो हि पापधम्मसमन्नागतत्ता " पापिमा "ति वुच्चति । कण्हो, अन्तको, नमुचि, पमत्तबन्धूतिपि तस्सेव नामानि । भासिता खो पनेसाति अयहि भगवतो सम्बोधिपत्तिया अट्ठमे सत्ताहे बोधिमण्डेयेव आगन्त्वा – “भगवा यदत्थं तुम्हेहि पारमियो पूरिता, सो वो अत्थो अनुप्पत्तो, पटिविद्धं सब्बञ्जतञ्ञणं, किं ते लोकविचारणेनाति वत्वा, यथा अज्ज, एवमेव "परिनिब्बातु दानि, भन्ते, भगवा "ति याचि । भगवा चस्स "न तावाह "न्तिआदीनि वत्वा पटिक्खिपि । तं सन्धाय " भासिता खो पनेसा भन्ते "तिआदिमाह । - तत्थ वियत्ताति मग्गवसेन वियत्ता । तथेव विनीता तथा विसारदा । बहुस्सु तेपिटकवसेन बहु सुतमेतेसन्ति बहुस्सुता । तमेव धम्मं धारेन्तीति धम्मधरा । अथवा परियत्तिबहुस्सुता चेव पटिवेधबहुस्सुता च । परियत्तिपटिवेधधम्मानंयेव धारणतो धम्मधराति एवमेत्थ अत्थो दट्ठब्बो । धम्मानुधम्मपटिपन्नाति अरियधम्मस्स अनुधम्मभूतं विपस्सनाधम्मं पटिपन्ना । सामीचिप्पटिपन्नाति अनुच्छविकपटिपदं पटिपन्ना । अनुधम्मचारिनोति अनुधम्मचरणसीला । सकं आचरियकन्ति अत्तनो आचरियवादं । आचिक्खिस्सन्तीतिआदीनि सब्बानि अञ्ञमञ्ञस्स वेवचनानि । सहधम्मेनाति सहेतुकेन सकारणेन वचनेन । सप्पाटिहारियन्ति याव न निय्यानिकं कत्वा धम्मं देसेस्सन्ति । (३.१६८-१६८) ब्रह्मचरियन्ति सिक्खत्तयसङ्गहितं सकलं सासनब्रह्मचरियं । इद्धन्ति समिद्धं झानस्सादवसेन । फीतन्ति वुद्धिप्पत्तं सब्बफालिफुल्लं विय अभिज्ञाय सम्पत्तिवसेन । वित्थारिकन्ति वित्थतं तस्मिं तस्मिं दिसाभागे पतिट्ठितवसेन । बाहुजञ्जन्ति बहुजनेहि आतं पटिविद्धं महाजनाभिसमयवसेन । पुथुभूतन्ति सब्बाकारवसेन पुथुलभावप्पत्तं । कथं ? याव 130 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१६९-१६९) आयुसङ्खारओस्सज्जनवण्णना १३१ देवमनुस्सेहि सुप्पकासितन्ति यतका वि जातिका देवा चेव मनुस्सा च अस्थि सब्बेहि सुट्ठ पकासितन्ति अत्थो। अप्पोस्सुक्कोति निरालयो। त्वहि पापिम, अट्ठमसत्ताहतो पट्ठाय - “परिनिब्बातु दानि, भन्ते, भगवा परिनिब्बातु, सुगतो"ति विरवन्तो आहिण्डित्थ । अज्ज दानि पट्ठाय विगतुस्साहो होहि; मा महं परिनिब्बानत्थं वायामं करोहीति वदति। आयुसङ्खारओस्सज्जनवण्णना १६९. सतो सम्पजानो आयुसवारं ओस्सजीति सतिं सूपट्टितं कत्वा आणेन परिच्छिन्दित्वा आयुसङ्घारं विस्सज्जि, पजहि । तत्थ न भगवा हत्थेन लेड्डु विय आयुसङ्खारं ओस्सजि, तेमासमत्तमेव पन समापत्तिं समापज्जित्वा ततो परं न समापज्जिस्सामीति चित्तं उप्पादेसि । तं सन्धाय वुत्तं- “ओस्सजी''ति। "उस्सज्जी"ति पि पाठो । महाभूमिचालोति महन्तो पथवीकम्पो। तदा किर दससहस्सी लोकधातु कम्पित्थ । भिंसनकोति भयजनको । देवदुन्दुभियो च फलिंसूति देवभेरियो फलिंसु, देवो सुक्खगज्जितं गज्जि, अकालविज्जुलता निच्छरिंसु, खणिकवस्सं वस्सीति वुत्तं होति । उदानं उदानेसीति कस्मा उदानेसि ? कोचि नाम वदेय्य - "भगवा पच्छतो पच्छतो अनुबन्धित्वा - ‘परिनिब्बायथ, भन्ते, परिनिब्बायथ, भन्ते'ति उपद्दुतो भयेन आयुसङ्खारं विस्सज्जेसी''ति। "तस्सोकासो मा होतु, भीतस्स उदानं नाम नत्थी''ति एतस्स दीपनत्थं पीतिवेगविस्सलु उदानं उदानेसि । तत्थ सब्बेसं सोणसिङ्गालादीनम्पि पच्चक्खभावतो तुलितं परिच्छिन्नन्ति तुलं । किं तं? कामावचरकम्मं । न तुलं, न वा तुलं सदिसमस्स अचं लोकियं कम्मं अत्थीति अतुलं। किं तं ? महग्गतकम्मं । अथवा कामावचररूपावचरं तुलं, अरूपावचरं अतुलं । अप्पविपाकं वा तुलं, बहुविपाकं अतुलं । सम्भवन्ति सम्भवस्स हेतुभूतं, पिण्डकारकं रासिकारकन्ति अत्थो । भवसङ्खारन्ति पुनब्भवसङ्खारणकं । अवस्सजीति विस्सज्जेसि । मुनीति बुद्धमुनि । अज्झत्तरतोति नियकज्झत्तरतो । समाहितोति उपचारप्पनासमाधिवसेन समाहितो । अभिन्दि कवचमिवाति कवचं विय अभिन्दि । अत्तसम्भवन्ति अत्तनि सञ्जातं किलेसं । इदं वुत्तं होति- “सविपाकट्ठन सम्भवं, भवाभिसङ्घारणढेन भवसङ्खारन्ति च लद्धनामं 131 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा ( ३.१७१ - १७१) तुलातुलसङ्घातं लोकियकम्मञ्च ओस्सजि । सङ्गामसीसे महायोधो कवचं विय असम्भवं किलेसञ्च अज्झत्तरतो समाहितो हुत्वा अभिन्दी 'ति । १३२ अथ वा तुलन्ति तुलेन्तो तीरेन्तो । अतुलञ्च सम्भवन्ति निब्बानञ्चेव सम्भवञ्च । भवसङ्घारन्ति भवगामिकम्मं । अवस्सजि मुनीति “पञ्चक्खन्धा अनिच्चा, पञ्चन्नं खन्धानं निरोधो निब्बानं निच्च "न्तिआदिना (पटि० म० ३.३८) नयेन तुलयन्तो बुद्धमुनि भवे आदीनवं, निब्बाने च आनिसंसं दिस्वा तं खन्धानं मूलभूतं भवसङ्घारकम्मं - "कम्मक्खयाय संवत्तती 'ति (म० नि० २.८१) एवं वृत्तेन कम्मक्खयकरेन अरियमग्गेन अवस्सजि । कथं ? अज्झत्तरतो समाहितो अभिन्दि कवचमिव अत्तनि सम्भवं । सो हि विपस्सनावसेन अज्झत्तरतो समथवसेन समाहितोति एवं पुब्बभागतो पट्ठाय समथविपस्सनाबलेन कवचमिव अत्तभावं परियोनन्धित्वा ठितं, अत्तनि सम्भवत्ता " अत्तसम्भवन्ति लद्धनामं सब्बकिलेसजालं अभिन्दि । किलेसाभावेन च कतकम्मं अप्पटिसन्धिकत्ता अवस्सङ्कं नाम होतीति एवं किलेसप्पहानेन कम्मं पजहि, पहीनकिलेसस्स च भयं नाम नत्थि, तस्मा अभीतोव आयुसङ्घारं ओस्सजि, अभीतभावञापनत्थञ्च उदानं उदासीति वेदितब्बो । महाभूमिचालवण्णना १७१. यं महावाताति येन समयेन यस्मिं वा समये महावाता वायन्ति, महावाता वायन्तापि उक्खेपकवाता नाम उट्ठहन्ति, ते वायन्ता सट्ठिसहस्साधिकनवयोजनसतसहस्सबहलं उदकसन्धारकं वातं उपच्छिन्दन्ति, ततो आकासे उदकं भस्सति, तस्मिं भस्सन्ते पथवी भस्सति । पुन वातो अत्तनो बलेन अन्तोधमकरणे विय उदकं आबन्धित्वा गण्हाति, ततो उदकं उग्गच्छति, तस्मिं उग्गच्छन्ते पथवी उग्गच्छति । एवं उदकं कम्पितं पथविं कम्पेति । एतञ्च कम्पनं याव अज्जकालापि होतियेव, बहलभावेन पन न ओगच्छनुग्गच्छनं पञ्ञायति । महिद्धिको महानुभावोति इज्झनस्स महन्तताय महिद्धिको अनुभवितब्बस्स महन्तताय महानुभावो । परित्ताति दुब्बला । अप्पमाणाति बलवा । सो इमं पथविं कम्पेतीति सो इद्धिं निब्बत्तेत्वा संवेजेन्तो महामोग्गल्लानो विय, वीमंसन्तो वा महानागत्थेरस्स भागिनेय्यो सङ्घरक्खितसामणेरो विय पथविं कम्पेति । सो किरायस्मा खुरग्गेयेव अरहत्तं पत्वा 132 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१७१-१७१) महाभूमिचालवण्णना १३३ चिन्तेसि - “अस्थि नु खो कोचि भिक्खु, येन पब्बजितदिवसेयेव अरहत्तं पत्वा वेजयन्तो पासादो कम्पितपुब्बो"ति ? ततो- “नत्थि कोची"ति ञत्वा- “अहं कम्पेस्सामी"ति अभिञाबलेन वेजयन्तमत्थके ठत्वा पादेन पहरित्वा कम्पेतुं नासक्खि । अथ नं सक्कस्स नाटकित्थियो आहेसु - "पुत्त सङ्घरक्खित, त्वं पूतिगन्धेनेव सीसेन वेजयन्तं कम्पेतुं इच्छसि, सुप्पतिट्टितो तात पासादो, कथं कम्पेतुं सक्खिस्ससी''ति ? सामणेरो- “इमा देवता मया सद्धिं केळिं करोन्ति, अहं खो पन आचरियं नालत्थं, कहं नु खो मे आचरियो सामुद्दिकमहानागत्थेरो''ति आवज्जेन्तो महासमुद्दे उदकलेणं मापेत्वा दिवाविहारं निसिन्नोति अत्वा तत्थ गन्त्वा थेरं वन्दित्वा अट्ठासि । ततो नं थेरो- "किं, तात सङ्घरक्खित, असिक्खित्वाव युद्धं पविठ्ठोसी"ति वत्वा "नासक्खि, तात, वेजयन्तं कम्पेतु"न्ति पुच्छि । आचरियं, भन्ते, नालत्थन्ति । अथ नं थेरो- “तात तुम्हादिसे अकम्पेन्ते को अञ्जो कम्पेस्सति । दिट्ठपुब्बं ते, तात, उदकपिढे गोमयखण्डं पिलवन्तं, तात, कपल्लकपूर्व पचन्ता अन्तन्तेन परिच्छिन्दन्ति, इमिना ओपम्मेन जानाही''ति आह । सो.- “वट्टिस्सति, भन्ते, एत्तकेना"ति वत्वा पासादेन पतिहितोकासं उदकं होतूति अधिट्ठाय वेजयन्ताभिमुखो अगमासि । देवधीतरो तं दिस्वा – “एकवारं लज्जित्वा गतो, पुनपि सामणेरो एति, पुनपि एती''ति वदिसु । सक्को देवराजा - “मा मम्हं पुत्तेन सद्धिं कथयित्थ, इदानि तेन आचरियो लद्धो, खणेन पासादं कम्पेस्सती"ति आह । सामणेरोपि पादङ्गुटेन पासादथूपिकं पहरि । पासादो चतूहि दिसाहि ओणमति । देवता - “पतिट्ठातुं देहि, तात, पासादस्स पतिट्ठातुं देहि, तात, पासादस्सा"ति विरविंसु । सामणेरो पासादं यथाठाने ठपेत्वा पासादमत्थके ठत्वा उदानं उदानेसि - "अज्जेवाहं पब्बजितो, अज्ज पत्तासवक्खयं । अज्ज कम्पेमि पासादं, अहो बुद्धस्सुळारता ।। अज्जेवाहं पब्बजितो...पे०... अहो धम्मस्सुळारता ।। अज्जेवाहं पब्बजितो...पे०... अहो सङ्घस्सुळारताति ।। 133 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१७२-१७२) इतो परेसु छसु पथवीकम्पेसु यं वत्तब्बं, तं महापदाने वुत्तमेव । इति इमेसु अट्ठसु पथवीकम्पेसु पठमो धातुकोपेन, दुतियो इद्धानुभावेन, ततियचतुत्था पुञतेजेन, पञ्चमो आणतेजेन, छट्ठो साधुकारदानवसेन, सत्तमो कारुञभावेन, अट्ठमो आरोदनेन । मातुकुच्छिं ओक्कमन्ते च ततो निक्खमन्ते च महासत्ते तस्स पुञतेजेन पथवी अकम्पित्थ । अभिसम्बोधियं आणतेजेन अभिहता हुत्वा अकम्पित्थ । धम्मचक्कप्पवत्तने साधुकारभावसण्ठिता साधुकारं ददमाना अकम्पित्थ । आयुसङ्खारोस्सज्जने कारुञसभावसण्ठिता चित्तसङ्खोभं असहमाना अकम्पित्थ । परिनिब्बाने आरोदनवेगतुन्ना हुत्वा अकम्पित्थ । अयं पनत्थो पथवीदेवताय वसेन वेदितब्बो, महाभूतपथविया पनेतं नत्थि अचेतनत्ताति । इमे खो, आनन्द, अट्ट हेतूति एत्थ इमेति निद्दिट्टनिदस्सनं । एत्तावता च पनायस्मा आनन्दो – “अद्धा अज्ज भगवता आयुसङ्खारो ओस्सट्ठो"ति सल्लक्खेसि । भगवा पन सल्लक्खितभावं जानन्तोपि ओकासं अदत्वाव अञ्जानिपि अट्टकानि सम्पिण्डेन्तो- “अट्ठ खो इमा"तिआदिमाह । अट्ठपरिसवण्णना १७२. तत्थ अनेकसतं खत्तियपरिसन्ति बिम्बिसारसमागमञातिसमागमलिच्छवीसमागमादिसदिसं, सा पन अझेसु चक्कवाळेसुपि लब्भतेयेव । सल्लपितपुब्बन्ति आलापसल्लापो कतपुब्बो | साकच्छाति धम्मसाकच्छापि समापज्जितपुब्बा। यादिसको तेसं वण्णोति ते ओदातापि होन्ति काळापि मङ्गुरच्छवीपि, सत्था सुवण्णवण्णोव । इदं पन सण्ठानं पटिच्च कथितं । सण्ठानम्पि च केवलं तेसं पायतियेव, न पन भगवा मिलक्खुसदिसो होति, नापि आमुत्तमणिकुण्डलो, बुद्धवेसेनेव निसीदति । ते पन अत्तनो समानसण्ठानमेव पस्सन्ति । यादिसको तेसं सरोति ते छिन्नस्सरापि होन्ति गग्गरस्सरापि काकस्सरापि, सत्था ब्रह्मस्सरोव । इदं पन भासन्तरं सन्धाय कथितं । सचेपि हि सत्था राजासने निसिन्नो कथेति, “अज्ज राजा मधुरेन सरेन कथेती"ति तेसं होति । कथेत्वा पक्कन्ते पन भगवति पुन राजानं आगतं दिस्वा -- “को नु खो अय''न्ति वीमंसा उप्पज्जति । तत्थ को नु खो अयन्ति इमस्मिं ठाने इदानेव मागधभासाय सीहळभासाय मधुरेनाकारेन कथेन्तो को नु खो अयं अन्तरहितो, किं देवो, उदाहु मनुस्सोति एवं 134 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१७३-१७३) अट्ठअभिभायतनवण्णना वीमंसन्तापि न जानन्तीति अत्थो। किमत्थं पनेवं अजानन्तानं धम्मं देसेतीति ? वासनत्थाय । एवं सुतोपि हि धम्मो अनागते पच्चयो होति येवाति अनागतं पटिच्च देसेति । अनेकसतं ब्राह्मणपरिसन्तिआदीनम्पि सोणदण्डकूटदण्डसमागमादिवसेन चेव अञचक्कवाळवसेन च सम्भवो वेदितब्बो । इमा पन अट्ठ परिसा भगवा किमत्थं आहरि ? अभीतभावदस्सनत्थमेव । इमा किर आहरित्वा एवमाह - "आनन्द, इमापि अट्ठ परिसा उपसङ्कमित्वा धम्म देसेन्तस्स तथागतस्स भयं वा सारज्जं वा नत्थि, मारं पन एककं दिस्वा तथागतो भायेय्याति को एवं सञ्जे उप्पादेतुमरहति । अभीतो, आनन्द, तथागतो अच्छम्भी, सतो सम्पजानो आयुसङ्खारं ओस्सजी''ति । अट्ठअभिभायतनवण्णना १७३. अभिभायतनानीति अभिभवनकारणानि । किं अभिभवन्ति ? पच्चनीकधम्मपि आरम्मणानिपि । तानि हि पटिपक्खभावेन पच्चनीकधम्मे अभिभवन्ति, पुग्गलस्स आणुत्तरियताय आरम्मणानि । अज्झत्तं रूपसञ्जीतिआदीसु पन अज्झत्तरूपे परिकम्मवसेन अज्झत्तं रूपसझी नाम होति । अज्झत्तहि नीलपरिकम्मं करोन्तो केसे वा पित्ते वा अक्खितारकाय वा करोति । पीतपरिकम्मं करोन्तो मेदे वा छविया वा हत्थपादपिट्टेसु वा अक्खीनं पीतकट्ठाने वा करोति । लोहितपरिकम्मं करोन्तो मंसे वा लोहिते वा जिव्हाय वा अक्खीनं रत्तट्ठाने वा करोति । ओदातपरिकम्मं करोन्तो अट्ठिम्हि वा दन्ते वा नखे वा अक्खीनं सेतवाने वा करोति । तं पन सुनीलं सुपीतं सुलोहितकं सुओदातकं न होति, अविसुद्धमेव होति । एको बहिद्धा रूपानि पस्सतीति यस्सेवं परिकम्मं अज्झत्तं उप्पन्नं होति, निमित्तं पन बहिद्धा, सो एवं अज्झत्तं परिकम्मस्स बहिद्धा च अप्पनाय वसेन - "अज्झत्तं रूपसञ्जी एको बहिद्धा रूपानि पस्सती"ति वुच्चति । परित्तानीति अवड्डितानि । सुवण्णदुब्बण्णानीति सुवण्णानि वा होन्ति, दुब्बण्णानि वा । परित्तवसेनेव इदं अभिभायतनं वुत्तन्ति वेदितब् । तानि अभिभुय्याति यथा नाम सम्पन्नगहणिको कटच्छुमत्तं भत्तं लभित्वा- “किं एत्थ भुञ्जितब्बं अत्थी''ति सङ्कड्डित्वा एककबळमेव करोति, एवमेव आणुत्तरिको पुग्गलो 135 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१७३-१७३) विसदत्राणो- “किं एत्थ परित्तके आरम्मणे समापज्जितब्बं अत्थि, नायं मम भारो"ति तानि रूपानि अभिभवित्वा समापज्जति, सह निमित्तुप्पादेनेवेत्थ अप्पनं पापेतीति अत्थो । जानामि पस्सामीति इमिना पनस्स आभोगो कथितो । सो च खो समापत्तितो वुट्टितस्स, न अन्तोसमापत्तियं । एवंसजी होतीति आभोगसञ्जायपि झानसज्ञायपि एवंसजी होति । अभिभवनसज्ञा हिस्स अन्तोसमापत्तियम्पि अत्थि, आभोगसञा पन समापत्तितो वुट्टितस्सेव । अप्पमाणानीति वड्डितप्पमाणानि, महन्तानीति अत्थो । अभिभुय्याति एत्थ पन यथा महग्घसो पुरिसो एकं भत्तवड्डितकं लभित्वा - “अञम्पि होतु, किं एतं मय्हं करिस्सती"ति तं न महन्ततो पस्सति, एवमेव आणुत्तरो पुग्गलो विसदत्राणो “किं एत्थ समापज्जितब्ब, नयिदं अप्पमाणं, न मय्ह चित्तेकग्गताकरणे भारो अत्थी'ति तानि अभिभवित्वा समापज्जति, सह निमित्तुप्पादेनेवेत्थ अप्पनं पापेतीति अत्थो । अज्झतं अरूपसञीति अलाभिताय वा अनत्थिकताय वा अज्झत्तरूपे परिकम्मसाविरहितो। ____एको बहिद्धा रूपानि पस्सतीति यस्स परिकम्मम्पि निमित्तम्पि बहिद्धाव उप्पन्नं, सो एवं बहिद्धा परिकम्मस्स चेव अप्पनाय च वसेन - "अज्झत्तं अरूपसञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सती"ति वुच्चति । सेसमेत्थ चतुत्थाभिभायतने वुत्तनयमेव । इमेसु पन चतूसु परित्तं वितक्कचरितवसेन आगतं, अप्पमाणं मोहचरितवसेन, सुवण्णं दोसचरितवसेन, दुब्बण्णं रागचरितवसेन । एतेसहि एतानि सप्पायानि । सा च नेसं सप्पायता वित्थारतो विसुद्धिमग्गे चरितनिद्देसे वुत्ता। पञ्चमअभिभायतनादीसु नीलानीति सब्बसङ्गाहकवसेन वुत्तं । नीलवण्णानीति वण्णवसेन । नीलनिदस्सनानीति निदस्सनवसेन, अपाय मानविवरानि असम्भिन्नवण्णानि एकनीलानेव हुत्वा दिस्सन्तीति वुत्तं होति । नीलनिभासानीति इदं पन ओभासवसेन वुत्तं, नीलोभासानि नीलप्पभायुत्तानीति अत्थो । एतेन नेसं विसुद्धतं दस्सेति । विसुद्धवण्णवसेनेव हि इमानि चत्तारि अभिभायतनानि वुत्तानि । उमापुष्फन्ति एतहि पुर्फ सिनिद्धं मुदु, दिस्समानम्पि नीलमेव होति। गिरिकण्णिकपुप्फादीनि पन दिस्समानानि सेतधातुकानेव होन्ति । तस्मा इदमेव गहितं, न तानि | बाराणसेय्यकन्ति बाराणसिसम्भवं । तत्थ किर 136 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१७४-१७८) अविमोक्खवण्णना १३७ कप्पासोपि मुदु, सुत्तकन्तिकायोपि तन्तवायापि छेका, उदकम्पि सुचि सिनिद्धं । तस्मा तं वत्थं उभतोभागविमर्ल्ड होति; द्वीसुपि पस्सेसु मटुं मुदु सिनिद्धं खायति । पीतानीतिआदीसुपि इमिनाव नयेन अत्थो वेदितब्बो। “नीलकसिणं उग्गण्हन्तो नीलस्मिं निमित्तं गण्हाति पुप्फस्मिं वा वत्थस्मिं वा वण्णधातुया वा"तिआदिकं पनेत्थ कसिणकरणञ्च परिकम्मञ्च अप्पनाविधानञ्च सब्बं विसुद्धिमग्गे वित्थारतो वुत्तमेव । इमानिपि अट्ठ अभिभायतनानि अभीतभावदस्सनत्थमेव आनीतानि । इमानि किर वत्वा एवमाह - “आनन्द, एवरूपापि समापत्तियो समापज्जन्तस्स च वुट्टहन्तस्स च तथागतस्स भयं वा सारज्जं वा नत्थि, मारं पन एककं दिस्वा तथागतो भायेय्याति को एवं सनं उप्पादेतुमरहति । अभीतो, आनन्द, तथागतो अच्छम्भी, सतो सम्पजानो आयुसङ्खारं ओस्सजी''ति । अट्ठविमोक्खवण्णना १७४. विमोक्खकथा उत्तानत्थायेव । इमेपि अट्ठ विमोक्खा अभीतभावदस्सनत्थमेव आनीता । इमेपि किर वत्वा एवमाह - "आनन्द, एतापि समापत्तियो समापज्जन्तस्स च वुट्टहन्तस्स च तथागतस्स भयं वा सारज्जं वा नत्थि...पे०... ओस्सजी''ति ।। १७५. इदानिपि भगवा आनन्दस्स ओकासं अदत्वाव एकमिदाहन्तिआदिना नयेन अपरम्प देसनं आरभि । तत्थ पठमाभिसम्बुद्धोति अभिसम्बुद्धो हुत्वा पठममेव अट्ठमे सत्ताहे। १७७. ओस्सट्ठोति विस्सज्जितो परिच्छिन्नो, एवं किर वत्वा - "तेनायं दससहस्सी लोकधातु कम्पित्था''ति आह । आनन्दयाचनकथा १७८. अलन्ति पटिक्खेपवचनमेतं । बोधिन्ति चतुमग्गाणपटिवेषं । सद्दहसि त्वन्ति एवं वुत्तभावं तथागतस्स सद्दहसीति वदति । तस्मातिहानन्दाति यस्मा इदं वचनं सद्दहसि, तस्मा तुम्हेवेतं दुक्कटन्ति दस्सेति । 137 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१७९-१८६) १७९. एकमिदाहन्ति इदं भगवा-- “न केवलं अहं इधेव तं आमन्तेसिं, अञदापि आमन्तेत्वा ओळारिकं निमित्तं अकासिं, तम्पि तया न पटिविद्धं, तवेवायं अपराधोति एवं सोकविनोदनत्थाय नानप्पकारतो थेरस्सेव दोसारोपनत्थं आरभि । १८३. पियेहि मनापेहीति मातापितामाताभगिनिआदिकेहि जातिया नानाभावो, मरणेन विनाभावो, भवेन अञ्जथाभावो। तं कुतेत्थ लन्भाति तन्ति तस्मा, यस्मा सब्बेहेव पियेहि मनापेहि नानाभावो, तस्मा दस पारमियो पूरेत्वापि, सम्बोधिं पत्वापि, धम्मचक्कं पवत्तेत्वापि, यमकपाटिहारियं दस्सेत्वापि, देवोरोहणं कत्वापि, यं तं जातं भूतं सङ्खतं पलोकधम्मं, तं वत तथागतस्सापि सरीरं मा पलुज्जीति नेतं ठानं विज्जति, रोदन्तेनापि कन्दन्तेनापि न सक्का तं कारणं लद्धन्ति । पुन पच्चावमिस्सतीति यं चत्तं वन्तं, तं वत पुन पटिखादिस्सतीति अत्थो । १८४. यथयिदं ब्रह्मचरियन्ति यथा इदं सिक्खात्तयसङ्गहं सासनब्रह्मचरियं । अद्धनियन्ति अद्धानक्खमं । चिरद्वितिकन्ति चिरप्पवत्तिवसेन चिरट्ठितिकं। चत्तारो सतिपट्ठानातिआदि सब्बं लोकियलोकुत्तरवसेनेव कथितं । एतेसं पन बोधिपक्खियानं धम्मानं विनिच्छयो सब्बाकारेन विसुद्धिमग्गे पटिपदाजाणदस्सनविसुद्धिनिद्देसे वुत्तो। सेसमेत्थ उत्तानमेवाति । ततियभाणवारवण्णना निहिता - नागापलोकितवण्णना १८६. नागापलोकितन्ति यथा हि महाजनस्स अट्ठीनि कोटिया कोटिं आहच्च ठितानि पच्चेकबुद्धानं, अङ्कुसकलग्गानि विय, न एवं बुद्धानं । बुद्धानं पन सङ्खलिकानि विय एकाबद्धानि हुत्वा ठितानि, तस्मा पच्छतो अपलोकनकाले न सक्का होति गीवं परिवत्तेतुं । यथा पन हत्थिनागो पच्छाभागं अपलोकेतुकामो सकलसरीरेनेव परिवत्तति, एवं परिवत्तितब्बं होति । भगवतो पन नगरद्वारे ठत्वा - “वेसालिं अपलोकेस्सामी"ति चित्ते उप्पन्नमत्ते – “भगवा अनेकानि कप्पकोटिसहस्सानि पारमियो पूरेन्तेहि तुम्हेहि न गीवं 138 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुमहापदेसथण्णना परिवत्तेत्वा अपलोकनकम्मं कत" न्ति अयं पथवी कुलालचक्कं विय परिवत्तेत्वा भगवन्तं वेसालिनगराभिमुखं अकासि । तं सन्धायेतं वृत्तं । (३.१८७-१८८) वेसालियाव, ननु च न केवलं सावत्थिराजगहनाळन्दपाटलिगामकोटिगामनातिकगामकेसुपि ततो ततो निक्खन्तकाले तं तं सब्बं पच्छिमदस्सनमेव, तत्थ तत्थ कस्मा नागापलोकितं नापलोकेसीति ? अनच्छरियत्ता । तत्थ तत्थ हि निवत्तेत्वा अपलोकेन्तस्सेतं न अच्छरियं होति, तस्मा नापलोकेसि । अपि च वेसालिराजानो आसन्नविनासा, तिण्णं वस्सानं उपरि विनस्सिस्सन्ति । ते तं नगरद्वारे नागापलोकितं नाम चेतियं कत्वा गन्धमालादीहि पूजेस्सन्ति, तं नेसं दीघरतं हिताय सुखाय भविस्सतीति ते सं अनुकम्पाय अपलोकेस । दुक्खस्सन्तकरोति वट्टदुक्खस्स अन्तकरो । चक्खुमाति पञ्चहि चक्खूहि चक्खुमा । परिनिब्बुतोति किलेसपरिनिब्बानेन परिनिब्बुतो । चतुमहापदेसवण्णना १८७. महापदेसेति महाओकासे, महाअपदेसे वा, बुद्धादयो महन्ते महन्ते अपदिसित्वा वृत्तानि महाकारणानीति अत्थो । १३९ १८८. नेव अभिनन्दितब्बन्ति हट्ठतुट्ठेहि साधुकारं दत्वा पुब्बेव न सोतब्बं, एवं कते हि पच्छा "इदं न समेतीति वुच्चमानो- " किं पुब्बेव अयं धम्मो, इदानि न धम्मो "ति वत्वा लद्धिं न विस्सज्जेति । नप्पटिक्कोसितब्बन्ति - " किं एस बालो वदतीति एवं पुब्बेव न वत्तब्बं, एवं वुत्ते हि वत्तुं युत्तम्पि न वक्खति । तेनाह - " अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा'ति । पदब्यञ्जनानीति पदसङ्घातानि ब्यञ्जनानि । साधुकं उग्गहेत्वाति इमस्मिं ठाने पाळि वुत्ता, इमस्मिं ठाने अत्थो वृत्तो, इमस्मिं ठाने अनुसन्धि कथितो, इमस्मिं ठाने पुब्बापरं कथितन्ति सुट्टु गहेत्वा । सुत्ते ओसारेतब्बानीति सुत्ते ओतारेतब्बानि । विनये सन्दस्सेतब्बानीति विनये संसन्देतब्बानि । एत्थ च सुत्तन्ति विनयो । यथाह - “ कत्थ पटिक्खित्तं ? सावत्थियं सुत्तविभङ्गे "ति ( चुळव० ४५७ ) | विनयोति खन्धको । यथाह - " विनयातिसारेति । एवं विनयपिटकम्पि 139 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१८८-१८८) न परियादियति । उभतोविभङ्गा पन सुत्तं, खन्धकपरिवारा विनयोति एवं विनयपिटकं परियादियति । अथवा सुत्तन्तपिटकं सुत्तं, विनयपिटकं विनयोति एवं द्वेयेव पिटकानि परियादियन्ति । सुत्तन्ताभिधम्मपिटकानि वा सुत्तं, विनयपिटकं विनयोति एवम्पि तीणि पिटकानि न ताव परियादियन्ति । असुत्तनामकहि बुद्धवचनं नाम अस्थि । सेय्यथिदं - जातकं, पटिसम्भिदा, निद्देसो, सुत्तनिपातो, धम्मपदं, उदानं, इतिवृत्तकं, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा, अपदानन्ति । सुदिन्नत्थेरो पन - "असुत्तनामकं बुद्धवचनं न अत्थी''ति तं सब्बं पटिपक्खिपित्वा -- “तीणि पिटकानि सुत्तं, विनयो पन कारण"न्ति आह । ततो तं कारणं दस्सेन्तो इदं सुत्तमाहरि __ “ये खो त्वं, गोतमि, धम्मे जानेय्यासि, इमे धम्मा सरागाय संवत्तन्ति नो विरागाय, सञ्जोगाय संवत्तन्ति नो विसोगाय, आचयाय संवत्तन्ति नो अपचयाय, महिच्छताय संवत्तन्ति नो अप्पिच्छताय, असन्तुट्ठिया संवत्तन्ति नो सन्तुट्ठिया, सङ्गणिकाय संवत्तन्ति नो पविवेकाय, कोसज्जाय संवत्तन्ति नो वीरियारम्भाय, दुब्भरताय संवत्तन्ति नो सुभरताय । एकंसेन, गोतमि, धारेय्यासि'नेसो धम्मो, नेसो विनयो, नेतं सत्थुसासन'न्ति । ये च खो त्वं, गोतमि, धम्मे जानेय्यासि, इमे धम्मा विरागाय संवत्तन्ति नो सरागाय, विसोगाय संवत्तन्ति नो सञ्जोगाय, अपचयाय संवत्तन्ति नो आचयाय, अप्पिच्छताय संवत्तन्ति नो महिच्छताय, सन्तुट्ठिया संवत्तन्ति नो असन्तुठ्ठिया, पविवेकाय संवत्तन्ति नो सङ्गणिकाय, वीरियारम्भाय संवत्तन्ति नो कोसज्जाय, सुभरताय संवत्तन्ति नो दुब्भरताय । एकंसेन, गोतमि, धारेय्यासि - ‘एसो धम्मो, एसो विनयो, एतं सत्थुसासन'न्ति' (अ० नि० ३.८.५३)। तस्मा सुत्तेति तेपिटके बुद्धवचने ओतारेतब्बानि। विनयेति एतस्मिं रागादिविनयकारणे संसन्देतब्बानीति अयमेत्थ अत्थो। न चेव सुत्ते ओसरन्तीति सुत्तपटिपाटिया कत्थचि अनागन्त्वा छल्लिं उट्ठपेत्वा गुळ्हवेस्सन्तर-गुळ्हउम्मग्ग-गुळ्हविनयवेदल्लपिटकानं अञतरतो आगतानि पञ्चायन्तीति अत्थो। एवं आगतानि हि रागादिविनये च न पञ्जायमानानि छड्डेतब्बानि होन्ति । तेन वुत्तं - "इति हेतं, भिक्खवे, छड्डेय्याथा"ति । एतेनुपायेन सब्बत्थ अत्थो वेदितब्बो । 140 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१८८-१८८) चतुमहापदेसवण्णना १४१ ___ इदं, भिक्खवे, चतुत्थं महापदेसं धारेय्याथाति इदं चतुत्थं धम्मस्स पतिद्वानोकासं धारेय्याथ । इमस्मिं पन ठाने इमं पकिण्णकं वेदितब् । सुत्ते चत्तारो महापदेसा, खन्धके चत्तारो महापदेसा, चत्तारि पहब्याकरणानि, सुत्तं, सुत्तानुलोमं, आचरियवादो, अत्तनोमति, तिस्सो सङ्गीतियोति । तत्थ - "अयं धम्मो, अयं विनयो''ति धम्मविनिच्छये पत्ते इमे चत्तारो महापदेसा पमाणं । यं एत्थ समेति तदेव गहेतबं, इतरं विरवन्तस्सपि न गहेतब्बं । "इदं कप्पति, इदं न कप्पती"ति कप्पियाकप्पियविनिच्छये पत्ते- “यं, भिक्खवे, मया इदं न कप्पतीति अप्पटिक्खित्तं, तं चे अकप्पियं अनुलोमेति, कप्पियं पटिबाहति, तं वो न कप्पती''तिआदिना (महाव० ३०५) नयेन खन्धके वुत्ता चत्तारो महापदेसा पमाणं । तेसं विनिच्छयकथा समन्तपासादिकायं वुत्ता। तत्थ वुत्तनयेन यं कप्पियं अनुलोमेति, तदेव कप्पियं, इतरं अकप्पियन्ति एवं सन्निट्ठानं कातब्बं । __ एकंसब्याकरणीयो पज्हो, विभज्जब्याकरणीयो पञ्हो, पटिपुच्छाब्याकरणीयो पज्हो, ठपनीयो पञ्होति इमानि चत्तारि पहब्याकरणानि नाम | तत्थ "चक्खं अनिच्च"न्ति पुढेन - "आम अनिच्च"न्ति एकंसेनेव ब्याकातब्बं । एस नयो सोतादीसु । अयं एकंसव्याकरणीयो पहो । “अनिच्चं नाम चक्खु"न्ति पुढेन- “न चक्खुमेव, सोतम्पि अनिच्चं घानम्पि अनिच्च"न्ति एवं विभजित्वा ब्याकातब्बं । अयं विभज्जब्याकरणीयो पञ्हो । “यथा चक्खु तथा सोतं, यथा सोतं तथा चक्खु"न्ति पुढेन “केनटेन पुच्छसी"ति पटिपुच्छित्वा "दस्सनटेन पुच्छामी"ति वुत्ते "न ही"ति ब्याकातब्बं, “अनिच्चद्वेन पुच्छामी'"ति वुत्ते आमाति ब्याकातब्बं । अयं पटिपुच्छाब्याकरणीयो पहो । “तं जीवं तं सरीर''न्तिआदीनि पुढेन पन “अब्याकतमेतं भगवता"ति ठपेतब्बो, एस पञ्हो न ब्याकातब्बो। अयं ठपनीयो पञ्हो । इति तेनाकारेन पञ्हे सम्पत्ते इमानि चत्तारि पहब्याकरणानि पमाणं । इमेसं वसेन सो पञ्हो ब्याकातब्बो । सुत्तादीसु पन सुत्तं नाम तिस्सो सङ्गीतियो आरूळहानि तीणि पिटकानि । सुत्तानुलोमं नाम अनुलोमकप्पियं । आचरियवादो नाम अट्ठकथा । अत्तनोमति नाम 141 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१८९-१९०) नयग्गाहेन अनुबुद्धिया अत्तनो पटिभानं । तत्थ सुत्तं अप्पटिबाहियं, तं पटिबाहन्तेन बुद्धोव पटिबाहितो होति । अनुलोमकप्पियं पन सुत्तेन समेन्तमेव गहेतब्, न इतरं । आचरियवादोपि सुत्तेन समेन्तोयेव गहेतब्बो, न इतरो । अत्तनोमति पन सब्बदुब्बला, सापि सुत्तेन समेन्तायेव गहेतब्बा, न इतरा। पञ्चसतिका, सत्तसतिका, सहस्सिकाति इमा पन तिस्सो सङ्गीतियो। सुत्तम्पि तासु आगतमेव पमाणं, इतरं गारव्हसुत्तं न गहेतब्बं । तत्थ ओतरन्तानिपि हि पदव्यञ्जनानि न चेव सुत्ते ओतरन्ति, न च विनये सन्दिस्सन्तीति वेदितब्बानि । कम्मारपुत्तचुन्दवत्थुवण्णना १८९. कम्मारपुत्तस्साति सुवण्णकारपुत्तस्स । सो किर अड्डो महाकुटुम्बिको भगवतो पठमदस्सनेनेव सोतापन्नो हुत्वा अत्तनो अम्बवने विहारं कारापेत्वा निय्यातेसि । तं सन्धाय वुत्तं- “अम्बवने"ति। सूकरमद्दवन्ति नातितरुणस्स नातिजिण्णस्स एकजेट्ठकसूकरस्स पवत्तमंसं । तं किर मुदु चेव सिनिद्धञ्च होति, तं पटियादापेत्वा साधुकं पचापेत्वाति अत्थो । एके भणन्ति - "सूकरमद्दवन्ति पन मुदुओदनस्स पञ्चगोरसयूसपाचनविधानस्स नामेतं, यथा गवपानं नाम पाकनाम''न्ति । केचि भणन्ति - "सूकरमद्दवं नाम रसायनविधि, तं पन रसायनसत्थे आगच्छति, तं चुन्देन - "भगवतो परिनिब्बानं न भवेय्या'ति रसायनं पटियत्त"न्ति । तत्थ पन द्विसहस्सदीपपरिवारेसु चतूसु महादीपेसु देवता ओजं पक्खिपिंसु । ___ नाहं तन्ति इमं सीहनादं किमत्थं नदति ? परूपवादमोचनत्थं । अत्तना परिभुत्तावसेसं नेव भिक्खून, न मनुस्सानं दातुं अदासि, आवाटे निखणापेत्वा विनासेसीति हि वत्तुकामानं इदं सुत्वा वचनोकासो न भविस्सतीति परेसं उपवादमोचनत्थं सीहनादं नदतीति । १९०. भुत्तस्स च सूकरमहवेनाति भुत्तस्स उदपादि, न पन भुत्तपच्चया । यदि हि अभुत्तस्स उप्पज्जिस्सथ, अतिखरो भविस्सति । सिनिद्धभोजनं भुत्तत्ता पनस्स तनुवेदना अहोसि । तेनेव पदसा गन्तुं असक्खि । विरेचमानोति अभिण्डं पवत्तलोहितविरेचनोव 142 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१९१-१९३) पानीयाहरणवण्णना समानो । अबोचाति अत्तना पत्थितट्ठाने परिनिब्बानत्थाय धम्मसङ्गाहकत्थेरेहि ठपितगाथायोति वेदितब्बा । पानीयाहरणवण्णना १९१. इङ्घाति चोदनत्थे निपातो | अच्छोदकाति पसन्नोदका । सातोदकाति मधुरोदका । सीतोदकाति तनुसीतलसलिला । सेतकाति निक्कद्दमा । सुप्पतित्थाति सुन्दरतित्था । १४३ पुक्कुसमल्लपुत्तवत्थुवण्णना १९२. पुक्कुसोति तस्स नामं । मल्लपुत्तोति मल्लराजपुत्तो । मल्ला किर वारेन रज्जं कारेन्ति । याव नेसं वारो न पापुणाति, ताव वणिज्जं करोन्ति । अयम्पि वणिज्जमेव करोन्तो पञ्च सकटसतानि योजापेत्वा धुरवाते वायन्ते पुरतो गच्छति, पच्छा वाते वायन्ते सत्थवाहं पुरतो पेसेत्वा सयं पच्छा गच्छति । तदा पन पच्छा वातो वायि, तस्मा एस पुरतो सत्यवाहं पेसेत्वा सब्बरतनयाने निसीदित्वा कुसिनारतो निक्खमित्वा “पावं ग्रमिस्सामी "ति मग्गं पटिपज्जि । तेन वुत्तं - " कुसिनाराय पावं अद्धानमग्गप्पटिपन्नो होती 'ति । एवमाह । इमा पन आळारोति तस्स नामं । दीघपिङ्गलो किरेसो, तेनस्स आळारोति नामं अहोसि | कालामोति गोत्तं । यत्र हि नामाति यो नाम । नेव दक्खतीति न अद्दस । यत्रसद्दयुत्तत्ता पतं अनागतवसेन वुत्तं । एवरूपञ्हि ईदिसेसु ठानेसु सद्दलक्खणं । १९३. निच्छरन्तीसूति विचरन्तीसु । असनिया फलन्तियाति नवविधाय असनिया भिज्जमानाय विय महारवं रवन्तिया । नवविधा हि असनियो- असञ्ञा, विचक्का, सतेरा, गग्गरा, कपिसीसा, मच्छविलोलिका, कुक्कुटका, दण्डमणिका, सुक्खानीति । असा अस करोति । विचक्का एकं चक्कं करोति । सतेरा सतेरसदिसा हुत्वा पतति । गग्गरा गग्गरायमाना पतति । कपिसीसा भमुकं उक्खिपेन्तो मक्कटो विय होति । मच्छविलोलिका विलोलितमच्छो विय होति । कुक्कुटका कुक्कुटसदिसा हुत्वा पतति । दण्डमणिका नङ्गलसदिसा हुत्वा पतति । सुक्खासनी पतितट्ठानं समुग्घाटेति । 143 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१९४-१९५) देवे वस्सन्तेति सुक्खगज्जितं गज्जित्वा अन्तरन्तरा वस्सन्ते । आतुमायन्ति आतुमं निस्साय विहरामि । भुसागारेति खलसालायं । एत्थेसोति एतस्मिं कारणे एसो महाजनकायो सन्निपतितो। क्व अहोसीति कुहिं अहोसि । सो तं भन्तेति सो त्वं भन्ते | १९४. सिङ्गीवण्णन्ति सिङ्गीसुवण्णवण्णं । युगमट्ठन्ति मट्ठयुगं, सण्हसाटकयुगळन्ति अत्थो । धारणीयन्ति अन्तरन्तरा मया धारेतब्बं, परिदहितब्बन्ति अत्थो। तं किर सो तथारूपे छणदिवसेयेव धारेत्वा सेसकाले निक्खिपति । एवं उत्तमं मङ्गलवत्थयुगं सन्धायाह । अनुकम्मं उपादायाति मयि अनुकम्पं पटिच्च । अच्छादेहीति उपचारवचनमेतं - एकं महं देहि, एकं आनन्दस्साति अत्थो । किं पन थेरो तं गण्हीति ? आम गण्हि । कस्मा ? मत्थकप्पत्तकिच्चत्ता । किञ्चापि हेस एवरूपं लाभं पटिक्खिपित्वा उपट्टाकट्टानं पटिपन्नो । तं पनस्स उपट्टाककिच्चं मत्थकं पत्तं । तस्मा अग्गहेसि । ये चापि एवं वदेय्युं"अनाराधको मझे आनन्दो पञ्चवीसति वस्सानि उपट्ठहन्तेन न किञ्चि भगवतो सन्तिका तेन लद्धपुब्ब"न्ति । तेसं वचनोकासच्छेदनत्थम्पि अग्गहेसि । अपि च जानाति भगवा- “आनन्दो गहेत्वापि अत्तना न धारेस्सति, महंयेव पूजं करिस्सति । मल्लपुत्तेन पन आनन्दं पूजेन्तेन सङ्घोपि पूजितो भविस्सति, एवमस्स महापुञ्जरासि भविस्सती"ति थेरस्स एकं दापेसि । थेरोपि तेनेव कारणेन अग्गहेसीति । ..धम्मिया कथायाति वत्थानुमोदनकथाय । १९५. भगवतो कार्य उपनामितन्ति निवासनपारुपनवसेन अल्लीयापितं । भगवापि ततो एकं निवासेसि, एकं पारुपि । हतच्चिकं वियाति यथा हतच्चिको अङ्गारो अन्तन्तेनेव जोतति, बहि पनस्स पभा नत्थि, एवं बहि पटिच्छन्नप्पभं हुत्वा खायतीति अत्थो । इमेसु खो, आनन्द, द्वीसुपि कालेसूति कस्मा इमेसु द्वीसु कालेसु एवं होति ? आहारविसेसेन चेव बलवसोमनस्सेन च । एतेसु हि द्वीसु कालेसु सकलचक्कवाळे देवता आहारे ओजं पक्खिपन्ति, तं पणीतभोजनं कुच्छिं पविसित्वा पसन्नरूपं समुट्ठापेति । आहारसमुट्ठानरूपस्स पसन्नत्ता मनच्छट्ठानि इन्द्रियानि अतिविय विरोचन्ति । सम्बोधिदिवसे चस्स - “अनेककप्पकोटिसतसहस्ससञ्चितो वत मे किलेसरासि अज्ज पहीनो"ति आवज्जन्तस्स बलवसोमनस्सं उप्पज्जति, चित्तं पसीदति, चित्ते पसन्ने लोहितं पसीदति, लोहिते पसन्ने मनच्छट्ठानि इन्द्रियानि अतिविय विरोचन्ति । परिनिब्बानदिवसेपि- “अज्ज, दानाहं, अनेकेहि बुद्धसतसहस्सेहि पविटुं अमतमहानिब्बानं नाम नगरं पविसिस्सामी"ति 144 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१९६-१९७) पुक्कुसमल्लपुत्तवत्थुवण्णना आवज्जन्तस्स बलवसोमनस्सं उप्पज्जति, चित्तं पसीदति, चित्ते पसन्ने लोहितं पसीदति, लोहिते पसन्ने मनच्छट्ठानि इन्द्रियानि अतिविय विरोचन्ति । इति आहारविसेसेन चेव बलवसोमनस्सेन च इमेसु द्वीसु कालेसु एवं होतीति वेदितब्बं । उपवत्तनेति पाचीनतो निवत्तनसालवने | अन्तरेन यमकसालानन्ति यमकसालरुक्खानं मज्झे । सिङ्गीवण्णन्ति गाथा सङ्गीतिकाले ठपिता । १९६. न्हत्वा च पिवित्वा चाति एत्थ तदा किर भगवति नहायन्ते अन्तोनदियं मच्छकच्छपा च उभतोतीरेसु वनसण्डो च सब्बं सुवण्णवण्णमेव होति । अम्बवनन्ति तस्सायेव नदिया तीरे अम्बवनं । आयस्मन्तं चुन्दकन्ति तस्मिं किर खणे आनन्दत्थेरो उदकसाटकं पीळेन्तो ओहीयि, चुन्दत्थेरो समीपे अहोसि । तं भगवा आमन्तेसि । गन्त्वान बुद्धो नदिकं ककुधन्ति इमापि गाथा सङ्गीतिकालेयेव ठपिता । तत्थ पवत्ता भगवा इध धम्मेति भगवा इध सासने धम्मे पवत्ता, चतुरासीति धम्मक्खन्धसहस्सानि पवत्तानीति अत्थो । पमुखे निसीदीति सत्थु पुरतोव निसीदि । एत्तावता च थेरो अनुप्पत्ती । एवं अनुप्पत्तं अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि । १४५ १९७. अलाभाति ये असं दानानिसंससङ्घाता लाभा होन्ति, ते अलाभा । दुल्लद्धन्ति पुञ्ञविसेसेन लद्धम्पि मनुस्सत्तं दुल्लद्धं । यस्स तेति यस्स तव । उत्तण्डुलं वा अतिकिलिन्नं वा को जानाति, कीदिसम्पि पच्छिमं पिण्डपातं परिभुञ्जित्वा तथागतो परिनिब्बुतो, अद्धा ते यं वा तं वा दिन्नं भविस्सतीति । लाभाति दिट्ठधम्मिकसम्परायिकदानानिसंससङ्घाता लाभा । सुलद्धन्ति तुम्हं मनुस्सत्तं सुलद्धं । समसमफलाति सब्बाकारेन समानफला । ननु च यं सुजाताय दिन्नं पिण्डपातं भुञ्जित्वा तथागतो अभिसम्बुद्धो, सो सरागसदोससमोहकाले परिभुत्तो, अयं पन चुन्देन दिन्नो वीतरागवीतदोसवीतमोहकाले परिभुत्तो, कस्मा एते समफलाति ? परिनिब्बानसमताय च समापत्तिसमताय च अनुस्तरणसमताय च । भगवा हि सुजाताय दिन्नं पिण्डपातं परिभुञ्जित्वा सउपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बुतो, चुन्देन दिन्नं परिभुजित्वा अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बुतोति एवं परिनिब्बानसमतायपि समफला । अभिसम्बुज्झनदिवसे च 145 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१९८-१९८) चतुवीसतिकोटिसतसहस्ससङ्ख्या समापत्तियो समापज्जि, परिनिब्बानदिवसेपि सब्बा ता समापज्जीति एवं समापत्तिसमतायपि समफला । सुजाता च अपरभागे अस्सोसि- “न किरेसा रुक्खदेवता, बोधिसत्तो किरेस, तं किर पिण्डपातं परिभुजित्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो, सत्तसत्ताहं किरस्स तेन यापनं अहोसी"ति । तस्सा इदं सुत्वा- “लाभा वत मे''ति अनुस्सरन्तिया बलवपीतिसोमनस्सं उदपादि । चुन्दस्सापि अपरभागे- “अवसानपिण्डपातो किर मया दिन्नो, धम्मसीसं किर मे गहितं, मय्हं किर पिण्डपातं परिभुजित्वा सत्था अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बुतो"ति सुत्वा “लाभा वत मे''ति अनुस्सरतो बलवसोमनस्सं उदपादीति एवं अनुस्सरणसमतायपि समफलाति वेदितब्बा। यससंवत्तनिकन्ति परिवारसंवत्तनिकं । आधिपतेय्यसंवत्तनिकन्ति जेट्टकभावसंवत्तनिकं । संयमतोति सीलसंयमेन संयमन्तस्स, संवरे ठितस्साति अत्थो । वे न चीयतीति पञ्चविधं वरं न वड्डति । कुसलो च जहाति पापकन्ति कुसलो पन आणसम्पन्नो अरियमग्गेन अनवसेसं पापकं लामकं अकुसलं जहाति । रागदोसमोहक्खया स निबुतोति सो इमं पापकं जहित्वा रागादीनं खया किलेसनिब्बानेन निब्बुतोति । इति चुन्दस्स च दक्खिणं, अत्तनो च दक्खिणेय्यसम्पत्तिं सम्पस्समानो उदानं उदानेसीति । चतुत्थभाणवारवण्णना निट्ठिता। यमकसालावण्णना १९८. महता भिक्खुसङ्ग्रेन सद्धिन्ति इध भिक्खून गणनपरिच्छेदो नत्थि । वेळुवगामे वेदनाविक्खम्भनतो पट्ठाय हि- "न चिरेन भगवा परिनिब्बायिस्सती"ति सुत्वा ततो ततो आगतेसु भिक्खूसु एकभिक्खुपि पक्कन्तो नाम नत्थि । तस्मा गणनवीतिवत्तो सङ्घो अहोसि । उपवत्तनं मल्लानं सालवनन्ति यथेव हि कलम्बनदीतीरतो राजमातुविहारद्वारेन थूपारामं गन्तब्बं होति, एवं हिरञ्जवतिया पारिमतीरतो सालवनुय्यानं, यथा अनुराधपुरस्स थूपारामो, एवं तं कुसिनारायं होति । यथा थूपारामतो दक्खिणद्वारेन नगरं पविसनमग्गो 146 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१९८ - १९८ ) पाचीनमुखो गन्त्वा उत्तरेन निवत्तो, एवं उय्यानतो सालवनं पाचीनमुखं गन्त्वा उत्तरेन निवत्तं । तस्मा तं - " उपवत्तन "न्ति वुच्चति । अन्तरेन यमकसालानं उत्तरसीसकन्ति तस्स किर मञ्चकस्स एका सालपन्ति सीसभागे होति, एका पादभागे । तत्रापि एको तरुणसालो सीसभागस्स आसन्नो होति, एको पादभागस्स । अपि च यमकसाला नाम मूलखन्धविटपपत्तेहि अञ्ञमञ्ञ संसिब्बित्वा ठितसालाति वृत्तं । मञ्चकं पञ्ञपेहीति तस्मिं किर उय्याने राजकुलस्स सयनमञ्चो अत्थि, तं सन्धाय पञ्ञपेहीति आह । थेरापि तंयेव पञ्ञत्वा अदासि | किलन्तोस्मि, आनन्द, निपज्जिस्सामीति तथागतस्स हि. " गोचरि कळापो गङ्गेय्यो, पिङ्गलो पब्बतेय्यको । हेमवतो च तम्बो च, मन्दाकिनि उपोसथो । छद्दन्तोयेव दसमो, एते नागानमुत्तमा'ति । । - यमकसालावण्णना एत्थ यं दसन्नं गोचरिसङ्घातानं पकतिहत्थीनं बलं तं एकस्स कळापस्साति । एवं दसगुणवड्ढिताय गणनाय पकतिहत्थीनं कोटिसहस्सबलप्पमाणं बलं तं सब्बम्पि चुन्दस्स पिण्डपातं परिभुत्तकालतो पट्ठाय चङ्गवारे पक्खित्तउदकं विय परिक्खयं गतं । पावानगरतो तीणि गावुतानि कुसिनारानगरं, एतस्मिं अन्तरे पञ्चवीसतिया ठानेसु निसीदित्वा महता उस्साहेन आगच्छन्तोपि सूरियस्स अत्थङ्गमितवेलायं सञ्झासमये भगवा सालवनं पविट्ठो । एवं रोगो सब्बं आरोग्यं मद्दन्तो आगच्छति । एतमत्थं दस्सेन्तो विय सब्बलोकस्स संवेगकरं वाचं भासन्तो– “किलन्तोस्मि, आनन्द, निपज्जिस्सामी "ति आह । अपरम्प पस्सति कस्मा पन भगवा एवं महन्तेन उस्साहेन इधागतो, किं अञ्ञत्थ न सक्का परिनिब्बायितुन्ति ? परिनिब्बायितुं नाम न कत्थचि न सक्का, तीहि पन कारणेहि इधागतो, इदञ्हि भगवा एवं पस्सति - " मयि अञ्ञत्थ परिनिब्बायन्ते महासुदस्सन सुत्तस्स अत्थुप्पत्ति न भविस्सति, कुसिनारायं पन परिनिब्बायन्ते यमहं देवलोके अनुभवितब्बं सम्पत्तिं मनुस्सलोकेयेव अनुभविं, तं द्वीहि भाणवारेहि मण्डेत्वा देसेस्सामि, तं मे सुत्वा बहू जना कुसलं कातब्बं मञ्ञिस्सन्ती 'ति । - १४७ "मं अञ्ञत्थ परिनिब्बायन्तं सुभद्दो न पस्सिस्सति, सो च 147 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१९८-१९८) बुद्धवेनेय्यो, न सावकवेनेय्यो; न तं सावका विनेतुं सक्कोन्ति । कुसिनारायं परिनिब्बायन्तं पन मं सो उपसङ्कमित्वा पञ्हं पुच्छिस्सति, पञ्हाविस्सज्जनपरियोसाने च सरणेसु पतिट्ठाय मम सन्तिके पब्बज्जञ्च उपसम्पदञ्च लभित्वा कम्मट्ठानं गहेत्वा मयि धरमानेयेव अरहत्तं पत्वा पच्छिमसावको भविस्सती"ति । अपरम्प पस्सति - “मयि अञ्जत्थ परिनिब्बायन्ते धातुभाजनीये महाकलहो भविस्सति, लोहितं नदी विय सन्दिस्सति । कुसिनारायं परिनिब्बुते दोणब्राह्मणो तं विवाद वूपसमेत्वा धातुयो विभजिस्सती''ति । इमेहि तीहि कारणेहि भगवा एवं महन्तेन उस्साहेन इधागतोति वेदितब्बो । सीहसेय्यन्ति एत्थ कामभोगीसेय्या, पेतसेय्या, सीहसेय्या, तथागतसेय्याति चतस्सो सेय्या । तत्थ - "येभुय्येन, भिक्खवे, कामभोगी सत्ता वामेन पस्सेन सेन्ती''ति अयं कामभोगीसेय्या। तेसु हि येभुय्येन दक्खिणेन पस्सेन सयन्ता नाम नत्थि । “येभुय्येन, भिक्खवे, पेता उत्ताना सेन्तीति अयं पेतसेय्या। अप्पमंसलोहितत्ता हि पेता अट्ठिसङ्घाटजटिता एकेन पस्सेन सयितुं न सक्कोन्ति, उत्तानाव सेन्ति । ___ “सीहो, भिक्खवे, मिगराजा दक्खिणेन पस्सेन सेय्यं कप्पेति...पे०... अत्तमनो होती''ति (अ० नि० १.४.२४६) अयं सीहसेय्या। तेजुस्सदत्ता हि सीहो मिगराजा द्वे पुरिमपादे एकस्मिं ठाने, पच्छिमपादे एकस्मिं ठाने ठपेत्वा नमुटुं अन्तरसथिम्हि पक्खिपित्वा पुरिमपादपच्छिमपादनमुट्टानं ठितोकासं सल्लक्खेत्वा द्विन्नं पुरिमपादानं मत्थके सीसं ठपेत्वा सयति । दिवसं सयित्वापि पबुज्झमानो न उत्रसन्तो पबुज्झति, सीसं पन उक्खिपित्वा पुरिमपादादीनं ठितोकासं सल्लक्खेति । सचे किञ्चि ठानं विजहित्वा ठितं होति- “न यिदं तुम्हं जातिया सूरभावस्स च अनुरूप"न्ति अनत्तमनो हुत्वा तत्थेव सयति, न गोचराय पक्कमति । अविजहित्वा ठिते पन - "तुहं जातिया च सूरभावस्स च अनुरूपमिद"न्ति हट्टतुट्ठो उट्ठाय सीहविजम्भितं विजम्भित्वा केसरभारं विधुनित्वा तिक्खत्तुं सीहनादं नदित्वा गोचराय पक्कमति । 148 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१९८-१९८) यमकसालावण्णना १४९ "चतुत्थज्झानसेय्या पन तथागतस्स सेय्याति वुच्चति" (अ० नि० १.४.२४६) । तासु इध सीहसेय्या आगता । अयहि तेजुस्सदइरियापथत्ता उत्तमसेय्या नाम । पादे पादन्ति दक्खिणपादे वामपादं । अच्चाधायाति अतिआधाय, ईसकं अतिक्कम्म ठपेत्वा । गोप्फकेन हि गोप्फके, जाणुना वा जाणुम्हि सङ्घट्टियमाने अभिण्हं वेदना उप्पज्जति, चित्तं एकग्गं न होति, सेय्या अफासुका होति । यथा पन न सङ्घद्देति, एवं अतिक्कम्म ठपिते वेदना नुप्पज्जति, चित्तं एकग्गं होति, सेय्या फासु होति । तस्मा एवं निपज्जि । अनुट्ठानसेय्यं उपगतत्ता पनेत्थ - "उट्ठानसझं मनसि करित्वाति न वुत्तं । कायवसेन चेत्थ अनुट्ठानं वेदितब्द, निद्दावसेन पन तं रत्तिं भगवतो भवङ्गस्स ओकासोयेव नाहोसि । पठमयामस्मिहि मल्लानं धम्मदेसना अहोसि, मज्झिमयामे सुभद्दस्स पच्छिमयामे भिक्खुसद्धं ओवदि, बलवपच्चूसे परिनिब्बायि । सब्बफालिफुल्लाति सब्बे समन्ततो पुप्फिता मूलतो पट्ठाय याव अग्गा एकच्छन्ना अहेसुं, न केवलञ्च यमकसालायेव, सब्बेपि रुक्खा सब्बपालिफुल्लाव अहेसुं। न केवलहि तस्मिंयेव उय्याने, सकलव्हिपि दससहस्सचक्कवाळे पुप्फूपगा पुष्पं गण्हिंसु, फलूपगा फलं गण्हिंसु, सब्बरुक्खानं खन्धेसु खन्धपदुमानि, साखासु साखापदुमानि, वल्लीसु वल्लिपदुमानि, आकासेसु आकासपदुमानि पथवीतलं भिन्दित्वा दण्डपदुमानि पुफिसु । सब्बो महासमुद्दो पञ्चवण्णपदुमसञ्छन्नो अहोसि । तियोजनसहस्सवित्थतो हिमवा घनबद्धमोरपिञ्छकलापो विय, निरन्तरं मालादामगवच्छिको विय, सुट्ठ पीत्वा आबद्धपुप्फवटंसको विय, सुपूरितं पुप्फचङ्कोटकं विय च अतिरमणीयो अहोसि । ते तथागतस्स सरीरं ओकिरन्तीति ते यमकसाला भुम्मदेवताहि सञ्चलितखन्धसाखविटपा तथागतस्स सरीरं अवकिरन्ति, सरीरस्स उपरि पुष्पानि विकिरन्तीति अत्थो। अझोकिरन्तीति अज्झोत्थरन्ता विय किरन्ति । अभिप्पकिरन्तीति अभिण्हं पुनप्पुनं पकिरन्तियेव । दिब्बानीति देवलोके नन्दपोक्खरणीसम्भवानि, तानि होन्ति सुवण्णवण्णानि पण्णच्छत्तप्पमाणपत्तानि, महातुम्बमत्तं रेणुं गण्हन्ति। न केवलञ्च मन्दारवपुप्फानेव, अञ्जानिपि पन दिब्बानि पारिच्छत्तककोविळारपुप्फादीनि सुवण्णचकोटकानि पूरेत्वा चक्कवाळमुखवट्टियम्पि तिदसपुरेपि ब्रह्मलोकेपि ठिताहि देवताहि पविट्ठानि, अन्तलिक्खा पतन्ति । तथागतस्स सरीरन्ति अन्तरा अविकिण्णानेव आगन्त्वा पत्तकिञ्जक्खरेणुचुण्णेहि तथागतस्स सरीरमेव ओकिरन्ति । 149 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.१९८-१९८) दिब्बानिपि चन्दनचुण्णानीति देवतानं उपकप्पनचन्दनचुण्णानि । न केवलञ्च देवतानंयेव, नागसुपण्णमनुस्सानम्पि उपकप्पनचन्दनचुण्णानि । न केवलञ्च चन्दनचुण्णानेव, काळानुसारिकलोहितचन्दनादिसब्बदिब्बगन्धजालचुण्णानि, हरितालअञ्जनसुवण्णरजतचुण्णानि सब्बदिब्बगन्धवासविकतियो सुवण्णरजतादिसमुग्गे पूरेत्वा चक्कवाळमुखवट्टिआदीसु ठिताहि देवताहि पविट्ठानि अन्तरा अविप्पकिरित्वा तथागतस्सेव सरीरं ओकिरन्ति । दिब्बानिपि तूरियानीति देवतानं उपकप्पनतूरियानि । न केवलञ्च तानियेव, सब्बानिपि तन्तिबद्धचम्मपरियोनद्धघनसुसिरभेदानि दससहस्सचक्कवाळेसु देवनागसुपण्णमनुस्सानं तूरियानि एकचक्कवाळे सन्निपतित्वा अन्तलिक्खे वज्जन्तीति वेदितब्बानि । दिब्बानिपि सङ्गीतानीति वरुणवारणदेवता किर नामेता दीघायुका देवता"महापुरिसो मनुस्सपथे निब्बत्तित्वा बुद्धो भविस्सती"ति सुत्वा “पटिसन्धिग्गहणदिवसे नं गहेत्वा गमिस्सामा''ति मालं गन्थेतुमारभिंसु । ता गन्थमानाव- “महापुरिसो मातुकुच्छियं निब्बत्तो'"ति सुत्वा “तुम्हे कस्स गन्थथा"ति वुत्ता “न ताव निट्ठाति, कुच्छितो निक्खमनदिवसे गण्हित्वा गमिस्सामा"ति आहंसु । पुनपि . "निक्खन्तो''ति सुत्वा "महाभिनिक्खमनदिवसे गमिस्सामा"ति। एकूनतिंसवस्सानि घरे वसित्वा "अज्ज महाभिनिक्खमनं निक्खन्तो"तिपि सुत्वा “अभिसम्बोधिदिवसे गमिस्सामा''ति । छब्बस्सानि पधानं कत्वा "अज्ज अभिसम्बद्धो"तिपि सत्वा "धम्मचक्कप्पवत्तनदिवसे गमिस्सामा"ति। “सत्तसत्ताहानि बोधिमण्डे वीतिनामेत्वा इसिपतनं गन्त्वा धम्मचक्कं पवत्तित''न्तिपि सुत्वा "यमकपाटिहारियदिवसे गमिस्सामा"ति । “अज्ज यमकपाटिहारियं करी"तिपि सुत्वा "देवोरोहणदिवसे गमिस्सामा"ति। “अज्ज देवोरोहणं करी''तिपि सुत्वा "आयुसङ्खारोस्सज्जने गमिस्सामा'ति । “अज्ज आयुसङ्खारं ओस्सजी"तिपि सुत्वा "न ताव निट्ठाति, परिनिब्बानदिवसे गमिस्सामा"ति। “अज्ज भगवा यमकसालानमन्तरे दक्खिणेन पस्सेन सतो सम्पजानो सीहसेय्यं उपगतो बलवपच्चूससमये परिनिब्बायिस्सति । तुम्हे कस्स गन्थथा''ति सुत्वा पन - “किनामेतं, 'अज्जेव मातुकुच्छियं पटिसन्धिं गण्हि, अज्जेव मातुकुच्छितो निक्खमि, अज्जेव महाभिनिक्खमनं निक्खमि, अज्जेव बुद्धो अहोसि, अज्जेव धम्मचक्कं पवत्तयि, अज्जेव यमकपाटिहारियं अकासि, अज्जेव देवलोका ओतिण्णो, अज्जेव आयुसङ्घारं ओस्सजि, अज्जेव किर परिनिब्बायिस्सतीति । ननु नाम दुतियदिवसे यागुपानकालमत्तम्पि ठातबं अस्स । दस पारमियो पूरेत्वा बुद्धत्तं पत्तस्स नाम अननुच्छविकमेत"न्ति अपरिनिहिताव मालायो गहेत्वा आगम्म अन्तो 150 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१९९-१९९) यमकसालावण्णना १५१ चक्कवाळे ओकासं अलभमाना चक्कवाळमुखवट्टियं लम्बित्वा चक्कवाळमुखवट्टियाव आधावन्तियो हत्थेन हत्थं गीवाय गीवं गहेत्वा तीणि रतनानि आरब्भ द्वत्तिंस महापुरिसलक्खणानि छब्बण्णरस्मियो दस पारमियो अड्डछट्ठानि जातकसतानि चुद्दस बुद्धजाणानि आरब्भ गायित्वा तस्स तस्स अवसाने “महायसो, महायसो"ति वदन्ति । इदमेतं पटिच्च वुत्तं- “दिब्बानिपि सङ्गीतानि अन्तलिक्खे वत्तन्ति तथागतस्स पूजाया"ति। १९९. भगवा पन यमकसालानं अन्तरा दक्खिणेन पस्सेन निपन्नोयेव पथवीतलतो याव चक्कवाळमुखवट्टिया, चक्कवाळमुखवट्टितो च याव ब्रह्मलोका सन्निपतिताय परिसाय महन्तं उस्साहं दिस्वा आयस्मतो आनन्दस्स आरोचेसि । तेन वुत्तं- “अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं...पे०... तथागतस्स पूजाया''ति । एवं महासक्कारं दस्सेत्वा तेनापि अत्तनो असक्कतभावमेव दस्सन्तो न खो, आनन्द, एत्तावतातिआदिमाह। - इदं वुत्तं होति- “आनन्द, मया दीपङ्करपादमूले निपन्नेन अट्ठ धम्मे समोधानेत्वा अभिनीहारं करोन्तेन न मालागन्धतूरियसङ्गीतानं अत्थाय अभिनीहारो कतो, न एतदत्थाय पारमियो पूरिता । तस्मा न खो अहं एताय पूजाय पूजितो नाम होमी"ति । कस्मा पन भगवा अञत्थ एकं उमापुप्फमत्तम्पि गहेत्वा बुद्धगुणे आवज्जेत्वा कताय पूजाय बुद्धञाणेनापि अपरिच्छिन्नं विपाकं वण्णेत्वा इध एवं महन्तं पूजं पटिक्खिपतीति ? परिसानुग्गहेन चेव सासनस्स च चिरद्वितिकामताय । सचे हि भगवा एवं न पटिक्खिपेय्य, अनागते सीलस्स आगतहाने सीलं न परिपूरेस्सन्ति, समाधिस्स आगतट्टाने समाधिं न परिपूरेस्सन्ति, विपस्सनाय आगतवाने विपस्सनागभं न गाहापेस्सन्ति । उपट्ठाके समादपेत्वा पूजयेव कारेन्ता विहरिस्सन्ति । आमिसपूजा च नामेसा सासनं एकदिवसम्पि एकयागुपानकालमत्तम्पि सन्धारेतुं न सक्कोति । महाविहारसदिसहि विहारसहस्सं महाचेतियसदिसञ्च चेतियसहस्सम्पि सासनं धारेतुं न सक्कोन्ति । येन कम्मं कतं, तस्सेव होति । सम्मापटिपत्ति पन तथागतस्स अनुच्छविका पूजा। सा हि तेन पत्थिता चेव, सक्कोति सासनञ्च सन्धारेतुं, तस्मा तं दस्सेन्तो यो खो आनन्दातिआदिमाह । तत्थ धम्मानुधम्मप्पटिपन्नोति नवविधस्स लोकुत्तरधम्मस्स अनुधम्मं पुब्बभागपटिपदं 151 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.२००-२००) पटिपन्नो। सायेव पन पटिपदा अनुच्छविकत्ता "सामीची''ति वुच्चति । तं सामीचिं पटिपन्नोति सामीचिप्पटिपन्नो। तमेव पुब्बभागपटिपदासङ्घातं अनुधम्मं चरति पूरेतीति अनुधम्मचारी। पुब्बभागपटिपदाति च सीलं आचारपञत्ति धुतङ्गसमादानं याव गोत्रभुतो सम्मापटिपदा वेदितब्बा। तस्मा यो भिक्खु छसु अगारवेसु पतिट्ठाय पञत्तिं अतिक्कमति, अनेसनाय जीविकं कप्पेति, अयं न धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो । यो पन सब्बं अत्तनो पञत्तं सिक्खापदं जिनवेलं जिनमरियादं जिनकाळसुत्तं अणुमत्तम्पि न वीतिक्कमति, अयं धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो नाम । भिक्खुनियापि एसेव नयो । यो उपासको पञ्च वेरानि दस अकुसलकम्मपथे समादाय वत्तति अप्पेति, अयं न धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो यो पन तीसु सरणेसु, पञ्चसुपि सीलेसु, दससु सीलेसु परिपूरकारी होति, मासस्स अट्ठ उपोसथे करोति, दानं देति, गन्धपूजं मालापूजं करोति, मातरं पितरं उपट्ठाति, धम्मिके समणब्राह्मणे उपट्ठाति, अयं धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो नाम । उपासिकायपि एसेव नयो । परमाय पूजायाति उत्तमाय पूजाय । अयहि निरामिसपूजा नाम सक्कोति मम सासनं सन्धारेतुं । याव हि इमा चतस्सो परिसा मं इमाय पूजेस्सन्ति, ताव मम सासनं मज्झे नभस्स पुण्णचन्दो विय विरोचिस्सतीति दस्सेति । उपवाणत्थेरवण्णना २००. अपसारेसीति अपनेसि । अपेहीति अपगच्छ । थेरो एकवचनेनेव तालवण्टं निक्खिपित्वा एकमन्तं अट्ठासि। उपट्ठाकोतिआदि पठमबोधियं अनिबद्धपट्ठाकभावं सन्धायाह । अयं, भन्ते, आयस्मा उपवाणोति एवं थेरेन वुत्ते आनन्दो उपवाणस्स सदोसभावं सल्लक्खेति, 'हन्दस्स निद्दोसभावं कथेस्सामी'ति भगवा येभुय्येन आनन्दातिआदिमाह । तत्थ येभुय्येनाति इदं असञसत्तानञ्चेव अरूपदेवतानञ्च ओहीनभावं सन्धाय वुत्तं । अप्फुटोति असम्फुट्ठो अभरितो वा । भगवतो किर आसन्नपदेसे वालग्गमत्ते ओकासे सुखुमत्तभावं मापेत्वा दस दस महेसक्खा देवता अटुंसु । तासं परतो वीसति वीसति । तासं परतो तिंसति तिंसति । तासं परतो चत्तालीसं चत्तालीसं । तासं परतो पञ्जासं पञ्जासं। तासं परतो सट्टि सहि देवता अटुंसु । ता अचमनं हत्थेन वा पादेन वा वत्थेन वा न ब्याबाधेन्ति । “अपेहि मं, मा घट्टेही"ति वत्तब्बाकारं नाम नत्थि । 152 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२००-२००) उपवाणत्थेरवण्णना १५३ "ता खो पन देवतायो दसपि हुत्वा वीसतिपि हुत्वा तिंसम्पि हुत्वा चत्तालीसम्पि हुत्वा पञ्जासम्पि हुत्वा आरग्गकोटिनितुदनमत्तेपि तिट्ठन्ति, न च अञ्जमलं ब्याबाधेन्ती"ति (अ० नि० १.१.३७) वुत्तसदिसाव अहेसुं। ओवारेन्तोति आवारेन्तो । थेरो किर पकतियापि महासरीरो हत्थिपोतकसदिसो । सो पंसुकूलचीवरं पारुपित्वा अतिमहा विय अहोसि । तथागतं दस्सनायाति भगवतो मुखं दटुं अलभमाना एवं उज्झायिंसु । किं पन ता थेरं विनिविज्झ पस्सितुं न सक्कोन्तीति ? आम, न सक्कोन्ति । देवता हि पुथुज्जने विनिविज्झ पस्सितुं सक्कोन्ति, न खीणासवे । थेरस्स च महेसक्खताय तेजुस्सदताय उपगन्तुम्पि न सक्कोन्ति । कस्मा पन थेरोव तेजुस्सदो, न अछे अरहन्तोति ? यस्मा कस्सपबुद्धस्स चेतिये आरक्खदेवता अहोसि । __ विपस्सिम्हि किर सम्मासम्बुद्धे परिनिब्बुते एकग्घनसुवण्णक्खन्धसदिसस्स धातुसरीरस्स एकमेव चेतियं अकंसु, दीघायुकबुद्धानहि एकमेव चेतियं होति । तं मनुस्सा रतनायामाहि विदत्थिविस्थताहि द्वङ्गुलबहलाहि सुवण्णिकाहि हरितालेन च मनोसिलाय च मत्तिकाकिच्चं तिलतेलेनेव उदककिच्चं साधेत्वा योजनप्पमाणं उठ्ठपेसुं । ततो भुम्मा देवता योजनप्पमाणं, ततो आकासट्ठकदेवता, ततो उण्हवलाहकदेवता, ततो अब्भवलाहकदेवता, ततो चातुमहाराजिका देवता, ततो तावतिंसा देवता योजनप्पमाणं उट्ठपेसुन्ति एवं सत्तयोजनिकं चेतियं अहोसि । मनुस्सेसु मालागन्धवत्थादीनि गहेत्वा आगतेसु आरक्खदेवता गहेत्वा तेसं पस्सन्तानंयेव चेतियं पूजेसि । तदा अयं थेरो ब्राह्मणमहासालो हुत्वा एकं पीतकं वत्थं आदाय गतो । देवता तस्स हत्थतो वत्थं गहेत्वा चेतियं पूजेसि । ब्राह्मणो तं दिस्वा पसन्नचित्तो “अहम्पि अनागते एवरूपस्स बुद्धस्स चेतिये आरक्खदेवता होमी"ति पत्थनं कत्वा ततो चुतो देवलोके निब्बत्ति । तस्स देवलोके च मनुस्सलोके च संसरन्तस्सेव कस्सपो भगवा लोके उप्पज्जित्वा परिनिब्बायि । तस्सापि एकमेव धातुसरीरं अहोसि । तं गहेत्वा योजनिकं चेतियं कारेसुं। सो तत्थ आरक्खदेवता हुत्वा सासने अन्तरहिते सग्गे निब्बत्तित्वा अम्हाकं भगवतो काले ततो चुतो महाकुले पटिसन्धिं गहेत्वा निक्खम्म पब्बजित्वा अरहत्तं पत्तो। इति चेतिये आरक्खदेवता हुत्वा आगतत्ता थेरो तेजुस्सदोति वेदितब्बो । 153 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.२०१-२०२) देवता, आनन्द, उज्झायन्तीति इति आनन्द, देवता उज्झायन्ति, न मय्हं पुत्तस्स अञ्जो कोचि दोसो अस्थीति दस्सेति । २०१. कथंभूता पन, भन्तेति कस्मा आह ? भगवा तुम्हे - "देवता उज्झायन्ती"ति वदथ, कथं भूता पन ता तुम्हे मनसि करोथ, किं तुम्हाकं परिनिब्बानं अधिवासेन्तीति पुच्छति । अथ भगवा- "नाहं अधिवासनकारणं वदामी"ति तासं अनधिवासनभावं दस्सेन्तो सन्तानन्दातिआदिमाह ।। तत्थ आकासे पथवीसञ्जिनियोति आकासे पथविं मापेत्वा तत्थ पथवीसञ्जिनियो । कन्दन्तीति रोदन्ति । छिन्नपातं पपतन्तीति मज्झे छिन्ना विय हुत्वा यतो वा ततो वा पपतन्ति । आवदृन्तीति आवट्टन्तियो पतितट्ठानमेव आगच्छन्ति । विवदृन्तीति पतितहानतो परभागं वट्टमाना गच्छन्ति । अपिच द्वे पादे पसारेत्वा सकिं पुरतो सकिं पच्छतो सकिं वामतो सकिं दक्खिणतो संपरिवत्तमानापि- “आवडन्ति विवट्टन्ती"ति वुच्चन्ति । सन्तानन्द, देवता पथवियं पथवीसञ्जिनियोति पकतिपथवी किर देवता धारेतुं न सक्कोति । तत्थ हत्थको ब्रह्मा विय देवता ओसीदन्ति । तेनाह भगवा - “ओळारिकं हत्थक, अत्तभावं अभिनिम्मिनाही''ति (अ० नि० १.३.१२८)। तस्मा या देवता पथवियं पथविं मापेसुं, ता सन्धायेतं वुत्तं - "पथवियं पथवीसञ्जिनियो''ति । वीतरागाति पहीनदोमनस्सा सिलाथम्भसदिसा अनागामिखीणासवदेवता। चतुसंवेजनीयठानवण्णना २०२. वसंबुढाति बुद्धकाले किर द्वीसु कालेसु भिक्खू सन्निपतन्ति उपकट्ठाय वस्सूपनायिकाय कम्मट्ठानग्गहणत्थं, वुवस्सा च गहितकम्मट्ठानानुयोगेन निब्बत्तितविसेसारोचनत्थं । यथा च बुद्धकाले, एवं तम्बपण्णिदीपेपि अपारगङ्गाय भिक्खू लोहपासादे सन्निपतिंसु, पारगङ्गाय भिक्खू तिस्समहाविहारे । तेसु अपारगङ्गाय भिक्खू सङ्कारछड्डकसम्मज्जनियो गहेत्वा आगन्त्वा महाविहारे सन्निपतित्वा चेतिये सुधाकम्म कत्वा - "वुठ्ठवस्सा आगन्त्वा लोहपासादे सन्निपतथा"ति वत्तं कत्वा फासुकट्ठानेसु वसित्वा वुट्टवस्सा आगन्त्वा लोहपासादे पञ्चनिकायमण्डले, येसं पाळि पगुणा, ते पाळिं सज्झायन्ति । येसं अट्ठकथा पगुणा, ते अट्ठकथं सज्झायन्ति । यो पाळिं वा अट्ठकथं वा 154 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२०२-२०२) चतुसंवेजनीयठानवण्णना १५५ विराधेति, तं- “कस्स सन्तिके तया गहित'"न्ति विचारेत्वा उजु कत्वा गाहापेन्ति । पारगङ्गावासिनोपि तिस्समहाविहारे एवमेव करोन्ति । एवं द्वीसु कालेसु सन्निपतितेसु भिक्खूसु ये पुरे वस्सूपनायिकाय कम्मट्ठानं गहेत्वा गता विसेसारोचनत्थं आगच्छन्ति, एवरूपे सन्धाय "पुब्बे भन्ते वसंवुट्ठा''तिआदिमाह । मनोभावनीयेति मनसा भाविते सम्भाविते । ये वा मनो मनं भावेन्ति वड्डेन्ति रागरजादीनि पवाहेन्ति, एवरूपेति अत्थो । थेरो किर वत्तसम्पन्नो महल्लकं भिक्खं दिस्वा थद्धो हुत्वा न निसीदति, पच्चुग्गमनं कत्वा हत्थतो छत्तञ्च पत्तचीवरञ्च गहेत्वा पीठं पप्फोटेत्वा देति, तत्थ निसिन्नस्स वत्तं कत्वा सेनासनं पटिजग्गित्वा देति । नवकं भिक्खुं दिस्वा तुण्हीभूतो न निसीदति, समीपे ठत्वा वत्तं करोति । सो ताय वत्तपटिपत्तिया अपरिहानिं पत्थयमानो एवमाह । अथ भगवा – “आनन्दो मनोभावनीयानं दस्सनं न लभिस्सामी''ति चिन्तेति, हन्दस्स, मनोभावनीयानं दस्सनट्ठानं आचिक्खिस्सामि, यत्थ वसन्तो इतो चितो च अनाहिण्डित्वाव लच्छति मनोभावनीये भिक्खू दस्सनायाति चिन्तेवा चत्तारिमानीतिआदिमाह। तत्थ सद्धस्साति बुद्धादीसु पसन्नचित्तस्स वत्तसम्पन्नस्स, यस्स पातो पट्ठाय चेतियङ्गणवत्तादीनि सब्बवत्तानि कतानेव पायन्ति । दस्सनीयानीति दस्सनारहानि दस्सनत्थाय गन्तब्बानि। संवेजनीयानीति संवेगजनकानि। ठानानीति कारणानि, पदेसठानानेव वा। __ ये हि केचीति इदं चेतियचारिकाय सत्थकभावदस्सनत्थं वुत्तं । तत्थ चेतियचारिक आहिण्डन्ताति ये च ताव तत्थ तत्थ चेतियङ्गणं सम्मज्जन्ता, आसनानि धोवन्ता बोधिम्हि उदकं सिञ्चन्ता आहिण्डन्ति, तेसु वत्तब्बमेव नत्थि असुकविहारे "चेतियं वन्दिस्सामा"ति निक्खमित्वा पसन्नचित्ता अन्तरा कालङ्करोन्तापि अनन्तरायेन सग्गे पतिठ्ठहिस्सन्ति येवाति दस्सेति। 155 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.२०३-२०४) आनन्दपुच्छाकथावण्णना २०३. अदस्सनं, आनन्दाति यदेतं मातुगामस्स अदस्सनं, अयमेत्थ उत्तमा पटिपत्तीति दस्सेति । द्वारं पिदहित्वा सेनासने निसिन्नो हि भिक्खु आगन्त्वा द्वारे ठितम्पि मातुगामं याव न पस्सति, तावस्स एकंसेनेव न लोभो उप्पज्जति, न चित्तं चलति । दस्सने पन सतियेव तदुभयम्पि अस्स । तेनाह – “अदस्सनं आनन्दा'ति । दस्सने भगवा सति कथन्ति भिक्खं गहेत्वा उपगतहानादीसु दस्सने सति कथं पटिपज्जितब्बन्ति पुच्छति । अथ भगवा यस्मा खग्गं गहेत्वा - "सचे मया सद्धिं आलपसि, एत्थेव ते सीसं पातेस्सामी''ति ठितपुरिसेन वा, “सचे मया सद्धिं आलपसि, एत्थेव ते मंसं मुरुमुरापेत्वा खादिस्सामी''ति ठितयक्खिनिया वा आलपितुं वरं । एकस्सेव हि अत्तभावस्स तप्पच्चया विनासो होति, न अपायेसु अपरिच्छिन्नदुक्खानुभवनं । मातुगामेन पन आलापसल्लापे सति विस्सासो होति, विस्सासे सति ओतारो होति, ओतिण्णचित्तो सीलब्यसनं पत्वा अपायपूरको होति; तस्मा अनालापोति आह । वुत्तम्पि चेतं - “सल्लपे असिहत्थेन, पिसाचेनापि सल्लपे । आसीविसम्पि आसीदे, येन दट्ठो न जीवति । न त्वेव एको एकाय, मातुगामेन सल्लपे''ति ।। (अ० नि० २.५.५५) आलपन्तेन पनाति सचे मातगामो दिवसं वा पुच्छति, सीलं वा याचति, धम्मं वा सोतुकामो होति, पऽहं वा पुच्छति, तथारूपं वा पनस्स पब्बजितेहि कत्तब्बकम्मं होति, एवरूपे काले अनालपन्तं “मूगो अयं, बधिरो अयं, भुत्वाव बद्धमुखो निसीदती"ति वदति, तस्मा अवस्सं आलपितब्बं होति । एवं आलपन्तेन पन कथं पटिपज्जितब्बन्ति पुच्छति । अथ भगवा - “एथ तुम्हे, भिक्खवे, मातुमत्तीसु मातुचित्तं उपट्ठपेथ, भगिनिमत्तीसु भगिनिचित्तं उपट्ठपेथ, धीतुमत्तीसु धीतुचित्तं उपट्ठपेथा'"ति (सं० नि० २.४.१२७) इमं ओवादं सन्धाय सति, आनन्द, उपट्ठपेतब्बाति आह । २०४. अब्यावटाति अतन्तिबद्धा निरुस्सुक्का होथ | सारत्थे घटथाति उत्तमत्थे अरहत्ते घटेथ । अनुयुञ्जथाति तदधिगमाय अनुयोगं करोथ । अप्पमत्ताति तत्थ अविप्पमुट्ठसती । वीरियातापयोगेन आतापिनो। काये च जीविते च निरपेक्खताय पहितत्ता पेसितचित्ता विहरथ । 156 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२०५-२०७) थूपारहपुग्गलवण्णना १५७ २०५. कथं पन, भन्तेति तेहि खत्तियपण्डितादीहि कथं पटिपज्जितब्बं । अद्धा मं ते पटिपुच्छिस्सन्ति - "कथं, भन्ते, आनन्द तथागतस्स सरीरे पटिपज्जितब्ब"न्ति; “तेसाहं कथं पटिवचनं देमी"ति पुच्छति । अहतेन वत्थेनाति नवेन कासिकवत्थेन । विहतेन कप्पासेनाति सुपोथितेन कप्पासेन । कासिकवत्थहि सुखुमत्ता तेलं न गण्हाति, कप्पासो पन गण्हाति। तस्मा “विहतेन कप्पासेना''ति आह । आयसायाति सोवण्णाय । सोवण्णहि इध "अयस"न्ति अधिप्पेतं । थूपारहपुग्गलवण्णना २०६. राजा चक्कवत्तीति एत्थ कस्मा भगवा अगारमज्झे वसित्वा कालङ्कतस्स रो थूपारहतं अनुजानाति, न सीलवतो पुथुज्जनस्स भिक्खुस्साति? अनच्छरियत्ता। पुथुज्जनभिक्खूनहि थूपे अनुञ्जायमाने तम्बपण्णिदीपे ताव थूपानं ओकासो न भवेय्य, तथा अझेसु ठानेसु । तस्मा “अनच्छरिया ते भविस्सन्ती''ति नानुजानाति । राजा चक्कवत्ती एकोव निब्बत्तति, तेनस्स थूपो अच्छरियो होति । पुथुज्जनसीलवतो पन परिनिब्बुतभिक्खुनो विय महन्तम्पि सक्कारं कातुं वट्टतियेव । । आनन्दअच्छरियधम्मवण्णना २०७. विहारन्ति इध मण्डलमालो विहारोति अधिप्पेतो, तं पविसित्वा । कपिसीसन्ति द्वारबाहकोटियं ठितं अग्गळरुक्खं । रोदमानो अट्ठासीति सो किरायस्मा चिन्तेसि - "सत्थारा मम संवेगजनकं वसनट्ठानं कथितं, चेतियचारिकाय सात्थकभावो कथितो, मातुगामे पटिपज्जितब्बपञ्हो विस्सज्जितो, अत्तनो सरीरे पटिपत्ति अक्खाता, चत्तारो थूपारहा कथिता, धुवं अज्ज भगवा परिनिब्बायिस्सती"ति, तस्सेवं चिन्तयतो बलवदोमनस्सं उप्पज्जि । अथस्स एतदहोसि - “भगवतो सन्तिके रोदनं नाम अफासुकं, एकमन्तं गन्त्वा सोकं तनुकं करिस्सामी''ति, सो तथा अकासि । तेन वुत्तं- “रोदमानो अट्ठासी"ति । ___ अहञ्च वतम्हीति अहञ्च वत अम्हि, अहं वतम्हीतिपि पाठो। यो मम अनुकम्पकोति यो मं अनुकम्पति अनुसासति, स्वे दानि पट्ठाय कस्स मुखधोवनं दस्सामि, कस्स पादे धोविस्सामि, कस्स सेनासनं पटिजग्गिस्सामि, कस्स पत्तचीवरं गहेत्वा विचरिस्सामीति बहुं विलपि । आमन्तेसीति भिक्खुसङ्घस्स अन्तरे थेरं अदिस्वा आमन्तेसि । 157 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.२०८-२०९) मेत्तेन कायकम्मेनाति मेत्तचित्तवसेन पवत्तितेन मुखधोवनदानादिकायकम्मेन । हितेनाति हितवुद्धिया कतेन । सुखेनाति सुखसोमनस्सेनेव कतेन, न दुक्खिना दुम्मनेन हुत्वाति अत्थो। अद्वयेनाति द्वे कोट्ठासे कत्वा अकतेन । यथा हि एको सम्मुखाव करोति न परम्मुखा, एको परम्मुखाव करोति न सम्मुखा एवं विभागं अकत्वा कतेनाति वुत्तं होति। अप्पमाणेनाति पमाणविरहितेन । चक्कवाळम्पि हि अतिसम्बाधं, भवग्गम्पि अतिनीचं, तया कतं कायकम्ममेव बहुन्ति दस्सेति । __ मेत्तेन वचीकम्मेनाति मेत्तचित्तवसेन पवत्तितेन मुखधोवनकालारोचनादिना वचीकम्मेन । अपि च ओवादं सुत्वा - “साधु, भन्ते''ति वचनम्पि मेत्तं वचीकम्ममेव । मेत्तेन मनोकम्मेनाति कालस्सेव सरीरपटिजग्गनं कत्वा विवित्तासने निसीदित्वा - “सत्था अरोगो होतु, अब्यापज्जो सुखी'"ति एवं पवत्तितेन मनोकम्मेन । कतपुञोसीति कप्पसतसहस्सं अभिनीहारसम्पन्नोसीति दस्सेति । कतपुओसीति च एत्तावता विस्सत्थो मा पमादमापज्जि, अथ खो पधानमनुयुञ्ज । एवहि अनुयुत्तो खिप्पं होहिसि अनासवो, धम्मसङ्गीतिकाले अरहत्तं पापुणिस्ससि । न हि मादिसस्स कतपारिचरिया निप्फला नाम होतीति दस्सेति । २०८. एवञ्च पन वत्वा महापथविं पत्थरन्तो विय आकासं वित्थारेन्तो विय चक्कवाळगिरि ओसारेन्तो विय सिनेलं उक्खिपेन्तो विय महाजम्बु खन्धे गहेत्वा चालेन्तो विय आयस्मतो आनन्दस्स गुणकथं आरभन्तो अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि । तत्थ "येपि ते, भिक्खवे, एतरही"ति कस्मा न वुत्तं ? अञस्स बुद्धस्स नत्थिताय । एतेनेव चेतं वेदितब्बं - “यथा चक्कवाळन्तरेपि अञ्जो बुद्धो नत्थी''ति । पण्डितोति ब्यत्तो । मेधावीति खन्धधातुआयतनादीसु कुसलो । २०९. भिक्खुपरिसा आनन्दं दस्सनायाति ये भगवन्तं पस्सितुकामा थेरं उपसङ्कमन्ति, ये च “आयस्मा किरानन्दो समन्तपासादिको अभिरूपो दस्सनीयो बहुस्सुतो सङ्घसोभनो''ति थेरस्स गुणे सुत्वा आगच्छन्ति, ते सन्धाय “भिक्खुपरिसा आनन्दं दस्सनाय उपसङ्कमन्ती''ति वुत्तं । एस नयो सब्बत्थ । अत्तमनाति सवनेन नो दस्सनं समेतीति सकमना तुट्ठचित्ता। धम्मन्ति “कच्चि, आवुसो, खमनीयं, कच्चि यापनीयं, कच्चि योनिसो मनसिकारेन कम्मं करोथ, आचरियुपज्झाये वत्तं पूरेथा''ति एवरूपं पटिसन्थारधम्मं । तत्थ भिक्खुनीसु- “कच्चि, भगिनियो, अट्ठ गरुधम्मे समादाय वत्तथा"ति इदम्पि नानाकरणं होति । उपासकेसु आगतेसु "उपासक, न ते कच्चि सीसं वा अङ्गं 158 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२१०-२१०) महासुदस्सनसुत्तदेसनावण्णना १५९ - वा रुज्जति, अरोगा ते पुत्तभातरो"ति न एवं पटिसन्थारं करोति । एवं पन करोति"कथं उपासका तीणि सरणानि पञ्च सीलानि रक्खथ, मासस्स अट्ठ उपोसथे करोथ, मातापितूनं उपट्ठानवत्तं पूरेथ, धम्मिकसमणब्राह्मणे पटिजग्गथा''ति । उपासिकासुपि एसेव नयो। इदानि आनन्दत्थेरस्स चक्कवत्तिना सद्धिं उपमं करोन्तो चत्तारोमे भिक्खवेतिआदिमाह । तत्थ खत्तियाति अभिसित्ता च अनभिसित्ता च खत्तियजातिका । ते किर - "राजा चक्कवत्ती नाम अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको आकासेन विचरन्तो रज्जं अनुसासति धम्मिको धम्मराजा''ति तस्स गुणकथं सुत्वा “सवनेन दस्सनम्पि समन्ति अत्तमना होन्ति । भासतीति कथेन्तो - "कथं, ताता, राजधम्मं पूरेथ, पवेणिं रक्खथा''ति पटिसन्थारं करोति । ब्राह्मणेसु पन - "कथं आचरिया मन्ते वाचेथ, कथं अन्तेवासिका मन्ते गण्हन्ति, दक्खिणं वा वत्थानि वा कपिलं वा अलत्था"ति पटिसन्थारं करोति । गहपतीसु - "कथं ताता, न वो राजकुलतो दण्डेन वा बलिना वा पीळा अस्थि, सम्मा देवो धारं अनुपवेच्छति, सस्सानि सम्पज्जन्ती"ति एवं पटिसन्थारं करोति । समणेसु"कथं, भन्ते, पब्बजितपरिक्खारा सुलभा, समणधम्मे न पमज्जथा"ति एवं पटिसन्थारं करोति । महासुदस्सनसुत्तदेसनावण्णना २१०. खुद्दकनगरकेति नगरपतिरूपके सम्बाधे खुद्दकनगरके। उज्जङ्गलनगरकेति विसमनगरके । साखानगरकेति यथा रुक्खानं साखा नाम खुद्दका होन्ति, एवमेव अओसं महानगरानं साखासदिसे खुद्दकनगरके। खत्तियमहासालाति खत्तियमहासारप्पत्ता महाखत्तिया। एस नयो सब्बत्थ । तेसु खत्तियमहासाला नाम येसं कोटिसतम्पि कोटिसहस्सम्पि धनं निखणित्वा ठपितं, दिवसपरिब्बयो एकं कहापणसकटं निगच्छति, सायं द्वे पविसन्ति । ब्राह्मणमहासाला नाम येसं असीतिकोटिधनं निहितं होति, दिवसपरिब्बयो एको कहापणकुम्भो निगच्छति, सायं एकसकटं पविसति । गहपतिमहासाला नाम येसं चत्तालीसकोटिधनं निहितं होति, दिवसपरिब्बयो पञ्च कहापणम्बणानि निगच्छन्ति, सायं कुम्भो पविसति । 159 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.२११-२११) __मा हेवं, आनन्द, अवचाति आनन्द, मा एवं अवच, न इमं "खुद्दकनगर'"न्ति वत्तब्बं । अहहि इमस्सेव नगरस्स सम्पत्तिं कथेतुं- “अनेकवारं तिटुं निसीदं महन्तेन उस्साहेन, महन्तेन परक्कमेन इधागतो"ति वत्वा भूतपुब्बन्तिआदिमाह । सुभिक्खाति खज्जभोज्जसम्पन्ना । हत्थिसद्देनाति एकस्मिं हथिम्हि सदं करोन्ते चतुरासीतिहत्थिसहस्सानि सदं करोन्ति, इति हत्थिसद्देन अविवित्ता, होति, तथा अस्ससद्देन । पुजवन्तो पनेत्थ सत्ता चतुसिन्धवयुत्तेहि रथेहि अञमनं अनुबन्धमाना अन्तरवीथीसु विचरन्ति, इति रथसद्देन अविवित्ता होति । निच्चं पयोजितानेव पनेत्थ भेरिआदीनि तूरियानि, इति भेरिसद्दादीहिपि अविवित्ता होति। तत्थ सम्मसहोति कंसताळसद्दो । पाणिताळसद्दोति पाणिना चतुरस्सअम्बणताळसद्दो । कुटभेरिसद्दोतिपि वदन्ति । असाथ पिवथ खादथाति अनाथ पिवथ खादथ । अयं पनेत्थ सङ्केपो, भुञ्जथ भोति इमिना दसमेन सद्देन अविवित्ता होति अनुपच्छिन्नसदा । यथा पन अझेसु नगरेसु "कचवरं छड्डेथ, कुदालं गण्हथ, पच्छिं गण्हथ, पवासं गमिस्साम, तण्डुलपुटं गण्हथ, भत्तपुटं गण्हथ, फलकावुधादीनि सज्जानि करोथा''ति एवरूपा सद्दा होन्ति, न यिध एवं अहोसीति दस्सेति । "दसमेन सद्देना''ति च वत्वा “कुसावती, आनन्द, राजधानी सत्तहि पाकारेहि परिक्खित्ता अहोसी"ति सब्बं महासुदस्सनसुत्तं निट्ठापेत्वा गच्छ त्वं आनन्दातिआदिमाह । तत्थ अभिक्कमथाति अभिमुखा कमथ, आगच्छथाति अत्थो। किं पन ते भगवतो आगतभावं न जानन्तीति ? जानन्ति । बुद्धानं गतगतवानं नाम महन्तं कोलाहलं होति, केनचिदेव करणीयेन निसिन्नत्ता न आगता। “ते आगन्त्वा भिक्खुसङ्घस्स ठाननिसज्जोकासं संविदहित्वा दस्सन्ती"ति तेसं सन्तिके अवेलायम्पि भगवा पेसेसि । मल्लानं वन्दनावण्णना २११. अम्हाकञ्च नोति एत्थ नो कारो निपातमत्तं। अघाविनोति उप्पन्नदुक्खा | दुम्मनाति अनत्तमना । चेतोदुक्खसमप्पिताति दोमनस्ससमप्पिता। कुलपरिवत्तसो कुलपरिवत्तसो ठपेत्वाति एकेकं कुलपरिवत्तं कुलसोपं वीथिसभागेन चेव रच्छासभागेन च विसुं विसुं ठपेत्वा । 160 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२१२-२१३) सुभद्दपरिब्बाजकवत्थुवण्णना १६१ सुभद्दपरिब्बाजकवत्थुवण्णना २१२. सुभद्दो नाम परिब्बाजकोति उदिच्चब्राह्मणमहासालकुला पब्बजितो छन्त्रपरिब्बाजको। कडाधम्मोति विमतिधम्मो । कस्मा पनस्स अज्ज एवं अहोसीति ? तथाविधउपनिस्सयत्ता । पुब्बे किर पुञ्जकरणकाले द्वे भातरो अहेसुं । ते एकतोव सस्सं अकंसु । तत्थ जेट्ठकस्स- “एकस्मिं सस्से नववारे अग्गसस्सदानं मया दातब्बन्ति अहोसि । सो वप्पकाले बीजग्गं नाम दत्वा गब्भकाले कनिटेन सद्धिं मन्तेसि - "गब्भकाले गब्भं फालेत्वा दस्सामा"ति कनिट्ठो- "तरुणसस्सं नासेतुकामोसी"ति आह । जेट्ठो कनिट्ठस्स अननुवत्तनभावं अत्वा खेत्तं विभजित्वा अत्तनो कोट्ठासतो गब्भं फालेत्वा खीरं नीहरित्वा सप्पिनवनीतेन संयोजेत्वा अदासि, पुथुककाले पुथुकं कारेत्वा अदासि, लायनकाले लायनग्गं, वेणिकरणे वेणग्गं, कलापादीसु कलापग्गं, खलग्गं, खलभण्डग्गं, कोट्टग्गन्ति एवं एकसस्से नववारे अग्गदानं अदासि | कनिट्ठो पन उद्धरित्वा अदासि । तेसु जेट्ठको अञासिकोण्डञ्जत्थेरो जातो। भगवा - “कस्स नु खो अहं पठमं धम्मं देसेय्य"न्ति ओलोकेन्तो “अञासिकोण्डञो एकस्मिं सस्से नव अग्गदानानि अदासि, इमं अग्गधम्मं तस्स देसेस्सामी"ति सब्बपठमं धम्मं देसेसि । सो अट्ठारसहि ब्रह्मकोटीहि सद्धिं सोतापत्तिफले पतिठ्ठासि । कनिट्ठो पन ओहीयित्वा पच्छा दानस्स दिन्नत्ता सत्थु परिनिब्बानकाले एवं चिन्तेत्वा सत्थारं दद्रुकामो अहोसि ।। मा तथागतं विहेठेसीति थेरो किर - "एते अतिथिया नाम अत्तनो गहणमेव गण्हन्ति, तस्स विस्सज्जापनत्थाय भगवतो बहुं भासमानस्स कायवाचाविहेसा भविस्सति, पकतियापि च किलन्तोयेव भगवा"ति मञ्जमानो एवमाह । परिब्बाजको- "न मे अयं भिक्खु ओकासं करोति, अत्थिकेन पन अनुवत्तित्वा कारेतब्बो'"ति थेरं अनुवत्तन्तो दुतियम्पि ततियम्पि आह । २१३. अस्सोसि खोति साणिद्वारे ठितस्स भासतो पकतिसोतेनेव अस्सोसि, सुत्वा च पन सुभद्दस्सेव अत्थाय महता उस्साहेन आगतत्ता अलं आनन्दातिआदिमाह । तत्थ अलन्ति पटिक्खेपत्थे निपातो । अआपेक्खोवाति अज्ञातुकामोव हुत्वा । अन्भधिसूति यथा तेसं पटिञा, तथैव जानिंसु। इदं वुत्तं होति- सचे नेसं सा पटिञा निय्यानिका, सब्बे अब्भनंसु, नो चे, न अब्भअंसु । तस्मा किं तेसं पटिञा निय्यानिका, 161 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.२१४-२१४) अनिय्यानिकाति अयमेव तस्स पञ्हस्स अत्थो । अथ भगवा तेसं अनिय्यानिकभावकथनेन अत्थाभावतो चेव ओकासाभावतो च “अल"न्ति पटिक्खिपित्वा धम्ममेव देसेसि । पठमयामस्मिहि मल्लानं धम्म देसेत्वा मज्झिमयामे सुभद्दस्स, पच्छिमयामे भिक्खुसङ्घ ओवदित्वा बलवपच्चूससमये परिनिब्बायिस्सामिच्चेव भगवा आगतो। २१४. समणोपि तत्थ न उपलब्भतीति पठमो सोतापन्नसमणोपि तत्थ नत्थि, दुतियो सकदागामिसमणोपि, ततियो अनागामिसमणोपि, चतुत्थो अरहत्तसमणोपि तत्थ नत्थीति अत्थो । “इमस्मिं खो''ति पुरिमदेसनाय अनियमतो चत्वा इदानि अत्तनो सासनं नियमेन्तो आह । सुञा परप्पवादा समणेभीति चतुन्नं मग्गानं अत्थाय आरद्धविपस्सकेहि चतूहि, मग्गटेहि चतूहि, फलटेहि चतूहीति द्वादसहि समणेहि सुञा परप्पवादा तुच्छा रित्तका । इमे च सुभद्दाति इमे द्वादस भिक्खू । सम्मा विहरेय्युन्ति एत्थ सोतापन्नो अत्तनो अधिगतहानं अञस्स कथेत्वा तं सोतापन्नं करोन्तो सम्मा विहरति नाम | एस नयो सकदागामिआदीसु । सोतापत्तिमग्गट्ठो अञम्पि सोतापत्तिमग्गटुं करोन्तो सम्मा विहरति नाम । एस नयो सेसमग्गढेसु । सोतापत्तिमग्गत्थाय आरद्धविपस्सको अत्तनो पगुणं कम्मट्ठानं कथेत्वा अचम्पि सोतापत्तिमग्गत्थाय आरद्धविपस्सकं करोन्तो सम्मा विहरति नाम । एस नयो सेसमग्गत्थाय आरद्धविपस्सकेसु । इदं सन्धायाह – “सम्मा विहरेय्यु"न्ति । असुओ लोको अरहन्तेहि अस्साति नळवनं सरवनं विय निरन्तरो अस्स । एकूनतिंसो वयसाति वयेन एकूनतिंसवस्सो हुत्वा। यं पब्बनिन्ति एत्थ यन्ति निपातमत्तं । किं कुसलानुएसीति "किं कुसल"न्ति अनुएसन्तो परियेसन्तो। तत्थ - “किं कुसल''न्ति सब्ब ताणं अधिप्पेतं, तं गवेसन्तोति अत्थो । यतो अहन्ति यतो पट्ठाय अहं पब्बजितो, एत्थन्तरे समधिकानि पास वस्सानि होन्तीति दस्सेति । आयस्स धम्मस्साति अरियमग्गधम्मस्स । पदेसवत्तीति पदेसे विपस्सनामग्गे पवत्तन्तो। इतो बहिद्धाति मम सासनतो बहिद्धा । _ समणोपि नत्थीति पदेसवत्तिविपस्सकोपि नत्थि, पठमसमणो सोतापन्नोपि नत्थीति वुत्तं होति । ये एत्थाति ये तुम्हे एत्थ सासने सत्थारा सम्मुखा अन्तेवासिकाभिसेकेन अभिसित्ता, तेसं वो लाभा तेसं वो सुलद्धन्ति । बाहिरसमये किर यं अन्तेवासिकं आचरियो – “इमं 162 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२१६-२१६) तथागतपच्छिमवाचावण्णना__ १६३ पब्बाजेहि, इमं ओवद, इमं अनुसासा''ति वदति, सो तेन अत्तनो ठाने ठपितो होति, तस्मा तस्स - "इमं पब्बजेहि, इमं ओवद, इमं अनुसासा"ति इमे लाभा होन्ति । थेरम्पि सुभद्दो तमेव बाहिरसमयं गहेत्वा एवमाह । अलत्थ खोति कथं अलत्थ ? थेरो किर नं एकमन्तं नेत्वा उदकतुम्बतो पानीयेन सीसं तेमेत्वा तचपञ्चककम्मट्ठानं कथेत्वा केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादापेत्वा सरणानि दत्वा भगवतो सन्तिकं आनेसि । भगवा उपसम्पादेत्वा कम्मट्ठानं आचिक्खि । सो तं गहेत्वा उय्यानस्स एकमन्ते चङ्कम अधिट्ठाय घटेन्तो वायमन्तो विपस्सनं वड्डेन्तो सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं पत्वा आगम्म भगवन्तं वन्दित्वा निसीदि । तं सन्धाय - “अचिरूपसम्पन्नो खो पना"तिआदि वुत्तं । __सो च भगवतो पच्छिमो सक्खिसावको अहोसीति सङ्गीतिकारकानं वचनं । तत्थ यो भगवति धरमाने पब्बजित्वा अपरभागे उपसम्पदं लभित्वा कम्मट्ठानं गहेत्वा अरहत्तं पापुणाति, उपसम्पदम्पि वा धरमानेयेव लभित्वा अपरभागे कम्मट्ठानं गहेत्वा अरहत्तं पापुणाति, कम्मट्ठानम्पि वा धरमानेयेव गहेत्वा अपरभागे अरहत्तमेव पापुणाति, सब्बोपि सो पच्छिमो सक्खिसावको । अयं पन धरमानेयेव भगवति पब्बजितो च उपसम्पन्नो च कम्मट्ठानञ्च गहेत्वा अरहत्तं पत्तोति ।। पञ्चमभाणवारवण्णना निहिता । तथागतपच्छिमवाचावण्णना २१६. इदानि भिक्खुसङ्घस्स ओवादं आरभि, तं दस्सेतुं अथ खो भगवातिआदि वुत्तं । तत्थ देसितो पञत्तोति धम्मोपि देसितो चेव पञत्तो च, विनयोपि देसितो चेव पञ्चत्तो च । पञ्जत्तो च नाम ठपितो पट्टपितोति अत्थो। सो वो ममच्चयेनाति सो धम्मविनयो तुम्हाकं ममच्चयेन सत्था । मया हि वो ठितेनेव - "इदं लहुकं, इदं गरुकं, इदं सतेकिच्छं, इदं अतेकिच्छं, इदं लोकवज्जं, इदं पण्णत्तिवज्जं, अयं आपत्ति पुग्गलस्स सन्तिके वुट्ठाति, अयं आपत्ति गणस्स सन्तिके वुट्ठाति, अयं सङ्घस्स सन्तिके 163 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा वुट्ठाती 'ति सत्तापत्तिक्खन्धवसेन ओतिण्णे वत्थुस्मिं सखन्धकपरिवारो उभतोविभङ्गो बिनयो नाम देसितो, तं सकलम्पि विनयपिटकं मयि परिनिब्बुते तुम्हाकं सत्थुकिच्चं साधेस्त १६४ ठितेनेव च मया " इमे चत्तारो सतिपट्ठाना, चत्तारो सम्मप्पधाना, चत्तारो इद्धिपादा, पञ्च इन्द्रियानि, पञ्च बलानि, सत्त बोज्झङ्गा, अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो "ति तेन तेनाकारेन इमे धम्मे विभजित्वा विभजित्वा सुत्तन्तपिटकं देसितं तं सकलम्पि सुत्तन्तपिटकं मयि परिनिब्बुते तुम्हाकं सत्थुकिच्चं साधेस्सति । ठितेनेव च मया - “इमे पञ्चक्खन्धा, द्वादसायतनानि, अट्ठारस धातुयो, चत्तारि सच्चानि, बावीसतिन्द्रियानि, नव हेतू, चत्तारो आहारा, सत्त फस्सा, सत्त वेदना, सत्त सञ्ञा, सत्त सञ्चेतना, सत्त चित्तानि । तत्रापि एत्तका धम्मा कामावचरा, एत्तका रूपावचरा, एत्तका अरूपावचरा, एत्तका परियापन्ना, एत्तका अपरियापन्ना, एत्तका लोकिया, एत्तका लोकुत्तरा 'ति" इमे धम्मे विभजित्वा विभजित्वा चतुवीसतिसमन्तपट्टान अनन्तनयमहापट्ठानपटिमण्डितं अभिधम्मपिटकं देसितं तं सकलम्पि अभिधम्मपिटकं मयि परिनिब्बुते तुम्हाकं सत्धुकिच्चं साधेस्सति । - इति सब्बम्पेतं अभिसम्बोधितो याव परिनिब्बाना पञ्चचत्तालीसवस्सानि भासितं लपितं – “तीणि पिटकानि, पञ्च निकाया, नवङ्गानि, चतुरासीति धम्मक्खन्धसहस्सानी "ति एवं महापभेदं होति । इति इमानि चतुरासीति धम्मक्खन्धसहस्सानि तिट्ठन्ति, अहं एकोव परिनिब्बायामि । अहञ्च खो पन दानि एककोव ओवदामि अनुसासामि, मि परिनिब्बुते इमानि चतुरासीति धम्मक्खन्धसहस्सानि तुम्हे ओवदिस्सन्ति अनुसासित एवं भगवा बहूनि कारणानि दस्सेन्तो – “सो वो ममच्चयेन सत्था "ति वदित्वा पुन अनागते चारित्तं दस्सेन्तो यथा खो पनाति आदिमाह । (३.२१६-२१६) तत्थ समुदाचरन्तीति कथेन्ति वोहरन्ति । नामेन वा गोत्तेन वाति नवकाति अवत्वा “तिस्स, नागा’”ति एवं नामेन वा, “कस्सप, गोतमा ति एवं गोत्तेन वा, "आसो तिस्स, आवुसो कस्सपा "ति एवं आवुसोवादेन वा समुदाचरितब्बो । भन्तेति वा आयस्माति वाति भन्ते तिस्स, आयस्मा तिस्साति एवं समुदाचरितब्बो । समूहनतूति आकङ्क्षमानो समूहनतु, यदि इच्छति समूहनेय्याति अत्थो । कस्मा पन समूहनथाति एकंसेनेव अवत्वा विकप्पवचनेनेव ठपेसीति ? महाकस्सपस्स बलं दिट्ठत्ता । पस्सति हि 164 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२१६-२१६) तथागतपच्छिमवाचावण्णना १६५ भगवा - “समूहनथाति वुत्तेपि सङ्गीतिकाले कस्सपो न समूहनिस्सती''ति । तस्मा विकप्पेनेव ठपेसि । तत्थ - "एकच्चे थेरा एवमाहंसु- चत्तारि पाराजिकानि ठपेत्वा अवसेसानि खुद्दानुखुद्दकानी"तिआदिना नयेन पञ्चसतिकसङ्गीतियं खुद्दानुखुद्दककथा आगताव विनिच्छयो पेत्थ समन्तपासादिकायं वुत्तो। केचि पनाहु - "भन्ते, नागसेन, कतमं खुद्दकं, कतमं अनुखुद्दक"न्ति मिलिन्देन रञा पुच्छितो । “दुक्कटं, महाराज, खुद्दकं, दुब्भासितं अनुखुद्दक"न्ति वुत्तत्ता नागसेनत्थेरो खुद्दानुखुद्दकं जानाति । महाकस्सपो पन तं अजानन्तो "सुणातु मे, आवुसो, सङ्घो सन्तम्हाकं सिक्खापदानि गिहिगतानि, गिहिनोपि जानन्ति - "इदं वो समणानं सक्यपुत्तियानं कप्पति, इदं वो न कप्पती"ति । सचे मयं खुद्दानुखुद्दकानि सिक्खापदानि समूहनिस्साम, भविस्सन्ति वत्तारो"धूमकालिकं समणेन गोतमेन सावकानं सिक्खापदं पञत्तं, याव नेसं सत्था अट्ठासि, ताविमे सिक्खापदेसु सिक्खिंसु, यतो इमेसं सत्था परिनिब्बुतो, न दानिमे सिक्खापदेसु सिक्खन्तीति । यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं, सङ्घो अपञत्तं न पञ्जपेय्य, पञत्तं न समुच्छिन्देय्य, यथापञ्जत्तेसु सिक्खापदेसु समादाय वत्तेय्य । एसा अत्तीति - कम्मवाचं सावेसीति । न तं एवं गहेतब्बं । नागसेनत्थेरो हि- "परवादिनो ओकासो मा अहोसी"ति एवमाह। महाकस्सपत्थेरो "खुद्दानुखुद्दकापत्तिं न समूहनिस्सामी''ति कम्मवाचं सावेसि । ब्रह्मदण्डकथापि सङ्गीतियं आगतत्तासमन्तपासादिकायं विनिच्छिता । कङ्घाति द्वेळहकं । विमतीति विनिच्छितुं असमत्थता, बुद्धो नु खो, न बुद्धो नु खो, धम्मो नु खो, न धम्मो नु खो, सङ्घो नु खो, न सङ्घो नु खो, मग्गो नु खो, न मग्गो नु खो, पटिपदा नु खो, न पटिपदा नु खोति यस्स संसयो उप्पज्जेय्य, तं वो वदामि “पुच्छथ भिक्खवे"ति अयमेत्थ सोपत्थो। सत्थुगारवेनापि न पुच्छेय्याथाति मयं सत्थुसन्तिके पब्बजिम्ह, चत्तारो पच्चयापि नो सत्थु सन्तकाव, ते मयं एत्तकं कालं कडं 165 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.२१८-२१९) अकत्वा न अरहाम अज्ज पच्छिमकाले कथं कातुन्ति सचे एवं सत्थरि गारवेन न पुच्छथ । सहायकोपि भिक्खवे सहायकस्स आरोचेतूति तुम्हाकं यो यस्स भिक्खुनो सन्दिट्ठो सम्भत्तो, सो तस्स आरोचेतु, अहं एतस्स भिक्खुस्स कथेस्सामि, तस्स कथं सुत्वा सब्बे निक्कङ्खा भविस्सथाति दस्सेति । एवं पसनोति एवं सद्दहामि अहन्ति अत्थो। जाणमेवाति निक्कङ्खभावपच्चक्खकरणजाणंयेव, एत्थ तथागतस्स न सद्धामत्तन्ति अत्थो । इमेसहि, आनन्दाति इमेसं अन्तोसाणियं निसिन्नानं पञ्चन्नं भिक्खुसतानं । यो पच्छिमकोति यो गुणवसेन पच्छिमको । आनन्दत्थेरंयेव सन्धायाह । २१८. अप्पमादेन सम्पादेथाति सतिअविप्पवासेन सब्बकिच्चानि सम्पादेय्याथ । इति भगवा परिनिब्बानमञ्चे निपन्नो पञ्चचत्तालीस वस्सानि दिन्नं ओवादं सब्बं एकस्मिं अप्पमादपदेयेव पक्खिपित्वा अदासि। अयं तथागतस्स पच्छिमा वाचाति इदं पन सङ्गीतिकारकानं वचनं ।। परिनिब्बुतकथावण्णना __२१९. इतो परं यं परिनिब्बानपरिकम्मं कत्वा भगवा परिनिब्बुतो, तं दस्सेतुं अथ खो भगवा पठमं झानन्तिआदि वुत्तं । तत्थ परिनिब्बुतो भन्तेति निरोधं समापन्नस्स भगवतो अस्सासपस्सासानं अभावं दिस्वा पुच्छति । न आवुसोति थेरो कथं जानाति ? थेरो किर सत्थारा सद्धिंयेव तं तं समापत्तिं समापज्जन्तो याव नेवसानासायतना वुढानं, ताव गन्त्वा इदानि भगवा निरोधं समापन्नो, अन्तोनिरोधे च कालङ्किरिया नाम नत्थीति जानाति । अथ खो भगवा सञ्जावेदयितनिरोधसमापत्तिया वुट्ठहित्वा नेवसञानास आयतनं समापज्जि...पे०... ततियज्झाना वुट्ठहित्वा चतुत्थज्झानं समापज्जीति एत्थ भगवा चतुवीसतिया ठानेसु पठमज्झानं समापज्जि, तेरससु ठानेसु दुतियज्झानं, तथा ततियज्झानं, पन्नरससु ठानेसु चतुत्थज्झानं समापज्जि । कथं ? दससु असुभेसु, द्वत्तिंसाकारे अट्ठसु कसिणेसु, मेत्ताकरुणामुदितासु, आनापाने, परिच्छेदाकासेति इमेसु ताव चतुवीसतिया ठानेसु पठमज्झानं समापज्जि.। ठपेत्वा पन द्वत्तिंसाकारञ्च दस असुभानि च सेसेसु तेरससु 166 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२२०-२२२) परिनिब्बुतकथावण्णना दुतियज्झानं, तेसुयेव च ततियज्ज्ञानं समापज्जि । असु पन कसिणेसु, उपेक्खाब्रह्मविहारे, आनापाने, परिच्छेदाकासे, चतूसु अरूपेसूति इमेसु पन्नरससु ठानेसु चतुत्थज्झानं समापज्जि । अयम्पि च सङ्क्षेपकथाव । निब्बानपुरं पविसन्तो पन भगवा धम्मस्सामी सब्बापि चतुवीसतिकोटिसतसहस्ससङ्ख्या समापत्तियो पविसित्वा विदेसं गच्छन्तो आतिजनं आलिङ्गेत्वा विय सब्बसमापत्तिसुखं अनुभवित्वा पविट्टो | चतुत्थज्झाना वुट्ठहित्वा समनन्तरा भगवा परिनिब्बायीति एत्थ झानसमनन्तरं, पच्चवेक्खणासमनन्तरन्ति द्वे समनन्तरानि । तत्थ झाना वुट्ठायं भवङ्गं ओतिण्णस्स तत्थेव परिनिब्बानं झानसमनन्तरं नाम । झाना वुट्ठहित्वा पुन झानङ्गानि पच्चवेक्खित्वा भव ओतिण्णस्स तत्थेव परिनिब्बानं पच्चवेक्खणासमनन्तरं नाम । इमानिपि द्वे समनन्तरानेव । भगवा पन झानं समापज्जित्वा झाना वुट्ठाय झानङ्गानि पच्चवेक्खित्वा भवङ्गचित्तेन अब्याकतेन दुक्खसच्चेन परिनिब्बायि । ये हि केचि बुद्धा वा पच्चेकबुद्धा वा अरियसावका वा अन्तमसो कुन्थकिपिल्लिकं उपादाय सब्बे भवङ्गचित्तेनेव अब्याकतेन दुक्खसच्चेन कालङ्करोन्तीति । महाभूमिचालादीनि वृत्तनयानेवाति । १६७ २२०. भूताति सत्ता । अप्पटिपुग्गलोति पटिभागपुग्गलविरहितो । बलप्पत्तोति दसविधञाणबलं पत्तो । २२१. उप्पादवयधम्मिनोति उप्पादवयसभावा । तेसं वूपसमोति तेसं सङ्घारानं वूपसमो, असङ्घतं निब्बानमेव सुखन्ति अत्थो । २२२. नाहु अस्सासपस्सासोति न जातो अस्सासपस्सासो । अनेजोति तहासङ्घाताय एजाय अभावेन अनेजो । सन्तिमारब्भाति अनुपादिसेसं निब्बानं आरम्भ पटिच्च सन्धाय । यं कालमकरीति यो कालं अकरि । इदं वृत्तं होति - " आवुसो, यो मम सत्था बुद्धमुनि सन्तिं गमिस्सामीति, सन्तिं आरम्भ कालमकरि, तस्स ठितचित्तस्स तादिनो इदानि अस्सासपस्सासो न जातो, नत्थि, नप्पवत्तती 'ति । असल्लीनेनाति अलीनेन असङ्कुटितेन सुविकसितेनेव चित्तेन । वेदनं अज्झवासयीति वेदनं अधिवासेसि, न वेदनानुवत्ती हुत्वा इतो चितो च सम्परिवत्ति । विमोक्खति केनचि धम्मेन अनावरणविमोक्खो सब्बसो अपञ्ञत्तिभावूपगमो पज्जोतनिब्बानसदिसो जातो । 167 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा २२३. तदासीति ‘“सह परिनिब्बाना महाभूमिचालो "ति एवं हेट्ठा वुत्तं भूमिचालमेव सन्धायाह । तञ्हि लोमहंसनञ्च भिसनकञ्च आसि । सब्बाकारवरूपेतेति सब्बवरकारणूपेते । १६८ २२४. अवीतरागाति पुथुज्जना चेव सोतापन्नसकदागामिनो च । तेसञ्हि दोमनस्सं अप्पहीनं । तस्मा तेपि बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति । उभोपि हत्थे सीसे ठपेत्वा रोदन्तीति सब्बं पुरिमनयेनेव वेदितब्बं । २२५. उज्झायन्तीति “ 'अय्या अत्तनापि अधिवासेतुं न सक्कोन्ति, सेसजनं कथं समस्सासेस्सन्ती'ति वदन्तियो उज्झायन्ति । कथंभूता पन भन्ते आयस्मा अनुरुद्धो देवता मनसिकरोतीति देवता, भन्ते, कथंभूता आयस्मा अनुरुद्धो सल्लक्खेति, किं ता सत्थु परिनिब्बानं अधिवासेन्तीति ? (३.२२३-२२७) अथ तासं पवत्तिदस्सनत्थं थेरो सन्तावुसोति आदिमाह । तं वुत्तत्थमेव । स्तावसेसन्ति बलवपच्चूसे परिनिब्बुतत्ता रत्तिया अवसेसं चुल्लकद्धानं । धम्मिया कथायाति अञ्ञा पाटियेक्का धम्मकथा नाम नत्थि, “आवुसो सदेवके नाम लोके अप्पटि पुग्गलस्स सत्थुनो अयं मच्चुराजा न लज्जति, किमङ्गं पन लोकियमहाजनस्स लज्जिस्सती 'ति एवरूपाय पन मरणपटिसंयुत्ताय कथाय वीतिनामेसुं । तेसहि तं कथं कथेन्तानं मुहुत्तेनेव अरुणं उग्गच्छि । २२६. अथ खोति अरुणुग्गं दिस्वाव थेरो थेरं एतदवोच । तेनेव करणीयेनाति कीदिसेन नु खो परिनिब्बानट्ठाने मालागन्धादिसक्कारेन भवितब्बं, कीदिसेन भिक्खुसङ्घस्स निसज्जट्ठानेन भवितब्बं, कीदिसेन खादनीयभोजनीयेन भवितब्बन्ति, एवं यं भगवतो परिनिब्बुतभावं सुत्वा कत्तब्बं तेनेव करणीयेन । बुद्धसरीरपूजावण्णना २२७. सब्बञ्च ताळावचरन्ति सब्बं तूरियभण्डं । सन्निपातेथाति भेरिं चरापेत्वा समारथ । ते तथेव अकंसु । मण्डलमाळेति दुस्समण्डलमाळे । पटियादेन्ताति सज्जेन्ता । दक्खिन दक्खिणन्ति नगरस्स दक्खिणदिसाभागेनेव दक्खिणदिसाभागं । बाहिरेन 168 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२२८-२२९) बुद्धसरीरपूजावण्णना बाहिरन्ति अन्तोनगरं अप्पवेसेत्वा बाहिरेनेव नगरस्स बाहिरपस्सं हरित्वा । दक्खिणतो नगरस्साति अनुराधपुरस्स दक्खिणद्वारसदिसे ठाने ठपेत्वा सक्कारसम्मानं कत्वा जेतवनसदिसे ठाने झापेस्सामाति अत्थो । २२८. अट्ठ मल्लपामोक्खाति मज्झिमवया थामसम्पन्ना अट्ठमल्लराजानो । सीसं न्हाताति सीसं धोवित्वा नहाता । आयस्मन्तं अनुरुद्धन्ति थेरोव दिब्बचक्खुकोति पाकटो, तस्मा ते सन्तेसुपि असु महाथेरेसु - " अयं नो पाकटं कत्वा कथेस्सती 'ति थेरं पुच्छिंसु । कथं पन, भन्ते, देवतानं अधिप्पायोति भन्ते, अम्हाकं ताव अधिप्पायं जानाम | देवतानं कथं अधिप्पायोति पुच्छन्ति । थेरो पठमं तेसं अधिप्पायं दस्सेन्तो तुम्हाकं खोतिआदिमाह । मकुटबन्धनं नाम मल्लानं चेतियन्ति मल्लराजूनं पसाधनमङ्गलसालाय एवं नामं । चित्तीकतट्ठेन पनेसा " चेतियन्ति वुच्चति । १६९ २२९. याव सन्धिसमलसङ्कटीराति एत्थ सन्धि नाम घरसन्धि । समलं नाम गूथरासिनिद्धमनपनाकि । सङ्कटीरं नाम सङ्कारट्ठानं । दिब्बेहि च मानुसकेहि च नच्चेहीति उपरि देवतानं नच्चानि होन्ति, हेट्ठा मनुस्सानं । एस नयो गीतादीसु । अपिच देवतानं अन्तरे मनुस्सा, मनुस्सानं अन्तरे देवताति एवम्पि सक्करोन्ता पूजेन्ता अगमंसु । मज्झेन मज्झं नगरस्स हरित्वाति एवं हरियमाने भगवतो सरीरे बन्धुलमल्लसेनापतिभरिया मल्लिका नाम - "भगवतो सरीरं आहरन्ती "ति सुत्वा अत्तनो सामिकस्स कालं किरियतो पट्टाय अपरिभुञ्जित्वा ठपितं विसाखाय पसाधनसदिसं महालतापसाधनं नीहरापेत्वा - "इमिना सत्थारं पूजेस्सामी 'ति तं मज्जापेत्वा गन्धोदकेन धोवित्वा द्वारे ठिता । तं किर पसाधनं तासञ्च द्विन्नं इत्थीनं देवदानियचोरस्स गेहेति तीसुयेव ठानेसु अहोसि । सा च सत्थु सरीरे द्वारं सम्पत्ते - "ओतारेथ, ताता, सत्थुसरीर "न्ति वत्वा तं पसाधनं सत्थुसरीरे पटिमुञ्चि । तं सीसतो पट्ठाय पटिमुक्कं यावपादतलागतं । सुवण्णवण्णं भगवतो सरीरं सत्तरतनमयेन महापसाधनेन पसाधितं अतिविय विरोचित्थ । तं सा दिस्वा पसन्नचित्ता पत्थनं अकासि - "भगवा याव वट्टे संसरिस्सामि, ताव मे पाटियेक्कं पसाधनकिच्चं मा होतु, निच्चं पटिमुक्कपसाधनसदिसमेव सरीरं होतू" ति । अथ भगवन्तं सत्तरतनमयेन महापसाधनेन उक्खिपित्वा पुरत्थिमेन द्वारेन नीहरित्वा पुरत्थिमेन नगरस्स मकुटबन्धनं मल्लानं चेतियं, एत्थ भगवतो सरीरं निक्खिपिंसु । 169 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.२३१-२३१) महाकस्सपत्थेरवत्थुवण्णना २३१. पावाय कुसिनारन्ति पावानगरे पिण्डाय चरित्वा “कुसिनारं गमिस्सामीति अद्धानमग्गप्पटिपन्नो होति । रुक्खमूले निसीदीति एत्थ कस्मा दिवाविहारन्ति न वुत्तं ? दिवाविहारत्थाय अनिसिन्नत्ता । थेरस्स हि परिवारा भिक्खू सब्बे सुखसंवद्धिता महापुञ्जा। ते मज्झन्हिकसमये तत्तपासाणसदिसाय भूमिया पदसा गच्छन्ता किलमिंसु । थेरो ते दिस्वा- "भिक्खू किलमन्ति, गन्तब्बट्ठानञ्च न दूरं, थोकं विस्समित्वा दरथं पटिप्पस्सम्भेत्वा सायन्हसमये कुसिनारं गन्त्वा दसबलं पस्सिस्सामी''ति मग्गा ओक्कम्म अञ्जतरस्मिं रुक्खमूले सङ्घाटिं पञपेत्वा उदकतुम्बतो उदकेन हत्थपादे सीतले कत्वा निसीदि । परिवारभिक्खूपिस्स रुक्खमूले निसीदित्वा योनिसो मनसिकारे कम्मं कुरुमाना तिण्णं रतनानं वणं भणमाना निसीदिंसु । इति दरथविनोदनत्थाय निसिन्नत्ता "दिवाविहार"न्ति न वुत्तं । मन्दारवपुर्फ गहेत्वाति महापातिप्पमाणं पुष्पं आगन्तुकदण्डके ठपेत्वा छत्तं विय गहेत्वा । अद्दस खोति आगच्छन्तं दूरतो अद्दस । दिस्वा च पन चिन्तेसि “एतं आजीवकस्स हत्थे मन्दारवपुष्पं पञ्जायति, एतञ्च न सब्बदा मनुस्सपथे पायति, यदा पन कोचि इद्धिमा इद्धिं विकुब्बति, तदा सब्ब बोधिसत्तस्स च मातुकुच्छिओक्कमनादीसु होति । न खो पन अज्ज केनचि इद्धिविकुब्बनं कतं, न मे सत्था मातुकुच्छिं ओक्कन्तो, न कुच्छितो निक्खमन्तो, नापिस्स अज्ज अभिसम्बोधि, न धम्मचक्कप्पवत्तनं, न यमकपाटिहारियं, न देवोरोहणं, न आयुसङ्खारोस्सज्जनं । महल्लको पन मे सत्था धुवं परिनिब्बुतो भविस्सती"ति | ततो- “पुच्छामि नन्ति चित्तं उप्पादेत्वा- "सचे खो पन निसिन्नकोव पुच्छामि, सत्थरि अगारवो कतो भविस्सती"ति उद्यहित्वा ठितट्ठानतो अपक्कम्म छद्दन्तो नागराजा मणिचम्मं विय दसबलदत्तियं मेघवण्णं पंसुकूलचीवरं पारुपित्वा दसनखसमोधानसमुज्जलं अञ्जलिं सिरस्मिं पतिठ्ठपेत्वा सत्थरि कतेन गारवेन आजीवकस्स अभिमुखो हुत्वा"आवुसो, अम्हाकं सत्थारं जानासी"ति आह । किं पन सत्थु परिनिब्बानं जानन्तो पुच्छि अजानन्तोति ? आवज्जनपटिबद्धं खीणासवानं जाननं, अनावज्जितत्ता पनेस अजानन्तो 170 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२३२-२३२) महाकस्सपत्थेरवत्थुवण्णना १७१ पुच्छीति एके । थेरो समापत्तिबहुलो, रत्तिहानदिवाट्ठानलेणमण्डपादीसु निच्चं समापत्तिबलेनेव यापेति, कुलसन्तकम्पि गामं पविसित्वा द्वारे समापत्तिं समापज्जित्वा समापत्तितो वुट्ठितोव भिक्खं गण्हाति । थेरो किर इमिना पछिमेन अत्तभावेन महाजनानुग्गहं करिस्सामि"ये मय्हं भिक्खं वा देन्ति गन्धमालादीहि वा सक्कारं करोन्ति, तेसं तं महप्फलं होतू"ति एवं करोति । तस्मा समापत्तिबहुलताय न जानाति । इति अजानन्तोव पुच्छतीति वदन्ति, तं न गहेतब् । न हेत्थ अजाननकारणं अस्थि । अभिलक्खितं सत्थु परिनिब्बानं अहोसि, दससहस्सिलोकधातुकम्पनादीहि निमित्तेहि । थेरस्स पन परिसाय केहिचि भिक्खूहि भगवा दिट्ठपुब्बो, केहिचि न दिठ्ठपुब्बो, तत्थ येहिपि दिठ्ठपुब्बो, तेपि पस्सितुकामाव, येहिपि अदिट्ठपुब्बो, तेपि पस्सितुकामाव । तत्थ येहि न दिट्टपुब्बो, ते अतिदस्सनकामताय गन्त्वा "कुहिं भगवा"ति पुच्छन्ता “परिनिब्बुतो"ति सुत्वा सन्धारेतुं नासक्खिस्सन्ति । चीवरञ्च पत्तञ्च छड्डेत्वा एकवत्था वा दुन्निवत्था वा दुप्पारुता वा उरानि पटिपिसन्ता परोदिस्सन्ति । तत्थ मनुस्सा- “महाकस्सपत्थेरेन सद्धिं आगता पंसुकूलिका सयम्पि इथियो विय परोदन्ति, ते किं अम्हे समस्सासेस्सन्ती"ति मय्हं दोसं दस्सन्ति । इदं पन सुझं महाअरञ्ज, इध यथा तथा रोदन्तेसु दोसो नत्थि । पुरिमतरं सुत्वा नाम सोकोपि तनुको होतीति भिक्खूनं सतुष्पादनत्थाय जानन्तोव पुच्छि। ___ अज्ज सत्ताहपरिनिब्बुतो समणो गोतमोति अज्ज समणो गोतमो सत्ताहपरिनिब्बुतो । ततो मे इदन्ति ततो समणस्स गोतमस्स परिनिब्बुतहानतो । २३२. सुभद्दो नाम वुड्डपब्बजितोति "सुभद्दो"ति तस्स नामं । वुड्डकाले पन पब्बजितत्ता "वुड्डपब्बजितो"ति वुच्चति । कस्मा पन सो एवमाह ? भगवति आघातेन । अयं किरेसो खन्धके आगते आतुमावत्थुस्मिं नहापितपुब्बको वुड्डपब्बजितो भगवति कुसिनारतो निक्खमित्वा अड्डतेळसेहि भिक्खुसतेहि सद्धिं आतुमं आगच्छन्ते भगवा आगच्छतीति सुत्वा - "आगतकाले यागुपानं करिस्सामी"ति सामणेरभूमियं ठिते द्वे पुत्ते एतदवोच- "भगवा किर, ताता, आतुमं आगच्छति महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं अड्डतेळसेहि भिक्खुसतेहि; गच्छथ तुम्हे, ताता, खुरभण्डं आदाय नाळियावापकेन अनुघरकं अनुघरकं आहिण्डथ लोणम्पि तेलम्पि तण्डुलम्पि खादनीयम्पि संहरथ भगवतो आगतस्स यागुपानं करिस्सामा"ति (महाव० ३०३) । ते तथा अकंसु । 171 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.२३२-२३२) ___ मनुस्सा ते दारके मञ्जुके पटिभानेय्यके दिस्वा कारेतुकामापि अकारेतुकामापि कारेन्तियेव । कतकाले – “किं गण्हिस्सथ ताता"ति पुच्छन्ति । ते वदन्ति- “न अम्हाकं अञ्जन केनचि अत्थो, पिता पन नो भगवतो, आगतकाले यागुदानं दातुकामो''ति । तं सुत्वा मनुस्सा अपरिगणेत्वाव यं ते सक्कोन्ति आहरितुं, सब्बं देन्ति । यम्पि न सक्कोन्ति, मनुस्सेहि पेसेन्ति । अथ भगवति आतुमं आगन्त्वा भुसागारं पविढे सुभद्दो सायन्हसमयं गामद्वारं गन्त्वा मनुस्से आमन्तेसि- "उपासका, नाहं तुम्हाकं सन्तिका अझं किञ्चि पच्चासीसामि, मय्हं दारकेहि आभतानि तण्डुलादीनियेव सङ्घस्स पहोन्ति । यं हत्थकम्म, तं मे देथा''ति । “इदञ्चिदञ्च गण्हथा"ति सब्बूपकरणानि गाहेत्वा विहारे उद्धनानि कारेत्वा एकं काळकं कासावं निवासेत्वा तादिसमेव पारुपित्वा - "इदं करोथ, इदं करोथा''ति सब्बरत्तिं विचारेन्तो सतसहस्सं विस्सज्जेत्वा भोज्जयागुञ्च मधुगोळकञ्च पटियादापेसि । भोज्जयागु नाम भुजित्वा पातब्बयागु, तत्थ सप्पिमधुफाणितमच्छमंसपुप्फफलरसादि यं किञ्चि खादनीयं नाम सब्बं पक्खिपति कीळितुकामानं सीसमक्खनयोग्गा होति सुगन्धगन्धा । अथ भगवा कालस्सेव सरीरपटिजग्गनं कत्वा भिक्खुसङ्घपरिवुतो पिण्डाय चरितुं आतुमनगराभिमुखो पायासि । मनुस्सा तस्स आरोचेसुं- "भगवा पिण्डाय गामं पविसति, तया कस्स यागु पटियादिता"ति । सो यथानिवत्थपारुतेहेव तेहि काळककासावेहि एकेन हत्थेन दब्बिञ्च कटच्छुञ्च गहेत्वा ब्रह्मा विय दक्खिणजाणुमण्डलं भूमियं पतिठ्ठपेत्वा वन्दित्वा - “पटिग्गण्हातु मे, भन्ते, भगवा यागु''न्ति आह । ततो “जानन्तापि तथागता पुच्छन्तीति खन्धके आगतनयेन भगवा पुच्छित्वा च सुत्वा च तं वुड्डपब्बजितं विगरहित्वा तस्मिं वत्थुस्मिं अकप्पियसमादानसिक्खापदञ्च, खुरभण्डपरिहरणसिक्खापदञ्चाति द्वे सिक्खापदानि पञ्जपेत्वा- "भिक्खवे, अनेककप्पकोटियो भोजनं परियेसन्तेहेव वीतिनामिता, इदं पन तुम्हाकं अकप्पियं अधम्मेन उप्पन्नं भोजनं, इमं परिभुत्तानं अनेकानि अत्तभावसहस्सानि अपायेस्वेव ब्बित्तिस्सन्ति, अपेथ मा गण्हथा''ति भिक्खाचाराभिमुखो अगमासि । एकभिक्खुनापि न किञ्चि गहितं । ___ सुभद्दो अनत्तमनो हुत्वा अयं “सब्बं जानामी''ति आहिण्डति । सचे न गहितुकामो, पेसेत्वा आरोचेतब्बं । अयं पक्काहारो नाम सब्बचिरं तिद्वन्तो सत्ताहमत्तं तिडेय्य । इदज्हि मम यावजीवं परियत्तं अस्स। सबं तेन नासितं, अहितकामो अयं 172 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२३२-२३२) महाकस्सपत्थेरवत्थुवण्णना १७३ मय्हन्ति भगवति आघातं बन्धित्वा दसबले धरन्ते किञ्चि वत्तुं नासक्खि । एवं किरस्स अहोसि - “अयं उच्चा कुला पब्बजितो महापुरिसो, सचे किञ्चि वक्खामि, मंयेव सन्तज्जेस्सती''ति । स्वायं अज्ज “परिनिब्बुतो भगवा"ति सुत्वा लद्धस्सासो विय हट्टतुट्ठो एवमाह। थेरो तं सुत्वा हदये पहारदानं विय मत्थके पतितसुक्खासनि विय मञि, धम्मसंवेगो चस्स उप्पज्जि - “सत्ताहमत्तपरिनिब्बुतो भगवा, अज्जापिस्स सुवण्णवण्णं सरीरं धरतियेव, दुक्खेन भगवता आराधितसासने नाम एवं लहु महन्तं पापकसटं कण्टको उप्पन्नो, अलं खो पनेस पापो वड्डमानो अजेपि एवरूपे सहाये लभित्वा सक्का सासनं ओसक्कापेतु"न्ति । ततो थेरो चिन्तेसि ___ "सचे खो पनाहं इमं महल्लकं इधेव पिलोतिकं निवासापेत्वा छारिकाय ओकिरापेत्वा नीहरापेस्सामि, मनुस्सा 'समणस्स गोतमस्स सरीरे धरमानेयेव सावका विवदन्तीति अम्हाकं दोसं दस्सेस्सन्ति अधिवासेमि ताव । भगवता हि देसितो धम्मो असङ्गहितपुप्फरासिसदिसो । तत्थ यथा वातेन पहटपुप्फानि यतो वा ततो वा गच्छन्ति, एवमेव एवरूपानं पापपुग्गलानं वसेन गच्छन्ते गच्छन्ते काले विनये एकं द्वे सिक्खापदानि नस्सिस्सन्ति, सुत्ते एको द्वे पञ्हावारा नस्सिस्सन्ति, अभिधम्मे एकं द्वे भूमन्तरानि नस्सिस्सन्ति, एवं अनुक्कमेन मूले नढे पिसाचसदिसा भविस्साम; तस्मा धम्मविनयसङ्गहं करिस्साम । एवहि सति दळ्हं सुत्तेन सङ्गहितानि पुप्फानि विय अयं धम्मविनयो निच्चलो भविस्सति । एतदत्थहि भगवा मव्हं तीणि गावुतानि पच्चुग्गमनं अकासि, तीहि ओवादेहि उपसम्पदं अदासि, कायतो अपनेत्वा काये चीवरपरिवत्तनं अकासि, आकासे पाणिं चालेत्वा चन्दूपमं पटिपदं कथेन्तो मं कायसक्खिं कत्वा कथेसि, तिक्खत्तुं सकलसासनदायज्जं पटिच्छापेसि । मादिसे भिक्खुम्हि तिट्ठमाने अयं पापो सासने वुद्धिं मा अलत्थ | याव अधम्मो न दिप्पति, धम्मो न पटिबाहियति । अविनयो न दिप्पति विनयो न पटिबाहियति । अधम्मवादिनो न बलवन्तो होन्ति, धम्मवादिनो न दुब्बला होन्ति; अविनयवादिनो न बलवन्तो होन्ति, विनयवादिनो न दुब्बला होन्ति । ताव धम्मञ्च विनयञ्च सङ्गायिस्सामि । ततो भिक्खू अत्तनो अत्तनो पहोनकं गहेत्वा 173 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.२३३-२३४) कप्पियाकप्पियं कथेस्सन्ति । अथायं पापो सयमेव निग्गहं पापुणिस्सति, पुन सीसं उक्खिपितुं न सक्खिस्सति, सासनं इद्धञ्चेव फीतञ्च भविस्सती"ति । सो एवं नाम मय्हं चित्तं उप्पन्नन्ति कस्सचि अनारोचेत्वा भिक्खुसद्धं समस्सासेसि । तेन वुत्तं - “अथ खो आयस्मा महाकस्सपो...पे०... नेतं ठानं विज्जती"ति । २३३. चितकन्ति वीसरतनसतिकं चन्दनचितकं। आळिम्पेस्सामाति अग्गिं गाहापेस्साम । न सक्कोन्ति आळिम्पेतुन्ति अट्ठपि सोळसपि द्वत्तिंसपि जना जालनत्थाय यमकयमकउक्कायो गहेत्वा तालवण्टेहि बीजन्ता भस्ताहि धमन्ता तानि तानि कारणानि करोन्तापि न सक्कोन्तियेव अग्गिं गाहापेतुं । देवतानं अधिप्पायोति एत्थ ता किर देवता थेरस्स उपट्ठाकदेवताव । असीतिमहासावकेसु हि चित्तानि पसादेत्वा तेसं उपट्ठाकानि असीतिकुलसहस्सानि सग्गे निब्बत्तानि । तत्थ थेरे चित्तं पसादेत्वा सग्गे निब्बत्ता देवता तस्मिं समागमे थेरं अदिस्वा- “कुहिं नु खो अम्हाकं कुलूपकत्थेरो"ति अन्तरामग्गे पटिपन्नं दिस्वा “अम्हाकं कुलूपकत्थेरेन अवन्दिते चितको मा पज्जलित्था"ति अधिहिंसु । ___ मनुस्सा तं सुत्वा - “महाकस्सपो किर नाम भो भिक्खु पञ्चहि भिक्खुसतेहि सद्धिं 'दसबलस्स पादे वन्दिस्सामी'ति आगच्छति। तस्मिं किर अनागते चितको न पज्जलिस्सति । कीदिसो भो सो भिक्खु काळो ओदातो दीघो रस्सो, एवरूपे नाम भो भिक्खुम्हि ठिते किं दसबलस्स परिनिब्बानं नामा"ति केचि गन्धमालादिहत्था पटिपथं गच्छिंसु । केचि वीथियो विचित्ता कत्वा आगमनमग्गं ओलोकयमाना अटुंसु । २३४. अथ खो आयस्मा महाकस्सपो येन कुसिनारा...पे०... सिरसा वन्दीति थेरो किर चितकं पदक्खिणं कत्वा आवज्जन्तोव सल्लक्खेसि - "इमस्मिं ठाने सीसं, इमस्मिं ठाने पादा''ति । ततो पादानं समीपे ठत्वा अभिज्ञापादकं चतुत्थज्झानं समापज्जित्वा वुट्टाय - “अरासहस्सपटिमण्डितचक्कलक्खणपतिहिता दसबलस्स पादा सद्धिं कप्पासपटलेहि पञ्च दुस्सयुगसतानि सुवण्णदोणिं चन्दनचितकञ्च द्वेधा कत्वा मय्हं उत्तमङ्गे सिरस्मिं पतिठ्ठहन्तू"ति अधिट्टासि । सह अधिट्ठानचित्तेन तानि पञ्च दुस्सयुगसतानि द्वेधा कत्वा वलाहकन्तरा पुण्णचन्दो विय पादा निक्खमिंसु । थेरो विकसितरत्तपदुमसदिसे हत्थे पसारेत्वा सुवण्णवण्णे सत्थुपादे याव गोप्फका दळ्हं गहेत्वा अत्तनो सिरवरे पतिठ्ठपेसि । तेन वुत्तं - "भगवतो पादे सिरसा वन्दी'ति । 174 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२३५-२३५) महाकस्सपत्थेरवत्थुवण्णना महाजनो तं अच्छरियं दिस्वा एकप्पहारेनेव महानादं नदि, गन्धमालादीहि पूजेत्वा यथारुचि वन्दि । एवं पन थेरेन च महाजनेन च तेहि च पञ्चहि भिक्खुसतेहि वन्दितमत्ते पुन अधिट्ठानकिच्चं नत्थि । पकतिअधिट्ठानवसेनेव थेरस्स हत्थतो मुच्चित्वा अलत्तकवण्णानि भगवतो पादतलानि चन्दनदारुआदीसु किञ्चि अचालेत्वाव यथाठाने पतिहिंसु, यथाठाने ठितानेव अहेसुं । भगवतो हि पादेसु निक्खमन्तेसु वा पविसन्तेसु वा कप्पासअंसु वा दसिकतन्तं वा तेलबिन्दु वा दारुक्खन्धं वा ठाना चलितं नाम नाहोस । सब्बं यथाठाने ठितमेव अहोसि । उट्ठहित्वा पन अत्थङ्गते चन्दे विय सूरिये विय च तथागतस्स पादेसु अन्तरहितेसु महाजनो महाकन्दितं कन्दि । परिनिब्बानका तो अधिकतरं कारु अहोसि । सयमेव भगवतो चितको पज्जलीति इदं पन कस्सचि पज्जलापेतुं वायमन्तस्स अदस्सनवसेन वुत्तं । देवतानुभावेन पनेस समन्ततो एकप्पहारेनेव पज्जलि । १७५ २३५. सरीरानेव अवसिस्सिंसूति पुब्बे एकग्घनेन ठितत्ता सरीरं नाम अहोसि । इदानि विष्पकिण्णत्ता सरीरानीति वुत्तं सुमनमकुळसदिसा च धोतमुत्तसदिसा च सुवणसदिसा च धातुयो अवसिस्सिंसूति अत्थो । दीघायुकबुद्धानहि सरीरं सुवण्णक्खन्धसदिसं एकमेव होति । भगवा पन - " अहं न चिरं ठत्वा परिनिब्बायामि, मय्हं सासनं ताव सब्बत्थ न वित्थारितं, तस्मा परिनिब्बुतस्सापि मे सासपमत्तम्पि धातुं गहेत्वा अत्तनो अत्तनो वसनट्ठाने चेतियं कत्वा परिचरन्तो महाजनो सग्गपरायणो होतू 'ति धातूनं विकिरणं अधिट्ठासि । कति, पनस्स धातुयो विप्पकिण्णा, क विप्पकिण्णाति । चतस्सो दाठा, द्वे अक्खका, उण्हीसन्ति इमा सत्त धातुयो न विप्पकिरिंसु, सेसा विप्पकिरिंसूति । तत्थ सब्बखुद्दका धातु सासपबीजमत्ता अहोसि, महाधातु मज्झे भिन्नतण्डुलमत्ता, अतिमहती मज्झे भिन्नमुग्गमत्ताति । उदकधारात अग्गबाहुमत्तापि जङ्घमत्तापि तालक्खन्धमत्तापि उदकधारा आकास पतित्वा निब्बापेसि । उदकसालतोति परिवारेत्वा ठितसालरुक्खे सन्धायेतं वृत्तं, तेसम्पि हि खन्धन्तरविटपन्तरेहि उदकधारा निक्खमित्वा निब्बापेसुं । भगवतो चितको महन्तो । समन्ता पथविं भिन्दित्वापि नङ्गलसीसमत्ता उदकवट्टि फलिकवटंसकसदिसा उग्गन्त्वा चितकमेव गण्हन्ति । गन्धोदकेनाति सुवण्णघटे रजतघटे च पूरेत्वा आभतनानागन्धोदकेन । निब्बापेसुन्ति सुवण्णमयरजतमयेहि अट्ठदण्डकेहि विकिरित्वा चन्दनचितकं निब्बापेसुं । 175 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.२३५-२३५) एत्थ च चितके झायमाने परिवारेत्वा ठितसालरुक्खानं साखन्तरेहि विटपन्तरेहि पत्तन्तरेहि जाला उग्गच्छन्ति, पत्तं वा साखा वा पुष्कं वा दड्डा नाम नत्थि, किपिल्लिकापि मक्कटकापि जालानं अन्तरेनेव विचरन्ति । आकासतो पतितउदकधारासुपि सालरुक्खेहि निक्खन्तउदकधारासुपि पथविं भिन्दित्वा निक्खन्तउदकधारासुपि धम्मकथाव पमाणं । एवं चितकं निब्बापेत्वा पन मल्लराजानो सन्थागारे चतुज्जातियगन्धपरिभण्डं कारेत्वा लाजपञ्चमानि पुप्फानि विकिरित्वा उपरि चेलवितानं बन्धित्वा सुवण्णतारकादीहि खचित्वा तत्थ गन्धदाममालादामरतनदामानि ओलम्बेत्वा सन्थागारतो याव मकुटबन्धनसङ्घाता सीसपसाधनमङ्गलसाला, ताव उभोहि पस्सेहि साणिकिलञ्जपरिक्खेपं कारेत्वा उपरि चेलवितानं बन्धापेत्वा सुवण्णतारकादीहि खचित्वा तत्थपि गन्धदाममालादामरतनदामानि ओलम्बेत्वा मणिदण्डवण्णेहि वेणूहि च पञ्चवण्णद्धजे उस्सापेत्वा समन्ता वातपटाका परिक्खिपित्वा सुसम्मट्ठासु वीथीसु कदलियो च पुण्णघटे च ठपेत्वा दण्डकदीपिका जालेत्वा अलङ्कतहत्थिक्खन्धे सह धातूहि सुवण्णदोणिं ठपेत्वा मालागन्धादीहि पूजेन्ता साधुकीळितं कीळन्ता अन्तोनगरं पवेसेत्वा सन्थागारे सरभमयपल्लङ्के ठपेत्वा उपरि सेतच्छत्तं धारेसुं । एवं कत्वा - "अथ खो कोसिनारका मल्ला भगवतो सरीरानि सत्ताहं सन्थागारे सत्तिपञ्जरं करित्वाति सब् वेदितब्बं । तत्थ सत्तिपञ्जरं करित्वाति सत्तिहत्थेहि पुरिसेहि परिक्खिपापेत्वा । धनुपाकारन्ति पठमं ताव हत्थिकुम्भेन कुम्भं पहरन्ते परिक्खिपापेसुं, ततो अस्से गीवाय गीवं पहरन्ते, ततो रथे आणिकोटिया आणिकोटिं पहरन्ते, ततो योधे बाहुना बाहुं पहरन्ते । तेसं परियन्ते कोटिया कोटिं पहरमानानि धनूनि परिक्खिपापेसुं। इति समन्ता योजनप्पमाणं ठानं सत्ताहं सन्नाहगवच्छिकं विय कत्वा आरक्खं संविदहिंसु । तं सन्धाय वुत्तं- “धनुपाकारं परिक्खिपापेत्वा"ति । कस्मा पनेते एवमकंसूति ? इतो पुरिमेसु हि द्वीसु सत्ताहेसु ते भिक्खुसङ्घस्स ठाननिसज्जोकासं करोन्ता खादनीयं भोजनीयं संविदहन्ता साधुकीळिकाय ओकासं न लभिंसु । ततो नेसं अहोसि- "इमं सत्ताहं साधुकीळितं कीळिस्साम, ठानं खो पनेतं विज्जति यं अम्हाकं पमत्तभावं ञत्वा कोचिदेव आगन्त्वा धातुयो गण्हेय्य, तस्मा आरक्खं ठपेत्वा कीळिस्सामा"ति । ते तथा एवमकंसु । 176 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२३६-२३६) सरीरधातुविभजनवण्णना १७७ सरीरधातुविभजनवण्णना २३६. अस्सोसि खो राजाति कथं अस्सोसि ? पठममेव किरस्स अमच्चा सुत्वा चिन्तयिंसु- “सत्था नाम परिनिब्बुतो, न सो सक्का पुन आहरितुं । पोथुज्जनिकसद्धाय पन अम्हाकं रञा सदिसो नत्थि, सचे एस इमिनाव नियामेन सुणिस्सति, हदयमस्स फलिस्सति । राजा खो पन अम्हेहि अनुरक्खितब्बो”ति ते तिस्सो सुवण्णदोणियो आहरित्वा चतुमधुरस्स पूरेत्वा रञो सन्तिकं गन्त्वा एतदवोचुं- “देव, अम्हेहि सुपिनको दिट्ठो, तस्स पटिघातत्थं तुम्हेहि दुकूलदुपट्ट निवासेत्वा यथा नासापुटमत्तं पायति, एवं चतुमधुरदोणिया निपज्जितुं वट्टती"ति । राजा अत्थचरानं अमच्चानं वचनं सुत्वा “एवं होतु ताता''ति सम्पटिच्छित्वा तथा अकासि । "IL अथेको अमच्चो अलङ्कारं ओमुञ्चित्वा केसे पकिरिय याय दिसाय सत्था परिनिब्बुतो, तदभिमुखो हुत्वा अञ्जलिं पग्गय्ह राजानं आह - "देव, मरणतो मुच्चनकसत्तो नाम नत्थि, अम्हाकं आयुवड्डनो चेतियट्ठानं पुञक्खेत्तं अभिसेकसिञ्चको सो भगवा सत्था कुसिनाराय परिनिब्बुतो"ति। राजा सुत्वाव विसञ्जीजातो चतुमधुरदोणियं उसुमं मुञ्चि । अथ नं उक्खिपित्वा दुतियाय दोणिया निपज्जापेसुं। सो पुन सञ्ज लभित्वा - "ताता, किं वदेथा''ति पुच्छि । “सत्था, महाराज, परिनिब्बुतो''ति । राजा पुनपि विसञ्जीजातो चतुमधुरदोणिया उसुमं मुञ्चि । अथ नं ततोपि उक्खिपित्वा ततियाय दोणिया निपज्जापेसुं । सो पुन सञ्ज लभित्वा “ताता, किं वदेथा"ति पुच्छि । “सत्था, महाराज, परिनिब्बुतो"ति । राजा पुनपि विसञ्जीजातो, अथ नं उक्खिपित्वा नहापेत्वा मत्थके घटेहि उदकं आसिञ्चिसु । राजा सञ्ज लभित्वा आसना वुट्ठाय गन्धपरिभाविते मणिवण्णे केसे विकिरित्वा सुवण्णफलकवण्णाय पिट्ठियं पकिरित्वा पाणिना उरं पहरित्वा पवाळकुरवण्णाहि सुवट्टितङ्गुलीहि सुवण्णबिम्बिसकवण्णं उरं सिब्बन्तो विय गहेत्वा परिदेवमानो उम्मत्तकवेसेन अन्तरवीथिं ओतिण्णो, सो अलङ्कतनाटकपरिवुतो नगरतो निक्खम्म जीवकम्बवनं गन्त्वा यस्मिं ठाने निसिन्नेन भगवता धम्मो देसितो तं ओलोकेत्वा - "भगवा सब्बञ्ज, ननु इमस्मिं ठाने निसीदित्वा धम्मं देसयित्थ, सोकसल्लं मे विनोदयित्थ, तुम्हे मय्हं सोकसल्लं नीहरित्थ, अहं तुम्हाकं सरणं गतो, इदानि पन मे पटिवचनम्पि न देथ, भगवा"ति पुनप्पुनं परिदेवित्वा “ननु भगवा अहं अञदा एवरूपे काले 'तुम्हे 177 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा महाभिक्खुसङ्घपरिवारा जम्बुदीपतले चारिकं चरथा'ति सुणोमि, इदानि पनाहं तुम्हाकं अननुरूपं अयुत्तं पवत्तिं सुणोमीति एवमादीनि च वत्वा सट्ठिमत्ताहि गाथाहि भगवतो गुणं अनुरसरित्वा चिन्तेसि - "मम परिदेवितेनेव न सिज्झति, दसबलस्स धातुयो आहरापेस्सामी 'ति एवं अस्सोसि । सुत्वा च इमिस्सा विसञ्ञिभावादिपवत्तिया अवसाने दूतं पाहेसि । तं सन्धाय अथ खो राजाति आदि वृत्तं । १७८ तत्थ दूतं पाहेसीति दूतञ्च पण्णञ्च पेसेसि । पेसेत्वा च पन- “सचे दस्सन्ति, सुन्दरं । नो चे दस्सन्ति, आहरणुपायेन आहरिस्सामी "ति चतुरङ्गिनिं सेनं सन्नव्हित्वा सयम्पि निक्खन्तोयेव । यथा च अजातसत्तु एवं लिच्छवीआदयोपि दूतं पेसेत्वा सयम्पि चतुरङ्गिनिया सेनाय निक्खमिंसुयेव । तत्थ पावेय्यका सब्बेहि आसन्नतरा कुसिनारतो तिगावुतन्तरे नगरे वसन्ति, भगवापि पावं पविसित्वाव कुसिनारं गतो । अथ कस्मा पठमतरं न आगताति चे ? महापरिवारा पनेते राजानो महापरिवारं करोन्ताव पच्छतो जाता । - ते स गणे एतदवोचुन्ति सब्बेपि ते सत्तनगरवासिनो आगन्त्वा - “अम्हाकं धातुयो वा देन्तु, युद्धं वा "ति कुसिनारानगरं परिवारेत्वा ठिते- “एतं भगवा अम्हाकं गामक्खेत्ते 'ति पटिवचनं अवोचुं । ते किर एवमाहंसु - "न मयं सत्थु सासनं पहिणिम्ह, नापि गन्त्वा आनयिम्ह । सत्था पन सयमेव आगन्त्वा सासनं पेसेत्वा अम्हे पक्कोसापेसि । तुम्हेपि खो पन यं तुम्हाकं गामक्खेत्ते रतनं उप्पज्जति, न तं अम्हाकं देथ । सदेवके च लोके बुद्धरतनसमं रतनं नाम नत्थि, एवरूपं उत्तमरतनं लभित्वा मयं न दस्साम । न खो पन तुम्हेहियेव मातुथनतो खीरं पीतं, अम्हेहिपि मातुथनतो खीरं पीतं । न तुम्हेयेव पुरिसा, अम्हेपि पुरिसा होतू 'ति अञ्ञमञ्ञ अहंकारं कत्वा सासनपटिसासनं पेसेन्ति, अञ्ञमञ्ञ मानगज्जितं गज्जन्ति । युद्धे पन सति कोसिनारकानंयेव जयो अभविस्स । कस्मा ? यस्मा धातुपासनत्थं आगता देवता नेसं पक्खा अहेसुं । पाळियं पन - “भगवा अम्हाकं गामक्खेत्ते परिनिब्बुतो, न मयं दस्साम भगवतो सरीरानं भाग "न्ति एत्तकमेव आगतं । (३.२३७-२३७) २३७. एवं वुत्ते दोणो ब्राह्मणोति दोणब्राह्मणो इमं तेसं विवादं सुत्वा - "एते राजानो भगवतो परिनिब्बुतट्ठाने विवादं करोन्ति, न खो पनेतं पतिरूपं, अलं इमिना कलहेन, वूपसमेस्सामि नन्ति सो गन्त्वा ते सङ्घे गणे एतदवोच । किमवोच ? 178 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२३८-२३८) सरीरधातुविभजनवण्णना १७९ उन्नतप्पदेसे ठत्वा द्विभाणवारपरिमाणं दोणगज्जितं नाम अवोच । तत्थ पठमभाणवारे ताव एकपदम्पि ते न जानिंसु । दुतियभाणवारपरियोसाने- “आचरियस्स विय भो सद्दो, आचरियस्स विय भो सद्दो''ति सब्बे निरवा अहेसुं। जम्बुदीपतले किर कुलघरे जाता येभुय्येन तस्स न अन्तेवासिको नाम नत्थि । अथ सो ते अत्तनो वचनं सुत्वा निरवे तुण्हीभूते विदित्वा पुन एतदवोच – “सुणन्तु भोन्तो"ति एतं गाथाद्वयं अवोच । तत्थ अम्हाकं बुद्धोति अम्हाकं बुद्धो। अहु खन्तिवादोति बुद्धभूमिं अप्पत्वापि पारमियो पूरेन्तो खन्तिवादितापसकाले धम्मपालकुमारकाले छद्दन्तहत्थिकाले भूरिदत्तनागराजकाले चम्पेय्यनागराजकाले सङ्खपालनागराजकाले महाकपिकाले अओसु च बहूसु जातकेसु परेसु कोपं अकत्वा खन्तिमेव अकासि । खन्तिमेव वण्णयि । किमङ्गं पन एतरहि इट्ठानिढेसु तादिलक्खणं पत्तो, सब्बथापि अम्हाकं बुद्धो खन्तिवादो अहोसि, तस्स एवंविधस्स । न हि साधु यं उत्तमपुग्गलस्स, सरीरभागे सिया सम्पहारोति न हि साधुयन्ति न हि साधु अयं । सरीरभागेति सरीरविभागनिमित्तं, धातुकोट्ठासहेतूति अत्थो । सिया सम्पहारोति आवुधसम्पहारो साधु न सियाति वुत्तं होति । सब्बेव भोन्तो सहिताति सब्बेव भोन्तो सहिता होथ, मा भिज्जथ । समग्गाति कायेन च वाचाय च एकसन्निपाता एकवचना समग्गा होथ। सम्मोदमानाति चित्तेनापि अञमधे सम्मोदमाना होथ । करोमट्ठभागेति भगवतो सरीरानि अट्ठ भागे करोम | चक्खुमतोति पञ्चहि चक्खूहि चक्खुमतो बुद्धस्स । न केवलं तुम्हेयेव, बहुजनोपि पसन्नो, तेसु एकोपि लटुं अयुत्तो नाम नत्थीति बहु कारणं वत्वा सापेसि | २३८. तेसं सङ्घानं गणानं पटिस्सुत्वाति तेसं तेसं ततो ततो समागतसङ्घानं समागतगणानं पटिस्सुणित्वा । भगवतो सरीरानि अट्ठधा समं सुविभत्तं विभजित्वाति एत्थ अयमनुक्कमो- दोणो किर तेसं पटिस्सुणित्वा सुवण्णदोणिं विवरापेसि। राजानो आगन्त्वा दोणिययेव ठिता सुवण्णवण्णा धातुयो दिस्वा - "भगवा सब्बञ्ज पुब्बे मयं तुम्हाकं द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणपटिमण्डितं छब्बण्णबुद्धरस्मिखचितं असीतिअनुब्यञ्जनसमुज्जलितसोभं सुवण्णवण्णं सरीरं अद्दसाम, इदानि पन सुवण्णवण्णाव धातुयो अवसिठ्ठा जाता, न युत्तमिदं भगवा तुम्हाक"न्ति परिदेविंसु । ब्राह्मणोपि तस्मिं समये तेसं पमत्तभावं ञत्वा दक्खिणदाठं गहेत्वा वेठन्तरे ठपेसि, 179 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.२३९-२३९) अथ पच्छा अठ्ठधा समं सुविभत्तं विभजि, सब्बापि धातुयो पाकतिकनाळिया सोळस नाळियो अहेसुं, एकेकनगरवासिनो द्वे द्वे नाळियो लभिंसु । ब्राह्मणस्स पन धातुयो विभजन्तस्सेव सक्को देवानमिन्दो – “केन नु खो सदेवकस्स लोकस्स कङ्खच्छेदनत्थाय चतुसच्चकथाय पच्चयभूता भगवतो दक्खिणदाठा गहिता'"ति ओलोकेन्तो "ब्राह्मणेन गहिता"ति दिस्वा- "ब्राह्मणोपि दाठाय अनुच्छविकं सक्कारं कातुं न सक्खिस्सति, गण्हामि नन्ति वेठन्तरतो गहेत्वा सुवण्णचकोटके ठपेत्वा देवलोकं नेत्वा चूळामणिचेतिये पतिठ्ठपेसि । ब्राह्मणोपि धातुयो विभजित्वा दाठं अपस्सन्तो चोरिकाय गहितत्ता- “केन मे दाठा गहिता"ति पुच्छितुम्पि नासक्खि । “ननु तयाव धातुयो भाजिता, किं त्वं पठमंयेव अत्तनो धातुया अस्थिभावं न अञासी"ति अत्तनि दोसारोपनं सम्पस्सन्तो- “मव्हम्पि कोट्ठासं देथा''ति वत्तुम्पि नासक्खि । ततो- “अयम्पि सुवण्णतुम्बो धातुगतिकोव, येन तथागतस्स धातुयो मिता, इमस्साहं थूपं करिस्सामी''ति चिन्तेत्वा इमं मे भोन्तो तुम्बं ददन्तूति आह । पिप्पलिवनिया मोरियापि अजातसत्तुआदयो विय दूतं पेसेत्वा युद्धसज्जाव निक्खमिंसु। धातुथूपपूजावण्णना २३९. राजगहे भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकासीति कथं अकासि ? कुसिनारतो याव राजगहं पञ्चवीसति योजनानि, एत्थन्तरे अट्ठउसभवित्थतं समतलं मग्गं कारेत्वा यादिसं मल्लराजानो मकुटबन्धनस्स च सन्थागारस्स च अन्तरे पूजं कारेसुं । तादिसं पञ्चवीसतियोजनेपि मग्गे पूजं कारेत्वा लोकस्स अनुक्कण्ठनत्थं सब्बत्थ अन्तरापणे पसारेत्वा सुवण्णदोणियं पक्खित्तधातुयो सत्तिपञ्जरेन परिक्खिपापेत्वा अत्तनो विजिते पञ्चयोजनसतपरिमण्डले मनुस्से सन्निपातापेसि । ते धातुयो गहेत्वा कुसिनारतो साधुकीळितं कीळन्ता निक्खमित्वा यत्थ यत्थ सुवण्णवण्णानि पुप्फानि पस्सन्ति, तत्थ तत्थ धातुयो सत्तिअन्तरे ठपेत्वा पूजं अकंसु । तेसं पुप्फानं खीणकाले गच्छन्ति, रथस्स धुरट्ठानं पच्छिमट्ठाने सम्पत्ते सत्त दिवसे साधुकीळितं कीळन्ति । एवं धातुयो गहेत्वा आगच्छन्तानं सत्त वस्सानि सत्त मासानि सत्त दिवसानि वीतिवत्तानि । 180 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३.२४०-२४०) धातुथूपपूजावण्णना मिच्छादिट्टिका - “समणस्स गोतमस्स परिनिब्बुतकालतो पट्ठाय बलक्कारेन साधुकीळिताय उपहुतम्ह सब्बे नो कम्मन्ता नट्ठा” ति उज्झायन्ता मनं पदोसेत्वा छळासीतिसहस्समत्ता अपाये निब्बत्ता । खीणासवा आवज्जित्वा "महाजनो मनं पदोसेत्वा अपाये निब्बत्तीति दिस्वा - “सक्कं देवराजानं धातुआहरणूपायं कारस्सामा "ति तस्स सन्तिकं गन्त्वा तमत्थं आरोचेत्वा - " धातुआहरणूपायं करोहि महाराजा "ति आहंसु । सक्को आह“भन्ते, पुथुज्जनो नाम अजातसत्तुना समो सद्धो नत्थि, न सो मम वचनं करिस्सति, अपिच खो मारविभिसकसदिसं विभिंसकं दस्सेस्सामि, महासद्दं सावेस्सामि, यक्खगाहकखिपितक अरोचके करिस्सामि, तुम्हे 'अमनुस्सा महाराज कुपिता धातुयो आहरापेथा'ति वदेय्याथ, एवं सो आहरापेस्सती 'ति । अथ खो सक्को तं सब्बं अकासि । - थेरापि राजानं उपसङ्कमित्वा- “महाराज, अमनुस्सा कुपिता, धातुयो आहरापेही 'ति भणिंसु । राजा - " न ताव, भन्ते, मय्हं चित्तं तुस्सति, एवं सन्तेपि आहरन्तू " ति आह । सत्तमदिवसे धातुयो आहरिंसु । एवं आहता धातुयो गहेत्वा राजगहे थूपञ्च महञ्च अकासि । इतरेपि अत्तनो अत्तनो बलानुरूपेन आहरित्वा सकसकट्ठानेसु थूपञ्च महञ्च अकं । १८१ २४०. एवमेतं भूतपुब्बन्ति एवं एतं धातुभाजनञ्चेव दसथूपकरणञ्च जम्बुदीपे भूतपुब्बन्ति पच्छा सङ्गीतिकारका आहंसु । एवं पतिट्ठितेसु पन थूपेसु महाकस्सपत्थरो धातूनं अन्तरायं दिस्वा राजानं अजातसत्तुं उपसङ्कमित्वा "महाराज, एकं धातुनिधानं का वट्टतीति आह । साधु, भन्ते, निधानकम्मं ताव मम होतु, सेसधातुयो पन कथं आहरामीति ? न, महाराज, धातुआहरणं तुय्हं भारो, अम्हाकं भारोति । साधु, भन्ते, तुम्हे धातुयो आहरथ, अहं धातुनिधानं करिस्सामीति । थेरो तेसं तेसं राजकुलानं परिचरणमत्तमेव ठपेत्वा सेसधातुयो आहरि । रामगामे पन धातुयो नागा परिग्गव्हिंसु तासं अन्तरायो नत्थि । “अनागते लङ्कादीपे महाविहारे महाचेतियम्हि निदहिस्सन्ती 'ति ता न आहरित्वा सेसेहि सत्तहि नगरेहि आहरित्वा राजगहस्स पाचीनदक्खिणदिसाभागे ठत्वा - " इमस्मिं ठाने यो पासाणो अत्थि, सो अन्तरधायतु, पंसु सुविसुद्धा होतु, उदकं मा उट्ठहतू 'ति अधिट्ठासि । " राजा तं ठानं खणापेत्वा ततो उद्धतपंसुना इट्ठका कारेत्वा असीतिमहासावकानं 181 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.२४०-२४०) चेतियानि कारेति । "इध राजा किं कारेती"ति पुच्छन्तानम्पि "महासावकानं चेतियानी"ति वदन्ति, न कोचि धातुनिधानभावं जानाति । असीतिहत्थगम्भीरे पन तस्मिं पदेसे जाते हेट्ठा लोहसन्थारं सन्थरापेत्वा तत्थ थूपारामे चेतियघरप्पमाणं तम्बलोहमयं गेहं कारापेत्वा अट्ठ अट्ट हरिचन्दनादिमये करण्डे च थूपे च कारापेसि । अथ भगवतो धातुयो हरिचन्दनकरण्डे पक्खिपित्वा तं हरिचन्दनकरण्डकम्पि अझस्मिं हरिचन्दनकरण्डके, तम्पि अस्मिन्ति एवं अट्ट हरिचन्दनकरण्डे एकतो कत्वा एतेनेव उपायेन ते अट्ठ करण्डे अट्ठसु हरिचन्दनथूपेसु, अट्ट हरिचन्दनथूपे अट्ठसु लोहितचन्दनकरण्डेसु, अट्ठ लोहितचन्दनकरण्डे अट्ठसु लोहितचन्दनथूपेसु, अट्ठ लोहितचन्दनथूपे अट्ठसु दन्तकरण्डेसु, अट्ठ दन्तकरण्डे अट्ठसु दन्तथूपेसु, अट्ठ दन्तथूपे अट्ठसु सब्बरतनकरण्डेसु, अट्ठ सब्बरतनकरण्डे अट्ठसु सब्बरतनथूपेसु, अट्ठ सब्बरतनथूपे अट्ठसु सुवण्णकरण्डेसु, अट्ठ सुवण्णकरण्डे, अट्ठसु सुवण्णथूपेसु, अट्ठ सुवण्णथूपे अट्ठसु रजतकरण्डेसु, अट्ठ रजतकरण्डे अट्ठसु रजतथूपेसु, अट्ठ रजतथूपे, अट्ठसु मणिकरण्डेसु, अट्ठ मणिकरण्डे अट्ठसु मणि)पेसु, अट्ठ मणिथूपे अट्ठसु लोहितङ्ककरण्डेसु, अट्ठ लोहितङ्ककरण्डे अट्ठसु लोहितङ्कथूपेसु, अट्ठ लोहितङ्कथूपे अट्ठसु मसारगल्लकरण्डेसु, अट्ठ मसारगल्लकरण्डे अट्ठसु मसारगल्लथूपेसु, अट्ठ मसारगल्लथूपे अट्ठसु फलिककरण्डेसु, अट्ठ फलिककरण्डे अट्ठसु फलिकमयथूपेसु पक्खिपि । सब्बेसं उपरिमं फलिकचेतियं थूपारामचेतियप्पमाणं अहोसि, तस्स उपरि सब्बरतनमयं गेहं कारेसि, तस्स उपरि सुवण्णमयं, तस्स उपरि रजतमयं, तस्स उपरि तम्बलोहमयं गेहं । तत्थ सब्बरतनमयं वालिकं ओकिरित्वा जलजथलजपुप्फानं सहस्सानि विप्पकिरित्वा अड्डछट्ठानि जातकसतानि असीतिमहाथेरे सुद्धोदनमहाराजानं महामायादेविं सत्त सहजातेति सब्बानेतानि सुवण्णमयानेव कारेसि । पञ्चपञ्चसते सुवण्णरजतमये पुण्णघटे ठपापेसि, पञ्च सुवण्णद्धजसते उस्सापेसि । पञ्चसते सुवण्णदीपे, पञ्चसते रजतदीपे कारापेत्वा सुगन्धतेलस्स पूरेत्वा तेसु दुकूलवट्टियो ठपेसि । अथायस्मा महाकस्सपो- "माला मा मिलायन्तु, गन्धा मा विनस्सन्तु, दीपा मा विज्झायन्तू"ति अधिट्ठहित्वा सुवण्णपट्टे अक्खरानि छिन्दापेसि - “अनागते पियदासो नाम कुमारो छत्तं उस्सापेत्वा असोको धम्मराजा भविस्सति । सो इमा धातुयो वित्थारिका करिस्सती"ति । 182 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२४०-२४०) धातुथूपपूजावण्णना १८३ राजा सब्बपसाधनेहि पूजेत्वा आदितो पट्ठाय द्वारं पिदहन्तो निक्खमि, सो तम्बलोहद्वारं पिदहित्वा आविञ्छनरज्जुयं कुञ्चिकमुद्दिकं बन्धित्वा तत्थेव महन्तं मणिक्खन्धं ठपेत्वा- “अनागते दलिद्दराजा इमं मणिं गहेत्वा धातूनं सक्कारं करोतू"ति अक्खरं छिन्दापेसि । सक्को देवराजा विस्सकम्मं आमन्तेत्वा - "तात, अजातसत्तुना धातुनिधानं कतं, एत्थ आरक्खं पट्टपेही''ति पहिणि । सो आगन्त्वा वाळसङ्घाटयन्तं योजेसि, कट्टरूपकानि तस्मिं धातुगब्भे फलिकवण्णखग्गे गाहेत्वा वातसदिसेन वेगेन अनुपरियायन्तं यन्तं योजेत्वा एकाय एव आणिया बन्धित्वा समन्ततो गिञ्जकावसथाकारेन सिलापरिक्खेपं कत्वा उपरि एकाय पिदहित्वा पंसुं पक्खिपित्वा भूमिं समं कत्वा तस्स उपरि पासाणथूपं पतिठ्ठपेसि । एवं निहिते धातुनिधाने यावतायुकं ठत्वा थेरोपि परिनिब्बुतो, राजापि यथाकम्मं गतो, तेपि मनुस्सा कालङ्कता। अपरभागे पियदासो नाम कुमारो छत्तं उस्सापेत्वा असोको नाम धम्मराजा हुत्वा ता धातुयो गहेत्वा जम्बुदीपे वित्थारिका अकासि । कथं ? सो निग्रोधसामणेरं निस्साय सासने लद्धप्यसादो चतुरासीति विहारसहस्सानि कारेत्वा भिक्खुसद्धं पुच्छि - "भन्ते, मया चतुरासीति विहारसहस्सानि कारितानि, धातुयो कुतो लभिस्सामी"ति ? महाराज, - “धातुनिधानं नाम अत्थी''ति सुणोम, न पन पञ्जायति- "असुकस्मिं ठाने"ति । राजा राजगहे चेतियं भिन्दापेत्वा धातुं अपस्सन्तो पटिपाकतिकं कारेत्वा भिक्खुभिक्खुनियो उपासकउपासिकायोति चतस्सो परिसा गहेत्वा वेसालिं गतो। तत्रापि अलभित्वा कपिलवत्थु । तत्रापि अलभित्वा रामगामं गतो। रामगामे नागा चेतियं भिन्दितुं न अदंसु, चेतिये निपतितकुदालो खण्डाखण्डं होति । एवं तत्रापि अलभित्वा अल्लकप्पं वेठदीपं पावं कुसिनारन्ति सब्बत्थ चेतियानि भिन्दित्वा धातुं अलभित्वाव पटिपाकतिकानि कत्वा पुन राजगहं गन्त्वा चतस्सो परिसा सन्निपातापेत्वा- “अस्थि केनचि सुतपुब्बं 'असुकट्ठाने नाम धातुनिधान'न्ति" पुच्छि । तत्रेको वीसवस्ससतिको थेरो- "असुकट्ठाने धातुनिधान''न्ति न जानामि, मय्हं पन पिता महाथेरो मं सत्तवस्सकाले मालाचकोटकं गाहापेत्वा - "एहि सामणेर, असुकगच्छन्तरे पासाणथूपो अत्थि, तत्थ गच्छामा"ति गन्त्वा पूजेत्वा – “इमं ठानं उपधारेतुं वट्टति सामणेरा''ति आह । अहं एत्तकं जानामि महाराजाति आह । राजा “एतदेव 183 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (३.२४०-२४०) ठान"न्ति वत्वा गच्छे हारेत्वा पासाणथूपञ्च पंसुञ्च अपनेत्वा हेट्ठा सुधाभूमिं अद्दस । ततो सुधञ्च इट्टकायो च हारेत्वा अनुपुब्बेन परिवेणं ओरुय्ह सत्तरतनवालुकं असिहत्थानि च कट्टरूपकानि सम्परिवत्तकानि अद्दस । सो यक्खदासके पक्कोसापेत्वा बलिकम्मं कारेत्वापि नेव अन्तं न कोटिं पस्सन्तो देवतानं नमस्समानो- “अहं इमा धातुयो गहेत्वा चतुरासीतिया विहारसहस्सेसु निदहित्वा सक्कारं करोमि, मा मे देवता अन्तरायं करोन्तू"ति आह । सक्को देवराजा चारिकं चरन्तो तं दिस्वा विस्सकम्मं आमन्तेसि- "तात, असोको धम्मराजा 'धातुयो नीहरिस्सामी ति परिवेणं ओतिण्णो, गन्त्वा कट्टरूपकानि हारेही"ति । सो पञ्चचूळगामदारकवेसेन गन्त्वा रओ पुरतो धनुहत्थो ठत्वा - "हरामि महाराजा'"ति आह । “हर, ताता"ति सरं गहेत्वा सन्धिम्हियेव विज्झि, सब्बं विप्पकिरियित्थ । अथ राजा आविञ्छने बन्धं कुञ्चिकमुद्दिकं गण्हि, मणिक्खन्धं पस्सि । “अनागते दलिद्दराजा इमं मणिं गहेत्वा धातूनं सक्कारं करोतू"ति पुन अक्खरानि दिस्वा कुज्झित्वा - “मादिसं नाम राजानं दलिद्दराजाति वत्तुं अयुत्त"न्ति पुनप्पुनं घटेत्वा द्वारं विवरापेत्वा अन्तोगेहं पविठ्ठो । __ अट्ठारसवस्साधिकानं द्विन्नं वस्ससतानं उपरि आरोपितदीपा तथैव पज्जलन्ति । नीलुप्पलपुप्फानि तङ्खणं आहरित्वा आरोपितानि विय, पुष्फसन्थारो तङ्खणं सन्थतो विय, गन्धा तं मुहुत्तं पिसित्वा ठपिता विय राजा सुवण्णपट्ट गहेत्वा – “अनागते पियदासो नाम कुमारो छत्तं उस्सापेत्वा असोको नाम धम्मराजा भविस्सति सो इमा धातुयो वित्थारिका करिस्सती"ति वाचेत्वा - "दिह्रो भो, अहं अय्येन महाकस्सपत्थेरेना"ति वत्वा वामहत्थं आभुजित्वा दक्खिणेन हत्थेन अप्फोटेसि । सो तस्मिं ठाने परिचरणधातुमत्तमेव ठपेत्वा सेसा धातुयो गहेत्वा धातुगेहं पुब्बे पिहितनयेनेव पिदहित्वा सब्बं यथापकतियाव कत्वा उपरि पासाणचेतियं पतिट्ठापेत्वा चतुरासीतिया विहारसहस्सेसु धातुयो पतिट्टापेत्वा महाथेरे वन्दित्वा पुच्छि- “दायादोम्हि, भन्ते, बुद्धसासने''ति । किस्स दायादो त्वं, महाराज, बाहिरको त्वं सासनस्साति । भन्ते, छन्नतिकोटिधनं विस्सज्जेत्वा चतुरासीति विहारसहस्सानि कारेत्वा अहं न दायादो, अञो को दायादोति ? पच्चयदायको नाम त्वं महाराज, यो पन अत्तनो पुत्तञ्च धीतरञ्च पब्बाजेति, अयं सासने दायादो नामाति । सो पुत्तञ्च धीतरञ्च पब्बाजेसि । अथ नं थेरा आहंसु- “इदानि, महाराज, सासने दायादोसी"ति । 184 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२४०-२४०) धातुथूपपूजावण्णना एवमेतं भूतपुब्बन्ति एवं एतं अतीते धातुनिधानम्पि जम्बुदीपतले भूतपुब्बन्ति । ततियसङ्गीतिकारापि इमं पदं ठपयिंसु । अट्ठदोणं चक्खुमतो सरीरन्तिआदिगाथायो पन तम्बपण्णिदीपे थेरेहि वुत्ताति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं महापरिनिब्बानसुत्तवण्णना निद्विता । 185 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. महासुदस्सनसुत्तवण्णना कुसावतीराजधानीवण्णना २४१-२४२. एवं मे सुतन्ति महासुदस्सनसुतं । तत्रायं अपुब्बपदवण्णनासब्बरतनमयोति एत्थ एका इट्ठका सोवण्णमया, एका रूपियमया, एका वेलुरियमया, एका फलिकमया, एका लोहितङ्कमया, एका मसारगल्लमया, एका सब्बरतनमया, अयं पाकारो सब्बपाकारानं अन्तो उब्बेधेन सट्टिहत्थो अहोसि । एके पन थेरा- “नगरं नाम अन्तो ठत्वा ओलोकेन्तानं दस्सनीयं वट्टति, तस्मा सब्बबाहिरो सट्ठिहत्थो, सेसा अनुपुब्बनीचा 'ति वदन्ति । एके - " बहि ठत्वा ओलोकेन्तानं दस्सनीयं वट्टति, तस्मा सब्बअब्भन्तरिमो सट्ठिहत्थो, सेसा अनुपुब्बनीचा "ति । एके - " अन्तो च बहि च ठत्वा ओलोकेन्तानं दस्सनीयं वट्टति, तस्मा मज्झे पाकारो सट्ठिहत्थो, अन्तो च बहि च तयो तयो अनुपुब्बनीचा''ति । एसिकात एसिकत्थम्भो । तिपोरिसङ्गाति एकं पोरिसं मज्झिमपुरिसस्स अत्तनो हत्थेन पञ्चहत्थं, तेन तिपोरिसपरिक्खेपा पन्नरसहत्थपरिमाणाति अत्थो । ते पन कथं ठिताति ? नगरस्स बाहिरपस्से एकेकं महाद्वारबाहं निस्साय एकेको, एकेकं खुद्दकद्वारबाहं निस्साय एकेको, महाद्वारखुद्दकद्वारानं अन्तरा तयो तयोति । तालपन्तीसु सब्बरतनमयानं तालानं एकं सोवण्णमयन्ति पाकारे वुत्तलक्खणमेव वेदितब्बं, पण्णफलेसुपि एसेव नयो । ता पन तालपन्तियो असीतिहत्था उब्बेधेन, विप्पकिण्णवालुके समतले भूमिभागे पाकारन्तरे एकेका हुत्वा ठिता । वग्गूति छेको सुन्दरो । रजनीयोति रजेतुं समत्थो । खमनीयोति दिवसम्पि सुय्यमानो खमतेव न बीभच्छेति । मदनीयोति मानमदपुरिसमदजननो । पञ्चङ्गिकस्साति आततं विततं 186 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४.२४३-२४३) चक्करतनवण्णना आततविततं सुसिरं घनन्ति इमेहि पञ्चहङ्गेहि समन्नागतस्स । तत्थ आततं नाम चम्मपरियोनद्धेसु भेरीआदीसु एकतलं तूरियं । विततं नाम उभयतलं । आततविततं नाम सब्बतो परियोनद्धं । सुसिरं नाम वंसादि । घनं नाम सम्मादि । सुविनीतस्साति आकड्ढनसिथिलकरणादीहि सुमुच्छितस्स । सुप्पटिताळितस्साति पमाणे ठितभावजाननत्थं सु पटिताळितस्स । सुकुसलेहि समन्नाहतस्साति ये वादितुं छेका कुसला, तेहि वादितस्स । धुत्ताति अक्खधुत्ता, । सोण्डाति सुरासोण्डा । तेयेव पुनप्पुनं पातुकामतावसेन पिपासा । परिचारेसुन्ति (दी० नि० २.१३२) हत्थं वा पादं वा चालेत्वा नच्चन्ता कीळिंसु । चक्करतनवण्णना २४३. सीसं न्हातस्साति सीसेन सद्धिं गन्धोदकेन नहातस्स । उपोसथिकस्साति समादिन्नउपोसथङ्गस्स । उपरिपासादवरगतस्साति पासादवरस्स उपरि गतस्स, सुभोजनं भुञ्जित्वा पासादवरस्स उपरिमहातले सिरिगब्भं पविसित्वा सीलानि आवज्जन्तस्स । तदा किर राजा पातोव सतसहस्सं विस्सज्जेत्वा महादानं दत्वा सोळसहि गन्धोदकघटेहि सीसं नहायित्वा कतपातरासो सुद्धं उत्तरासङ्गं एकंसं करित्वा उपरिपासादस्स सिरिसयने पल्लङ्कं आभुजित्वा निसिन्नो अत्तनो दानादिमयं पुञ्ञसमुदायं आवज्जन्तो निसीदि । अयं सब्बचक्कवत्तीनं धम्मता । १८७ तेसं तं आवज्जन्तानंयेव वुत्तप्पकारपुञ्ञकम्मपच्चयउतुसमुट्ठानं नीलमणिसङ्घातसदिसं पाचीनसमुद्दजलतलं भिन्दमानं विय, आकासं अलङ्कुरुमानं विय दिब्बं चक्करतनं पातुभवति। तं महासुदस्सनस्सापि तथेव पातुरहोसि । तयिदं दिब्बानुभावयुत्तत्ता दिब्बन्ति वृत्तं । सहस्सं अस्स अरानन्ति सहस्सारं । सह नेमिया, सह नाभिया चाति सनेमिकं सनाभिकं । सब्बेहि आकारेहि परिपुण्णन्ति सब्बाकारपरिपूरं । तत्थ चक्कञ्च तं रतिजननट्ठेन रतनञ्चाति चक्करतनं । याय पन तं नाभिया " सनाभिक "न्ति वृत्तं सा इन्दनीलमया होति, मज्झे पनस्सा साररजतमया पनाकि, याय सुद्धसिनिद्धदन्तपन्तिया हसमाना विय विरोचति, मज्झे छिद्देन विय चन्दमण्डलेन, उभोसुपि बाहिरन्तेसु रजतपट्टे कतरिक्खेपा होति । सु पनस्स नाभिपनाळिपरिक्खेपपट्टेसु युत्तयुत्तट्ठानेसु परिच्छेदलेखा सुविभत्ताव हुत्वा पञ्ञायन्ति । अयं ताव अस्स नाभिया सब्बाकारपरिपूरता । 187 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (४.२४३-२४३) येहि पन तं- “अरेहि सहस्सार'"न्ति वुत्तं, ते सत्तरतनमया सूरियरस्मियो विय पभासम्पन्ना होन्ति, तेसम्पि घटकमणिकपरिच्छेदलेखादीनि सुविभत्तानेव हुत्वा पायन्ति । अयंमस्स अरानं सब्बाकारपरिपूरता । याय पन तं नेमिया - “सनेमिक"न्ति वुत्तं, सा बालसूरियरस्मिकलापसिरिं अवहसमाना विय सुरत्तसुद्धसिनिद्धपवाळमया होति । सन्धीसु पनस्सा सञ्झारागसस्सिरिका रत्तजम्बुनदपट्टा वट्टपरिच्छेदलेखा सुविभत्ता हुत्वा पञ्जायन्ति । अयमस्स नेमिया सब्बाकारपरिपूरता। नेमिमण्डलपिट्ठियं पनस्स दसन्नं दसन्नं अरानं अन्तरे धमनवंसो विय अन्तो सुसिरो छिद्दमण्डलखचितो वातगाही पवाळदण्डो होति, यस्स वातेरितस्स सुकुसलसमन्नाहतस्स पञ्चङ्गिकतूरियस्स विय सद्दो वग्गु च रजनीयो च कमनीयो च मदनीयो च होति । तस्स खो पन पवाळदण्डस्स उपरि सेतच्छत्तं उभोसु पस्सेसु समोसरितकुसुमदामानं द्वे पन्तियोति एवं समोसरितकुसुमदामपन्तिसतद्वयपरिवारसेतच्छत्तसतधारिना पवाळदण्डसतेन समुपसोभितनेमिपरिक्खेपस्स द्विन्नम्पि नाभिपनाळीनं अन्तो द्वे सीहमुखानि होन्ति, येहि तालक्खन्धप्पमाणा पुण्णचन्दकिरणकलापसस्सिरीका तरुणरविसमानरत्तकम्बलगेण्डुकपरियन्ता आकासगङ्गागतिसोभं अवहसमाना विय द्वे मुत्तकलापा ओलम्बन्ति । येहि चक्करतनेन सद्धिं आकासे सम्परिवत्तमानेहि तीणि चक्कानि एकतो परिवत्तन्तानि विय खायन्ति । अयमस्स सब्बसो सब्बाकारपरिपूरता । तं पनेतं एवं सब्बाकारपरिपूरं पकतिया सायमासभत्तं भुजित्वा अत्तनो अत्तनो घरद्वारे पञत्तासनेसु निसीदित्वा पवत्तकथासल्लापेसु मनुस्सेसु वीथिचतुक्कादीसु कीळमाने दारकजने नातिउच्चेन नातिनीचेन वनसण्डमत्थकासन्नेन आकासप्पदेसेन उपसोभयमानं विय, रुक्खसाखग्गानि द्वादसयोजनतो पट्ठाय सुय्यमानेन मधुरस्सरेन सत्तानं सोतानि ओधापयमानं योजनतो पट्ठाय नानप्पभासमुदयसमुज्जलेन वण्णेन नयनानि समाकड्डन्तं विय, रञो चक्कवत्तिस्स पुञानुभावं उग्घोसयन्तं विय, राजधानिया अभिमुखं आगच्छति । अथस्स चक्करतनस्स सदसवनेनेव - "कुतो नु खो, कस्स नु खो अयं सद्दो''ति आवज्जितहदयानं पुरत्थिमदिसं आलोकयमानानं तेसं मनुस्सानं अञतरो अञ्जतरं 188 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.२४३-२४३) चक्करतनवण्णना १८९ एवमाह - “पस्सथ, भो, अच्छरियं, अयं पुण्णचन्दो पुब्बे एको उग्गच्छति, अज्जेव पन अत्तदुतियो उग्गतो, एतहि राजहंसमिथुनमिव पुण्णचन्दमिथुनं पुब्बापरियेन गगनतलं अभिलङ्घती"ति । तमो आह- “किं कथेसि, सम्म, कुहिं नाम तया द्वे पुण्णचन्दा एकतो उग्गच्छन्ता दिट्ठपुब्बा, ननु एस तपनीयरंसिधारो पिञ्छरकिरणो दिवाकरो उग्गतो"ति, तमझो हसितं कत्वा एवमाह - "किं उम्मत्तोसि, ननु इदानेव दिवाकरो अत्थङ्गतो, सो कथं इमं पुण्णचन्दं अनुबन्धमानो उग्गच्छिस्सति ? अद्धा पनेतं अनेकरतनप्पभासमुदयुज्जलं एकस्सापि पुञ्जवतो विमानं भविस्सती"ति । ते सब्बेपि अपसारयन्ता अओ एवमाहंसु - "भो, किं बहुं विलपथ, नेवायं पुण्णचन्दो, न सूरियो न देवविमानं । न हेतेसं एवरूपा सिरिसम्पत्ति अत्थि, चक्करतनेन पन एतेन भवितब्ब"न्ति । एवं पवत्तसल्लापस्सेव तस्स जनस्स चन्दमण्डलं ओहाय तं चक्करतनं अभिमुखं होति । ततो तेहि - “कस्स नु खो इदं निब्बत्त"न्ति वुत्ते भवन्ति वत्तारो- “न कस्सचि अञस्स, ननु अम्हाकं महाराजा पूरितचक्कवत्तिवत्तो, तस्सेतं निब्बत्त"न्ति । अथ सो च महाजनो, यो च अञो पस्सति, सब्बो चक्करतनमेव अनुगच्छति । तं चापि चक्करतनं रोयेव अत्थाय अत्तनो आगतभावं आपेतुकामं विय सत्तक्खत्तुं पाकारमत्थकेनेव नगरं अनुसंयायित्वा, अथ रञो अन्तेपुरं पदक्खिणं कत्वा, अन्तेपुरस्स च उत्तरसीहपञ्जरसदिसे ठाने यथा गन्धपुप्फादीहि सुखेन सक्का होति पूजेतुं, एवं अक्खाहतं विय तिठ्ठति । एवं ठितस्स पनस्स वातपानछिद्दादीहि पविसित्वा नानाविरागरतनप्पभासमुज्जलं अन्तोपासादं अलङ्कुरुमानं पभासमूहं दिस्वा दस्सनत्थाय सञ्जाताभिलासो राजा होति । परिजनोपिस्स पियवचनपाभतेन आगन्त्वा तमत्थं निवेदेति। अथ राजा बलवपीतिपामोज्जफुटसरीरो पल्लवं मोचेत्वा उट्ठायासना सीहपञ्जरसमीपं गन्त्वा तं चक्करतनं दिस्वा “सुतं खो पन मेत''न्तिआदिकं चिन्तनं चिन्तयति । महासुदस्सनस्सापि सब्बं तं तथैव अहोसि । तेन वुत्तं - "दिस्वा रो महासुदस्सनस्स...पे०... अस्सं नु खो अहं राजा चक्कवत्ती''ति । तत्थ सो होति राजा चक्कवत्तीति कित्तावता चक्कवत्ती होतीति ? एकङ्गुलद्वङ्गुलमत्तम्पि चक्करतने आकासं अब्भुग्गन्त्वा पवत्ते इदानि तस्स पवत्तापनत्थं यं कातब्बं, तं दस्सेन्तो अथ खो आनन्दातिआदिमाह । 189 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा २४४. तत्थ उट्ठायासनाति निसिन्नासनतो उट्ठहित्वा चक्करतनसमीपं आगन्त्वा । सुवणभिङ्कारं गहेत्वाति हत्थिसोण्डसदिसपनाळिं सुवण्णभिङ्कारं उक्खिपित्वा । अन्वदेव राजा महासुदस्सनो सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनायाति सब्बचक्कवत्तीनहि उदकेन अब्भुक्किरित्वा - " अभिविजिनातु भवं चक्करतन "न्ति वचनसमनन्तरमेव वेहासं अब्भुग्गन्त्वा चक्करतनं पवत्तति । यस्स पवत्ति समकालमेव सो राजा चक्कवत्ती नाम होति । पवत्ते पन चक्कर ने तं अनुबन्धमानोव राजा चक्कवत्तियानवरं आरुय्ह वेहासं अब्भुग्गच्छति । छत्तचामरादिहत्थो परिजनो चेव अन्तेपुरजनो च ततो नानाकारकञ्चुककवचादिसन्नाहविभूसितेन विविधाभरणप्पभासमुज्जलेन समुस्सितद्धजपटाकपटिमण्डितेन अत्तनो अत्तनो बलकायेन सद्धिं उपराजसेनापतिपभुतयोपि वेहासं अब्भुग्गन्त्वा राजानमेव परिवारेन्ति । अथस्स राजयुत्ता पन जनसङ्गहत्थं नगरवीथीसु भेरियो चरापेन्ति- “ ताता, अम्हाकं रज्ञो चक्करतनं निब्बत्तं, अत्तनो विभवानुरूपेन मण्डितपसाधिका सन्निपतथा "ति । महाजनो पन पकतिया चक्करतनसद्देनेव सब्बकिच्चानि पहाय गन्धपुप्फादीनि आदाय सन्निपतितोव सोपि सब्बो वेहासं अब्भुग्गन्त्वा राजानमेव परिवारेति । यस्स यस्स हि रञ्ञा सद्धिं गन्तुकामताचित्तं उप्पज्जति, सो सो आकासगतोव होति । एवं द्वादसयोजनायामवित्थारा परिसा होति । तत्थ एकपुरिसोपि छिन्नभिन्नसरीरो वा किलिट्ठवत्थो वा नत्थि । सुचिपरिवारो हि राजा चक्कवत्ती । चक्कवत्तिपरिसा नाम विज्जाधरपुरिसा विय आकासे गच्छमाना इन्दनीलमणितले विप्पकिण्णरतनसदिसा होति । महासुदस्सनस्सापि तथैव अहोसि । तेन वुत्तं - " अन्वदेव राजा महासुदस्सनो सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाया'ति । ( ४.२४४ - २४४) तं पन चक्करतनं रुक्खग्गानं उपरूपरि नातिउच्चेन नातिनीचेन गगनप्पदेसेन पवत्तति । यथा रुक्खानं पुप्फफलपल्लवेहि अत्थिका, तानि सुखेन गहेतुं सक्कोन्ति । यथा च भूमियं ठिता " एस राजा, एस उपराजा, एस सेनापती "ति सल्लक्खेतुं सक्कोन्ति । ठानादीसु च इरियापथेसु यो येन इच्छति, सो तेनेव गच्छति । चित्तकम्मादिसिप्पपसुता चेत्थ अत्तनो अत्तनो किच्चं करोन्तायेव गच्छन्ति । यथेव हि भूमियं, तथा तेसं सब्बकिच्चानि आकासेव इज्झन्ति । एवं चक्कवत्तिपरिसं गहेत्वा तं चक्करतनं वामपस्सेन सिनेरुं पहाय महासमुद्दस्स उपरिभागेन सत्तसहस्सयोजनप्पमाणं पुब्बविदेहं गच्छति । तत्थ यो विनिब्बेधेन द्वादसयोजनाय, परिक्खेपतो छत्तिंसयोजनाय परिसाय 190 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४.२४४-२४४) सन्निवेसक्खमो सुलभाहारूपकरणो छायुदकसम्पन्नो सुचिसमतलो रमणीयो भूमिभागो, तस्स उपरिभागे तं चक्करतनं अक्खाहतं विय तिट्ठति । अथ तेन सञ्ञाणेन सो महाजनो ओतरित्वा यथारुचि नहानभोजनादीनि सब्बकिच्चानि करोन्तो वासं कप्पेति । महासुदस्सनस्सापि सब्बं तथेव अहोसि । तेन वुत्तं - " यस्मिं खो पनानन्द, पदेसे चक्करतनं पतिट्ठाति, तत्थ सो राजा महासुदस्सनो वासं उपगच्छि सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाया "ति । चक्करतनवण्णना एवं वासं उपगते चक्कवत्तिम्हि ये तत्थ राजानो, ते "परचक्कं आगत "न्ति सुत्वापि न बलकायं सन्निपातेत्वा युद्धसज्जा होन्ति । चक्करतनस्स हि उप्पत्तिसमनन्तरमेव नत्थि सो सत्तो नाम, यो पच्चत्थिकसञ्ञाय तं राजानं आरम्भ आवुधं उक्खपितुं विसहेय्य । अयमानुभावो चक्करतनस्स । चक्कानुभावेन हि तस्स रञो, अरी असेसा दमथं उपेन्ति । अरिन्दमं नाम नराधिपस्स, तेनेव तं बुच्चति तस्स चक्कन्ति ।। १९१ तस्मा सब्बेपि ते राजानो अत्तनो अत्तनो रज्जसिरिविभवानुरूपं पाभतं गत्वा तं राजानं उपगम्म ओनतसिरा अत्तनो मोळिमणिप्पभाभिसेकेन तस्स पादपूजं करोन्ता - " एहि खो, महाराजा" तिआदीहि वचनेहि तस्स किंकारपटिसावितं आपज्जन्ति । महासुदस्सनस्सापि तथेव अकंसु । तेन वुत्तं - "ये खो, पनानन्द, पुरत्थिमाय दिसाय...पे०... अनुसास, महाराजा'ति । तत्थ स्वागतन्ति सु - आगतं । एकस्मिञ्हि आगते सोचन्ति गते नन्दन्ति । एकस्मिं आगते नन्दन्ति, गते सोचन्ति तादिसो त्वं आगमननन्दनो, गमनसोचनो । तस्मा तव आगमनं सुआगमनन्ति वृत्तं होति । एवं वुत्ते पन राजा चक्कवत्ती नापि - " एत्तकं नाम मे अनुवस्सं बलिं उपकप्पेथा "ति वदति, नापि अञ्ञस्स भोगं अच्छिन्दित्वा अञ्ञस्स देति । अत्तनो पन धम्मराजभावस्स अनुरूपाय पञ्ञाय पाणातिपातादीनि उपपरिक्खित्वा पेमनीयेन मञ्जुना सरेन- “पस्सथ ताता, पाणातिपातो नामेस आसेवितो भावितो बहुलीको निरयसंवत्तनिको होती "तिआदिना नयेन धम्मं देसेत्वा “पाणो न 191 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (४.२४४-२४४) हन्तब्बो'"तिआदिकं ओवादं देति । महासुदस्सनोपि तथैव अकासि, तेन वुत्तं- “राजा महासुदस्सनो एवमाह - 'पाणो न हन्तब्बो...पे०... यथाभुत्तञ्च भुजथा'ति" | किं पन सब्बेपि रो इमं ओवादं गण्हन्तीति ? बुद्धस्सापि ताव सब्बे न गण्हन्ति, रञो किं गहिस्सन्तीति । तस्मा ये पण्डिता विभाविनो, ते गण्हन्ति । सब्बे पन अनुयन्ता भवन्ति । तस्मा ये खो पनानन्दातिआदिमाह । अथ तं चक्करतनं एवं पुब्बविदेहवासीनं ओवादे दिन्ने कतपातरासे चक्कवत्तिबलेन वेहासं अब्भुग्गन्त्वा पुरत्थिमसमुदं अज्झोगाहति । यथा यथा च तं अज्झोगाहति, तथा तथा अगदगन्धं घायित्वा सङित्तफणो नागराजा विय, सवित्तऊमिविप्फारं हुत्वा ओगच्छमानं महासमुद्दसलिलं योजनमत्तं ओगन्त्वा अन्तोसमुद्दे वेळुरियभित्ति विय तिट्ठति । तङ्खणजेव च तस्स रओ पुअसिरिं दद्रुकामानि विय महासमुद्दतले विप्पकिण्णानि नानारतनानि ततो ततो आगन्त्वा तं पदेसं पूरयन्ति । अथ सा राजपरिसा तं नानारतनपरिपूर महासमुद्दतलं दिस्वा यथारुचि उच्छङ्गादीहि आदियति, यथारुचि आदिन्नरतनाय पन परिसाय तं चक्करतनं पटिनिवत्तति | पटिनिवत्तमाने च तस्मिं परिसा अग्गतो होति, मज्झे राजा, अन्ते चक्करतनं । तम्पि जलनिधिजलं पलोभियमानमिव चक्करतनसिरिया, असहमानमिव च तेन वियोगं नेमिमण्डलपरियन्तं अभिहनन्तं निरन्तरमेव उपगच्छति । एवं राजा चक्कवत्ती पुरथिममहासमुद्दपरियन्तं पुब्बविदेहं अभिविजिनित्वा दक्खिणसमुद्दपरियन्तं जम्बुदीपं विजेतुकामो चक्करतनदेसितेन मग्गेन दक्खिणसमुद्दाभिमुखो गच्छति । महासुदस्सनोपि तथैव अगमासि । तेन वुत्तं- “अथ खो, आनन्द, चक्करतनं पुरस्थिमं समुद्दे अज्झोगाहेत्वा पच्चुत्तरित्वा दक्खिणं दिसं पवत्ती"ति । एवं पवत्तमानस्स पन तस्स पवत्तनविधानं, सेनासन्निवेसो, पटिराजागमनं, तेसं अनुसासनिप्पदानं दक्खिणसमुद्दअज्झोगाहनं समुद्दसलिलस्स ओगच्छमानं रतनानं आदानन्ति सब्बं पुरिमनयेनेव वेदितब्बं । विजिनित्वा पन तं दससहस्सयोजनप्पमाणं जम्बुदीपं दक्खिणसमुद्दतोपि पच्चुत्तरित्वा सत्तयोजनसहस्सप्पमाणं अपरगोयानं विजेतुं पुब्बे वुत्तनयेनेव गन्त्वा तम्पि समुद्दपरियन्तं तथेव अभिविजिनित्वा पच्छिमसमुद्दतोपि उत्तरित्वा अट्ठयोजनसहस्सप्पमाणं उत्तरकुरुं विजेतुं तथेव गन्त्वा तम्पि समुद्दपरियन्तं तथैव अभिविजिय उत्तरसमुद्दतो पच्चुत्तरति । 192 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.२४६-२४६) हत्थिरतनवण्णना १९३ __एत्तावता रञा चक्कवत्तिना चातुरन्ताय पथविया आधिपच्चं अधिगतं होति । सो एवं विजितविजयो अत्तनो रज्जसिरिसम्पत्तिदस्सनत्थं सपरिसो उद्धं गगनतलं अभिलचित्वा सुविकसितपदुमकुमुदपुण्डरीकवनविचित्ते चत्तारो जातस्सरे विय पञ्चसतपञ्चसतपरित्तदीपपरिवारे चत्तारो महादीपे ओलोकेत्वा चक्करतनदेसितेनेव मग्गेन यथानुक्कम अत्तनो राजधानि पच्चागच्छति । अथ तं चक्करतनं अन्तेपुरद्वारं सोभयमानं विय हुत्वा तिठ्ठति । __ एवं पतिहिते पन तस्मिं चक्करतने राजन्तेपुरे उक्काहि वा दीपिकाहि वा किञ्चि करणीयं न होति, चक्करतनोभासोयेव रत्तिं अन्धकारं विधमतियेव । ये पन अन्धकारस्थिका होन्ति, तेसं अन्धकारमेव होति । महासुदस्सनस्सापि सब्बमेतं तथैव अहोसि । तेन वुत्तं - "दक्खिणं समुदं अज्झोगाहेत्वा...पे०... एवरूपं चक्करतनं पातुरहोसी"ति । हत्थिरतनवण्णना २४६. एवं पातुभूतचक्करतनस्सेव चक्कवत्तिनो अमच्चा पकतिमङ्गलहत्थिट्टानं समं सुचिभूमिभागं कारेत्वा हरिचन्दनादीहि सुरभिगन्धेहि उपलिम्पापेत्वा हेट्ठा विचित्तवण्णसुरभिकुसुमसमोकिण्णं उपरि सुवण्णतारकानं अन्तरन्तरा समोसरितमनुञकुसुमदामपटिमण्डितवितानं देवविमानं विय अभिसङ्खरित्वा - “एवरूपस्स नाम देव हत्थिरतनस्स आगमनं चिन्तेथा''ति वदन्ति । सो पुब्बे वुत्तनयेनेव महादानं दत्वा सीलानि च समादाय तं पुञ्जसम्पत्तिं आवज्जन्तो निसीदि । अथस्स पुञानुभावचोदितो छद्दन्तकुला वा उपोसथकुला वा तं सक्कारविसेसं अनुभवितुकामो तरुणरविमण्डलाभिरत्तचरणगीवामुखपटिमण्डितविसुद्धसेतसरीरो सत्तपतिठ्ठो सुसण्ठितअङ्गपच्चङ्गसन्निवेसो विकसितरत्तपदुमचारुपोक्खरो इद्धिमा योगी विय वेहासगमनसमत्थो मनोसिलाचुण्णरजितपरियन्तो विय रजतपब्बतो हत्थिसेट्ठो आगन्त्वा तस्मिं पदेसे तिट्ठति । सो छद्दन्तकुला आगच्छन्तो सब्बकनिट्ठो आगच्छति । उपोसथकुला आगच्छन्तो सब्बजेट्टो । पाळियं पन उपोसथो नागराजा इच्चेव आगतं । नागराजा नाम कस्सचि अपरिभोगो, सब्बकनिट्ठो आगच्छतीति अट्ठकथासु वुत्तं । स्वायं पूरितचक्कवत्तिवत्तानं चक्कवत्तीनं वुत्तनयेनेव चिन्तयन्तानं आगच्छति । महासुदस्सनस्स पन सयमेव पकतिमङ्गलहत्थिट्टानं आगन्त्वा तं हत्थिं अपनेत्वा तत्थ अट्ठासि । तेन वुत्तं- “पुन चपरं आनन्द...पे०... नागराजा"ति। 193 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा एवं पातुभूतं पन तं हत्थिरतनं दिस्वा हत्थिगोपकादयो हट्ठतुट्ठा वेगेन गन्त्वा रज्ञो आरोचेन्ति । राजा तुरिततुरितो आगन्त्वा तं दिस्वा पसन्नचित्तो- “भद्दकं वत भो हत्थियानं, सचे दमथं उपेय्या' ति चिन्तयन्तो हत्थं पसारेति । अथ सो घरधेनुवच्छको विय कण्णे ओलम्बित्वा सूरतभावं दस्सेन्तो राजानं उपसङ्कमति । राजा तं आरोहि काम होति । अथस्स परिजना अधिप्पायं ञत्वा तं हत्थिरतनं सुवण्णद्धजं सुवण्णालङ्कारं हेमजालपटिच्छन्नं कत्वा उपनेन्ति । राजा तं अनिसीदापेत्वाव सत्तरतनमयाय निस्सेणिया आरुय्ह आकासगमननिन्नचित्तो होति । तस्स सह चित्तुप्पादेनेव सो नागराजा राजहंसो विय इन्दनीलमणिप्पभाजालं नीलगगनतलं अभिलङ्घति । ततो चक्कचारिकाय वुत्तनयेनेव सकलराजपरिसा । इति सपरिसो राजा अन्तोपातरासेयेव सकलपथविं अनुसंयायित्वा राजधानिं पच्चागच्छति । एवं महिद्धिकं चक्कवत्तिनो हत्थिरतनं होति । महासुदस्सनस्साि तादिसमेव अहोसि । तेन वुत्तं - “दिस्वा रञ्ञो...पे०... पातुरहोसी 'ति । १९४ अस्सरतनवण्णना २४७. एवं पातुभूतहत्थिरतनस्स पन चक्कवत्तिनो अमच्चा पकतिमङ्गल अस्सट्ठानं सुचिसमतलं कारेत्वा अलङ्कारित्वा च पुरिमनयेनेव रज्ञो तस्स आगमनचिन्तनत्थं उस्साहं जनेन्ति । सो पुरिमनयेनेव कतदानमाननसक्कारो समादिन्नसीलब्बतो पासादतले सुखनिसिन्नो पुञ्ञसम्पत्तिं समनुस्सरति । अथस्स पुञ्ञानुभावचोदितो सिन्धवकुलतो विज्जुलताविनद्धसरदकालसेतवलाहकरासिसस्सिरीको रत्तपादो रत्ततुण्डो चन्दप्पभापुञ्जसदिससुद्धसिनिद्धघनसंहतसरीरो काकगीवा विय इन्दनीलमणि विय च काळवण्णेन सीसेन समन्नागतत्ता काळसीसोति सुट्टु कप्पेत्वा ठपितेहि विय मुञ्जसदिसेहि सहवट्टउजुगते हि केसेहि समन्नागतत्ता मुञ्जकेसो वेहासङ्गमो वलाहको नाम अस्सराजा आगन्त्वा तस्मिं ठाने पतिट्ठाति । महासुदस्सनस्स पनेस हत्थिरतनं विय आगतो । सेसं सब्बं हत्थिरतने वृत्तनयेनेव वेदितब्बं । एवरूपं अस्सरतनं सन्धाय भगवा " पुन च पर "न्तिआदिमाह । मणिरतनवण्णना - २४८. एवं पातुभूत अस्सरतनस्स पन रञो चक्कवत्तिनो चतुहत्थायामं सकटनाभिसमपरिणाहं भो अन्तेसु कणिकपरियन्ततो विनिग्ग हि सुपरिसुद्धमुत्ताकलापेहि द्वीहि कञ्चनपदुमेहि अलङ्कृतं चतुरासीतिमणिसहस्सपरिवारं 194 ( ४.२४७-२४८) Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.२४९-२४९) इस्थिरतनवण्णना १९५ तारागणपरिवुतस्स पुण्णचन्दसस्सिरि फरमानं विय वेपुल्लपब्बततो मणिरतनं आगच्छति । तस्सेवं आगतस्स मुत्ताजालके ठपेत्वा वेळुपरम्पराय सहिहत्थप्पमाणं आकासं आरोपितस्स रत्तिभागे समन्ता योजनप्पमाणं ओकासं आभा फरति, याय सब्बो सो ओकासो अरुणुग्गमनवेला विय सजातालोको होति। ततो कस्सका कसिकम्मं वाणिजा आपणुग्घाटनं ते ते सिप्पिनो तं तं कम्मन्तं पयोजेन्ति “दिवाति मञ्जमाना । महासुदस्सनस्सापि सब् तं तथैव अहोसि । तेन वुत्तं- "पुन च परं आनन्द,...पे०... मणिरतनं पातुरहोसी''ति। इत्थिरतनवण्णना २४९. एवं पातुभूतमणिरतनस्स पन चक्कवत्तिनो विसयसुखविसेसस्स विसेसकारणं इत्थिरतनं पातुभवति । मद्दराजकुलतो वा हिस्स अग्गमहेसिं आनेन्ति, उत्तरकुरुतो वा पुञानुभावेन सयं आगच्छति । अवसेसा पनस्सा सम्पत्ति- “पुन च परं, आनन्द, रो महासुदस्सनस्स, इत्थिरतनं पातुरहोसि, अभिरूपा दस्सनीया''तिआदिना नयेन पाळिययेव आगता। तत्थ सण्ठानपारिपूरिया अधिकं रूपं अस्साति अभिरूपा। दिस्समानाव चक्खूनि पिणयति, तस्मा अनं किच्चविखेपं हित्वापि दट्ठब्बाति दस्सनीया। दिस्समानाव सोमनस्सवसेन चित्तं पसादेतीति पासादिका। परमायाति एवं पसादावहत्ता उत्तमाय | वण्णपोक्खरतायाति वण्णसुन्दरताय। समन्वागताति उपेता। अभिरूपा वा यस्मा नातिदीघा नातिरस्सा। दस्सनीया यस्मा नातिकिसा नातिथूला । पासादिका यस्मा नातिकाळिका नाच्चोदाता। परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागता यस्मा अभिक्कन्ता मानुसिवण्णं अप्पत्ता दिब्बवण्णं। मनुस्सानहि वण्णाभा बहि न निच्छरति । देवानं पन अतिदूरम्पि निच्छरति । तस्सा पन द्वादसहत्थप्पमाणं पदेसं सरीराभा ओभासेति । नातिदीघादीसु चस्सा पठमयुगळेन आरोहसम्पत्ति, दुतिययुगळेन परिणाहसम्पत्ति, ततिययुगळेन वण्णसम्पत्ति वुत्ता। छहि वापि एतेहि कायविपत्तिया अभावो, अतिक्कन्ता मानुसिवण्णन्ति इमिना कायसम्पत्ति वुत्ता । तूलपिचुनो वा कप्पासपिचुनो वाति सप्पिमण्डे पक्खिपित्वा ठपितस्स सतवारविहतस्स तूलपिचुनो वा कप्पासपिचुनो वा। सीतेति रओ सीतकाले । उण्हेति रञो उण्हकाले। चन्दनगन्धोति निच्चकालमेव सुपिसितस्स अभिनवस्स 195 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (४.२५०-२५०) चतुज्जातिसमायोजितस्स हरिचन्दनस्स गन्धो कायतो वायति । उप्पलगन्धो वायतीति हसितकथितकालेसु मुखतो तङ्खणं विकसितस्सेव नीलुप्पलस्स अतिसुरभिगन्धो वायति । __ एवं रूपसम्फस्सगन्धसम्पत्तियुत्ताय पनस्सा सरीरसम्पत्तिया अनुरूपं आचारं दस्सेतुं तं खो पनातिआदि वुत्तं । तत्थ राजानं दिस्वा निसिन्नासनतो अग्गिदड्वा विय पठममेव उठातीति पुबुढायिनी। तस्मिं निसिन्ने तस्स तालवण्टेन बीजनादिकिच्चं कत्वा पच्छा निपतति निसीदतीति पच्छानिपातिनी। किं करोमि, ते देवाति वाचाय किं-कारं पटिसावेतीति किं कारपटिस्साविनी। रञो मनापमेव चरति करोतीति मनापचारिनी। यं रो पियं तदेव वदतीति पियवादिनी। इदानि - “स्वास्सा आचारो भावविसुद्धियाव, न साठेय्यना"ति दस्सेतुं तं खो पनातिआदिमाह । तत्थ नो अतिचरीति न अतिक्कमित्वा चरि, ठपेत्वा राजानं अधे पुरिसं चित्तेनपि न पत्थेसीति वुत्तं होति । तत्थ ये तस्सा आदिम्हि “अभिरूपा" तिआदयो, अन्ते “पुब्बुढायिनी" तिआदयो गुणा वुत्ता, ते पकतिगुणा एव । “अतिक्कन्ता मानुसिवण्णं" तिआदयो पन चक्कवत्तिनो पुञ्ज उपनिस्साय चक्करतनपातुभावतो पट्ठाय पुरिमकम्मानुभावेन निब्बत्ताति वेदितब्बा। अभिरूपतादिकापि वा चक्करतनपातुभावतो पट्ठाय सब्बाकारपरिपूरा जाता । तेनाह - "एवरूपं इस्थिरतनं पातुरहोसी"ति । गहपतिरतनवण्णना २५०. एवं पातुभूतइत्थिरतनस्स पन रञो चक्कवत्तिनो धनकरणीयानं किच्चानं यथासुखं पवत्तनत्थं गहपतिरतनं पातुभवति । सो पकतियाव महाभोगो, महाभोगकुले जातो। रञो धनरासिवड्डको सेट्ठिगहपति होति । चक्करतनानुभावसहितं पनस्स कम्मविपाकजं दिब्बचक्खु पातुभवति, येन अन्तोपथवियम्पि योजनब्भन्तरे निधिं पस्सति, सो तं सम्पत्तिं दिस्वा तुट्ठमानसो गन्त्वा राजानं धनेन पवारेत्वा सब्बानि धनकरणीयानि 196 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४.२५१ - २५३) परिणायकरतनवण्णना सम्पादेति। महासुदस्सनस्सापि तथैव सम्पादेसि । तेन वुत्तं- “पुन च परं आनन्द...पे०... एवरूपं गहपतिरतनं पातुरहोसी 'ति । परिणायकरतनवण्णना २५१. एवं पातुभूतगहपतिरतनस्स पन रञो चक्कवत्तिस्स सब्बकिच्चसंविधानसमत्थं परिणायकरतनं पातुभवति । सो रञ ट्ठपुत्तोव होति । पकतिया एव सो पण्डितो ब्यत्तो मेधावी विभावी । रञ्ञो पुञ्ञानुभावं निस्साय पनस्स अत्तनो कम्मानुभावेन परचित्तत्राणं उप्पज्जति । येन द्वादसयोजनाय राजपरिसाय चित्ताचारं ञत्वा रञो हिते च अहिते च ववत्थपेतुं समत्थो होति, सोपि तं अत्तनो आनुभावं दिस्वा तुट्टहदयो राजानं सब्बकिच्चानुसासनेन पवारेति । महासुदस्सनपि तथैव पवारेसि। तेन वुत्तं – “पुन च परं ...पे०... परिणायकरतनं पातुरहोसी 'ति । तत्थ उपेतब्बं ठपेतुन्ति तस्मिं तस्मिं ठानन्तरे ठपेतब्बं ठपेतुं । १९७ चतुइद्धिसमन्नागतवण्णना २५२. समवेपाकिनियाति समविपाचनिया । गहणियाति कम्मजतेजोधातुया । तत्थ यस्स भुत्तमत्तोव आहारो जीरति यस्स वा पन पुटभत्तं विय तत्थेव तिट्ठति, उभोपेते न समवेपाकिनिया समन्नागता । यस्स पन पुन भत्तकाले भत्तछन्दो उप्पज्जतेव, अयं समवेपाकिनिया समन्नागतोति । धम्मपासादपोक्खरणिवण्णना २५३. मापेसि खोति नगरे भेरिं चरापेत्वा जनरासिं कारेत्वा न मापेसि, रञ्ञो पन सह चित्तुप्पादेनेव भूमिं भिन्दित्वा चतुरासीति पोक्खरणीसहस्सानि निब्बत्तिंसु । सन्धायेतं वृत्तं । द्वीहि वेदिकाहीति एकाय इट्टकानं परियन्तेयेव परिक्खित्ता एकाय परिवेणपरिच्छेदपरियन्ते । एतदहोसीति कस्मा अहोसि ? एकदिवसं किर नहत्वा च पिवित्वा च गच्छन्तं महाजनं महापुरिसो ओलोकेत्वा इमे उम्मत्तकवेसेनेव गच्छन्ति । सचे एतेसं एत्थ पिळन्धनपुप्फानि भवेय्युं, भद्दकं सियाति । अथस्स एतदहोस । तत्थ 197 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (४.२५४-२५५) सब्बोतुकन्ति पुष्पं नाम एकस्मिंयेव उतुम्हि पुष्फति । अहं पन तथा करिस्सामि- “यथा सब्बेसु उतूसु पुफ्फिस्सती"ति चिन्तेसिं । रोपापेसीति नानावण्णउप्पलबीजादीनि ततो ततो आहरापेत्वा न रोपापेसि, सह चित्तुप्पादेनेव पनस्स सब् इज्झति । तं लोको रञा रोपितन्ति मञि। तेन वुत्तं – “रोपापेसी"ति । ततो पट्ठाय महाजनो नानप्पकारं जलजथलजमालं पिळन्धित्वा नक्खत्तं कीळमानो विय गच्छति । २५४. अथ राजा ततो उत्तरिपि जनं सुखसमप्पितं कातुकामो- "यंनूनाहं इमासं पोक्खरणीनं तीरे''तिआदिना जनस्स सुखविधानं चिन्तेत्वा सब्बं अकासि । तत्थ न्हापेसुन्ति अञो सरीरं उब्बट्टेसि, अञो चुण्णानि योजेसि, अञो तीरे नहायन्तस्स उदकं आहरि, अञो वत्थानि पटिग्गहेसि चेव अदासि च । पट्ठपेसि खोति कथं पट्टपेसि ? इत्थीनञ्च पुरिसानञ्च अनुच्छविके अलङ्कारे कारेत्वा इत्थिमत्तमेव तत्थ परिचारवसेन सेसं सब्बं परिच्चागवसेन ठपेत्वा राजा महासुदस्सनो दानं देति, तं परिभुञ्जथाति भेरि चरापेसि । महाजनो पोक्खरणीतीरं आगन्त्वा नहत्वा वत्थानि परिवत्तेत्वा नानागन्धेहि विलित्तो पिळन्धनविचित्तमालो दानग्गं गन्त्वा अनेकप्पकारेसु यागुभत्तखज्जकेसु अट्ठविधपानेसु च यो यं इच्छति, सो तं खादित्वा च पिवित्वा च नानावण्णानि खोमसुखुमानि वत्थानि निवासेत्वा सम्पत्तिं अनुभवित्वा येसं तादिसानि अस्थि, ते ओहाय गच्छन्ति । येसं पन नत्थि, ते गहेत्वा गच्छन्ति । हथिअस्सयानादीसुपि निसीदित्वा थोकं विचरित्वा अनस्थिका ओहाय, अस्थिका गहेत्वा गच्छन्ति । वरसयनेसु निपज्जित्वा सम्पत्तिं अनुभवित्वा अनत्थिका ओहाय, अत्थिका गहेत्वा गच्छन्ति । इत्थीहिपि सद्धिं सम्पत्तिं अनुभवित्वा अनत्थिका ओहाय, अस्थिका गहेत्वा गच्छन्ति । सत्तविधरतनपसाधनानि च पसाधेत्वापि सम्पत्तिं अनुभवित्वा अनत्थिका ओहाय, अस्थिका गहेत्वा गच्छन्ति । तम्पि दानं उट्ठाय समुट्ठाय दीयतेव । जम्बुदीपवासिकानं अनं कम्म नत्थि, रञ्जो दानं परिभुञ्जन्ताव विचरन्ति । २५५. अथ ब्राह्मणगहपतिका चिन्तेसुं- “अयं राजा एवरूपं दानं ददन्तोपि 'मय्हं तण्डुलादीनि वा खीरादीनि वा देथा'ति न किञ्चि आहरापेति, न खो पन अम्हाकं‘राजा आहरापेतीति तुण्हीमासितुं पतिरूप"न्ति ते बहु सापतेय्यं संहरित्वा रो उपनामेसुं। तस्मा- “अथ खो, आनन्द, ब्राह्मणगहपतिका'"तिआदिमाह। एवं समचिन्तेसुन्ति कस्मा एवं चिन्तेसुं ? कस्सचि घरतो अप्पं आभतं, कस्सचि बहु । तस्मिं 198 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.२५६-२६०) झानसम्पत्तिवण्णना १९९ पटिसंहरियमाने – “किं तवेव घरतो सुन्दरं आभतं, न मय्हं घरतो, किं तवेव घरतो बहु, न मह"न्ति एवं कलहसद्दोपि उप्पज्जेय्य, सो मा उप्पज्जित्थाति एवं समचिन्तेसुं । ___२५६. एहि त्वं सम्माति एहि त्वं वयस्स । धम्मं नाम पासादन्ति पासादस्स नामं आरोपेत्वाव आणापेसि । विस्सकम्मो पन कीव महन्तो देव पासादो होतूति पटिपुच्छित्वा दीघतो योजनं वित्थारतो अड्ढयोजनं सब्बरतनमयोव होतूति वुत्तेपि ‘एवं होतु, भदं तव वचन'न्ति तस्स पटिस्सुणित्वा धम्मराजानं सम्पटिच्छापेत्वा मापेसि । तत्थ एवं भदं तवाति खो आनन्दाति एवं भदं तव इति खो आनन्द । पटिस्सुत्वाति सम्पटिच्छित्वा, वत्वाति अत्थो । तुण्हीभावेनाति समणधम्मपटिपत्तिकरणोकासो मे भविस्सतीति इच्छन्तो तुण्हीभावेन अधिवासेसि | सारमयोति चन्दनसारमयो । २५७. द्वीहि वेदिकाहीति एत्थ एका वेदिका पनस्स उण्हीसमत्थके अहोसि, एका हेट्ठा परिच्छेदमत्थके। २५८. दुदिक्खो अहोसीति दुउद्दिक्खो, पभासम्पत्तिया दुद्दसोति अत्थो । मुसतीति हरति फन्दापेति निच्चलभावेन पतिट्ठातुं न देति । विद्धति उब्बिद्धे, मेघविगमेन दूरीभूतेति अत्थो । देवेति आकासे । __ २५९. मापेसि खोति अहं इमस्मिं ठाने पोक्खरणिं मापेमि, तुम्हाकं घरानि भिन्दथाति न एवं कारेत्वा मापेसि । चित्तुप्पादवसेनेव पनस्स भूमिं भिन्दित्वा तथारूपा पोक्खरणी अहोसि। ते सब्बकामेहीति सब्बेहि इच्छितिच्छितवत्थूहि, समणे समणपरिक्खारेहि, ब्राह्मणे ब्राह्मणपरिक्खारेहि सन्तप्पेसीति । पठमभाणवारवण्णना निहिता। झानसम्पत्तिवण्णना २६०. महिद्धिकोति चित्तुप्पादवसेनेव चतुरासीतिपोक्खरणीसहस्सानं निब्बत्तिसङ्खाताय 199 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (४.२६०-२६०) महतिया इद्धिया समन्नागतो। महानुभावोति तेसंयेव अनुभवितब्बानं महन्तताय महानुभावेन समन्नागतो। सेय्यथिदन्ति निपातो, तस्स- “कतमेसं तिण्ण"न्ति अत्थो । दानस्साति सम्पत्तिपरिच्चागस्स । दमस्साति आळवकसुत्ते पञा दमोति आगतो। इध अत्तानं दमेन्तेन कतं उपोसथकम्मं । संयमस्साति सीलस्स | बोधिसत्तपुब्बयोगवण्णना इध ठत्वा पनस्स पुब्बयोगो वेदितब्बो - राजा किर पुब्बे गहपतिकुले निब्बत्ति । तेन च समयेन धरमानकस्सेव कस्सपबुद्धस्स सासने एको थेरो अरजे वासं वसति, बोधिसत्तो अत्तनो कम्मेन अरचं पविठ्ठो थेरं दिस्वा उपसङ्कमित्वा वन्दित्वा थेरस्स निसज्जनट्ठानचङ्कमनट्ठानानि ओलोकेत्वा पुच्छि – “इधेव, भन्ते, अय्यो वसती"ति ? आम, उपासकाति सुत्वा- "इधेव अय्यस्स पण्णसालं कातुं वट्टती"ति चिन्तेत्वा अत्तनो कम्म पहाय दब्बसम्भारं कोठूत्वा पण्णसालं कत्वा छादेत्वा भित्तियो मत्तिकाय लिम्पित्वा द्वारं योजेत्वा कट्टत्थरणं कत्वा – “करिस्सति नु खो परिभोगं, न करिस्सती"ति एकमन्तं निसीदि । थेरो अन्तोगामतो आगन्त्वा पण्णसालं पविसित्वा कट्टत्थरणे निसीदि । उपासकोपि आगन्त्वा वन्दित्वा समीपे निसिन्नो “फासुका, भन्ते, पण्णसाला''ति पुच्छि। फासुका, भद्दमुख, पब्बजितसारुप्पाति। वसिस्सथ, भन्ते, इधाति ? आम, उपासकाति, सो अधिवासनाकारेन वसिस्सतीति ञत्वा निबद्धं मय्हं घरद्वारं आगन्तब्बन्ति पटिजानापेत्वा"एकं मे, भन्ते, वरं देथा''ति आह । अतिक्कन्तवरा, उपासक, पब्बजिताति । भन्ते, यञ्च कप्पति, यञ्च अनवज्जन्ति । वदेहि उपासकाति । भन्ते, निबद्धवसनट्ठाने नाम मनुस्सा मङ्गले वा अमङ्गले वा आगमनं इच्छन्ति, अनागच्छन्तस्स कुज्झन्ति । तस्मा अनं निमन्तितट्टानं गन्त्वापि मह घरं पविसित्वाव भत्तकिच्चं निट्ठापेतब्बन्ति । थेरो अधिवासेसि । सो पण्णसालाय कटसाटकं पत्थरित्वा मञ्चपीठं पञपेसि, अपस्सेनं निक्खिपि, पादकथलिकं ठपेसि, पोक्खरणिं खणि, चङ्कम कत्वा वालिकं ओकिरि, मिगे आगन्त्वा भित्तिं घंसित्वा मत्तिकं पातेन्ते दिस्वा कण्टकवतिं परिक्खिपि । पोक्खरणिं ओतरित्वा उदकं आळुलिकं करोन्ते दिस्वा अन्तो पासाणेहि चिनित्वा बहि कण्टकवतिं परिक्खिपित्वा अन्तोवतिपरियन्ते तालपन्तियो रोपेति, महाचङ्कमे सम्मट्ठट्टानं आळुलेन्ते दिस्वा चङ्कमम्पि वतिया परिक्खिपित्वा अन्तोवतिपरियन्ते तालपन्तिं रोपेसि । एवं आवासं 200 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.२६१-२६२) बोधिसत्तपुब्बयोगवण्णना २०१ निट्ठपेत्वा थेरस्स तिचीवरं, पिण्डपातं, ओसधं, परिभोगभाजनं, आरकण्टकं, पिप्फलिकं, नखच्छेदनं, सूचिं, कत्तरयटुिं, उपाहनं, उदकतुम्बं, छत्तं, दीपकपल्लकं, मलहरणिं । परिस्सावनं, धमकरणं, पत्तं, थालकं, यं वा पनाम्पि पब्बजितानं परिभोगजातं, सब् अदासि । थेरस्स बोधिसत्तेन अदिन्नपरिक्खारो नाम नाहोसि । सो सीलानि रक्खन्तो उपोसथं करोन्तो यावजीवं थेरं उपट्टहि । थेरो तत्थेव वसन्तो अरहत्तं पत्वा परिनिब्बायि | बोधिसत्तोपि यावतायुकं पुओं कत्वा देवलोके निब्बत्तित्वा ततो चुतो मनुस्सलोकं आगच्छन्तो कुसावतिया राजधानिया निब्बत्तित्वा महासुदस्सनो राजा अहोसि । "एवं नातिमहन्तम्पि, पुखं आयतने कतं । महाविपाकं होतीति, कत्तब्बं तं विभाविना"।। महावियूहन्ति रजतमयं महाकूटागारं । तत्थ वसितुकामो हुत्वा अगमासि, एत्तावता कामवितक्काति कामवितक्क तया एत्तावता निवत्तितब्ब, इतो परं तुम्हं अभूमि, इदं झानागारं नाम, नयिदं तया सद्धिं वसनट्ठानन्ति एवं तयो वितक्के कूटागारद्वारेयेव निवत्तेसि । २६१. पठमज्झानन्तिआदीसु विसु कसिणपरिकम्मकिच्चं नाम नत्थि। नीलकसिणेन अत्थे सति नीलमणिं, पीतकसिणेन अत्थे सति सुवण्णं, लोहितकसिणेन अत्थे सति रत्तमणिं, ओदातकसिणेन अत्थे सति रजतन्ति ओलोकितओलोकितट्ठाने कसिणमेव पायति । ____२६२. मेत्तासहगतेनातिआदीसु यं वत्तब्धं, तं सब्बम्पि विसुद्धिमग्गे वुत्तमेव । इति पाळियं चत्तारि झानानि, चत्तारि अप्पमञानेव वुत्तानि । महापुरिसो पन सब्बापि अट्ठ समापत्तियो, पञ्च अभिञायो च निब्बत्तेत्वा अनुलोमपटिलोमादिवसेन चुद्दसहाकारेहि समापत्तियो पविसन्तो मधुपटलं पविट्ठभमरो मधुरसेन विय समापत्तिसुखेनेव यापेति । 201 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (४.२६३-२६६) चतुरासीतिनगरसहस्सादिवण्णना २६३. कुसावतीराजधानिष्पमुखानीति कुसावती राजधानी तेसं नगरानं पमुखा सब्बसेठ्ठाति अत्थो । भत्ताभिहारोति अभिहरितब्बभत्तं । २६४. वस्ससतस्स बस्ससतस्साति कस्मा एवं चिन्तेसि ? तेसं सद्देन उक्कण्ठित्वा, "समापन्नस्स सद्दो कण्टको''ति (अ० नि० ३.१०.७२) हि वुत्तं । तस्मा सद्देन उक्कण्ठितो महापुरिसो। अथ कस्मा मा आगच्छन्तूति न वदति ? इदानि राजा न पस्सतीति निबद्धवत्तं न लभिस्सन्ति, तं तेसं मा उप्पज्जित्थाति न वदति । सुभद्दादेविउपसङ्कमनवण्णना २६५. एतदहोसीति कदा एतं अहोसि । रञो कालङ्किरियदिवसे । तदा किर देवता चिन्तेसुं- "राजा अनाथकालङ्किरियं मा करोतु, ओरोधेहि बहूहि धीतूहि पुत्तेहि परिवारितोव करोतू''ति । अथ देविं आवठूत्वा तस्सा एवं चित्तं उप्पादेसुं। पीतानि वत्थानीति तानि किर पकतिया रो मनापानि, तस्मा तानि पारुपथाति आह । एत्थेव देवि तिट्ठाति देवि इमं झानागारं नाम तुम्हेहि सद्धिं वसनट्ठानं न होति, झानरतिविन्दनट्ठानं मम, मा इध पाविसीति । २६६. एतदहोसीति लोके सत्ता नाम मरणासन्नकाले अतिविय विरोचन्ति, तेनस्स रञो विप्पसन्नइन्द्रियभावं दिस्वा एवं अहोसि, ततो मा रजो कालङ्किरिया अहोसीति तस्स कालङ्किरियं अनिच्छमाना सम्पति गुणमस्स कथयित्वा तिठ्ठमानाकारं करिस्सामीति चिन्तेत्वा इमानि ते देवातिआदिमाह । तत्थ छन्दं जनेहीति पेमं उप्पादेहि, रतिं करोहि । जीविते अपेक्खन्ति जीविते सापेक्खं, आलयं, तण्हं करोहीति अत्थो । एवं खो मं त्वं देवीति "मयं खो, देव, इत्थियो नाम पब्बजितानं उपचारकथं न जानाम, कथं वदाम महाराजा'ति राजानं "पब्बजितो अय"न्ति मञ्जमानाय देविया वुत्ते - "एवं खो मं, त्वं देवि, समुदाचराही"तिआदिमाह । गरहिताति बुद्धेहि पच्चेकबुद्धेहि सावकेहि अञ्चेहि च पण्डितेहि बहुस्सुतेहि गरहिता। किं कारणा ? 202 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.२६८-२७१) ब्रह्मलोकूपगमवण्णना २०३ सापेक्खकालकिरिया हि अत्तनोयेव गेहे यक्खकुक्कुरअजगोणमहिंसमूसिककुक्कुटऊकामङ्गुलादिभावेन निब्बत्तनकारणं होति । २६८. अथ खो, आनन्द, सुभद्दा देवी अस्सूनि पुञ्छित्वाति देवी एकमन्तं गन्त्वा रोदित्वा कन्दित्वा अस्सूनि पुञ्छित्वा एतदवोच । ब्रह्मलोकूपगमवण्णना २६९. गहपतिस्स वाति कस्मा आह ? तेसं किर सोणसेट्ठिपुत्तादीनं विय महती सम्पत्ति होति, सोणस्स किर सेट्टिपुत्तस्स एका भत्तपाति द्वे सतसहस्सानि अग्घति । इति तेसं तादिसं भत्तं भुत्तानं मुहुत्तं भत्तसम्मदो भत्तमुच्छा भत्तकिलमथो होति । २७१. यं तेन समयेन अल्झावसामीति यत्थ वसामि, तं एकंयेव नगरं होति, अवसेसेसु पुत्तधीतादयो चेव दासमनुस्सा च वसिंसु । पासादकूटागारेसुपि एसेव नयो । पल्लङ्कादीसुपि एकंयेव पल्लवं परिभुञ्जति, सेसा पुत्तादीनं परिभोगा होन्ति । इत्थीसुपि एकाव पच्चुपट्टाति, सेसा परिवारमत्ता होन्ति, परिदहामीति एकमेव दुस्सयुगं निवासेमि, सेसानि परिवारेत्वा विचरन्तानं असीतिसहस्साधिकानं सोळसनं पुरिससतसहस्सानं होन्ति । भुजामीति परमप्पमाणेन नाळिकोदनमत्तं भुजामि, सेसं परिवारेत्वा विचरन्तानं चत्तालीससहस्साधिकानं अट्ठन्नं पुरिससतसहस्सानं होतीति दस्सेति । एकथालिपाको हि दसन्नं जनानं पहोति। एतानि पन चतुरासीति नगरसहस्सानि चेव पासादसहस्सानि च कूटागारसहस्सानि च एकिस्सायेव पण्णसालाय निस्सन्देन निब्बत्तानि । चतुरासीति पल्लङ्कसहस्सानि निपज्जनत्थाय दिन्नमञ्चकस्स निस्सन्देन निब्बत्तानि। चतुरासीति हत्थिसहस्सानि अस्ससहस्सानि रथसहस्सानि निसीदनत्थाय दिन्नपीठस्स निस्सन्देन निब्बत्तानि । चतुरासीति मणिसहस्सानि एकदीपस्स निस्सन्देन निब्बत्तानि । चतुरासीति पोक्खरणीसहस्सानि एकपोक्खरणिया निस्सन्देन निब्बत्तानि । चतुरासीति इत्थिसहस्सानि पुत्तसहस्सानि गहपतिसहस्सानि परिभोगभाजनपत्तथालक धमकरण परिस्सावन आरकण्टक पिप्फलक नखच्छेदन कुञ्चिककण्णमलहरणी पादकथलिक उपाहन छत्त कत्तरयट्ठिदानस्स निस्सन्देन निब्बत्तानि । चतुरासीति धेनुसहस्सानि गोरसदानस्स निस्सन्देन निब्बत्तानि | चतुरासीति 203 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (४.२७२-२७२) वत्थकोटिसहस्सानि निवासनपारुपनदानस्स निस्सन्देन निब्बत्तानि । चतुरासीति थालिपाकसहस्सानि भोजनदानस्स निस्सन्देन निब्बत्तानीति वेदितब्बानि । २७२. एवं भगवा महासुदस्सनस्स सम्पत्तिं आदितो पट्ठाय वित्थारेन कथेत्वा सब्बं तं दारकानं पंस्वागारकीळनं विय दस्सेन्तो परिनिब्बानमञ्चके निपन्नोव पस्सानन्दातिआदिमाह । तत्थ विपरिणताति पकतिविजहनेन निब्बुतपदीपो विय अपञत्तिकभावं गता। एवं अनिच्चा खो, आनन्द, सङ्घाराति एवं हुत्वा अभावढेन अनिच्चा। एत्तावता भगवा यथा नाम पुरिसो सतहत्थूब्बेधे चम्पकरुक्खे निस्सेणिं बन्धित्वा अभिरुहित्वा चम्पकपुर्फ आदाय निस्सेणिं मुञ्चन्तो ओतरेय्य, एवमेव निस्सेणिं बन्धन्तो विय अनेकवस्सकोटिसतसहस्सुब्बेधं महासुदस्सनसम्पत्ति आरुयह सम्पत्तिमत्थके ठितं अनिच्चलक्खणं आदाय निस्सेणिं मुञ्चन्तो विय ओतिण्णो | तेनेव पुब्बे वसभराजा दीघभाणकत्थेरानं लोहपासादस्स पाचीनपस्से अम्बलट्ठिकायं इमं सुत्तं सज्झायन्तानं सुत्वा - "किं, भो, मय्हं अय्यकेन एत्थ वुत्तं, अत्तनो खादितपीतट्टाने सम्पत्तिमेव कथेती"ति चिन्तेन्तो- “एवं अनिच्चा खो, आनन्द, सङ्घारा"ति वुत्तकाले “इमं, भो, दिस्वा पञ्चहि चक्खूहि चक्खुमता एवं वुत्त"न्ति वामहत्थं समिञ्जित्वा दक्खिणहत्थेन अप्फोटेत्वा- “साधु साधू''ति तुट्ठहदयो साधुकारं अदासि । एवं अर्द्धवाति एवं उदकपुप्फुळादयो विय धुवभावविरहिता। एवं अनस्सासिकाति एवं सुपिनके पीतपानीयं विय अनुलित्तचन्दनं विय च अस्सासविरहिता । सरीरं निक्खिपेय्याति सरीरं छड्डेय्य । इदानि अञस्स सरीरस्स निक्खेपो वा पटिजग्गनं वा नत्थि किलेसपहीनत्ता, आनन्द, तथागतस्साति वदति । इदं पन वत्वा पुन थेरं आमन्तेसि, चक्कवत्तिनो आनुभावो नाम रो पब्बजितस्स सत्तमे दिवसे अन्तरधायति । महासुदस्सनस्स पन कालङ्किरियतो सत्तमेव दिवसे सत्तरतनपाकारा सत्तरतनताला चतुरासीति पोक्खरणीसहस्सानि धम्मपासादो धम्मपोक्खरणी चक्करतनन्ति सब्बमेतं अन्तरधायीति । हत्थिआदीसु पन अयं धम्मता खीणायुका सहेव कालङ्करोन्ति । आयुसेसे सति हत्थिरतनं उपोसथकुलं गच्छति, अस्सरतनं वलाहककुलं, मणिरतनं 204 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.२७२-२७२) ब्रह्मलोकूपगमवण्णना २०५ वेपुल्लपब्बतमेव गच्छति । इत्थिरतनस्स आनुभावो अन्तरधायति । गहपतिरतनस्स चक्खु पाकतिकमेव होति । परिणायकरतनस्स वेय्यत्तियं नस्सति । इदमवोच भगवाति इदं पाळियं आरुळ्हञ्च अनारुळहञ्च सब्बं भगवा अवोच । सेसं उत्तानत्थमेवाति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं महासुदस्सनसुत्तवण्णना निहिता। 205 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. जनवसभसुत्तवण्णना नातिकियादिब्याकरणवण्णना २७३-२७५. एवं मे सुतन्ति जनवसभसुत्तं । तत्रायं अनुत्तानपदवण्णना- परितो परितो जनपदेसूति समन्ता समन्ता जनपदेसु । परिचारकेति बुद्धधम्मसङ्घानं परिचारके । उपपत्तीसूति आणगतिपुञानं उपपत्तीसु । कासिकोसलेसूति कासीसु च कोसलेसु च, कासिरढे च कोसलरढे चाति अत्थो। एस नयो सब्बत्थ । अङ्गमगधयोनककम्बोजअस्सकअवन्तिरतुसु पन छसु न ब्याकरोति । इमेसं पन सोळसनं महाजनपदानं पुरिमेसु दससुयेव ब्याकरोति । नातिकियाति नातिकगामवासिनो । तेनाति तेन अनागामिआदिभावेन । सुत्वाति सब्बञ्जताणेन परिच्छिन्दित्वा ब्याकरोन्तस्स भगवतो पहाब्याकरणं सुत्वा तेसं अनागामिआदीसु निट्ठङ्गता हुत्वा । तेन अनागामिआदिभावेन अत्तमना अहेसुं । अट्ठकथायं पन तेनाति ते नातिकियाति वुत्तं । एतस्मिं अत्थे न-कारो निपातमत्तं होति । आनन्दपरिकथावण्णना २७७. भगवन्तं कित्तयमानरूपोति अहो बुद्धो, अहो धम्मो, अहो सङ्घो; अहो धम्मो स्वाक्खातोति एवं कित्तयन्तोव कालमकासि । बहुजनो पसीदेय्याति अम्हाकं पिता माता भाता भगिनी पुत्तो धीता सहायको, तेन अम्हेहि सद्धिं एकतो भुत्ता, एकतो सयिता, तस्स इदञ्चिदञ्च मनापं अकरिम्ह, सो किर अनागामी सकदागामी सोतापन्नो; अहो साधु, अहो सुगृति एवं बहुजनो पसादं आपज्जेय्य ।। 206 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.२७८-२८१) जनवसभयक्खवण्णना २०७ २७८. गतिन्ति आणगतिं । अभिसम्परायन्ति आणाभिसम्परायमेव । अहसा खोति कित्तके जने अद्दस ? चतुवीसतिसतसहस्सानि । २७९. उपसन्त पदिस्सोति उपसन्तदस्सनो | भातिरिवाति अतिविय भाति, अतिविय विरोचति । इन्द्रियानन्ति मनच्छट्ठानं इन्द्रियानं । अद्दसं खो अहं आनन्दाति नेव दस, न वीसति, न सतं, न सहस्सं, अनूनाधिकानि चतुवीसतिसतसहस्सानि अद्दसन्ति आह । जनवसभयक्खवण्णना २८०. दिस्वा पन मे एत्तको जनो मं निस्साय दुक्खा पमुत्तोति बलवसोमनस्सं उप्पज्जि, चित्तं पसीदि, चित्तस्स पसन्नत्ता चित्तसमुट्ठानं लोहितं पसीदि, लोहितस्स पसन्नत्ता मनच्छट्ठानि इन्द्रियानि पसीदिंसूति सब्बमिदं वत्वा अथ खो आनन्दातिआदिमाह । तत्थ यस्मा सो भगवतो धम्मकथं सुत्वा दससहस्साधिकस्स जनसतसहस्सस्स जेट्ठको हुत्वा सोतापन्नो जातो, तस्मा जनवसभोतिस्स नाम अहोसि । इतो सत्ताति इतो देवलोका चवित्वा सत्त । ततो सत्ताति ततो मनुस्सलोका चवित्वा सत्त। संसारानि चतुद्दसाति सब्बापि चतुद्दसखन्धपटिपाटियो। निवासमभिजानामीति जातिवसेन निवासं जानामि । यत्थ मे बुसितं पुरेति यत्थ देवेसु च वेस्सवणस्स सहब्यतं उपगतेन मनुस्सेसु च राजभूतेन इतो अत्तभावतो पुरेयेव मया वुसितं । पुरे एवं बुसितत्ता एव च इदानि सोतापन्नो हुत्वा तीसु वत्थूसु बहुं पुञ्ज कत्वा तस्सानुभावेन उपरि निब्बत्तितुं समत्थोपि दीघरत्तं वुसितटाने निकन्तिया बलवताय एत्थेव निब्बत्तो । २८१. आसा च पन मे सन्तिद्वतीति इमिनाहं सोतापन्नोति न सुत्तप्पमत्तोव हुत्वा कालं वीतिनामेसिं । सकदागामिमग्गत्थाय पन मे विपस्सना आरद्धा। अज्जेव अज्जेव पटिविज्झिस्सामीति एवं सउस्साहो विहरामीति दस्सेति। यदग्गेति लट्ठिवनुय्याने पठमदस्सने सोतापन्नदिवसं सन्धाय वदति । तदग्गे अहं, भन्ते, दीघरत्तं अविनिपातो अविनिपातं सजानामीति तंदिवसं आदि कत्वा, अहं, भन्ते, पुरिमं चतुद्दसअत्तभावसङ्घातं दीघरत्तं अविनिपातो लट्ठिवनुय्याने सोतापत्तिमग्गवसेन अधिगतं अविनिपातधम्मतं सञ्जानामीति अत्थो । अनच्छरियन्ति अनुअच्छरियं । चिन्तयमानं पुनप्पुनं अच्छरियमेविदं यं केनचिदेव करणीयेन गच्छन्तो भगवन्तं अन्तरामग्गे अद्दसं । इदम्पि अच्छरियं यञ्च 207 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (५.२८२-२८३) वेस्सवणस्स महाराजस्स सयंपरिसाय भासतो भगवतो दिट्ठसदिसमेव सम्मुखा सुतं । द्वे पच्चयाति अन्तरामग्गे दिट्ठभावो च वेस्सवणस्स सम्मुखा सुतं आरोचेतुकामता च । देवसभावण्णना २८२. सन्निपतिताति कस्मा सन्निपतिता ? ते किर चतूहि कारणेहि सन्निपतन्ति । वस्सूपनायिकसङ्गहत्थं, पवारणासङ्गहत्थं, धम्मसवनत्थं, पारिच्छत्तककीळानुभवनत्थन्ति । तत्थ स्वे वस्सूपनायिकाति आसाळ्हीपुण्णमाय द्वीसु देवलोकेसु देवा सुधम्माय देवसभाय सन्निपतित्वा मन्तेन्ति असुकविहारे एको भिक्खु वस्सूपगतो, असुकविहारे द्वे तयो चत्तारो पञ्च दस वीसति तिंसं चत्तालीसं पञ्जासं सतं सहस्सं भिक्खू वस्सूपगता, एत्थेत्थ ठाने अय्यानं आरक्खं सुसंविहितं करोथाति एवं वस्सूपनायिकसङ्गहो कतो होति । तदापि एतेनेव कारणेन सन्निपतिता। इदं तेसं होति आसनस्मिन्ति इदं तेसं चतुन्नं महाराजानं आसनं होति । एवं तेसु निसिन्नेसु अथ पच्छा अम्हाकं आसनं होति । येनत्थेनाति येन वस्सूपनायिकत्थेन । तं अत्थं चिन्तयित्वा तं अत्यं मन्तयित्वाति तं अरञवासिनो भिक्खुसङ्घस्स आरक्खत्थं चिन्तयित्वा । एत्थेत्थ वुट्टभिक्खुसङ्घस्स आरक्खं संविदहथाति चतूहि महाराजेहि सद्धिं मन्तेत्वा । वृत्तवचनापि तन्ति तेत्तिंस देवपुत्ता वदन्ति, महाराजानो वुत्तवचना नाम । तथा तेत्तिंस देवपुत्ता पच्चानुसासन्ति, इतरे पच्चानुसिटुवचना नाम | पदद्वयेपि पन तन्ति निपातमत्तमेव । अविपक्कन्ताति अगता। २८३. उळारोति विपुलो महा। देवानुभावन्ति या सा सब्बदेवतानं वत्थालङ्कारविमानसरीरानं पभा द्वादस योजनानि फरति । महापुञानं पन सरीरप्पभा योजनसतं फरति । तं देवानुभावं अतिक्कमित्वा । ब्रह्मनो हेतं पुबनिमित्तन्ति यथा सूरियस्स उदयतो एतं पुब्बङ्गमं एतं पुब्बनिमित्तं यदिदं अरुणुग्गं, एवमेव ब्रह्मनोपि एतं- "पुब्बनिमित्त"न्ति दीपेति। 208 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.२८४-२८४) सनमारकथावण्णना २०९ सनकुमारकथावण्णना २८४. अनभिसम्भवनीयोति अपत्तब्बो, न तं देवा तावतिंसा पस्सन्तीति अत्थो । चक्खुपथस्मिन्ति चक्खुपसादे आपाथे वा । सो देवानं चक्खुस्स आपाथे सम्भवनीयो पत्तब्बो न होति, न अभिभवतीति वुत्तं होति । हेट्ठा हेट्ठा हि देवता उपरूपरि देवानं ओळारिकं कत्वा मापितमेव अत्तभावं पस्सितुं सक्कोन्ति, वेदपटिलाभन्ति तुट्टिपटिलाभं । अधुनाभिसित्तो रज्जेनाति सम्पति अभिसित्तो रज्जेन । अयं पनत्थो दुट्ठगामणिअभयवत्थुना दीपेतब्बो सो किर द्वत्तिंस दमिळराजानो विजित्वा अनुराधपुरे पत्ताभिसेको तुट्ठसोमनस्सेन मासं निदं न लभि, ततो- “निदं न लभामि, भन्ते"ति भिक्खुसङ्घस्स आचिक्खि । तेन हि, महाराज, अज्ज उपोसथं अधिट्ठाहीति । सो च उपोसथं अधिट्ठासि । सङ्घो गन्त्वा - “चित्तयमकं सज्झायथा"ति अट्ठ आभिधम्मिकभिक्खू पेसेसि । ते गन्त्वा - “निपज्ज त्वं, महाराजा,''ति वत्वा सज्झायं आरभिंसु । राजा सज्झायं सुणन्तोव निदं ओक्कमि । थेराराजानं मा पबोधयित्थाति पक्कमिंसु । राजा दुतियदिवसे सूरियुग्गमने पबुज्झित्वा थेरे अपस्सन्तो- “कुहिं अय्या"ति पुच्छि। तुम्हाकं निद्दोक्कमनभावं अत्वा गताति । नत्थि, भो, मय्हं अय्यकस्स दारकानं अजाननकभेसज्जं नाम, याव निद्दाभेसज्जम्पि जानन्ति येवाति आह । पञ्चसिखोति पञ्चसिखगन्धब्बसदिसो हुत्वा । पञ्चसिखगन्धब्बदेवपुत्तस्स किर सब्बदेवता अत्तभावं ममायन्ति । तस्मा ब्रह्मापि तादिसंयेव अत्तभावं निम्मिनित्वा पातुरहोसि । पल्लङ्केन निसीदीति पल्लङ्कं आभुजित्वा निसीदि । विस्सट्ठोति सुमुत्तो अपलिबुद्धो । विनेय्योति अत्थविज्ञापनो । मञ्जूति मधुरो मुदु । सवनीयोति सोतब्बयुत्तको कण्णसुखो। बिन्दूति एकग्घनो। अविसारीति सुविसदो अविप्पकिण्णो। गम्भीरोति नाभिमूलतो पट्ठाय गम्भीरसमुट्ठितो, न जिव्हादन्तओट्ठतालुमत्तप्पहारसमुट्ठितो । एवं समुट्टितो हि अमधुरो च होति, न च दूरं सावेति । निनादीति महामेघमुदिङ्गसद्दो विय निन्नादयुत्तो। अपिचेत्थ पच्छिमं पच्छिमं पदं पुरिमस्स पुरिमस्स अत्थोयेवाति वेदितब्बो। यथापरिसन्ति यत्तका परिसा, तत्तकमेव विज्ञापेति । अन्तो परिसायं येवस्स सद्दो सम्परिवत्तति, न बहिद्धा विधावति । ये हि 209 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (५.२८७-२८७) केचीति आदि बहुजनहिताय पटिपन्नभावदस्सनत्थं वदति । सरणं गताति न यथा वा तथा वा सरणं गते सन्धाय वदति । निब्बेमतिकगहितसरणे पन सन्धाय वदति । गन्धब्बकायं परिपूरेन्तीति गन्धब्बदेवगणं परिपूरेन्ति । इति अम्हाकं सत्थु लोके उप्पन्नकालतो पट्ठाय छ देवलोकादीसु पिढें कोट्टेत्वा पूरितनाळि विय सरवननळवनं विय च निरन्तरं जातपरिसाति आह । भावितइद्धिपादवण्णना २८७. यावसुपञत्ता चिमे तेन भगवताति तेन मय्हं सत्थारा भगवता याव सुपञत्ता याव सुकथिता । इद्धिपादाति एत्थ इज्झनटेन इद्धि, पतिट्ठानटेन पादाति वेदितब्बा। इद्धिपहुतायाति इद्धिपहोनकताय । इद्धिविसवितायाति इद्धिविपज्जनभावाय, पुनप्पुनं आसेवनवसेन चिण्णवसितायाति वुत्तं होति । इद्धिविकुब्बनतायाति इद्धिविकुब्बनभावाय, नानप्पकारतो कत्वा दस्सनत्थाय । छन्दसमाधिप्पधानसङ्खारसमनागतन्तिआदीसु छन्दहेतुको छन्दाधिको वा समाधि छन्दसमाधि, कत्तुकम्यताछन्दं अधिपतिं करित्वा पटिलद्धसमाधिस्सेतं अधिवचनं । पधानभूता सङ्खारा पधानसङ्खारा । चतुकिच्चसाधकस्स सम्मप्पधानवीरियस्सेतं अधिवचनं । समन्त्रागतन्ति छन्दसमाधिना च पधानसङ्खारेन च उपेतं । इद्धिपादन्ति निष्फत्तिपरियायेन इज्झनटेन वा, इज्झन्ति एताय सत्ता इद्धा वुद्धा उक्कंसगता होन्तीति इमिना वा परियायेन इद्धीति सङ्ख्यं गतानं अभिञाचित्तसम्पयुत्तानं छन्दसमाधिपधानसङ्खारानं अधिट्ठानटेन पादभूतो सेसचित्तचेतसिकरासीति अत्थो। वुत्तव्हेतं- “इद्धिपादोति तथाभूतस्स वेदनाक्खन्धो, साक्खन्धो, सङ्घारक्खन्धो विज्ञाणक्खन्धोति (विभं० ४३४) । इमिना नयेन सेसेसुपि अत्थो वेदितब्बो । यथेव हि छन्दं अधिपतिं करित्वा पटिलद्धसमाधि छन्दसमाधीति वुत्तो, एवं वीरियं, चित्तं, वीमंसं अधिपतिं करित्वा पटिलद्धसमाधि वीमंसासमाधीति वुच्चति । अपिच उपचारज्झानं पादो, पठमज्झानं इद्धि । सउपचारं पठमज्झानं पादो, दुतियज्झानं इद्धीति एवं पुब्बभागे पादो, अपरभागे इद्धीति एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो। वित्थारेन इद्धिपादकथा विसुद्धिमग्गे च विभङ्गट्ठकथाय च वुत्ता । केचि पन "निष्फन्ना इद्धि । अनिष्फन्नो इद्धिपादो'"ति वदन्ति, तेसं वादमद्दनत्थाय अभिधम्मे उत्तरचूळिकवारो नाम आभतो- "चत्तारो इद्धिपादा छन्दिद्धिपादो, वीरियिद्धिपादो, चित्तिद्धिपादो, वीमंसिद्धिपादो । तत्थ कतमो छन्दिद्धिपादो ? इध भिक्खु 210 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.२८८-२८८) तिविधओकासाधिगमवण्णना २११ यस्मिं समये लोकुत्तरं झानं भावेति निय्यानिकं अपचयगामि दिट्टिगतानं पहानाय पठमाय भूमिया पत्तिया विविच्चेव कामेहि पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति दुक्खापटिपदं दन्धाभिधे । यो तस्मिं समये छन्दो छन्दिकता कत्तुकम्यता कुसलो धम्मच्छन्दो, अयं वुच्चति छन्दिद्धिपादो, अवसेसा धम्मा छन्दिद्धिपादसम्पयुत्ता"ति (विभं० ४५८) । इमे पन लोकुत्तरवसेनेव आगता। तत्थ रट्ठपालत्थेरो छन्दं धुरं कत्वा लोकुत्तरं धम्मं निब्बत्तेसि । सोणत्थेरो वीरियं धुरं कत्वा, सम्भूतत्थेरो चित्तं धुरं कत्वा, आयस्मा मोघराजा वीमंसं धुरं कत्वाति । तत्थ यथा चतूसु अमच्चपुत्तेसु ठानन्तरं पत्थेत्वा राजानं उपनिस्साय विहरन्तेसु एको उपट्ठाने छन्दजातो रो अज्झासयञ्च रुचिञ्च ञत्वा दिवा च रत्तो च उपट्ठहन्तो राजानं आराधेत्वा ठानन्तरं पापुणि। यथा सो, एवं छन्दधुरेन लोकुत्तरधम्मनिब्बत्तको वेदितब्बो। एको पन - “दिवसे दिवसे उपट्ठातुं को सक्कोति, उप्पन्ने किच्चे परक्कमेन आराधेस्सामी"ति कुपिते पच्चन्ते रञा पहितो परक्कमेन सत्तुमद्दनं कत्वा ठानन्तरं पापुणि । यथा सो, एवं वीरियधुरेन लोकुत्तरधम्मनिब्बत्तको वेदितब्बो । एको- “दिवसे दिवसे उपट्टानम्पि उरेन सत्तिसरपटिच्छन्नम्पि भारोयेव, मन्तबलेन आराधेस्सामी''ति खत्तविज्जाय कतपरिचयत्ता मन्तसंविधानेन राजानं आराधेत्वा ठानन्तरं पापुणाति । यथा सो, एवं चित्तधुरेन लोकुत्तरधम्मनिब्बत्तको वेदितब्बो । अपरो – “किं इमेहि उपट्ठानादीहि, राजानो नाम जातिसम्पन्नस्स ठानन्तरं देन्ति, तादिसस्स देन्तो मय्हं दस्सती"ति जातिसम्पत्तिमेव निस्साय ठानन्तरं पापुणि, यथा सो, एवं सुपरिसुद्धं वीमंसं निस्साय वीमंसधुरेन लोकुत्तरधम्मनिब्बत्तको वेदितब्बो। अनेकविहितन्ति अनेकविधं | इद्धिविधन्ति इद्धिकोट्ठासं । तिविधओकासाधिगमवण्णना २८८. सुखस्साधिगमायाति झानसुखस्स मग्गसुखस्स फलसुखस्स च अधिगमाय । 211 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (५.२८८-२८८) संसट्ठोति सम्पयुत्तचित्तो। अरियधम्मन्ति अरियेन भगवता बुद्धेन देसितं धम्मं । सुणातीति सत्थु सम्मुखा भिक्खुभिक्खुनीआदीहि वा देसियमानं सुणाति । योनिसो मनसिकरोतीति उपायतो पथतो कारणतो 'अनिच्चन्तिआदिवसेन मनसि करोति । “योनिसो मनसिकारो नाम उपायमनसिकारो पथमनसिकारो, अनिच्चे अनिच्चन्ति दुक्खे दुक्खन्ति अनत्तनि अनत्ताति असुभे असुभन्ति सच्चानुलोमिकेन वा चित्तस्स आवट्टना अन्वावट्टना आभोगो समन्नाहारो मनसिकारो, अयं वुच्चति योनिसोमनसिकारो"ति। एवं वुत्ते योनिसोमनसिकारे कम्मं आरभतीति अत्थो । असंसट्ठोति वत्थुकामेहिपि किलेसकामेहिपि असंसट्ठो विहरति । उप्पज्जति सुखन्ति उप्पज्जति पठमज्झानसुखं । सुखा भिय्यो सोमनस्सन्ति समापत्तितो वट्रितस्स झानसखपच्चया अपरापरं सोमनस्सं उप्पज्जति । पमुदाति तुट्ठाकारतो दुब्बलपीति । पामोज्जन्ति बलवतरं पीतिसोमनस्सं। पठमो ओकासाधिगमोति पठमज्झानं पञ्चनीवरणानि विक्खम्भेत्वा अत्तनो ओकासं गहेत्वा तिठ्ठति, तस्मा “पठमो ओकासाधिगमो"ति वुत्तं । __ओळारिकाति एत्थ कायवचीसङ्घारा ताव ओळारिका होन्तु, चित्तसङ्खारा कथं ओळारिकाति? अप्पहीनत्ता। कायसङ्घारा हि चतत्थज्झानेन पहीयन्ति. वचीसद्धारा दुतियज्झानेन, चित्तसङ्खारा निरोधसमापत्तिया। इति कायवचीसङ्खारेसु पहीनेसुपि ते तिट्ठन्तियेवाति पहीने उपादाय अप्पहीनत्ता ओळारिका नाम जाता। सुखन्ति निरोधा वुट्टहन्तस्स उप्पन्नं चतुत्थज्झानिकफलसमापत्तिसुखं । सुखा भिय्यो सोमनस्सति फलसमापत्तितो बुद्वितस्स अपरापरं सोमनस्सं। दुतियो ओकासाधिगमोति चतुत्थज्झानं सुखं दुक्खं विक्खम्भेत्वा अत्तनो ओकासं गहेत्वा तिट्ठति, तस्मा “दुतियो ओकासाधिगमो"ति वुत्तं । दुतियततियज्झानानि पनेत्थ चतुत्थे गहिते गहितानेव होन्तीति विसुं न वुत्तानीति । ___ इदं कुसलन्तिआदीसु कुसलं नाम दसकुसलकम्मपथा । अकुसलन्ति दसअकुसलकम्मपथा। सावज्जदुकादयोपि एतेसं वसेनेव वेदितब्बा। सब्बञ्चेव पनेतं कण्हञ्च सुक्कञ्च सप्पटिभागञ्चाति कण्हसुक्कसप्पटिभागं। निब्बानमेव हेतं अप्पटिभागं । अविज्जा पहीयतीति वटपटिच्छादिका अविज्जा पहीयति। विज्जा उप्पज्जतीति अरहत्तमग्गविज्जा उप्पज्जति । सुखन्ति अरहत्तमग्गसुखञ्चेव फलसुखञ्च । सुखा भिय्यो सोमनस्सन्ति फलसमापत्तितो वुट्ठितस्स अपरापरं सोमनस्सं। ततियो ओकासाधिगमोति अरहत्तमग्गो सब्बकिलेसे विक्खम्भेत्वा अत्तनो ओकासं गहेत्वा तिट्टति, तस्मा "ततियो ओकासाधिगमो''ति वुत्तो। सेसमग्गा पन तस्मिं गहिते अन्तोगधा एवाति विसुं न वुत्ता । 212 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.२८९-२९०) चतुसतिपट्टानवण्णना २१३ इमे पन तयो ओकासाधिगमा अट्ठतिंसारम्मणवसेन वित्थारेत्वा कथेतब्बा । कथं ? सब्बानि आरम्मणानि विसुद्धिमग्गे वुत्तनयेनेव उपचारवसेन च अप्पनावसेन च ववत्थपेत्वा चतुवीसतिया ठानेसु पठमज्झानं “पठमो ओकासाधिगमो"ति कथेतब्बं । तेरससु ठानेसु दुतियततियज्झानानि, पन्नरससु ठानेसु चतुत्थज्झानञ्च निरोधसमापत्तिं पापेत्वा "दुतियो ओकासाधिगमो"ति कथेतब् । दस उपचारज्झानानि पन मग्गस्स पदट्ठानभूतानि ततियं ओकासाधिगमं भजन्ति । अपिच तीसु सिक्खासु अधिसीलसिक्खा पठमं ओकासाधिगमं भजति, अधिचित्तसिक्खा दुतियं, अधिपञासिक्खा ततियन्ति एवं सिक्खावसेनपि कथेतब् । सामञफलेपि चूळसीलतो याव पठमज्झाना पठमो ओकासाधिगमो, दुतियज्झानतो याव नेवसञ्जानासचायतना दुतियो, विपस्सनातो याव अरहत्ता ततियो ओकासाधिगमोति एवं सामञफलसुत्तन्तवसेनपि कथेतब्बं । तीसु पन पिटकेसु विनयपिटकं पठमं ओकासाधिगमं भजति, सुत्तन्तपिटकं दुतियं, अभिधम्मपिटकं ततियन्ति एवं पिटकवसेनपि कथेतब् । पुब्बे किर महाथेरा वस्सूपनायिकाय इममेव सुत्तं पट्ठपेन्ति । किं कारणा ? तीणि पिटकानि विभजित्वा कथेतुं लभिस्सामाति। तेपिटकेन हि समोधानेत्वा कथेन्तस्स दुक्कथितन्ति न सक्का वत्तुं । तेपिटकं भजापेत्वा कथितमेव इदं सुत्तं सुकथितं होतीति । चतुसतिपट्टानवण्णना २८९. कुसलस्साधिगमायाति मग्गकुसलस्स चेव फलकुसलस्स च अधिगमत्थाय । उभयम्पि हेतं अनवज्जतुन खेमटेन वा कुसलमेव । तत्थ सम्मासमाधियतीति तस्मिं अज्झत्तकाये समाहितो एकग्गचित्तो होति । बहिद्धा परकाये आणदस्सनं अभिनिब्बत्तेतीति अत्तनो कायतो परस्स कायाभिमुखं आणं पेसेति। एस नयो सब्बत्थ । सब्बत्थेव च सतिमाति पदेन कायादिपरिग्गाहिका सति, लोकोति पदेन परिग्गहितकायादयोव लोको । चत्तारो चेते सतिपट्ठाना लोकियलोकुत्तरमिस्सका कथिताति वेदितब्बा । सत्तसमाधिपरिक्खारवण्णना २९०. समाधिपरिक्खाराति एत्थ तयो परिक्खारा । “रथो सीलपरिक्खारो झानक्खो चक्कवीरियो"ति (सं० नि० ३.५.४) हि एत्थ अलङ्कारो परिक्खारो नाम । “सत्तहि 213 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा नगरपरिक्खारेहि सुपरिक्खतं होती' ति ( अ० नि० २.७.६७) एत्थ परिवारो परिक्खारो नाम । “गिलानपच्चयजीवितपरिक्खारो " ति ( दी० नि० ३.१८२) एत्थ सम्भारो परिक्खारो नाम । इध पन परिवारपरिक्खारवसेन "सत्त समाधिपरिक्खारा "ति वुत्तं । परिक्खताति परिवारिता । अयं वुच्चति सो अरियो सम्मासमाधीति अयं सत्तहि रतनेहि परिवुतो चक्कवत्त वित्तहि अङ्गेहि परिवुतो “ अरियो सम्मासमाधी" ति वुच्चति । सउपनिसो इतिपीति सउपनिस्सयो इतिपि वुच्चति, सपरिवारो येवाति वृत्तं होति । सम्मादिट्ठिस्साति सम्मादिट्ठियं ठितस्स । सम्मासङ्घप्पो पहोतीति सम्मासङ्कप्पो पवत्तति । एस नयो सब्बपदेसु । अयं पनत्थो मग्गवसेनापि फलवसेनापि वेदितब्बो । कथं ? मग्गसम्मादिट्ठियं ठितस्स मग्गसम्मासङ्कप्पो पहोति...पे०... मग्गञाणे ठितस्स मग्गविमुत्ति पहोति । तथा फलसम्मादिट्ठियं ठितस्स फलसम्मासङ्कप्पो पहोति...पे० फलसम्माञाणे ठितस्स फलविमुत्ति पहोतीति । २१४ स्वाक्खातोतिआदीनि विसुद्धिमग्गे वण्णितानि । अपारुताति विवटा । अमतस्साति निब्बानस्स । द्वाराति पवेसनमग्गा । अवेच्चप्पसादेनाति अचलप्पसादेन । धम्मविनीताति सम्मानिय्यानेन निय्याता । अत्थायं इतरा पजाति अनागामिनो सन्धायाह, अनागामिनो च अत्थीति वुत्तं होति । पुञ्ञभागाति पुञ्ञकोट्ठासेन निब्बत्ता । ओत्तप्पन्ति ओत्तप्पमानो । तेन कदाचि नाम मुसा अस्साति मुसावादभयेन सङ्घातुं न सक्कोमि, न पन मम सङ्घातुं बलं नत्थीति दीपेति । (५.२९१-२९२) २९१. तं किं मञ्ञति भवन्ति इमिना केवलं वेस्सवणं पुच्छति, न पनस्स एवरूपो सत्था नाहोसीति वा न भविस्सतीति वा लद्धि अस्थि । सब्बबुद्धानहि अभिसमये विसेसो नत्थि । २९२. सयंपरिसायन्ति अत्तनो परिसायं । तयिदं ब्रह्मचरियन्ति इदं सकलं सिक्खत्तयब्रह्मचरियं । सेसं उत्तानमेव । इमानि पन पदानि धम्मसङ्गाहकत्थेरेहि ठपितानीति | इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं जनवसभसुत्तवण्णना निट्ठिता । 214 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. महागोविन्दसुत्तवण्णना पञ्चसिखोति २९३. एवं मे सुतन्ति महागोविन्दसुत्तं । तत्रायमनुत्तानपदवण्णनापञ्चचूलो पञ्चकुण्डलिको । सो किर मनुस्सपथे पुञ्ञकम्मकरणकाले दहरो पञ्चचूळकदारककाले वच्छपालकजेट्ठको हुत्वा अञ्ञपि दारके गहेत्वा बहिगामे चतुमग्गट्ठानेसु सालं करोन्तो पोक्खरणिं खणन्तो सेतुं बन्धन्तो विसमं मग्गं समं करोन्तो यानानं अक्खपटिघातनरुक्खे हरन्तोति एवरूपानि पुञ्ञानि करोन्तो विचरित्वा दहरोव कालमकासि । तस्स सो अत्तभावो इट्ठो कन्तो मनापो अहोसि । सो कालं कत्वा चातुमहाराजिकदेवलोके नवुतिवस्ससतसहस्सप्पमाणं आयुं गहेत्वा निब्बत्ति । तस्स तिगावुतप्पमाणो सुवण्णक्खन्धसदिसो अत्तभावो अहोसि । सो सकटसहस्समत्तं आभरणं पसाधेत्वा नवकुम्भमत्ते गन्धे विलिम्पित्वा दिब्बरत्तवत्थधरो रत्तसुवण्णकण्णिकं पिळन्धित्वा पञ्चहि कुण्डलकेहि पिट्ठियं वत्तमानेहि पञ्चचूळकदारकपरिहारेनेव विचरति । तेनेतं " पञ्चसिखो" त्वेव सञ्जानन्ति । अभिक्कन्ताय रत्तियाति अभिक्कन्ताय खीणाय रत्तिया, एककोट्ठासं अतीतायाति अत्थो । अभिक्कन्तवण्णोति अतिइट्ठकन्तमनापवण्णो । पकतियापि हेस कन्तवण्णो, अलङ्करित्वा आगतत्ता पन अभिक्कन्तवण्णो अहोसि । केवलकप्पन्ति अनवसेसं समन्ततो । अनवसेसत्थो एत्थ केवलसद्दो । केवलपरिपुण्णन्ति एत्थ विय । समन्ततो अत्थो कप्पसद्दी, केवलकप्पं जेतवनन्तिआदीसु विय । ओभासेत्वाति आभाय फरित्वा, चन्दिमा विय सूरियो विय च एकोभासं एकपज्जोतं करित्वाति अत्थो । देवसभावण्णना २९४. सुधम्मायं सभायन्ति सुधम्माय नाम इत्थिया रतनमत्तकण्णिकरुक्खनिस्सन्देन 215 - Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (६.२९४-२९४) निब्बत्तसभायं । तस्सा किर फलिकमया भूमि, मणिमया आणियो, सुवण्णमया थम्भा, रजतमया थम्भघटिका च सङ्घाता च, पवाळमयानि वाळरूपानि, सत्तरतनमया गोपानसियो च पक्खपासका च मुखवट्टि च, इन्दनीलइट्टकाहि छदनं, सोवण्णमयं छदनपीठं, रजतमया थूपिका, आयामतो च वित्थारतो च तीणि योजनसतानि, परिक्खेपतो नवयोजनसतानि, उब्बेधतो पञ्चयोजनसतानि, एवरूपायं सुधम्मायं सभायं । धतरद्वोतिआदीसु धतरट्ठो गन्धब्बराजा गन्धब्बदेवतानं कोटिसतसहस्सेन परिवुतो कोटिसतसहस्ससुवण्णमयानि फलकानि च सुवण्णसत्तियो च गाहापेत्वा पुरथिमाय दिसाय पच्छिमाभिमुखो द्वीसु देवलोकेसु देवता पुरतो कत्वा निसिन्नो। विरूळ्हको कुम्भण्डराजा कुम्भण्डदेवतानं कोटिसतसहस्सेन परिवुतो कोटिसतसहस्सरजतमयानि फलकानि च सुवण्णसत्तियो च गाहापेत्वा दक्खिणाय दिसाय उत्तराभिमुखो द्वीसु देवलोकेसु देवता पुरतो कत्वा निसिन्नो । विरूपक्खो नागराजा नागानं कोटिसतसहस्सेन परिवुतो कोटिसतसहस्समणिमयानि महाफलकानि च सुवण्णसत्तियो च गाहापेत्वा पच्छिमाय दिसाय पुरथिमाभिमुखो द्वीसु देवलोकेसु देवता पुरतो कत्वा निसिन्नो । वेस्सवणो यक्खराजा यक्खानं कोटिसतसहस्सेन परिवुतो कोटिसतसहस्सपवाळमयानि महाफलकानि च सुवण्णसत्तियो च गाहापेत्वा उत्तराय दिसाय दक्खिणाभिमुखो द्वीसु देवलोकेसु देवता पुरतो कत्वा निसिन्नोति वेदितब्बो। अथ पच्छा अम्हाकं आसनं होतीति तेसं पच्छतो अम्हाकं निसीदितुं ओकासो पापुणाति । ततो परं पविसितुं वा पस्सितुं वा न लभाम । सन्निपातकारणं पनेत्थ पुब्बे वुत्तं चतुब्बिधमेव । तेसु वस्सूपनायिकसङ्गहो वित्थारितो। यथा पन वस्सूपनायिकाय, एवं महापवारणायपि पुण्णमदिवसे सन्निपतित्वा “अज्ज कत्थ गन्त्वा कस्स सन्तिके पवारेस्सामा ति मन्तेन्ति । तत्थ सक्को देवानमिन्दो येभुय्येन पियङ्गुदीपमहाविहारस्मिंयेव पवारेति । सेसा देवता पारिच्छत्तकादीनि दिब्बपुप्फानि चेव दिब्बचन्दनचुण्णानि च गहेत्वा अत्तनो अत्तनो मनापट्ठानमेव गन्त्वा पवारेन्ति । एवं पवारणसङ्गहत्थाय सन्निपतन्ति । 216 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.२९४-२९४) देवसभावण्णना २१७ देवलोके पन आसावती नाम लता अत्थि। सा पुफिस्सतीति देवा वस्ससहस्सं उपट्टानं गच्छन्ति। पारिच्छत्तके पुप्फमाने एकवस्सं उपट्टानं गच्छन्ति । ते तस्स पण्डुपलासादिभावतो पट्ठाय अत्तमना होन्ति । यथाह - "यस्मिं, भिक्खवे, समये देवानं तावतिंसानं पारिच्छत्तको कोविळारो पण्डुपलासो होति, अत्तमना, भिक्खवे, देवा तावतिंसा तस्मिं समये होन्ति'पण्डुपलासो खो दानि पारिच्छत्तको कोविळारो, न चिरस्सेव पन्नपलासो भविस्सती'ति । यस्मिं, भिक्खवे, समये देवानं तावतिंसानं पारिच्छत्तको कोविळारो पन्नपलासो होति, खारकजातो होति, जालकजातो होति, कुटुमलकजातो होति, कोरकजातो होति । अत्तमना, भिक्खवे, देवा तावतिंसा तस्मिं समये होन्ति'कोरकजातो दानि पारिच्छत्तको कोविळारो न चिरस्सेव सब्बपालिफुल्लो भविस्सती'ति (अ० नि० २.७.६९)। सब्बपालिफुल्लस्स खो पन, भिक्खवे, पारिच्छत्तकस्स कोविळारस्स समन्ता पञास योजनानि आभाय फुटं होति, अनुवातं योजनसतं गन्धो गच्छति । अयमानुभावो पारिच्छत्तकस्स कोविळारस्सा"ति । पुप्फिते पारिच्छत्तके आरोहणकिच्चं वा अङ्कुसकं गहेत्वा नमनकिच्चं वा पुप्फाहरणत्थं चङ्कोटककिच्चं वा नत्थि, कन्तनकवातो उट्ठहित्वा पुप्फानि वण्टतो कन्तति, सम्पटिच्छनकवातो सम्पटिच्छति, पवेसनकवातो सुधम्मं देवसभं पवेसेति, सम्मज्जनकवातो पुराणपुप्फानि नीहरति, सन्थरणकवातो पत्तकण्णिककेसरानि नच्चन्तो सन्थरति, मज्झट्ठाने धम्मासनं होति । योजनप्पमाणो रतनपल्लङ्को उपरि तियोजनेन सेतच्छत्तेन धारयमानेन, तदनन्तरं सक्कस्स देवरो आसनं अत्थरियति । ततो तेत्तिंसाय देवपुत्तानं, ततो अञासं महेसक्खदेवतानं । अञतरदेवतानं पन पुप्फकण्णिकाव आसनं होति । देवा देवसभं पविसित्वा निसीदन्ति। ततो पुप्फेहि रेणुवट्टि उग्गन्त्वा उपरि कण्णिकं आहच्च निपतमाना देवतानं तिगावुतप्पमाणं अत्तभावं लाखारसपरिकम्मसज्जितं विय करोति । तेसं सा कीळा चतूहि मासेहि परियोसानं गच्छति। एवं पारिच्छत्तककीळानुभवनत्थाय सन्निपतन्ति । 217 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा मासस्स पन अट्ठदिवसे देवलोके महाधम्मसवनं घुसति । तत्थ सुधम्मायं देवसभायं सनङ्कुमारो वा महाब्रह्मा, सक्को वा देवानमिन्दो, धम्मकथिकभिक्खु वा, अञ्ञतरो वा धम्मकथिको देवपुत्तो धम्मकथं कथेति । अट्ठमियं पक्खस्स चतुन्नं महाराजानं अमच्चा, चातुसियं पुत्ता, पन्नरसे सयं चत्तारो महाराजानो निक्खमित्वा सुवण्णपट्टञ्च जातिहिङ्गुलकञ्च गण्हित्वा गामनिगमराजधानियो अनुविचरन्ति । ते - “ असुका नाम इत्थी वा पुरिसो वा बुद्धं सरणं गतो, धम्मं सरणं गतो । सङ्घं सरणं गतो । पञ्चसीलानि रक्खति । मासस्स अट्ठ उपोसथे करोति । मातुउपट्ठानं पूरेति । पितुउपट्ठानं पूरेति । असुकट्ठाने उप्पलहत्थकसतेन पुप्फकुम्भेन पूजा कता । दीपसहस्सं आरोपितं । अकालधम्मसवनं कारितं । छत्तवेदिका पुटवेदिका कुच्छिवेदिका सीहासनं सीहसोपानं कारितं । तीणि सुचरितानि पूरेति । दसकुसलकम्मपथे समादाय वत्तती 'ति सुवण्णपट्टे जातिहिङ्गुलकेन लिखित्वा आहरित्वा पञ्चसिखस्स हत्थे देन्ति । पञ्चसिखो मातलिस्स हत्थे देति । मातलि सङ्गाहको सक्कस्स देवरञो देति । " यदा पुञ्ञकम्मकारका बहू न होन्ति, पोत्थको खुद्दको होति, तं दिस्वाव देवा“पमत्तो, वत भो महाजनो विहरति, चत्तारो अपाया परिपूरिस्सन्ति छ देवलोका तुच्छा भविस्सन्ती 'ति अनत्तमना होन्ति । सचे पन पोत्थको महा होति तं दिस्वाव देवा" अप्पमत्तो, वत भो, महाजनो विहरति, चत्तारो अपाया सुञ्ञा भविस्सन्ति, छ देवलोका परिपूरिस्सन्ति, बुद्धसासने पुञ्ञानि करित्वा आगते महापुञ्ञे पुरक्खत्वा नक्खत्तं कीलितुं लभिस्सामा " ति अत्तमना होन्ति । तं पोत्थकं गहेत्वा सक्को देवराजा वाचेति । तस्स पकतिनियामेन कथेन्तस्स सद्दो द्वादस योजनानि गण्हाति । उच्चेन सरेन कथेन्तस्स च सकलं दसयोजनसहस्सं देवनगरं छादेत्वा तिट्ठति । एवं धम्मसवनत्थाय सन्निपतन्ति । इध पन पवारणसङ्गहत्थाय सन्निपतिताति वेदितब्बा । (६.२९६-२९६) तथागतं नमस्सन्ताति नवहि कारणेहि तथागतं नमस्समाना । धम्मस्स च सुधम्मतन्ति स्वाक्खाततादिभेदं धम्मस्स सुधम्मतं उजुप्पटिपन्नतादिभेदं सङ्घस्स च सुप्पटिपत्तिन्ति अत्थो । अट्ठयथाभुच्चवण्णना २९६. यथाभुच्चेति यथाभूते यथासभावे । वण्णेति गुणे । पयिरुदाहासीति कथेसि । 218 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.२९६-२९६) अट्ठयथाभुच्चवण्णना बहुजनहिताय पटिपन्नोति कथं पटिपन्नो ? दीपङ्करपादमूले अट्ठ धम्मे समोधात्वा बुद्धत्थाय अभिनीहरमानोपि बहुजनहिताय पटिपन्नो नाम होति । दानपारमी, सीलपारमी, नेक्खम्मपारमी, पञ्ञापारमी, वीरियपारमी, खन्तिपारमी, सच्चपारमी, अधिट्ठानपारमी, मेत्तापारमी, उपेक्खापारमीति कप्पसतसहस्साधिकानि चत्तारि असङ्खयेय्यानि इमा दस पारमियो पूरेन्तोपि बहुजनहिताय पटिपन्नो । २१९ खन्तिवादितापसकाले, चूळधम्मपालकुमारकाले, छद्दन्तनागराजकाले, भूरिदत्तचम्पेय्यसङ्घपालनागराजकाले, महाकपिकाले च तादिसानि दुक्करानि करोन्तोपि बहुजनहिताय पटिपन्नो | वेस्सन्तरत्तभावे ठत्वा सत्तसतकमहादानं दत्वा सत्तसु ठानेसु पथवं कम्पेत्वा पारमीकूटं गण्हन्तोपि बहुजनहिताय पटिपन्नो । ततो अनन्तरे अत्तभावे तुसितपुरे यावतायुकं तिट्ठन्तोपि बहुजनहिताय पटिपन्नो । तत्थ पञ्च पुब्बनिमित्तानि दिस्वा दससहस्सचक्कवाळदेवताहि याचितो पञ्च महाविलोकनानि विलोकेत्वा देवानं सङ्गहत्थाय पटिञ्ञ दत्वा तुसितपुरा चवित्वा मातुकुच्छियं पटिसन्धिं गण्हन्तोपि बहुजनहिताय पटिपन्नो । दस मासे मातुकुच्छियं वसित्वा लुम्बिनीवने मातुकुच्छितो निक्खमन्तोपि, एकूनतिंसवस्सानि अगारं अज्झावसित्वा महाभिनिक्खमनं निक्खमित्वा अनोमनदीतीरे पब्बजन्तोपि, छब्बस्सानि पधानेन अत्तानं किलमेत्वा बोधिपल्लङ्कं आरुय्ह सब्बञ्जतञ्ञाणं पटिविज्झन्तोपि, सत्तसत्ताहं बोधिमण्डे यापेन्तोपि, इसिपतनं आगम्म अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तेन्तोपि, यमकपाटिहारियं करोन्तोपि, देवोरोहणं ओरोहन्तोपि, बुद्धो हुत्वा पञ्चचत्तालीस वस्सानि तिट्ठन्तोपि, आयुसङ्घारं ओस्सजन्तोपि, यमकसालानमन्तरे अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायन्तोपि बहुजनहिताय पटिपन्नो । यावस्स सासपमत्तापि धातुयो धरन्ति ताव बहुजनहिताय पटिपन्नोति वेदितब्बो । सेसपदानि एतस्सेव वेवचनानि । तत्थ पच्छिमं पच्छिमं पुरिमस्स पुरिमस्स अत्थो । नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहीति अतीतेपि बुद्धतो अञ्ञ न समनुपस्साम, अनागतेपि न समनुपस्साम, एतरहि पन अञ्ञस्स सत्थुनो अभावतोयेव अञ्ञत्र तेन भगवता न समनुपस्सामाति अयमेत्थ अत्थो । अट्ठकथायम्पि हि - “ अतीतानागता बुद्धा 219 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा अम्हाकं सत्थारा सदिसायेव, किं सक्को कथेतीति विचारेत्वा - " एतरहि बहुजनहिताय पटिपन्नो सत्था अम्हाकं सत्थारं मुञ्चित्वा अञ्ञो कोचि नत्थि, तस्मा न परस्सामाति कथेती'ति वुत्तं । यथा च एत्थ एवं इतो परेसुपि पदेसु अयमत्थो वेदितब्बो । स्वाक्खातादीनि च कुसलादीनि च वृत्तत्थानेव | २२० गङ्गोदकं यमुनोदकेनाति गङ्गायमुनानं समागमट्टाने उदकं वण्णेनपि गन्धेनपि रसेनपि संसन्दति समेति, मज्झे भिन्नसुवण्णं विय एकसदिसमेव होति, न महासमुद्दउदकेन संसट्टकाले विय विसदिसं । परिसुद्धस्स निब्बानस्स पटिपदापि परिसुद्धाव । न हि दहरकाले वेज्जकम्मादीनि कत्वा अगोचरे चरित्वा महल्लककाले निब्बानं दट्टु सक्का, निब्बानगामिनी पन पटिपदा परिसुद्धाव वट्टति आकासूपमा । यथा हि आकासम्पि अलग्गं परिसुद्धं चन्दिमसूरियानं आकासे इच्छितिच्छितट्ठानं गच्छन्तानं विय निब्बानं गच्छन्तस्स भिक्खुनो पटिपदापि कुले वा गणे वा अलग्गा अबद्धा आकासूपमा वट्टति । सा पसा तादिसाव भगवता पञ्ञत्ता कथिता देसिता । तेन वुत्तं - "संसन्दति निब्बानञ्च पटिपदा चा" ति । पटिपन्नानन्ति पटिपदाय ठितानं । वुसितवतन्ति वुत्थवासानं एतेसं । लद्धसहायोति एतेसं तत्थ तत्थ सह अयनतो सहायो । “अदुतियो असहायो अप्पटिसमो"ति इदं पन असदिसट्ठेन वुत्तं । अपनुज्जाति तेसं मज्झेपि फलसमापत्तिया विहरन्तो चित्तेन अपनुज्ज, अपनुज्जेव एकारामतं अनुयुत्तो विहरतीति अत्थो । (६.२९६ - २९६) अभिनिष्पन्नो खो पन तस्स भगवतो लाभोति तस्स भगवतो महालाभो उप्पन्नो । कदा पट्ठाय उप्पन्नो ? अभिसम्बोधिं पत्वा सत्तसत्ताहं अतिक्कमित्वा इसिपतने धम्मचक्कं पवत्तेत्वा अनुक्कमेन देवमनुस्सानं दमनं करोन्तस्स तयो जटिले पब्बाजेत्वा राजगहं गतस्स बिम्बिसारदमनतो पट्ठाय उप्पन्नो । यं सन्धाय वुत्तं - " तेन खो पन समयेन भगवा सक्कतो होति गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो लाभी चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानपच्चयभेसज्जपरिक्खारान "न्ति (सं० नि० १.२.७०) । सतसहस्सकप्पाधिकेसु चतूसु असङ्घयेय्येसु उस्सन्नपुञ्ञनिस्सन्दसमुप्पन्नो लाभसक्कारो महोघो विय अज्झोत्थरमानो आगच्छति । एकस्मिं फिर समये राजगहे सावत्थियं साकेते कोसम्बियं बाराणसियं भगवतो 220 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.२९६-२९६) अट्ठयथाभुच्चवण्णना २२१ पटिपाटिभत्तं नाम उप्पन्नं, तत्थेको- “अहं सतं विस्सज्जेत्वा दानं दस्सामी''ति पण्णं लिखित्वा विहारद्वारे बन्धि । अञो- अहं दे सतानि । अओ- अहं पञ्च सतानि । अञ्जो- अहं सहस्सं । अञो- अहं वे सहस्सानि । अञो- अहं पञ्च । दस । वीसति । पञास; अञो- अहं सतसहस्सं । अञो- अहं द्वे सतसहस्सानि विस्सज्जेत्वा दानं दस्सामी''ति पण्णं लिखित्वा विहारद्वारे बन्धि । जनपदचारिकं चरन्तम्पि ओकासं लभित्वा – “दानं दस्सामी"ति सकटानि पूरेत्वा महाजनो अनुबन्धियेव । यथाह - "तेन खो पन समयेन जानपदा मनस्सा बहं लोणम्पि तेलम्पि तण्डलम्पि खादनीयम्पि सकटेस आरोपेत्वा भगवतो पिद्वितो पिट्टितो अनबन्धा होन्ति- 'यत्थ पटिपाटिं लभिस्साम, तत्थ भत्तं करिस्सामा ति" (महाव० २८२)। एवं अञानिपि खन्धके च विनये च बहूनि वत्थूनि वेदितब्बानि । असदिसदाने पनेस लाभो मत्थकं पत्तो। एकस्मिं किर समये भगवति जनपदचारिकं चरित्वा जेतवनं सम्पत्ते राजा निमन्तेत्वा दानं अदासि | दुतियदिवसे नागरा अदंस । पून तेसं दानतो अतिरेकं राजा, तस्स दानतो अतिरेकं नागराति एवं बहस दिवसेस गतेस राजा चिन्तेसि- "इमे नागरा दिवसे दिवसे अतिरेकतरं करोन्ति, पथविस्सरो पन राजा नागरेहि दाने पराजितोति गरहा भविस्सती"ति । अथस्स मल्लिका उपायं आचिक्खि । सो राजङ्गणे सालकल्याणिपदरेहि मण्डपं कारेत्वा तं नीलुप्पलेहि छादेत्वा पञ्च आसनसतानि पञापेत्वा पञ्च हत्थिसतानि आसनानं पच्छाभागे ठपेत्वा एकेकेन हत्थिना एकेकस्स भिक्खुनो सेतच्छत्तं धारापेसि । द्विन्नं द्विनं आसनानं अन्तरे सब्बालङ्कारपटिमण्डिता एकेका खत्तियधीता चतुज्जातियगन्धं पिसति । निहितं निहितं मज्झट्ठाने गन्धम्बणे पक्खिपति, तं अपरा खत्तियधीता नीलुप्पलहत्थकेन सम्परिवत्तेति । एवं एकेकस्स भिक्खुनो तिस्सो तिस्सो खत्तियधीतरो परिवारा, अपरा सब्बालङ्कारपटिमण्डिता इत्थी तालवण्टं गहेत्वा बीजति, अञआ धमकरणं गहेत्वा उदकं परिस्सावेति, अआ पत्ततो उदकं हरति । भगवतो चत्तारि अनग्धानि अहेसुं। पादकथलिका आधारको अपस्सेनफलकं छत्तपादमणीति इमानि चत्तारि अनग्धानि अहेसुं। सङ्घनवकस्स देय्यधम्मो सतसहस्सं अग्घति । तस्मिञ्च दाने अङ्गुलिमालत्थेरो सङ्घनवको अहोसि । तस्स आसनसमीपे आनीतो हत्थी तं उपगन्तुं नासक्खि । ततो रञो आरोचेसुं। राजा"अञो हत्थी नत्थी'ति ? दुट्ठहत्थी पन अत्थि, आनेतुं न सक्काति । सम्मासम्बुद्धो - सङ्घनवको कतरो महाराजाति ? अङ्गुलिमालत्थेरो भगवाति । तेन हि तं दुट्ठहत्थिं आनेत्वा ठपेतु, महाराजाति। हत्थिं मण्डयित्वा आनयिंसु । सो थेरस्स तेजेन 221 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (६.२९६-२९६) नासावातसञ्चरणमत्तम्पि कातुं नासक्खि । एवं निरन्तरं सत्त दिवसानि दानं दीयित्थ । सत्तमे दिवसे राजा दसबलं वन्दित्वा- "भगवा मह धम्मं देसेथा"ति आह । तस्सञ्च परिसति काळो च जुण्हो चाति द्वे अमच्चा होन्ति । काळो चिन्तेसि"नस्सति राजकुलस्स सन्तकं, किं नामेते एत्तका जना करिस्सन्ति, भुजित्वा विहारं गन्त्वा निद्दायिस्सन्तेव, इदं पन एको राजपुरिसो लभित्वा किं नाम न करेय्य, अहो नस्सति रञो सन्तक"न्ति । जुण्हो चिन्तेसि - “महन्तं इदं राजत्तनं नाम, को अञो इदं कातुं सक्खिस्सति ? किं राजा नाम सो, यो राजत्तने ठितोपि एवरूपं दानं दातुं न सक्कोती"ति । भगवा परिसाय अज्झासयं ओलोकेन्तो तेसं द्विनं अज्झासयं विदित्वा – “सचे अज्ज जुण्हस्स अज्झासयेन धम्मकथं कथेमि, काळस्स सत्तधा मुद्धा फलिस्सति । मया खो पन सत्तानुद्दयताय पारमियो पूरिता । जुण्हो अझस्मिम्पि दिवसे मयि धम्मं कथयन्ते मग्गफलं पटिविज्झिस्सति, इदानि पन काळं ओलोकेस्सामी"ति रञो चतुप्पदिकमेव गाथं अभासि "न वे कदरिया देवलोकं वजन्ति, बाला हवे नप्पसंसन्ति दानं । धीरो च दानं अनुमोदमानो, तेनेव सो होति सुखी परत्था'ति ।। (ध० प० १७७) राजा अनत्तमनो हुत्वा- "मया महादानं दिन्नं, सत्था च मे मन्दमेव धम्मं कथेसि, नासक्खिं मओ दसबलस्स चित्तं गहेतु"न्ति । सो भुत्तपातरासो विहारं गन्त्वा भगवन्तं वन्दित्वा पुच्छि - "मया, भन्ते, महन्तं दानं दिन्नं, अनुमोदना च मे न महती कता, को नु खो मे, भन्ते, दोसो"ति ? नत्थि, महाराज, तव दोसो, परिसा पन अपरिसुद्धा, तस्मा धम्मं न देसेसिन्ति । कस्मा पन भगवा परिसा न सुद्धाति ? सत्था द्विन्नं अमच्चानं परिवितक्कं आरोचेसि । राजा काळं पुच्छि- “एवं, तात, काळा"ति ? "एवं, महाराजा"ति । “मयि मम सन्तकं ददमाने तव कतरं ठानं रुज्जति, न तं सक्कोमि पस्सितुं, पब्बाजेथ नं मम रट्ठतो"ति आह । ततो जुण्हं पक्कोसापेत्वा पुच्छि – “एवं किर, तात, चिन्तेसी"ति ? “आम, महाराजा'ति । “तव चित्तानुरूपमेव होतू"ति तस्मिंयेव मण्डपे एवं पञत्तेसुयेव आसनेसु पञ्च भिक्खुसतानि निसीदापेत्वा तायेव 222 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.२९६-२९६) अट्ठयथाभुच्चवण्णना २२३ खत्तियधीतरो परिवारापेत्वा राजगेहतो धनं गहेत्वा मया दिन्नसदिसमेव सत्त दिवसानि दानं देहीति । सो तथा अदासि । दत्वा सत्तमे दिवसे - “धम्मं भगवा देसेथा''ति आह । सत्था द्विन्नम्पि दानानं अनुमोदनं एकतो कत्वा द्वे महानदियो एकोघपुण्णा कुरुमानो विय महाधम्मदेसनं देसेसि । देसनापरियोसाने जुण्हो सोतापन्नो अहोसि । राजा पसीदित्वा दसबलस्स बाहिरवत्थु नाम अदासि । एवं अभिनिप्फन्नो खो पन तस्स भगवतो लाभोति वेदितब्बो। अभिनिष्फन्नो सिलोकोति वण्णगुणकित्तनं । सोपि भगवतो धम्मचक्कप्पवत्तनतो पट्ठाय अभिनिष्फन्नो । ततो पट्ठाय हि भगवतो खत्तियापि वण्णं कथेन्ति । ब्राह्मणापि गहपतयोपि नागा सुपण्णा गन्धब्बा देवता ब्रह्मानोपि कित्तिं वत्वा- "इतिपि सो भगवा"तिआदिना । अतित्थियापि वररोजस्स सहस्सं दत्वा समणस्स गोतमस्स अवण्णं कथेहीति उय्योजेसुं । सो सहस्सं गहेत्वा दसबलं पादतलतो पट्ठाय याव केसन्ता अपलोकयमानो लिक्खामत्तम्पि वज्जं अदिस्वा - “विप्पकिण्णद्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणे असीतिअनुब्यञ्जनविभूसिते ब्यामप्पभापरिक्खित्ते सुफुल्लितपारिच्छत्तकतारागणसमुज्जलितअन्तलिक्खविचित्तकुसुमसस्सिरिकनन्दनवनसदिसे अनवज्जअत्तभावे अवण्णं वदन्तस्स मुखम्पि विपरिवत्तेय्य, मुद्धापि सत्तधा फलेय्य, अवण्णं वत्तुं उपायो नत्थि, वण्णमेव वदिस्सामी''ति पादतलतो पट्ठाय याव केसन्ता अतिरेकपदसहस्सेन वण्णमेव कथेसि | यमकपाटिहारिये पनेस वण्णो नाम मत्थकं पत्तो। एवं अभिनिष्फनो सिलोकोति । याव मजे खत्तियाति खत्तिया ब्राह्मणा वेस्सा सुद्दा नागा सुपण्णा यक्खा असुरा देवा ब्रह्मानोति सब्बेव ते सम्पियायमानरूपा हट्टतुट्ठा विहरन्ति । विगतमदो खो पनाति एत्तका मं जना सम्पियायमानरूपा विहरन्तीति न मदपमत्तो हुत्वा दवादिवसेन आहारं आहारेति, अञदत्थु विगतमदो खो पन सो भगवा आहारं आहारेति । यथावादीति यं वाचाय वदति, तदन्वयमेवस्स कायकम्मं होति । यञ्च कायेन करोति, तदन्वयमेवस्स वचीकम्मं होति | कायो वा वाचं, वाचा वा कायं नातिक्कमति, वाचा कायेन, कायो च वाचाय समेति । यथा च 223 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (६.२९६-२९६) “वामेन सूकरो होति, दक्खिणेन अजामिगो । सरेन नेलको होति, विसाणेन जरग्गवो''ति ।। - अयं सूकरयक्खो सूकरे दिस्वा सूकरसदिसं वामपस्सं दस्सेत्वा ते गहेत्वा खादति, अजामिगे दिस्वा तंसदिसं दक्खिणपस्सं दस्सेत्वा ते गहेत्वा खादति, नेलकवच्छके दिस्वा वच्छकरवं रवन्तो ते गहेत्वा खादति, गोणे दिस्वा तेसं विसाणसदिसानि विसाणानि मापेत्वा ते दूरतोव – “गोणो विय दिस्सती"ति एवं उपगते गहेत्वा खादति । यथा च धम्मिकवायसजातके सकुणेहि पुट्ठो वायसो- “अहं वातभक्खो, वातभक्खताय मुखं विवरित्वा पाणकानञ्च मरणभयेन एकेनेव पादेन ठितो, तस्मा तुम्हेपि "धम्मं चरथ भई वो, धम्मं चरथ तयो । धम्मचारी सुखं सेति, अस्मिं लोके परम्हि चा"ति ।। सकुणेसु विस्सासं उप्पादेसि, ततो - "भद्दको वतायं पक्खी, दिजो परमधम्मिको । एकपादेन तिद्वन्तो. धम्मो धम्मोति भासती"ति ।। एवं विस्सासमागते सकुणे खादित्थ । तेन तेसं वाचा कायेन, कायो च वाचाय न समेति, न एवं भगवतो । भगवतो पन वाचा कायेन, कायो च वाचाय समेतियेवाति दस्सेति । तिण्णा तरिता विचिकिच्छा अस्साति तिण्णविचिकिच्छो। “कथमिदं कथमिद"न्ति एवरूपा विगता कथंकथा अस्साति विगतकथंकथो। यथा हि महाजनो- “अयं रुक्खो, किं रुक्खो नाम, अयं गामो, अयं जनपदो, इदं रहूं, किं रटुं नाम, कस्मा नु खो अयं रुक्खो उजुक्खन्धो, अयं वङ्कक्खन्धो, कस्मा कण्टको कोचि उजुको होति, कोचि वङ्को, पुष्पं किञ्चि सुगन्धं, किञ्चि दुग्गन्धं, फलं किञ्चि मधुरं, किञ्चि अमधुर'"न्ति सककोव होति, न एवं सत्था । सत्था हि – “इमेसं नाम धातूनं उस्सन्नुस्सन्नत्ता इदं एवं होती''ति विगतकथंकथोव । यथा च पठमज्झानादिलाभीनं दुतियज्झानादीसु कवा होति । 224 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.२९७-२९८) अट्ठयथाभुच्चवण्णना २२५ पच्चेकबुद्धानम्पि हि सब्ब ताणे याथावसन्निट्ठानाभावतो वोहारवसेन कङ्खा नाम होतियेव, न एवं बुद्धस्स । सो हि भगवा सब्बत्थ विगतकथंकथोति दस्सेति । परियोसितसङ्कप्पोति यथा केचि सीलमत्तेन, केचि विपस्सनामत्तेन, केचि पठमज्झानेन...पे०... केचि नेवसनासचायतनसमापत्तिया, केचि सोतापन्नभावमत्तेन...पे०... केचि अरहत्तेन, केचि सावकपारमीजाणेन, केचि पच्चेकबोधिजाणेन परियोसितसङ्कप्पा परिपुण्णमनोरथा होन्ति, न एवं मम सत्था । मम पन सत्था सब्ब ताणेन परियोसितसङ्कप्पोति दस्सेति । अज्झासयं आदिब्रह्मचरियन्ति करणत्थे पच्चत्तवचनं, अधिकासयेन उत्तमनिस्सयभूतेन आदिब्रह्मचरियेन पोराणब्रह्मचरियभूतेन च अरियमग्गेन तिण्णविचिकिच्छो विगतकथंकथो परियोसितसङ्कप्पोति अत्थो । “पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु सामं सच्चानि अभिसम्बुज्झि, तत्थ च सब्ब तं पत्तो, बलेसु च वसीभाव"न्ति हि वचनतो परियोसितसङ्कप्पतापि भगवतो अरियमग्गेनेव निप्फन्नाति । २९७. यथरिव भगवाति यथा भगवा, एवं एकस्मिं जम्बुदीपतले चतूसु दिसासु चारिकं चरमाना अहो वत चत्तारो जिना धम्म देसेय्युन्ति पच्चासिसमाना वदन्ति | अथापरे तीसु मण्डलेसु एकतो विचरणभावं आकङ्खमाना तयो सम्मासम्बुद्धाति आहंसु । अपरे - "दस पारमियो नाम पूरेत्वा चतुत्रं तिण्णं वा उप्पत्ति दुल्लभा, सचे पन एको निबद्धवासं वसन्तो धम्मं देसेय्य, एको चारिकं चरन्तो, एवम्पि जम्बुदीपो सोभेय्य चेव, बहुञ्च हितसुखमधिगच्छेय्या''ति चिन्तेत्वा अहो वत, मारिसाति आहंसु । २९८. अट्ठानमेतं अनवकासो यन्ति एत्थ ठानं अवकासोति उभयमेतं कारणाधिवचनमेव । कारणहि तिट्ठति एत्थ तदायत्तवुत्तिताय फलन्ति ठानं । ओकासो विय चस्स तं तेन विना अञत्थ अभावतोति अवकासो । यन्ति करणत्थे पच्चत्तं । इदं वुत्तं होति- “येन कारणेन एकिस्सा लोकधातुया द्वे बुद्धा एकतो उप्पज्जेय्युं, तं कारणं नत्थी "ति। एत्थ च 225 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (६.३००-३०४) “यावता चन्दिमसूरिया, परिहरन्ति दिसा भन्ति विरोचना। ताव सहस्सधा लोको, एत्थ ते वत्तते वसो''ति ।। (म० नि० १.५०३) गाथाय एकचक्कवाळमेव एका लोकधातु । “सहस्सी लोकधातु अकम्पित्था"ति (अ० नि० १.३.१२६) आगतहाने चक्कवाळसहस्सं एका लोकधातु । “आकङ्खमानो, आनन्द, तथागतो तिसहस्सिमहासहस्सिलोकधातुं सरेन विज्ञापेय्य, ओभासेन च फरेय्या"ति (अ० नि० १.३.८१) आगतट्ठाने तिसहस्सिमहासहस्सी एका लोकधातु । “अयञ्च दससहस्सी लोकधातू''ति (म० नि० ३.२०१) आगतहाने दसचक्कवाळसहस्सानि एका लोकधातु | तं सन्धाय एकिस्सा लोकधातुयाति आह । एत्तकहि जातिखेत्तं नाम । तत्रापि ठपेत्वा इमस्मिं चक्कवाळे जम्बुदीपस्स मज्झिमदेसं न अझत्र बुद्धा उप्पज्जन्ति जातिखेत्ततो पन परं बुद्धानं उप्पत्तिट्ठानमेव न पचायति । येनत्थेनाति येन पवारणसङ्गहत्थेन । सनकुमारकथावण्णना ३००. वण्णेन चेव यससा चाति अलङ्कारपरिवारेन च पुञ्जसिरिया चाति अत्थो । _____३०१. साधु महाब्रह्मेति एत्थ सम्पसादने साधुसद्दो | सङ्काय मोदामाति जानित्वा मोदाम | गोविन्दब्राह्मणवत्थुवण्णना ३०४. याव दीघरतं महापञोव सो भगवाति एत्तकन्ति परिच्छिन्दित्वा न सक्का वत्तुं, अथ खो याव दीघरत्तं अतिचिररत्तं महापञोव सो भगवा। नोति कथं तुम्हे मञथाति । अथ सयमेवेतं पहं ब्याकातुकामो- "अनच्छरियमेतं, मारिसा, यं इदानि पारमियो पूरेत्वा बोधिपल्लङ्के तिण्णं मारानं मत्थकं भिन्दित्वा पटिविद्धअसाधारणजाणो सो भगवा महापञो भवेय्य, किमेत्थ अच्छरियं, अपरिपक्काय पन बोधिया पदेसजाणे ठितस्स सरागादिकालेपि महापञभावमेव वो, मारिसा, कथेस्सामी"ति भवपटिच्छन्नकारणं आहरित्वा दस्सेन्तो भूतपुब्बं भोतिआदिमाह । पुरोहितोति सब्बकिच्चानि अनुसासनपुरोहितो। गोविन्दोति गोविन्दियाभिसेकेन 226 . Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोविन्दब्राह्मणवत्थुवण्णना अभिसित्तो, पकतिया पनस्स अञ्ञदेव नामं, अभिसित्तकालतो पट्ठाय " गोविन्दो 'ति सङ्ख्यं गतो । जोतिपालोति जोतनतो च पालनतो च जोतिपालो । तस्स किर जातदिवसे सब्बावुधानि उज्जोतिंसु । राजापि पच्चूससमये अत्तनो मङ्गलावुधं पज्जलितं दिवा भीतो अट्ठासि । गोविन्दो पातोव राजूपट्ठानं गन्त्वा सुखसेय्यं पुच्छि राजा - "कुतो मे आचरिय, सुखसेय्या' ति वत्वा तं कारणं आरोचेसि । मा भायि, महाराज, महं पुत्तो जातो, तस्सानुभावेन सकलनगरे आवुधानि पज्जलिंसूति । राजा - “किं नु खो मे कुमारो पच्चथिको भवेय्या "ति चिन्तेत्वा सुट्टुतरं भायि । " किं वितक्केसि महाराजा ति च पुट्ठो तमत्थं आरोचेसि । अथ गोविन्दो " मा भायि महाराज, नेसो कुमारो तुम्हाकं दुभिस्सति, सकलजम्बुदीपे पन तेन समो पञ्ञाय न भविस्सति, मम पुत्तस्स वचनेन महाजनस्स कङ्क्षमा छिज्जिस्सति, तुम्हाकञ्च सब्बकिच्चानि अनुसासिस्सती 'ति समस्तासेति । राजा तुट्ठो - " कुमारस्स खीरमूलं होतू" ति सहस्सं दत्वा " कुमारं महल्लककाले मम दस्सेथा ''ति आह । कुमारो अनुपुब्बेन वुड्डिमनुप्पत्तो । जोतितत्ता पनस्स पालनसमत्थताय च जोतिपालोत्वेव नामं अकंसु । तेन वुत्तं- “जोतनतो च पालनतो च जोतिपालो 'ति । (६.३०५-३०५) सम्मा वोस्सज्जित्वाति सम्मा वोस्सज्जित्वा । अयमेव वा पाठो । अलमत्थदसतरोति समत्थो पटिबलो अत्थदसो अलमत्थदसो, तं अलमत्थदसं तिरेतीति अलमत्थदसतरो | जोतिपालस्सेब माणबस्स अनुसासनियाति सोपि जोतिपालंयेव पुच्छित्वा अनुसासतीति दस्सेति । ३०५. भवमत्थु भवन्तं जोतिपालन्ति भोतो जोतिपालस्स भवो वुद्धि विसेसाधिगमो सब्बकल्याणञ्चेव मङ्गलञ्च होतूति अत्थो । सम्मोदनीयं कथन्ति ? “अलं, महाराज, मा चिन्तयि, धुवधम्मो एस सब्बसत्तान "न्तिआदिना नयेन मरणप्पटिसंयुत्तं सोकविनोदनपटिसन्थारकथं परियोसापेत्वा । मा नो भवं जोतिपालो अनुसासनिया पच्चब्याहासीति मा पटिब्याकासि, “अनुसासा" ति वुत्तो – “नाहं अनुसासामी 'ति नो मा अनुसासनिया पच्चक्खासीति अत्थो । अभिसम्भोसीति संविदहित्वा पट्टपेसि । मनुस्सा एवमाहंसूति तं पितरा महापञ्ञतरं सब्बकिच्चानि अनुसासन्तं सब्बकम्मे अभिसम्भवन्तं दिस्वा तुट्ठचित्ता गोविन्दो वत, भो, ब्राह्मणो, महागोविन्दो वत, भो, ब्राह्मणोति एवमाहंसु । इदं वृत्तं होति, “गोविन्दो वत, भो, ब्राह्मणो अहोसि एतस्स पिता; अयं पन महागोविन्दो वत, भो, ब्राह्मणो 'ति । २२७ 227 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (६.३०६-३०८) रज्जसंविभजनवण्णना ३०६. येन ते छ खत्तियाति ये ते “सहाया"ति वुत्ता छ खत्तिया, ते किर रेणुस्स एकपितिका कनिट्ठभातरो, तस्मा महागोविन्दो “अयं अभिसित्तो एतेसं रज्जसंविभागं करेय्य वा न वा, यंनूनाहं ते पटिकच्चेव रेणुस्स सन्तिकं पेसेत्वा पटिओं गण्हापेय्य"न्ति चिन्तेन्तो येन ते छ खत्तिया तेनुपसङ्कमि । राजकत्तारोति राजकारका अमच्चा । ३०७. मदनीया कामाति मदकरा पमादकरा कामा। गच्छन्ते गच्छन्ते काले एस अनुस्सरितुम्पि न सक्कुणेय्य, तस्मा आयन्तु भोन्तो आगच्छन्तूति अत्थो । ३०८. सरामहं भोति तदा किर मनुस्सानं सच्चवादिकालो होति, तस्मा “कदा मया वुत्तं, केन दिटुं, केन सुत"न्ति अभूतं अवत्वा "सरामहं भो"ति आह । सम्मोदनीयं कथन्ति किं महाराज देवत्तं गते रजे मा चिन्तयित्थ, धुवधम्मो एस सब्बसत्तानं, एवंभाविनो सङ्खाराति एवरूपं पटिसन्थारकथं । सब्बानि सकटमुखानि पट्टपेसीति सब्बानि छ रज्जानि सकटमुखानि पट्टपेसि । एकेकस्स रो रज्जं तियोजनसतं होति, रेणुस्स रो रज्जोसरणपदेसो दसगावुतं, मज्झे पन रेणुस्स रज्जं वितानसदिसं अहोसि । कस्मा एवं पठ्ठपेसीति ? कालेन कालं राजानं पस्सितुं आगच्छन्ता अञस्स रज्जं अपीळेत्वा अत्तनो अत्तनो रज्जपदेसेनेव आगमिस्सन्ति चेव गमिस्सन्ति च । पररज्जं ओतिण्णस्स हि- "भत्तं देथ, गोणं देथा"ति वदतो मनुस्सा उज्झायन्ति- “इमे राजानो अत्तनो अत्तनो विजितेन न गच्छन्ति, अम्हाकं पीळं करोन्ती''ति । अत्तनो विजितेन गच्छन्तस्स “अम्हाकं सन्तिका इमिना इदञ्चिदञ्च लद्धब्बमेवा"ति मनुस्सा पीळं न मञ्जन्ति । इममत्थं चिन्तयित्वा महागोविन्दो “सम्मोदमाना राजानो चिरं रज्जमनुसासन्तूति एवं पट्ठपेसि । "दन्तपुरं कलिङ्गानं, अस्सकानञ्च पोतनं । ___माहिस्सति अवन्तीनं, सोवीरानञ्च रोदुकं । । मिथिला च विदेहानं, चम्पा अङ्गेसु मापिता। बाराणसी च कासीनं, एते गोविन्दमापिता''ति ।। 228 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.३११-३११) कित्तिसद्दअब्भुग्गमनवण्णना २२९ एतानि सत्त नगरानि महागोविन्देनेव तेसं राजूनं अत्थाय मापितानि । “सत्तभू ब्रह्मदत्तो च, वेस्सभू भरतो सह । रेणु द्वे च धतरट्ठा, तदासुं सत्त भारधा''ति ।। - इमानि तेसं सत्तन्नम्पि नामानि । तेसु हि एको सत्तभू नाम अहोसि, एको ब्रह्मदत्तो नाम, एको वेस्सभू नाम, एको तेनेव सह भरतो नाम, एको रेणु नाम, द्वे पन धतरठ्ठाति इमे सत्त जम्बुदीपतले भारधा महाराजानो अहेसुन्ति । पठमभाणवारवण्णना निट्ठिता । कित्तिसद्दअब्भुग्गमनवण्णना ३११. उपसङ्कमिंसूति “अम्हाकं अयं इस्सरियसम्पत्ति न अञस्सानुभावेन, महागोविन्दस्सानुभावेन निप्पन्ना। महागोविन्दो अम्हे सत्त राजानो समग्गे कत्वा जम्बुदीपतले पतिद्वापेसि, पुब्बूपकारिस्स पन न सुकरा पटिकिरिया कातुं । अम्हे सत्तपि जने एसोयेव अनुसासतु, एतंयेव सेनापतिञ्च पुरोहितञ्च करोम, एवं नो बुद्धि भविस्सती"ति चिन्तेत्वा उपसङ्कमिंसु । महागोविन्दोपि - "मया एते समग्गा कता, सचे एतेसं अञो सेनापति पुरोहितो च भविस्सति, ततो अत्तनो अत्तनो सेनापतिपुरोहितानं वचनं गहेत्वा अञ्जमधे भिन्दिस्सन्ति, अधिवासेमि नेसं सेनापतिद्वानञ्च पुरोहितहानञ्चा''ति चिन्तेत्वा “एवं भो"ति पच्चस्सोसि । सत्त च ब्राह्मणमहासालेति “अहं सब्बट्ठानेसु सम्मुखो भवेय्यं वा न वा, यत्थाहं सम्मुखो न भविस्सामि, तत्थेव ते कत्तबं करिस्सन्ती''ति सत्त अनुपुरोहिते ठपेसि । ते सन्धाय इदं वुत्तं - "सत्त च ब्राह्मणमहासाले'ति । दिवसस्स द्विक्खत्तुं वा सायं पातो वा नहायन्तीति नहातका। वतचरियपरियोसाने वा नहाता, ततो पठ्ठाय ब्राह्मणेहि सद्धिं न खादन्ति न पिवन्तीति नहातका । 229 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (६.३१२-३१८) ३१२. अन्भुग्गच्छीति अभिउग्गच्छि। तदा किर मनुस्सानं "न ब्रह्मना सद्धिं अमन्तेत्वा सक्का एवं सकलजम्बदीपं अनसासित"न्ति निसिन्ननिसिन्नद्राने अयमेव कथा पवत्तित्थ । न खो पनाहन्ति महापरिसो किर- "अयं महं अभतो वणो उम्पन्नो. वण्णुप्पत्ति खो पन न भारिया, उप्पन्नस्स वण्णस्स रक्खनमेव भारियं, अयञ्च मे अचिन्तेत्वा अमन्तेत्वा करोन्तस्सेव वण्णो उप्पन्नोव, चिन्तेत्वा मन्तेत्वा करोन्तस्स पन वित्थारिकतरो भविस्सती"ति ब्रह्मदस्सने उपायं परियेसन्तो तं दिस्वा सुतं खो पन मेतन्तिआदिअत्थं परिवितक्केसि । ३१३. येन रेणु राजा तेनुपसङ्कमीति एवं मे अन्तरा दबुकामो वा सल्लपितुकामो वा न भविस्सति, यतो छिन्नपलिबोधो सुखं विहरिस्सामीति पलिबोधुपच्छेदनत्थं उपसङ्कमि, एस नयो सब्बत्थ। ३१६. सादिसियोति समवण्णा समजातिका । ३१७. नवं सन्धागारं कारेत्वाति रत्तिट्ठानदिवाट्ठानचङ्कमनसम्पन्नं वस्सिके चत्तारो मासे वसनक्खमं बहि नळपरिक्खित्तं विचित्तं आवसथं कारेत्वा । करुणं झानं झायीति करुणाय तिकचतुक्कज्झानं झायि, करुणामुखेन पनेत्थ अवसेसापि तयो ब्रह्मविहारा गहिताव | उक्कण्ठना परितस्सनाति झानभूमियं ठितस्स अनभिरतिउक्कण्ठना वा भयपरितस्सना वा नत्थि, ब्रह्मनो पन आगमनपत्थना आगमनतण्हा अहूति अत्थो । ब्रह्मनासाकच्छावण्णना ३१८. भयन्ति चित्तुत्रासभयमेव । अजानन्ताति अजानमाना । कथं जानेमु तं मयन्ति (दी० नि० २.१७९) मयं किन्ति तं जानाम, अयं कत्थवासिको, किन्नामो, किं गोत्तोतिआदीनं आकारानं केन आकारेन तं धारयामाति अत्थो । मं वे कुमारं जानन्तीति मं “कुमारो"ति “दहरो'"ति जानन्ति । ब्रह्मलोकेति सेट्ठलोके । सनन्तनन्ति चिरतनं पोराणकं । अहं सो पोराणकुमारो सनमारो नाम ब्रह्माति दस्सेति । एवं गोविन्द जानाहीति गोविन्द पण्डित, त्वं एवं जानाहि, एवं मं धारेहि । 230 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.३१८-३१८) ब्रह्मनासाकच्छावण्णना २३१ "आसनं उदकं पज्ज, मधुसाकञ्च ब्रह्मनो । अग्घे भवन्तं पुच्छाम, अग्धं कुरुतु नो भवन्ति ।। - एत्थ अग्धन्ति अतिथिनो उपनामेतब्बं वुच्चति । तेनेव इदमासनं पञत्तं, एत्थ निसीदथ, इदं उदकं परिसुद्धं, इतो पानीयं पिवथ, पादे धोवथ, इदं पज्जं पादानं हितत्थाय अभिसङ्घतं तेलं, इतो पादे मक्खेथ, इदं मधुसाकन्ति । बोधिसत्तस्स ब्रह्मचरियं न अछेसं ब्रह्मचरियसदिसं होति, न सो "इदं स्वे, इदं ततियदिवसे भविस्सती"ति सन्निधिं नाम करोति । मधुसाकं पन अलोणं अधूपनं अतक्कं उदकेन सेदितसाकं, तं सन्धायेस"इदं परिभुञ्जथा"ति वदन्तो “अग्घे भवन्तं पुच्छामा"तिआदिमाह । इमे सब्बेपि अग्घा ब्रह्मनो अस्थि । ते अग्घे भवन्तं पुच्छाम। एवं पुच्छन्तानञ्च अग्धं कुरुतु नो भवं, पटिग्गण्हातु नो भवं इदमग्घन्ति वुत्तं होति । किं पनेस- "इतो एकम्पि ब्रह्मा न भुञ्जती"ति इदं न जानातीति । नो न जानाति, जानन्तोपि अत्तनो सन्तिके आगतो अतिथि पुच्छितब्बोति वत्तसीसेन पुच्छति । अथ खो ब्रह्मा- “किं नु खो पण्डितो मम परिभोगकरणाभावं अत्वा पुच्छति, उदाहु कोहजे ठत्वा पुच्छती"ति समन्नाहरन्तो "वत्तसीसे ठितो पुच्छती"ति अत्वा पटिग्गण्हितुं दानि मे वट्टतीति पटिग्गण्हाम ते अग्धं, यं त्वं गोविन्द भाससीति आह । यं त्वं गोविन्द भाससि- "इदमासनं पञत्तं, एत्थ निसीदथा'"तिआदि, तत्र ते मयं आसने निसिन्ना नाम होम, पानीयं पीता नाम होम, पादापि मे धोता नाम होन्तु, तेलेनपि मक्खिता नाम होन्तु, उदकसाकम्पि परिभुत्तं नाम होतु, तया दिन्नं अधिवासितकालतो पट्ठाय यं यं त्वं भाससि, तं तं मया पटिग्गहितमेव होति । तेन वुत्तं- “पटिग्गण्हाम ते अग्छ, यं त्वं गोविन्द भाससी"ति । एवं पन अग्धं पटिग्गण्हित्वा पञ्हस्स ओकासं करोन्तो दिदुधम्महितत्थायातिआदिमाह । कजी अकyि परवेदियेसूति अहं सविचिकिच्छो भवन्तं परेन सयं अभिसङ्घतत्ता परस्स पाकटेसु परवेदियेसु पञ्हेसु निबिचिकिच्छं। हित्वा ममत्तन्ति इदं मम, इदं ममाति उपकरणतण्हं चजित्वा । मनुजेसूति सत्तेसु, मनुजेसु यो कोचि मनुजो ममत्तं हित्वाति अत्थो । एकोदिभूतोति एकीभूतो, एको तिठ्ठन्तो एको निसीदन्तोति । वचनत्थो पनेत्थ एको उदेति पवत्ततीति एकोदि, तादिसो भूतोति 231 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (६.३२०-३२०) एकोदिभूतो। करुणेधिमुत्तोति करुणाझाने अधिमुत्तो, तं झानं निब्बत्तेत्वाति अत्थो । निरामगन्धोति विस्सगन्धविरहितो । एत्थ ठितोति एतेसु धम्मेसु ठितो । एत्थ च सिक्खमानोति एतेसु धम्मेसु सिक्खमानो । अयमेत्थ सद्धेपो, वित्थारो पन उपरि महागोविन्देन च ब्रह्मना च वुत्तोयेव। ३२०. तत्थ एते अविद्वाति एते आमगन्धे अहं अविद्वा, न जानामीति अत्थो । इध ब्रूहि धीराति ते मे त्वं इध धीर पण्डित, ब्रूहि, वद । केनावटा वाति पजा कुरुतूति कतमेन किलेसावरणेन आवरिता पजा पूतिका वायति । आपायिकाति अपायूपगा । निवुतब्रह्मलोकाति निवुतो पिहितो ब्रह्मलोको अस्साति निवुतब्रह्मलोको । कतमेन किलेसेन पजाय ब्रह्मलोकूपगो मग्गो निवुतो पिहितो पटिच्छन्नोति पुच्छति । कोथो मोसवज्जं निकति च दुब्भोति कुज्झनलक्खणो कोधो च, परविसंवादनलक्खणो मुसावादो च, सदिसं दस्सेत्वा वञ्चनलक्खणा निकति च, मित्तदुब्भनलक्खणो दुब्भो च । कदरियता अतिमानो उसूयाति थद्धमच्छरियलक्खणा कदरियता च, अतिक्कमित्वा मानलक्खणो अतिमानो च, परसम्पत्तिखीयनलक्खणा उसूया च। इच्छा विविच्छा परहेठना चाति तण्हालक्खणा इच्छा च, मच्छरियलक्खणा विविच्छा च, विहिंसालक्खणा परहेठना च। लोभो च दोसो च मदो च मोहोति यत्थ कत्थचि लुब्भनलक्खणो लोभो च, दुस्सनलक्खणो दोसो च, मज्जनलक्खणो मदो च, मुव्हनलक्खणो मोहो च । एतेसु युत्ता अनिरामगन्धाति एतेसु चुद्दससु किलेसेसु युत्ता पजा निरामगन्धा न होति, आमगन्धा सकुणपगन्धा पूतिगन्धायेवाति वदति । आपायिका निवुतब्रह्मलोकाति एसा पन आपायिका चेव होति, पटिच्छन्नब्रह्मलोकमग्गा चाति । इदं पन सुत्तं कथेन्तेन आमगन्धसुत्तेन दीपेत्वा कथेतब्द, आमगन्धसुत्तम्पि इमिना दीपेत्वा कथेतब्बं । ते न सुनिम्मदयाति ते आमगन्धा सुनिम्मदया सुखेन निम्मदेतब्बा पहातब्बा न होन्ति, दुप्पजहा दुज्जयाति अत्थो । यस्स दानि भवं गोविन्दो कालं मञ्जतीति “यस्सा पब्बज्जाय भवं गोविन्दो कालं मञति, अयमेव होतु, एवं सति मय्हम्पि तव सन्तिके आगमनं स्वागमनं भविस्सति, कथितधम्मकथा सुकथिता भविस्सति, त्वं तात सकलजम्बुदीपे अग्गपुरिसो दहरो पठमवये ठितो, एवं महन्तं नाम सम्पत्तिसिरिविलासं पहाय तव पब्बजनं नाम गन्धहत्थिनो अयबन्धनं छिन्दित्वा गमनं विय अतिउळारं, बुद्धतन्ति नामेसा''ति महापुरिसस्स दळहीकम्मं कत्वा ब्रह्मा सनकुमारो ब्रह्मलोकमेव गतो । 232 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.३२१-३२१) रेणुराजआमन्तनावण्णना २३३ रेणुराजआमन्तनावण्णना ३२१. महापुरिसोपि “मम इतोव निक्खमित्वा पब्बजनं नाम न युत्तं, अहं राजकुलस्स अत्थं अनुसासामि, तस्मा रञो आरोचेस्सामि । सचे सोपि पब्बजिस्सति, सुन्दरमेव । नो चे पब्बजिस्सति, पुरोहितवानं निय्यातेत्वा अहं पब्बजिस्सामी"ति चिन्तेत्वा राजानं उपसङ्कमि, तेन वुत्तं- “अथ खो भो महागोविन्दो,...पे०... नाहं पोरोहच्चे रमे"ति | तत्थ त्वं पजानस्सु रज्जेनाति तव रज्जेन त्वमेव जानाहि । नाहं पोरोहिच्चे रमेति अहं पुरोहितभावे न रमामि, उक्कण्ठितोस्मि, अझं अनुसासकं जानाहि, नाहं पोरोहिच्चे रमेति । अथ राजा - "धुवं चत्तारो मासे पटिसल्लीनस्स ब्राह्मणस्स गेहे भोगा मन्दा जाता''ति चिन्तेत्वा धनेन निमन्तेन्तो - "सचे ते ऊनं कामेहि । अहं परिपूरयामि ते"ति वत्वा पुन- “किन्नु खो एस एकको विहरन्तो केनचि विहिंसितो भवेय्या''ति चिन्तेत्वा, “यो तं हिंसति वारेमि, भूमिसेनापति अहं । तुवं पिता अहं पुत्तो, मा नो गोविन्द पाजही''ति ।। - आह । तस्सत्थो - यो तं हिंसति, तं वारेमि, केवलं तुम्हे “असुको"ति आचिक्खथ, अहमेत्थ कत्तब्बं जानिस्सामीति । भूमिसेनापति अहन्ति अथ वा अहं पथविया सामी, स्वाहं इमं रज्जं तुम्हेयेव पटिच्छापेस्सामि । तुवं पिता अहं पुत्तोति त्वं पितिठाने ठस्ससि, अहं पुत्तट्ठाने । सो त्वं मम मनं हरित्वा अत्तनोयेव मनं गोविन्द, पाजेहि; यथा इच्छसि तथा पवत्तस्सु । अहं पन तव मनंयेव अनुवत्तन्तो तया दिन्नपिण्डं परिभुञ्जन्तो तं असिचम्महत्थो वा उपट्ठहिस्सामि, रथं वा ते पाजेस्सामि । “मा नो गोविन्द, पजही"ति वा पाठो। तस्सत्थो- त्वं पितिट्टाने तिट्ठ, अहं पुत्तट्टाने ठस्सामि । मा नो त्वं भो गोविन्द, पजहि, मा परिच्चजीति । अथ महापुरिसो यं राजा चिन्तेसि, तस्स अत्तनि अभावं दस्सेन्तो 233 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (६.३२२-३२२) "न मत्थि ऊनं कामेहि, हिंसिता मे न विज्जति । अमनुस्सवचो सुत्वा, तस्माहं न गहे रमे"ति ।। आह । तत्थ न मत्थीति न मे अस्थि । गहेति गेहे । अथ नं राजा पुच्छि "अमनुस्सो कथं वण्णो, किं ते अत्थं अभासथ । यञ्च सुत्वा जहासि नो, गेहे अम्हे च केवली'ति ।। तत्थ जहासि नो, गेहे अम्हे च केवलीति ब्राह्मणस्स सम्पत्तिभरिते गेहे सङ्गहवसेन अत्तनो गेहे करोन्तो यं सुत्वा अम्हाकं गेहे च अम्हे च केवली सब्बे अपरिसेसे जम्बुदीपवासिनो जहासीति वदति ।। अथस्स आचिक्खन्तो महापुरिसो उपवुत्थस्स मे पुब्बेतिआदिमाह । तत्थ उपवुत्थस्साति चत्तारो मासे एकीभावं उपगन्त्वा वुत्थस्स । यिटकामस्स मे सतोति यजितुकामस्स मे समानस्स। अग्गि पज्जलितो आसि, कुसपत्तपरित्थतोति कुसपत्तेहि परित्थतो सप्पिदधिमधुआदीनि पक्खिपित्वा अग्गि जलयितुमारद्धो आसि, एवं अग्गिं जालेत्वा "महाजनस्स दानं दस्सामी"ति एवं चिन्तेत्वा ठितस्स ममाति अयमेत्थ अत्थो । सनन्तनोति सनकुमारो ब्रह्मा। ततो राजा सयम्पि पब्बजितुकामो हुत्वा सदहामीतिआदिमाह । तत्थ कथं वत्तेथ अञथाति कथं तुम्हे अञथा वत्तिस्सथ । ते तं अनुवत्तिस्सामाति ते मयम्पि तुम्हेयेव अनुवत्तिस्साम, अनुपब्बजिस्सामाति अत्थो । "अनुवजिस्सामा"तिपि पाठो, तस्स अनुगच्छिस्सामाति अत्थो। अकाचोति निक्काचो अकक्कसो। गोविन्दस्सानुसासनेति तव गोविन्दस्स सासने । भवन्तं गोविन्दमेव सत्थारं करित्वा चरिस्सामाति वदति। छ खत्तियआमन्तनावण्णना ३२२. येन ते छ खत्तिया तेनुपसङ्कमीति रेणुं राजानं “साधु महाराज रज्जं नाम मातरं पितरं भातिभगिनीआदयोपि मारेत्वा गण्हन्तेसु सत्तेसु एवं महन्तं रज्जसिरिं पहाय पब्बजितुकामेन उळारं महाराजेन कत"न्ति उपत्थम्भेत्वा दळहतरमस्स उस्साहं कत्वा 234 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.३२३-३२४) ब्राह्मणमहासालादीनं आमन्तनावण्णना २३५ उपसङ्कमि । एवं समचिन्तेसुन्ति रञो चिन्तितनयेनेव कदाचि ब्राह्मणस्स भोगा परिहीना भवेय्युन्ति मञ्जमाना समचिन्तेसुं। धनेन सिक्खेय्यामाति उपलापेय्याम सङ्गण्हेय्याम । तावतकं आहरीयतन्ति तावतकं आहरापियतु गण्हियतु, यत्तकं इच्छथ, तत्तकं गण्हथाति वुत्तं होति । भवन्तानंयेव वाहसाति भवन्ते पच्चयं कत्वा, तुम्हेहि दिन्नत्तायेव पहूतं सापतेय्यं जातं । ३२३. सचे जहथ कामानीति सचे वत्थुकामे च किलेसकामे च परिच्चजथ । यस्थ सत्तो पुथुज्जनोति येसु कामेसु पुथुज्जनो सत्तो लग्गो लग्गितो। आरम्भ हो दब्हा होथाति एवं सन्ते वीरियं आरभथ, असिथिलपरक्कमतं अधिट्ठाय दळ्हा भवथ । खन्तीबलसमाहिताति खन्तिबलेन समन्नागता भवथाति राजूनं उस्साहं जनेति । एस मग्गो उजुमग्गोति एस करुणाझानमग्गो उजुमग्गो नाम । एस मग्गो अनुत्तरोति एसेव ब्रह्मलोकूपपत्तिया असदिसमग्गो उत्तममग्गो नाम । सद्धम्मो सब्मि रक्खितोति एसो एव च बुद्धपच्चेकबुद्धसावकेहि सब्भिरक्खितधम्मो नाम । इति करुणाझानस्स वण्णभणनेनापि तेसं अनिवत्तनत्थाय दळहीकम्ममेव करोति । को नु खो पन भो जानाति जीवितानन्ति भो जीवितं नाम उदकपुप्फुळूपमं तिणग्गे उस्सावबिन्दूपमं तङ्खणविद्धंसनधम्म, तस्स को गतिं जानाति, किस्मिं खणे भिज्जिस्सति ? गमनीयो सम्परायोति परलोको पन अवस्सं गन्तब्बोव, तत्थ पण्डितेन कुलपुत्तेन मन्तायं बोद्धब्बं। मन्ता वुच्चति पञा, ताय मन्तेतब्बं बुज्झितब्द, उपपरिक्खितब्बञ्च जानितब्बञ्चाति अत्थो | करणत्थे वा भुम्मं । मन्तायं बोद्धब्बन्ति मन्ताय बुज्झितब्बं, आणेन जानितब्बन्ति अत्थो । किं बुज्झितब्बं ? जीवितस्स दुज्जानता, सम्परायस्स च अवस्सं गमनीयता, बुज्झित्वा च पन सब्बपलिबोधे छिन्दित्वा कत्तब्बं कुसलं चरितबं ब्रह्मचरियं । कस्मा ? यस्मा नत्थि जातस्स अमरणं । ब्राह्मणमहासालादीनं आमन्तनावण्णना ३२४. अप्पेसक्खा च अप्पलामा चाति भो पब्बज्जा नाम अप्पयसा चेव, पब्बजितकालतो पट्ठाय हि रज्जं पहाय पब्बजितं विहेठेत्वा विहेठेत्वा लामकं अनाथं कत्वाव कथेन्ति । अप्पलाभा च, सकलगाम चरित्वापि अज्झोहरणीयं दुल्लभमेव । इदं पन 235 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (६.३२५-३२८) ब्रह्मज्ञं महेसक्खञ्च महायसत्ता, महालाभञ्च लाभसक्कारसम्पन्नत्ता। भवहि एतरहि सकलजम्बुदीपे अग्गपुरोहितो सब्बत्थ अग्गासनं अग्गोदकं अग्गभत्तं अग्गगन्धं अग्गमालं लभतीति । राजाव रञ्जन्ति अहहि भो एतरहि पकतिरनं मज्झे चक्कवत्तिराजा विय । ब्रह्माव ब्रह्मानन्ति पकतिब्रह्मानं मज्झे महाब्रह्मसदिसो । देवताव गहपतिकानन्ति अवसेसगहपतिकानं पनम्हि सक्कदेवराजसदिसो । भरियानं आमन्तनावण्णना ___३२५. चत्तारीसा भरिया सादिसियोति सादिसियोव चत्तारीसा भरिया, अञा पनस्स तीसु वयेसु नाटकित्थियो बहुकायेव । महागोविन्दपब्बज्जावण्णना ३२६. चारिकं चरतीति गामनिगमपटिपाटिया चारिकं चरति, गतगतहाने बुद्धकोलाहलं विय होति । मनुस्सा “महागोविन्दपण्डितो किर आगच्छती"ति सुत्वा पुरेतरमेव मण्डपं कारेत्वा मग्गं अलङ्करित्वा पच्चुग्गन्त्वा गण्हित्वा एन्ति, महालाभसक्कारो महोघो विय अज्झोत्थरन्तो उप्पज्जि । सत्तपुरोहितस्साति सत्तन्नं राजूनं पुरोहितस्स | इति यथा एतरहि एवरूपेसु वा ठानेसु किस्मिञ्चिदेव दुक्खे उप्पन्ने “नमो बुद्धस्सा"ति वदन्ति, एवं तदा “नमत्थु महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स, नमत्थु सत्तपुरोहितस्सा"ति वदन्ति । ३२७. मेत्तासहगतेनातिआदिना नयेन पाळियं ब्रह्मविहाराव आगता, महापुरिसो पन सब्बापि अट्ठ समापत्तियो च पञ्च च अभिजायो निब्बत्तेसि । सावकानञ्च ब्रह्मलोकसहब्यताय मग्गं देसेसीति ब्रह्मलोके ब्रह्मना सहभावाय मग्गं कथेसि । ___३२८. सब्बेनसब्बन्ति ये अट्ठ च समापत्तियो पञ्च च अभिज्ञायो निब्बत्तेसुं। ये न सब्बेन सब्बं सासनं आजानिसूति ये अट्ठसु समापत्तीसु एकसमापत्तिम्पि न जानिंसु, न सक्खिंसु निब्बत्तेतुं । अमोघाति सविपाका । अवञ्झाति न वझा। सब्बनिहीनं पसवन्ति 236 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.३२९ - ३३० ) गन्धब्बकायं पसवि । सफलाति अवसेसदेवलोकूपपत्तीहि सात्था | सउद्रयाति ब्रह्मलोकूपपत्तया वुड। महागोविन्दपब्बज्जावण्णना ३२९. सरामहन्ति सरामि अहं पञ्चसिख, इमिना किर पदेन अयं सुत्तन्तो बुद्धभासितो नाम जाती । न निब्बिदायाति न वट्टे निब्बिन्दनत्थाय । न विरागायाति न वट्टे विरागत्थाय । न निरोधायाति न वट्टस्स निरोधत्थाय । न उपसमायाति न वट्टस्स उपसमनत्थाय । न अभिज्ञायाति न वट्टं अभिजाननत्थाय । न सम्बोधायाति न किलेसनिद्दाविगमेन वट्टतो पबुज्झनत्थाय । न निब्बानायाति न अमतनिब्बानत्थाय | एकन्तनिब्बिदायाति एकन्तमेव वट्टे निब्बिन्दनत्थाय । एत्थ पन निब्बिदायाति विपस्सना | विरागायाति मग्गो । निरोधाय उपसमायाति निब्बानं । अभिज्ञाय सम्बोधायाति मग्गो। निब्बानायाति निब्बानमेव । एवं एकस्मिं ठाने विपस्सना, तीसु मग्गो, तीसु निब्बानं वुत्तन्ति एवं ववत्थानकथा वेदितब्बा । परियायेन पन सब्बानिपेतानि मग्गवेवचनानिपि निब्बानवेवचनानिपि होन्तियेव । सम्मादिट्ठिआदीसु यं वत्तब्बं, तं विसुद्धिमग्गे सच्चवण्णनायं वुत्तमेव । २३७ ३३०. ये न सब्बेनसब्बन्ति ये चत्तारोपि अरियमग्गे परिपूरेतुं न जानन्ति, तीणि वा द्वे वा एकं वा निब्बत्तेन्ति । सब्बेसंयेव इमेसं कुलपुत्तानन्ति ब्रह्मचरियचिण्णकुलपुत्तानं । अमोघा...पे०... सफला सउद्रयाति अरहत्तनिकूटेन देसनं निट्ठापेसि | भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वाति (दी० नि० २.१८८) भगवतो धम्मदेसनं चित्तेन सम्पटिच्छन्तो अभिनन्दित्वा वाचाय पसंसमानो अनुमोदित्वा महन्तं अञ्जलिं सिरस्मिं पतिट्ठपेत्वा पसन्नलाखारसे निमुज्जमानो विय दसबलस्स छब्बण्णरस्मिजालन्तरं पविसित्वा चतूसु ठानेसु वन्दित्वा तिक्खत्तुं पदक्खिणं कत्वा भगवन्तं अभित्थवन्तो अभित्यवन्तो सत्थु पुरतो अन्तरधायित्वा अत्तनो देवलोकमेव अगमासीति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं महागोविन्दसुत्तवण्णना निट्ठिता । 237 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. महासमयसुत्तवण्णना निदानवण्णना ३३१. एवं मे सुतन्ति महासमयसुत्तं । तत्रायमपुब्बपदवण्णना सक्केसूति अम्बट्ठत्ते वत्तेन उप्पत्तिनयेन "सक्या वत, भो कुमारा ति उदानं पटिच्च सक्काति लद्धनामानं राजकुमारानं निवासो एकोपि जनपदो रुळ्हीसद्देन “सक्का "ति वुच्चति, तस्मिं सक्के जनपदे । महावनेति सयंजाते अरोपिते हिमवन्तेन सद्धिं एकाबद्धे महति वने । सब्बेहेव अरहन्तेहीति इमं सुत्तं कथितदिवसेयेव पत्तअरहत्तेहि । तत्रायं अनुपुब्बिकथा - साकियकोलिया किर कपिलवत्थुनगरस्स च कोलियनगरस्स च अन्तरे रोहिणिं नाम नदिं एकेनेव आवरणेन बन्धापेत्वा सस्सानि करोन्ति, अथ मूलमासे सस्सेसु मिलायन्तेसु उभयनगरवासिकानम्पि कम्मकरा सन्निपतिंसु । तत्थ कोलियनगरवासिनो आहंसु - “ इदं उदकं उभतो हरियमानं न तुम्हाकं न अम्हाकं पहोस्सति, अम्हाकं पन सस्सं एकेन उदकेनेव निप्फज्जिस्सति, इदं उदकं अम्हाकं देथा’'ति । कपिलवत्थुनगरवासिनो आहंसु - “तुम्हेसु कोट्ठे पूरेत्वा ठितेसु मयं रत्तसुवण्णनीलमणिकाळकहापणे च गहेत्वा पच्छिपसिब्बकादिहत्था न सक्खिस्साम तुम्हाकं घरद्वारे विचरितुं, अम्हाकम्पि सस्सं एकेनेव उदकेन निप्फज्जिस्सति इदं उदकं अम्हाकं देथा ''ति । “न मयं दस्सामा "ति । "मयम्पि न दस्सामा ''ति । एवं कलहं वड्डेत्वा एको उट्ठाय एकस्स पहारं अदासि, सोपि अञ्ञस्साति एवं अञ्ञमञ्ञं पहरित्वा राजकुलानं जातिं घट्टेत्वा कलहं वड्डयिंसु । कोलियकम्मकरा वदन्ति - " तुम्हे कपिलवत्थुवासिके गहेत्वा गज्जथ, ये सोणसिङ्गालादयो विय अत्तनो भगिनीहि सद्धिं संवसिंसु । एतेसं हत्थिनो च अस्सा च - 238 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.३३१-३३१) निदानवण्णना २३९ फलकावुधानि च अम्हाकं किं करिस्सन्ती"ति ? साकियकम्मकरापि वदन्ति- "तुम्हे दानि कुट्टिनो दारके गहेत्वा गज्जथ, ये अनाथा निग्गतिका तिरच्छाना विय कोलरुक्खे वसिंसु, एतेसं हत्थिनो च अस्सा च फलकावुधानि च अम्हाकं किं करिस्सन्ती"ति? ते गन्त्वा तस्मिं कम्मे नियुत्तअमच्चानं कथेसुं, अमच्चा राजकुलानं कथेसुं, ततो साकिया"भगिनीहि सद्धिं संवासिकानं थामञ्च बलञ्च दस्सेस्सामा"ति युद्धसज्जा निक्खमिंसु । कोलियापि- "कोलरुक्खवासीनं थामञ्च बलञ्च दस्सेस्सामा'"ति युद्धसज्जा निक्खमिंसु । भगवापि रत्तिया पच्चूससमयेव महाकरुणासमापत्तितो वुट्ठाय लोकं वोलोकेन्तो इमे एवं युद्धसज्जे निक्खमन्ते अद्दस | दिस्वा- “मयि गते अयं कलहो वूपसमिस्सति नु खो उदाहु नो"ति उपधारेन्तो- “अहमेत्थ गन्त्वा कलहवूपसमनत्थं तीणि जातकानि कथेस्सामि, ततो कलहो वूपसमिस्सति । अथ सामग्गिदीपनत्थाय द्वे जातकानि कथेत्वा अत्तदण्डसुत्तं देसेस्सामि। देसनं सुत्वा उभयनगरवासिनोपि अड्डतियानि अड्डतियानि कुमारसतानि दस्सन्ति, अहं ते पब्बजिस्सामि, तदा महासमागमो भविस्सती"ति सन्निट्ठानमकासि । तस्मा इमेसु युद्धसज्जेसु निक्खमन्तेसु कस्सचि अनारोचेत्वा सयमेव पत्तचीवरमादाय गन्त्वा द्विन्नं सेनानं अन्तरे आकासे पल्लङ्कं आभुजित्वा छब्बण्णरस्मियो विस्सज्जेत्वा निसीदि। कपिलवत्थुवासिनो भगवन्तं दिस्वाव - “अम्हाकं जातिसेट्ठो सत्था आगतो, दिट्ठो नु खो तेन अम्हाकं कलहकारणभावो"ति चिन्तेत्वा- “न खो पन सक्का भगवति आगते अम्हेहि परस्स सरीरे सत्थं पातेतुं, कोलियनगरवासिनो अम्हे हनन्तु वा पचन्तु वा"ति आवुधानि छड्डत्वा भगवन्तं वन्दित्वा निसीदिंसु । कोलियनगरवासिनोपि तथैव चिन्तेत्वा आवुधानि छड्डेत्वा भगवन्तं वन्दित्वा निसीदिंसु । भगवा जानन्तोव – “कस्मा आगतत्थ महाराजा'"ति पुच्छि । भगवा, न तित्थकीळाय न पब्बतकीळाय न नदीकीळाय न गिरिदस्सनत्थं, इमस्मिं पन ठाने सङ्गामं पच्चुपट्ठपेत्वा आगतम्हाति । किं निस्साय वो कलहो महाराजाति ? उदकं, भन्तेति । उदकं किं अग्धति महाराजाति ? अप्पग्छ, भन्तेति । पथवी नाम किं अग्घति महाराजाति ? अनग्धा, भन्तेति । खत्तिया किं अग्घन्ति महाराजाति ? खत्तिया नाम अनग्घा भन्तेति । अप्पमूलकं उदकं निस्साय किमत्थं अनग्घे खत्तिये नासेथ, महाराजाति ? "कलहे अस्सादो नाम नत्थि, कलहवसेन महाराजा अट्ठाने वेरं कत्वा एकाय रुक्खदेवताय काळसीहेन सद्धिं 239 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (७.३३१-३३१) बद्धाघातो सकलम्पि इमं कप्पं अनुप्पत्तोयेवा"ति वत्वा फन्दनजातकं कथेसि । ततो "परपत्तियेन नाम महाराजा न भवितब्बं । परपत्तिया हुत्वा हि एकस्स ससकस्स कथाय तियोजनसहस्सविस्थते हिमवन्ते चतुप्पदगणा महासमुदं पक्खन्दिनो अहेसुं। तस्मा परपत्तियेन न भवितब्बन्ति वत्वा पथवीउन्द्रियजातकं कथेसि । ततो- “कदाचि, महाराजा, दुब्बलोपि महब्बलस्स रन्धं विवरं पस्सति, कदाचि महब्बलो दुब्बलस्स | लटुकिकापि हि सकुणिका हत्थिनागं घातेसी"ति वत्वा लटुकिकजातकं कथेसि । एवं कलहवूपसमत्थाय तीणि जातकानि कथेत्वा सामग्गिपरिदीपनत्थाय द्वे जातकानि कथेसि । कथं ? समग्गानहि महाराजा कोचि ओतारं नाम पस्सितुं न सक्कोतीति वत्वा रुक्खधम्मजातकं कथेसि । ततो “समग्गानं महाराजा कोचि विवरं पस्सितुं नासक्खि । यदा पन अञमजं विवादमकंसु, अथ ते नेसादपुत्तो जीविता वोरोपेत्वा आदाय गतो। विवादे अस्सादो नाम नत्थी"ति वत्वा वट्टकजातकं कथेसि । एवं इमानि पञ्च जातकानि कथेत्वा अवसाने अत्तदण्डसुत्तं कथेसि | राजानो पसन्ना - "सचे सत्था नागमिस्स, मयं सहत्था अञमजेयेव वधित्वा लोहितनदिं पवत्तयिस्साम, अम्हाकं पुत्तभातरो गेहद्वारे न पस्सेय्याम, सासनपटिसासनम्पि नो आहरणको न भविस्सति । सत्थारं निस्साय नो जीवितं लद्धं । सचे पन सत्था अगारं अज्झावसिस्स, द्विसहस्सदीपपरिवारेसु चतूसु महादीपेसु रज्जमस्स हत्थगतं अभविस्स, अतिरेकसहस्सं खो पनस्स पुत्ता अभविस्संसु, ततो खत्तियपरिवारोव अविचरिस्स । तं खो पनेस सम्पत्तिं पहाय निक्खमित्वा सम्बोधिं पत्तो, इदानिपि खत्तियपरिवारोयेव विचरतू"ति उभयनगरवासिनो अड्डतियानि अड्डतियानि कुमारसतानि अदंसु । भगवा ते पब्बाजेत्वा महावनं अगमासि । तेसं गरुगारववसेन न अत्तनो रुचिया पब्बजितानं अनभिरति उप्पज्जि। पुराणदुतियिकायोपि नेसं "अय्यपुत्ता उक्कण्ठन्तु, घरावासो न सण्ठाती"तिआदीनि वत्वा सासनं पेसेन्ति । ते अतिरेकतरं उक्कण्ठिंसु । भगवा आवज्जन्तो तेसं अनभिरतभावं अत्वा “इमे भिक्खू मादिसेन बुद्धेन सद्धिं एकतो वसन्ता उक्कण्ठन्ति, हन्द नेसं कुणालदहस्स वण्णं कथेत्वा तत्थ नेत्वा अनभिरतिं विनोदेस्सामी"ति कुणालदहस्स वण्णं कथेसि । ते तं दद्रुकामा अहेसुं। दद्रुकामत्थ, भिक्खवे, कुणालदहन्ति ? आम भगवाति | यदि एवं, एथ, गच्छामाति । इद्धिमन्तानं भगवा गमनट्ठानं मयं कथं गमिस्सामाति ? तुम्हे गन्तुकामा होथ, अहं ममानुभावेन गहेत्वा गमिस्सामीति । साधु, भन्तेति । अथ भगवा पञ्च भिक्खुसतानि गहेत्वा आकासे 240 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.३३१-३३१) निदानवण्णना २४१ उप्पतित्वा कुणालदहे पतिट्ठाय ते भिक्खू आह - "भिक्खवे, इमस्मिं कुणालदहे येसं मच्छानं नामं न जानाथ, तेसं नामं पुच्छथा"ति । ते पुच्छिंसु, भगवा पुच्छितपुच्छितं कथेसि । न केवलं मच्छानंयेव, तस्मिं वनसण्डे रुक्खानम्पि पब्बतपादे द्विपदचतुप्पदसकुणानम्पि नामानि पुच्छापेत्वा कथेसि । अथ द्वीहि सकुणेहि मुखतुण्डकेन डंसित्वा गहितदण्डके निसिन्नो कुणालसकुणराजा पुरतो पच्छतो उभोसु पस्सेसु सकुणसङ्घपरिवुतो आगच्छति । भिक्खू तं दिस्वा- “एस, भन्ते, इमेसं सकुणानं राजा भविस्सति, परिवारा एते एतस्सा"ति मञआमाति । एवमेव, भिक्खवे, अयम्पि मम वंसो मम पवेणीति | इदानि ताव मयं, भन्ते, एते सकुणे पस्साम । यं पन भगवा "अयम्पि मम वंसो मम पवेणी"ति आह, तं सोतकामम्हाति । सोतकामस्थ भिक्खवेति ? आम, भगवाति । तेन हि सुणाथाति तीहि गाथासतेहि मण्डेत्वा कुणालजातकं कथेन्तो अनभिरतिं विनोदेसि । देसनापरियोसाने सब्बेपि सोतापत्तिफले पतिद्वहिंसु, मग्गेनेव च नेसं इद्धिपि आगता। भगवा - "होतु ताव एत्तकं एतेसं भिक्खून''न्ति आकासे उप्पतित्वा महावनमेव अगमासि । तेपि भिक्खू गमनकाले दसबलस्स आनुभावेन गन्त्वा आगमनकाले अत्तनो आनुभावेन भगवन्तं परिवारेत्वा महावने ओतरिंसु । भगवा पञत्तासने निसीदित्वा ते भिक्खू आमन्तेत्वा – “एथ, भिक्खवे, निसीदथ, उपरिमग्गत्तयवज्झानं वो किलेसानं पहानाय कम्मट्ठानं कथेस्सामी"ति कम्मट्ठानं कथेसि । भिक्खू चिन्तेसुं- “भगवा अम्हाकं अनभिरतभावं अत्वा कुणालदहं नेत्वा अनभिरतिं विनोदेसि, तत्थ सोतापत्तिफलप्पत्तानं नो इदानि इध तिण्णं मग्गानं कम्मट्ठानं अदासि, न खो पनम्हेहि ‘सोतापन्ना मय'न्ति वीतिनामेतुं वट्टति, उत्तमपुरिससदिसेहि नो भवितुं वट्टती"ति ते दसबलस्स पादे वन्दित्वा उट्ठाय निसीदनं पप्फोटेत्वा विसुं विसु पब्भाररुक्खमूलेसु निसीदिंसु । भगवा चिन्तेसि - "इमे भिक्खू पकतियापि अविस्सट्ठकम्मट्ठाना, लद्धपायस्स पन भिक्खनो किलमनकारणं नाम नत्थि। गच्छन्ता गच्छन्ता च विपस्सनं वडेत्वा अरहत्तं पत्वा- “अत्तना अत्तना पटिलद्धगुणं आरोचेस्सामा ति मम सन्तिकं आगमिस्सन्ति । एतेसु आगतेसु दससहस्सचक्कवाळे देवता एकचक्कवाळे सन्निपतिस्सन्ति, महासमयो भविस्सति, विवित्ते ओकासे मया निसीदितुं वट्टती''ति । ततो विवित्ते ओकासे बुद्धासनं पञपेत्वा निसीदि। 241 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (७.३३१-३३१) सब्बपठमं कम्मट्ठानं गहेत्वा गतथेरो सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं पापुणि । ततो अपरो ततो अपरोति पञ्चसतापि पदुमिनियं पदुमानि विय विकसिंसु । सब्बपठमं अरहत्तप्पत्तभिक्खु - "भगवतो आरोचेस्सामी"ति पल्लवं विनिब्भुजित्वा निसीदनं पप्फोटेत्वा उट्ठाय दसबलाभिमुखो अहोसि। एवं अपरोपि अपरोपीति पञ्चसतापि भत्तसालं पविसन्ता विय पटिपाटियाव आगमंसु । पठमं आगतो वन्दित्वा निसीदनं पचपेत्वा एकमन्तं निसीदित्वा पटिलद्धगुणं आरोचेतुकामो- “अत्थि नु खो अञ्जो कोचि, नत्थी'"ति निवत्तित्वा आगमनमग्गं ओलोकेन्तो अपरम्प अद्दस अपरम्प अद्दस । इति सब्बेपि ते आगन्त्वा एकमन्तं निसीदित्वा अयं इमस्स हरायमानो न कथेसि, अयं इमस्स हरायमानो न कथेसीति । खीणासवानं किर द्वे आकारा होन्ति- “अहो वत मया पटिलद्धगुणं सदेवको लोको खिप्पमेव पटिविज्झेय्या"ति चित्तं उप्पज्जति । पटिलद्धभावं पन निधिलद्धपुरिसो विय न अचस्स आरोचेतुकामो होति । एवं ओसीदमत्ते पन तस्मिं अरियमण्डले पाचीनयुगन्धरपरिक्खेपतो अब्भा, महिका, धूमो, रजो, राहूति इमेहि उपक्किलेसेहि विप्पमुत्तं बुद्धप्पादपटिमण्डितस्स लोकस्स रामणेय्यकदस्सनत्थं पाचीनदिसाय उक्खित्तरजतमयमहाआदासमण्डलं विय, नेमिवट्टियं गहेत्वा परिवत्तियमानरजतचक्कसस्सिरिकं पुण्णचन्दमण्डलं उल्लचित्वा अनिलपथं पटिपज्जित्थ । इति एवरूपे खणे लये मुहुत्ते भगवा सक्केसु विहरति कपिलवत्थुस्मिं महावने महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि सब्बेहेव अरहन्तेहि । तत्थ भगवापि महासम्मतस्स वंसे उप्पन्नो, तेपि पञ्चसता भिक्खू महासम्मतस्स कुले उप्पन्ना। भगवापि खत्तियगब्भे जातो, तेपि खत्तियगब्भे जाता। भगवापि राजपब्बजितो, तेपि राजपब्बजिता । भगवापि सेतच्छत्तं पहाय हत्थगतं चक्कवत्तिरज्ज निस्सज्जेत्वा पब्बजितो, तेपि सेतच्छत्तं पहाय हत्थगतानि रज्जानि निस्सज्जेत्वा पब्बजिता। इति भगवा परिसुद्धे ओकासे परिसुद्धे रत्तिभागे सयं परिसुद्धो परिसुद्धपरिवारो वीतरागो वीतरागपरिवारो वीतदोसो वीतदोसपरिवारो वीतमोहो वीतमोहपरिवारो नित्तण्हो नित्तण्हपरिवारो निक्किलेसो निक्किलेसपरिवारो सन्तो सन्तपरिवारो दन्तो दन्तपरिवारो मुत्तो मुत्तपरिवारो अतिविय विरोचतीति । वण्णभूमि नामेसा, यत्तकं सक्कोति, तत्तकं वत्तब्बं | इति इमे भिक्खू सन्धाय वुत्तं - “पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि सब्बेहेव अरहन्तेही"ति । 242 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.३३१-३३१) निदानवण्णना २४३ येभुय्येनाति बहुतरा सन्निपतिता, मन्दा न सन्निपतिता असञआ अरूपावचरदेवता समापन्नदेवता च । तत्रायं सन्निपातक्कमो महावनस्स किर सामन्ता देवता चलिंसु"आयाम, भो बुद्धदस्सनं नाम बहूपकारं, धम्मस्सवनं बहूपकारं, भिक्खुसङ्घदस्सनं बहूपकारं, आयाम आयामा"ति महासदं कुरुमाना आगन्त्वा भगवन्तञ्च तंमुहुत्तं अरहत्तप्पत्तखीणासवे च वन्दित्वा एकमन्तं अटुंसु । एतेनेव उपायेन तासं तासं सई सुत्वा सद्दन्तरअड्डगावुतगावुतअड्ढयोजनयोजनादिवसेन तियोजनसहस्सवित्थते हिमवन्ते, तिक्खत्तुं तेसट्ठिया नगरसहस्सेसु, नवनवुतिया दोणमुखसतसहस्सेसु, छन्नवुतिया पट्टनकोटिसतसहस्सेसु, छपण्णासाय रतनाकरसूति सकलजम्बुदीपे, पुब्बविदेहे, अपरगोयाने, उत्तरकुरुम्हि, द्वीसु परित्तदीपसहस्सेसूति सकलचक्कवाळे, ततो दुतियततियचक्कवाळेति एवं दससहस्सचक्कवाळेसु देवता सन्निपतिताति वेदितब्बा । दससहस्सचक्कवाळहि इध दसलोकधातुयोति अधिप्पेता। तेन वुत्तं- “दसहि च लोकधातूहि देवता येभुय्येन सन्निपतिता होन्ती"ति। एवं सन्निपतिताहि देवताहि सकलचक्कवाळगब्भं याव ब्रह्मलोका सूचिघरे निरन्तरं पक्खित्तसूचीहि विय परिपुण्णं होति । तत्र ब्रह्मलोकस्स एवं उच्चत्तनं वेदितब्बं । लोहपासादे किर सत्तकूटागारसमो पासाणो ब्रह्मलोके ठत्वा अधो खित्तो चतूहि मासेहि पथविं पापुणाति । एवं महन्ते ओकासे यथा हेट्ठा ठत्वा खित्तानि पुप्फानि वा धूमो वा उपरि गन्तुं, उपरि वा ठत्वा खित्तसासपा हेट्ठा ओतरितुं अन्तरं न लभन्ति, एवं निरन्तरं देवता अहेसुं । यथा खो पन चक्कवत्तिरओ निसिन्नट्ठानं असम्बाधं होति, आगतागता महेसक्खा खत्तिया ओकासं लभन्तियेव, परतो परतो पन अतिसम्बाधं होति, एवमेव भगवतो निसिन्नट्टानं असम्बाधं, आगतागता महेसक्खा देवता च महाब्रह्मानो च ओकासं लभन्तियेव । अपिसुदं भगवतो आसन्नासन्नट्ठाने महापरिनिब्बाने वुत्तनयेनेव वालग्गकोटिनितुदनमत्ते पदेसे दसपि वीसम्पि सब्बपरतो तिंसम्पि देवता सुखुमे सुखुमे अत्तभावे मापेत्वा अटुंसु । सट्ठि सट्ठि देवता अटुंसु । सुद्धावासकायिकानन्ति सुद्धावासवासीनं । सुद्धावासा नाम सुद्धानं अनागामिखीणासवानं आवासा पञ्च ब्रह्मलोका । एतदहोसीति कस्मा अहोसि ? ते किर ब्रह्मानो समापत्तिं समापज्जित्वा यथापरिच्छेदेन बुट्ठिता ब्रह्मभवनं ओलोकेन्ता पच्छाभत्ते भत्तगेहं विय सुचतं अद्दसंसु । ततो "कुहिं ब्रह्मानो गता"ति आवज्जन्ता महासमागमं ञत्वा - “अयं समागमो महा, मयं ओहीना, ओहीनकानं ओकासो दुल्लभो होति, 243 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (७.३३२-३३२) तस्मा गच्छन्ता अतुच्छहत्था हुत्वा एकेकं गाथं अभिसङ्खरित्वा गच्छाम । ताय महासमागमे च अत्तनो आगतभावं जानापेस्साम, दसबलस्स च वण्णं भासिस्सामा"ति । इति तेसं समापत्तितो वुट्ठाय आवज्जितत्ता एतदहोसि । __ ३३२. भगवतो पुरतो पातुरहेसुन्ति पाळियं भगवतो सन्तिके अभिमुखट्टानेयेव ओतिण्णा विय कत्वा वुत्ता, न खो पनेत्थ एवं अत्थो वेदितब्बो । ते पन ब्रह्मलोके ठितायेव गाथा अभिसङ्खरित्वा एको पुरथिमचक्कवाळमुखवट्टियं ओतरि, एको दक्खिणचक्कवाळमुखवट्टियं, एको पच्छिमचक्कवाळमुखवट्टियं, एको उत्तरचक्कवाळमुखवट्टियं ओतरि। ततो पुरथिमचक्कवाळमुखवट्टियं ओतिण्णब्रह्मा नीलकसिणं समापज्जित्वा नीलरस्मियो विस्सज्जित्वा दससहस्सचक्कवाळदेवतानं मणिचम्म पटिमुञ्चन्तो विय अत्तनो आगतभावं जानापेत्वा बुद्धवीथि नाम केनचि ओत्थरितुं न सक्का, तस्मा पहटबुद्धवीथियाव आगन्त्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि | एकमन्तं ठितो अत्तना अभिसङ्घतं गाथं अभासि । दक्खिणचक्कवाळमुखवट्टियं ओतिण्णब्रह्मापि पीतकसिणं समापज्जित्वा पीतरस्मियो सवण्णपभं मञ्चित्वा दससहस्सचक्कवाळदेवतानं सुवण्णपटं पारुपेन्तो विय अत्तनो आगतभावं जानापेत्वा तथैव अट्ठासि । पच्छिमचक्कवाळमुखवट्टियं ओतिण्णब्रह्मापि लोहितकसिणं समापज्जित्वा लोहितरस्मियो मुञ्चित्वा दससहस्सचक्कवाळदेवतानं रत्तवरकम्बलेन परिक्खिपन्तो विय अत्तनो आगतभावं जानापेत्वा तथेव अट्टासि । उत्तरचक्कवाळमुखवट्टियं ओतिण्णब्रह्मापि ओदातकसिणं समापज्जित्वा ओदातरस्मियो मुञ्चित्वा दससहस्सचक्कवाळदेवतानं सुमनपटं पारुपन्तो विय अत्तनो आगतभावं जानापेत्वा तथेव अट्टासि ।। पाळियं पन “भगवतो पुरतो पातुरहेसुं । अथ खो ता देवता भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अटुंसूति एवं एकक्खणं विय पुरतो पातुभावो च अभिवादेत्वा एकमन्तं ठितभावो च वुत्तो, सो इमिना अनुक्कमेन अहोसि, एकतो कत्वा पन दस्सितो । गाथाभासनं पन पाळियं विसुं विसुंयेव वुत्तं । तत्थ महासमयोति महासमूहो । पवनं वुच्चति वनसण्डो। उभयेनपि भगवा इमस्मिं वनसण्डे अज्ज महासमूहो महासन्निपातोति आह । ततो येसं सो सन्निपातो, ते दस्सेतुं 244 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.३३३-३३३) देवतासन्निपातवण्णना २४५ देवकाया समागताति आह । तत्थ देवकायाति देवघटा। आगतम्ह इमं धम्मसमयन्ति एवं समागते देवकाये दिस्वा मयम्पि इमं धम्मसमूहं आगता। किं कारणा ? दक्खिताये अपराजितसङ्ख, केनचि अपराजितं अज्जेव तयो मारे महित्वा विजितसङ्गामं इमं अपराजितसचं दस्सनत्थाय आगतम्हाति अत्थो । सो पन ब्रह्मा इमं गाथं भासित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा पुरथिमचक्कवाळमुखवट्टियंयेव अट्ठासि । __अथ दुतियो वुत्तनयेनेव आगन्त्वा अभासि । तत्थ तत्र भिक्खवोति तस्मिं सन्निपातट्ठाने भिक्खू । समादहंसूति समाधिना योजेसुं। चित्तमत्तनो उजुकं अकंसूति अत्तनो चित्तं सब्बे वङ्ककुटिलजिम्हभावे हरित्वा उजुकं अकरिंसु । सारथीव नेत्तानि गहेत्वाति यथा समप्पवत्तेसु सिन्धवेसु ओधस्तपतोदो सारथि सब्बयोत्तानि गहेत्वा अचोदेन्तो अवारेन्तो तिट्ठति, एवं छळमुपेक्खासमन्नागता गुत्तद्वारा सब्बेपेते पञ्चसता भिक्खू इन्द्रियानि रक्खन्ति पण्डिता, एते दटुं इधागतम्ह भगवाति । सोपि गन्त्वा यथाठानेयेव अट्टासि । अथ ततियो वुत्तनयेनेव आगन्त्वा अभासि । तत्थ छेत्वा खीलन्ति रागदोसमोहखीलं छिन्दित्वा । पलिघन्ति रागदोसमोहपलिघमेव । इन्दखीलन्तिपि रागदोसमोहइन्दखीलमेव । ऊहच्च मनेजाति एते तण्हाएजाय अभावेन अनेजा भिक्खू इन्दखीलं ऊहच्च समूहनित्वा । ते चरन्तीति चतूसु दिसासु अप्पटिहतचारिकं चरन्ति । सुद्धाति निरुपक्किलेसा । विमलाति निम्मला । इदं तस्सेव वेवचनं । चक्खुमताति पञ्चहि चक्खूहि चक्खुमन्तेन । सुदन्ताति चक्खुतोपि दन्ता, सोततोपि घानतोपि जिव्हातोपि कायतोपि मनतोपि दन्ता । सुसुनागाति तरुणनागा। ते एवरूपेन अनुत्तरेन योगाचरियेन दमिते तरुणनागे दस्सनाय आगतम्ह भगवाति । सोपि गन्त्वा यथाठानेयेव अट्ठासि । अथ चतुत्थो वुत्तनयेनेव आगन्त्वा अभासि । तत्थ गतासेति निब्बेमतिकसरणगमनेन गता । सोपि गन्त्वा यथाठानेयेव अठ्ठासि । देवतासन्निपातवण्णना ___३३३. अथ भगवा ओलोकेन्तो पथवीतलतो याव चक्कवाळमुखवट्टिपरिच्छेदा याव अकनिट्ठब्रह्मलोका देवतासन्निपातं दिस्वा चिन्तेसि - "महा अयं देवतासमागमो, भिक्खू पन एवं महा देवताय समागमोति न जानन्ति, हन्द, नेसं आचिक्खामी'"ति, एवं 245 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (७.३३३-३३३) चिन्तेत्वा “अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसी"ति सब्बं वित्थारेतब्बं । तत्थ एतपरमाति एतं परमं पमाणं एतेसन्ति एतपरमा। इदानि बुद्धानं पन अभावा “येपि ते, भिक्खवे, एतरही''ति ततियो वारो न वुत्तो । आचिक्खिस्सामि, भिक्खवेति कस्मा आह ? देवतानं चित्तकल्लताजननत्थं । देवता किर चिन्तेसुं- "भगवा एवं महन्ते समागमे महेसक्खानंयेव देवतानं नामगोत्तानि कथेस्सति, अप्पेसक्खानं किं कथेस्सती'ति ? अथ भगवा “इमा देवता किं चिन्तेन्ती"ति आवज्जन्तो मुखेन हत्थं पवेसेत्वा हदयमंसं मद्दन्तो विय सभण्डं चोरं गण्हन्तो विय च तं तासं चित्ताचारं ञत्वा- "दससहस्सचक्कवाळतो आगतागतानं अप्पेसक्खमहेसक्खानं सब्बासम्पि देवतानं नामगोत्तं कथेस्सामी''ति चिन्तेसि । बुद्धा नाम महन्ता एते सत्तविसेसा, यं सदेवकस्स लोकस्स दिटुं सुतं मुतं विज्ञातं पत्तं परियेसितं अनुविचरितं मनसा, न किञ्चि कत्थचि नीलादिवसेन विभत्तरूपारम्मणेसु रूपारम्मणं वा भेरीसद्दादिवसेन विभत्तसद्दारम्मणादीसु विसुं विसुं सद्दादिआरम्मणं वा अस्थि, यं एतेसं आणमुखे आपाथं नागच्छति । यथाह - "यं भिक्खवे सदेवकस्स लोकस्स...पे०... सदेवमनुस्साय दिलृ सुतं मुतं विज्ञातं पत्तं परियेसितं अनुविचरितं मनसा, तमहं जानामि, तमहं पस्सामि, तमहं अब्भञासिन्ति (अ० नि० २.४.२४)। एवं सब्बत्थ अप्पटिहतञाणो भगवा सब्बापि ता देवता भब्बाभब्बवसेन द्वे कोट्ठासे अकासि । “कम्मावरणेन वा समन्नागता"तिआदिना नयेन वुत्ता सत्ता अभब्बा नाम । ते एकविहारे वसन्तेपि बुद्धा न ओलोकेन्ति । विपरीता पन भब्बा नाम, ते दूरे वसन्तेपि गन्त्वा सङ्गण्हन्ति । तस्मा तस्मिम्पि देवतासन्निपाते ये अभब्बा, ते पहाय भब्बे परिग्गहेसि । परिग्गहेत्वा - “एत्तका एत्थ रागचरिता, एत्तका दोसचरिता, एत्तका मोहचरिता"ति चरितवसेन छ कोट्ठासे अकासि । अथ नेसं सप्पायं धम्मदेसनं उपधारयन्तो- “रागचरितानं देवतानं सम्मापरिब्बाजनियसुत्तं कथेस्सामि, दोसचरितानं कलहविवादसुत्तं, मोहचरितानं महान्यूहसुत्तं, वितक्कचरितानं चूळव्यूहसुत्तं, सद्धाचरितानं तुवट्टकपटिपदं, बुद्धिचरितानं पुराभेदसुत्तं कथेस्सामी"ति देसनं ववत्थपेत्वा पुन तं परिसं मनसाकासि- “अत्तज्झासयेन नु खो जानेय्य, परज्झासयेन अत्थुप्पत्तिकेन पुच्छावसेना"ति । ततो "पुच्छावसेन जानेय्या"ति ञत्वा “अस्थि नु खो कोचि देवतानं अज्झासयं गहेत्वा चरितवसेन पहं पुच्छितुं समत्थो"ति “तेसु पञ्चसतेसु भिक्खूसु 246 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.३३३-३३३) देवतासन्निपातवण्णना २४७ एकोपि न सक्कोती"ति अद्दस । ततो असीतिमहासावके द्वे अग्गसावके च समन्नाहरित्वा "तेपि न सक्कोन्ती"ति दिस्वा चिन्तेसि “सचे पच्चेकबुद्धो भवेय्य, सक्कुणेय्य नु खो"ति “सोपि न सक्कुणेय्या''ति अत्वा “सक्कसुयामादीसु कोचि सक्कुणेय्या'"ति समन्नाहरि । सचे हि तेसु कोचि सक्कुणेय्य, तं पुच्छापेत्वा अत्तना विस्सज्जेय्य, न पन तेसुपि कोचि सक्कोति । अथस्स एतदहोसि - “मादिसो बुद्धोयेव सक्कुणेय्य, अत्थि पन कत्थचि अञ्जो बुद्धो''ति अनन्तासु लोकधातूसु अनन्ताणं पत्थरित्वा ओलोकेन्तो अझं बुद्धं न अद्दस । अनच्छरियञ्चेतं, यं इदानि अत्तना समं न पस्सेय्य, सो जातदिवसेपि ब्रह्मजालवण्णनायं वुत्तनयेन अत्तना समं अपस्सन्तो- "अग्गोहमस्मि लोकस्सा"ति अप्पटिवत्तियं सीहनादं नदि । एवं अञ्चं अत्तना समं अपस्सित्वा चिन्तेसि- "सचे अहं पुच्छित्वा अहमेव विस्सज्जेय्यं, एवम्पेता देवता न सक्खिस्सन्ति पटिविज्झितुं । अस्मिं पन बुद्धेयेव पुच्छन्ते मयि च विस्सज्जन्ते अच्छेरकं भविस्सति, सक्खिस्सन्ति च देवता पटिविज्झितुं, तस्मा निम्मितबुद्धं मापेस्सामी''ति अभिज्ञापादकज्झानं समापज्जित्वा वुट्ठाय - "पत्तचीवरगहणं आलोकितविलोकितं समिजितपसारितञ्च मम सदिसंयेव होतू''ति कामावचरचित्तेहि परिकम्मं कत्वा पाचीनयुगन्धरपरिक्खेपतो उल्लङ्घमानं चन्दमण्डलं भिन्दित्वा निक्खमन्तं विय रूपावचरचित्तेन अधिट्ठासि । देवसङ्घो तं दिस्वा- “अञोपि नु खो, भो, चन्दो उग्गतो"ति आह । अथ चन्दं ओहाय आसन्नतरे जाते "न चन्दो, सूरियो उग्गतो"ति, पुन आसन्नतरे जाते "न सूरियो, देवविमानं एक"न्ति, पुन आसन्नतरे जाते "न देवविमानं, देवपुत्तो एको'"ति, पुन आसन्नतरे जाते "न देवपुत्तो, महाब्रह्मा एको'ति, पुन आसन्नतरे जाते "न महाब्रह्मा, अपरोपि भो बुद्धो आगतो"ति आह । तत्थ पुथुज्जनदेवता चिन्तयिंसु"एकबुद्धस्स ताव अयं देवतासन्निपातो, द्विघ्नं कीव महन्तो भविस्सती"ति । अरियदेवता चिन्तयिंसु- “एकिस्सा लोकधातुया द्वे बुद्धा नाम नत्थि, अद्धा भगवता अत्तना सदिसो अञ्जो एको बुद्धो निम्मितो''ति । अथ तस्स देवसङ्घस्स पस्सन्तस्सेव निम्मितबुद्धो आगन्त्वा दसबलं अवन्दित्वाव सम्मुखवाने समसमं कत्वा मापिते आसने निसीदि। भगवतोपि द्वत्तिंस महापुरिसलक्खणानि, निम्मितस्सापि द्वत्तिंसाव, भगवतोपि सरीरा छब्बण्णरस्मियो 247 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (७.३३४-३३४) निक्खमन्ति, निम्मितस्सापि, भगवतो सरीररस्मियो निम्मितस्स सरीरे पटिहचन्ति. निम्मितस्स सरीररस्मियो भगवतो काये पटिहचन्ति। ता द्विन्नम्पि बुद्धानं सरीरतो उग्गम्म अकनिट्ठभवनं आहच्च ततो पटिनिवत्तित्वा देवतानं मत्थकपरियन्ते ओतरित्वा क्कवाळमखवद्रियं पतिहिंस। सकलचक्कवाळगब्भं सवण्णमयवङ्गोपानसीविनदमिव चेतियघरं विरोचित्थ । दससहस्सचक्कवाळदेवता एकचक्कवाळे रासिभूता द्विन्नं बुद्धानं रस्मिमब्भन्तरं पविसित्वा अटुंसु । निम्मितबुद्धो निसीदन्तोयेव दसबलस्स बोधिपल्लङ्के किलेसप्पहानं अभित्थवन्तो - "पुच्छामि मुनि पहूतपञ्ज, तिण्णं पारङ्गतं परिनिब्बुतं ठितत्तं । निक्खम्म घरा पनुज्ज कामे, कथं भिक्खु सम्मा सो लोके परिब्बजेय्या'ति ।। (सु० नि० ३६१) गाथं अभासि । सत्था देवतानं ताव चित्तकल्लताजननत्थं आगतागतानं नामगोत्तानि कथेस्सामीति चिन्तेत्वा आचिक्खिस्सामि, भिक्खवेतिआदिमाह । ३३४. तत्थ सिलोकमनुकस्सामीति अक्खरपदनियमितं वचनसङ्घातं पवत्तयिस्सामि । यस्थ भुम्मा तदस्सिताति येसु येसु ठानेसु भुम्मा देवता तं तं निस्सिता। ये सिता गिरिगभरन्तिआदीहि तेसं भिक्खूनं वणं कथेसि, ये भिक्खू गिरिकुच्छिं निस्सिताति अत्थो । पहितत्ताति पेसितचित्ता । समाहिताति अविक्खित्ता । पुथूति बहुजना। सीहाव सल्लीनाति सीहा विय निलीना एकत्तं उपगता । लोमहंसाभिसम्भुनोति लोमहंसं अभिभवित्वा ठिता, निब्भयाति वुत्तं होति । ओदातमनसा सुद्धाति ओदातचित्ता हुत्वा सुद्धा । विष्पसनामनाविलाति विप्पसन्नअनाविला | भिय्योपञ्चसते अत्वाति सम्मासम्बुद्धेन सद्धिं अतिरेकपञ्चसते भिक्खू जानित्वा | वने कापिलवत्थवेति कपिलवत्थुसमीपम्हि जाते वनसण्डे । ततो आमन्तयी सत्थाति तदा आमन्तयि। सावके सासने रतेति अत्तनो धम्मदेसनाय सवनन्ते जातत्ता सावके 248 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.३३५-३३५) देवतासन्निपातवण्णना २४९ सिक्खत्तयसासने रतत्ता सासने रते। इदं सबं - “सिलोकमनुकस्सामी''ति वचनतो अजेन वुत्तं विय कत्वा वदति ।। देवकाया अभिक्कन्ता, ते विजानाथ भिक्खयोति ते दिब्बचक्खुना विजानाथाति नेसं भिक्खूनं दिब्बचक्खुञाणाभिनीहारत्थाय कथेसि । ते च आतप्पमकरुं, सुत्वा बुद्धस्स सासनन्ति ते च भिक्खू तं बुद्धसासनं सुत्वा तावदेव तदत्थाय वीरियं करिंसु । एवं कतमत्तातप्पानंयेव तेसं पातुरहु आणं। कीदिसं? अमनुस्सानं दस्सनं दिब्बचक्खुञाणं उप्पज्जि । न तं तेहि तस्मिं खणे परिकम्मं कत्वा उप्पादितं । अरियमग्गेनेव हि तं निप्फन्नं । अमनुस्सदस्सनत्थं पनस्स अभिनीहारमत्तमेव कतं । सत्थापि- “अस्थि तुम्हाकं आणं, तं नीहरित्वा तेन हि ते विजानाथा''ति इदमेव सन्धाय "ते विजानाथ, भिक्खवो''ति आह । अप्पेके सतमद्दक्खुन्ति तेसु भिक्खूसु एकच्चे भिक्खू अमनुस्सानं सतं अद्दसंसु । सहस्सं अथ सत्तरिन्ति एके सहस्सं । एके सत्तति सहस्सानि । सतं एके सहस्सानन्ति एके सतसहस्सं अद्दसंसु । अप्पेकेनन्तमद्दक्खुन्ति विपुलं अद्दसंसु, सतवसेन सहस्सवसेन च अपरिच्छिन्नेपि अद्दसंसूति अत्थो। कस्मा ? यस्मा दिसा सब्बा फुटा अहुं, भरिता सम्पुण्णाव अहेसुं । तञ्च सबं अभिञआयाति यं तेसु एकेनेकेन दिटुं, तञ्च सब्बं जानित्वा । ववत्थित्वान चक्खुमाति हत्थतले लेखं विय पच्चक्खतो ववत्थपेत्वा पञ्चहि चक्खूहि चक्खुमा सत्था । ततो आमन्तयीति पुब्बे वुत्तगाथमेव नामगोत्तकित्तनत्थाय आह । तुम्हे एते विजानाथ, पस्सथ, ओलोकेथ, ये वोहं कित्तयिस्सामीति अयमेत्थ सम्बन्धो । गिराहीति वचनेहि । अनुपुब्बसोति अनुपटिपाटिया। ३३५. सत्तसहस्सा ते यक्खा, भुम्मा कापिलवत्थवाति सत्तसहस्सा तावेत्थ कपिलवत्थु निस्साय निब्बत्ता भुम्मा यक्खायेवाति वदति । इद्धिमन्तोति दिब्बइद्धियुत्ता । जुतिमन्तोति आनुभावसम्पन्ना । वण्णवन्तोति सरीरवण्णसम्पन्ना । यसस्सिनोति परिवारसम्पन्ना । मोदमाना अभिक्कामुन्ति तुट्ठचित्ता आगता । भिक्खूनं समिति वनन्ति इमं महावनं भिक्खूनं सन्तिकं 249 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (७.३३६-३३६) भिक्खूनं दस्सनत्थाय आगता। अथ वा समितिन्ति समूह, भिक्खुसमूहं दस्सनाय आगतातिपि अत्थो। ___ छसहस्सा हेमवता, यक्खा नानत्तवण्णिनोति छसहस्सा हेमवतपब्बते निब्बत्तयक्खा, ते च सब्बेपि नीलादिवण्णवसेन नानत्तवण्णा । सातागिरा तिसहस्साति सातागिरिपब्बते निब्बत्तयक्खा तिसहस्सा । इच्चेते सोळससहस्साति एते सब्बेपि सोळससहस्सा होन्ति । वेस्सामित्ता पञ्चसताति वेस्सामित्तपब्बते निब्बत्ता पञ्चसता । कुम्भीरो राजगहिकोति राजगहनगरे निब्बत्तो कुम्भीरो नाम यखो। वेपुल्लस्स निवेसनन्ति तस्स वेपुल्लपब्बतो निवेसनं निवासनट्ठानन्ति अत्थो । भिय्यो नं सतसहस्सं, यक्खानं पयिरुपासतीति तं अतिरेकं यक्खानं सतसहस्सं पयिरुपासति । कुम्भीरो राजगहिको, सोपागा समितिं वनन्ति सोपि कुम्भीरो सपरिवारो इमं वनं भिक्खुसमितिं दस्सनत्थाय आगतो। ३३६. पुरिमञ्च दिसं राजा, धतरट्ठो पसासतीति पाचीनदिसं अनुसासति । गन्धब्बानं अधिपतीति चतूसुपि दिसासु गन्धब्बानं जेट्ठको । सब्बे ते तस्स वसे वत्तन्ति । महाराजा यसस्सिसोति महापरिवारो एसो महाराजा | पुत्तापि तस्स बहवो, इन्दनामा महब्बलाति तस्स धतरट्ठस्स बहवो महब्बला पुत्ता, ते सब्बे सक्कस्स देवरो नामधारका । विरूळ्हो तं पसासतीति तं दिसं विरूळ्हो अनुसासति । पुत्तापि तस्साति तस्सापि तादिसायेव पुत्ता । पाळियं पन “महब्बला''ति लिखन्ति । अट्ठकथायं सब्बवारेसु "महाबला"ति पाठो । 250 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७.३३७-३३७) देवतासन्निपातवण्णना " पुरिमं दिसं धतरट्ठो, दक्खिणेन विरूळ्हको । पच्छिमेन विरूपक्खो, कुवेरो उत्तरं दिसं । । चत्तारो ते महाराजा, समन्ता चतुरो दिसा । दद्दल्लमाना अहंसु, वने कापिलवत्थवे 'ति । । इमा पन गाथा सब्बसङ्गाहिकवसेन वृत्ता । अयञ्चेत्थ अत्थो - दससहस्सचक्कवाळे धतरट्ठा नाम महाराजानो अस्थि । ते सब्बे प कोटिसतसहस्सकोटिसतसहस्सगन्धब्बपरिवारा आगन्त्वा पुरत्थमाय दिसाय कपिलवत्थुमहावनतो पट्ठाय चक्कवाळगब्भं पूरेत्वा ठिता । एवं दक्खिणदिसादीसु विरूळ्हकादयो। तेनेवाह - "समन्ता चतुरो दिसा, दद्दल्लमाना अहंसू 'ति । इत् होति - " समन्ता चक्कवाळेहि आगन्त्वा चतुरो दिसा पब्बतमत्थकेसु अग्गिक्खन्धा विय सुट्टु जलमाना ठिता "ति । ते पन यस्मा कपिलवत्थुवनमेव सन्धाय आगता, तस्मा चक्कवाळं पूरेत्वा चक्कवाळेन समसमा ठितापि - " वने कापिलवत्थवे 'ति वृत्ता । ३३७. ते मायाविनो दासा, आगुं वञ्चनिका सठाति तेसं महाराजानं ये कतपापपटिच्छादनलक्खणाय मायाय युत्ता कुटिलाचारा दासा अत्थि, सम्मुखपरम्मुखवञ्चनाहि लोकं वञ्चनतो " वञ्चनिका "ति च, केराटियसाठेय्येन समन्नागतत्ता " सठा "ति च वुच्चन्ति तेपि आगताति अत्थो । माया कुटेण्डु विटेण्डु, विटुच्च विटुटो सहाति ते दासा सब्बेपि मायाकारकाव । नामेन पनेत्थ एको कुटेण्डु नाम, एको विटेण्डु नाम । पाळियं पन " वेटेण्डू "ति लिखन्ति । एको विटुच्च नाम, एको विटुटो नाम । सहाति सोपि विटुटो तेहि सहेव आगतो । २५१ चन्दनो कामसेट्टो च, किन्निघण्डु निघण्डु चाति अपरो किन्निघण्डु नाम । पाळियं पन " किन्नुघण्डूति लिखन्ति । निघण्डु चाति अञ्ञो निघण्डु नाम, एत्तका दासा । इतो परे पन - 251 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा “पनादो ओपमञ्ञो च, देवसुतो च मातलि । चित्तसेनो च गन्धब्बो, नळो राजा जनेसभो । आगुं पञ्चसिखो चेव, तिम्बरू सूरियवच्छसा'ति । । - इमे देवराजानो । तत्थ देवसुतोति देवसारथि । चित्तसेनोति चित्तो च सेनो च चित्तसेनो च । गन्धब्बोति अयं चित्तसेनो गन्धब्बकायिको देवपुत्तो, न केवलं चेस, सब्बे पेते पनादादयो गन्धब्बा एव । नळोराजाति नळकारदेवपुत्तो नामेको । जनेस भोति जनवसभो देवपुत्तो । आगुं पञ्चसिखो चेवाति पञ्चसिखो चेव देवपुत्ती आगतो । तिम्बति तम्ब नाम गन्धब्बदेवराजा । सूरियवच्छसाति तस्सेव धीता । एते चञ्ञे च राजानो, गन्धब्बा सह राजुभीति एते च नामवसेन वुत्तगन्धब्बराजानो अञ्ञे च एतेहि राजूहि सद्धिं बहू गन्धब्बा । मोदमाना अभिक्कामुं भिक्खूनं समितिं वनन्ति तुचित्ता भिक्खुसङ्घसमितिं इमं वनं आगताति अत्थो । ( ७.३३८-३३८) ३३८. अथागुं नागसा नागा, वेसाला सहतच्छकाति नागसदहवासिका च वेसालीवासिका च नागा सह तच्छकनागपरिसाय आगताति अत्थो । कम्बलस्सतराति कम्बलो च अस्सतरो च । एते किर सिनेरुपादे वसन्ति, सुपण्णेहिपि अनुद्धरणीया महेसक्खनागा पायागा सह जातिभीति पयागतित्थवासिनो च सह जातिसङ्खेन आगता । यामुना धतरट्ठा चाति यमुनवासिनो च धतरट्ठकुले उप्पन्ना नागा च । एरावणो महानागोति एरावणो च देवपुत्तो, जातिया नागो न होति । नागवोहारेन पनेस वोहरियति । सोपागाति सोपि आगतो । ये नागराजे सहसा हरन्तीति ये इमे वुत्तप्पकारे नागे लोभाभिभूता साहसं कत्वा हरन्ति गण्हन्ति । दिब्बा दिजा पक्खी विसुद्धचक्खूति दिब्बानुभावतो दिब्बा मातुकुच्छितो च अण्डकोसतो चाति द्वे वारे जाताति दिजा पक्खयुत्तताय पक्खी योजनसतन्तरेपि योजनसहस्सन्तरेपि नागे दस्सनसमत्थचक्खुताय विसुद्धचक्खू । वेहायसा ते वनमज्झप्पत्ताति ते आकासेनेव इमं महावनं सम्पत्ता । चित्रा सुपण्णा इति तेस नामन्ति तेसं " चित्रसुपण्णा' 'ति नामं । 252 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.३३९-३४०) देवतासन्निपातवण्णना २५३ अभयं तदा नागराजानमासि, सुपण्णतो खेममकासि बुद्धोति तस्मा सब्बेपि ते अञमयं सहाहि वाचाहि उपव्हयन्ता मित्ता विय बन्धवा विय च समुल्लपन्ता सम्मोदमाना आलिङ्गन्ता हत्थे गण्हन्ता अंसकूटे हत्थं ठपेन्ता हट्टतुट्ठचित्ता। नागा सुपण्णा सरणमकंसु बुद्धन्ति बुद्धंयेव सरणं गता। ३३९. जिता वजिरहत्थेनाति इन्देन देवरञा जिता। समुहं असुरासिताति महासमुद्दवासिनो सुजाताय असुरकज्ञाय कारणा सब्बेपि भातरो वासवस्सेते, इद्धिमन्तो यसस्सिनो। __ तेसु कालकञ्चा महाभिस्माति कालकञ्चा च महन्ते भिंसने अत्तभावे मापेत्वा आगमिंसु । असुरा दानवेघसाति दानवेघसा नाम अञ्चे धनुग्गहअसुरा । वेपचित्ति सुचित्ति च, पहारादो नमुची सहाति वेपचित्तिअसुरो, सुचित्तिअसुरो चाति एते च असुरा नमुचि च मारो देवपुत्तो एतेहि सहेव आगतो। इमे असुरा महासमुद्दवासिनो, अयं परनिम्मितदेवलोकवासी, कस्मा एतेहि सहागतोति ? अच्छन्दिकत्ता । तेपि हि अच्छन्दिका अभब्बा, अयम्पि तादिसोयेव । तस्मा धातुसो संसन्दमानो आगतो । सतञ्च बलिपुत्तानन्ति बलिनो महाअसुरस्स पुत्तानं सतं । सब्बे वेरोचनामकाति सब्बे अत्तनो मातुलस्स राहुस्सेव नामधरा । सन्नहित्वा बलिसेनन्ति अत्तनो बलिसेनं सन्नम्हित्वा सब्बे कतसन्नाहाव हुत्वा। राहुभद्दमुपागमुन्ति राहुअसुरिन्दं उपसङ्कमिंसु । समयो दानि भद्दन्तेति भदं तव होतु, समयो ते भिक्खून समितिं वनं उपसङ्कमित्वा भिक्खुसङ्ख दस्सनायाति अत्थो। ३४०. आपो च देवा पथवी, तेजो वायो तदागमुन्ति आपोकसिणादीसु परिकम्म कत्वा निब्बत्ता आपोतिआदिनामका देवा आगमुं। वरुणा वारणा देवा, सोमो च यससा सहाति वरुणदेवता, वारणदेवता, सोमदेवताति एवं नामका च देवा यससा नाम देवेन सहागताति अत्थो । मेत्ताकरुणाकायिकाति मेत्ताझाने च करुणाझाने च परिकम्मं कत्वा निब्बत्तदेवा । आगुं देवा यसस्सिनोति एतेपि महायसा देवा आगता। दसेते दसधा काया, सब्बे नानत्तवण्णिनोति ते दसधा ठिता दस देवकाया सब्बे नीलादिवसेन नानत्तवण्णा आगताति अत्थो । 253 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (७.३४०-३४०) वेण्डू च देवाति वेण्डुदेवता च । सहलि चाति सहलिदेवता च । असमा च दुवे यमाति असमदेवता च द्वे च यमका देवा । चन्दस्सुपनिसा देवा, चन्दमागु पुरक्खत्वाति चन्दनिस्सितका देवा चन्दं पुरतो कत्वा आगता। तथा सूरियनिस्सितका देवा सूरियं पुरक्खत्वा । नक्खत्तानि पुरक्खत्वाति नक्खत्तनिस्सितापि देवा नक्खत्तानि पुरतो कत्वा आगता। आगुं मन्दवलाहकाति वातवलाहका, अब्भवलाहका, उण्हवलाहका एते सब्बेपि वलाहकायिका “मन्दवलाहका" नाम वुच्चन्ति । तेपि आगताति अत्थो । वसूनं वासवो सेट्ठो, सक्कोपागा पुरिन्ददोति वसूनं देवतानं सेट्ठो वासवो यो सक्कोति च, पुरिन्ददोति च बुच्चति, सोपि आगतो । दसेते दसधा कायाति एतेपि दस देवकाया दसधाव आगता । सब्बे नानत्तवण्णिनोति नीलादिवसेन नानत्तवण्णा | ___ अथाणु सहभू देवाति अथ सहभू नाम देवा आगता। जलमग्गिसिखारिवाति अग्गिसिखा विय जलन्ता | जलमग्गि च सिखारिवाति इमानि तेसं नामानीतिपि वुत्तं । अरिद्वका च रोजा चाति अरिट्ठकदेवा च रोजदेवा च । उमापुष्फनिभासिनोति उमापुप्फदेवा नाम एते देवा। उमापुप्फसदिसा हि तेसं सरीराभा, तस्मा “उमापुप्फनिभासिनो'"ति वुच्चन्ति । वरुणा सहधम्मा चाति एते च द्वे जना। अच्चुता च अनेजकाति अच्चुतदेवता च अनेजकदेवता च। सुलेय्यरुचिरा आगुन्ति सुलेय्या च रुचिरा च आगता। आगुं वासवनेसिनोति वासवनेसीदेवा नाम आगता । दसेते दसधा कायाति एतेपि दसदेवकाया दसधाव आगता । समाना महासमानाति समाना च महासमाना च। मानुसा मानुसुत्तमाति मानुसा च मानुसुत्तमा च । खिड्डापदोसिका आगुं, आगुं मनोपदोसिकाति खिड्डापदोसिका मनोपदोसिका च देवा आगता। ___ अथागु हरयो देवाति हरिदेवा नाम आगता । ये च लोहितवासिनोति लोहितवासिनो च आगता । पारगा महापारगाति एते व दुविधा आगता । दसेते दसधा कायाति एतेपि दसदेवकाया दसधाव आगता। 254 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.३४०-३४०) देवतासन्निपातवण्णना २५५ सुक्का करम्भा अरुणा, आगुं वेघनसा सहाति एते सुक्कादयो तयो, तेहि सह वेघनसा च आगता । ओदातगव्हा पामोक्खाति ओदातगव्हा नाम पामोक्खदेवा आगता । आगुं देवा विचक्खणाति विचक्खणा नाम देवा आगता। सदामत्ता हारगजाति सदामत्ता च हारगजा च । मिस्सका च यसस्सिनोति यससम्पन्ना मिस्सकदेवा च । थनयं आग पज्जुनोति पज्जुन्नो च देवराजा थनयन्तो आगतो । यो दिसा अभिवस्सतीति यो यं यं दिसं याति, तत्थ तत्थ देवो वस्सति । दसेते दसधा कायाति एतेपि दसदेवकाया दसधा आगता । खेमिया तुसिता यामाति खेमिया देवा तुसितपुरवासिनो च यामादेवलोकवासिनो च । कथका च यसस्सिनोति यससम्पन्ना कथकदेवा च। पाळियं पन "कट्ठका चा"ति लिखन्ति। लम्बीतका लामसेद्वाति लम्बितकदेवा च लामसेठ्ठदेवा च। जोतिनामा च आसवाति पब्बतमत्थके कतनळग्गिक्खन्धो विय जोतमाना जोतिदेवा नाम अत्थि, ते च आसा च देवा आगताति अत्थो । पाळियं पन "जातिनामा'"ति लिखन्ति । आसा देवता छन्दवसेन आसवाति वुत्ता । निम्मानरतिनो आगुं, अथागुं परनिम्मिता। दसेते दसधा कायाति एतेपि दस देवकाया दसधाव आगता। सढते देवनिकायाति एते च आपो च देवातिआदिका छ दसका सट्ठि देवनिकाया सब्बे नीलादिवसेन नानत्तवण्णिनो। नामन्वयेन आगच्छुन्ति नामभागेन नामकोट्ठासेन आगता । ये चजे सदिसा सहाति ये च अजेपि तेहि सदिसा वण्णतोपि नामतोपि एतादिसायेव सेसचक्कवाळेसु देवा, तेपि आगतायेवाति एकपदेनेव कलापं विय पुटकं विय च कत्वा सब्बा देवता निद्दिसति । ____ एवं दससु लोकधातुसहस्सेसु देवकाये निद्दिसित्वा इदानि यदत्थं ते आगता, तं दस्सेन्तो पवुट्ठजातिन्ति गाथमाह । तस्सत्थो- पवुट्ठा विगता जाति अस्साति अरियसङ्घो पवुट्ठजाति नाम, तं पवुट्ठजातिं रागदोसमोहखीलानं अभावा अखीलं चत्तारो ओघे तरित्वा ठितत्ता ओघतिण्णं चतुन्नं आसवानं अभावेन अनासवं अरियसङ्घ दक्खेम पस्सिस्साम । तेस व ओघानं तिण्णत्ता ओघतरं आणू अकरणतो नागं। असितातिगन्ति काळकभावातीतं चन्दंव सिरिया विरोचमानं दसबलञ्च दक्खेम पस्सिस्सामाति एतदत्थं सब्बेपि ते नामन्वयेन आगच्छु, ये चञ्जे सदिसा सहाति । 255 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (७.३४१-३४२) ३४१. इदानि ब्रह्मानो दस्सेन्तो सुब्रह्मा परमत्तो चातिआदिमाह । तत्थ सुब्रह्माति एको ब्रह्मा । परमत्तोपि ब्रह्माव । पुत्ता इद्धिमतो सहाति एते इद्धिमतो बुद्धस्स भगवतो पुत्ता अरियब्रह्मानो सहेव आगता। सनकुमारो तिस्सो चाति सनकुमारो च तिस्समहाब्रह्मा च । सोपागाति सोपि आगतो । “सहस्सं ब्रह्मलोकानं, महाब्रह्माभितिद्वति । उपपन्नो जुतिमन्तो, भिस्माकायो यसस्सि सो''ति ।। - एत्थ सहस्सं ब्रह्मलोकानन्ति एकङ्गुलिया एकसहस्सचक्कवाळे दसहि अङ्गुलीहि दससहस्सिचक्कवाळे आलोकफरणसमत्थानं महाब्रह्मानं सहस्सं आगतं । महाब्रह्माभितिद्वतीति यत्थ एकेको महाब्रह्मा अञ्चे ब्रह्मे अभिभवित्वा तिट्ठति । उपपन्नोति ब्रह्मलोके निब्बत्तो । जुतिमन्तोति आनुभावसम्पन्नो। भिस्माकायोति महाकायो, द्वीहि तीहि मागधिकेहि गामक्खेत्तेहि समप्पमाणअत्तभावो। यसस्सिसोति अत्तभावसिरीसङ्घातेन यसेन समन्नागतो । दसेत्थ इस्सरा आगु, पच्चेकवसवत्तिनोति एतस्मिञ्च ब्रह्मसहस्से ये पाटियेक्कं पाटियेक्कं वसं वत्तेन्ति, एवरूपा दस इस्सरा महाब्रह्मानो आगता। तेसञ्च मज्झतो आग, हारितो परिवारितोति तेसं ब्रह्मानं मज्झे हारितो नाम महाब्रह्मा सतसहस्सब्रह्मपरिवारो आगतो। ३४२. ते च सब्बे अभिक्कन्ते, सइन्दे देवे सब्रह्मकेति ते सब्बेपि सक्कं देवराजानं जेट्टकं कत्वा आगते देवकाये, हारितमहाब्रह्मानं जेट्टकं कत्वा आगते ब्रह्मकाये च । मारसेना अभिक्कामीति मारसेना अभिगता । पस्स कण्हस्स मन्दियन्ति काळकस्स मारस बालभावं पस्सथ । __ एथ गण्हथ बन्धथाति एवं अत्तनो परिसं आणापेसि । रागेन बद्धमत्थु वोति सब्बं वो इदं देवमण्डलं रागेन बद्धं होतु । समन्ता परिवारेथ, मा वो मुञ्चित्थ कोचि नन्ति तुम्हाकं एकोपि एतेसु एकम्पि मा मुञ्चि | "मा वो मुञ्चेथा"तिपि पाठो, एसेवत्थो । इति तत्थ महासेनो, कण्हो सेनं अपेसयीति एवं तत्थ महासमये महासेनो मारो 256 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.३४३-३४३) देवतासन्निपातवण्णना २५७ मारसेनं अपेसयि । पाणिना तलमाहच्चाति हत्थेन पथवीतलं पहरित्वा । सरं कत्वान भेरवन्ति मारविभिंसकदस्सनत्थं भयानकं सरञ्च कत्वा । यथा पावुस्सको मेघो, थनयन्तो सविज्जुकोति सविज्जुको पावुस्सकमेघो विय महागज्जितं गज्जन्तो। तदा सो पच्चुदावत्तीति तस्मिं समये सो मारो तं विभिंसनकं दस्सेत्वा पटिनिवत्तो । सङ्घद्धो असयं वसेति सुटु कुद्धो कुपितो कञ्चि वसे वत्तेतुं असक्कोन्तो असयंवसे असयंवसी अत्तनो वसेन अकामको हुत्वा निवत्तो। भगवा किर "अयं मारो इमं महासमागमं दिस्वा 'अभिसमयन्तरायं करिस्सामीति अन्तरन्तरे मारसेनं पेसेत्वा मारं विभिंसकं दस्सेती"ति अज्ञासि । पकति चेसा भगवतो, यत्थ अभिसमयो न भविस्सति, तत्थ मारं विभिंसकं दस्सेन्तं न निवारेति । यत्थ पन अभिसमयो होति, तत्थ यथा परिसा नेव मारस्स रूपं पस्सति, न सदं सुणाति, एवं अधिट्ठातीति | इमस्मिञ्च समागमे महाभिसमयो भविस्सति, तस्मा यथा देवता नेव तस्स रूपं पस्सन्ति, न सदं सुणन्ति, एवं अधिट्टासि । तेन वुत्तं-“तदा सो पच्चुदावत्ति, सङ्घद्धो असयंवसे''ति । ३४३. तञ्च सब्बं अभिज्ञाय, ववत्थित्वान चक्खुमाति तं सब्बं भगवा जानित्वा ववत्थपेत्वा च । मारसेना अभिक्कन्ता, ते विजानाथ भिक्खयोति भिक्खवे मारसेना अभिक्कन्ता, ते तुम्हे अत्तनो अनुरूपं विजानाथ, फलसमापत्तिं समापज्जथाति वदति । आतप्पमकरुन्ति फलसमापत्तिं पविसनत्थाय वीरियं आरभिंसु । वीतरागेहि पक्कामुन्ति मारो च मारसेना च वीतरागेहि अरियेहि दूरतोव अपक्कमुं। नेसं लोमापि इञ्जयुन्ति तेसं वीतरागानं लोमानिपि न चालयिंसु । अथ मारो भिक्खुसद्धं आरब्भ इमं गाथं अभासि - "सब्बे विजितसङ्गामा, भयातीता यसस्सिनो । मोदन्ति सह भूतेहि, सावका ते जनेसुता''ति ।। तत्थ मोदन्ति सह भूतेहीति दसबलस्स सासने भूतेहि सजातेहि अरियेहि सद्धिं मोदन्ति पमोदन्ति । जनेसुताति जने विस्सुता पाकटा अभिञाता। 257 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (७.३४३-३४३) इदं पन महासमयसुत्तं नाम देवतानं पियं मनापं, तस्मा मङ्गलं वदन्तेन अभिनवट्ठानेसु इदमेव सुत्तं वत्तब्बं । देवता किर -“इमं सुत्तं सुणिस्सामा"ति ओहितसोता विचरन्ति । देसनापरियोसाने पनस्स कोटिसतसहस्सदेवता अरहत्तं पत्ता, सोतापन्नादीनं गणना नत्थि। देवतानञ्चस्स पियमनापभावे इदं वत्थु- कोटिपब्बतविहारे किर नागलेणद्वारे नागरुक्खे एका देवधीता वसति । एको दहरो अन्तोलेणे इमं सुत्तं सज्झायति । देवधीता सुत्वा सुत्तपरियोसाने महासद्देन साधुकारमदासि । को एसोति । अहं, भन्ते, देवधीताति । कस्मा साधुकारमदासीति ? भन्ते, दसबलेन महावने निसीदित्वा कथितदिवसे इमं सुत्तं सुत्वा अज्ज अस्सोसिं, भगवता कथिततो एकक्खरम्पि अहापेत्वा सुग्गहितो अयं धम्मो तुम्हेहीति । दसबलस्स कथयतो सुतं तयाति ? आम, भन्तेति । महा किर देवतासन्निपातो अहोसि, त्वं कत्थ ठिता सुणीति ? अहं, भन्ते, महावनवासिया देवता, महेसक्खासु पन देवतासु आगच्छन्तीसु जम्बुदीपे ओकासं नालत्थं, अथ इमं तम्बपण्णिदीपं आगन्त्वा जम्बुकोलपट्टने ठत्वा सोतुं आरद्धम्हि, तत्रापि महेसक्खासु देवतासु आगच्छन्तीसु अनुक्कमेन पटिक्कममाना रोहणजनपदे महागामस्स पिट्ठिभागतो समुद्दे गलप्पमाणं उदकं पविसित्वा तत्थ ठिता अस्सोसिन्ति | तुम्हं ठितट्ठानतो दूरे सत्थारं पस्ससि देवतेति ? किं कथेथ, भन्ते, सत्था महावने धम्मं देसेन्तो निरन्तरं मम व ओलोकेतीति मञ्जमाना ओतप्पमाना ऊमीसु निलयामीति। तं दिवसं किर कोटिसतसहस्सदेवता अरहत्तं पत्ता, तुम्हेपि तदा अरहत्तं पत्ताति ? नत्थि, भन्ते । अनागामिफलं. पत्तत्थ मञ्जेति? नत्थि, भन्ते । सकदागामिफलं पत्तत्थ मञ्चेति ? नत्थि, भन्ते । तयो मग्गे पत्ता देवता किर गणनपथं अतीता, सोतापन्ना जातत्थ म ति ? देवता तं दिवसं सोतापत्तिफलं पत्तत्ता हरायमाना-"अपुच्छितब् पुच्छति अय्योति आह । ततो नं सो भिक्खु आह- "सक्का पन देवते, तव अत्तभावं अम्हाकं दस्सेतु'न्ति ? न सक्का भन्ते सकलकायं दस्सेतुं, अङ्गुलिपब्बमत्तं दस्सेस्सामि अय्यस्साति कुञ्चिकछिद्देन अङ्गुलिं अन्तोलेणाभिमुखं अकासि, चन्दसहस्ससूरियसहस्सउग्गमनकालो विय अहोसि । देवधीता “अप्पमत्ता, भन्ते, होथा'"ति 258 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.३४३-३४३) देवतासन्निपातवण्णना २५९ दहरभिक्खुं वन्दित्वा अगमासि । एवं इमं सुत्तं देवतानं पियं मनापं, ममायन्ति नं देवताति। इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं महासमयसुत्तवण्णना निहिता। 259 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. सक्कपञ्चसुत्तवण्णना निदानवण्णना ३४४. एवं मे सुतन्ति सक्कपञ्चसुत्तं । तत्रायमनुत्तानपदवण्णना- अम्बसण्डा नाम ब्राह्मणगामोति सो किर गामो अम्बसण्डानं अविदूरे निविट्ठो, तस्मा “अम्बसण्डा" त्वेव वुच्चति । वेदियके पब्बतेति सो किर पब्बतो पब्बतपादे जातेन मणिवेदिकासदिसेन नीलवनसण्डेन समन्ता परिक्खित्तो, तस्मा 'वेदियकपब्बतो' त्वेव सङ्ख्यं गतो । इन्दसालगुहायन्ति पुब्बेपि सा द्विन्नं पब्बतानं अन्तरे गुहा, इन्दसालरुक्खो चस्सा द्वारे, तस्मा 'इन्दसालगुहा'ति सङ्ख्यं गता। अथ नं कुट्टेहि परिक्खिपित्वा द्वारवातपानानि योजेत्वा सुपरिनिहितसुधाकम्ममालाकम्मलताकम्मविचित्तं लेणं कत्वा भगवतो अदंसु | पुरिमवोहारवसेन पन “इन्दसालगुहा' त्वेव नं सजानन्ति। तं सन्धाय वुत्तं 'इन्दसालगुहाय'न्ति । उस्सुक्कं उदपादीति धम्मिको उस्साहो उप्पज्जि । ननु च एस अभिण्हदस्सावी भगवतो, न सो देवतासन्निपातो नाम अत्थि, यत्थायं न आगतपुब्बो, सक्केन सदिसो अप्पमादविहारी देवपुत्तो नाम नत्थि । अथ कस्मा बुद्धदस्सनं अनागतपुब्बस्स विय अस्स उस्साहो उदपादीति ? मरणभयेन सन्तज्जितत्ता। तस्मिं किरस्स समये आयु परिक्खीणो, सो पञ्च पुब्बनिमित्तानि दिस्वा “परिक्खीणो दानि मे आयू"ति अञासि । येसञ्च देवपुत्तानं मरणनिमित्तानि आवि भवन्ति, तेसु ये परित्तकेन पुञकम्मेन देवलोके निब्बत्ता, ते “कुहिं नु खो इदानि निब्बत्तिस्सामा''ति भयं सन्तासं आपज्जन्ति । ये कतभीरुत्ताना बहुं पुजं कत्वा निब्बत्ता, ते अत्तना दिन्नदानं रखितसीलं भावितभावनञ्च आगम्म "उपरिदेवलोके सम्पत्तिं अनुभविस्सामा"ति न भायन्ति । 260 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३४४-३४४) निदानवण्णना सक्को पन देवराजा पुब्बनिमित्तानि दिस्वा दसयोजनसहस्सं देवनगरं, योजनसहस्सुब्बेधं वेजयन्तं, तियोजनसतिकं सुधम्मदेवसभं, योजनसतुब्बेधं पारिच्छत्तकं, सट्ठियोजनिकं पण्डुकम्बलसिलं, अड्डतिया नाटककोटियो द्वीसु देवलोकेसु देवपरिसं, नन्दनवनं, चित्तलतावनं, मिस्सकवनं, फारुसकवनन्ति एतं सब्बसम्पत्तिं ओलोकेत्वा "नस्सति वत भो मे अयं सम्पत्ती"ति भयाभिभूतो अहोसि । ततो “अत्थि नु खो कोचि समणो वा ब्राह्मणो वा लोकपितामहो महाब्रह्मा वा, यो मे हदयनिस्सितं सोकसल्लं समुद्धरित्वा इमं सम्पत्तिं थावरं करेय्या'ति ओलोकेन्तो कञ्चि अदिस्वा पन अहस "मादिसानं सतसहस्सानम्पि उप्पन्न सोकसल्लं सम्मासम्बदो उद्धरितुं पटिबलो''ति । अथेवं परिवितक्केन्तस्स तेन खो पन समयेन सक्कस्स देवानमिन्दस्स उस्सुक्कं उदपादि भगवन्तं दस्सनाय । कहं नु खो भगवा एतरहि विहरतीति कतरस्मिं जनपदे कतरं नगरं उपनिस्साय कस्स पच्चये परिभुञ्जन्तो कस्स अमतं धम्म देसयमानो विहरतीति । अहसा खोति अद्दक्खि पटिविज्झि। मारिसाति पियवचनमेतं, देवतानं पाटियेक्को वोहारो । निढुक्खातिपि वुत्तं होति । कस्मा पनेस देवे आमन्तेसि ? सहायत्थाय । पुब्बे किरेस भगवति सळलघरे विहरन्ते एककोव दस्सनाय अगमासि । सत्था “अपरिपक्कं तावस्स आणं, कतिपाहं पन अतिक्कमित्वा मयि इन्दसालगुहायं विहरन्ते पञ्च पुब्बनिमित्तानि दिस्वा मरणभयभीतो द्वीस देवलोकेस देवताहि सद्धिं उपसङ्कमित्वा चुद्दस पहे पुच्छित्वा उपेक्खापहविस्सज्जनावसाने असीतिया देवतासहस्सेहि सद्धिं सोतापत्तिफले पतिठ्ठहिस्सती"ति चिन्तेत्वा ओकासं नाकासि । सो "मम पुब्बेपि एककस्स गतत्ता सत्थारा ओकासो न कतो. अद्धा मे नस्थि मग्गफलस्स उपनिस्सयो. एकस्स पन उपनिस्सये सति चक्कवाळपरियन्तायपि परिसाय भगवा धम्मं देसेतियेव । अवस्सं खो पन द्वीसु देवलोकेसु कस्सचि देवस्स उपनिस्सयो भविस्सति, तं सन्धाय सत्था धम्म देसेस्सति । तं सुत्वा अहम्पि अत्तनो दोमनस्सं वूपसमेस्सामी''ति चिन्तेत्वा सहायत्थाय आमन्तेसि । एवं भदं तवाति खो देवा तावतिंसाति एवं होतु महाराज, गच्छाम भगवन्तं दस्सनाय, दुल्लभो बुद्धप्पादो, भदं तव, यो त्वं “पब्बतकीळं नदीकीळं गच्छामा"ति 261 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा ( ८.३४५ - ३४६) अवत्वा अम्हे एवरूपेसु ठानेसु नियोजेसीति । पच्चस्सोसुन्ति तस्स वचनं सिरसा सम्पटिच्छिंसु । २६२ ३४५. पञ्चसिखं गन्धब्बदेवपुत्तं आमन्तेसीति देवे ताव आमन्तेतु, इमं कस्मा विसुं आमन्तेसि ? ओकासकरणत्थं । एवं किरस्स अहोसि " द्वीसु देवलोकेसु देवता गहेत्वा धुरेन पहरन्तस्स विय सत्थारं उपसङ्कमितुं न युत्तं, अयं पन पञ्चसिखो दसबलस्स उपट्ठाको वल्लभो इच्छितिच्छितक्खणे गन्त्वा पञ्हं पुच्छित्वा धम्मं सुणाति, इमं पुरतो पेसेत्वा ओकासं कारेत्वा इमिना कतोकासे उपसङ्कमित्वा पञ्हं पुच्छिस्सामी 'ति ओकासकरणत्थं आमन्तेसि । एवं भद्दं तवाति सो “ एवं महाराज, होतु, भद्दं तव, यो त्वं मं 'एहि, मारिस, उय्यानकीळादीनि वा नटसमज्जादीनि वा दस्सनाय गच्छामा ति अवत्वा 'बुद्धं पस्सिस्साम, धम्मं सोस्सामा ति वदसी "ति दहतरं उपत्थम्भेन्तो देवानमिन्दस्स वचनं पटिस्सुत्वा अनुचरियं सहचरणं एकतो गमनं उपागम । तत्थ बेलुवपण्डुन्ति बेलुवपक्कं विय पण्डुवण्णं । तस्स किर सोवण्णमयं पोक्खरं, इन्दनीलमयो दण्डो, रजतमया तन्तियो, पवाळमया वेठका, वीणापत्तकं गावुतं, तन्तिबन्धनट्ठानं गावुतं, उपरि दण्डको गावुतन्ति तिगावुतप्पमाणा वीणा । इत वीणं आदाय समपञ्ञसमुच्छना मुच्छेत्वा अग्गनखेहि पहरित्वा मधुरं गीतस्सरं निच्छारेत्वा सेसदेवे सक्कस्स गमनकालं जानापेन्तो एकमन्तं अट्ठासि । एवं तस्स गीतवादितसञ्चय सन्निपतिते देवगणे अथ खो सक्को देवानमिन्दो... पे०... वेदियके पब्बते पच्चट्ठासि । ३४६. अतिरिव ओभासजातोति असु दिवसेसु एकस्सेव देवस्स वा मारस्स वा ब्रह्म॒नो वा ओभासेन ओभासजातो होति, तंदिवसं पन द्वीसु देवलोकेसु देवतानं अभासेन अतिरिव ओभासजातो एकपज्जोतो सहस्सचन्दसूरियउग्गतकालसदिसो अहोसि । परितो गामेसु मनुस्साति समन्ता गामेसु मनुस्सा । पकतिसायमासकालेयेव किर गाममज्झे दारकेसु कीळन्तेसु तत्थ सक्को अगमासि, तस्मा मनुस्सा पस्सित्वा एवमाहंसु । ननु च मज्झिमयामे देवता भगवन्तं उपसङ्कमन्ति, अयं कस्मा पठमयामस्सापि पुरिमभागेयेव आगतोति ? मरणभयेनेव तज्जितत्ता । किंसु नामाति किंसु नाम भो एतं, को नु खो अज्ज महेसक्खो देवो वा ब्रह्मा वा भगवन्तं पञ्हं पुच्छितुं धम्मं सोतुं उपसङ्कमन्तो, 262 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३४७-३४८) पञ्चसिखगीतगाथावण्णना २६३ कथंसु नाम भो भगवा पहं विस्सज्जेस्सति धम्म देसेस्सति, लाभा अम्हाकं, येसं नो एवं देवतानं कयाविनोदको सत्था अविदूरे विहारे वसति, ये लभाम थालकभिक्खम्पि कटच्छुभिक्खम्पि दातुन्ति संविग्गा लोमहठ्ठजाता उद्धग्गलोमा हुत्वा दसनखसमोधानसमुज्जलं अञ्जलिं सिरस्मिं पतिठ्ठपेत्वा नमस्समाना अटुंसु । ३४७. दुरुपसङ्कमाति दुपयिरुपासिया । अहं सरागो सदोसो समोहो, सत्था वीतरागो वीतदोसो वीतमोहो, तस्मा दुपयिरुपासिया तथागता मादिसेन । झायीति लक्खणूपनिज्झानेन च आरम्मणूपनिज्झानेन च झायी। तस्मि व झाने रताति झानरता। तदन्तरं पटिसल्लीनाति तदन्तरं पटिसल्लीना सम्पति पटिसल्लीना वा । तस्मा न केवलं झायी झानरताति दुरुपसङ्कमा, इदानिमेव पटिसल्लीनातिपि दुरुपसङ्कमा । पसादेय्यासीति आराधेय्यासि, ओकासं मे कारेत्वा ददेय्यासीति वदति । बेलुवपण्डुवीणं आदायाति ननु पुब्बेव आदिन्नाति ? आम, आदिन्ना । मग्गगमनवसेन पन अंसकूटे लग्गिता, इदानि नं वामहत्थे ठपेत्वा वादनसज्जं कत्वा आदियि । तेन वुत्तं “आदाया'ति । पञ्चसिखगीतगाथावण्णना ३४८. अस्सावेसीति सावेसि । बुद्धूपसहिताति बुद्धं आरब्भ बुद्धं निस्सयं कत्वा पवत्ताति अत्थो । सेसपदेसुपि एसेव नयो । वन्दे ते पितरं भद्दे, तिम्बरुं सूरियवच्छसेति एत्थ सूरियवच्छसाति सूरियसमानसरीरा । तस्सा किर देवधीताय पादन्ततो रस्मि उट्ठहित्वा केसन्तं आरोहति, तस्मा बालसूरियमण्डलसदिसा खायति, इति नं "सूरियवच्छसा"ति सञ्जानन्ति । तं सन्धायाह - "भद्दे, सूरियवच्छसे, तव पितरं तिम्बरूं गन्धब्बदेवराजानं वन्दामी"ति । येन जातासि कल्याणीति येन कारणभूतेन यं तिम्बरूं देवराजानं निस्साय त्वं जाता, कल्याणी सब्बङ्गसोभना । आनन्दजननी ममाति मम्हं पीतिसोमनस्सवड्डनी। वातोव सेदतं कन्तोति यथा सञ्जातसेदानं सेदहरणत्थं वातो इट्ठो होति कन्तो मनापो, एवन्ति अत्थो । पानीयंव पिपासतोति पातुमिच्छन्तस्स पिपासतो पिपासाभिभूतस्स | अङ्गीरसीति अङ्गे रस्मियो अस्साति अङ्गीरसी, तमेव आरब्भ आलपन्तो वदति । धम्मो अरहतामिवाति अरहन्तानं नवलोकुत्तरधम्मो विय । 263 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (८.३४८-३४८) ___ जिघच्छतोति भुजितुकामस्स खुदाभिभूतस्स । जलन्तमिव वारिनाति यथा कोचि जलन्तं जातवेदं उदककुम्भेन निब्बापेय्य, एवं तव कारणा उप्पन्नं मम कामरागपरिळाहं निब्बापेहीति वदति । युत्तं किजक्खरेणुनाति पदुमकेसररेणुना युत्तं। नागो घम्माभितत्तो वाति घम्माभितत्तहत्थी विय । ओगाहे ते थनूदरन्ति यथा सो नागो पोक्खरणिं ओगाहित्वा पिवित्वा अग्गसोण्डमत्तं पञ्जायमानं कत्वा निमुग्गो सुखं सातं विन्दति, एवं कदा नु खो ते थनूदरं थनवेमज्झं उदरञ्च ओतरित्वा अहं सुखं सातं पटिलभिस्सामीति वदति । "अच्चङ्घसोव नागोव, जितं मे तुत्ततोमरं । कारणं नप्पजानामि, सम्मत्तो लक्खणूरुया'ति ।। एत्थ तुत्तं वुच्चति कण्णमूले विज्झनअयदण्डको। तोमरन्ति पादादीसु विज्झनदण्डतोमरं । अडसोति मत्थके विज्झनकुटिलकण्टको। यो च नागो पभिन्नमत्तो अच्चसो होति, अङ्कुसं अतीतो; अङ्गुसेन विज्झियमानोपि वसं न गच्छति, सो "जितं मया तुत्ततोमरं, यो अहं अङ्कसस्सपि वसं न गच्छामी'"ति मददप्पेन किञ्चि कारणं न बुज्झति । यथा सो अच्चङ्कुसो नागो “जितं मे तुत्ततोमर"न्ति किञ्चि कारणं नप्पजानाति, एवं अहम्पि लक्खणसम्पन्नऊरुताय लक्खणूरुया सम्मत्तो मत्तो पमत्तो उम्मत्तो विय किञ्चि कारणं नप्पजानामीति वदति । अथ वा अच्चङ्घसोव नागो अहम्पि सम्मत्तो लक्खणूरुया किञ्चि ततो विरागकारणं नप्पजानामि । कस्मा ? यस्मा तेन नागेन विय जितं मे तुत्ततोमरं, न कस्सचि वदतो वचनं आदियामि ।। तयि गेधितचित्तोस्मीति भद्दे लक्खणूरु तयि बद्धचित्तोस्मि । गेधितचित्तोति वा गेधं अज्झपेतचित्तो। चित्तं विपरिणामितन्ति पकति जहित्वा ठितं । पटिगन्तं न सक्कोमीति निवत्तितुं न सक्कोमि । वङ्कयस्तोव अम्बुजोति बळिसं गिलित्वा ठितमच्छो विय । "घसो"तिपि पाठो, अयमेवत्थो । वामूरूति वामाकारेन सण्ठितऊरु, कदलिक्खन्धसदिसऊरूति वा अत्थो। सजाति आलिङ्ग । मन्दलोचनेति इत्थियो न तिखिणं निज्झायन्ति मन्दं आलोचेन्ति ओलोकेन्ति, 264 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३४८-३४८) पञ्चसिखगीतगाथावण्णना २६५ तस्मा “मन्दलोचना''ति वुच्चन्ति । पलिस्सजाति सब्बतोभागेन आलिङ्ग। एतं मे अभिपत्थितन्ति एतं मया अभिण्हं पत्थितं । अप्पको वत मे सन्तोति पकतियाव मन्दो समानो। वेल्लितकेसियाति केसा मुञ्चित्वा पिट्ठियं विस्सट्ठकाले सप्पो विय वेल्लन्ता गच्छन्ता अस्साति वेल्लितकेसी, तस्सा वेल्लितकेसिया। अनेकभावो समुप्पादीति अनेकविधो जातो। अनेकभागोति वा पाठो । अरहन्तेव दक्खिणाति अरहन्तम्हि दिन्नदानं विय नानप्पकारतो पभिन्नो। यं मे अस्थि कतं पुञ्जन्ति यं मया कतं पुञमत्थि । अरहन्तेसु तादिसूति तादिलक्खणप्पत्तेसु अरहन्तेसु । तया सद्धिं विपच्चतन्ति सब्बं तया सद्धिमेव विपाकं देतु । एकोदीति एकीभावं गतो। निपको सतोति नेपक्कं वुच्चति पञ्जा, ताय समन्नागतोति निपको। सतिया समन्नागतत्ता सतो। अमतं मुनि जिगीसानोति यथा सो बुद्धमुनि अमतं निब्बानं जिगीसति परियेसति, एवं तं अहं सूरियवच्छसे जिगीसामि परियेसामि । यथा वा सो अमतं जिगीसानो एसन्तो गवेसन्तो विचरति, एवाहं तं एसन्तो गवेसन्तो विचरामीतिपि अत्थो । यथापि मुनि नन्देय्य, पत्वा सम्बोधिमुत्तमन्ति यथा बुद्धमुनि बोधिपल्लङ्के निसिन्नो सब्ब ताणं पत्वा नन्देय्य तोसेय्य । एवं नन्देय्यन्ति एवमेव अहम्पि तया मिस्सीभावं गतो नन्देय्यं, पीतिसोमनस्सजातो भवेय्यन्ति वदति । ताहं भद्दे वरेय्याहेति अहेति आमन्तनं, अहे भद्दे सरियवच्छसे, सक्केन देवानमिन्देन "किं द्वीसु देवलोकेसु देवरजं गण्हसि, सुरियवच्छस"न्ति, एवं वरे दिन्ने देवरज्जं पहाय “सूरियवच्छसं गण्हामी"ति एवं तं अहं वरेय्यं इच्छेय्यं गण्हेय्यन्ति अत्थो । सालंव न चिरं फुल्लन्ति तव पितु नगरद्वारे नचिरं पुप्फितो सालो अस्थि । सो अतिविय मनोहरो । तं नचिरं फुल्लसालं विय। पितरं ते सुमेधसेति अतिसस्सिरीकं तव पितरं वन्दमानो नमस्सामि नमो करोमि । यस्सासेतादिसी पजाति यस्स आसि एतादिसी धीता। 265 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा ३४९. संसन्दतीति कस्मा गीतसद्दस्स चेव वीणासद्दस्स च वण्णं कथेसि ? किं तत्थ भगवतो सारागो अत्थीति ? नत्थि । छळङ्गुपेक्खाय उपेक्खको भगवा एतादिसेसु ठानेसु, केवलं इट्ठानिट्टं जानाति, न तत्थ रज्जति । वुत्तम्पि चेतं "संविज्जति खो, आवुसो, भगवतो चक्खु, पस्सति भगवा चक्खुना रूपं, छन्दरागो भगवतो नत्थि, सुविमुत्तचित्तो भगवा | संविज्जति खो, आवुसो, भगवतो सोत "न्तिआदि (सं० नि० २.४.२३२) । सचे पन वण्णं न कथेय्य, पञ्चसिखो "ओकासो मे कतो" ति न जानेय्य । अथ सक्को “भगवता पञ्चसिखस्स ओकासो न कतो" ति देवता गहेत्वा ततोव पटिनिवत्तेय्य, ततो महाजानियो भवेय्य । वण्णे पन कथिते "कतो भगवता पञ्चसिखस्स ओकासो "ति देवताहि सद्धिं उपसङ्कमित्वा पञ्हं पुच्छित्वा विस्सज्जनावसाने असीतिया देवतासहस्सेहि सद्धिं सोतापत्तिफले पतिट्ठहिस्सतीति ञत्वा वण्णं कथेसि । २६६ तत्थ कदा संयूळ्हाति कदा गन्थिता पिण्डिता । तेन खो पनाहं, भन्ते, समयेनाति तेन समयेन तस्मिं तुम्हाकं सम्बोधिप्पत्तितो पट्ठाय अट्ठमे सत्ताहे । भद्दा नाम सूरियवच्छसाति नामतो भद्दा सरीरसम्पत्तिया सूरियवच्छसा । भगिनीति वोहारवचनमेतं, देवधीतात अत्थो । परकामिनीति परं कामेति अभिकङ्क्षति । उपनच्चन्तियाति नच्चमानाय । सा किर एकस्मिं समये चातुमहाराजिकदेवेहि सद्धिं सक्कस्स देवराजस्स नच्चं दस्सनत्थाय गता, तस्मिञ्च खणे सक्को तथागतस्स अट्ठ यथाभुच्चे गुणे पयिरुदाहासि । एवं तस्मिं दिवसे गन्त्वा नच्चन्ती अस्सोसि । ( ८.३४९ - ३५० ) सक्कूपसङ्कमवण्णना ३५०. पटिसम्मोदतीति "संसन्दति खो ते "तिआदीनि वदन्तो भगवा सम्मोदति, पञ्चसिखो पटिसम्मोदति । गाथा च भासन्तो पञ्चसिखो सम्मोदति, भगवा पटिसम्मोदति । आमन्तेसीति जानापेसि । तस्स किरेवं अहोसि " अयं पञ्चसिखो मया मम कम्मेन पेसितो अत्तनो कम्मं करोति । एवरूपस्स सत्थु सन्तिके ठत्वा कामगुणूपसहितं अननुच्छविकं कथेसि, नटा नाम निल्लज्जा होन्ति, कथेन्तो विप्पकारम्पि दस्सेय्य, हन्द नं मम कम्मं जानापेमी 'ति चिन्तेत्वा आमन्तेसि । 266 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३५१-३५२) सक्कूपसङ्कमवण्णना २६७ ३५१. एवञ्च पन तथागताति धम्मसङ्गाहकत्थेरेहि ठपितवचनं । अभिवदन्तीति अभिवादनसम्पटिच्छनेन वड्डितवचनेन वदन्ति । अभिवदितोति वड्डितवचनेन वुत्तो।। उरुन्दा समपादीति महन्ता विवटा अहोसि, अन्धकारो गुहायं अन्तरधायि । आलोको उदपादीति यो पकतिया गुहायं अन्धकारो, सो अन्तरहितो, आलोको जातो। सब्बमेतं धम्मसङ्गाहकानं वचनं। ३५२. चिरपटिकाहं, भन्तेति चिरतो अहं, चिरतो पट्ठायाहं दस्सनकामोति अत्थो । केहिचि केहिचि किच्चकरणीयेहीति देवानं धीता च पुत्ता च अङ्के निब्बत्तन्ति, पादपरिचारिका इत्थियो सयने निब्बत्तन्ति, तासं मण्डनपसाधनकारिका देवता सयनं परिवारेत्वा निब्बत्तन्ति, वेय्यावच्चकरा अन्तोविमाने निब्बत्तन्ति, एतेसं अत्थाय अड्डकरणं नाम नत्थि । ये पन सीमन्तरे निब्बत्तन्ति, ते “तव सन्तका, मम सन्तका"ति निच्छेतुं असक्कोन्ता अड्डे करोन्ति, सक्कं देवराजानं पुच्छन्ति । सो “यस्स विमानं आसन्नतरं, तस्स सन्तका"ति वदति । सचे द्वेपि समट्ठाने होन्ति, “यस्स विमानं ओलोकेन्ती ठिता, तस्स सन्तका"ति वदति । सचे एकम्पि न ओलोकेति, तं उभिन्नं कलहुपच्छेदनत्थं अत्तनो सन्तकं करोति। कीळादीनिपि किच्चानि करणीयानेव। एवरूपानि तानि करणीयानि सन्धाय “केहिचि केहिचि किच्चकरणीयेही"ति आह । सलळागारकेति सलळमयगन्धकुटियं । अञतरेन समाधिनाति तदा किर भगवा सक्कस्सेव अपरिपाकगतं आणं विदित्वा ओकासं अकारेतुकामो फलसमापत्तिविहारेन निसीदि । तं एस अजानन्तो “अञ्जतरेन समाधिना"ति आह । भूजति च नामाति भूजतीति तस्सा नामं । परिचारिकाति पादपरिचारिका देवधीता। सा किर द्वे फलानि पत्ता, तेनस्सा देवलोके अभिरतियेव नत्थि । निच्चं भगवतो उपट्टानं आगन्त्वा अञ्जलिं सिरसि ठपेत्वा भगवन्तं नमस्समाना तिठ्ठति । नेमिसद्देन तम्हा समाधिम्हा वुद्वितोति "समापन्नो सदं सुणातीति नो वत रे वत्तब्बे, ननु भगवा सक्कस्स देवानमिन्दस्स “अपिचाहं आयस्मतो चक्कनेमिसद्देन तम्हा समाधिम्हा वुट्टितो'"ति भणतीति । तिठ्ठतु नेमिसद्दो, समापन्नो नाम अन्तोसमापत्तियं कण्णमूले धममानस्स सङ्खयुगळस्सापि असनिसन्निपातस्सापि सदं न सुणाति | भगवा पन “एत्तकं कालं सक्कस्स ओकासं न करिस्सामी''ति परिच्छिन्दित्वा कालवसेन फलसमापत्तिं समापन्नो । सक्को “न दानि मे सत्था ओकासं करोती''ति गन्धकुटिं पदक्खिणं कत्वा रथं निवत्तेत्वा देवलोकाभिमुखं पेसेसि । 267 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (८.३५३-३५३) गन्धकटिपरिवेणं रथसद्देन समोहितं पञ्चङ्गिकतूरियं विय अहोसि। भगवतो यथापरिच्छिन्नकालवसेन समापत्तितो बुद्वितस्स रथसद्देनेव पठमावज्जनं उप्पज्जि, तस्मा एवमाह। गोपकवत्थुवण्णना ३५३. सीलेसु परिपूरकारिनीति पञ्चसु सीलेसु परिपूरकारिनी। इत्थित्तं विराजेत्वाति इत्थित्तं नाम अलं, न हि इत्थित्ते ठत्वा चक्कवत्तिसिरिं, न सक्कमारब्रह्मसिरियो पच्चनुभवितुं, न पच्चेकबोधिं, न सम्मासम्बोधिं गन्तुं सक्काति एवं इत्थित्तं विराजेति नाम । महन्तमिदं पुरिसत्तं नाम सेढें उत्तमं, एत्थ ठत्वा सक्का एता सम्पत्तियो पापणितन्ति एवं पन परिसत्तं भावेति नाम । सापि एवमकासि । तेन वत्तं- "इत्थित्तं विराजेत्वा पुरिसत्तं भावेत्वा''ति । हीनं गन्धब्बकायन्ति हीनं लामकं गन्धब्बनिकायं । कस्मा पन ते परिसुद्धसीला तत्थ उप्पन्नाति ? पुब्बनिकन्तिया । पुब्बेपि किर नेसं एतदेव वसितट्टानं, तस्मा निकन्तिवसेन तत्थ उप्पन्ना । उपद्वानन्ति उपट्टानसालं । पारिचरियन्ति परिचरणभावं । गीतवादितेहि अम्हे परिचरिस्सामाति आगच्छन्ति । . पटिचोदेसीति सारेसि । सो किर ते दिस्वा "इमे देवपुत्ता अतिविय विरोचेन्ति अतिवण्णवन्तो, किं नु खो कम्मं कत्वा आगता''ति आवज्जन्तो “भिक्खू अहेसु"न्ति अद्दस । ततो "भिक्खू होन्तु, सीलेसु परिपूरकारिनो"ति उपधारेन्तो “परिपूरकारिनो''ति अद्दस । “परिपूरकारिनो होन्तु, अञो गुणो अस्थि नत्थी"ति उपधारेन्तो "झानलाभिनो'"ति अद्दस । “झानलाभिनो होन्तु, कुहिं वासिका"ति उपधारेन्तो “मव्हंव कुलूपका'"ति अद्दस । परिसुद्धसीला नाम छसु देवलोकेसु यत्थिच्छन्ति, तत्थ निब्बत्तन्ति । इमे पन उपरिदेवलोके च न निब्बत्ता । झानलाभिनो नाम ब्रह्मलोके निब्बत्तन्ति, इमे च ब्रह्मलोके न निब्बत्ता । अहं पन एतेसं ओवादे ठत्वा देवलोकसामिकस्स सक्कस्स देवानमिन्दस्स पल्लङ्के पुत्तो हुत्वा निब्बत्तो, इमे हीने गन्धब्बकाये निब्बत्ता। अद्विवेधपग्गला नामेते वट्टेत्वा वठूत्वा गाळ्हं विज्झितब्बाति चिन्तेत्वा कुतोमुखा नामातिआदीहि वचनेहि पटिचोदेसि । तत्थ कुतोमुखाति भगवति अभिमुखे धम्मं देसेन्ते तुम्हे कुतोमुखा किं अञा विहिता इतो चितो च ओलोकयमाना उदाहु निद्दायमाना ? दुद्दिवरूपन्ति दुद्दिवसभावं दटुं 268 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३५४-३५४) गोपकवत्थुवण्णना २६९ अयुत्तं । सहधम्मिकेति एकस्स सत्थु सासने समाचिण्णधम्मे कतपुछे । तेसं भन्तेति तेसं गोपकेन देवपुत्तेन एवं वत्वा पुन “अहो तुम्हे निल्लज्जा अहिरिका''तिआदीहि वचनेहि पटिचोदितानं द्वे देवा दिढेव धम्मे सतिं पटिलभिंसु । कायं ब्रह्मपुरोहितन्ति ते किर चिन्तयिंसु- “नटेहि नाम नच्चन्तेहि गायन्तेहि वादेन्तेहि आगन्त्वा दायो नाम लभितब्बो अस्स, अयं पन अम्हाकं दिढकालतो पट्टाय पक्खित्तलोणं उद्धनं विय तटतटायतेव, किं नु खो इद"न्ति आवज्जन्ता अत्तनो समणभावं परिसद्धसीलतं झानलाभितं तस्सेव कलपकभावञ्च दिस्वा "परिसद्धसीला नाम छसु देवलोकेसु यथारुचिते ठाने निब्बत्तन्ति, झानलाभिनो ब्रह्मलोके । मयं उपरिदेवलोकेपि ब्रह्मलोकेपि निब्बत्तितुं नासक्खिम्ह । अम्हाकं ओवादे ठत्वा अयं इत्थिका उपरि निब्बत्ता, मयं भिक्ख समाना भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा हीने गन्धब्बकाये निब्बत्ता अयं एवं निग्गण्हाती"ति अत्वा तस्स कथं सुणन्तायेव तेसु वै जना पठमज्झानसतिं पटिलभित्वा झानं पादकं करवा सकारे सम्मसन्ता अनागामिफलेयेव पतिहिंस। अथ सो परित्तो कामावचरत्तभावो धारेतुं नासक्खि । तस्मा तावदेव चवित्वा ब्रह्मपुरोहितेसु निब्बत्ता । सो च नेसं कायो तत्थ ठितानंयेव निब्बत्तो। तेन वुत्तं- “तेसं, भन्ते, गोपकेन देवपुत्तेन पटिचोदितानं द्वे देवा दिट्टेव धम्मे सतिं पटिलभिंसु कायं ब्रह्मपुरोहित"न्ति। तत्थ दिद्वेव धम्मेति तस्मिनेव अत्तभावे झानसतिं पटिलभिंसु । तत्थेव ठत्वा चुता पन कायं ब्रह्मपुरोहितं ब्रह्मपुरोहितसरीरं पटिलभिंसूति एवमत्थो दटुब्बो । एको पन देवोति एको देवपुत्तो निकन्तिं छिन्दितुं असक्कोन्तो कामे अज्झवसि, तत्थेव आवासिको अहोसि । ३५४. सङ्घञ्चुपट्टासिन्ति सङ्घञ्च उपट्ठासिं । सुधम्मतायाति धम्मस्स सुन्दरभावेन । तिदिवूपपन्नोति तिदिवे तिदसपुरे उपपन्नो । गन्धब्बकायूपगते वसीनेति गन्धब्बकायं आवासिको हुत्वा उपगते । ये च मयं पुब्बे मनुस्सभूताति ये पुब्बे मनुस्सभूता मयं अन्नेन पानेन उपट्टहिम्हाति इमिना सद्धिं योजत्व अत्थो वेदितब्बो। 269 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (८.३५४-३५४) पादूपसङ्गय्हाति पादे उपसङ्गय्ह पादधोवनपादमक्खनानुप्पदानेन पूजेत्वा चेव वन्दित्वा च । सके निवेसनेति अत्तनो घरे । इमस्सापि पदस्स उपट्टहिम्हाति इमिनाव सम्बन्धो।। पच्चत्तं वेदितब्बोति अत्तनाव वेदितब्बो। अरियान सुभासितानीति तुम्हेहि वुच्चमानानि बुद्धानं भगवन्तानं सुभासितानि । तुम्हे पन सेट्टमुपासमानाति उत्तमं बुद्धं भगवन्तं उपासमाना अनुत्तरे बुद्धसासने वा। ब्रह्मचरियन्ति सेठ्ठचरियं । भवतूपपत्तीति भवन्तानं उपपत्ति । अगारे वसतो मय्हन्ति घरमज्झे वसन्तस्स मय्हं । स्वजाति सो अज्ज । गोतमसावकेनाति इध गोपको गोतमसावकोति वुत्तो । समेच्चाति समागन्त्वा। हन्द वियायाम व्यायामाति हन्द उय्यमाम ब्यायमाम | मा नो मयं परपेस्सा अहुम्हाति नोति निपातमत्तं, मा मयं परस्स पेसनकारकाव अहुम्हाति अत्थो । गोतमसासनानीति इध पकतिया पटिविद्धं पठमज्झानमेव गोतमसासनानीति वुत्तं, तं अनुस्सरं अनुस्सरित्वाति अत्थो । चित्तानि विराजयित्वाति पञ्चकामगुणिकचित्तानि विराजयित्वा । कामे आदीनवन्ति विक्खम्भनवसेन पठमज्झानेन कामेसु आदीनवं अद्दसंसु, समुच्छेदवसेन ततियमग्गेन । कामसंयोजनबन्धनानीति कामसञोजनानि च कामबन्धनानि च । पापिमयोगानीति पापिमतो मारस्स योगभूतानि, बन्धनभूतानीति अत्थो । दुरच्चयानीति दुरतिक्कमानि । सइन्दा देवा सपजापतिकाति इन्दं जेट्टकं कत्वा उपविठ्ठा सइन्दा पजापतिं देवराजानं जेट्टकं कत्वा उपविठ्ठा सपजापतिका । सभायुपविट्ठाति सभायं उपविट्ठा, निसिन्नाति अत्थो । वीराति सूरा । विरागाति वीतरागा। विरजं करोन्ताति विरजं अनागामिमग्गं करोन्ता उप्पादेन्ता। नागोव सनानि गुणानीति कामसञोजनबन्धनानि छेत्वा देवे तावतिंसे अतिक्कमिंसु । संवेगजातस्साति जातसंवेगस्स सक्कस्स । 270 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३५५-३५५) मघमाणववत्थु कामाभिभूति दुविधानम्पि कामानं अभिभू । सतिया विहीनाति झानसतिविरहिता । तिण्णं तेसन्ति तेसु तीसु जनेसु । आवसिनेत्थ एकोति तत्थ हीने काये एकोयेव आवासिको जातो । सम्बोधिपथानुसारिनोति अनागामिमग्गानुसारिनो । देवेपि हन्तीति द्वे देवलोके हीळेन्ता अधोकरोन्ता उपचारप्पनासमाधीहि समाहितत्ता अत्तनो पादपसुं देवतानं मत्थके ओकिरन्ता आकासे उप्पतित्वा गताति । एतादिसी धम्मप्पकासनेत्थाति एत्थ सासने एवरूपा धम्मप्पकासना, याय सावका एतेहि गुणेहि समन्नागता होन्ति । न तत्थ किं कङ्क्षति कोचि सांवकोति किं तत्थ सावकेसु कोचि एकसावकोपि बुद्धादीसु वा चातुद्दिसभावे वा न कङ्क्षति “ सब्बदिसासु असज्जमानो अगय्हमानो विहरतीति । इदानि भगवतो वण्णं भणन्तो “नितिण्णओघं विचिकिच्छछिन्नं, बुद्धं नमस्साम जिनं जनिन्दन्ति आह । तत्थ विचिकिच्छछिन्नन्ति छिन्नविचिकिच्छं । जनिन्दन्ति सब्बलोकुत्तमं । २७१ यं ते धम्मन्ति यं तव धम्मं । अज्झगंसु तेति ते देवपुत्ता अधिगता । कार्य ब्रह्मपुरोहितन्ति अम्हाकं पस्सन्तानंयेव ब्रह्मपुरोहितसरीरं । इदं वुत्तं होति - यं तव धम्मं जानित्वा तेसं तिण्णं जनानं ते द्वे विसेसगू अम्हाकं परसन्तानंयेव कायं ब्रह्मपुरोहितं अधिगन्त्वा मग्गफलविसेसं अज्झगंसु, मयम्पि तस्स धम्मस्स पत्तिया आगतम्हासि मारिसाति । आगतम्हसेति सम्पत्तम्ह । कतावकासा भगवता, पञ्हं पुच्छेमु मारिसाति सचे नो भगवा ओकासं करोति, अथ भगवता कतावकासा हुत्वा पञ्हं, मारिस, पुच्छेय्यामाति अत्थो । मघमाणववत्थु ३५५. दीघरत्तं विसुद्धो खो अयं यक्खोति चिरकालतो पभुति विसुद्धो । चिरकालतो ? अनुप्पन्ने बुद्धे मगधरट्ठे मचलगामके मघमाणवकालतो पट्ठाय । तदा किरेस एकदिवसं कालस्सेव वुट्ठाय गाममज्झे मनुस्सानं गामकम्मकरणट्टानं गन्त्वा अत्तनो ठितट्ठानं पादन्तेनेव पंसुकचवरं अपनेत्वा रमणीयमकासि, अञ्ञो आगन्त्वा तत्थ अट्ठासि । सो तावतकेनेव सतिं पटिलभित्वा मज्झे गामस्स खलमण्डलमत्तं ठानं सोधेत्वा वालुकं 271 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (८.३५५-३५५) ओकिरित्वा दारूनि आहरित्वा सीतकाले अग्गिं करोति, दहरा च महल्लका च आगन्त्वा तत्थ निसीदन्ति । अथस्स एकदिवसं एतदहोसि - "मयं नगरं गन्त्वा राजराजमहामत्तादयो पस्साम, इमेसुपि चन्दिमसूरियेसु 'चन्दो नाम देवपुत्तो, सूरियो नाम देवपुत्तो'ति वदन्ति । किं नु खो कत्वा एते एता सम्पत्तियो अधिगता"ति ? ततो “नाओं किञ्चि, पुञकम्ममेव कत्वा''ति चिन्तेत्वा "मयापि एवंविधसम्पत्तिदायकं पुञकम्ममेव कत्तब्ब"न्ति चिन्तेसि । सो कालस्सेव वुट्ठाय यागु पिवित्वा वासिफरसुकुदालमुसलहत्थो चतुमहापथं गन्त्वा मुसलेन पासाणे उच्चालेत्वा पवट्टेति, यानानं अक्खपटिघातरुक्खे हरति, विसमं समं करोति, चतुमहापथे सालं करोति, पोक्खरणिं खणति, सेतुं बन्धति, एवं दिवसं कम्म कत्वा अत्थङ्गते सूरिये घरं एति । तं अञो पुच्छि – “भो, मघ, त्वं पातोव निक्खमित्वा सायं अरञतो एसि, किं कम्मं करोसी"ति ? पुञकम्मं करोमि । सग्गगामिमग्गं सोधेमीति । किमिदं, भो, पुनं नामाति ? त्वं न जानासीति ? आम, न जानामीति । नगरं गतकाले दिट्ठपुब्बा ते राजराजमहामत्तादयोति ? आम, दिट्ठपुब्बाति । पुञकम्मं कत्वा तेहि तं ठानं लद्धं, अहम्पि एवंविधसम्पत्तिदायकं कम्मं करोमि | "चन्दो नाम देवपुत्तो, सूरियो नाम देवपुत्तो''ति सुतपुब्बं तयाति ? आम सुतपुब्बन्ति । एतस्स सग्गस्स गमनमग्गं अहं सोधेमीति । इदं पन पुञकम्मं किं तवेव वट्टति, अञस्स न वट्टतीति ? न कस्सचेतं वारितन्ति । यदि एवं स्वे अरजं गमनकाले मय्हम्पि सई देहीति । पुनदिवसे तं गहेत्वा गतो, एवं तस्मिं गामे तेत्तिंस मनुस्सा तरुणवया सब्बे तस्सेव अनुवत्तका अहेसुं । ते एकच्छन्दा हुत्वा पुञकम्मानि करोन्ता विचरन्ति । यं दिसं गच्छन्ति, मग्गं समं करोन्ता एकदिवसेनेव करोन्ति, पोक्खरणिं खणन्ता, सालं करोन्ता, सेतुं बन्धन्ता एकदिवसेनेव निट्ठापेन्ति । अथ नेसं गामभोजको चिन्तेसि - “अहं पुब्बे एतेसु सुरं पिवन्तेसु पाणघातादीनि करोन्तेसु च कहापणादिवसेन चेव दण्डबलिवसेन च धनं लभामि । इदानि एतेसं पुञकरणकालतो पट्ठाय एत्तको आयो नत्थि, हन्द ने राजकुले परिभिन्दामी''ति राजानं उपसङ्कमित्वा चोरे, महाराज, पस्सामीति । कुहि, ताताति? मय्हं गामेति । किं चोरा नाम, ताताति? राजापराधिका देवाति । किं जातिकाति? गहपतिजातिका देवाति । गहपतिका किं करिस्सन्ति, तया जानमानेन कस्मा महं न कथितन्ति ? भयेन, महाराज, 272 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३५५-३५५) मघमाणववत्थु २७३ न कथेमि, इदानि मा मय्हं दोसं करेय्याथाति । अथ राजा “अयं मय्हं महारवं रवती"ति सद्दहित्वा "तेन हि गच्छ, त्वमेव ने आनेही"ति बलं दत्वा पेसेसि । सो गन्त्वा दिवसं अरजे कम्मं कत्वा सायमासं भुजित्वा गाममज्झे निसीदित्वा “स्वे किं कम्मं करिस्साम, किं मग्गं समं करोम, पोक्खरणिं खणाम, सेतुं बन्धामा'ति मन्तयमानेयेव ते परिवारेत्वा "मा फन्दित्थ, रञो आणा"ति बन्धित्वा पायासि । अथ खो नेसं इथियो “सामिका किर वो ‘राजापराधिका चोरा'ति बन्धित्वा निय्यन्ती''ति सुत्वा “अतिचिरेन कूटा एते 'पुकम्मं करोमा'ति दिवसे दिवसे अर व अच्छन्ति, सब्बकम्मन्ता परिहीना, गेहे न किञ्चि वड्डति, सुटु बद्धा सुट्ठ गहिता''ति वदिंसु । गामभोजकोपि ते नेत्वा रञ्जो दस्सेसि । राजा अनुपपरिक्खित्वायेव “हत्थिना मद्दापेथा''ति आह । तेसु नीयमानेसु मघो इतरे आह - "भो, सक्खिस्सथ मम वचनं कातु"न्ति ? तव वचनं करोन्तायेवम्ह इमं भयं पत्ता, एवं सन्तेपि तव वचनं करोम, भण भो, किं करोमाति ? एत्थ भो वट्टे चरन्तानं नाम निबद्धं एतं, किं पन तुम्हे चोराति ? न चोरम्हाति । इमस्स लोकस्स सच्चकिरिया नाम अवस्सयो, तस्मा सब्बेपि “यदि अम्हे चोरा, हत्थी मद्दतु, अथ न चोरा, मा मद्दतू"ति सच्चकिरियं करोथाति । ते तथा अकंसु । हत्थी उपगन्तुम्पि न सक्कोति, विरवन्तो पलायति, हत्थिं तुत्ततोमरसेहि कोट्टेन्तापि उपनेतुं न सक्कोन्ति । “हत्थिं उपनेतुं न सक्कोमा"ति रञो आरोचेसुं । तेन हि उपरि कटेन पटिच्छादेत्वा मद्दापेथाति । उपरि कटे दिन्ने दिगुणरवं विरवन्तो पलायति । राजा सुत्वा पेसुञकारकं पक्कोसापेत्वा आह - "तात, हत्थी मद्दितुं न इच्छती"ति ? आम, देव, जेट्टकमाणवो मन्तं जानाति, मन्तस्सेव अयमानुभावोति । राजा तं पक्कोसापेत्वा “मन्तो किर ते अत्थी''ति पुच्छि ? नत्थि, देव, मय्हं मन्तो, सच्चकिरियं पन मयं करिम्ह - “यदि अम्हे रो चोरा, मद्दतु, अथ न चोरा, मा मद्दतू"ति, सच्चकिरियाय नो एस आनुभावोति । किं पन, तात, तुम्हे कम्मं करोथाति ? अम्हे, देव, मग्गं समं करोम, चतुमहापथे सालं करोम, पोक्खरणिं खणाम, सेतुं बन्धाम, एवरूपानि पुञकम्मानि करोन्ता विचरिम्हाति ! अयं तुम्हे किमत्थं पिसुणेसीति ? अम्हाकं पमत्तकाले इदञ्चिदञ्च लभति, अप्पमत्तकाले तं नत्थि, एतेन कारणेनाति । तात, अयं हत्थी नाम तिरच्छानो, सोपि 273 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३५५-३५५) मघमाणववत्थु २७५ अत्थी"ति आहंसु । सा “अत्थी''ति आह । हन्द मूलं गण्हाहीति । मूलं न गण्हामि, सचे मम पत्तिं करोथ, दस्सामीति | एथ भो मातुगामस्स पत्तिं न करोम, अरनं गन्त्वा रुक्खं छिन्दिस्सामाति निक्खमिंसु । ततो वड्डकी “किं न लद्धा, तात, कण्णिका''ति पुच्छि । ते तमत्थं आरोचयिंसु । वड्डकी कण्णिकमञ्चे निसिन्नोव आकासं उल्लोकेत्वा “भो अज्ज नक्खत्तं सुन्दरं, इदं अनं संवच्छरं अतिक्कमित्वा सक्का लद्धं, तुम्हेहि च दुखेन आभता दब्बसम्भारा, ते सकलसंवच्छरेन इमस्मि व ठाने पूतिका भविस्सन्ति । देवलोके निब्बत्तकाले तस्सापि एकस्मिं कोणे साला होतु, आहरथ न"न्ति आह । सापि याव ते न पुन आगच्छन्ति, ताव कण्णिकाय हेट्ठिमतले “अयं साला सुधम्मा नामा''ति अक्खरानि छिन्दापेत्वा अहतेन वत्थेन वेठेत्वा ठपेसि । कम्मिका आगन्त्वा - "आहर, रे कण्णिकं, यं होतु तं होतु । तुम्हम्पि पत्तिं करिस्सामा"ति आहेसु । सा नीहरित्वा “ताता, याव अट्ठ वा सोळस वा गोपानसियो न आरोहन्ति, ताव इमं वत्थं मा निब्बेठयित्था"ति वत्वा अदासि । ते “साधू"ति सम्पटिच्छित्वा गहेत्वा गोपानसियो आरोपेत्वाव वत्थं निब्बेठेसुं । एको महागामिकमनुस्सो उद्धं उल्लोकेन्तो अक्खरानि दिस्वा “किं, भो, इदन्ति अक्खरझुं मनुस्सं पक्कोसापेत्वा दस्सेसि । सो “सुधम्मा नाम अयं साला'"ति आह । "हरथ, भो, मयं आदितो पट्ठाय सालं कत्वा नाममत्तम्पि न लभाम, एसा रतनमत्तेन कणिकरुक्खेन सालं अत्तनो नामेन कारेती"ति विरवन्ति । वड्डकी तेसं विरवन्तानंयेव गोपानसियो पवेसेत्वा आणिं दत्वा सालाकम्मं निट्ठापेसि । सालं तिधा विभजिंसु, एकस्मिं कोट्ठासे इस्सरानं वसनट्ठानं अकंसु, एकस्मि दुग्गतानं, एकस्मिं गिलानानं । तेत्तिंस जना तेत्तिंस फलकानि पञपेत्वा हथिस्स सक्षं अदंसु- “आगन्तुको आगन्त्वा यस्स अत्थते फलके निसीदति, तं गहेत्वा फलकसामिकस्सेव गेहे पतिठ्ठपेहि । तस्स पादपरिकम्मपिट्ठिपरिकम्मखादनीयभोजनीयसयनानि सब्बानि फलकसामिकस्सेव भारो भविस्सती"ति। हत्थी आगतागतं गहेत्वा फलकसामिकस्स गेहं नेति, सो तस्स तं दिवसं कत्तब्बं करोति । मघमाणवो सालतो अविदूरे ठाने कोविळाररुक्खं रोपापेसि, मूले चस्स पासाणफलकं अत्थरि । नन्दा नामस्स भरिया अविदूरे पोक्खरणिं खणापेसि, चित्ता 275 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (८.३५५-३५५) तुम्हाकं गुणे जानाति । अहं मनुस्सो हुत्वापि न जानामि, तुम्हाकं वसनगामं तुम्हाकंयेव पुन अहरणीयं कत्वा देमि, अयम्पि हत्थी तुम्हाकंयेव होतु, पेसुञकारकोपि तुम्हाकंयेव दासो होतु। इतो पट्ठाय महम्पि पुचकम्मं करोथाति धनं दत्वा विस्सज्जेसि । ते धनं गहेत्वा वारेन वारेन हथि आरुय्ह गच्छन्ता मन्तयन्ति “भो पुञकम्मं नाम अनागतभवत्थाय करियति, अम्हाकं पन अन्तोउदके पुप्फितं नीलुप्पलं विय इमस्मि व अत्तभावे विपाकं देति । इदानि अतिरेकं पुजं करिस्सामा"ति, किं करोमाति ? चतुमहापथे थावरं कत्वा महाजनस्स विस्समनसालं करोम, इत्थीहि पन सद्धिं अपत्तिकं कत्वा करिस्साम, अम्हेसु हि “चोरा''ति गहेत्वा नीयमानेसु इत्थीनं एकापि चिन्तामत्तकम्पि अकत्वा "सुबद्धा सुगहिता''ति उट्ठहिंसु, तस्मा तासं पत्तिं न दस्सामाति । ते अत्तनो गेहानि गन्त्वा हत्थिनो तेत्तिंसपिण्डं देन्ति, तेत्तिंस तिणमुट्ठियो आहरन्ति, तं सब्बं हत्थिस्स कुच्छिपूरं जातं । ते अरओं पविसित्वा रुक्खे छिन्दन्ति, छिन्नं छिन्नं हत्थी कड्डित्वा सकटपथे ठपेसि । ते रुक्खे तच्छेत्वा सालाय कम्मं आरभिंसु । मघस्स गेहे सुजाता, सुधम्मा, चित्ता, नन्दाति चतस्सो भरियायो अहेसुं। सुधम्मा वड्ढकिं पुच्छति - "तात, इमे सहाया कालस्सेव गन्त्वा सायं एन्ति, किं कम्म करोन्ती"ति ? “सालं करोन्ति, अम्मा''ति । “तात, मय्हम्पि सालाय पत्तिं कत्वा देही''ति । “इत्थीहि अपत्तिकं करोमाति एते वदन्तीति । सा वड्डकिस्स अट्ठ कहापणे दत्वा "तात, येन केनचि उपायेन मय्हं पत्तिकं करोही"ति आह । सो “साधु अम्मा'"ति वत्वा पुरेतरं वासिफरसुं गहेत्वा गाममज्झे ठत्वा “किं भो अज्ज इमस्मिम्पि काले न निक्खमथा''ति उच्चासदं कन्वा “सब्बे मग्गं आरुळहा''ति ञत्वा “गच्छथ ताव तुम्हे, महं पपञ्चो अत्थी'ति ते पुरतो कत्वा अझं मग्गं आरुयह कणिकूपगं रुक्खं छिन्दित्वा तच्छेत्वा मटुं कत्वा आहरित्वा सुधम्माय गेहे ठपेसि - "मया देहीति वुत्तदिवसे नीहरित्वा ददेय्यासी''ति । __ अथ निहिते दब्बसम्भारकम्मे भूमिकम्मतो पट्ठाय चयबन्धनथम्भुस्सापन सङ्घाटयोजन कण्णिकमञ्चबन्धनेसु कतेसु सो वड्डकी कण्णिकमञ्चे निसीदित्वा चतूहि दिसाहि गोपानसियो उक्खिपित्वा “भो एकं पमुटुं अत्थी'"ति आह । किं भो पमुटुं, सब्बमेव त्वं पमुस्ससीति । इमा भो गोपानसियो कत्थ पतिठ्ठहिस्सन्तीति ? कण्णिका नाम लड़े वट्टतीति । कुहिं भो इदानि सक्का लद्धन्ति ? कुलानं गेहे सक्का लद्धन्ति । आहिण्डन्ता पुच्छथाति । ते अन्तोगामं पविसित्वा पुच्छित्वा सुधम्माय घरद्वारे “इमस्मिं घरे कण्णिका 274 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (८.३५५-३५५) मालावच्छे रोपापेसि, सब्बजेट्ठिका पन आदासं गहेत्वा अत्तभावं मण्डयमानाव विचरति । मघो तं आह - "भद्दे, सुधम्मा, सालाय पत्तिका जाता, नन्दा पोक्खरणिं खणापेसि, चित्ता मालावच्छे रोपापेसि । तव पन पुञकम्मं नाम नत्थि, एकं पुत्रं करोहि, भद्दे"ति सा "त्वं कस्स कारणा करोसि, ननु तया कतं मय्हमेवाति वत्वा अत्तभावमण्डनमेव अनुयुञ्जति । ___ मघो यावतायुकं ठत्वा ततो चवित्वा तावतिसभवने सक्को हुत्वा निब्बत्ति, तेपि तेत्तिंस गामिकमनुस्सा कालङ्कृत्वा तेत्तिंस देवपुत्ता हुत्वा तस्सेव सन्तिके निब्बत्ता । सक्कस्स वेजयन्तो नाम पासादो सत्त योजनसतानि उग्गच्छि, धजो तीणि योजनसतानि उग्गच्छि, कोविळाररुक्खस्स निस्सन्देन समन्तातियोजनसतपरिमण्डलो पञ्चदसयोजनपरिणाहक्खन्धो पारिच्छत्तको निब्बत्ति, पासाणफलकस्स निस्सन्देन पारिच्छत्तकमूले सट्ठियोजनिका पण्डुकम्बलसिला निब्बत्ति। सुधम्माय कण्णिकरुक्खस्स निस्सन्देन तियोजनसतिका सुधम्मा देवसभा निब्बत्ति । नन्दाय पोक्खरणिया निस्सन्देन पञ्जासयोजना नन्दा नाम पोक्खरणी निब्बत्ति। चित्ताय मालावच्छवत्थुनिस्सन्देन सट्ठियोजनिकं चित्तलतावनं नाम उय्यानं निब्बत्ति । सक्को देवराजा सुधम्माय देवसभाय योजनिके सुवण्णपल्लङ्के निसिन्नो तियोजनिके सेतच्छत्ते धारियमाने तेहि देवपुत्तेहि ताहि देवकचाहि अड्डतियाहि नाटककोटीहि द्वीसु देवलोकेसु देवताहि च परिवारितो महासम्पत्तिं ओलोकेन्तो ता तिस्सो इथियो दिस्वा "इमा ताव पञआयन्ति, सुजाता कुहि"न्ति ओलोकेन्तो “अयं मम वचनं अकत्वा गिरिकन्दराय बकसकुणिका हुत्वा निब्बत्ता"ति दिस्वा देवलोकतो ओतरित्वा तस्सा सन्तिकं गतो । सा दिस्वाव सञ्जानित्वा अधोमुखा जाता । "बाले, इदानि किं सीसं न उक्खिपसि ? त्वं मम वचनं अकत्वा अत्तभावमेव मण्डयमाना वीतिनामेसि । सुधम्माय च नन्दाय च चित्ताय च महासम्पत्ति निब्बत्ता, एहि अम्हाकं सम्पत्तिं पस्सा"ति देवलोकं नेत्वा नन्दाय पोक्खरणिया पक्खिपित्वा पल्लङ्के निसीदि । नाटकित्थियो “कुहिं गतत्थ, महाराजा"ति पुच्छिंसु । सो अनारोचेतुकामोपि ताहि निप्पीळियमानो “सुजाताय सन्तिक"न्ति आह । कुहिं निब्बत्ता, महाराजाति ? कन्दरपादेति । इदानि कुहिन्ति ? नन्दापोक्खरणियं मे विस्सट्ठाति । एथ, भो, अम्हाकं अय्यं पस्सामाति सब्बा तत्थ अगमंसु । सा पुब्बे सब्बजेट्ठिका हुत्वा ता अवमञ्जित्थ । 276 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३५५-३५५) मघमाणववत्थु २७७ इदानि तापि तं दिस्वा - “पस्सथ, भो अम्हाकं अय्याय मुखं कक्कटकविज्झनसूलसदिस"न्तिआदीनि वदन्तियो केळिं अकंसु । सा अतिविय अट्टियमाना सक्कं देवराजानं आह - “महाराज, इमानि सुवण्णरजतमणिविमानानि वा नन्दापोक्खरणी वा मव्ह किं करिस्सति, जातिभूमियेव महाराज सत्तानं सुखा, मं तत्थेव कन्दरपादे विस्सज्जेही"ति । सक्को तं तत्थ विस्सज्जेत्वा "मम वचनं करिस्ससी'ति आह । करिस्सामि, महाराजाति। पञ्च सीलानि गहेत्वा अखण्डानि कत्वा रक्ख, कतिपाहेन तं एतासं जेट्टिकं करिस्सामीति । सा तथा अकासि । सक्को कतिपाहस्स अच्चयेन “सक्का नु खो सीलं रक्खितु"न्ति गन्त्वा मच्छरूपेन उत्तानको हुत्वा तस्सा पुरतो उदकपिढे ओसरति, सा “मतमच्छको भविस्सती"ति गन्त्वा सीसे अग्गहेसि । मच्छो नङ्गुटुं चालेसि । सा “जीवति म "ति उदके विस्सज्जेसि । सक्को आकासे ठत्वा “साधु, साधु, रक्खसि सिक्खापदं, एवं तं रक्खमानं कतिपाहेनेव नाटकानं जेट्ठिकं करिस्सामी"ति आह । तस्सापि पञ्च वस्ससतानि आयु अहोसि । एकदिवसम्पि उदरपूरं नालत्थं, सुक्खित्वा परिसुक्खित्वा मिलायमानापि सीलं अखण्डेत्वा कालङ्कृत्वा बाराणसियं कुम्भकारगेहे निब्बत्ति । __ सक्को "कुहिं निब्बत्ता'"ति ओलोकेन्तो दिस्वा “ततो इध आनेतुं न सक्का, जीवितवुत्तिमस्सा दस्सामी"ति सुवण्णएळालुकानं यानकं पूरेत्वा मज्झे गामस्स महल्लकवेसेन निसीदित्वा “एळालुकानि गण्हथा''ति उक्कुट्टिमकासि । समन्ता गामवासिका आगन्त्वा “देहि, ताता'"ति आहंसु । अहं सीलरक्खकानं देमि, तुम्हे सीलं रक्खथाति । तात मयं सीलं नाम कीदिसन्तिपि न जानाम, मूलेन देहीति । “सीलरक्खकानंयेव दम्मी"ति आह । “एथ, रे कोसि अयं एळालुकमहल्लको"ति सब्बे निवत्तिंसु । सा दारिका पुच्छि – “अम्म, तुम्हे एळालुकत्थाय गता तुच्छहत्थाव आगता"ति । कोसि, अम्म, एळालुकमहल्लको “अहं सीलरक्खकानं दम्मी"ति वदति, नूनिमस्स दारिका सीलं खादित्वा वत्तन्ति, मयं सीलमेव न जानामाति । सा "मय्हं आनीतं भविस्सती"ति गन्त्वा “एळालुकं, तात, देही"ति आह । “त्वं सीलानि रक्खसि अम्मा'"ति ? “आम, तात रक्खामी''ति । इदं मया तुम्हमेव आभतन्ति गेहद्वारे यानेन सद्धिं ठपेत्वा पक्कामि । सापि यावजीवं सीलं रक्खित्वा चवित्वा वेपचित्तिअसुरस्स धीता हुत्वा निब्बत्ति । 277 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (८.३५७-३५७) सीलनिस्सन्देन पासादिका अहोसि। सो “धीतुविवाहमङ्गलं करिस्सामी"ति असुरे सन्निपातेसि । सक्को “कुहिं निब्बत्ता"ति ओलोकेन्तो “असुरभवने निब्बत्ता, अज्जस्सा विवाहमङ्गलं करिस्सन्ती'"ति दिस्वा "इदानि यंकिञ्चि कत्वा आनेतब्बा मया"ति असुरवण्णं निम्मिनित्वा गन्त्वा असुरानं अन्तरे अठ्ठासि | "तव सामिकं वदेही"ति तस्सा हत्थे पिता पुष्फदामं अदासि “यं इच्छसि, तस्सूपरि खिपाही"ति । सा ओलोकेन्ती सक्कं दिस्वा पुब्बसन्निवासेन सजातसिनेहा “अयं मे सामिको"ति तस्सूपरि दामं खिपि । सो तं बाहाय गहेत्वा आकासे उप्पति, तस्मिं खणे असुरा सञ्जानिंसु । ते "गण्हथ, गण्हथ, जरसक्कं, वेरिको अम्हाकं, न मयं एतस्स दारिकं दस्सामा"ति अनुबन्धिंसु । वेपचित्ति पुच्छि “केनाहटा"ति ? "जरसक्केन महाराजा'ति । “अवसेसेसु अयमेव सेट्ठो, अपेथा"ति आह । सक्को नं नेत्वा अड्वतियकोटिनाटकानं जेट्टिकट्ठाने ठपेसि । सा सक्कं वरं याचि- "महाराज, महं इमस्मिं देवलोके माता वा पिता वा भाता वा भगिनी वा नत्थि, यत्थ यत्थ गच्छसि, तत्थ तत्थ मं गहेत्वाव गच्छ महाराजा"ति । सक्को "साधू"ति पटिझं अदासि । __ एवं मचलगामके मघमाणवकालतो पट्ठाय विसुद्धभावमस्स सम्पस्सन्तो भगवा “दीघरत्तं विसुद्धो खो अयं यक्खो"ति आह । अत्थसहितन्ति अत्थनिस्सितं कारणनिस्सितं । रणवण्णना ३५७. किं संयोजनाति किं बन्धना, केन बन्धनेन बद्धा हुत्वा। पुथुकायाति बहुजना। अवेराति अप्पटिघा। अदण्डाति आवुधदण्डधनदण्डविनिमुत्ता। असपत्ताति अपच्चत्थिका । अव्यापज्जाति विगतदोमनस्सा । विहरेमु अवेरिनोति अहो वत केनचि सद्धिं अवेरिनो विहरेय्याम, कत्थचि कोपं न उप्पादेत्वा अच्छराय गहितकं जवसहस्सेन सद्धिं परिभुजेय्यामाति दानं दत्वा पूजं कत्वा च पत्थयन्ति । इति च नेसं होतीति एवञ्च नेसं अयं पत्थना होति । अथ च पनाति एवं पत्थनाय सतिपि। इस्सामछरियसंयोजनाति परसम्पत्तिखीयनलक्खणा इस्सा, अत्तसम्पत्तिया परेहि 278 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३५८-३५८) पहवेय्याकरणवण्णना २७९ साधारणभावस्स असहनलक्खणं मच्छरियं, इस्सा च मच्छरियञ्च संयोजनं एतेसन्ति इस्सामच्छरियसंयोजना। अयमेत्थ सोपो| वित्थारतो पन इस्सामच्छरियानि अभिधम्मे वुत्तानेव। आवासमच्छरियेन पनेत्थ यक्खो वा पेतो वा हुत्वा तस्सेव आवासस्स सङ्कारं सीसेन उक्खिपित्वा विचरति । कुलमच्छरियेन तस्मिं कुले अझेसं दानादीनि करोन्ते दिस्वा "भिन्नं वतिदं कुलं ममा"ति चिन्तयतो लोहितम्पि मुखतो उग्गच्छति, कुच्छिविरेचनम्पि होति, अन्तानिपि खण्डाखण्डानि हुत्वा निक्खमन्ति । लाभमच्छरियेन सङ्घस्स वा गणस्स वा सन्तके लाभे मच्छरायित्वा पुग्गलिकपरिभोगेन परिभुजित्वा यक्खो वा पेतो वा महाअजगरो वा हुत्वा निब्बत्तति । सरीरवण्णगुणवण्णमच्छरियेन पन परियत्तिधम्ममच्छरियेन च अत्तनोव वण्णं वण्णेति, न परेसं वण्णं, “किं वण्णो एसो"ति तं तं दोसं वदन्तो परियत्तिञ्च कस्सचि किञ्चि अदेन्तो दुब्बण्णो चेव एळमूगो च होति । अपिच आवासमच्छरियेन लोहगेहे पच्चति । कुलमच्छरियेन अप्पलाभो होति । लाभमच्छरियेन गूथनिरये निब्बत्तति । वण्णमच्छरियेन भवे निब्बत्तस्स वण्णो नाम न होति । धम्ममच्छरियेन कुक्कुळनिरये निब्बत्तति । इदं पन इस्सामच्छरियसंयोजन सोतापत्तिमग्गेन पहीयति । याव तं नप्पहीयति, ताव देवमनुस्सा अवेरतादीनि पत्थयन्तापि वेरादीहि न परिमुच्चन्तियेव । तिण्णा मेत्थ कङ्घाति एतस्मिं पञ्हे मया तुम्हाकं वचनं सुत्वा कङ्खा तिण्णाति वदति, न मग्गवसेन तिण्णकङ्खतं दीपेति । विगता कथंकथाति इदं कथं, इदं कथन्ति अयम्पि कथंकथा विगता। ३५८. निदानादीनि वुत्तत्थानेव । पियाप्पियनिदानन्ति पियसत्तसङ्खारनिदानं मच्छरियं, अप्पियसत्तसङ्खारनिदाना इस्सा। उभयं वा उभयनिदानं । पब्बजितस्स हि सद्धिविहारिकादयो, गहट्ठस्स पुत्तादयो हत्थिअस्सादयो वा सत्ता पिया होन्ति केळायिता ममायिता, मुहुत्तम्पि ते अपस्सन्तो अधिवासेतुं न सक्कोति । सो अनं तादिसं पियसत्तं लभन्तं दिस्वा इस्सं करोति । "इमिना अम्हाकं किञ्चि कम्मं अत्थि, मुहुत्तं ताव नं देथा"ति तमेव अञ्जेहि याचितो “न सक्का दातुं, किलमिस्सति वा उक्कण्ठिस्सति 279 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (८.३५८-३५८) वा''तिआदीनि वत्वा मच्छरियं करोति । एवं ताव उभयम्पि पियसत्तनिदानं होति । भिक्खुस्स पन पत्तचीवरपरिक्खारजातं, गहठ्ठस्स वा अलङ्कारादिउपकरणं पियं होति मनापं, सो अञस्स तादिसं उप्पज्जमानं दिस्वा “अहो वतस्स एवरूपं न भवेय्या''ति इस्सं करोति, याचितो वापि "मयम्पेतं ममायन्ता न परिभुजाम, न सक्का दातुन्ति मच्छरियं करोति । एवं उभयम्पि पियसङ्खारनिदानं होति । अप्पिये पन ते वुत्तप्पकारे सत्ते च सङ्घारे च लभित्वा सचेपिस्स ते अमनापा होन्ति, तथापि किलेसानं विपरीतवुत्तिताय "ठपेत्वा मं को अञ्जो एवरूपस्स लाभी"ति इस्सं वा करोति, याचितो तावकालिकम्पि अददमानो मच्छरियं वा करोति । एवं उभयम्पि अप्पियसत्तसङ्खारनिदानं होति । छन्दनिदानन्ति एत्थ परियेसनछन्दो, पटिलाभछन्दो, परिभोगछन्दो, सन्निधिछन्दो, विस्सज्जनछन्दोति पञ्चविधो छन्दो । कतमो परियेसनछन्दो ? इधेकच्चो अतित्तो छन्दजातो रूपं परियेसति, सदं । गन्धं । रसं । फोहब्बं परियेसति, धनं परियेसति । अयं परियेसनछन्दो । कतमो पटिलाभछन्दो ? इधेकच्चो अतित्तो छन्दजातो रूपं पटिलभति, सदं । गन्धं । रसं । फोहब्बं पटिलभति, धनं पटिलभति । अयं पटिलाभछन्दो । कतमो परिभोगछन्दो ? इधेकच्चो अतित्तो छन्दजातो रूपं परिभुञ्जति, सदं । गन्धं । रसं । फोट्टब्बं परिभुजति, धनं परिभुजति । अयं परिभोगछन्दो । कतमो सन्निधिछन्दो ? इधेकच्चो अतित्तो छन्दजातो धनसन्निचयं करोति “आपदासु भविस्सती"ति । अयं सन्निधिछन्दो। कतमो विस्सज्जनछन्दो? इधेकच्चो अतित्तो छन्दजातो धनं विस्सज्जेति, हत्थारोहानं, अस्सारोहानं, रथिकानं, धनुग्गहानं- "इमे मं रखिस्सन्ति गोपिस्सन्ति ममायिस्सन्ति सम्परिवारयिस्सन्ती"ति । अयं विस्सज्जनछन्दो । इमे पञ्च छन्दा। इध तण्हामत्तमेव, तं सन्धाय इदं वुत्तं । वितक्कनिदानोति एत्थ “लाभं पटिच्च विनिच्छयो''ति (दी० नि० २.११०) एवं 280 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३५९-३५९) वेदनाकम्मट्ठानवण्णना २८१ वुत्तो विनिच्छयवितक्को वितक्को नाम । विनिच्छयोति द्वे विनिच्छया तण्हाविनिच्छयो च, दिट्ठिविनिच्छयो च। अट्ठसतं तण्हाविचरितं तण्डाविनिच्छयो नाम । द्वासट्ठि दिट्ठियो दिविविनिच्छयो नामाति एवं वृत्ततण्हाविनिच्छयवसेन हि इट्ठानिढुपियाप्पियववत्थानं न होति । तदेव हि एकच्चस्स इटुं होति, एकच्चस्स अनिट्टं पच्चन्तराजमज्झिमदेसराजूनं गण्डुप्पादमिगमंसादीसु विय । तस्मिं पन तोहाविनिच्छयविनिच्छिते पटिलद्धवत्थुस्मिं “एत्तकं रूपस्स भविस्सति, एत्तकं सद्दस्स, एत्तकं गन्धस्स, एत्तकं रसस्स, एत्तकं फोट्टब्बस्स भविस्सति, एत्तकं मय्हं भविस्सति, एत्तकं परस्स भविस्सति, एत्तकं निदहिस्सामि, एत्तकं परस्स दस्सामी''ति ववत्थानं वितक्कविनिच्छयेन होति । तेनाह 'छन्दो खो, देवानमिन्द, वितक्कनिदानोति । पपञ्चसासङ्कानिदानोति तयो पपञ्चा तण्हापपञ्चो, मानपपञ्चो, दिट्ठिपपञ्चोति । तत्थ अट्ठसततण्हाविचरितं तण्हापपञ्चो नाम । नवविधो मानो मानपपञ्चो नाम । द्वासट्टि दिट्ठियो दिठ्ठिपपञ्चो नाम । तेसु इध तण्हापपञ्चो अधिप्पेतो । केनटेन पपञ्चो ? मत्तपमत्ताकारपापनद्वेन पपञ्चो । तंसम्पयुत्ता सञ्जा पपञ्चसआ । सवा वुच्चति कोटासो "सानिदाना हि पपञ्चसङ्खा"तिआदीसु विय। इति पपञ्चसञआसङ्खानिदानोति पपञ्चसञ्जाकोठासनिदानो वितक्कोति अत्थो । पपञ्चसासङ्घानिरोधसारुप्पगामिनिन्ति एतिस्सा पपञ्चसासङ्खाय खया निरोधो वूपसमो, तस्स सारुप्पञ्चेव तत्थ गामिनिं चाति सह विपस्सनाय मग्गं पुच्छति । वेदनाकम्मवानवण्णना ३५९. अथस्स भगवा सोमनस्संपाहन्ति तिस्सो वेदना आरभि । किं पन भगवता पुच्छितं कथितं, अपुच्छितं, सानुसन्धिकं, अननुसन्धिकन्ति ? पुच्छितमेव कथितं, नो अपुच्छितं, सानुसन्धिकमेव, नो अननुसन्धिकं । देवतानहि रूपतो अरूपं पाकटतरं, अरूपेपि वेदना पाकटतरा | कस्मा ? देवतानहि करजकायं सुखुमं, कम्मजं बलवं, करजकायस्स सुखुमत्ता, कम्मजस्स बलवत्ता एकाहारम्पि अतिक्कमित्वा न तिठ्ठन्ति, उण्हपासाणे ठपितसप्पिपिण्डि विय विलीयन्तीति सब्बं ब्रह्मजाले वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । तस्मा भगवा सक्कस्स तिस्सो वेदना आरभि । दुविधहि कम्मट्ठानं - रूपकम्मट्ठानं, अरूपकम्मट्ठानञ्च । रूपपरिग्गहो, अरूपपरिग्गहोतिपि एतदेव वुच्चति । तत्थ भगवा यस्स 281 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा रूपं पाकटं, तस्स सङ्क्षेपमनसिकारवसेन वा वित्थारमनसिकारवसेन वा चतुधातुववत्थानं वित्थारेन्तो रूपकम्मट्ठानं कथेति । यस्स अरूपं पाकटं, तस्स अरूपकम्मट्ठानं कथेति । कथेन्तो च तस्स वत्थुभूतं रूपकम्मट्ठानं दस्सेत्वाव कथेति, देवानं पन अरूपकम्मट्ठानं पाकटन्ति अरूपकम्मट्ठानवसेन वेदना आरभि । तिविधो हि अरूपकम्मट्ठाने अभिनिवेसो- फस्सवसेन, वेदनावसेन, चित्तवसेनाति । कथं ? एकच्चस्स हि सङ्घित्तेन वा वित्थारेन वा परिग्गहिते रूपकम्मट्ठाने तस्मिं आरम् चित्तचेतसिकानं पठमाभिनिपातो तं आरम्मणं फुसन्तो उप्पज्जमानो फस्सो पाटो हो एकच्चस्स तं आरम्मणं अनुभवन्ती उप्पज्जमाना वेदना पाकटा होति । एकच्चस्स तं आरम्मणं परिग्गहेत्वा तं विजानन्तं उप्पज्जमानं विज्ञणं पाकटं होति । ( ८.३५९ - ३५९ ) तत्थ यस्स फस्सो पाकटो होति, सोपि न केवलं फस्सोव उप्पज्जति, तेन सद्धिं तदेव आरम्मणं अनुभवमाना वेदनापि उप्पज्जति, सञ्जानमाना सञ्ञापि, चेतयमाना चेतनापि, विजानमानं विञ्ञाणम्पि उप्पज्जतीति फस्सपञ्चमकेयेव परिग्गहाति । यस् वेदना पाकटा होति, सोपि न केवलं वेदनाव उप्पज्जति, ताय सद्धिं तदेव आरम्मणं फुसमानो फस्सोपि उप्पज्जति, सञ्जानमाना सञ्ञापि, चेतयमाना चेतनापि, विजानमानं विञ्ञाणम्पि उप्पज्जतीति फस्सपञ्चमकेयेव परिग्गण्हाति । यस्स विञ्ञाणं पाकटं होति, सोपि न केवलं विञ्ञणमेव उप्पज्जति, तेन सद्धिं तदेवारम्मणं फुसमानो फस्सोपि उप्पज्जति, अनुभवमाना वेदनापि सञ्जानमाना सञ्ञापि, चेतयमाना चेतनापि उप्पज्जतीति फस्सपञ्चमकेयेव परिग्गण्हाति । सो " इमे फस्सपञ्चमका धम्मा किं निस्सिता "ति उपधारेन्तो “वत्थुनिस्सिता त पजानाति । वत्थु नाम करजकायो, यं सन्धाय वुत्तं - " इदञ्च पन में विणं थ सितं एत्थ पटिबद्ध "न्ति । सो अत्थतो भूतानि चेव उपादारूपानि च । एवमेत्थ वत्थु रूपं, फस्सपञ्चमका नामन्ति नामरूपमत्तमेव पस्सति । रूपञ्चेत्थ रूपक्खन्धो, नामं चत्तारो अरूपिनो खन्धाति पञ्चक्खन्धमत्तं होति । नामरूपविनिमुत्ता हि पञ्चक्खन्धा, पञ्चक्खन्धविनिमुत्तं वा नामरूपं नत्थि । सो “इमे पञ्चक्खन्धा किं हेतुका ति उपपरिक्खन्तो “अविज्जादिहेतुका "ति पस्सति । ततो " पच्चयो चेव पच्चयुप्पन्नञ्च इदं, अञ्ञ सत्तो वा पुग्गलो वा नत्थि, सुद्धसङ्घारपुञ्जमत्तमेवा" ति सप्पच्चयनामरूपवसेन तिलक्खणं आरोपेत्वा विपस्सनापटिपाटिया " अनिच्चं दुक्खं अनत्ता "ति सम्मसन्तो 282 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३५९-३५९) वेदनाकम्मट्ठानवण्णना २८३ विचरति, सो अज्ज अज्जाति पटिवेधं आकङ्खमानो तथारूपे दिवसे उतुसप्पायं, पुग्गलसप्पायं, भोजनसप्पायं, धम्मसवनसप्पायं वा लभित्वा एकपल्लङ्केन निसिन्नोव विपस्सनं मत्थकं पापेत्वा अरहत्ते पतिट्ठाति । एवमिमेसम्पि तिण्णं जनानं याव अरहत्ता कम्मट्ठानं कथितं होति । इध पन भगवा अरूपकम्मट्ठानं कथेन्तो वेदनासीसेन कथेसि । फस्सवसेन हि विज्ञाणवसेन वा कथियमानं एतस्स न पाकटं होति, अन्धकारं विय खायति । वेदनावसेन पन पाकटं होति। कस्मा? वेदनानं उप्पत्तिया पाकटताय । सुखदुक्खवेदनानहि उप्पत्ति पाकटा | यदा सुखं उप्पज्जति, तदा सकलं सरीरं खोभेन्तं मद्दन्तं फरमानं अभिसन्दयमानं सतधोतसप्पिं खादापयन्तं विय, सतपाकतेलं मक्खयमानं विय, घटसहस्सेन परिळाहं निब्बापयमानं विय, “अहो सुखं, अहो सुख"न्ति वाचं निच्छारयमानमेव उप्पज्जति । यदा दुक्खं उप्पज्जति, तदा सकलसरीरं खोभेन्तं मद्दन्तं फरमानं अभिसन्दयमानं तत्तफालं पवेसेन्तं विय, विलीनतम्बलोहेन आसिञ्चन्तं विय, सुक्खतिणवनप्पतिम्हि अरचे दारुउक्काकलापं खिपमानं विय “अहो दुक्खं, अहो दुक्ख"न्ति विप्पलापयमानमेव उप्पज्जति । इति सुखदुक्खवेदनानं उप्पत्ति पाकटा होति । अदुक्खमसुखा पन दुद्दीपना अन्धकारेन विय अभिभूता। सा सुखदुक्खानं अपगमे सातासातपटिक्खेपवसेन मज्झत्ताकारभूता अदुक्खमसुखा वेदनाति नयतो गण्हन्तस्स पाकटा होति । यथा किं ? यथा अन्तरा पिट्ठिपासाणं आरुहित्वा पलातस्स मिगस्स अनुपदं गच्छन्तो मिगलुद्दको पिट्ठिपासाणस्स ओरभागेपि परभागेपि पदं दिस्वा मज्झे अपस्सन्तोपि "इतो आरुळहो, इतो ओरुळ्हो, मज्झे पिट्टिपासाणे इमिना पदेसेन गतो भविस्सती"ति नयतो जानाति । एवं आरुळहट्ठाने पदं विय हि सुखवेदनाय उप्पत्ति पाकटा होति, ओरुळ्हट्ठाने पदं विय दुक्खवेदनाय उप्पत्ति पाकटा होति, इतो आरुय्ह, इतो ओरुय्ह, मज्ञ एवं गतोति नयतो गहणं विय सुखदुक्खानं अपगमे सातासातपटिक्खेपवसेन मज्झत्ताकारभूता अदुक्खमसुखा वेदनाति नयतो गण्हन्तस्स पाकटा होति । एवं भगवा पठमं रूपकम्मट्ठानं कथेत्वा पच्छा अरूपकम्मट्ठानं वेदनावसेन निवत्तेत्वा दस्सेसि । न केवलञ्च इधेव एवं दस्सेसि, महासतिपट्टाने, मज्झिमनिकायम्हि सतिपट्टाने, चूळतहासङ्घये, महातहासङ्घये, चूळवेदल्लसुत्ते, महावेदल्लसुत्ते, रट्टपालसुत्ते, मागण्डियसुत्ते, धातुविभङ्गे, आनेजसप्पाये, सकले वेदनासंयुत्तेति एवं अनेकेसु सुत्तन्तेसु पठमं रूपकम्मट्ठानं 283 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (८.३६०-३६०) कथेत्वा पच्छा अरूपकम्मट्ठानं वेदनावसेन निवत्तेत्वा दस्सेसि । यथा च तेसु तेसु, एवं इमस्मिम्पि सक्कपञ्हे पठमं रूपकम्मट्ठानं कथेत्वा पच्छा अरूपकम्मट्ठानं वेदनावसेन निवत्तेत्वा दस्सेसि । रूपकम्मट्ठानं पनेत्थ वेदनाय आरम्मणमत्तकंयेव सङित्तं, तस्मा पाळियं नारुळ्हं भविस्सति । ३६०. अरूपकम्मट्ठाने यं तस्स पाकटं वेदनावसेन अभिनिवेसमुखं, तमेव दस्सेतुं सोमनस्संपाहं, देवानमिन्दातिआदिमाह । तत्थ दुविधेनाति द्विविधेन, द्वीहि कोट्ठासेहीति अत्थो । एवरूपं सोमनस्सं न सेवितब्बन्ति एवरूपं गेहसितसोमनस्सं न सेवितब् । गेहसितसोमनस्सं नाम “तत्थ कतमानि छ गेहसितानि सोमनस्सानि ? चक्खुविधेय्यानं रूपानं इट्टानं कन्तानं मनापानं मनोरमानं लोकामिसपटिसंयुत्तानं पटिलाभं वा पटिलाभतो समनुपस्सतो, पुब्बे वा पटिलद्धपुब्बं अतीतं निरुद्धं विपरिणतं समनुस्सरतो उप्पज्जति सोमनस्सं, यं एवरूपं सोमनस्सं, इदं वुच्चति गेहसितं सोमनस्स"न्ति एवं छसु द्वारेसु वुत्तकामगुणनिस्सितं सोमनस्सं (म० नि० ३.३०६) । एवरूपं सोमनस्सं सेवितब्बन्ति एवरूपं नेक्खम्मसितं सोमनस्सं सेवितब् । नेक्खम्मसितं सोमनस्सं नाम - "तत्थ कतमानि छ नेक्खम्मसितानि सोमनस्सानि ? रूपानं त्वेव अनिच्चतं विदित्वा विपरिणामविरागनिरोधं पुब्बे चेव रूपा एतरहि च सब्बे ते रूपा अनिच्चा, दुक्खा, विपरिणामधम्माति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पाय पस्सतो उप्पज्जति सोमनस्सं, यं एवरूपं सोमनस्सं, इदं वुच्चति नेक्खम्मसितं सोमनस्स"न्ति (म० नि० ३.३०८) एवं छसु द्वारेसु इट्ठारम्मणे आपाथगते अनिच्चादिवसेन विपस्सनं पट्टपेत्वा उस्सुक्कापेतुं सक्कोन्तस्स "उस्सुक्किता मे विपस्सना''ति सोमनस्सजातस्स उप्पन्नं सोमनस्सं । सेवितब्बन्ति इंदं नेक्खम्मवसेन, विपस्सनावसेन, अनुस्सतिवसेन, पठमज्झानादिवसेन च उप्पज्जनकसोमनस्सं सेवितब्बं नाम । तत्थ यं चे सवितक्कं सविचारन्ति तस्मिम्पि नेक्खम्मसिते सोमनस्से यं नेक्खम्मवसेन, विपस्सनावसेन, अनुस्सतिवसेन, पठमज्झानवसेन च उप्पन्नं सवितक्कं सविचारं सोमनस्सन्ति जानेय्य । यं चे अवितक्कं अविचारन्ति यं पन दुतियततियज्झानवसेन उप्पन्नं अवितक्कं अविचारं सोमनस्सन्ति जानेय्य । ये अवितक्के अविचारे, ते पणीततरेति एतेसुपि द्वीसु यं अवितक्कं अविचारं, तं पणीततरन्ति अत्थो । 284 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३६१-३६१) वेदनाकम्मट्ठानवण्णना २८५ इमिना किं कथितं होति? द्विनं अरहत्तं कथितं । कथं ? एको किर भिक्खु सवितक्कसविचारे सोमनस्से विपस्सनं पठ्ठपेत्वा “इदं सोमनस्सं किं निस्सित"न्ति उपधारेन्तो "वत्थुनिस्सित"न्ति पजानातीति फस्सपञ्चमके वुत्तनयेनेव अनुक्कमेन अरहत्ते पतिठ्ठाति । एको अवितक्कअविचारे सोमनस्से विपस्सनं पट्ठपेत्वा वुत्तनयेनेव अरहत्ते पतिठ्ठाति । तत्थ अभिनिविट्ठसोमनस्सेसुपि सवितक्कसविचारतो अवितक्कअविचारं पणीततरं। सवितक्कसविचारसोमनस्सविपस्सनातोपि अवितक्कअविचारविपस्सना पणीततरा। सवितक्कसविचारसोमनस्सफलसमापत्तितोपि अवितक्कअविचारसोमनस्सफलसमापत्तियेव पणीततरा । तेनाह भगवा “ये अवितक्के अविचारे, ते पणीततरे"ति । ३६१. एवरूपं दोमनस्सं न सेवितब्बन्ति एवरूपं गेहसितदोमनस्सं न सेवितब्बं । गेहसितदोमनस्सं नाम - "तत्थ कतमानि छ गेहसितानि दोमनस्सानि ? चक्खुवि य्यानं रूपानं इट्टानं कन्तानं मनापानं मनोरमानं लोकामिसपटिसंयुत्तानं अप्पटिलाभं वा अप्पटिलाभतो समनुपस्सतो पुब्बे वा अपटिलद्धपुब्बं अतीतं निरुद्धं विपरिणतं समनुस्सरतो उप्पज्जति दोमनस्सं, यं एवरूपं दोमनस्सं, इदं वुच्चति गेहसितदोमनस्स''न्ति (म० नि० ३.३०७)। एवं छसु द्वारेसु इटारम्मणं नानुभविं, नानुभविस्सामि, नानुभवामीति वितक्कयतो उप्पन्नं कामगुणनिस्सितं दोमनस्सं ।। एवरूपं दोमनस्सं सेवितब्बन्ति एवरूपं नेक्खम्मसितदोमनस्सं सेवितब्बं । नेक्खम्मसितदोमनस्सं नाम - "तत्थ कतमानि छ नेक्खम्मसितानि दोमनस्सानि ? रूपानं त्वेव अनिच्चतं विदित्वा विपरिणामविरागनिरोधं पुब्बे चेव रूपा एतरहि च सब्बे ते रूपा अनिच्चा, दुक्खा, विपरिणामधम्माति एवमेतं यथाभूतं सम्पप्पञाय दिस्वा अनुत्तरेसु विमोक्खेसु पिहं उपट्ठापेति 'कुदास्सु नामाहं तदायतनं, उपसम्पज्ज विहरिस्सामि, यदरिया एतरहि आयतनं उपसम्पज्ज विहरन्तीति । इति अनुत्तरेसु विमोक्खेसु पिहं उपट्ठापयतो उप्पज्जति पिहपच्चया दोमनस्सं, यं एवरूपं दोमनस्सं, इदं वुच्चति नेक्खम्मसितदोमनस्स"न्ति (म० नि० ३.३०७) एवं छसु द्वारेसु इट्ठारम्मणे आपाथगते अनुत्तरविमोक्खसङ्खातअरियफलधम्मेसु पिहं उपट्ठपेत्वा तदधिगमाय अनिच्चादिवसेन विपस्सनं पट्टपेत्वा उस्सुक्कापेतुमसक्कोन्तस्स इमम्पि पक्खं, इमम्पि मासं, इमम्पि संवच्छरं विपस्सनं उस्सुक्कापेत्वा अरियभूमिं पापुणितुं नासक्खिन्ति अनुसोचतो उप्पन्नं दोमनस्सं । सेवितब्बन्ति इदं नेक्खम्मवसेन, विपस्सनावसेन, अनुस्सतिवसेन, पठमज्झानादिवसेन च उप्पज्जनकदोमनस्सं सेवितब्बं नाम । 285 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा तत्थ यं चे सवितक्कसविचारन्ति तस्मिम्पि दुविधे दोमनस्से गेहसितदोमनस्समेव सवितक्कसविचारदोमनस्सं नाम । नेक्खम्मवसेन, विपस्सनावसेन, अनुस्सतिवसेन, पठमदुतियज्झानवसेन च उप्पन्न दोमनस्सं पन अवितक्कअविचारदोमनस्सन्ति वेदितब्बं । निप्परियायेन पन अवितक्कअविचारदोमनस्सं नाम नत्थि । दोमनस्सिन्द्रियञ्हि एकंसेन अकुसलञ्चेव सवितक्कसविचारञ्च, एतस्स पन भिक्खुनो मञ्ञनवसेन सवितक्कसविचारन्ति च अवितक्कअविचारन्ति च वृत्तं । तत्रायं नयो - इध भिक्खु दोमनस्सपच्चयभूते सवितक्कसविचारधम्मे अवितक्कअविचारधम्मे च दोमनस्सपच्चया एव उप्पन्ने मग्गफलधम्मे च अञ्ञसं पटिपत्तिदस्सनवसेन दोमनस्सन्ति गहेत्वा “ कदा नु खो मे सवितक्कसविचारदोमनस्से विपस्सना पट्ठपिता भविस्सति, कदा अवितक्क अविचारदोमनस्से "ति च "कदा नु खो मे सवितक्कसविचारदोमनस्सफलसमापत्ति निब्बत्तिता भविस्सति, कदा अवितक्कअविचारदोमनस्सफलसमापत्ती 'ति चिन्तेत्वा तेमासिकं, छमासिकं, नवमासिकं वा पटिपदं गण्हाति । तेमासिकं गहेत्वा पठममासे एकं यामं जग्गति, द्वे यामे निद्दाय ओकासं करोति, मज्झिमे मासे द्वे यामे जग्गति, एकं यामं निद्दाय ओकासं करोति, पच्छिममासे चङ्कमनिसज्जायेव यापेति । एवं चे अरहत्तं पापुणाति, इच्चेतं कुसलं । नो चे पाणाति, विसेसेत्वा छमासिकं गण्हाति । तत्रापि द्वे द्वे मासे वृत्तनयेन पटिपज्जित्वा अरहत्तं पापुणितुं असक्कोन्तो विसेसेत्वा नवमासिकं गण्हाति । तत्रापि तयो तयो मासे तथेव पटिपज्जित्वा अरहत्तं पापुणितुं असक्कोन्तस्स "न लद्वं वत मे सब्रह्मचारीहि सद्धिं विसुद्धिपवारणं पवारेतु "न्ति आवज्जतो दोमनस्सं उप्पज्जति, अस्सुधारा पवत्तन्ति गामन्तपब्भारवासीमहासीवत्थेरस्स विय । ( ८.३६१-३६१) महासवत्थेरवत्थु थेरो किर अट्ठारस महागणे वाचेसि । तस्सोवादे ठत्वा तिंससहस्सा भिक्खू अरहत्तं पापुर्णिसु । अथेको भिक्खु " मय्हं ताव अब्भन्तरे गुणा अप्पमाणा, कीदिसा नु खो मे आचरियस्स गुणा "ति आवज्जन्तो पुथुज्जनभावं पस्सित्वा “अम्हाकं आचरियो असं अवस्सयो होति, अत्तनो भवितुं न सक्कोति, ओवादमस्स दस्सामी "ति आकासेन गन्त्वा विहारसमीपे ओतरित्वा दिवाट्ठाने निसिन्नं आचरियं उपसङ्कमित्वा वत्तं दस्सेत्वा एकमन्तं निसीदि । 286 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३६१-३६१) महासीवत्थेरवत्यु २८७ थेरो- “किं कारणा आगतोसि पिण्डपातिका"ति आह। एक अनुमोदनं गहिस्सामीति आगतोस्मि, भन्तेति । ओकासो न भविस्सति, आवुसोति ? वितक्कमाळके ठितकाले पुच्छिस्सामि, भन्तेति । तस्मिं ठाने अशे पुच्छन्तीति । भिक्खाचारमग्गे, भन्तेति । तत्रापि अजे पुच्छन्तीति। दुपट्टनिवासनट्ठाने, सङ्घाटिपारुपनट्ठाने, पत्तनीहरणट्ठाने, गामे चरित्वा आसनसालायं यागुपीतकाले, भन्तेति । तत्थ अट्ठकथाथेरा अत्तनो कथं विनोदेन्ति, आवुसोति । अन्तोगामतो निक्खन्तकाले पुच्छिस्सामि, भन्तेति । तत्रापि अझे पुच्छन्ति, आवुसोति । अन्तरामग्गे, भन्ते, भोजनसालायं भत्तकिच्चपरियोसाने, भन्ते, दिवाट्ठाने, पादधोवनकाले, मुखधोवनकाले, भन्तेति ? तदा अछे पुच्छन्तीति । ततो पट्ठाय याव अरुणा अपरे पुच्छन्ति, आवुसोति । दन्तकटुं गहेत्वा मुखधोवनत्थं गमनकाले, भन्तेति ? तदा अज्जे पुच्छन्तीति । मुखं धोवित्वा आगमनकाले, भन्तेति ? तत्रापि अझे पुच्छन्तीति । सेनासनं पविसित्वा निसिन्नकाले, भन्तेति ? तत्रापि अञ्छे पुच्छन्तीति । भन्ते, ननु मुखं धोवित्वा सेनासनं पविसित्वा तयो चत्तारो पल्लङ्के उसुमं गाहापेत्वा योनिसोमनसिकारे कम्मं करोन्तानं ओकासकालेन भवितब्बं सिया, मरणखणम्पि न लभिस्सथ, भन्ते, फलकसदिसत्थ भन्ते परस्स अवस्सयो होथ, अत्तनो भवितुं न सक्कोथ, न मे तुम्हाकं अनुमोदनाय अत्थोति आकासे उप्पतित्वा अगमासि। थेरो- “इमस्स भिक्खुनो परियत्तिया कम्मं नत्थि, मय्हं पन अङ्कुसको भविस्सामीति आगतो"ति ञत्वा “इदानि ओकासो न भविस्सति, पच्चूसकाले गमिस्सामी"ति पत्तचीवरं समीपे कत्वा सब्बं दिवसभागं पठमयाममज्झिमयामञ्च धम्मं वाचेत्वा पच्छिमयामे एकस्मिं थेरे उद्देसं गहेत्वा निक्खन्ते पत्तचीवरं गहेत्वा तेनेव सद्धिं निक्खन्तो । निसिन्नअन्तेवासिका आचरियो केनचि पपञ्चेन निक्खन्तोति मअिंसु । निक्खन्तो थेरो कोचि देव समानाचरियभिक्खूति सझं अकासि । थेरो किर “मादिसस्स अरहत्तं नाम किं, द्वीहतीहेनेव पापुणित्वा पच्चागमिस्सामी"ति अन्तेवासिकानं अनारोचेत्वाव आसाळ्हीमासस्स जुण्हपक्खतेरसिया निक्खन्तो गामन्तपब्भारं गन्त्वा चङ्कम आरुय्ह कम्मट्ठानं मनसिकरोन्तो तं दिवसं अरहत्तं गहेतुं नासक्खि । उपोसथदिवसे सम्पत्ते “द्वीहतीहेन अरहत्तं गण्हिस्सामीति आगतो, गहेतुं पन नासक्खिं । तयो मासे पन तीणि दिवसानि विय याव महापवारणा ताव जानिस्सामी"ति वस्सं उपगन्त्वापि गहेतुं नासक्खि | पवारणादिवसे चिन्तेसि- “अहं 287 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (८.३६१-३६१) द्वीहतीहेन अरहत्तं गण्हिस्सामीति आगतो, तेमासेनापि नासक्खिं, सब्रह्मचारिनो पन विसुद्धिपवारणं पवारेन्ती"ति । तस्सेवं चिन्तयतो अस्सुधारा पवत्तन्ति । ततो "न मञ्चे महं चतूहि इरियापथेहि मग्गफलं उप्पज्जिस्सति, अरहत्तं अप्पत्वा नेव मञ्चे पिढेि पसारेस्सामि, न पादे धोविस्सामी"ति मञ्च उस्सापेत्वा ठपेसि । पुन अन्तोवस्सं पत्तं, अरहत्तं गहेतुं नासक्खियेव । एकूनतिसपवारणासु अस्सुधारा पवत्तन्ति । गामदारका थेरस्स पादेसु फालितट्ठानानि कण्टकेहि सिब्बन्ति, दवं करोन्तापि “अय्यस्स महासीवत्थेरस्स विय पादा होन्तू"ति दवं करोन्ति । थेरो तिंस संवच्छरे महापवारणादिवसे आलम्बणफलकं निस्साय ठितो “इदानि मे तिंस वस्सानि समणधम्मं करोन्तस्स, नासक्खिं अरहत्तं पापुणितुं, अद्धा मे इमस्मिं अत्तभावे मग्गो वा फलं वा नत्थि, न मे लद्धं सब्रह्मचारीहि सद्धिं विसुद्धिपवारणं पवारेतु"न्ति चिन्तेसि । तस्सेवं चिन्तयतोव दोमनस्सं उप्पज्जि, अस्सुधारा पवत्तन्ति । अथ अविदूरट्ठाने एका देवधीता रोदमाना अट्टासि । “को एत्थ रोदसी"ति ? “अहं, भन्ते, देवधीता"ति | "कस्मा रोदसी"ति ? "रोदमानेन मग्गफलं निब्बत्तितं, तेन अहम्पि एकं द्वे मग्गफलानि निब्बत्तेस्सामीति रोदामि, भन्ते'ति । ततो थेरो- “भो महासीवत्थेर, देवतापि तया सद्धिं केलिं करोन्ति, अनुच्छविकं नु खो ते एत"न्ति विपस्सनं वड्डेत्वा सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं अग्गहेसि । सो "इदानि निपज्जिस्सामी"ति सेनासनं पटिजग्गित्वा मञ्चकं पञपेत्वा उदकट्ठाने उदकं पच्चुपट्ठपेत्वा “पादे धोविस्सामी"ति सोपानफलके निसीदि । अन्तेवासिकापिस्स "अम्हाकं आचरियस्स समणधम्म कातुं गच्छन्तस्स तिस वस्सानि, सक्खि नु खो विसेसं निब्बत्तेतुं, नासक्खी"ति आवज्जयमाना “अरहत्तं पत्वा पादधोवनत्थं निसिन्नो"ति दिस्वा “अम्हाकं आचरियो अम्हादिसेसु अन्तेवासिकेसु तिट्ठन्तेसु 'अत्तनाव पादे धोविस्सती'ति अट्ठानमेतं, अहं धोविस्सामि अहं धोविस्सामी"ति तिंससहस्सानिपि आकासेन गन्त्वा वन्दित्वा “पादे धोविस्साम, भन्ते''ति आहंसु । आवुसो, इदानि तिंस वस्सानि होन्ति मम पादानं अधोतानं, तिठ्ठथ, तुम्हे, अहमेव धोविस्सामीति । सक्कोपि आवज्जन्तो- “महं अय्यो महासीवत्थेरो अरहत्तं पत्तो तिंससहस्सानं अन्तेवासिकानं 'पादे धोविस्तामा ति आगतानं पादे धोवितुं न देति । मादिसे पन उपट्ठाके 288 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३६२-३६२) महासीवत्थेरवत्थु २८९ तिद्वन्ते ‘महं अय्यो सयं पादे धोविस्सती'ति अट्ठानमेतं, अहं धोविस्सामी"ति सन्निट्ठानं कत्वा सुजाताय देविया सद्धिं भिक्खुसङ्घस्स सन्तिके पातुरहोसि । सो सुजं असुरकनं पुरतो कत्वा “अपेथ, भन्ते, मातुगामो''ति ओकासं कारेत्वा थेरं उपसङ्कमित्वा वन्दित्वा पुरतो उक्कुटिको निसीदित्वा “पादे धोविस्सामि, भन्ते''ति आह । कोसिय, इदानि मे तिंस वस्सानि पादानं अधोतानं, देवतानञ्च पकतियापि मनुस्ससरीरगन्धो नाम जेगुच्छो, योजनसते ठितानम्पि कण्ठे आसत्तकुणपं विय होति, अहमेव धोविस्सामीति । भन्ते, अयं गन्धो नाम न पायति, तुम्हाकं पन सीलगन्धो छ देवलोके अतिक्कमित्वा उपरि भवग्गं पत्वा ठितो । सीलगन्धतो अञो उत्तरितरो गन्धो नाम नत्थि, भन्ते, तुम्हाकं सीलगन्धेनम्हि आगतोति वामहत्थेन गोप्फकसन्धियं गहेत्वा दक्खिणहत्थेन पादतलं परिमज्जि | दहरकुमारस्सेव पादा अहेसुं । सक्को पादे धोवित्वा वन्दित्वा देवलोकमेव गतो । एवं “न लभामि सब्रह्मचारीहि सद्धिं विसुद्धिपवारणं पवारेतु"न्ति आवज्जन्तस्स उप्पन्नं दोमनस्सं निस्साय भिक्खुनो मानवसेन विपस्सनाय आरम्मणम्पि विपस्सनापि मग्गोपि फलम्पि सवितक्कसविचारदोमनस्सन्ति च अवितक्काविचारदोमनस्सन्ति च वुत्तन्ति वेदितब्बं । तत्थ एको भिक्खु सवितक्कसविचारदोमनस्से विपस्सनं पट्ठपेत्वा इदं दोमनस्सं किं निस्सितन्ति उपधारेन्तो वत्थुनिस्सितन्ति पजानातीति फस्सपञ्चमके वुत्तनयेनेव अनुक्कमेन अरहत्ते पतिट्ठाति । एको अवितक्काविचारे दोमनस्से विपस्सनं पट्टपेत्वा वुत्तनयेनेव अरहत्ते पतिद्वाति । तत्थ अभिनिविट्ठदोमनस्सेसुपि सवितक्कसविचारतो अवितक्कअविचारं पणीततरं । सवितक्कसविचारदोमनस्सविपस्सनातोपि अवितक्काविचारदोमनस्सविपस्सना पणीततरा। सवितक्कसविचारदोमनस्सफलसमापत्तितोपि अवितक्काविचारदोमनस्सफलसमापत्तियेव पणीततरा। तेनाह भगवा- “ये अवितक्कअविचारे ते पणीततरे"ति। - ३६२. एवरूपा उपेक्खा न सेवितब्बाति एवरूपा गेहसितउपेक्खा न सेवितब्बा । गेहसितउपेक्खा नाम “तत्थ कतमा छ गेहसितउपेक्खा । चक्खुना रूपं दिस्वा उप्पज्जति उपेक्खा बालस्स मूळहस्स पुथुज्जनस्स अनोधिजिनस्स अविपाकजिनस्स अनादीनवदस्साविनो अस्सुतवतो पुथुज्जनस्स, या एवरूपा उपेक्खा, रूपं सा नातिवत्तति, तस्मा सा उपेक्खा गेहसिताति वुच्चती"ति एवं छसु द्वारेसु इट्ठारम्मणे आपाथगते गुळपिण्डिके 289 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (८.३६३-३६३) निलीनमक्खिका विय रूपादीनि अनतिवत्तमाना तत्थेव लग्गा लग्गिता हुत्वा उप्पन्ना कामगुणनिस्सिता उपेक्खा न सेवितब्बा । एवरूपा उपेक्खा सेवितब्बाति एवरूपा नेक्खम्मसिता उपेक्खा सेवितब्बा। नेक्खम्मसिता उपेक्खा नाम- “तत्थ कतमा छ नेक्खम्मसिता उपेक्खा ? रूपानं त्वेव अनिच्चतं विदित्वा विपरिणामविरागनिरोधं 'पुब्बे चेव रूपा एतरहि च, सब्बे ते रूपा अनिच्चा, दुक्खा, विपरिणामधम्मा'ति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञाय पस्सतो उप्पज्जति उपेक्खा, या एवरूपा उपेक्खा, रूपं सा अतिवत्तति, तस्मा सा उपेक्खा नेक्खम्मसिताति वुच्चती"ति (म० नि० ३.३०८)। एवं छसु द्वारेसु इट्टानिट्ठआरम्मणे आपाथगते इटे अरज्जन्तस्स. अनिटे अदस्सन्तस्स. असमपेक्खनेन असम्मय्हन्तस्स उप्पन्ना विपस्सना आणसम्पयुत्ता उपेक्खा। अपिच वेदनासभागा तत्र मज्झत्तुपेक्खापि एत्थ उपेक्खाव । तस्मा सेवितब्बाति अयं नेक्खम्मवसेन विपस्सनावसेन अनुस्सतिट्ठानवसेन पठमदुतियततियचतुत्थज्झानवसेन च उप्पज्जनकउपेक्खा सेवितब्बा नाम । एत्थ यं चे सवितक्कं सविचारन्ति तायपि नेक्खम्मसितउपेक्खाय यं नेक्खम्मवसेन विपस्सनावसेन अनुस्सतिट्टानवसेन पठमज्झानवसेन च उप्पन्नं सवितक्कसविचारं उपेक्खन्ति जानेय्य । यं चे अवितक्कं अविचारन्ति यं पन दुतियज्झानादिवसेन उप्पन्नं अवितक्काविचारं उपेक्खन्ति जानेय्य । ये अवितक्के अविचारे ते पणीततरेति एतासु द्वीसु या अवितक्कअविचारा, सा पणीततराति अत्थो। इमिना किं कथितं होति ? द्विन्नं अरहत्तं कथितं । एको हि भिक्खु सवितक्कसविचारउपेक्खाय विपस्सनं पट्ठपेत्वा अयं उपेक्खा किं निस्सिताति उपधारेन्तो वत्थुनिस्सिताति पजानातीति फस्सपञ्चमके वुत्तनयेनेव अनुक्कमेन अरहत्ते पतिट्ठाति । एको अवितक्काविचाराय उपेक्खाय विपस्सनं पट्टपेत्वा वुत्तनयेनेव अरहत्ते पतिठ्ठाति । तत्थ अभिनिविट्ठउपेक्खासुपि सवितक्कसविचारतो अवितक्काविचारा पणीततरा। सवितक्कसविचारउपेक्खाविपस्सनातोपि अवितक्काविचारउपेक्खाविपस्सनापणीततरा। सवितक्कसविचारउपेक्खाफलसमापत्तितोपि अवितक्काविचारुपेक्खाफलसमापत्तियेव पणीततरा । तेनाह भगवा “ये अवितक्के अविचारे ते पणीततरे''ति । ३६३. एवं पटिपन्नो खो, देवानमिन्द, भिक्खु पपञ्चसञआसवानिरोधसारुप्पगामिनि पटिपदं पटिपन्नो होतीति भगवा अरहत्तनिकूटेन देसनं निट्ठपेसि | सक्को पन 290 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८.३६४-३६४) पातिमोक्खसंवरवण्णना सोतापत्तिफलं पत्तो । बुद्धानञ्हि अज्झासयो हीनो न होति, उक्कट्ठोव होति । एकस्सपि बहूनम्पि धम्मं देसेन्ता अरहत्तेनेव कूटं गण्हन्ति । सत्ता पन अत्तनो अनुरूपे उपनिस्सये ठिता केचि सोतापन्ना होन्ति, केचि सकदागामी, केचि अनागामी, केचि अरहन्तो । राजा विय हि भगवा, राजकुमारा विय वेनेय्या । यथा हि राजा भोजनकाले अत्तनो पमाणेन पिण्डं उद्धरित्वा राजकुमारानं उपनेति, ते ततो अत्तनो मुखप्पमाणेनेव कबळं करोन्ति, एवं भगवा अत्तज्झासयानुरूपाय देसनाय अरहत्तेनेव कूटं गण्हाति । वेनेय्या अत्तनो उपनिस्सयप्पमाणेन ततो सोतापत्तिफलमत्तं वा सकदागामि अनागामिअरहत्तफलमेव वा गण्हन्ति। सक्को पन सोतापन्नो जातो । सोतापन्नो च हुत्वा भगवतो पुरतोयेव चवित्वा तरुणसक्को हुत्वा निब्बत्ति, देवतानहि चवमानानं अत्तभावस्स गतागतट्ठानं नाम न पञ्ञयति, दीपसिखागमनं विय होति । तस्मा सेसदेवता न जानिंसु । सक्को पन सयं चुतत्ता भगवा च अप्पटिहतत्राणत्ता द्वेव जना जानिंसु । अथ सक्को चिन्तेसि " मय्हव्हि भगवता तीसु ठानेसु निब्बत्तितफलमेव कथितं, अयञ्च पन मग्गो वा फलं वा सकुणिकाय विय उप्पतित्वा गहेतुं न सक्का, आगमनीयपुब्बभागपटिपदाय अस्स भवितब्बं । हन्दाहं उपरि खीणासवस्स पुब्बभागपटिपदं पुच्छामी 'ति । पातिमोक्खसंवरवण्णना ३६४. ततो तं पुच्छन्तो कथं पटिपन्नो पन, मारिसाति आदिमाह । तत्थ पातिमोक्खसंवरायाति उत्तमजेट्ठकसीलसंवराय । कायसमाचारम्पीतिआदि सेवितब्बकायसमाचारादिवसेन पातिमोक्खसंवरदस्सनत्थं वृत्तं । सीलकथा च नामेसा कम्मपथवसेन वा पण्णत्तिवसेन वा कथेतब्बा होति । तत्थ कन्न ताव कथेतब्बो । कम्मपथवसेन असेवितब्बकायसमाचारो पाणातिपातअदिन्नादानमिच्छाचारेहि पण्णत्तवसेन कथेन्तेन कायद्वारे पञ्ञत्तसिक्खापदवीतिक्कमवसेन कथेतब्बो । सेवितब्बकायसमाचारो पाणातिपातादिवेरमणीहि चैव कायद्वारे पञ्ञत्तसिक्खापदअवीतिक्कमेन च कथेतब्बो | असेवितब्बवचीसमाचारो मुसावादादिवचीदुच्चरितेन चेव वचीद्वारे पञ्ञत्तसिक्खापदवीतिक्कमेन च कथेतब्बो | सेवितब्बवचीसमाचारो मुसावादादिवेरमणीहि चेव वचीद्वारे पञ्ञत्तसिक्खापदअवीतिक्कमेन च कथेतब्बो । २९१ 291 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ दीघनिकाये महावग्गडुकथा दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा _ (८.३६४-३६४० (८.३६४-३६४) परियेसना पन कायवाचाहि परियेसनायेव । सा कायवचीसमाचारगहणेन गहितापि समाना यस्मा आजीवट्ठमकसीलं नाम एतस्मि व द्वारद्वये उप्पज्जति, न आकासे, तस्मा आजीवट्ठमकसीलदस्सनत्थं विसुं वुत्ता। तत्थ नसेवितब्बपरियेसना अनरियपरियेसनाय कथेतब्बा | सेवितब्बपरियेसना अरियपरियेसनाय । वुत्त हेतं "द्वेमा, भिक्खवे, परियेसना अनरिया च परियेसना, अरिया च परियेसना । कतमा च, भिक्खवे, अनरिया परियेसना ? इध, भिक्खवे, एकच्चो अत्तना जातिधम्मो समानो जातिधम्मंयेव परियेसति, अत्तना जराधम्मो, ब्याधिधम्मो, मरणधम्मो, सोकधम्मो, संकिलेसधम्मो समानो संकिलेसधर्मयेव परियेसति । किञ्च, भिक्खवे, जातिधम्मं वदेथ ? पुत्तभरियं, भिक्खवे, जातिधम्म, दासिदासं जातिधम्मं अजेळकं जातिधम्मं, कुक्कुटसूकरं जातिधम्मं, हथिगवास्सवळवं जातिधम्मं, जातरूपरजतं जातिधम्मं । जातिधम्मा हेते, भिक्खवे, उपधयो, एत्थायं गथितो मुच्छितो अज्झापन्नो अत्तना जातिधम्मो समानो जातिधम्मंयेव परियेसति । किञ्च, भिक्खवे, जराधम्मं वदेथ ? पुत्तभरियं, भिक्खवे, जराधम्म...पे०... जराधम्मंयेव परियेसति । किञ्च, भिक्खवे, ब्याधिधम्मं वदेथ ? पुत्तभरियं, भिक्खवे, ब्याधिधम्म, दासिदासं ब्याधिधम्मं, अजेळकं, कुक्कुटसूकरं, हथिगवास्सवळवं ब्याधिधम्मं । ब्याधिधम्मा हेते, भिक्खवे, उपधयो, एत्थायं गथितो मुच्छितो अज्झापन्नो अत्तना ब्याधिधम्मो समानो ब्याधिधम्मंयेव परियेसति । किञ्च, भिक्खवे, मरणधम्मं वदेथ ? पुत्तभरियं, भिक्खवे, मरणधम्म...पे०... मरणधम्मंयेव परियेसति । किञ्च, भिक्खवे, सोकधम्मं वदेथ ? पुत्तभरियं...पे०... सोकधम्मंयेव परियेसति । किञ्च, भिक्खवे, संकिलेसधम्मं वदेथ...पे०... जातरूपरजतं संकिलेसधम्मं । 292 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३६४-३६४) पातिमोक्खसंवरवण्णना २९३ संकिलेसधम्मा, हेते, भिक्खवे, उपधयो, एत्थायं गथितो मुच्छितो अज्झापन्नो अत्तना संकिलेसधम्मो समानो संकिलेसधम्मंयेव परियेसति । अयं, भिक्खवे, अनरिया परियेसनाति (म० नि० १.२७४)। अपिच कुहनादिवसेन पञ्चविधा, अगोचरवसेन छब्बिधा वेज्जकम्मादिवसेन एकवीसतिविधा, एवं पवत्ता सब्बापि अनेसना अनरियपरियेसनायेवाति वेदितब्बा। "कतमा च, भिक्खवे, अरिया परियेसना ? इध, भिक्खवे, एकच्चो अत्तना जातिधम्मो समानो जातिधम्मे आदीनवं विदित्वा अजातं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसति, अत्तना जराधम्मो, ब्याधि, मरण, सोक, संकिलेसधम्मो समानो संकिलेसधम्मे आदीनवं विदित्वा असंकिलिटुं अनुत्तरं योगक्खेमं निब्बानं परियेसति । अयं अरिया परियेसनाति (म० नि० १.२७५)। अपिच पञ्च कुहनादीनि छ अगोचरे एकवीसतिविधञ्च अनेसनं वज्जेत्वा भिक्खाचरियाय धम्मेन समेन परियेसनापि अरियपरियेसनायेवाति वेदितब्बा । एत्थ च यो यो “न सेवितब्बो'ति वुत्तो, सो सो पुब्बभागे पाणातिपातादीनं सम्भारपरियेसनापयोगकरणगमनकालतो पाय न सेवितब्बोव। इतरो आदितो पाय सेवितब्बो, असक्कोन्तेन चित्तम्पि उप्पादेतब् । अपिच सङ्घभेदादीनं अत्थाय परक्कमन्तानं देवदत्तादीनं विय कायसमाचारो न सेवितब्बो. दिवसस्स द्वत्तिक्खत्तं तिण्णं रत उपट्टानगमनादिवसेन पवत्तो धम्मसेनापतिमहामोग्गल्लानत्थेरादीनं विय कायसमाचारो सेवितब्बो। धनुग्गहपेसनादिवसेन वाचं भिन्दन्तानं देवदत्तादीनं विय वचीसमाचारो न सेवितब्बो. तिण्णं रतनानं गणकित्तनादिवसेन पवत्तो धम्मसेनापतिमहामोग्गल्लानत्थेरा विय वचीसमाचारो सेवितब्बो। अनरियपरियेसनं परियेसन्तानं देवदत्तादीनं विय परियेसना न सेवितब्बा, अरियपरियेसनमेव परियेसन्तानं धम्मसेनापतिमहा मोग्गल्लानत्थेरादीनं विय परियेसना सेवितब्बा । एवं पटिपन्नो खोति एवं असेवितब्बं कायवचीसमाचारं परियेसनञ्च पहाय सेवितब्बानं पारिपूरिया पटिपन्नो, देवानमिन्द, भिक्खु पातिमोक्खसंवराय 293 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (८.३६५-३६५) नाम होतीति भगवा खीणासवस्स उत्तमजेट्ठकसीलसंवरत्थाय पटिपन्नो आगमनीयपुब्बभागपटिपदं कथेसि । इन्द्रियसंवरवण्णना ३६५. दुतियपुच्छायं इन्द्रियसंवरायाति इन्द्रियानं पिधानाय, गुत्तद्वारताय संवतद्वारतायाति अत्थो। विस्सज्जने पनस्स चक्खवि व्यं रूपम्पीतिआदि सेवितब्बरूपादिवसेन इन्द्रियसंवरदस्सनत्थं वृत्तं। तत्थ एवं वुत्तेति हेट्ठा सोमनस्सादिषज्हाविस्सज्जनानं सुतत्ता इमिनापि एवरूपेन भवितब्बन्ति सजातपटिभानो भगवता एवं वुत्ते सक्को देवानमिन्दो भगवन्तं एतदवोच, एतं इमस्स खो अहं, भन्तेति आदिकं वचनं अवोच। भगवापिस्स ओकासं दत्वा तण्ही अहोसि । कथेतकामोपि हि यो अत्थं सम्पादेतुं न सक्कोति, अत्थं सम्पादेतुं सक्कोन्तो वा न कथेतुकामो होति, न तस्स भगवा ओकासं करोति । अयं पन यस्मा कथेतुकामो चेव, सक्कोति च अत्थं सम्पादेतुं तेनस्स भगवा ओकासमकासि । तत्थ एवरूपं न सेवितब्बन्ति आदीसु अयं सद्धेपो- यं रूपं पस्सतो रागादयो उप्पज्जन्ति, तं न सेवितब्बं न दट्ठब्बं न ओलोकेतब्बन्ति अत्थो। यं पन पस्सतो असुभसा वा सण्ठाति, पसादो वा उप्पज्जति, अनिच्चसापटिलाभो वा होति, तं सेवितब्बं। यं चित्तक्खरं चित्तब्यञ्जनम्पि सदं सुणतो रागादयो उप्पज्जन्ति, एवरूपो सद्दो न सेवितब्बो। यं पन अत्थनिस्सितं धम्मनिस्सितं कुम्भदासिगीतम्पि सुणन्तस्स पसादो वा उप्पज्जति, निब्बिदा वा सण्ठाति, एवरूपो सद्दो सेवितब्बो । __ यं गन्धं घायतो रागादयो उप्पज्जन्ति, एवरूपो गन्धो न सेवितब्बो। यं पन गन्धं घायतो असुभसादिपटिलाभो होति, एवरूपो गन्धो सेवितब्बो । यं रसं सायतो रागादयो उप्पज्जन्ति, एवरूपो रसो न सेवितब्बो । यं पन रसं सायतो आहारे पटिकूलसा चेव उप्पज्जति, सायितपच्चया च कायबलं निस्साय 294 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३६६-३६६) इन्द्रियसंवरवण्णना अरियभूमि ओक्कमितुं सक्कोति, महासीवत्थेरभागिनेय्यसीवसामणेरस्स विय परिभुञ्जन्तस्सेव किलेसक्खयो वा होति, एवरूपो रसो सेवितब्बो । यं फोहब्बं फुसतो रागादयो उप्पज्जन्ति, एवरूपं फोहब्बं न सेवितब्बं । यं पन फुसतो सारिपुत्तत्थेरादीनं विय आसवक्खयो चेव, वीरियञ्च सुपग्गहितं, पच्छिमा च जनता दिट्ठानुगतिं आपादनेन अनुग्गहिता होति, एवरूपं फोटुब् सेवितब्बं । सारिपुत्तत्थेरो किर तिंस वस्सानि मञ्चे पिटुिं न पसारेसि । तथा महामोग्गल्लानत्थेरो । महाकस्सपत्थेरो वीसवस्ससतं मञ्चे पिटुिं न पसारेसि । अनुरुद्धत्थेरो पञास वस्सानि । भद्दियत्थेरो तिंस वस्सानि । सोणत्थेरो अट्ठारस वस्सानि । रट्ठपालत्थेरो द्वादस । आनन्दत्थेरो पन्नरस । राहुलत्थेरो द्वादस । बाकुलत्थेरो असीति वस्सानि | नाळकत्थेरो यावपरिनिब्बाना मञ्चे पिढेि न पसारेसीति । ये मनोविज्ञेय्ये धम्मे समन्नाहरन्तस्स रागादयो उप्पज्जन्ति, “अहो, वत यं परेसं परवित्तूपकरणं तं ममस्सा''तिआदिना नयेन वा अभिज्झादीनि आपाथमागच्छन्ति एवरूपा धम्मा न सेवितब्बा । “सब्बे सत्ता अवेरा होन्तू"ति एवं मेत्तादिवसेन, ये वा पन तिण्णं थेरानं धम्मा, एवरूपा सेवितब्बा। तयो किर थेरा वस्सूपनायिकदिवसे कामवितक्कादयो अकुसलवितक्का न वितक्केतब्बाति कतिकं अकंसु । अथ पवारणदिवसे सङ्घत्थेरो सङ्घनवकं पुच्छि – “आवुसो, इमस्मिं तेमासे कित्तके ठाने चित्तस्स धावितुं दिन्न"न्ति ? न, भन्ते, परिवेणपरिच्छेदतो बहि धावितुं अदासिन्ति । दुतियं पुच्छि- “तव आवुसो'"ति ? निवासगेहतो, भन्ते, बहि धावितुं न अदासिन्ति । अथ द्वेपि थेरं पुच्छिंसु "तुम्हाकं पन, भन्ते''ति ? नियकज्झत्तखन्धपञ्चकतो, आवुसो, बहि धावितुं न अदासिन्ति । तुम्हेहि, भन्ते, दुक्करं कतन्ति । एवरूपो मनोविजेय्यो धम्मो सेवितब्बो। ३६६. एकन्तवादाति एकोयेव अन्तो वादस्स एतेसं, न द्वेधा गतवादाति एकन्तवादा, एक व वदन्तीति पुच्छति। एकन्तसीलाति एकाचारा। एकन्तछन्दाति एकलद्धिका । एकन्तअज्झोसानाति एकन्तपरियोसाना । अनेकधातु नानाधातु खो, देवानमिन्द, लोकोति देवानमिन्द, अयं लोको अनेकज्झासयो नानज्झासयो। एकस्मिं गन्तुकामे एको ठातुकामो होति । एकस्मिं ठातुकामे एको सयितुकामो होति । द्वे सत्ता एकज्झासया नाम दुल्लभा। तस्मिं 295 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा अनेकधातुनानाधातुस्मिं लोके यं यदेव धातुं यं यदेव अज्झासयं सत्ता अभिनिविसन्ति गण्हन्ति तं तदेव । थामसा परामासाति थामेन च परामासेन च । अभिनिविस्स बोहरन्तीति सुटु गण्हित्वा वोहरन्ति कथेन्ति दीपेन्ति कित्तेन्ति । इदमेव सच्चं मोघमञ्जन्ति इदं अम्हाकमेव वचनं सच्चं, अञ्ञसं वचनं मोघं तुच्छं निरत्थकन्ति । 1 २९६ अच्चन्तनिद्वाति अन्तो वुच्चति विनासो, अन्तं अतीता निट्ठा एतेसन्ति अच्चन्तनिट्ठा। या एतेसं निट्ठा, यो परमस्सासो निब्बानं, तं सब्बेसं विनासातिक्कन्तं निच्चन्ति वुच्चति । योगक्खेमोति निब्बानस्सेव नामं, अच्चन्तो योगक्खेमो एतेसन्ति अच्चन्तयोगक्खेमी । सेट्ठट्ठेन ब्रह्मं अरियमग्गं चरन्तीति ब्रह्मचारी । अच्चन्तत्थाय ब्रह्मचारी अच्चन्तब्रह्मचारी । परियोसानन्तिपि निब्बानस्स नामं । अच्चन्तं परियोसानं एतेसन्ति अच्चन्तपरियोसाना । तहासङ्घयविमुत्ताति तण्हासङ्घयोति मग्गोपि निब्बानम्पि । मग्गो तहं सङ्क्षिणाति विनासेतीति तण्हासङ्ख्यो । निब्बानं यस्मा तं आगम्म तण्हा सङ्घियति विनस्सति, तस्मा तण्हासङ्घयो। तण्हासङ्घयेन मग्गेन विमुत्ता, तण्हासङ्घये निब्बाने विमुत्ता अधि तहासङ्घयविमुत्ता । ( ८.३६७-३६७) एत्तावता च भगवता चुद्दसपि महापञ्हा ब्याकता होन्ति । चुद्दस महापञ्हा नाम इस्सामच्छरियं एको पञ्हो, पियाप्पियं एको, छन्दो एको, वितक्को एको, पपञ्चीएको, सोमनस्सं एको, दोमनस्सं एको, उपेक्खा एको, कायसमाचारो एको, वचीसमाचारो एको, परियेसना एको, इन्द्रियसंवरो एको, अनेकधातु एको, अच्चन्तनिट्ठा एकोति । ३६७. एजाति चलनट्ठेन तण्हा वुच्चति । सा पीळनट्ठेन रोगो, अन्तो पदुस्सनट्ठेन गण्डो, अनुप्पविट्ठेन सल्लं । तस्मा अयं पुरिसोति यस्मा एजा अत्तना कतकम्मानुरूपेन पुरिसं तत्थ तत्थ अभिनिब्बत्तत्थाय कड्डति, तस्मा अयं पुरिसो तेसं तेसं भवानं वसेन उच्चावचं आपज्जति । ब्रह्मलोके उच्चो होति, देवलोके अवचो । देवलोके उच्चो, मनुस्सलोके अवचो । मनुस्सलोके उच्चो, अपाये अवचो । येसाहं, भन्तेति येसं अहं भन्ते । सन्धिवसेन पनेत्थ " येसाह "न्ति होति । यथासुतं यथापरियत्तन्ति यथा मया सुतो चेव उग्गहितो च, एवं | धम्मं देसेमीति सत्तवतपदं धम्मं देसेमि । न चाहं तेसन्ति अहं पन 296 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३६८-३६९) सोमनस्सपटिलाभकथावण्णना २९७ तेसं सावको न सम्पज्जामि । अहं खो पन, भन्तेतिआदिना अत्तनो सोतापन्नभावं जानापेति । सोमनस्सपटिलाभकथावण्णना ३६८. वेदपटिलाभन्ति तुट्ठिपटिलाभं । देवासुरसङ्गामोति देवानञ्च असुरानञ्च सङ्गामो। समुपब्यूळ्होति समापन्नो नलाटेन नलाटं पहरणाकारप्पत्तो विय । एतेसं किर कदाचि महासमुद्दपिट्टे सङ्गामो होति तत्थ पन छेदनविज्झनादीहि अञमधे घातो नाम नत्थि, दारुमेण्डकयुद्धं विय जयपराजयमत्तमेव होति । कदाचि देवा जिनन्ति, कदाचि असुरा । तत्थ यस्मिं सङ्गामे देवा पुन अपच्चागमनाय असुरे जिनिंसु, तं सन्धाय तस्मिं खो पन भन्तेतिआदिमाह । उभयमेतन्ति उभयं एतं । दुविधम्पि ओजं एत्थ देवलोके देवायेव परिभूञ्जिस्सन्तीति एवमस्स आवज्जन्तस्स बलवपीतिसोमनस्सं उप्पज्जि । सदण्डावचरोति सदण्डावचरको, दण्डग्गहणेन सत्थग्गहणेन सद्धिं अहोसि, न निक्खित्तदण्डसत्थोति दस्सेति । एकन्तनिब्बिदायाति एकन्तेनेव वट्टे निब्बिन्दनत्थायाति सब्जे महागोविन्दसुत्ते वुत्तमेव । ३६९. पवेदेसीति कथेसि दीपेसि । इधेवाति इमस्मि व ओकासे । देवभूतस्स मे सतोति देवस्स मे सतो । पुनरायु च मे लद्धोति पुन अओन कम्मविपाकेन मे जीवितं लद्धन्ति, इमिना अत्तनो चुतभावं चेव उपपन्नभावञ्च आविकरोति । दिविया कायाति दिब्बा अत्तभावा । आयुं हित्वा अमानुसन्ति दिब्बं आयुं जहित्वा । अमूळहो गब्भमेस्सामीति नियतगतिकत्ता अमूळ्हो हुत्वा । यत्थ मे रमती मनोति यत्थ मे मनो रमिस्सति, तत्थेव खत्तियकुलादीसु गब्भं उपगच्छिस्सामीति सत्तक्खत्तुं देवे च मानुसे चाति इममत्थं दीपेति । - आयेन विहरिस्सामीति मनुस्सेसु उपपन्नोपि मातरं जीविता वोरोपनादीनं अभब्बत्ता आयेन कारणेन समेन विहरिस्सामीति अत्थो । ___ सम्बोधि चे भविस्सतीति इदं सकदागामिमग्गं सन्धाय वदति, सचे सकदागामी भविस्सामीति दीपेति । अज्ञाता विहरिस्सामीति अञ्ञाता आजानितुकामो हुत्वा विहरिस्सामि । स्वेव अन्तो भविस्सतीति सो एव मे मनुस्सलोके अन्तो भविस्सतीति । 297 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (८.३७०-३७१) पुन देवो भविस्सामि, देवलोकस्मिं उत्तमोति पुन देवलोकस्मिं उत्तमो सक्को देवानमिन्दो भविस्सामीति वदति । अन्तिमे वत्तमानम्हीति अन्तिमे भवे वत्तमाने । सो निवासो भविस्सतीति ये ते आयुना च पञ्जाय च अकनिट्ठा जेठ्ठका सब्बदेवेहि पणीततरा देवा, अवसाने मे सो निवासो भविस्सति । अयं किर ततो सक्कत्तभावतो चुतो तस्मिं अत्तभावे अनागामिमग्गस्स पटिलद्धत्ता उद्धंसोतो अकनिट्ठगामी हुत्वा अविहादीसु निब्बत्तन्तो अवसाने अकनिटे निब्बत्तिस्सति । तं सन्धाय एवमाह । एस किर अविहेसु कप्पसहस्सं वसिस्सति, अतप्पेसु द्वे कप्पसहस्सानि, सुदस्सेसु चत्तारि कप्पसहस्सानि, सुदस्सीसु अट्ठ, अकनिटेसु सोळसाति एकतिंस कप्पसहस्सानि ब्रह्मआयुं अनुभविस्सति। सक्को देवराजा अनाथपिण्डिको गहपति विसाखा महाउपासिकाति तयोपि हि इमे एकप्पमाणआयुका एव, वट्टाभिरतसत्ता नाम एतेहि सदिसा सुखभागिनो नाम नत्थि । ३७०. अपरियोसितसङ्कप्पोति अनिहितमनोरथो । यस्सु मामि समणेति ये च समणे पविवित्तविहारिनोति मञामि । __आराधनाति सम्पादना। विराधनाति असम्पादना। न सम्पायन्तीति सम्पादेत्वा कथेतुं न सक्कोन्ति । __ आदिच्चबन्धुनन्ति आदिच्चोपि गोतमगोत्तो, भगवापि गोतमगोत्तो, तस्मा एवमाह । यं करोमसीति यं पुब्बे ब्रह्मनो नमक्कारं करोम । समं देवेहीति देवेहि सद्धिं, इतो पट्ठाय इदानि अम्हाकं ब्रह्मनो नमक्कारकरणं नत्थीति दस्सेति । सामं करोमाति नमक्कारं करोम । ३७१. परामसित्वाति तुट्ठचित्तो सहायं हत्थेन हत्थम्हि पहरन्तो विय पथविं पहरित्वा, सक्खिभावत्थाय वा पहरित्वा “यथा त्वं निच्चलो, एवमहं भगवती"ति । अज्झिट्ठपञ्हाति अज्झेसितपञ्हा पत्थितपञ्हा । सेसं सब्बत्थ उत्तानमेवाति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं सक्कपञ्हसुत्तवण्णना निहिता। 298 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. महासतिपट्टानसुत्तवण्णना उद्देसवारकथावण्णना ३७३. एवं मे सुतन्ति महासतिपट्टानसुत्तं । तत्रायमपुब्बपदवण्णना- एकायनो अयं, भिक्खवे, मग्गोति कस्मा भगवा इदं सुत्तमभासि ? कुरुरट्ठवासीनं गम्भीरदेसनापटिग्गहणसमत्थताय । कुरुरट्ठवासिनो किर भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो उतुपच्चयादिसम्पन्नत्ता तस्स रहस्स सप्पायउतुपच्चयसेवनेन निच्चं कल्लसरीरा कल्लचित्ता च होन्ति । ते चित्तसरीरकल्लताय अनुग्गहितपाबला गम्भीरकथं पटिग्गहेतुं समत्था होन्ति । तेन नेसं भगवा इमं गम्भीरदेसनापटिग्गहणसमत्थतं सम्पस्सन्तो एकवीसतिया ठानेसु कम्मट्ठानं अरहत्ते पक्खिपित्वा इदं गम्भीरत्थं महासतिपट्टानसुत्तं अभासि। यथा हि पुरिसो सुवण्णचङ्कोटकं लभित्वा तत्थ नानापुप्फानि पक्खिपेय्य, सुवण्णमञ्जूसं वा पन लभित्वा सत्तरतनानि पक्खिपेय्य, एवं भगवा कुरुरवासिपरिसं लभित्वा गम्भीरदेसनं देसेसि । तेनेवेत्थ अनानिपि गम्भीरत्थानि इमस्मिं दीघनिकाये महानिदानं मज्झिमनिकाये सतिपट्टानं, सारोपमं, रुक्खोपमं, रछपालं, मागण्डियं, आनेजसप्पायन्ति अञानिपि सुत्तानि देसेसि । अपिच तस्मिं जनपदे चतस्सो परिसा पकतियाव सतिपट्ठानभावनानुयोगमनुयुत्ता विहरन्ति, अन्तमसो दासकम्मकरपरिजानापि सतिपट्टानपटिसंयुत्तमेव कथं कथेन्ति । उदकतित्थसुत्तकन्तनहानादीसुपि निरत्थककथा नाम नप्पवत्तति । सचे काचि इत्थी “अम्म, त्वं कतरं सतिपट्ठानभावनं मनसिकरोसी"ति पुच्छिता "न किञ्ची"ति वदति, तं गरहन्ति "धिरत्थु तव जीवितं, जीवमानापि त्वं मतसदिसा'ति । अथ नं “मा दानि पुन एवमकासी"ति ओवदित्वा अञ्जतरं सतिपट्टानं उग्गण्हापेन्ति । या पन “अहं असुकसतिपट्ठानं नाम मनसिकरोमी"ति वदति, तस्सा “साधु साधू"ति साधुकारं कत्वा 299 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३७३-३७३) "तव जीवितं सुजीवितं, त्वं नाम मनुस्सत्तं पत्ता, तवत्थाय सम्मासम्बुद्धो उप्पन्नो''तिआदीहि पसंसन्ति । न केवलञ्चेत्थं मनुस्सजातिकाव सतिपट्ठानमनसिकारयुत्ता, ते निस्साय विहरन्ता तिरच्छानगतापि । तत्रिदं वत्थु - एको किर नटको सुवपोतकं गहेत्वा सिक्खापेन्तो विचरति । सो भिक्खुनुपस्सयं उपनिस्साय वसित्वा गमनकाले सुवपोतकं पमुस्सित्वा गतो। तं सामणेरियो गहेत्वा पटिजग्गिंसु । बुद्धरक्खितो तिस्स नामं अकंसु । तं एकदिवसं पुरतो निसिन्नं दिस्वा महाथेरी आह - "बुद्धरक्खिता"ति । किं, अय्येति ? अस्थि ते कोचि भावनामनसिकारोति ? नत्थि, अय्येति । आवुसो, पब्बजितानं सन्तिके वसन्तेन नाम विस्सठ्ठअत्तभावेन भवितुं न वट्टति, कोचिदेव मनसिकारो इच्छितब्बो, त्वं पन अखं न सक्खिस्ससि, “अट्ठि अट्ठी"ति सज्झायं करोहीति । सो थेरिया ओवादे ठत्वा “अट्ठि अट्ठी''ति सज्झायन्तो चरति । तं एकदिवसं पातोव तोरणग्गे निसीदित्वा बालातपं तपमानं एको सकुणो नखपञ्जरेन अग्गहेसि । सो "किरि किरी"ति सद्दमकासि । सामणेरियो सुत्वा "अय्ये बुद्धरक्खितो सकुणेन गहितो, मोचेम न"न्ति लेड्डुआदीनि गहेत्वा अनुबन्धित्वा मोचेसुं। तं आनेत्वा पुरतो ठपितं थेरी आह - "बुद्धरक्खित, सकुणेन गहितकाले किं चिन्तेसी"ति ? न, अय्ये, अनं किञ्चि चिन्तेसिं, अट्ठिपुजोव अट्ठिपुजं गहेत्वा गच्छति, कतरस्मिं ठाने विप्पकिरिस्सतीति, एवं अय्ये अट्ठिपुजमेव चिन्तेसिन्ति । साधु, साधु, बुद्धरक्खित, अनागते भवक्खयस्स ते पच्चयो भविस्सतीति । एवं तत्थ तिरच्छानगतापि सतिपट्ठानमनसिकारयुत्ता। तस्मा नेसं भगवा सतिपट्टानबुद्धिमेव जनेन्तो इदं सुत्तमभासि । तत्थ एकायनोति एकमग्गो। मग्गस्स हि - "मग्गो पन्थो पथो पज्जो, अञ्जसं वटुमायनं । नावा उत्तरसेतू च, कुल्लो च भिसिसङ्कमो''ति ।। बहूनि नामानि | स्वायमिध अयननामेन वुत्तो, तस्मा एकायनो अयं, भिक्खवे, मग्गोति एत्थ एकमग्गो अयं, भिक्खवे, मग्गो न द्विधा पथभूतोति एवमत्थो दट्ठब्बो । अथ 300 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना वा एकेन अयितब्बोति एकायनो । एकेनाति गणसङ्गणिकं पहाय वूपकट्टे पविवित्तचित्तेन । अयितब्बो पटिपज्जितब्बो, अयन्ति वा एतेनाति अयनो, संसारतो निब्बानं गच्छन्तीति अत्थो । एकस्स अयनो एकायनो । एकस्साति सेट्ठस्स । सब्बसत्तसेट्ठो च भगवा, तस्मा भगवतोति वुत्तं होति । किञ्चापि हि तेन अपि अयन्ति, एवं सन्तेपि भगवतोव सो अयनो तेन उप्पादितत्ता । यथाह “सो हि, ब्राह्मण, भगवा अनुप्पन्नस्स मग्गस्स उप्पादेता 'तिआदि (म० नि० ३.७९ ) । अयतीति वा अयनो, गच्छति पवत्ततीति अत्थो । एकस्मिं अयनोति एकायनो, इमस्मिञ्ञेव धम्मविनये पवत्तति, न अञ्ञत्थाति वृत्तं होति । यथाह - “ इमस्मिं खो, सुभद्द, धम्मविनये अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो उपलब्भती”ति ( दी० नि० २.२१४) । देसनाभेदोयेव हेसो, अत्थतो पन एकोव । अपिच एकं अयतीति एकायनो । पुब्बभागे नानामुखभावनानयप्पवत्तोपि अपरभागे एकं निब्बानमेव गच्छतीति वुत्तं होति । यथाह ब्रह्मा सहम्पति - एकायनं जातिखयन्तदस्सी, मग्गं पजानाति हितानुकम्पी । एतेन मग्गेन तरिंसु पुब्बे, ३०१ तरिस्सन्ति ये च तरन्ति ओघन्ति ।। (सं० नि० ३.५.४०९ ) केचि पन "न पारं दिगुणं यन्ती 'ति गाथानयेन यस्मा एकवारं निब्बानं गच्छति, तस्मा “एकायनोति वदन्ति तं न युज्जति । इमस्स हि अत्थस्स सकिं अयनोति इमिना ब्यञ्जनेन भवितब्बं । यदि पन एकं अयनमस्स एका गति पवत्तीति एवं अत्थं योजेत्वा वुच्चेय्य, ब्यञ्जनं युज्जेय्य, अत्थो पन उभयथापि न युज्जति । कस्मा ? इध पुब्बभागमग्गस्स अधिप्पेतत्ता । कायादिचतुआरम्मणप्पवत्तो हि पुब्बभागसतिपट्ठानमग्गो धाधिप्पेतो, न लोकुत्तरो, सो च अनेकवारम्पि अयति, अनेकञ्चस्स अयनं होति । पुब्बेपि च इमस्मिं पदे महाथेरानं साकच्छा अहोसियेव । तिपिटकचूळनागत्थेरो पुब्बभागसतिपट्ठानमग्गोति आह । आचरियो पनस्स तिपिटकचूळसुमत्थेरो मिस्सकमग्गोत आह । पुब्बभागो भन्तेति ? मिस्सको, आवुसोति । आचरिये पन पुनप्पुनं भणन्ते अप्पटिबाहित्वा तुम्ही अहोसि । पञ्हं अविनिच्छिनित्वाव उट्ठहिंसु । अथाचरियत्थेरो नहानकोट्ठकं गच्छन्तो “मया मिस्सकमग्गो कथितो, चूळनागो पुब्बभागमग्गोति आदाय वोहरति, को नु खो एत्थ निच्छयो "ति सुत्तन्तं आदितो पट्ठाय परिवत्तेन्तो “यो हि 301 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा कोचि, भिक्खवे, इमे चत्तारो सतिपट्ठाने एवं भावेय्य सत्त वस्सानी "ति इमस्मिं ठाने सल्लक्खेसि। लोकुत्तरमग्गो उप्पज्जित्वा सत्त वस्सानि तिट्ठमानो नाम नत्थि, मया वुत्तो मिस्सकमग्गो न लब्भति । चूळनागेन दिट्ठो पुब्बभागमग्गोव लब्भतीति ञत्वा अट्ठमियं धम्मसवने सङ्घट्टे अगमासि । पोराणकत्थेरा किर पियधम्मसवना होन्ति, सद्दं सुत्वाव " अहं पठमं, अहं पठम''न्ति एकप्पहारेनेव ओसरन्ति । तस्मिञ्च दिवसे चूळनागत्थेरस्स वारो, तेन धम्मासने निसीदित्वा बीजनिं गत्वा पुब्बगाथासु वुत्तासु थेरस्स आसनपिट्ठियं ठितस्स एतदहोसि - “ रहो निसीदित्वा न वक्खामी 'ति । पोराणकत्थेरा हि अनुसूयका होन्ति । न अत्तनो रुचिमेव उच्छुभारं विय एवं उक्खिपित्वा विचरन्ति कारणमेव गण्हन्ति, अकारणं विस्सज्जेन्ति । तस्मा थेरो "आवुसो, चूळनागा" ति आह । सो आचरियस्स विय सोति धम्मं ठपेत्वा " किं भन्ते 'ति आह । आवुसो, चूळनाग, मया वुत्तो मिस्सकमग्गो न लब्भति, तया वुत्तो पुब्बभागसतिपट्ठानमग्गोव लब्भतीति । थेरो चिन्तेसि - " अम्हाकं आचरियो सब्बपरियत्तिको तेपिटको सुतबुद्धी, एवरूपस्सापि नाम भिक्खुनो अयं पञ्हो आलुळेति, अनागते मम भातिका इमं पञ्हं आलुळेस्सन्तीति सुत्तं गत्वा इमं पहं निच्चलं करिस्सामी "ति पटिसम्भिदामग्गतो " एकायनमग्गो वुच्चति पुब्बभागसतिपट्ठानमग्गो” । मग्गानट्ठङ्गिको सेट्ठो, सच्चानं चतुरो पदा । विरागो सेट्ठो धम्मानं द्विपदानञ्च चक्खुमा । । एसेव मग्गो नत्थञ्ज, दस्सनस्स विसुद्धिया । एहि तुम्हे पटिपज्जथ, मारसेनप्पमद्दनं । एतहि तुम्हे पटिपन्ना, दुक्खस्सन्तं करिस्सथाति । । - (९.३७३-३७३) सुत्तं आहरित्वा ठपेसि । मग्गोति केनट्टेन मग्गो ? निब्बानगमनट्टेन निब्बानत्थिकेहि मग्गनीयट्ठेन च । सत्तानं विसुद्धियाति रागादीहि मलेहि अभिज्झाविसमलोभादीहि च उपक्किलेसेहि किलिट्ठचित्तानं सत्तानं विसुद्धत्थाय । तथा हि इमिनाव मग्गेन इतो सतसहस्सकप्पाधिकानं चतुन्नं 302 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना ३०३ असङ्खयेय्यानं उपरि एकस्मिंयेव कप्पे निब्बत्ते तण्हङ्करमेधङ्करसरणङ्करदीपङ्करनामके बुद्ध आदि कत्वा सक्यमुनिपरियोसाना अनेके सम्मासम्बुद्धा अनेकसता पच्चेकबुद्धा गणनपथं वीतिवत्ता अरियसावका चाति इमे सत्ता सब्बे चित्तमलं पवाहेत्वा परमविसुद्धिं पत्ता । रूपमलवसेन पन संकिलेसवोदानपत्तियेव नत्थि । तथा हि "रूपेन संकिलिटेन, संकिलिस्सन्ति माणवा । रूपे सुद्धे विसुज्झन्ति, अनक्खातं महेसिना ।। चित्तेन संकिलिटेन, संकिलिस्सन्ति माणवा । चित्ते. सुद्धे विसुज्झन्ति, इति वुत्तं महेसिना" ।। यथाह - "चित्तसंकिलेसा, भिक्खवे, सत्ता संकिलिस्सन्ति, चित्तवोदाना विसुज्झन्ती"ति । तञ्च चित्तवोदानं इमिना सतिपट्ठानमग्गेन होति। तेनाह "सत्तानं विसुद्धिया'ति । सोकपरिदेवानं समतिक्कमायाति सोकस्स च परिदेवस्स च समतिक्कमाय पहानायाति अत्थो, अयहि मग्गो भावितो सन्ततिमहामत्तादीनं विय सोकसमतिक्कमाय, पटाचारादीनं विय परिदेवसमतिक्कमाय संवत्तति। तेनाह “सोकपरिदेवानं समतिक्कमाया"ति । किञ्चापि हि सन्ततिमहामत्तो "यं पुब्बे तं विसोधेहि, पच्छा ते मातु किञ्चनं ।। मज्झे चे नो गहेस्ससि, उपसन्तो चरिस्ससी''ति ।। (सु० नि० ९४५) इमं गाथं सुत्वाव सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं पत्तो । पटाचारा "न सन्ति पत्ता ताणाय. न पिता नापि बन्धवा । अन्तकेनाधिपन्नस्स, नत्थि आतीसु ताणता"ति ।। (ध० प० २८८) इमं गाथं सुत्वा सोतापत्तिफले पतिहिता । यस्मा पन कायवेदनाचित्तधम्मेसु कञ्चि 303 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३७३-३७३) धम्म अनामसित्वा भावना नाम नत्थि, तस्मा तेपि इमिनाव मग्गेन सोकपरिदेवे समतिक्कन्ताति वेदितब्बा। दुक्खदोमनस्सानं अत्थङ्गमायाति कायिकदुक्खस्स चेतसिकदोमनस्सस्स चाति इमेसं द्विन्नं अत्थङ्गमाय, निरोधायाति अत्थो। अयहि मग्गो भावितो तिस्सत्थेरादीनं विय दुक्खस्स, सक्कादीनं विय च दोमनस्सस्स अत्थङ्गमाय संवत्तति । तत्रायं अत्थदीपना - सावत्थियं किर तिस्सो नाम कुटुम्बिकपुत्तो चत्तालीस हिरञकोटियो पहाय पब्बजित्वा अगामके अरजे विहरति । तस्स कनिट्ठभातु भरिया "गच्छथ, नं जीविता वोरोपेथा"ति पञ्चसते चोरे पेसेसि । ते गन्त्वा थेरं परिवारेत्वा निसीदिंसु । थेरो आह - "कस्मा आगतत्थ उपासका"ति? तं जीविता वोरोपेस्सामाति । पाटिभोगं मे उपासका, गहेत्वा अज्जेकरत्तिं जीवितं देथाति । को ते, समण, इमस्मिं ठाने पाटिभोगो भविस्सतीति ? थेरो महन्तं पासाणं गहेत्वा द्वे ऊरुट्ठीनि भिन्दित्वा "वट्टति उपासका पाटिभोगो"ति आह । ते अपक्कमित्वा चङ्कमनसीसे अग्गिं कत्वा निपज्जिंसु । थेरस्स वेदनं विक्खम्भेत्वा सीलं पच्चवेक्खतो परिसुद्धं सीलं निस्साय पीतिपामोज्जं उप्पज्जि । ततो अनुक्कमेन विपस्सनं वड्डेन्तो तियामरत्तिं समणधम्म कत्वा अरुणुग्गमने अरहत्तं पत्तो इमं उदानं उदानेसि "उभो पादानि भिन्दित्वा, सञपेस्सामि वो अहं । अट्टियामि हरायामि, सरागमरणं अहं ।। एवाहं चिन्तयित्वान, यथाभूतं विपस्सिसं । सम्पत्ते अरुणुग्गम्हि, अरहत्तमपापुणि"न्ति ।। अपरेपि तिंस भिक्खू भगवतो सन्तिके कम्मट्ठानं गहेत्वा अरञविहारे वस्सं उपगन्त्वा "आवुसो, तियामरत्तिं समणधम्मोव कातब्बो, न अञमञ्जस्स सन्तिकं आगन्तब्बन्ति वत्वा विहरिंसु । तेसं समणधम्मं कत्वा पच्चूससमये पचलायन्तानं एको ब्यग्यो आगन्त्वा एकेकं भिक्खं गहेत्वा गच्छति । न कोचि “मं ब्यग्यो गण्ही"ति वाचम्पि निच्छारेसि । एवं पञ्चसु दससु भिक्खूसु खादितेसु उपोसथदिवसे "इतरे, आवुसो, कुहिन्ति पुच्छित्वा ञत्वा च "इदानि गहितेन गहितोम्हीति वत्तब्बन्ति वत्वा 304 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना ३०५ विहरिंसु । अथ अञ्जतरं दहरभिक्खु पुरिमनयेनेव ब्यग्यो गण्हि । सो "ब्यग्यो भन्ते"ति आह । भिक्खू कत्तरदण्डे च उक्कायो च गहेत्वा मोचेस्सामाति अनुबन्धिंसु | ब्यग्यो भिक्खूनं अगतिं छिन्नतटट्ठानमारुय्ह तं भिक्खु पादहकतो पट्टाय खादितुं आरभि । इतरेपि “इदानि सप्पुरिस, अम्हेहि कत्तब्बं नत्थि, भिक्खूनं विसेसो नाम एवरूपे ठाने पचायतीति आहेसु । सो ब्यग्घमुखे निपन्नोव तं वेदनं विक्खम्भेत्वा विपस्सनं वड्डेन्तो याव गोप्फका खादितसमये सोतापन्नो हुत्वा, याव जण्णुका खादितसमये सकदागामी, याव नाभिया खादितसमये अनागामी हुत्वा, हदयरूपे अखादितेयेव सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं पत्वा इमं उदानं उदानेसि "सीलवा वतसम्पन्नो, पञवा सुसमाहितो। मुहुत्तं पमादमन्वाय, ब्यग्नोरुद्धमानसो।। पञ्जरस्मिं गहेत्वान, सिलाय उपरी कतो। कामं खादतु मं ब्यग्यो, अट्ठिया च न्हारुस्स च । किलेसे खेपयिस्सामि, फुसिस्सामि विमुत्तियन्ति ।। अपरोपि पीतमल्लत्थेरो नाम गिहिकाले तीसु रज्जेसु पटाकं गहेत्वा तम्बपण्णिदीपं आगम्म राजानं पस्सित्वा रञा कतानुग्गहो एकदिवसं किलञ्जकापणसालद्वारेन गच्छन्तो "रूपं भिक्खवे. न तम्हाकं तं पजहथ तं वो पहीनं दीघरत्तं हिताय सखाय भविस्सती"ति न तुम्हाकवाक्यं सत्वा चिन्तेसि "नेव किर रूपं अत्तनो. न वेदना'ति । सो तंयेव अङ्कसं कत्वा निक्खमित्वा महाविहारं गन्त्वा पब्बज्ज याचित्वा पब्बजितो उपसम्पन्नो द्वेमातिका पगणा कत्वा तिस भिक्ख गहेत्वा गबलवालियअङ्गणं गन्त्वा समणधम्मं अकासि । पादेस अवहन्तेस जण्णुकेहि चङ्कमति । तमेनं रत्तिं एको मिगलुद्दको मिगोति मञ्जमानो पहरि। सत्ति विनिविज्झित्वा गता, सो तं सत्तिं हरापेत्वा पहरणमुखानि तिणवट्टिया पूरापेत्वा पासाणपिट्ठियं अत्तानं निसीदापेत्वा ओकासं कारेत्वा विपस्सनं वड्वेत्वा सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं पत्वा उक्कासितसद्देन आगतानं भिक्खूनं ब्याकरित्वा इमं उदानं उदानेसि - "भासितं बुद्धसेट्ठस्स, सब्बलोकग्गवादिनो । न तुम्हाकमिदं रूपं, तं जहेय्याथ भिक्खवो ।। 205 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा अनिच्चा वत सङ्घारा, उप्पादवयधम्मिनो । उप्पज्जित्वा निरुज्झन्ति तेसं वूपसमो सुखो 'ति । । एवं ताव अयं मग्गो तिस्सत्थेरादीनं विय दुक्खस्स अत्थङ्गमाय संवत्तति । सक्को पन देवानमिन्दो अत्तनो पञ्चविधपुब्बनिमित्तं दिस्वा मरणभयसन्तज्जितो दोमनस्सजातो भगवन्तं उपसङ्कमित्वा पञ्हं पुच्छि । सो उपेक्खापञ्हविस्सज्जनावसाने असीतिसहस्साहि देवताहि सद्धिं सोतापत्तिफले पतिट्ठासि । सा चस्स उपपत्ति पुन पाकतिकाव अहोसि । सुब्रह्मापि देवपुत्तो अच्छरासहस्सपरिवुतो सग्गसम्पत्तिं अनुभोति । तत्थ पञ्चसता अच्छरायो रुक्खतो पुप्फानि ओचिनन्तियो चवित्वा निरये उप्पन्ना। सो " किं इमा चिरायन्ती 'ति उपधारेन्तो तासं निरये निब्बत्तनभावं ञत्वा "कित्तकं नु खो मम आयू'ति उपपरिक्खन्तो अत्तनो आयुपरिक्खयं विदित्वा चवित्वा तत्थेव निरये निब्बत्तनभावं दिस्वा भीतो अतिविय दोमनस्सजातो हुत्वा "इमं मे दोमनस्सं सत्था विनयिस्सति, न अञ्ञो "ति अवसेसा पञ्चसता अच्छरायो गहेत्वा भगवन्तं उपसङ्कमित्वा पञ्हं पुच्छि - ( ९.३७३ - ३७३ ) "निच्चं उत्रस्तमिदं चित्तं, निच्चं उब्बिग्गिदं मनो । अनुप्पन्नेसु किच्छेसु, अथो उप्पतितेसु च । सचे अस्थि अनुत्रस्तं तं मे अक्खाहि पुच्छितोति ।। (सं० नि० १.१.९८) ततो नं भगवा आह "नाञ्ञत्र बोज्झा तपसा, नाञ्ञत्रिन्द्रियसंवरा । नाञ्ञत्र सब्बनिस्सग्गा, सोत्थिं पस्सामि पाणिन 'न्ति । । (सं० नि० १.१.९८) सो देसनापरियोसाने पञ्चहि अच्छरासतेहि सद्धिं सोतापत्तिफले पतिट्ठाय तं 306 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना सम्पत्तिं थावरं कत्वा देवलोकमेव अगमासीति । एवं अयं मग्गो भावितो सक्कादीनं विय दोमनस्सस्स अत्थङ्गमाय संवत्ततीति वेदितब्बो | ञायस्स अधिगमायाति ञायो वुच्चति अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो, तस्स अधिगमाय, पत्तियाति वुत्तं होति । अयहि पुब्बभागे लोकियो सतिपट्ठानमग्गो भावितो लोकुत्तरमग्गस्स अधिगमाय संवत्तति । तेनाह “ञायस्स अधिगमाया ”ति । निब्बानस् सच्छिकिरियायाति तण्हावानविरहितत्ता निब्बानन्ति लद्धनामस्स अमतस्स सच्छिकिरियाय, अत्तपच्चक्खतायाति वुत्तं होति । अयहि मग्गो भावितो अनुपुब्बेन निब्बानसच्छिकिरिय साधेति । तेनाह " निब्बानस्स सच्छिकिरियाया "ति । 1 ३०७ तत्थ किञ्चापि ‘“सत्तानं विसुद्धिया "ति वुत्ते सोकसमतिक्कमादीनि अत्थतो सिद्धानेव होन्ति, ठपेत्वा पन सासनयुत्तिकोविदे असं न पाकटानि, न च भगवा पठमं सासनयुत्तिकोविदं जनं कत्वा पच्छा धम्मं देसेति । तेन तेनेव पन सुत्तेन तं तं अत्थं त्रपेति । तस्मा इध यं यं अत्थं एकायनमग्गो साधेति, तं तं पाकटं कत्वा दस्सेन्तो “सोकपरिदेवानं समतिक्कमाया'' तिआदिमाह । यस्मा वा या सत्तानं विसुद्धि एकायनमग्गेन संवत्तति, सा सोकपरिदेवानं समतिक्कमेन होति । सोकपरिदेवानं समतिक्कमो दुक्खदोमनस्सानं अत्थङ्गमेन, दुक्खदोमनस्सानं अत्थङ्गमो ञायस्साधिगमेन, आयस्साधिगमो निब्बानस्स सच्छिकिरियाय । तस्मा इमम्पि कमं दस्सेन्तो “सत्तानं विसुद्धिया "ति वत्वा “सोकपरिदेवानं समतिक्कमाया ''तिआदिमाह । अपिच वण्णभणनमेतं एकायनमग्गस्स । यथेव हि भगवा - " धम्मं वो, भिक्खवे, देसेस्सामि आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेस्सामि यदिदं छछक्कानी "ति (म० नि० ३.४२०) छछक्कदेसनाय अट्ठहि पदेहि वण्णं अभासि । यथा च अरियवंसदेसनाय " चत्तारोमे, भिक्खवे, अरियवंसा अग्गञ्ञा रत्तञ्ञ वंसञ्ञा पोराणा असंकिण्णा असंकिण्णपुब्बा न सङ्कीयन्ति न सङ्कीयिस्सन्ति, अप्पटिकुट्ठा समणेहि ब्राह्मणेहि विञ्जूही "ति (अ० नि० १.४.२८) नवहि पदेहि वण्णं अभासि; एवं इमस्सापि एकायनमग्गस्स सत्तानं विसुद्धियातिआदीहि सत्तहि पदेहि वण्णं अभासि । कस्माति चे, तेसं भिक्खूनं उस्साहजननत्थं । वण्णभासनहि सुत्वा ते भिक्खू " अयं किर मग्गो हदयसन्तापभूतं सोकं, वाचाविप्पलापभूतं परिदेवं, कायिकअसातभूतं दुक्खं चेतसिक असातभूतं 2 307 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा दोमनस्सन्ति चत्तारो उपद्दवे हनति, विसुद्धिं जायं निब्बानन्ति तयो विसेसे आवहतीति उस्साहजाता इमं धम्मदेसनं उग्गहेतब्बं परियापुणितब्बं धारेतब्बं, वाचेतब्बं, इमञ्च मग्गं भावेतब्बं मञ्ञिस्सन्ति । इति ते भिक्खूनं उस्साहजननत्थं वण्णं अभासि । कम्बलवाणिजादयो कम्बलादीनं वण्णं विय । ३०८ यथा हि सतसहस्सग्घनिकपण्डुकम्बलवाणिजेन 'कम्बलं गण्हथा'ति उग्घोसितेपि असुककम्बलोति न ताव मनुस्सा जानन्ति । केसकम्बलवाळकम्बलादयोपि हि दुग्गन्धा खरसम्फस्सा कम्बलात्वेव वुच्चन्ति । यदा पन तेन गन्धारको रत्तकम्बलो सुखुमो उज्जलो सुखसम्फस्सोति उग्घोसितं होति, तदा ये पहोन्ति, ते गण्हन्ति । ये नप्पहोन्ति, पि दस्सनकामा होन्ति; एवमेव 'एकायनो, भिक्खवे, अयं मग्गो'ति वुत्तेपि असुकमग्गोति न ताव पाकटो होति । नानप्पकारका हि अनिय्यानिकमग्गापि मग्गात्वेव वुच्चन्ति । " सत्तानं विसुद्धिया 'तिआदिम्हि पन वुत्ते " अयं किर मग्गो चत्तारो उपद्दवे हनति, यो विसेसे आवहती"ति उस्साहजाता इमं धम्मदेसनं उग्गहेतब्बं परियापुणितब्बं धारेतब्बं वाचेतब्बं, इमञ्च मग्गं भावेतब्बं मञ्ञिस्सन्तीति वण्णं भासन्तो “सत्तानं विसुद्धिया’तिआदिमाह। यथा च सतसहस्सग्घनिकपण्डुकम्बलवाणिजूपमा; एवं रत्तजम्बुनदसुवण्णउदकप्पसादकमणिरतनसुविसुद्धमुत्तरतनपवाळादिवाणिजूपमादयोपेत्थ आहरितब्बा । यदिदन्ति निपातो, ये इमेति अयमस्स अत्थो । चत्तारोति गणनपरिच्छेदो । तेन न ततो हेट्ठा, न उद्धन्ति सतिपट्ठानपरिच्छेदं दीपेति । सतिपट्ठानाति तयो सतिपट्ठाना सतिगोचरोपि तिधा पटिपन्नेसु सावकेसु सत्थुनो पटिघानुनयवीतिवत्ततापि, सतिपि । "चतुन्नं, भिक्खवे, सतिपट्ठानानं समुदयञ्च अत्यङ्गमञ्च देसेस्सामि, तं सुणाथ...पे०... को च, भिक्खवे, कायस्स समुदयो । आहारसमुदया कायस्स समुदयो "तिआदीसु (सं० नि० ३.५.४०८) हि सतिगोचरो सतिपट्ठानन्ति वुच्चति । तथा "कायो उपट्ठानं नो सति, सति पन उपट्ठानञ्चेव सति चा" तिआदीसुपि (पटि० म० ३.३५ ) । तस्सत्थो - पतिट्ठाति अस्मिन्ति पट्टानं । का पतिट्ठाति ? सति । सतिया पट्टानं सतिपट्ठानं, पधानं ठानन्ति वा पट्ठानं । सतिया पट्ठानं सतिपट्ठानं हत्थिट्ठान अस्सट्ठानादीनि विय । ( ९.३७३-३७३) “तयो सतिपट्ठाना यदरियो सेवति, यदरियो सेवमानो सत्था गणमनुसासितुं अरहती 'ति (म० नि० ३.३११) एत्थ तिधा पटिपन्नेसु सावकेसु सत्थुनो पटिघानुनयवीतिवत्तता “सतिपट्ठान”न्ति वृत्ता । तस्सत्थो - पट्टपेतब्बतो पट्ठानं, 308 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना ३०९ पवत्तयितब्बतोति अत्थो। केन पट्ठपेतब्बतोति ? सतिया। सतिया पट्टानं सतिपट्टानं | "चत्तारो सतिपट्ठाना भाविता बहुलीकता सत्त सम्बोज्झने परिपूरेन्ती"तिआदीसु (म० नि० ३.१४७) पन सतियेव “सतिपट्टानंति वुच्चति । तस्सत्थो- पट्ठातीति पट्टानं, उपट्टाति ओक्कन्दित्वा पक्खन्दित्वा पत्थरित्वा पवत्ततीति अत्थो । सतियेव सतिपट्ठानं । अथ वा सरणटेन सति, उपट्ठानटेन पट्टानं । इति सति च सा पट्टानं चातिपि सतिपट्टानं । इदमिधाधिप्पेतं । यदि एवं कस्मा “सतिपट्ठाना"ति बहुवचनं? सतिबहुत्ता। आरम्मणभेदेन हि बहुका एता सतियो । अथ मग्गोति कस्मा एकवचनं ? मग्गटेन एकत्ता | चतस्सोपि हि एता सतियो मग्गटेन एकत्तं गच्छन्ति । वुत्तव्हेतं- "मग्गोति केनटेन मग्गो ? निब्बानगमनतुन । निब्बानस्थिकेहि मग्गनीयद्वेन चा"ति । चतस्सोपि चेता अपरभागे कायादीसु आरम्मणेसु किच्चं साधयमाना निब्बानं गच्छन्ति, आदितो पट्ठाय च निब्बानत्थिकेहि मग्गियन्ति, तस्मा चतस्सोपि एको मग्गोति वुच्चन्ति । एवञ्च सति वचनानुसन्धिना सानुसन्धिकाव देसना होति, "मारसेनप्पमद्दनं, वो भिक्खवे, मग्गं देसेस्सामि, तं सुणाथ...पे०... कतमो च, भिक्खवे, मारसेनप्पमद्दनो मग्गो ? यदिदं सत्त बोज्झना"तिआदीसु (सं० नि० ३.५.२२४) विय | यथा मारसेनप्पमद्दनोति च, सत्त बोज्झङ्गाति च अत्थतो एकं, व्यञ्जनमेवेत्थ नानं । एवं “एकायनमग्गो''ति च “चत्तारो सतिपट्ठाना''ति च अत्थतो एकं, ब्यञ्जनमेवेत्थ नानं, तस्मा मग्गटेन एकत्ता एकवचनं । आरम्मणभेदेन सतिबहुत्ता बहुवचनं वेदितब्बं । __कस्मा पन भगवता चत्तारोव सतिपट्टाना वुत्ता अनूना अनधिकाति? वेनेय्यहितत्ता । तण्हाचरितदिट्ठिचरितसमथयानिकविपस्सनायानिकेसु हि मन्दतिक्खवसेन द्वेधा द्वेधा पवत्तेसु वेनेय्येसु मन्दस्स तण्हाचरितस्स ओळारिकं कायानुपस्सनासतिपट्टानं विसुद्धिमग्गो, तिक्खस्स सुखुमं वेदनानुपस्सनासतिपट्टानं । दिट्ठिचरितस्सपि 'मन्दस्स नातिप्पभेदगतं चित्तानुपस्सनासतिपट्टानं विसुद्धिमग्गो, तिक्खस्स अतिप्पभेदगतं धम्मानुपस्सनासतिपट्ठानं विसुद्धिमग्गो। समथयानिकस्स च मन्दस्स अकिच्छेन अधिगन्तब्बनिमित्तं पठमं सतिपट्टानं विसुद्धिमग्गो, तिक्खस्स ओळारिकारम्मणे असण्ठहनतो. दुतियं । विपस्सनायानिकस्सपि मन्दस्स नातिप्पभेदगतारम्मणं ततियं, तिक्खस्स अतिप्पभेदगतारम्मणं चतुत्थं । इति चत्तारोव वुत्ता अनूना अनधिकाति। 309 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा सुभसुखनिच्चअत्तभावविपल्लासप्पहानत्थं वा । कायो हि असुभो, तत्थ च सुभविपल्लासविपल्लत्था सत्ता । तेसं तत्थ असुभभावदस्सनेन तस्स विपल्लासस्स पहानत्थं पठमं सतिपट्ठानं वुत्तं । सुखं निच्चं अत्ताति गहितेसुपि च वेदनादीसु वेदना दुक्खा, चित्तं अनिच्चं, धम्मा अनत्ता, तेसु च सुखनिच्चअत्तविपल्लासविपल्लत्था सत्ता । तेसं तत्थ दुक्खादिभावदस्सनेन तेसं विपल्लासानं पहानत्थं सेसानि तीणि वुत्तानीति एवं सुभसुखनिच्चअत्तभावविपल्लासप्पहानत्थं वा चत्तारोव वुत्ता अनूना अनधिकाति वेदितब्बा । न केवलञ्च विपल्लासप्पहानत्थमेव, अथ खो चतुरोघयोगासवगन्थउपादान अगतिपहानत्थम्पि चतुब्बिधाहारपरिञ्ञत्थञ्च चत्तारोव वृत्ताति वेदितब्बा । अयं ताव पकरणनयो । ३१० अट्ठकथायं पन सरणवसेन चेव एकत्तसमोसरणवसेन च एकमेव सतिपट्ठानं आरम्मणवसेन चत्तारोति एतदेव वृत्तं । यथा हि चतुद्वारे नगरे पाचीनतो आगच्छन्ता पाचीनदिसाय उट्ठानकं भण्डं गहेत्वा पाचीनद्वारेन नगरमेव पविसन्ति, दक्खिणतो । पच्छिमतो । उत्तरतो आगच्छन्ता उत्तरदिसाय उट्ठानकं भण्डं गहेत्वा उत्तरद्वारेन नगरमेव पविसन्ति; एवं - सम्पदमिदं वेदितब्बं । नगरं विय हि निब्बानमहानगरं, द्वारं विय अट्ठङ्गिको लोकुत्तरमग्गो, पाचीनदिसादयो विय कायादयो । यथा पाचीनतो आगच्छन्ता पाचीनदिसाय उट्ठानकं भण्डं गहेत्वा पाचीनद्वारेन नगरमेव पविसन्ति, एवं कायानुपस्सनामुखेन आगच्छन्ता चुद्दसविधेन कायानुपस्सनं भावेत्वा कायानुपस्सनाभावनानुभावनिब्बत्तेन अरियमग्गेन एकं निब्बानमेव ओसरन्ति । यथा दक्खिणतो आगच्छन्ता दक्खिणाय दिसाय उट्ठानकं भण्डं गत्वा दक्खिणद्वारेन नगरमेव पविसन्ति, एवं वेदनानुपस्सनामुखेन आगच्छन्ता नवविधेन वेदनानुपस्सनं भावेत्वा वेदनानुपस्सनाभावनानुभावनिब्बत्तेन अरियमग्गेन एकं निब्बानमेव ओसरन्ति । यथा पच्छिमतो आगच्छन्ता पच्छिमदिसाय उट्टानकं भण्डं गहेत्वा पच्छिमद्वारेन नगरमेव पविसन्ति, एवं चित्तानुपस्सनामुखेन आगच्छन्ता सोळसविधेन चित्तानुपस्सनं भावेत्वा चित्तानुपस्सनाभावनानुभावनिब्बत्तेन अरियमग्गेन एकं निब्बानमेव ओसरन्ति । यथा उत्तरतो आगच्छन्ता उत्तरदिसाय उट्ठानकं भण्डं गहेत्वा उत्तरद्वारेन नगरमेव पविसन्ति, एवं धम्मानुपस्सनामुखेन आगच्छन्ता पञ्चविधे धम्मानुपस्सनं भावेत्वा धम्मानुपस्सनाभावनानुभावनिब्बत्तेन अरियमग्गेन एकं निब्बानमेव ओसरन्ति । एवं सरणवसेन चेव एकत्तसमोसरणवसेन च एकमेव सतिपट्ठानं आरम्मणवसेन चत्तारोव वृत्ताति वेदितब्बा । ( ९.३७३-३७३) 310 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना ३११ कतमे चत्तारोति कथेतुकम्यता पुच्छा। इधाति इमस्मिं सासने । भिक्खवेति धम्मपटिग्गाहकपुग्गलालपनमेतं । भिक्खूति पटिपत्तिसम्पादकपुग्गलनिदस्सनमेतं । अमेपि च देवमनुस्सा पटिपत्तिं सम्पादेन्तियेव, सेठ्ठत्ता पन पटिपत्तिया भिक्खुभावदस्सनतो च "भिक्खू"ति आह । भगवतो हि अनुसासनिं सम्पटिच्छन्तेसु भिक्खु सेट्ठो, सब्बप्पकाराय अनुसासनिया भाजनभावतो। तस्मा सेठूत्ता "भिक्खू"ति आह । तस्मिं गहिते पन सेसा गहिताव होन्ति, राजगमनादीसु राजग्गहणेन सेसपरिसा विय । यो च इमं पटिपत्तिं पटिपज्जति. सो भिक्ख नाम होतीति पटिपत्तिया भिक्खभावदस्सनतोपि "भिक्ख"ति आह। पटिपन्नको हि देवो वा होतु मनुस्सो वा, भिक्खूति सङ्ख्यं गच्छतियेव यथाह - "अलङ्कतो चेपि समं चरेय्य, सन्तो दन्तो नियतो ब्रह्मचारी । सब्बेसु भूतेसु निधाय दण्डं, सो ब्राह्मणो सो समणो स भिक्खू"ति ।। (ध० ५० १४२) कायेति रूपकाये। रूपकायो हि इध अङ्गपच्चङ्गानं केसादीनञ्च धम्मानं समूहद्वेन हस्थिकायरथकायादयो विय कायोति अधिप्पेतो। यथा च समूहद्वेन, एवं कुच्छितानं आयटेन । कुच्छितानहि परमजेगुच्छानं सो आयोतिपि कायो । आयोति उप्पत्तिदेसो । तत्थायं वचनत्थो । आयन्ति ततोति आयो। के आयन्ति ? कुच्छिता केसादयो। इति कुच्छितानं आयोति कायो। कायानुपस्सीति काये अनुपस्सनसीलो कायं वा अनुपस्समानो । कायेति च वत्वापि पन कायानपस्सीति दतियकायग्गहणं असम्मिस्सतो ववत्थानघनविनिब्भोगादिदस्सनत्थं कतन्ति वेदितब्बं । तेन न काये वेदनानुपस्सी वा, चित्तधम्मानुपस्सी वा, अथ खो कायानुपस्सीयेवाति कायसङ्खाते वत्थुस्मिं कायानुपस्सनाकारस्सेव दस्सनेन असम्मिस्सतो ववत्थानं दस्सितं होति । तथा न काये अङ्गपच्चङ्गविनिमुत्तएकधम्मानुपस्सी, नापि केसलोमादिविनिमुत्तइत्थिपुरिसानुपस्सी, योपि चेत्थ केसलोमादिको भूतुपादायसमूहसङ्घातो कायो, तत्थपि न भूतुपादायविनिमुत्तएकधम्मानुपस्सी, अथ खो रथसम्भारानुपस्सको विय अङ्गपच्चङ्गसमूहानुपस्सी, नगरावयवानुपस्सको विय केसलोमादिसमूहानुपस्सी, कदलिक्खन्धपत्तवट्टिविनिब्भुजको विय रित्तमुट्ठिविनिवेठको विय च भूतुपादायसमूहानुपस्सीयेवाति नानप्पकारतो समूहवसेनेव कायसङ्घातस्स वत्थुनो दस्सनेन 311 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३७३-३७३) घनविनिब्भोगो दस्सितो होति । न हेत्थ यथावुत्तसमूहविनिमुत्तो कायो वा इत्थी वा पुरिसो वा अञो वा कोचि धम्मो दिस्सति, यथावुत्तधम्मसमूहमत्तेयेव पन तथा तथा सत्ता मिच्छाभिनिवेसं करोन्ति । तेनाहु पोराणा “यं पस्सति न तं दिटुं, यं दिटुं तं न पस्सति । अपस्सं बज्झते मूळहो, बज्झमानो न मुच्चती''ति ।। घनविनिब्भोगादिदस्सनत्यन्ति वुत्तं, आदिसद्देन चेत्थ अयम्पि अत्थो वेदितब्बो । अयहि एतस्मिं काये कायानुपस्सीयेव, न अञ्च धम्मानुपस्सीति वुत्तं होति । यथा अनुदकभूतायपि मरीचिया उदकानुपस्सिनो होन्ति, न एवं अनिच्चदुक्खानत्तअसुभभूतेयेव इमस्मिं काये निच्चसुखअत्तसुभभावानुपस्सी, अथ खो कायानुपस्सी अनिच्चदुक्खानत्तअसुभाकारसमूहानुपस्सीयेवाति वुत्तं होति । अथ वा य्वायं परतो "इध, भिक्खवे, भिक्खु अरञ्जगतो वा...पे०... सो सतोव अस्ससती"तिआदिना नयेन अस्सासपस्सासादिचुण्णिकजातअट्ठिकपरियोसानो कायो वुत्तो, यो च "इधेकच्चो पथवीकार्य अनिच्चतो अनुपस्सति, आपोकायं तेजोकायं वायोकायं केसकायं लोमकायं छविकायं चम्मकायं मंसकायं रुधिरकायं न्हारुकायं अट्टिकायं अट्ठिमिञ्जकाय"न्ति (पटि० म० ३.३५) पटिसम्भिदायं कायो वुत्तो, तस्स सब्बस्स इमस्मि व काये अनुपस्सनतो काये कायानुपस्सीति एवम्पि अत्थो वेदितब्बो । अथ वा काये अहन्ति वा ममन्ति वा एवं गहेतब्बस्स यस्स कस्सचि अननुपस्सनतो, तस्स तस्सेव पन केसलोमादिकस्स नानाधम्मसमूहस्स अनुपस्सनतो काये केसादिधम्मसमूहसङ्घातकायानुपस्सीति एवमत्थो दट्ठब्बो। अपिच "इमस्मिं काये अनिच्चतो अनुपस्सति, नो निच्चतो"तिआदिना अनुक्कमेन पटिसम्भिदायं आगतनयस्स सब्बस्सेव अनिच्चलक्खणादिनो आकारसमूहसङ्घातस्स कायस्स अनुपस्सनतोपि काये कायानुपस्सीति एवम्पि अत्थो दट्ठब्बो। तथा हि अयं काये कायानुपस्सनापटिपदं पटिपन्नो भिक्खु इमं कार्य अनिच्चानुपस्सनादीनं सत्तन्नं अनुपस्सनानं वसेन अनिच्चतो अनुपस्सति, नो निच्चतो । दुक्खतो अनुपस्सति, नो सुखतो । अनत्ततो अनुपस्सति, नो अत्ततो। निबिन्दति, नो नन्दति, विरज्जति, नो रज्जति, निरोधेति । नो समुदेति, पटिनिस्सज्जति, नो आदियति । सो तं अनिच्चतो अनुपस्सन्तो निच्चसधे 312 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना ३१३ पजहति, दुक्खतो अनुपस्सन्तो सुखसञ्ज पजहति, अनत्ततो अनुपस्सन्तो अत्तसञ्चं पजहति, निबिन्दन्तो नन्दिं पजहति, विरज्जन्तो रागं पजहति, निरोधेन्तो समुदयं पजहति, पटिनिस्सज्जन्तो आदानं पजहतीति वेदितब्बो । विहरतीति इरियति । आतापीति तीसु भवेसु किलेसे आतापेतीति आतापो, वीरियस्सेतं नामं | आतापो अस्स अत्थीति आतापी । सम्पजानोति सम्पज सङ्घातेन आणेन समन्नागतो । सतिमाति कायपरिग्गाहिकाय सतिया समन्नागतो। अयं पन यस्मा सतिया आरम्मणं परिग्गहेत्वा पञ्जाय अनुपस्सति, न हि सतिविरहितस्स अनुपस्सना नाम अत्थि, तेनेवाह - "सतिञ्च ख्वाहं, भिक्खवे, सब्बत्थिकं वदामी" (सं० नि० ३.५.२३४) ति। तस्मा एत्थ “काये कायानुपस्सी विहरती''ति एत्तावता कायानुपस्सनासतिपट्टानं वुत्तं होति । अथ वा यस्मा अनातापिनो अन्तोस पो अन्तरायकरो होति, असम्पजानो उपायपरिग्गहे अनुपायपरिवज्जने च सम्मुव्हति, मुट्ठस्सति उपायापरिच्चागे अनुपायापरिग्गहे च असमत्थो होति, तेनस्स तं कम्मट्ठानं न सम्पज्जति । तस्मा येसं धम्मानं आनुभावेन तं सम्पज्जति, तेसं दस्सनत्थं “आतापी सम्पजानो सतिमा"ति इदं वुत्तन्ति वेदितब्बं । इति कायानुपस्सनासतिपट्टानं सम्पयोगङ्गञ्चस्स दस्सेत्वा इदानि पहानङ्गं दस्सेतुं विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सन्ति वुत्तं । तत्थ विनेय्याति तदङ्गविनयेन वा विक्खम्भनविनयेन वा विनयित्वा । लोकेति तस्मि व काये। कायो हि इध लुज्जनपलुज्जनद्वेन लोकोति अधिप्पेतो। यस्मा पनस्स न कायमत्तेयेव अभिज्झादोमनस्सं पहीयति, वेदनादीसुपि पहीयतियेव । तस्मा पञ्चपि उपादानक्खन्धा लोकोति विभङ्गे वुत्तं । लोकसङ्घातत्ता वा तेसं धम्मानं अत्थुद्धारनयेनेतं वुत्तं । यं पनाह - "तत्थ कतमो लोको ? स्वेव कायो लोको"ति, अयमेवेत्थ अत्थो । तस्मिं लोके अभिज्झादोमनस्सं विनेय्याति एवं सम्बन्धो दट्ठब्बो । यस्मा पनेत्थ अभिज्झाग्गहणेन कामच्छन्दो, दोमनस्सग्गहणेन ब्यापादो सङ्गहं गच्छति, तस्मा नीवरणपरियापन्नबलवधम्मद्वयदस्सनेन नीवरणप्पहानं वुत्तं होतीति वेदितब्बं । विसेसेन चेत्थ अभिज्झाविनयेन कायसम्पत्तिमूलकस्स अनुरोधस्स, दोमनस्सविनयेन कायविपत्तिमूलकस्स विरोधस्स, अभिज्झाविनयेन च काये अभिरतिया, दोमनस्सविनयेन कायभावनाय अनभिरतिया, अभिज्झाविनयेन काये अभूतानं सुभसुखभावादीनं पक्खेपस्स, 313 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३७३-३७३) दोमनस्सविनयेन काये भूतानं असुभासुखभावादीनं अपनयनस्स च पहानं वुत्तं । तेन योगावचरस्स योगानुभावो योगसमत्थता च दीपिता होति । योगानुभावो हि एस, यदिदं अनुरोधविरोधविप्पमुत्तो अरतिरतिसहो अभूतपक्खेपभूतापनयनविरहितो च होति । अनुरोधविरोधविप्पमुत्तो चेस अरतिरतिसहो अभूतं अपक्खिपन्तो भूतञ्च अनपनयन्तो योगसमत्थो होतीति । ___ अपरो नयो “काये कायानुपस्सी'ति एत्थ अनुपस्सनाय कम्मट्ठानं वुत्तं । “विहरती''ति एत्थ वुत्तविहारेन कम्मट्ठानिकस्स कायपरिहरणं, “आतापी"तिआदीसु पन आतापेन सम्मप्पधानं, सतिसम्पजओन सब्बत्थककम्मट्ठानं, कम्मट्ठानपरिहरणूपायो वा । सतिया वा कायानुपस्सनावसेन पटिलद्धसमथो, सम्पजओन विपस्सना अभिज्झादोमनस्सविनयेन भावनाबलं वुत्तन्ति वेदितब् । विभङ्गे पन अनुपस्सीति तत्थ “कतमा अनुपस्सना ? या पञा पजानना विचयो पविचयो धम्मविचयो सल्लक्खणा उपलक्खणा पच्चुपलक्खणा पण्डिच्चं कोसल्लं नेपुलं वेभब्या चिन्ता उपपरिक्खा भूरीमेधा परिणायिका विपस्सना सम्पजलं पतोदो पञ्जा पञिन्द्रियं पञ्जाबलं पञ्जासत्थं पञापासादो पञ्जाआलोको पञ्जाओभासो पञापज्जोतो पारतनं अमोहो धम्मविचयो सम्मादिट्टि, अयं वुच्चति अनुपस्सना । इमाय अनुपस्सनाय उपेतो होति समुपेतो उपगतो समुपगतो उपपन्नो समन्नागतो, तेन वुच्चति अनुपस्सीति । विहरतीति इरियति पवत्तति पालेति यति यापेति चरति विहरति, तेन वुच्चति विहरतीति । आतापीति तत्थ कतमं आतापं ? यो चेतसिको वीरियारम्भो निकम्मो परक्कमो उय्यामो वायामो उस्साहो उस्सोळही थामो धिति असिथिलपरक्कमता अनिक्खित्तद्दन्दता अनिक्खित्तधुरता धुरसम्पग्गाही वीरियं वीरियिन्द्रियं वीरियबलं सम्मावायामो, इदं वुच्चति आतापं । इमिना आतापेन उपेतो होति...पे०... समन्नागतो, तेन वुच्चति आतापीति । सम्पजानोति तत्थ कतमं सम्पजलं? या पञ्जा पजानना विचयो पविचयो धम्मविचयो सल्लक्खणा उपलक्खणा पच्चुपलक्खणा पण्डिच्चं कोसल्लं नेपुलं वेभब्या चिन्ता उपपरिक्खा भूरीमेधा परिणायिका विपस्सना सम्पजनं पतोदो पञ्जा पञ्जिन्द्रियं पाबलं पञआसत्थं पञापासादो पञाआलोको पञआओभासो पञापज्जोतो पञ्जारतनं अमोहो धम्मविचयो सम्मादिट्ठि, इदं वुच्चति सम्पजों । इमिना सम्पज न उपेतो 314 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना ३१५ होति...पे०... समन्नागतो, तेन वुच्चति सम्पजानोति । सतिमाति तत्थ कतमा सति ? या सति अनुस्सति पटिस्सति सति सरणता धारणता अपिलापनता असम्मुसनता सति सतिन्द्रियं सतिबलं सम्मासति, अयं वुच्चति सति । इमाय सतिया उपेतो होति...पे०... समन्नागतो, तेन वुच्चति सतिमाति । विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सन्ति तत्थ कतमो लोको ? स्वेव कायो लोको । पञ्चपि उपादानक्खन्धा लोको, अयं वुच्चति लोको । तत्थ कतमा अभिज्झा ? यो रागो सारागो अनुनयो अनुरोधो नन्दी नन्दिरागो चित्तस्स सारागो, अयं वुच्चति अभिज्झा। तत्थ कतमं दोमनस्सं? यं चेतसिकं असातं चेतसिकं दुक्खं चेतोसम्फस्सजा असाता दुक्खा वेदना, इदं वुच्चति दोमनस्सं । इति अयञ्च अभिज्झा, इदञ्च दोमनस्सं इमम्हि लोके विनीता होन्ति पटिविनीता सन्ता समिता वूपसमिता अत्थङ्गता अब्भत्थङ्गता अप्पिता ब्यप्पिता सोसिता विसोसिता ब्यन्तीकता, तेन वुच्चति विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्स"न्ति (विभं० ३५७-३६२)। एवमेतेसं पदानं अत्थो वुत्तो। तेन सह अयं अट्ठकथानयो यथा संसन्दति, एवं वेदितब्बो। अयं ताव कायानुपस्सनासतिपट्टानुद्देसस्स अत्थवण्णना । इदानि वेदनासु । चित्ते । धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति...पे०... विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सन्ति एत्थ वेदनासु वेदनानुपस्सीति एवमादीसु वेदनादीनं पुन वचने पयोजनं कायानुपस्सनायं वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । वेदनासु वेदनानुपस्सी। चित्ते चित्तानुपस्सी । धम्मेसु धम्मानुपस्सीति एत्थ पन वेदनाति तिस्सो वेदना, ता च लोकिया एव । चित्तम्पि लोकियं, तथा धम्मा। तेसं विभागो निद्देसवारे पाकटो भविस्सति । केवलं पनिध यथा वेदना अनुपस्सितब्बा, तथा ता अनुपस्सन्तो “वेदनासु वेदनानुपस्सी''ति वेदितब्बो । एस नयो चित्तधम्मेसुपि । कथञ्च वेदना अनुपस्सितब्बाति ? सुखा ताव वेदना दुक्खतो, दुक्खा सल्लतो, अदुक्खमसुखा अनिच्चतो । यथाह - “यो सुखं दुक्खतो अद्द, दुक्खमद्दक्खि सल्लतो । अदुक्खमसुखं सन्तं, अद्दक्खि नं अनिच्चतो । स वे सम्म।सो भिक्खु, उपसन्तो चरिस्सती"ति ।। (सं० नि० २.४.२५३) 315 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा सब्बा एव चेता " दुक्खा 'तिपि अनुपस्सितब्बा । वृत्तहेतं - "यं किञ्चि वेदयितं, तं दुक्खस्मिन्ति वदामी" ति (सं० नि० २.४.२५९) । सुखदुक्खतोपि च अनुपस्सितब्बा । यथाह “सुखा वेदना ठितिसुखा विपरिणामदुक्खा "ति (म० नि० १.४६५) सब्बं वित्थारेतब्बं । अपिच अनिच्चादिसत्त अनुपस्सनावसेनपि अनुपस्सितब्बा । सेसं निद्देसवारेयेव पाकटं भविस्सति । चित्तधम्मेसुपि चित्तं ताव आरम्मणाधिपतिसहजातभूमिकम्मविपाककिरियादिनानत्तभेदानं अनिच्चादिअनुपस्सनानं निद्देसवारे आगतसरागादिभेदानञ्च वसेन अनुपस्सितब्बं | धम्मा सलक्खणसामञ्ञलक्खणानं सुञ्ञतधम्मस्स अनिच्चादिसत्तानुपस्सनानं निद्देसवारे आगतसन्तादिभेदानञ्च वसेन अनुपस्सितब्बा | सेसं वुत्तनयमेव । कामञ्चेत्थ यस् कायसङ्घाते लोके अभिज्झादोमनस्सं पहीनं, तस्स वेदनादीसुपि तं पहीनमेव । नानापुग्गलवसेन पन नानाचित्तक्खणिकसतिपट्ठानभावनावसेन च सब्बत्थ तं । वा एकत्थ पहीनं सेसेसुपि पहीनं होति, तेनेवस्स तत्थ पहानदस्सनत्थम्पि एतं वुत्तन्ति वेदितब्बन्ति । ३७४. उद्देसवारकथा निट्ठिता । कायानुपस्सना आनापानपब्बवण्णना इदान सेय्यथापि नाम छेको विलीवकारको थूलकिलञ्जसण्हकिलञ्जचङ्कोटकपेळापुटादीनि उपकरणानि कत्तुकामो एकं महावेणुं लभत्वा चतुधा भिन्दित्वा ततो एकेकं वेणुखण्डं गत्वा फालेत्वा तं तं उपकरणं करेय्य, एवमेव भगवा सतिपट्ठानदेसनाय सत्तानं अनेकप्पकारं विसेसाधिगमं कत्तुकामो एकमेव सम्माति " चत्तारो सतिपट्ठाना। कतमे चत्तारो ? इध, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरती ''तिआदिना नयेन आरम्मणवसेन चतुधा भिन्दित्वा ततो एकेकं सतिपट्टानं गहेत्वा कायं विभजन्तो “कथञ्च भिक्खवे 'तिआदिना नयेन निद्देसवारं वत्तुमारद्धो । तत्थ कथञ्चाति आदि वित्थारेतुकम्यतापुच्छा । अयं पनेत्थ सङ्क्षेपत्थो - भिक्खवे, केन ( ९.३७४-३७४) 316 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९.३७४-३७४ ) कायानुपस्सना आनापानपब्बवण्णना च पकारेन भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरतीति ? एस नयो सब्बपुच्छावारेसु । इध भिक्खवे भिक्खूति भिक्खवे इमस्मिं सासने भिक्खु । अयञ्हेत्थ इधसद्दो सब्बप्पकारकायानुपस्सनानिब्बत्तकस्स पुग्गलस्स सन्निस्सयभूतसासनपरिदीपनो अञ्ञसासनस्स तथाभावपटिसेधनो च । वृत्तहेतं "इधेव भिक्खवे, समणो... पे०... सुञ्ञा परप्पवादा समणेभि अञ्ञेही "ति (म० नि० १.१३९) । तेन वुत्तं " इमस्मिं सासने भिक्खू'ति । अरञ्ञगतो वा वा सुञगारगो वात इदमस्स सतिपट्ठानभावनानुरूपसेनासनपरिग्गहपरिदीपनं । इमस्स हि भिक्खुनो दीघरत्तं रूपादीसु आरम्मणेसु अनुविसटं चित्तं कम्मट्ठानवीथिं ओतरितुं न इच्छति, कूटगोणयुत्तरथो विय उप्पथमेव धावति। तस्मा सेय्यथापि नाम गोपो कूटधेनुया सब्बं खीरं पवित्वा वड्डतं कूटवच्छं दमेतुकामो धेनुतो अपनेत्वा एकमन्ते महन्तं थम्भं निखणित्वा तत्थ योत्तेन बन्धेय्य । अथस्स सो वच्छो इतो चितो च विप्फन्दित्वा पलायितुं असक्कोन्तो तमेव थम्भ उपनिसीदेय्य वा उपनिपज्जेय्य वा, एवमेव इमिनापि भिक्खुना दीघरतं रूपारम्मणादिरसपानवड्ढितं दुट्ठचित्तं दमेतुकामेन रूपादिआरम्मणतो अपनेत्वा अरञ्ञं वा रुक्खमूलं वा सुञ्ञागारं वा पविसित्वा तत्थ सतिपट्ठानारम्मणत्थम्भे सतियोत्तेन बन्धितब्बं । एवमस्स तं चित्तं इतो चितो च विप्फन्दित्वापि पुब्बे आचिण्णारम्मणं अलभमानं सतियोत्तं छिन्दित्वा पलायितुं असक्कोन्तं तमेवारम्मणं उपचारप्पनावसेन उपनिसीदति व उपनिपज्जति च । तेनाहु पोराणा - "यथा थम्भे निबन्धेय्य, वच्छं दमं नरो इध | बन्धेय्येवं सकं चित्तं, सतियारम्मणे दळह"न्ति । । एवमस्सेतं सेनासनं भावनानुरूपं होति । सतिपट्ठानभावनानुरूपसेनासनपरिग्गहपरिदीपनन्ति । ३१७ अपिच यस्मा इदं कायानुपस्सनाय मुद्धभूतं सब्बबुद्धपच्चेकबुद्धसावकानं विसेसाधिगमदिट्ठधम्मसुखविहारपदट्ठानं आनापानस्सतिकम्मट्ठानं इत्थिपुरिसहत्थि अस्सादिसद्दसमाकुलं गामन्तं अपरिच्चजित्वा न सुकरं सम्पादेतुं, सद्दकण्डकत्ता झानस्स । अगाम पन अरज्ञे सुकरं योगावचरेन इदं कम्मट्ठानं परिग्गहेत्वा आनापानचतुत्थज्झानं निब्बत्त्वा 317 तेन तं "इदमस्स Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३७४-३७४) तदेव झानं पादकं कत्वा सङ्घारे सम्मसित्वा अग्गफलं अरहत्तं पापुणितुं, तस्मास्स अनुरूपसेनासनं दस्सेन्तो भगवा, “अरञ्जगतो वा'"तिआदिमाह ।। ___ वत्थुविज्जाचरियो विय हि भगवा । सो यथा वत्थुविज्जाचरियो नगरभूमिं पस्सित्वा सुटु उपपरिक्खित्वा “एत्थ नगरं मापेथा''ति उपदिसति, सोत्थिना च नगरे निहिते राजकुलतो महासक्कारं लभति, एवमेव योगावचरस्स अनुरूपसेनासनं उपपरिक्खित्वा "एत्थ कम्मट्ठानमनुयुजितब्बन्ति उपदिसति, ततो तत्थ कम्मट्ठानमनुयुञ्जन्तेन योगिना अनुक्कमेन अरहत्ते पत्ते “सम्मासम्बुद्धो वत सो भगवा''ति महन्तं सक्कारं लभति । अयं पन भिक्खु दीपिसदिसोति वुच्चति । यथा हि महादीपिराजा अरछे तिणगहनं वा वनगहनं वा पब्बतगहनं वा निस्साय निलीयित्वा वनमहिंसगोकण्णसूकरादयो मिगे गण्हाति, एवमेव अयं अरादीसु कम्मट्ठानं अनुयुञ्जन्तो भिक्खु यथाक्कमेन चत्तारो मग्गे चेव चत्तारि अरियफलानि च गण्हाति । तेनाहु पोराणा - “यथापि दीपिको नाम, निलीयित्वा गण्हती मिगे । तथेवायं बुद्धपुत्तो, युत्तयोगो विपस्सको।। अरअं पविसित्वान, गण्हाति फलमुत्तम"न्ति ।। तेनस्स परक्कमजवयोग्गभूमिं अरञसेनासनं दस्सेन्तो भगवा “अरजगतो वा''तिआदिमाह । इतो परं इमस्मिं आनापानपब्बे यं वत्तव्बं सिया, तं विसुद्धिमग्गे वुत्तमेव । सेय्यथापि, भिक्खवे, दक्खो भमकारो वाति इदहि उपमामत्तमेव इति अज्झत्तं वा कायेति इदं अप्पनामत्तमेव च तत्थ अनागतं, सेसं आगतमेव । __यं पन अनागतं, तत्थ दक्खोति छेको । दीघं वा अञ्छन्तोति महन्तानं भेरीपोक्खरादीनं लिखनकाले हत्थे च पादे च पसारेत्वा दीघं कड्डन्तो। रस्सं वा अञ्छन्तोति खुद्दकानं दन्तसूचिवेधकादीनं लिखनकाले मन्दमन्दं रस्सं कड्डन्तो । एवमेव खोति एवं अयम्पि भिक्खु अद्धानवसेन इत्तरवसेन च पवत्तानं अस्सासपस्सासानं वसेन दीर्घ वा अस्ससन्तो दीर्घ अस्ससामीति पजानाति...पे०... पस्ससिस्सामीति सिक्खतीति । तस्सेवं सिक्खतो अस्सासपस्सासनिमित्ते चत्तारि झानानि उप्पज्जन्ति, सो झाना वुट्टहित्वा अस्सासपस्सासे वा परिग्गण्हाति झानङ्गानि वा । 318 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७४-३७४) कायानुपस्सना आनापानपब्बवण्णना ३१९ तत्थ अस्सासपस्सासकम्मिको "इमे अस्सासपस्सासा किं निस्सिता ? वत्थुनिस्सिता । वत्थु नाम करजकायो, करजकायो नाम चत्तारि महाभूतानि उपादारूपञ्चे"ति एवं रूपं परिग्गण्हाति। ततो तदारम्मणे फस्सपञ्चमके नामन्ति । एवं नामरूपं परिग्गहेत्वा तस्स पच्चयं परियेसन्तो अविज्जादिपटिच्चसमुप्पादं दिस्वा “पच्चयपच्चयुप्पन्नधम्ममत्तमेवेतं, अञ्जो सत्तो वा पुग्गलो वा नत्थी"ति वितिण्णकङ्खो सप्पच्चयनामरूपे तिलक्खणं आरोपेत्वा विपस्सनं वड्वेन्तो अनुक्कमेन अरहत्तं पापुणाति । इदं एकस्स भिक्खुनो याव अरहत्ता निय्यानमुखं । झानकम्मिकोपि “इमानि झानङ्गानि किं निस्सितानि, वत्थुनिस्सितानि, वत्थु नाम करजकायो झानङ्गानि नामं, करजकायो रूप"न्ति नामरूपं ववत्थपेत्वा तस्स पच्चयं परियेसन्तो अविज्जादिपच्चयाकारं दिस्वा “पच्चयपच्चयुप्पन्नधम्ममत्तमेवेतं, अञ्जो सत्तो वा पुग्गलो वा नत्थी"ति वितिण्णकङ्खो सप्पच्चयनामरूपे तिलक्खणं आरोपेत्वा विपस्सनं वड्डेन्तो अनुक्कमेन अरहत्तं पापुणाति । इदमेकस्स भिक्खुनो याव अरहत्ता निय्यानमुखं । इति अज्झत्तं वाति एवं अत्तनो वा अस्सासपस्सासकाये कायानुपस्सी विहरति । बहिद्धा वाति परस्स वा अस्सासपस्सासकाये । अज्झत्तबहिद्धा वाति कालेन अत्तनो, कालेन परस्स अस्सासपस्सासकाये। एतेनस्स पगुणकम्मट्ठानं अट्ठपेत्वा अपरापरं सञ्चरणकालो कथितो । एकस्मिं काले पनिदं उभयं न लब्भति । समुदयधम्मानुपस्सी वाति यथा नाम कम्मारस्स भस्तञ्च गग्गरनाळिञ्च तज्जञ्च वायामं पटिच्च वातो अपरापरं सञ्चरति, एवं भिक्खुनो करजकायञ्च नासपुटञ्च चित्तञ्च पटिच्च अस्सासपस्सासकायो अपरापरं सञ्चरति । कायादयो धम्मा समुदयधम्मा, ते पस्सन्तो “समुदयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरती"ति वुच्चति । वयधम्मानुपस्सी वाति यथा भस्ताय अपनीताय गग्गरनाळिया भिन्नाय तज्जे च वायामे असति सो वातो नप्पवत्तति, एवमेव काये भिन्ने नासपुटे विद्धस्ते चित्ते च निरुद्धे अस्सासपस्सासकायो नाम नप्पवत्ततीति कायादिनिरोधा अस्सासपस्सासनिरोधोति एवं पस्सन्तो “वयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरतीति वुच्चति | समुदयवयधम्मानुपस्सी वाति कालेन समुदयं कालेन वयं अनुपस्सन्तो। अस्थि कायोति वा पनस्साति कायोव अस्थि, न सत्तो, न पुग्गलो, न इत्थी, न पुरिसो, न अत्ता, न अत्तनियं, नाहं, न मम, न कोचि, न कस्सचीति एवमस्स सति पच्चुपट्टिता होति । 319 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ( ९.३७५ - ३७५ ) यावदेवाति पयोजनपरिच्छेदववत्थापनमेतं । इदं वुत्तं होति - या सा सति पच्चुपट्ठिता होति सा न अञ्ञदत्थाय । अथ खो यावदेव आणमत्ताय अपरापरं उत्तरुत्तरि आणपमाणत्थाय चेव सतिपमाणत्थाय च सतिसम्पञ्जनं वुड्डत्थायाति अत्थो । अनिस्सितो च विहरतीति तण्हानिस्सयदिट्ठिनिस्सयानं वसेन अनिस्सितोव विहरति । न च किञ्चि लोके उपादियतीति लोकस्मिं किञ्चि रूपं वा... पे०... विञ्ञाणं वा " अयं मे अत्ता वा अत्तनियं वा "ति न गण्हाति । एवम्पीति उपरि अत्थं उपादाय सपिण्डनत्थो पि-कारो । इमिना पन पदेन भगवा आनापानपब्बदेसनं निय्यातेत्वा दस्सेति । दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा तत्थ अस्सासपस्सासपरिग्गाहिका सति दुक्खसच्चं, तस्सा समुट्ठापिका पुरिमतहा समुदयसच्चं उभिन्नं अप्पवत्ति निरोधसच्चं, दुक्खपरिजाननो समुदयपजहनो निरोधारम्मणो अरियमग्गो मग्गसच्चं । एवं चतुसच्चवसेन उस्सक्कित्वा निब्बुतिं पापुणातीति इदमेकस्स अस्सासपस्सासवसेन अभिनिविट्ठस्स भिक्खुनो याव अरहत्ता निय्यानमुखन्ति । आनापानपब्बं निट्ठितं । इरियापथपब्बवण्णना ३७५. एवं अस्सासपस्सासवसेन कायानुपस्सनं विभजित्वा इदानि इरियापथवसेन विभजितुं पुन चपरन्तिआदिमाह । तत्थ कामं सोणसिङ्गालादयोपि गच्छन्ता " गच्छामा 'ति जानन्ति, न पनेतं एवरूपं जाननं सन्धाय वुत्तं । एवरूपहि जाननं सत्तूपलद्धिं न पजहति, अत्तसञ्जं न उग्घाटेति, कम्मट्ठानं वा सतिपट्ठानभावना वा न होति । इमस्स पन भिक्खुनो जाननं सत्तूपलद्धिं पजहति, अत्तसञ्ञ उग्घाटेति कम्मट्ठानञ्चेव सतिपट्ठानभावना च होति । इदञ्हि " को गच्छति, कस्स गमनं, किं कारणा गच्छतीति एवं सम्पजाननं सन्धाय वृत्तं । ठानादीसुपि एसेव नयो । तत्थ को गच्छतीति ? न कोचि सत्तो वा पुग्गलो वा गच्छति । कस्स गमनन्ति ? न क्रस्सचि सत्तस्स वा पुग्गलस्स वागमनं । किं कारणा गच्छतीति ? चित्तकिरियवायोधातुविप्फारेन गच्छति । तस्मा एस एवं पजानाति - " गच्छामीति चित्तं 320 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७५-३७५) इरियापथपब्बवण्णना ३२१ उप्पज्जति, तं वायं जनेति, वायो विज्ञत्तिं जनेति, चित्तकिरियवायोधातुविष्फारेन सकलकायस्स पुरतो अभिनीहारो गमनन्ति वुच्चति । ठानादीसुपि एसेव नयो । तत्रापि हि “तिवामी"ति चित्तं उप्पज्जति, तं वायं जनेति, वायो विज्ञत्तिं जनेति, चित्तकिरियवायोधातुविष्फारेन सकलकायस्स कोटितो पट्ठाय उस्सितभावो ठानन्ति वुच्चति । “निसीदामी''ति चित्तं उप्पज्जति, तं वायं जनेति, वायो विज्ञत्तिं जनेति, चित्तकिरियवायोधातुविष्फारेन हेट्ठिमकायस्स समिञ्जनं उपरिमकायस्स उस्सितभावो निसज्जाति वुच्चति । "सयामी"ति चित्तं उप्पज्जति, तं वायं जनेति, वायो विज्ञत्तिं जनेति, चित्तकिरियवायोधातुविप्फारेन सकलसरीरस्स तिरियतो पसारणं सयनन्ति वुच्चतीति । तस्स एवं पजानतो एवं होति “सत्तो गच्छति, सत्तो तिकृती"ति वुच्चति, अत्थतो पन कोचि सत्तो गच्छन्तो वा ठितो वा नत्थि । यथा पन “सकटं गच्छति, सकटं तिकृती"ति वुच्चति, न च किञ्चि सकटं नाम गच्छन्तं वा ठितं वा अत्थि, चत्तारो पन गोणे योजत्वा छेकम्हि सारथिम्हि पाजेन्ते “सकटं गच्छति, सकटं तिकृती"ति वोहारमत्तमेव होति, एवमेव अजाननटेन सकटं विय कायो, गोणा विय चित्तजवाता, सारथि विय चित्तं । “गच्छामि तिट्ठामी''ति चित्ते उप्पन्ने वायोधातु विज्ञत्तिं जनयमाना उप्पज्जति, चित्तकिरियवायोधातुविष्फारेन गमनादीनि पवत्तन्ति, ततो “सत्तो गच्छति, सत्तो तिट्ठति, अहं गच्छामि, अहं तिट्ठामी''ति वोहारमत्तं होति । तेनाह - “नावा मालुतवेगेन, जियावेगेन तेजनं । यथा याति तथा कायो, याति वाताहतो अयं ।। यन्तं सुत्तवसेनेव, चित्तसुत्तवसेनिदं । पयुत्तं काययन्तम्पि, याति ठाति निसीदति ।। को नाम एत्थ सो सत्तो, यो विना हेतुपच्चये । अत्तनो आनुभावेन, तिढे वा यदि वा वजे"ति ।। तस्मा एवं हेतुपच्चयवसेनेव पवत्तानि गमनादीनि सल्लक्खेन्तो एस “गच्छन्तो वा 321 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ दीघनिकाये महावग्गट्टकथा (९.३७६-३७६) गच्छामीति पजानाति, ठितो वा, निसिन्नो वा, सयानो वा सयानोम्हीति पजानाती"ति वेदितब्बो। यथा यथा वा पनस्स कायो पणिहितो होति, तथा तथा नं पजानातीति सब्बसङ्गाहिकवचनमेतं । इदं वुत्तं होति- येन येन वा आकारेनस्स कायो ठितो होति, तेन तेन नं पजानाति । गमनाकारेन ठितं गच्छतीति पजानाति । ठाननिसज्जसयनाकारेन ठितं सयानोति पजानातीति । इति अज्झत्तं वाति एवं अत्तनो वा चतुइरियापथपरिग्गण्हनेन काये कायानुपस्सी विहरति । बहिद्धा वाति परस्स वा चतुइरियापथपरिग्गण्हनेन । अज्झत्तबहिद्धा वाति कालेन अत्तनो, कालेन परस्स चतुइरियापथपरिग्गण्हनेन काये कायानुपस्सी विहरति । समुदयधम्मानुपस्सी वातिआदीसु पन अविज्जासमुदया रूपसमुदयोतिआदिना नयेन पञ्चहाकारेहि रूपक्खन्धस्स समुदयो च वयो च नीहरितब्बो। तहि सन्धाय इध “समुदयधम्मानुपस्सी वा"तिआदि वुत्तं । अत्थि कायोति वा पनस्सातिआदि वृत्तसदिसमेव । इधापि चतुइरियापथपरिग्गाहिका सति दुक्खसच्चं, तस्सा समुट्ठापिका पुरिमतण्हा समुदयसच्चं, उभिन्नं अप्पवत्ति निरोधसच्चं, दुक्खपरिजाननो समुदयपजहनो निरोधारम्मणो अरियमग्गो मग्गसच्चं । एवं चतुसच्चवसेन उस्सक्कित्वा निब्बुतिं पापुणातीति इदमेकस्स चतुइरियापथपरिग्गाहकस्स भिक्खुनो याव अरहत्ता निय्यानमुखन्ति । इरियापथपब्बं निहितं । चतुसम्पजञपब्बवण्णना ३७६. एवं इरियापथवसेन कायानुपस्सनं विभजित्वा इदानि चतुसम्पजञवसेन विभजितुं पुन चपरन्तिआदिमाह । तत्थ अभिक्कन्तेतिआदीनि सामञफले वण्णितानि । इति अज्झत्तं वाति एवं चतुसम्पजअपरिग्गण्हनेन अत्तनो वा काये, परस्स वा काये, कालेन वा अत्तनो, कालेन वा परस्स काये कायानुपस्सी विहरति । इधापि 322 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७७-३७७) पटिकूलमनसिकारपब्बवण्णना ३२३ समुदयवयधम्मानुपस्सीतिआदीसु रूपक्खन्धस्सेव समुदयो च वयो च नीहरितब्बो। सेसं वुत्तसदिसमेव । इध चतुसम्पज परिग्गाहिका सति दुक्खसच्चं, तस्सा समुट्ठापिका पुरिमतण्हा समुदयसच्चं, उभिन्नं अप्पवत्ति निरोधसच्चं, वुत्तप्पकारो अरियमग्गो मग्गसच्चं । एवं चतुसच्चवसेन उस्सक्कित्वा निब्बुतिं पापुणातीति इदमेकस्स चतुसम्पजअपरिग्गाहकस्स भिक्खुनो वसेन याव अरहत्ता निय्यानमुखन्ति । चतुसम्पजञपब्बं निहितं । पटिकूलमनसिकारपब्बवण्णना ___३७७. एवं चतुसम्पजञवसेन कायानुपस्सनं विभजित्वा इदानि पटिकूलमनसिकारवसेन विभजितुं पुन चपरन्तिआदिमाह । तत्थ इममेव कायन्तिआदीसु यं वत्तब्बं सिया, तं सब्बं सब्बाकारेन वित्थारतो विसुद्धिमग्गे कायगतासतिकम्मट्ठाने वुत्तं । उभतोमुखाति हेट्ठा च उपरि चाति द्वीहि मुखेहि युत्ता। नानाविहितस्साति नानाविधस्स । इदं पनेत्थ ओपम्मसंसन्दनं - उभतोमुखा पुतोळि विय हि चातुमहाभूतिको कायो, तत्थ मिस्सेत्वा पक्खित्तनानाविधधनं विय केसादयो द्वत्तिंसाकारा, चक्खुमा पुरिसो विय योगावचरो, तस्स तं पुतोळिं मुञ्चित्वा पच्चवेक्खतो नानाविधधस्स पाकटकालो विय योगिनो द्वत्तिंसाकारस्स विभूतकालो वेदितब्बो। इति अज्झत्तं वाति एवं केसादिपरिग्गण्हनेन अत्तनो वा काये, परस्स वा काये, कालेन वा अत्तनो, कालेन वा परस्स काये कायानुपस्सी विहरति । इतो परं वुत्तनयमेव । केवलहि इध द्वत्तिंसाकारपरिग्गाहिका सति दुक्खसच्चन्ति एवं योजनं कत्वा निय्यानमुखं वेदितब्बं । सेसं पुरिमसदिसमेवाति। पटिकूलमनसिकारपब्बं निहितं । 323 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३७८-३७८) धातुमनसिकारपब्बवण्णना ३७८. एवं पटिकूलमनसिकारवसेन कायानुपस्सनं विभजित्वा इदानि धातुमनसिकारवसेन विभजितुं पुन चपरन्तिआदिमाह । तत्थायं ओपम्मसंसन्दनेन सद्धिं अत्थवण्णना - यथा कोचि गोघातको वा तस्सेव वा भत्तवेतनभतो अन्तेवासिको गाविं वधित्वा विनिविज्झित्वा चतस्सो दिसा गतानं महापथानं वेमज्झट्ठानसङ्खाते चतुमहापथे कोट्ठासं कोट्ठासं कत्वा निसिन्नो अस्स, एवमेव भिक्खु चतुन्नं इरियापथानं येन केनचि आकारेन ठितत्ता यथाठितं, यथाठितत्ता च यथापणिहितं कायं “अत्थि इमस्मिं काये पथवीधातु...पे०... वायोधातू''ति एवं पच्चवेक्खति । किं वुत्तं होति- यथा गोघातकस्स गाविं पोसेन्तस्सापि आघातनं आहरन्तस्सापि आहरित्वा तत्थ बन्धित्वा ठपेन्तस्सपि वधेन्तस्सापि वधितं मतं पस्सन्तस्सापि तावदेव गावीति सञआ न अन्तरधायति, याव नं पदालेत्वा बिलसो न विभजति । विभजित्वा निसिन्नस्स पनस्स गावीति सञ्जा अन्तरधायति, मंससञा पवत्तति । नास्स एवं होति“अहं गाविं विक्किणामि, इमे गाविं हरन्तीति । अथ ख्वस्स "अहं मंसं विक्किणामि, इमे मंसं हरन्ति" च्चेव होति; एवमेव इमस्सापि भिक्खुनो पुब्बे बालपुथुज्जनकाले गिहिभूतस्सापि पब्बजितस्सापि तावदेव सत्तोति वा पुग्गलोति वा सञा न अन्तरधायति, याव इममेव कायं यथाठितं यथापणिहितं घनविनिब्भोगं कत्वा धातुसो न पच्चवेक्खति । धातुसो पच्चवेक्खतो पनस्स सत्तसञआ अन्तरधायति, धातुवसेनेव चित्तं सन्तिट्ठति । तेनाह भगवा - "इममेव कायं यथाठितं यथापणिहितं धातुसो पच्चवेक्खति ‘अस्थि इमस्मिं काये पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू ति । सेय्यथापि, भिक्खवे, दक्खो गोघातको वा...पे०... वायोधातू"ति । गोघातको विय हि योगी, गावीति सञा विय सत्तसञ्जा, चतुमहापथो विय चतुइरियापथो, बिलसो विभजित्वा निसिन्नभावो विय धातुसो पच्चवेक्खणन्ति अयमेत्थ पाळिवण्णना । कम्मट्ठानकथा पन विसुद्धिमग्गे वित्थारिता । इति अज्झत्तं वाति एवं चतुधातुपरिग्गण्हनेन अत्तनो वा काये, परस्स वा काये, कालेन वा अत्तनो, कालेन वा परस्स काये कायानुपस्सी विहरति । इतो परं वुत्तनयमेव । केवलहि इध चतुधातुपरिग्गाहिका सति दुक्खसच्चन्ति एवं योजनं कत्वा निय्यानमुखं वेदितब्द, सेसं पुरिमसदिसमेवाति । धातुमनसिकारपब्बं निहितं । 324 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७९-३७९) नवसिवथिकपब्बवण्णना ३२५ नवसिवथिकपब्बवण्णना ३७९. एवं धातुमनसिकारवसेन कायानुपस्सनं विभजित्वा इदानि नवहि सिवथिकपब्बेहि विभजितुं पुन चपरन्तिआदिमाह । तत्थ सेय्यथापि पस्सेय्याति यथा पस्सेय्य । सरीरन्ति मतसरीरं । सिवथिकाय छडितन्ति सुसाने अपविद्धं । एकाहं मतस्स अस्साति एकाहमतं। द्वीहं मतस्स अस्साति बीहमतं। तीहं मतस्स अस्साति तीहमतं। कम्मारभस्ता विय वायुना उद्धं जीवितपरियादाना यथानुक्कम समुग्गतेन सूनभावेन उद्धमातत्ता उद्धुमातं, उद्धुमातमेव उद्धमातकं। पटिकूलत्ता वा कुच्छितं उद्धमातन्ति उद्धमातकं । विनीलं वुच्चति विपरिभिन्नवण्णं, विनीलमेव विनीलकं। पटिकूलत्ता वा कुच्छितं विनीलन्ति विनीलकं। मंसुस्सदट्ठानेसु रत्तवण्णस्स पुब्बसन्निचयट्ठानेसु सेतवण्णस्स येभुय्येन च नीलवण्णस्स नीलट्ठानेसु नीलसाटकपारुतस्सेव छवसरीरस्सेतं अधिवचनं । परिभिन्नट्ठानेहि नवहि वा वणमुखेहि विस्सन्दमानपुब्बं विपुब्बं, विपुब्बमेव विपुब्बकं । पटिकूलत्ता वा कुच्छितं विपुब्बन्ति विपुब्बकं । विपुब्बकं जातं तथाभावं गतन्ति विपुब्बकजातं । सो इममेव कायन्ति सो भिक्खु इमं अत्तनो कायं तेन कायेन सद्धिं आणेन उपसंहरति उपनेति । कथं ? अयम्पि खो कायो एवंधम्मो एवंभावी एवंअनतीतोति । इदं वुत्तं होति- आयु, उस्मा, विज्ञाणन्ति इमेसं तिण्णं धम्मानं अत्थिताय अयं कायो ठानगमनादिखमो होति, इमेसं पन विगमा अयम्पि खो कायो एवंधम्मो एवं पूतिकसभावोयेव, एवंभावी एवं उद्धुमातादिभेदो भविस्सति, एवंअनतीतो एवं उद्घमातादिभावं अनतिक्कन्तोति | इति अज्झत्तं वाति एवं उद्धमातादिपरिग्गण्हनेन अत्तनो वा काये, परस्स वा काये, कालेन वा अत्तनो, कालेन वा परस्स काये कायानुपस्सी विहरति । खज्जमानन्ति उदरादीसु निसीदित्वा उदरमंसओट्ठमंसअक्खिकूटादीनि लुञ्चित्वा लुञ्चित्वा खादियमानं । समंसलोहितन्ति सावसेसमंसलोहितयुत्तं । निमंसलोहितमक्खितन्ति मंसे खीणेपि लोहितं न सुस्सति, तं सन्धाय वुत्तं “निमंसलोहितमक्खित''न्ति । अञ्जनाति अओन दिसाभागेन। हत्थढिकन्ति चतुसट्ठिभेदम्पि हत्थट्टिकं पाटियेक्कं पाटियेक्कं विप्पकिण्णं । पादडिकादीसुपि एसेव नयो । तेरोवस्सिकानीति अतिक्कन्तसंवच्छरानि। पूतीनीति अब्भोकासे ठितानि 325 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३७९-३७९) वातातपवुट्ठिसम्फस्सेन तेरोवस्सिकानेव पूतीनि होन्ति, अन्तोभूमिगतानि पन चिरतरं तिट्ठन्ति । चुण्णकजातानीति चुण्णं चुण्णं हुत्वा विप्पकिण्णानि । सब्बत्थ सो इममेवाति वुत्तनयेन खज्जमानादीनं वसेन योजना कातब्बा । इति अज्झत्तं वाति एवं खज्जमानादिपरिग्गण्हनेन याव चुण्णकभावा अत्तनो वा काये, परस्स वा काये कालेन वा अत्तनो, कालेन वा परस्स काये कायानुपस्सी विहरति । ३२६ इध पन ठत्वा नवसिवथिका समोधानेतब्बा । एकाहमतं वाति हि आदिना नये न वुत्ता सब्बापि एका, काकेहि वा खज्जमानन्तिआदिका एका, अट्ठिकसङ्खलिकं समंसलोहितं न्हारुसम्बन्धन्ति एका, निमंसलोहितमक्खितं न्हारुसम्बन्धन्ति एका, अपगतमंसलोहितं न्हारुसम्बन्धन्ति एका, अट्टिकानि अपगतसम्बन्धानीति आदिका एका अट्ठिकानि सेतानि सङ्घवण्णपटिभागानीति एका, पुञ्जकितानि तेरोवस्सिकानीति एका, पूतीनि चुण्णकजातानीति एकाति । एवं खो, भिक्खवेति इदं नवसिवथिका दस्सेत्वा कायानुपस्सनं निट्टपेन्तो आह । तत्थ नवसिवथिकपरिग्गाहिका सति दुक्खसच्चं तस्सा समुट्ठापिका पुरिमतण्हा समुदयसच्चं, उभिन्नं अप्पवत्ति निरोधसच्चं, दुक्खपरिजाननो समुदयपजहनो निरोधारम्मणो अरियमग्गो मग्गसच्चं । एवं चतुसच्चवसेन उस्सक्कित्वा निब्बुतिं पापुणातीत इदं नवसिवथिकपरिग्गाहकानं भिक्खूनं याव अरहत्ता निय्यानमुखन्ति । नवसिवधिकपब्बं निट्ठितं एत्तावता च आनापानपब्बं, इरियापथपब्बं चतुसम्पञ्ञपब्बं, पटिकूलमनसिकारपब्बं, धातुमनसिकारपब्बं, नवसिवथिकपब्बानीति चुद्दसपब्बा कायानुपस्सना निट्ठिता होति । तत्थ आनापानपब्बं पटिकूलमनसिकारपब्बन्ति इमानेव द्वे अप्पनाकम्मट्ठानानि, सिवथिकानं पन आदीनवानुपस्सनावसेन वुत्तत्ता सेसानि द्वादसापि उपचारकम्मट्ठानानेवाति । कायानुपस्सना निट्ठिता 326 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८०-३८०) वेदनानुपस्सनावण्णना ३२७ वेदनानुपस्सनावण्णना ३८०. एवं भगवा चुद्दसविधेन कायानुपस्सनासतिपट्टानं कथेत्वा इदानि नवविधेन वेदनानुपस्सनं कथेतुं कथञ्च, भिक्खवेतिआदिमाह । तत्थ सुखं वेदनन्ति कायिकं वा चेतसिकं वा सुखं वेदनं वेदयमानो “अहं सुखं वेदनं वेदयामी"ति पजानातीति अत्थो । तत्थ कामं उत्तानसेय्यकापि दारका थञपिवनादिकाले सुखं वेदयमाना “सुखं वेदनं वेदयामा''ति पजानन्ति, न पनेतं एवरूपं जाननं सन्धाय वुत्तं । एवरूपहि जाननं सत्तूपलद्धिं न जहति, अत्तसनं न उग्घाटेति, कम्मट्ठानं वा सतिपट्ठानभावना वा न होति । इमस्स पन भिक्खुनो जाननं सत्तूपलद्धिं जहति, अत्तसचं उग्घाटेति, कम्मट्ठानञ्चेव सतिपट्टानभावना च होति । इदहि “को वेदयति, कस्स वेदना, किं कारणा वेदना"ति एवं सम्पजानवेदियनं सन्धाय वुत्तं । ___ तत्थ को वेदयतीति न कोचि सत्तो वा पुग्गलो वा वेदयति । कस्स वेदनाति न कस्सचि सत्तस्स वा पुग्गलस्स वा वेदना | किं कारणा वेदनाति वत्थुआरम्मणाव पनस्स वेदना, तस्मा एस एवं पजानाति "तं तं सुखादीनं वत्थु आरम्मणं कत्वा वेदनाव वेदयति तं पन वेदनाय पवत्तिं उपादाय 'अहं वेदयामी'ति वोहारमत्तं होती''ति । एवं वत्थु आरम्मणं कत्वा वेदनाव वेदयतीति सल्लक्खेन्तो एस "सुखं वेदनं वेदयामीति पजानाती''ति वेदितब्बो चित्तलपब्बते अञतरत्थेरो विय । थेरो किर अफासुककाले बलववेदनाय नित्थुनन्तो अपरापरं परिवत्तति, तमेको दहरो आह- “कतरं वो, भन्ते, ठानं रुज्जती"ति । आवुसो, पाटियेक्कं रुज्जनहानं नाम नत्थि, वत्थु आरम्मणं कत्वा वेदनाव वेदयतीति । एवं जाननकालतो पट्ठाय अधिवासेतुं वट्टति नो, भन्ते,ति । अधिवासेमि, आवुसोति । अधिवासना, भन्ते, सेय्योति । थेरो अधिवासेसि । वातो याव हदया फालेसि, मञ्चके अन्तानि रासिकतानि अहेसुं । थेरो दहरस्स दस्सेसि “वट्टतावुसो, एत्तका अधिवासना'ति । दहरो तुण्ही अहोसि । थेरो वीरियसमतं योजेत्वा सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं पापुणित्वा समसीसी हुत्वा परिनिब्बायि । यथा च सुखं, एवं दुक्खं...पे०... निरामिसं अदुक्खमसुखं वेदनं वेदयमानो “निरामिसं अदुक्खमसुखं वेदनं वेदयामीति पजानाति । इति भगवा रूपकम्मद्वानं कथेत्वा अरूपकम्मट्ठानं कथेन्तो यस्मा फस्सवसेन चित्तवसेन वा कथियमानं पाकटं न 327 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३८०-३८०) होति, अन्धकारं विय खायति, वेदनानं पन उप्पत्तिपाकटताय वेदनावसेन पाकटं होति, तस्मा सक्कपन्हे विय इधापि वेदनावसेन अरूपकम्मट्ठानं कथेसि । तत्थ “दुविधव्हि कम्मट्ठानं रूपकम्मट्ठानं अरूपकम्मट्ठानञ्चा''तिआदि कथामग्गो सक्कपहे वुत्तनयेनेव वेदितब्बो। तत्थ सुखं वेदनन्तिआदीसु अयं अपरोपि पजाननपरियायो, सुखं वेदनं वेदयामीति पजानातीति सुखवेदनाक्खणे दुक्खवेदनाय अभावतो सुखं वेदनं वेदयमानो "सुखं वेदनंयेव वेदयामी'"ति पजानाति । तेन या पुब्बे भूतपुब्बा दुक्खवेदना, तस्स इदानि अभावतो इमिस्सा च सुखाय वेदनाय इतो पठमं अभावतो वेदना नाम अनिच्चा अधुवा विपरिणामधम्मा, इतिह तत्थ सम्पजानो होति । वुत्तम्पि चेतं भगवता “यस्मिं, अग्गिवेस्सन, समये सुखं वेदनं वेदेति, नेव तस्मिं समये दुक्खं वेदनं वेदेति, न अदुक्खमसुखं वेदनं वेदेति, सुखंयेव तस्मिं समये वेदनं वेदेति । यस्मिं, अग्गिवेस्सन, समये दुक्खं...पे०... अदुक्खमसुखं वेदनं वेदेति, नेव तस्मिं समये सुखं वेदनं वेदेति, न दुक्खं वेदनं वेदेति, अदुक्खमसुखंयेव तस्मिं समये वेदनं वेदेति । सुखापि, खो, अग्गिवेस्सन, वेदना अनिच्चा सङ्खता पटिच्चसमुप्पन्ना खयधम्मा वयधम्मा विरागधम्मा निरोधधम्मा । दुक्खापि, खो...पे०... अदुक्खमसुखापि खो, अग्गिवेस्सन, वेदना अनिच्चा...पे०... निरोधधम्मा। एवं पस्सं, अग्गिवेस्सन, सुतवा अरियसावको सुखायपि वेदनाय निबिन्दति, दुक्खायपि वेदनाय निबिन्दति, अदुक्खमसुखायपि वेदनाय निबिन्दति, निबिन्दं विरज्जति, विरागा विमुच्चति, विमुत्तस्मिं 'विमुत्तमी ति आणं होति, ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया'ति पजानाती"ति (म० नि० २.२०५)। सामिसं वा सुखन्तिआदीसु सामिसा सुखा नाम पञ्चकामगुणामिससन्निस्सिता छ गेहसितसोमनस्सवेदना । निरामिसा सुखा नाम छ नेक्खम्मसितसोमनस्सवेदना । सामिसा दुक्खा नाम छ गेहसितदोमनस्सवेदना। निरामिसा दुक्खा नाम छ नेक्खम्मसितदोमनस्सवेदना । सामिसा अदुक्खमसुखा नाम छ गेहसितउपेक्खावेदना । निरामिसा अदुक्खमसुखा नाम छ नेक्खम्मसितउपेक्खावेदना । तासं विभागो सक्कपज्हे वुत्तोयेव । 328 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८१-३८१) चित्तानुपस्सनावण्णना ३२९ इति अज्झत्तं वाति एवं सुखवेदनादिपरिग्गण्हनेन अत्तनो वा वेदनासु, परस्स वा वेदनासु, कालेन वा अत्तनो, कालेन वा परस्स वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति । समुदयवयधम्मानुपस्सी वाति एत्थ पन अविज्जासमुदया वेदनासमुदयोतिआदीहि पञ्चहि पञ्चहि आकारेहि वेदनानं समुदयञ्च वयञ्च पस्सन्तो “समुदयधम्मानुपस्सी वा वेदनासु विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा वेदनासु विहरति, कालेन समुदयधम्मानुपस्सी वा वेदनासु, कालेन वयधम्मानुपस्सी वा वेदनासु विहरतीति वेदितब्बो। इतो परं कायानुपस्सनायं वुत्तनयमेव । केवलन्हि इध वेदनापरिग्गाहिका सति दुक्खसच्चन्ति एवं योजनं कत्वा वेदनापरिग्गाहकस्स भिक्खुनो निय्यानमुखं वेदितब्द, सेसं तादिसमेवाति । वेदनानुपस्सना निहिता। चित्तानुपस्सनावण्णना ३८१. एवं नवविधेन वेदनानुपस्सनासतिपट्टानं कथेत्वा इदानि सोळसविधेन चित्तानुपस्सनं कथेतुं कथञ्च, भिक्खवेतिआदिमाह । तत्थ सरागन्ति अट्ठविधलोभसहगतं । वीतरागन्ति लोकियकुसलाब्याकतं । इदं पन यस्मा सम्मसनं न धम्मसमोधानं तस्मा इध एकपदेपि लोकुत्तरं न लब्मति । सेसानि चत्तारि अकुसलचित्तानि नेव पुरिमपदं न पच्छिमपदं भजन्ति । सदोसन्ति दुविधदोमनस्ससहगतं । वीतदोसन्ति लोकियकुसलाब्याकतं । सेसानि दस अकुसलचित्तानि नेव पुरिमपदं, न पच्छिमपदं भजन्ति । समोहन्ति विचिकिच्छासहगतञ्चेव, उद्धच्चसहगतञ्चाति दुविधं । यस्मा पन मोहो सब्बाकुसलेसु उप्पज्जति, तस्मा सेसानिपि इध वट्टन्तियेव । इमस्मि व हि दुके द्वादसाकुसलचित्तानि परियादिन्नानीति । वीतमोहन्ति लोकियकुसलाब्याकतं । सवित्तन्ति थिनमिद्धानुपतितं । एतव्हि सङ्घटितचित्तं नाम | विक्खित्तन्ति उद्धच्चसहगतं, एतहि पसटचित्तं नाम । महग्गतन्ति रूपारूपावचरं । अमहग्गतन्ति कामावचरं । सउत्तरन्ति कामावचरं । अनुत्तरन्ति रूपावचरं अरूपावचरञ्च । तत्रापि सउत्तरं रूपावचरं, अनुत्तरं अरूपावचरमेव । समाहितन्ति यस्स अप्पनासमाधि उपचारसमाधि वा अस्थि । असमाहितन्ति 329 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३८२-३८२) उभयसमाधिविरहितं। विमुत्तन्ति तदङ्गविक्खम्भनविमुत्तीहि विमुत्तं। अविमुत्तन्ति उभयविमुत्तिविरहितं । समुच्छेदपटिप्पस्सद्धिनिस्सरणविमुत्तीनं पन इध ओकासोव नत्थि । इति अज्झत्तं वाति एवं सरागादिपरिग्गण्हनेन यस्मिं यस्मिं खणे यं यं चित्तं पवत्तति, तं तं सल्लक्खेन्तो अत्तनो वा चित्ते, परस्स वा चित्ते, कालेन वा अत्तनो, कालेन वा परस्स चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति । समुदयवयधम्मानुपस्सीति एत्थ पन अविज्जासमुदया विआणसमुदयोति एवं पञ्चहि पञ्चहि आकारेहि विञआणस्स समुदयो च वयो च नीहरितब्बो। इतो परं वुत्तनयमेव । केवलहि इध चित्तपरिग्गाहिका सति दुक्खसच्चन्ति एवं पदयोजनं कत्वा चित्तपरिग्गाहकस्स भिक्खुनो निय्यानमुखं वेदितब्बं । सेसं तादिसमेवाति । चित्तानुपस्सना निट्टिता। धम्मानुपस्सना नीवरणपब्बवण्णना ३८२. एवं सोळसविधेन चित्तानुपस्सनासतिपट्टानं कथेत्वा इदानि पञ्चविधेन धम्मानुपस्सनं कथेतुं कथञ्च, भिक्खवेतिआदिमाह । अपिच भगवता कायानुपस्सनाय सुद्धरूपपरिग्गहो कथितो, वेदनाचित्तानुपस्सनाहि सुद्धअरूपपरिग्गहो। इदानि रूपारूपमिस्सकपरिग्गहं कथेतुं "कथञ्च, भिक्खवे"तिआदिमाह । कायानुपस्सनाय वा रूपक्खन्धपरिग्गहोव कथितो, वेदनानुपस्सनाय वेदनाक्खन्धपरिग्गहोव, चित्तानुपस्सनाय विज्ञाणक्खन्धपरिग्गहोव इदानि सञ्जासयारक्खन्धपरिग्गहम्पि कथेतुं “कथञ्च, भिक्खवे"तिआदिमाह । तत्थ सन्तन्ति अभिण्हसमुदाचारवसेन संविज्जमानं । असन्तन्ति असमुदाचारवसेन वा पहीनत्ता वा असंविज्जमानं । यथा चाति येन कारणेन कामच्छन्दस्स उप्पादो होति । तञ्च पजानातीति तञ्च कारणं पजानाति । इति इमिना नयेन सब्बपदेसु अत्यो वेदितब्बो । तत्थ सुभनिमित्ते अयोनिसोमनसिकारेन कामच्छन्दस्स उप्पादो होति । सुभनिमित्तं 330 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८२-३८२) धम्मानुपस्सना नीवरणपब्बवण्णना ३३१ नाम सुभम्पि सुभनिमित्तं, सुभारम्मणम्पि सुभनिमित्तं । अयोनिसोमनसिकारो नाम अनुपायमनसिकारो उप्पथमनसिकारो अनिच्चे निच्चन्ति वा, दुक्खे सुखन्ति वा, अनत्तनि अत्ताति वा, असुभे सुभन्ति वा मनसिकारो। तं तत्थ बहुलं पवत्तयतो कामच्छन्दो उप्पज्जति। तेनाह भगवा- "अस्थि, भिक्खवे, सुभनिमित्तं, तत्थ अयोनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा कामच्छन्दस्स उप्पादाय उप्पन्नस्स वा कामच्छन्दस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाया''ति (सं० नि० ३.५.२३२)। ___ असुभनिमित्ते पन योनिसोमनसिकारेनस्स पहानं होति । असुभनिमित्तं नाम असुभम्पि असुभारम्मणम्पि। योनिसोमनसिकारो नाम उपायमनसिकारो पथमनसिकारो अनिच्चे अनिच्चन्ति वा, दुक्खे दुक्खन्ति वा, अनत्तनि अनत्ताति वा, असुभे असुभन्ति वा मनसिकारो । तं तत्थ बहुलं पवत्तयतो कामच्छन्दो पहीयति । तेनाह भगवा - "अत्थि, भिक्खवे, असुभनिमित्तं, तत्थ योनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा कामच्छन्दस्स अनुप्पादाय उप्पन्नस्स वा कामच्छन्दस्स पहानाया"ति (सं० नि० ३.५.२३२)। अपिच छ धम्मा कामच्छन्दस्स पहानाय संवत्तन्ति असुभनिमित्तस्स उग्गहो, असुभभावनानुयोगो, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारता, भोजने मत्तञ्जता, कल्याणमित्तता, सप्पायकथाति। दसविधहि असुभनिमित्तं उग्गण्हन्तस्सापि कामच्छन्दो पहीयति, भावेन्तस्सापि इन्द्रियेसु पिहितद्वारस्सापि चतुन्नं पञ्चन्नं आलोपानं ओकासे सति उदकं पिवित्वा यापनसीलताय भोजनमत्त नोपि । तेनेव वुत्तं - "चत्तारो पञ्च आलोपे, अभुत्वा उदकं पिवे ।। अलं फासुविहाराय, पहितत्तस्स भिक्खुनो"ति ।। (थेरगा० ९८३) असुभकम्मिकतिस्सत्थेरसदिसे असुभभावनारते कल्याणमित्ते सेवन्तस्सपि कामच्छन्दो पहीयति, ठाननिसज्जादीसु दसअसुभनिस्सितसप्पायकथाय पहीयति, तेन वुत्तं- “छ धम्मा कामच्छन्दस्स पहानाय संवत्तन्ती"ति । इमेहि पन छहि धम्मेहि पहीनकामच्छन्दस्स अरहत्तमग्गेन आयतिं अनुप्पादो होतीति पजानाति । पटिघनिमित्ते अयोनिसोमनसिकारेन पन ब्यापादस्स उप्पादो होति । तत्थ पटिघम्पि 331 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा पटिघनिमित्तं, पटिघारम्मणम्पि पटिघनिमित्तं । अयोनिसोमनसिकारो सब्बत्थ एकलक्खणीव । तं तस्मिं निमित्ते बहुलं पवत्तयतो ब्यापादो उप्पज्जति । तेनाह भगवा - " अस्थि, भिक्खवे, पटिघनिमित्तं, तत्थ अयोनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा ब्यापादस्स उप्पादाय उप्पन्नस्स वा ब्यापादस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाया "ति (सं० नि० ३.५.२३२)। मेत्ताय पन चेतोविमुत्तिया योनिसोमनसिकारेनस्स पहानं होति । तत्थ मेत्ताति वुत्ते अप्पनापि उपचारोपि वट्टति । चेतोविमुत्तीति अप्पनाव । योनिसोमनसिकारो वुत्तलक्खणोव । तं तत्थ बहुलं पवत्तयतो ब्यापादो पहीयति । तेनाह भगवा - " अत्थि, भिक्खवे, मेत्ता चेतोविमुत्ति, तत्थ योनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा ब्यापादस्स अनुप्पादाय उप्पन्नस्स वा ब्यापादस्स पहानायाति (सं० नि० ३.५.२३२) । ( ९.३८२ - ३८२) अपिच छ धम्मा ब्यापादस्स पहानाय संवत्तन्ति मेत्तानिमित्तस्स उग्गहो मेत्ताभावनानुयोगो कम्मस्सकतापच्चवेक्खणा पटिसङ्खानबहुलता कल्याणमत्तता सप्पायकथाति । ओदिस्सक अनोदिस्सकदिसाफरणानहि अञ्ञतरवसेन मेत्तं उग्गहन्तस्सापि ब्यापादो पहीयति, ओधिसो अनोधिसोफरणवसेन मेत्तं भावेन्तस्सापि । " त्वं एतस्स कुद्धो किं करिस्ससि, किमस्स सीलादीनि विनासेतुं सक्खिस्ससि, ननु त्वं अत्तनो कम्मेन आगन्त्वा अत्तनो कम्मेनेव गमिस्ससि, परस्स कुज्झनं नाम वीतच्चितङ्गार तत्तअय सलाकगूथादीनि गहेत्वा परं पहरितुकामतासदिसं होति । एसोपि तव कुद्धो किं करिस्सति, किं ते सीलादीनि विनासेतुं सक्खिस्सति, एस अत्तनो कम्पेन आगन्त्वा अत्तनो कम्मेनेव गमिस्सति, अप्पटिच्छितपहेणकं विय पटिवातं खित्तरजोमुट्ठि विय च एतस्सेवेस को धो मत्थके पतिस्सती 'ति एवं अत्तनो च परस्स च कम्मस्सकतं पच्चवेक्खतोपि, उभयकम्मस्सकतं पच्चवेक्खित्वा पटिसङ्घाने ठितस्सापि, अस्सगुत्तत्थेरसदिसे मेत्ताभावनार कल्याणमित्ते सेवन्तस्सापि ब्यापादो पहीयति । ठाननिसज्जादीसु मेत्तानिस्सितसप्पायकथा पहीयति । तेन वुत्तं - “छ धम्मा ब्यापादस्स पहानाय संवत्तन्ती 'ति । इमेहि पन छहि धम्मेहि पहीनस्स ब्यापादस्स अनागामिमग्गेन आयतिं अनुप्पादो होतीति पजानाति । I अरतिआदीसु अयोनिसोमनसिकारेन थिनमिद्धस्स उप्पादो होति । तन्दी नाम कायालसियता । विजम्भिता नाम कायविनमना । भत्तसम्मदो नाम भत्तमुच्छा भत्तपरिळाहो । चेतसो लीनत्तं नाम चित्तस्स लीनाकारो । इमेसु अरतिआदीसु अयोनिसोमनसिकारं बहुलं 332 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८२-३८२) धम्मानुपस्सना नीवरणपब्बवण्णना ३३३ पवत्तयतो थिनमिद्धं उप्पज्जति । तेनाह - "अत्थि, भिक्खवे, अरति तन्दी विजम्भिता भत्तसम्मदो चेतसो लीनत्तं, तत्थ अयोनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा थिनमिद्धस्स उप्पादाय, उप्पन्नस्स वा थिनमिद्धस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाया"ति (सं० नि० ३.५.२३२)। आरम्भधातुआदीसु पन योनिसोमनसिकारेनस्स पहानं होति । आरम्भधातु नाम पठमारम्भवीरियं । निक्कमधातु नाम कोसज्जतो निक्खन्तताय ततो बलवतरं । परक्कमधातु नाम परं परं ठानं अक्कमनतो ततोपि बलवतरं । इमस्मिं तिप्पभेदे वीरिये योनिसोमनसिकारं बहुलं पवत्तयतो थिनमिद्धं पहीयति । तेनाह - “अस्थि, भिक्खवे, आरम्भधातु निक्कमधातु परक्कमधातु, तत्थ योनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा थिनमिद्धस्स अनुप्पादाय, उप्पन्नस्स वा थिनमिद्धस्स पहानाया"ति (सं० नि० ३.५.२३२)। अपिच छ धम्मा थिनमिद्धस्स पहानाय संवत्तन्ति- अतिभोजने निमित्तग्गाहो, इरियापथसम्परिवत्तनता, आलोकसञआमनसिकारो, अब्भोकासवासो, कल्याणमित्तता, सप्पायकथाति । आहरहत्थक तत्रवट्टक अलंसाटक काकमासक भुत्तवमितकभोजनं भुज्जित्वा रत्तिट्ठानदिवाट्ठाने निसिन्नस्स हि समणधम्मं करोतो थिनमिद्धं महाहत्थी विय ओत्थरन्तं आगच्छति, चतुपञ्चआलोपओकासं पन ठपेत्वा पानीयं पिवित्वा यापनसीलस्स भिक्खुनो तं न होतीति एवं अतिभोजने निमित्तं गण्हन्तस्सापि थिनमिद्धं पहीयति । यस्मिं इरियापथे थिनमिद्धं ओक्कमति, ततो अचं परिवत्तेन्तस्सापि, रत्तिं चन्दालोकदीपालोकउक्कालोके दिवा सूरियालोकं मनसिकरोन्तस्सापि, अब्भोकासे वसन्तस्सापि, महाकस्सपत्थेरसदिसे पहीनथिनमिद्धे कल्याणमित्ते सेवन्तस्सापि थिनमिद्धं पहीयति । ठाननिसज्जादीसु धुतङ्गनिस्सितसप्पायकथायपि पहीयति । तेन वुत्तं- “छ धम्मा थिनमिद्धस्स पहानाय संवत्तन्ती"ति । इमेहि पन छहि धम्मेहि पहीनस्स थिनमिद्धस्स अरहत्तमग्गेन आयतिं अनुप्पादो होतीति पजानाति । चेतसो अवूपसमे अयोनिसोमनसिकारेन उद्धच्चकुक्कुच्चस्स उप्पादो होति । अवूपसमो नाम अवूपसन्ताकारो, उद्धच्चकुक्कुच्चमेवेतं अत्थतो। तत्थ अयोनिसोमनसिकारं बहुलं पवत्तयतो उद्धच्चकुक्कुच्चं उप्पज्जति । तेनाह – “अस्थि, भिक्खवे, चेतसो अवूपसमो, तत्थ अयोनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा 333 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३८२-३८२) उद्धच्चकुक्कुच्चस्स उप्पादाय, उप्पन्नस्स वा उद्धच्चकुक्कुच्चस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाया"ति। समाधिसङ्खाते पन चेतसो वूपसमे योनिसोमनसिकारेनस्स पहानं होति । तेनाह - "अत्थि, भिक्खवे, चेतसो वूपसमो, तत्थ योनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा उद्धच्चकुक्कुच्चस्स अनुप्पादाय, उप्पन्नस्स वा उद्धच्चकुक्कुच्चस्स पहानाया"ति। __ अपिच छ धम्मा उद्धच्चकुक्कुच्चस्स पहानाय संवत्तन्ति बहुस्सुतता परिपुच्छकता विनये पकतञ्जता वुद्धसेविता कल्याणमित्तता सप्पायकथाति । बाहुस्सच्चेनपि हि एकं वा द्वे वा तयो वा चत्तारो वा पञ्च वा निकाये पाळिवसेन अत्थवसेन च उग्गण्हन्तस्सापि उद्धच्चकुक्कुच्चं पहीयति। कप्पियाकप्पियपरिपुच्छाबहुलस्सापि, विनयपञ्जत्तियं चिण्णवसिभावताय पकत नोपि, वुड्ढे महल्लकत्थेरे उपसङ्कमन्तस्सापि, उपालित्थेरसदिसे विनयधरे कल्याणमित्ते सेवन्तस्सापि उद्धच्चकुक्कुच्चं पहीयति, ठाननिसज्जादीसु कप्पियाकप्पियनिस्सितसप्पायकथायपि पहीयति । तेन वुत्तं- “छ धम्मा उद्धच्चकुक्कुच्चस्स पहानाय संवत्तन्तीति । इमेहि पन छहि धम्मेहि पहीने उद्धच्चकुक्कुच्चे उद्धच्चस्स अरहत्तमग्गेन, कुक्कुच्चस्स अनागामिमग्गेन आयतिं अनुप्पादो होतीति पजानाति । विचिकिच्छाठानीयेसु धम्मेसु अयोनिसोमनसिकारेन विचिकिच्छाय उप्पादो होति । विचिकिच्छाठानीया धम्मा नाम पुनप्पुनं विचिकिच्छाय कारणत्ता विचिकिच्छाव । तत्थ अयोनिसोमनसिकारं बहुलं पवत्तयतो विचिकिच्छा उप्पज्जति । तेनाह- "अस्थि, भिक्खवे, विचिकिच्छाठानीया धम्मा, तत्थ अयोनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नाय वा विचिकिच्छाय उप्पादाय, उप्पन्नाय वा विचिकिच्छाय भिय्योभावाय वेपुल्लाया"ति (सं० नि० ३.५.२३२)। कुसलादिधम्मेसु योनिसोमनसिकारेन पनस्सा पहानं होति, तेनाह- "अस्थि, भिक्खवे, कुसलाकुसला धम्मा सावज्जानवज्जा धम्मा सेवितब्बासेवितब्बा धम्मा हीनपणीता धम्मा कण्हसुक्कसप्पटिभागा धम्मा। तत्थ योनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो, अनुप्पन्नाय वा विचिकिच्छाय अनुप्पादाय; उप्पन्नाय वा विचिकिच्छाय पहानाया"ति । 334 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८३-३८३) खन्धपब्बवण्णना ३३५ अपिच छ धम्मा विचिकिच्छाय पहानाय संवत्तन्ति बहुस्सुतता, परिपुच्छकता, विनये पकतञ्जता, अधिमोक्खबहुलता, कल्याणमित्तता, सप्पायकथाति । बाहुस्सच्चेनपि हि एकं वा...पे०... पञ्च वा निकाये पाळिवसेन च अत्थवसेन च उग्गण्हन्तस्सापि विचिकिच्छा पहीयति, तीणि रतनानि आरब्भ परिपुच्छाबहुलस्सापि, विनये चिण्णवसीभावस्सापि, तीसु रतनेसु ओकप्पनियसद्धासङ्खातअधिमोक्खबहुलस्सापि, सद्धाधिमुत्ते वक्कलित्रसदिसे कल्याणमित्ते सेवन्तस्सापि विचिकिच्छा पहीयति, ठाननिसज्जादीसु तिण्णं रतनानं गुणनिस्सितसप्पायकथायपि पहीयति । तेन वुत्तं- “छ धम्मा विचिकिच्छाय पहानाय संवत्तन्ती"ति । इमेहि पन छहि धम्मेहि पहीनाय विचिकिच्छाय सोतापत्तिमग्गेन आयतिं अनुप्पादो होतीति पजानाति । इति अज्झत्तं वाति एवं पञ्चनीवरणपरिग्गण्हनेन अत्तनो वा धम्मेसु, परस्स वा धम्मेसु, कालेन वा अत्तनो, कालेन वा परस्स धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति । समुदयवया पनेत्थ सुभनिमित्तअसुभनिमित्तादीसु अयोनिसोमनसिकारयोनिसोमनसिकारवसेन पञ्चसु नीवरणेसु वुत्तायेव नीहरितब्बा । इतो परं वुत्तनयमेव । केवलहि इध नीवरणपरिग्गाहिका सति दुक्खसच्चन्ति एवं योजनं कत्वा नीवरणपरिग्गाहकस्स भिक्खुनो निय्यानमुखं वेदितब्बं । सेसं तादिसमेवाति । नीवरणपबं निहितं । खन्धपब्बवण्णना ३८३. एवं पञ्चनीवरणवसेन धम्मानुपस्सनं विभजित्वा इदानि पञ्चक्खन्धवसेन विभजितुं पुन चपरन्तिआदिमाह । तत्थ पञ्चसु उपादानक्खन्धेसूति उपादानस्स खन्धा उपादानक्खन्धा, उपादानस्स पच्चयभूता धम्मपुजा धम्मरासयोति अत्थो । अयमेत्थ सङ्ग्रेपो । वित्थारतो पन खन्धकथा विसुद्धिमग्गे वुत्ता। इति रूपन्ति इदं रूपं, एत्तकं रूपं, न इतो परं रूपं अस्थीति सभावतो रूपं पजानाति । वेदनादीसुपि एसेव नयो। अयमेत्थ सङ्केपो, वित्थारेन पन रूपादीनि 335 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३८४-३८४) विसुद्धिमग्गे खन्धकथायमेव वुत्तानि । इति रूपस्स समुदयोति एवं अविज्जासमुदयादिवसेन पञ्चहाकारेहि रूपस्स समुदयो। इति रूपस्स अत्थङ्गमोति एवं अविज्जानिरोधादिवसेन पञ्चहाकारेहि रूपस्स अत्थङ्गमो। वेदनादीसुपि एसेव नयो । अयमेत्य सङ्ग्रेपो, वित्थारो पन विसुद्धिमग्गे उदयब्बयाणकथाय वुत्तो। इति अज्झत्तं वाति एवं पञ्चक्खन्धपरिग्गण्हनेन अत्तनो वा धम्मेसु, परस्स वा धम्मेसु, कालेन वा अत्तनो, कालेन वा परस्स धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति । समुदयवया पनेत्थ “अविज्जासमुदया रूपसमुदयो"तिआदीनं पञ्चसु खन्धेसु वुत्तानं पासाय लक्खणानं वसेन नीहरितब्बा। इतो परं वुत्तनयमेव । केवलहि इध खन्धपरिग्गाहिका सति दुक्खसच्चन्ति एवं योजनं कत्वा खन्धपरिग्गाहकस्स भिक्खुनो निय्यानमुखं वेदितब्बं । सेसं तादिसमेवाति । खन्धपबं निहितं । आयतनपब्बवण्णना ३८४. एवं पञ्चक्खन्धवसेन धम्मानुपस्सनं विभजित्वा इदानि आयतनवसेन विभजितुं पुन चपरन्तिआदिमाह। तत्थ छसु अज्झत्तिकबाहिरेसु आयतनेसूति चक्खु सोतं घानं जिव्हा कायो मनोति इमेसु छसु अज्झत्तिकेसु, रूपं सद्दो गन्धो रसो फोहब्बो धम्मोति इमेस छस बाहिरेस । चक्खञ्च पजानातीति चक्खपसादं याथावसरसलक्खणवसेन पजानाति । रूपे च पजानातीति बहिद्धा चतुसमुट्ठानिकरूपञ्च याथावसरसलक्खणवसेन पजानाति । यञ्च तदभयं पटिच्च उप्पज्जति संयोजनन्ति यञ्च तं चक्खं चेव रूपे चाति उभयं पटिच्च। कामरागसंयोजनं पटिघ. मान, दिदि, विचिकिच्छा. सीलब्बतपरामास. भवराग, इस्सा, मच्छरिय, अविज्जासंयोजनन्ति दसविधं संयोजनं उप्पज्जति, तञ्च याथावसरसलक्खणवसेन पजानाति । कथं पनेतं उप्पज्जतीति ? चक्खुद्वारे ताव आपाथगतं इटारम्मणं कामस्सादवसेन अस्सादयतो अभिनन्दतो कामरागसंयोजनं उप्पज्जति। अनिट्ठारम्मणे कुज्झतो 336 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८४-३८४) आयतनपब्बवण्णना ३३७ पटिघसंयोजनं उप्पज्जति । “ठपेत्वा मं को अञो एतं आरम्मणं विभावेतुं समत्थो अत्थी"ति मञतो मानसंयोजनं उप्पज्जति । एतं रूपारम्मणं निच्चं धुवन्ति गण्हतो दिट्ठिसंयोजनं उप्पज्जति । "एतं रूपारम्मणं सत्तो नु खो, सत्तस्स नु खो"ति विचिकिच्छतो विचिकिच्छासंयोजनं उप्पज्जति । “सम्पत्तिभवे वत नो इदं सुलभं जात"न्ति भवं पत्थेन्तस्स भवरागसंयोजनं उप्पज्जति । “आयतिम्पि एवरूपं सीलब्बतं समादियित्वा सक्का लद्धन्ति सीलब्बतं समादियन्तस्स सीलब्बतपरामाससंयोजनं उप्पज्जति । “अहो वत तं रूपारम्मणं अछे न लभेय्यु"न्ति उसूयतो इस्सासंयोजनं उप्पज्जति । अत्तना लद्धं रूपारम्मणं अञस्स मच्छरायतो मच्छरियसंयोजनं उप्पज्जति । सब्बेहेव सहजातअज्ञाणवसेन अविज्जासंयोजनं उप्पज्जति । यथा च अनुप्पनस्साति येन कारणेन असमुदाचारवसेन अनुप्पन्नस्स तस्स दसविधस्सापि संयोजनस्स उप्पादो होति, तञ्च कारणं पजानाति । यथा च उप्पनस्साति अप्पहीनटेन पन समुदाचारवसेन वा उप्पन्नस्स तस्स दसविधस्सापि संयोजनस्स येन कारणेन पहानं होति, तञ्च कारणं पजानाति। यथा च पहीनस्साति तदङ्गविक्खम्भनप्पहानवसेन पहीनस्सापि तस्स दसविधस्स संयोजनस्स येन कारणेन आयतिं अनुप्पादो होति, तञ्च पजानाति । केन कारणेन पनस्स आयतिं अनुप्पादो होति ? दिट्ठिविचिकिच्छासीलब्बतपरामासइस्सामच्छरियभेदस्स ताव पञ्चविधस्स संयोजनस्स सोतापत्तिमग्गेन आयतिं अनुप्पादो होति । कामरागपटिघसंयोजनद्वयस्स ओळारिकस्स सकदागामिमग्गेन, अणुसहगतस्स अनागामिमग्गेन, मानभवरागाविज्जासंयोजनत्तयस्स अरहत्तमग्गेन आयतिं अनुप्पादो होति । सोतञ्च पजानाति सद्दे चातिआदीसुपि एसेव नयो । अपिचेत्थ आयतनकथा वित्थारतो विसुद्धिमग्गे आयतननिद्देसे वुत्तनयेनेव वेदितब्बा । इति अज्झत्तं वाति एवं अज्झत्तिकायतनपरिग्गण्हनेन अत्तनो वा धम्मसु बाहिरायतनपरिग्गण्हनेन परस्स वा धम्मेसु, कालेन वा अत्तनो, कालेन वा परस्स धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति । समुदयवया पनेत्थ "अविज्जासमुदया चक्खुसमुदयो'"ति रूपायतनस्स रूपक्खन्धे, अरूपायतनेसु मनायतनस्स विज्ञाणक्खन्धे, धम्मायतनस्स सेसक्खन्धेसु वुत्तनयेन नीहरितब्बा। लोकुत्तरधम्मा न गहेतब्बा । इतो परं वुत्तनयमेव । केवलम्हि इध आयतनपरिग्गाहिका सति दुक्खसच्चन्ति एवं योजनं कत्वा आयतनपरिग्गाहकस्स भिक्खुनो निय्यानमुखं वेदितब्बं । सेसं तादिसमेवाति । आयतनपब् निहितं । 337 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा बोज्झङ्गपब्बवण्णना ३८५. एवं छ अज्झत्तिकबाहिरायतनवसेन धम्मानुपस्सनं विभजित्वा इदान बोज्झङ्गवसेन विभजितुं पुन चपरन्ति आदिमाह । तत्थ बोज्झति बुज्झनकसत्तस्स असु । सन्तन्ति पटिलाभवसेन संविज्जमानं । सतिसम्बोज्झङ्गन्ति सतिसङ्घातं सम्बोज्झनं । एत्थ हि सम्बुज्झति आरद्धविपस्सकतो पट्ठाय योगावचरोति सम्बोधि । याय वा सो सतिआदिका सत्तधम्मसामंग्गिया सम्बुज्झति किलेसनिद्दातो उट्ठाति, सच्चानि वा पटिविज्झति, सा धम्मसामग्गी सम्बोधि । तस्स सम्बोधिस्स, तस्सा वा सम्बोधिया अङ्गन्ति सम्बोज्झ । तेन वुत्तं - “सतिसङ्घातं सम्बोज्झङ्ग "न्ति । सेससम्बोज्झङ्गेसुपि इमिनाव नयेन वचनत्थो वेदितब्बो । असन्तन्ति अप्पटिलाभवसेन अविज्जमानं । यथा च अनुपन्नस्साति आदीसु पन सतिसम्बोज्झङ्गस्स ताव "अत्थि, भिक्खवे, सतिसम्बोज्झङ्गट्ठानीया धम्मा, तत्थ योनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा सतिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय, उप्पन्नस्स वा सतिसम्बोज्झङ्गस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तती 'ति (सं० नि० ३.५.२३२) एवं उप्पादो होति । तत्थ सतियेव सतिसम्बोज्झङ्गट्ठानीया धम्मा । योनिसोमनसिकारो वुत्तलक्खणोयेव । तं तत्थ बहुलं पवत्तयतो सतिसम्बोज्झङ्गो उप्पज्जति । ( ९.३८५ - ३८५) अपिच चत्तारो धम्मा सतिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय संवत्तन्ति सतिसम्प मुट्ठस्सतिपुग्गलपरिवज्जनता उपट्ठितस्सतिपुग्गलसेवनता तदधिमुत्तताति । अभिक्कन्तादी सत्तसु ठानेसु सतिसम्पजञ्जेन, भत्तनिक्खित्तकाकसदिसे मुट्ठस्सतिपुग्गले परिवज्जनेन, तिस्सदत्तत्थेरअभयत्थेरसदिसे उपट्ठितस्सतिपुग्गले सेवनेन ठाननिसज्जादीसु सतिसमुट्ठापनत्थं निन्नपोणपब्भारचित्तताय च सतिसम्बोज्झङ्गो उप्पज्जति । एवं चतूहि कारणेहि उप्पन्नस्स पनस्स अरहत्तमग्गेन भावनापारिपूरि होतीति पजानाति । धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स पन " अत्थि, भिक्खवे, कुसलाकुसला धम्मा...पे...... कण्हसुक्कसप्पटिभागा धम्मा, तत्थ योनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुपन्नस्स वा धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय, उप्पन्नस्स वा धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तती" ति एवं उप्पादो होति । 338 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८५-३८५) बोज्झङ्गपब्बवण्णना ३३९ अपिच सत्त धम्मा धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय संवत्तन्ति परिपुच्छकता वत्थुविसदकिरिया इन्द्रियसमत्तपटिपादना दुप्पञपुग्गलपरिवज्जना पञ्जवन्तपुग्गलसेवना गम्भीरञाणचरियपच्चवेक्खणा तदधिमुत्तताति। तत्थ परिपुच्छकताति खन्धधातुआयतनइन्द्रियबलबोज्झङ्गमग्गङ्गझानङ्गसमथविपस्सनानं अत्थसन्निस्सितपरिपुच्छाबहुलता। वत्थुविसदकिरियाति अज्झत्तिकबाहिरानं वत्थूनं विसदभावकरणं । यदा हिस्स केसनखलोमानि दीघानि होन्ति, सरीरं वा उस्सन्नदोसञ्चेव सेदमलमक्खितञ्च, तदा अज्झत्तिकं वत्थु अविसदं होति अपरिसुद्धं । यदा पन चीवरं जिणं किलिटुं दुग्गन्धं होति, सेनासनं वा उक्लापं, तदा बाहिरवत्थु अविसदं होति अपरिसुद्धं । तस्मा केसादिछेदापनेन उद्धंविरेचनअधोविरेचनादीहि सरीरसल्लहुकभावकरणेन उच्छादननहापनेन च अज्झत्तिकवत्थु विसदं कातब्बं । सूचिकम्मधोवनरजनपरिभण्डकरणादीहि बाहिरवत्थु विसदं कातब्बं । एतस्मिहि अज्झत्तिकबाहिरे वत्थुम्हि अविसदे उप्पन्नेसु चित्तचेतसिकेसु आणम्पि अविसदं होति अपरिसुद्धं अपरिसुद्धानि दीपकपल्लवट्टितेलानि निस्साय उप्पन्नदीपसिखाय ओभासो विय । विसदे पन अज्झत्तिकबाहिरे वत्थुम्हि उप्पनेसु चित्तचेतसिकेसु आणम्पि विसदं होति परिसुद्धानि दीपकपल्लवट्टितेलानि निस्साय उप्पन्नदीपसिखाय ओभासो विय । तेन वुत्तं “वत्थुविसदकिरिया धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय संवत्ततीति । इन्द्रियसमत्तपटिपादना नाम सद्धादीनं इन्द्रियानं समभावकरणं । सचे हिस्स सद्धिन्द्रियं बलवं होति, इतरानि मन्दानि, ततो वीरियिन्द्रियं पग्गहकिच्चं, सतिन्द्रियं उपट्ठानकिच्चं, समाधिन्द्रियं अविखेपकिच्चं, पञिन्द्रियं दस्सनकिच्चं कातुं न सक्कोति । तस्मा तं धम्मसभावपच्चवेक्खणेन वा, यथा वा मनसिकरोतो बलवं जातं, तथा अमनसिकारेन हापेतब्बं । वक्कलित्थेरवत्थु चेत्थ निदस्सनं । सचे पन वीरियिन्द्रियं बलवं होति, अथ सद्धिन्द्रियं अधिमोक्खकिच्चं कातुं न सक्कोति, न इतरानि इतरकिच्चभेदं । तस्मा तं पस्सद्धादिभावनाय हापेतब् । तत्रापि सोणत्थेरस्स वत्थु दस्सेतब्बं । एवं सेसेसुपि एकस्स बलवभावे सति इतरेसं अत्तनो किच्चेसु असमत्थता वेदितब्बा। विसेसतो पनेत्थ सद्धापानं समाधिवीरियानञ्च समतं पसंसन्ति । बलवसद्धो हि मन्दपओ मुधप्पसन्नो होति, अवत्थुस्मिं पसीदति । बलवपञो मन्दसद्धो केराटिकपक्खं भजति, भेसज्जसमुट्ठितो विय रोगो अतेकिच्छो होति । चित्तुप्पादमत्तेनेव कुसलं होतीति अतिधावित्वा दानादीनि अकरोन्तो निरये उप्पज्जति । उभिन्नं समताय वत्थुस्मिंयेव पसीदति । बलवसमाधिं पन मन्दवीरियं समाधिस्स कोसज्जपक्खत्ता कोसज्जं अभिभवति । 339 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३८५-३८५) बलववीरियं मन्दसमाधिं वीरियस्स उद्धच्चपक्खत्ता उद्धच्चं अभिभवति । समाधि पन वीरियेन संयोजितो कोसज्जे पतितुं न लभति, वीरियं समाधिना संयोजितं उद्धच्चे पतितुं न लभति । तस्मा तदुभयं समं कातब्बं । उभयसमताय हि अप्पना होति । अपिच समाधिकम्मिकस्स बलवतीपि सद्धा वट्टति । एवं सद्दहन्तो ओकप्पेन्तो अप्पनं पापुणिस्सति । समाधिपञआसु पन समाधिकम्मिकस्स एकग्गता बलवती वट्टति । एवहि सो अप्पनं पापुणाति । विपस्सनाकम्मिकस्स पञ्जा बलवती वट्टति। एवहि सो लक्खणपटिवेधं पापुणाति । उभिन्नं पन समतायपि अप्पना होतियेव । सति पन सब्बत्थ बलवती वट्टति। सति हि चित्तं उद्धच्चपक्खिकानं सद्धावीरियपञानं वसेन उद्धच्चपाततो, कोसज्जपक्खिकेन च समाधिना कोसज्जपाततो रक्खति। तस्मा सा लोणधूपनं विय सब्बब्यञ्जनेसु, सब्बकम्मिकअमच्चो विय च, सब्बराजकिच्चेसु सब्बत्थ इच्छितब्बा। तेनाह - “सति च पन सब्बत्थिका वुत्ता भगवता, किं कारणा? चित्तव्हि सतिपटिसरणं, आरक्खपच्चुपट्टाना च सति, न विना सतिया चित्तस्स पग्गहनिग्गहो होती" ति । दुप्पञ्जपुग्गलपरिवज्जना नाम खन्धादिभेदे अनोगाळ्हपञानं दुम्मेधपुग्गलानं आरका परिवज्जनं। पञ्जवन्तपुग्गलसेवना नाम समपासलक्खणपरिग्गाहिकाय उदयब्बयपाय समन्नागतपुग्गलसेवना। गम्भीराणचरियपच्चवेक्खणा नाम गम्भीरेसु खन्धादीसु पवत्ताय गम्भीरपआय पभेदपच्चवेक्खणा। तदधिमुत्तता नाम ठाननिसज्जादीसु धम्मविचयसम्बोज्झङ्गसमुट्ठापनत्थं निन्नपोणपब्भारचित्तता | एवं उप्पन्नस्स पन्नस्स अरहत्तमग्गेन भावनापारिपूरि होतीति पजानाति । वीरियसम्बोज्झङ्गस्स "अत्थि, भिक्खवे, आरम्भधातु निक्कमधातु परक्कमधातु, तत्थ योनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा वीरियसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय, उप्पन्नस्स वा वीरियसम्बोज्झङ्गस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तती''ति एवं उप्पादो होति । अपिच एकादस धम्मा वीरियसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय संवत्तन्ति अपायभयपच्चवेक्खणता आनिसंसदस्साविता गमनवीथिपच्चवेक्खणता पिण्डपातापचायनता दायज्जमहत्तपच्चवेक्खणता सत्थुमहत्तपच्चवेक्खणता जातिमहत्तपच्चवेक्खणता सब्रह्मचारिमहत्तपच्चवेक्खणता कुसीतपुग्गलपरिवज्जनता आरद्धवीरियपुग्गलसेवनता तदधिमुत्तताति। 340 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८५-३८५) बोज्झङ्गपब्बवण्णना ३४१ तत्थ निरयेसु पञ्चविधबन्धनकम्मकारणतो पट्ठाय महादुक्खानुभवनकालेपि, तिरच्छानयोनियं जालखिपनकुमीनादीहि गहितकालेपि, पाजनकण्टकादिप्पहारतुन्नस्स सकटवहनादिकालेपि, पेत्तिविसये अनेकानिपि वस्ससहस्सानि एकं बुद्धन्तरम्पि खुप्पिपासाहि आतुरीभूतकालेपि, कालकञ्चिकअसुरेसु सट्ठिहत्थअसीतिहत्थप्पमाणेन अट्ठिचम्ममत्तेनेव अत्तभावेन वातातपादिदुक्खानुभवनकालेपि न सक्का वीरियसम्बोज्झङ्गं उप्पादेतुं, अयमेव ते भिक्खु कालो वीरियकरणायाति एवं अपायभयं पच्चवेक्खन्तस्सापि वीरियसम्बोज्झङ्गो उप्पज्जति । __न सक्का कुसीतेन नवलोकुत्तरधम्मं लद्धं, आरद्धवीरियेनेव सक्का अयमानिसंसो वीरियस्साति एवं आनिसंसदस्साविनोपि उप्पज्जति । सब्बबुद्धपच्चेकबुद्धमहासावकेहि ते गतमग्गो गन्तब्बो, सो च न सक्का कुसीतेन गन्तुन्ति एवं गमनवीथिं पच्चवेक्खन्तस्सापि उप्पज्जति। ये तं पिण्डपातादीहि उपट्ठहन्ति, इमे ते मनुस्सा नेव जातका, न दासकम्मकरा, नापि तं निस्साय जीविस्सामाति ते पणीतानि चीवरादीनि देन्ति । अथ खो अत्तनो कारानं महप्फलतं पच्चासीसमाना देन्ति। सत्थारापि “अयं इमे पच्चये परिभुजित्वा कायदळहीबहुलो सुखं विहरिस्सती''ति न एवं सम्पस्सता तुम्हं पच्चया अनुञाता। अथ खो “अयं इमे परिभुञ्जमानो समणधम्म कत्वा वट्टदुक्खतो मुच्चिस्सती''ति ते पच्चया अनुज्ञाता, सो दानि त्वं कुसीतो विहरन्तो न तं पिण्डं अपचायिस्सति । आरद्धवीरियस्सेव हि पिण्डपातापचायनं नाम होतीति एवं पिण्डपातापचायनं पच्चवेक्खन्तस्सापि उप्पज्जति अय्यमित्तत्थेरस्स विय । थेरो किर कस्सकलेणे नाम पटिवसति । तस्स च गोचरगामे एका महाउपासिका थेरं पुत्तं कत्वा पटिजग्गति । सा एकदिवसं अरजं गच्छन्ती धीतरं आह- "अम्म, असुकस्मिं ठाने पुराणतण्डुला, असुकस्मिं सप्पि, असुकस्मिं खीरं, असुकस्मिं फाणितं, तव भातिकस्स अय्यमित्तस्स आगतकाले भत्तं पचित्वा खीरसप्पिफाणितेहि सद्धिं देहि, त्वञ्च भुजेय्यासि । अहं पन हिय्यो पक्कपारिवासिकभत्तं कजियेन भुत्ताम्ही"ति । दिवा किं भुजिस्ससि अम्मा,ति ? साकपण्णं पक्खिपित्वा कणतण्डुलेहि अम्बिलयागु पचित्वा ठपेहि अम्मा,ति। थेरो चीवरं पारुपित्वा पत्तं नीहरन्तोव तं सदं सुत्वा अत्तानं ओवदि "महाउपासिका किर कजियेन पारिवासिकभत्तं भुञ्जि, दिवापि कणपण्णम्बिलयागुं 341 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ( ९.३८५ - ३८५) भुजिस्सति, तुम्हं अत्थाय पन पुराणतण्डुलादीनि आचिक्खति तं निस्साय खो पनेसा नेव खेत्तं न वत्युं न भत्तं न वत्थं पच्चासीसति, तिस्सो पन सम्पत्तियो पत्थयमाना देति, त्वं एतिस्सा ता सम्पत्तियो दातुं सक्खिस्ससि न सक्खिस्ससीति, अयं खो पन पिण्डपातो तया सरागेन सदोसेन समोहेन न सक्का गण्हितु 'न्ति पत्तं थविकाय पक्खिपित्वा गण्ठिकं मुञ्चित्वा निवत्तित्वा कस्सकलेणमेव गन्त्वा पत्तं हेट्ठामञ्चे चीवरं चीवरवंसे ठपेत्वा “अरहत्तं अपापुणित्वा न निक्खमिस्सामी 'ति वीरियं अधिट्ठहित्वा निसीदि। दीघरत्तं अप्पमत्तो हुत्वा निवुत्थभिक्खु विपस्सनं वड्डेत्वा पुरेभत्तमेव अरहन्तं पत्वा विकसमानमिव पदुमं महाखीणासवो सितं करोन्तोव निसीदि । लेणद्वारे रुक्खम्हि अधिवत्था देवता - दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा " नमो ते पुरिसाजञ्ञ, नमो ते पुरिसुत्तम । यस्स ते आसवा खीणा, दक्खिणेय्योसि मारिसा "ति । । - उदानं उदानेत्वा “भन्ते, पिण्डाय पविट्ठानं तुम्हादिसानं अरहन्तानं भिक्खं दत्वा महल्लकित्थियो दुक्खा मुच्चिस्सन्ती 'ति आह । थेरो उट्ठहित्वा द्वारं विवरित्वा कालं ओलोकेन्तो " पातोयेवा "ति ञत्वा पत्तचीवरमादाय गामं पाविसि । दारिकाप भत्तं सम्पादेत्वा “इदानि मे भाता आगमिस्सति, इदानि आगमिस्सती 'ति द्वारं ओलोकयमाना निसीदि । सा थेरे घरद्वारं सम्पत्ते पत्तं गहेत्वा सप्पिफाणितयोजितस्स खीरपिण्डपातस्स पूरेत्वा हत्थे ठपेसि । थेरो "सुखं होतू" ति अनुमोदनं कत्वा पक्कामि । सापि तं ओलोकयमाना अट्ठासि । थेरस्स हि तदा अतिवि परिसुद्धो छविवण्णो अहोसि, विप्पसन्नानि इन्द्रियानि, मुखं बन्धना पवुत्ततालपक्कं विय अतिविय विरोचित्थ | महाउपासिका अरञ्ञ आगन्त्वा " किं, अम्म, भातिको ते आगतो 'ति पुच्छि । सा सब्बं तं पवत्तिं आरोचेसि । उपासिका " अज्ज मम पुत्तस्स पब्बजितकिच्च मत्थकं पत्त”न्ति ञत्वा “अभिरमति ते, अम्म, भाता बुद्धसासने, न उक्कण्ठती 'ति आह । महन्तं खो पनेतं सत्थुदायज्जं यदिदं सत्त अरियधनानि नाम, तं न सक्का कुसीतेन गहेतुं । यथा हि विप्पटिपन्नं पुत्तं मातापितरो " अयं अम्हाकं अत्तो 342 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९.३८५ - ३८५) बोज्झङ्गपब्बवण्णना परिबाहिरं करोन्ति, सो तेसं अच्चयेन दायज्जं न लभति, एवं कुसीतोपि इदं अरियधनदायज्जं न लभति, आरद्धवीरियोव लभतीति दायज्जमहत्तं पच्चवेक्खतोपि उप्पज्जति । महा खो पन ते सत्था, सत्थुनो हि ते मातुकुच्छिस्मिं पटिसन्धिगण्हनकालेप अभिनिक्खमनेपि अभिसम्बोधियम्पि धम्मचक्कप्पवत्तनयमकपाटिहारियदेवोरोहन आयुसङ्घारवोस्सज्जनेसुपि परिनिब्बानकालेपि दससहस्सिलोकधातु अकम्पित्थ, युत्तं नु ते एवरूपस्स सत्थु सासने पब्बजित्वा कुसीतेन भवितुन्ति एवं सत्थुमहत्तं पच्चवेक्खतोपि उप्पज्जति । ३४३ जातियापि त्वं इदानि न लामकजातिको, असम्भिन्नाय महासम्मतपवेणिया आगतउक्काकराजवंसे जातोसि, सुद्धोदनमहाराजस्स च महामायादेविया च नत्ता, राहुलभद्दस्स कनिट्ठो, तया नाम एवरूपेन जिनपुत्तेन हुत्वा न युत्तं कुसीतेन विहरितुन्ति एवं जातिमहत्तं पच्चवेक्खतोपि उप्पज्जति । सारिपुत्तमहामोग्गल्लाना चेव असीति च महासावका वीरियेनेव लोकुत्तरधम्मं पटिविज्झिंसु, त्वं एतेसं सब्रह्मचारीनं मग्गं पटिपज्जसि, न पटिपज्जसीति एवं सब्रह्मचारिमहत्तं पच्चवेक्खतोपि उप्पज्जति । कुच्छिं पूरेत्वा ठित अजगरसदिसे विस्सट्ठकायिकचेतसिकवीरिये कुसीतपुग्गले परिवज्जन्तस्सापि आरद्धवीरिये पहितत्ते पुग्गले सेवन्तस्सापि ठानिसज्जादी वीरियुप्पादनत्थं निन्नपोणपब्भारचित्तस्सापि उप्पज्जति । एवं उप्पन्नस्स पनस्स अरहत्तमग्गेन भावनापारिपूरि होतीति पजानाति । पीतिसम्बोज्झङ्गस्स "अत्थि, भिक्खवे, पीतिसम्बोज्झङ्गट्टानीया धम्मा, तत्थ योनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा पीतिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय, उप्पन्नस्स वा पीतिसम्बोज्झङ्गस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्ततीति एवं उप्पादो होति । तत्थ पीतियेव पीतिसम्बोज्झङ्गट्टानीया धम्मा नाम । तस्सा उप्पादकमनसिकारो योनिसोमनसिकारो नाम । अपिच एकादस धम्मा पीतिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय संवत्तन्ति बुद्धानुस्सति, धम्म, 343 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा उपसमानु लूखपुग्गलपरिवज्जनता तदधिमुत्तताति । सङ्घ, सील, चाग, देवता सिनिद्धपुग्गलसेवनता पसादनीयसुत्तन्तपच्चवेक्खणता बुद्धगुणे अनुसरन्तस्सापि हि याव उपचारा सकलसरीरं फरमानो पीतिसम्बोज्झङ्गो उप्पज्जति, धम्मसङ्घगुणे अनुस्मरन्तस्सापि, दीघरत्तं अखण्डं कत्वा रक्खितं चतुपारिसुद्धिसीलं पच्चवेक्खन्तस्सापि, गिहिनोपि दससीलं पञ्चसीलं पञ्चवेक्खन्तस्सापि, दुब्भिक्खभयादीसु पणीतभोजनं सब्रह्मचारीनं दत्वा “ एवं नाम अदम्हा "ति चागं पच्चवेक्खन्तस्सापि, गिहिनोपि एवरूपे काले सीलवन्तानं दिन्नदानं पच्चवेक्खन्तस्सापि येहि गुणेहि समन्नागता देवता देवत्तं पत्ता, तथारूपानं गुणानं अत्तनि अत्थितं पच्चवेक्खन्तस्सापि, समापत्तिया विक्खम्भिता किलेसा सट्ठिपि सत्ततिपि वस्सानि न समुदाचरन्तीति पच्चवेक्खन्तस्सापि, चेतियदस्सनबोधिदस्सनथेरदस्सनेसु असक्कच्चकिरियाय संसूचितलूखभावे बुद्धा पसादसिनेहाभावेन गद्रभपिट्ठे रजसदिसे लूखपुग्गले परिवज्जन्तस्सापि, बुद्धादीसु पसादबहुले मुदुचित्ते सिनिद्धपुग्गले सेवन्तस्सापि, रतनत्तयगुणपरिदीपके पसादनीयसुत्तन्ते पच्चवेक्खन्तस्सापि, ठाननिसज्जादीसु पीतिउप्पादनत्थं निन्नपोणपब्भारचित्तस्सापि उप्पज्जति । एवं उप्पन्नस्स पनस्स अरहत्तमग्गेन भावनापारिपूरि होतीति पजानाति । पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स "अत्थि, भिक्खवे, कायपस्सद्धि चित्तपस्सद्धि, तत्थ योनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय, उप्पन्नस्स वा पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तती 'ति एवं उप्पादो होति । ( ९.३८५ - ३८५) अपिच सत्त धम्मा पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय संवत्तन्ति पणीतभोजनसेवनता उसुखसेवा इरियापथसुखसेवनता मज्झत्तपयोगता सारद्धकायपुग्गलपरिवज्जनता पस्सद्धकायपुग्गलसेवनता तदधिमुत्तताति । पणीतहि सिनिद्धं सप्पायभोजनं भुञ्जन्तस्सापि, सीतुण्हेसु च उतूसु ठानादीसु च इरियापथेसु सप्पायउतुञ्च इरियापथञ्च सेवन्तस्सापि पस्सद्धि उप्पज्जति। यो पन महापुरिसजातिको सब्बउतुइरियापथक्खमो होति, न तं सन्धायेतं वुत्तं । यस्स सभागविसभागता अत्थि, तस्सेव विसभागे उतुइरियापथे वज्जेत्वा सभागे सेवन्तस्स उप्पज्जति । मज्झत्तपयोगो वुच्चति अत्तनो च परस्स च कम्मस्सकतापच्चवेक्खणा । इमिना मज्झत्तपयोगेन उप्पज्जति । यो लेड्डुदण्डादीहि परं विहेठयमानो विचरति, एवरूपं सारद्धकायं पुग्गलं परिवज्जन्तस्सापि, संयतपादपाणिं पस्सद्धकायं सेवन्तस्सापि, ठाननिसज्जादी पस्सद्धिउप्पादनत्थाय पुग्गलं 344 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८५-३८५) बोज्झङ्गपब्बवण्णना ३४५ निन्नपोणपब्भारचित्तस्सापि उप्पज्जति । एवं उप्पन्नस्स पनस्स अरहत्तमग्गेन भावनापारिपूरि होतीति पजानाति । समाधिसम्बोज्झङ्गस्स “अस्थि, भिक्खवे, समथनिमित्तं अब्यग्गनिमित्तं, तत्थ योनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो, अनुप्पन्नस्स वा समाधिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय, उप्पन्नस्स वा समाधिसम्बोज्झङ्गस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तती"ति एवं उप्पादो होति । तत्थ समथोव समथनिमित्तं अविखेपद्वेन च अब्यग्गनिमित्तन्ति । ___अपिच एकादस धम्मा समाधिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय संवत्तन्ति वत्थुविसदकिरियता इन्द्रियसमत्तपटिपादनता निमित्तकुसलता समये चित्तस्स पग्गण्हनता समये चित्तस्स निग्गण्हनता समये सम्पहंसनता समये अज्झुपेक्खनता असमाहितपुग्गलपरिवज्जनता समाहितपुग्गलसेवनता झानविमोक्खपच्चवेक्खणता तदधिमुत्तताति । तत्थ वत्थुविसदकिरियता च इन्द्रियसमत्तपटिपादनता च वुत्तनयेनेव वेदितब्बा। निमित्तकुसलता नाम कसिणनिमित्तस्स उग्गहणकुसलता। समये चित्तस्स परगण्हनताति यस्मिं समये अतिसिथिलवीरियतादीहि लीनं चित्तं होति, तस्मिं समये धम्मविचयवीरियपीतिसम्बोज्झङ्गसमुट्ठापनेन तस्स पग्गण्हनं । समये चित्तस्स पग्गहनताति यस्मिं समये आरद्धवीरियतादीहि उद्धतं चित्तं होति, तस्मिं समये पस्सद्धिसमाधिउपेक्खासम्बोज्झङ्गसमुट्ठापनेन तस्स निग्गण्हनं । समये सम्पहंसनताति यस्मिं समये चित्तं पञापयोगमन्दताय वा उपसमसुखानधिगमेन वा निरस्सादं होति, तस्मिं समये अट्ठसंवेगवत्थुपच्चवेक्खणेन संवेजेति । अट्ठ संवेगवत्थूनि नाम जाति जरा ब्याधि मरणानि चत्तारि, अपायदुक्खं पञ्चमं, अतीते वट्टमूलकं दुक्खं, अनागते वट्टमूलकं दुक्खं, पच्चुप्पन्ने आहारपरियेट्ठिमूलकं दुक्खन्ति । रतनत्तयगुणानुस्सरणेन च पसादं जनेति, अयं वुच्चति “समये सम्पहंसनता''ति । समये अज्झुपेक्खनता नाम यस्मिं समये सम्मापटिपत्तिं आगम्म अलीनं अनुद्धतं अनिरस्सादं आरम्मणे समप्पवत्तं समथवीथिपटिपन्नं चित्तं होति, तदास्स पग्गहनिग्गहसम्पहंसनेसु न ब्यापारं आपज्जति, सारथि विय समप्पवत्तेसु अस्सेसु । अयं वुच्चति - “समये अज्झुपेक्खनता''ति । असमाहितपुग्गलपरिवज्जनता नाम उपचारं वा 345 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३८५-३८५) अप्पनं वा अप्पत्तानं विक्खित्तचित्तानं पुग्गलानं आरका परिवज्जनं । समाहितपुग्गलसेवना नाम उपचारेन वा अप्पनाय वा समाहितचित्तानं सेवना भजना पयिरुपासना । तदधिमुत्तता नाम ठाननिसज्जादीसु समाधिउप्पादनत्थंयेव निन्नपोणपब्भारचित्तता । एवहि पटिपज्जतो एस उप्पज्जति । एवं उप्पन्नस्स पनस्स अरहत्तमग्गेन भावनापारिपूरि होतीति पजानाति । उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स “अत्थि, भिक्खवे, उपेक्खासम्बोज्झनहानीया धम्मा, तत्थ योनिसोमनसिकारबहुलीकारो, अयमाहारो अनुप्पन्नस्स वा उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय, उप्पन्नस्स वा उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तती''ति एवं उप्पादो होति । तत्थ उपेक्खाव उपेक्खासम्बोज्झङ्गट्टानीया धम्मा नाम । अपिच पञ्च धम्मा उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय संवत्तन्ति सत्तमज्झत्तता सङ्घारमज्झत्तता सत्तसङ्खारकेलायनपुग्गलपरिवज्जनता सत्तसङ्खारमज्झत्तपुग्गलसेवनता तदधिमुत्तताति । तत्थ द्वीहाकारेहि सत्तमज्झत्ततं समुट्ठापेति “त्वं अत्तनो कम्मेन आगन्त्वा अत्तनोव कम्मेन गमिस्ससि, एसोपि अत्तनोव कम्मेन आगन्त्वा अत्तनोव कम्मेन गमिस्सति, त्वं कं केलायसी"ति एवं कम्मस्सकतापच्चवेक्खणेन, “परमत्थतो सत्तोयेव नत्थि, सो त्वं कं केलायसी''ति एवं निस्सत्तपच्चवेखणेन चाति । द्वीहेवाकारेहि सङ्कारमज्झत्ततं समुट्ठापेति- "इदं चीवरं अनुपुब्बेन वण्णविकारतञ्चेव जिण्णभावञ्च उपगन्त्वा पादपुञ्छनचोळकं हुत्वा यट्ठिकोटिया छड्डनीयं भविस्सति, सचे पनस्स सामिको भवेय्य, नास्स एवं विनस्सितुं ददेय्याति एवं अस्सामिकभावपच्चवेक्खणेन च, “अनद्धनियं इदं तावकालिक"न्ति एवं तावकालिकभावपच्चवेक्खणेन चाति । यथा च चीवरे, एवं पत्तादीसुपि योजना कातब्बा । सत्तसङ्खारकेलायनपुग्गलपरिवज्जनताति एत्थ यो पुग्गलो गिहि वा अत्तनो पुत्तधीतादिके, पब्बजितो वा अत्तनो अन्तेवासिकसमानुपज्झायकादिके ममायति, सहत्थेनेव नेसं केसच्छेदनसूचिकम्मचीवरधोवनरजनपत्तपचनादीनि करोति, मुहुत्तम्पि अपस्सन्तो “असुको सामणेरो कुहिं असुको दहरो कुहि"न्ति भन्तमिगो विय इतो चितो च ओलोकेति, अजेन केसच्छेदनादीनं अत्थाय "मुहुत्तं असुकं पेसेथा''ति याचियमानोपि “अम्हेपि तं अत्तनो कम्मं न कारेम, तुम्हे नं गहेत्वा किलमेस्सथा"ति न देति, अयं सत्तकेलायनो नाम। 346 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८६-३८६) चतुसच्चपब्बवण्णना ३४७ यो पन चीवरपत्तथालककत्तरयट्ठिआदीनि ममायति, अञस्स हत्थेन परामसितुम्पि न देति, तावकालिकं याचितो “मयम्पि इदं ममायन्ता न परिभुजाम, तुम्हाकं किं दस्सामा"ति वदति, अयं सङ्घारकेलायनो नाम । यो पन तेसु द्वीसुपि वत्थूसु मज्झत्तो उदासिनो, अयं सत्तसङ्घारमज्झत्तो नाम । इति अयं उपेक्खासम्बोज्झङ्गो एवरूपं सत्तसङ्खारकेलायनपुग्गलं आरका परिवज्जन्तस्सापि, सत्तसङ्खारमज्झत्तपुग्गलं सेवन्तस्सापि, ठाननिसज्जादीसु तदुप्पादनत्थं निन्नपोणपब्भारचित्तस्सापि उप्पज्जति । एवं उप्पन्नस्स पनस्स अरहत्तमग्गेन भावनापारिपूरि होतीति पजानाति । इति अज्झत्तं वाति एवं अत्तनो वा सत्त सम्बोज्झङ्गे परिग्गण्हित्वा, परस्स वा, कालेन वा अत्तनो, कालेन वा परस्स सम्बोज्झङ्गे परिग्गण्हित्वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति । समुदयवया पनेत्थ सम्बोज्झङ्गानं निब्बत्तिनिरोधवसेन वेदितब्बा | इतो परं वुत्तनयमेव । केवलहि इध बोज्झङ्गपरिग्गाहिका सति दुक्खसच्चन्ति एवं योजनं कत्वा बोज्झङ्गपरिग्गाहकस्स भिक्खुनो निय्यानमुखं वेदितब्बं । सेसं तादिसमेवाति । बोज्झङ्गपब्बं निहितं । चतुसच्चपब्बवण्णना ___३८६. एवं सत्तबोज्झङ्गवसेन धम्मानुपस्सनं विभजित्वा इदानि चतुसच्चवसेन विभजितुं पुन चपरन्तिआदिमाह । तत्थ इदं दुक्खन्ति यथाभूतं पजानातीति ठपेत्वा तण्हं तेभूमकधम्मे "इदं दुक्ख"न्ति यथासभावतो पजानाति, तस्सेव खो पन दुक्खस्स जनिकं समुट्ठापिकं पुरिमतण्हं “अयं दुक्खसमुदयो"ति, उभिन्नं अप्पवत्तिनिब्बानं "अयं दुक्खनिरोधो"ति, दुक्खपरिजाननं समुदयपजहनं निरोधसच्छिकरणं अरियमग्गं “अयं दुक्खनिरोधगामिनिपटिपदा"ति यथासभावतो पजानातीति अत्थो । अवसेसा अरियसच्चकथा ठपेत्वा जातिआदीनं पदभाजनकथं विसुद्धिमग्गे वित्थारितायेव । 347 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३८८-३८९) दुक्खसच्चनिद्देसवण्णना ३८८. पदभाजने पन कतमा च, भिक्खवे, जातीति भिक्खवे, या जातिपि दुक्खाति एवं वुत्ता जाति, सा कतमाति एवं सब्बपुच्छासु अत्थो वेदितब्बो। या तेसं तेसं सत्तानन्ति इदं “इमेसं नामा"ति नियमाभावतो सब्बसत्तानं परियादानवचनं । तम्हि तम्हि सत्तनिकायेति इदम्पि सब्बसत्तनिकायपरियादानवचनं जननं जाति सविकारानं पठमाभिनिब्बत्तक्खन्धानमेतं अधिवचनं । सञ्जातीति इदं तस्सा एव उपसग्गमण्डितवेवचनं । सा एव अनपविट्ठाकारेन ओक्कमनट्रेन ओक्कन्ति। निब्बत्तिसङ्घातेन अभिनिब्बत्तनट्रेन अभिनिब्बत्ति। इति अयं चतुब्बिधापि सम्मुतिकथा नाम । खन्धानं पातुभावोति अयं पन परमत्थकथा । एकवोकारभवादीसु एकचतुपञ्चभेदानं खन्धानंयेव पातुभावो, न पुग्गलस्स, तस्मिं पन सति पुग्गलो पातुभूतोति वोहारमत्तं होति । आयतनानं पटिलाभोति आयतनानि पातुभवन्तानेव पटिलद्धानि नाम होन्ति, सो तेसं पातुभावसङ्खातो पटिलाभोति अत्थो । ३८९. जराति सभावनिद्देसो। जीरणताति आकारभावनिद्देसो। खण्डिच्चन्तिआदि विकारनिद्देसो। दहरकालस्मिहि दन्ता समसेता होन्ति । तेयेव परिपच्चन्ते अनुक्कमेन वण्णविकारं आपज्जित्वा तत्थ तत्थ पत्तन्ति । अथ पतितञ्च ठितञ्च उपादाय खण्डितदन्ता खण्डिता नाम । खण्डितानं भावो खण्डिच्चन्ति वुच्चति । अनुक्कमेन पण्डरभूतानि केसलोमानि पलितानि नाम । पलितानि सञ्जातानि अस्साति पलितो, पलितस्स भावो पालिच्चं। जरावातप्पहारेन सोसितमंसलोहितताय वलियो तचस्मिं अस्साति वलित्तचो, तस्स भावो वलित्तचता। एत्तावता दन्तकेसलोमतचेसु विकारदस्सनवसेन पाकटीभूता पाकटजरा दस्सिता। यथेव हि उदकस्स वा वातस्स वा अग्गिनो वा तिणरुक्खादीनं संभग्गपलिभग्गताय वा झामताय वा गतमग्गो पाकटो होति, न च सो गतमग्गो तानेव उदकादीनि, एवमेव जराय दन्तादीनं खण्डिच्चादिवसेन गतमग्गो पाकटो, चक् उम्मिलेत्वापि गम्हति, न च खण्डिच्चादीनेव जरा । न हि जरा चक्खुवि य्या होति । यस्मा पन जरं पत्तस्स आयु हायति, तस्मा जरा “आयुनो संहानी"ति फलूपचारेन वुत्ता। यस्मा दहरकाले सुप्पसन्नानि सुखुमम्पि अत्तनो विसयं सुखेनेव च गण्हनसमत्थानि चक्खादीनि इन्द्रियानि जरं पत्तस्स परिपक्कानि आलुलितानि अविसदानि ओळारिकम्पि अत्तनो विसयं गहेतुं असमत्थानि होन्ति, तस्मा "इन्द्रियानं परिपाको''तिपि फलूपचारेनेव वुत्ता । 348 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३९०-३९५) दुक्खसच्चनिद्देसवण्णना ३४९ ३९०. मरणनिद्देसे यन्ति मरणं सन्धाय नपुंसकनिद्देसो, यं मरणं चुतीति वुच्चति, चवनताति वुच्चतीति अयमेत्थ योजना। तत्थ चुतीति सभावनिद्देसो। चवनताति आकारभावनिद्देसो। मरणं पत्तस्स खन्धा भिज्जन्ति चेव अन्तरधायन्ति च अदस्सनं गच्छन्ति, तस्मा तं भेदो अन्तरधानन्ति वुच्चति । मच्चुमरणन्ति मच्चुमरणं, न खणिकमरणं । कालकिरियाति मरणकालकिरिया । अयं सब्बापि सम्मुतिकथाव। खन्धानं भेदोति अयं पन परमत्थकथा । एकवोकारभवादीसु एकचतुपञ्चभेदानं खन्धानंयेव भेदो, न पुग्गलस्स, तस्मिं पन सति पुग्गलो मतोति वोहारमत्तं होति । कळेवरस्स निक्खेपोति अत्तभावस्स निक्खेपो। मरणं पत्तस्स हि निरत्थंव कलिङ्गरं अत्तभावो पतति, तस्मा तं कळेवरस्स निक्खेपोति वुत्तं । जीवितिन्द्रियस्स उपच्छेदो पन सब्बाकारतो परमत्थतो मरणं । एतदेव सम्मुतिमरणन्ति पि वुच्चति । जीवितिन्द्रियुपच्छेदमेव हि गहेत्वा लोकिया “तिस्सो मतो, फुस्सो मतो"ति वदन्ति । ३९१. व्यसनेनाति नातिब्यसनादीसु येन केनचि ब्यसनेन । दुक्खधम्मेनाति वधबन्धादिना दुक्खकारणेन । फुट्ठस्साति अज्झोत्थटस्स अभिभूतस्स । सोकोति यो जातिब्यसनादीसु वा वधबन्धनादीसु वा अञतरस्मिं सति तेन अभिभूतस्स उप्पज्जति सोचनलक्खणो सोको । सोचितत्तन्ति सोचितभावो। यस्मा पनेस अब्भन्तरे सोसेन्तो परिसोसेन्तो उप्पज्जति, तस्मा अन्तोसोको अन्तोपरिसोकोति वुच्चति । ३९२. “मव्हं धीता, मय्हं पुत्तो"ति एवं आदिस्स आदिस्स देवन्ति परिदेवन्ति एतेनाति आदेवो। तं तं वण्णं परिकित्तेत्वा देवन्ति एतेनाति परिदेवो। ततो परा द्वे तस्सेव भावनिद्देसा । __३९३. कायिकन्ति कायपसादवत्थुकं । दुक्खमनटेन दुक्खं। असातन्ति अमधुरं । कायसम्फस्सजं दुक्खन्ति कायसम्फस्सतो जातं दुक्खं । असातं वेदयितन्ति अमधुरं वेदयितं । ३९४. चेतसिकन्ति चित्तसम्पयुत्तं । सेसं दुक्खे वुत्तनयमेव । ३९५. आयासोति संसीदनविसीदनाकारप्पत्तो चित्तकिलमथो। बलवतरं आयासो उपायासो। ततो परा द्वे अत्तत्तनियाभावदीपका भावनिद्देसा । 349 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.३९८-४००) ३९८. जातिधम्मानन्ति जातिसभावानं । इछा उप्पज्जतीति तण्हा उप्पज्जति । अहो वताति पत्थना। न खो पनेतं इच्छायाति एवं जातिया अनागमनं विना मग्गभावनं न इच्छाय पत्तब्बं । इदम्पीति एतम्पि उपरि सेसानि उपादाय पिकारो। यम्पिच्छन्ति येनपि धम्मेन अलब्भनेय्यवत्थु इच्छन्तो न लभति, तं अलब्भनेय्य वत्थुम्हि इच्छनं दुक्खं । एस नयो सब्बत्थ। ३९९. खन्धनिद्देसे रूपञ्च तं उपादानक्खन्धो चाति स्पुपादानक्खन्धो एवं सब्बत्थ । समुदयसच्चनिद्देसवण्णना ४००. यायं तण्हाति या अयं तहा। पोनोन्भविकाति पुनब्भवकरणं पुनोब्भवो, पुनोब्भवो सीलं अस्साति पोनोभविका। नन्दीरागेन सह गताति नन्दीरागसहगता। नन्दीरागेन सद्धिं अत्थतो एकत्तमेव गताति वुत्तं होति । तत्रतत्राभिनन्दिनीति यत्र यत्र अत्तभावो, तत्र तत्र अभिनन्दिनी। रूपादीसु वा आरम्मणेसु तत्र तत्र अभिनन्दिनी, रूपाभिनन्दिनी सद्द, गन्ध, रस, फोट्टब्ब, धम्माभिनन्दिनीति अत्थो । सेय्यथिदन्ति निपातो । तस्स सा कतमा चेति अत्थो । कामे तण्हा कामतण्हा, पञ्चकामगुणिकरागस्सेतं नाम । भवे तण्हा भवतण्हा, भवपत्थनावसेन उप्पन्नस्स सस्सतदिट्ठिसहगतस्स रूपारूपभवरागस्स च झाननिकन्तिया चेतं अधिवचनं । विभवे तण्हा विभवतण्हा, उच्छेददिट्ठिसहगतरागस्सेतं अधिवचनं। इदानि तस्सा तण्हाय वधु वित्थारतो दस्सेतुं सा खो पनेसातिआदिमाह । तत्थ उप्पज्जतीति जायति । निविसतीति पुनप्पुनं पवत्तिवसेन पतिठ्ठहति । यं लोके पियरूपं सातरूपन्ति यं लोकस्मिं पियसभावञ्चेव मधुरसभावञ्च । चक्षु लोकेतिआदीसु लोकस्मिन्हि चक्खादीसु ममत्तेन अभिनिविट्ठा सत्ता सम्पत्तियं पतिहिता अत्तनो चक् आदासतलादीसु निमित्तग्गहणानुसारेन विप्पसन्नं पञ्चपसादं सुवण्णविमाने उग्घाटितमणिसीहपञ्जरं विय मञ्जन्ति, सोतं रजतपनाळिकं विय, पामङ्गसुत्तं विय च मञ्जन्ति, "तुङ्गनासा''ति लद्धवोहारं घानं वट्टित्वा ठपितहरितालवर्से विय मञन्ति, जिव्हं रत्तकम्बलपटलं विय मुदुसिनिद्धमधुरसदं मञ्जन्ति, कायं साललढिं विय, सुवण्णतोरणं विय च मञ्जन्ति, मनं अजेसं मनेन असदिसं उळारं मञ्जन्ति । रूपं सुवण्णकणिकारपुप्फादिवण्णं विय, सदं मत्तकरवीक कोकिलमन्दधमितमणिवंसनिग्घोसं विय, अत्तना पटिलद्धानि 350 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.४०१-४०१) निरोधसच्चनिद्देसवण्णना ३५१ चतुसमुट्ठानिकगन्धारम्मणादीनि “कस्सस्स एवरूपानि अत्थी''ति मञ्जन्ति । तेसं एवं मळमानानं तानि चक्खादीनि पियरूपानि चेव सातरूपानि च होन्ति । अथ नेसं तत्थ अनुप्पन्ना चेव तण्हा उप्पज्जति, उप्पन्ना च तण्हा पुनप्पुनं पवत्तिवसेन निविसति । तस्मा भगवा “चक्खु लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जती"तिआदिमाह । तत्थ उप्पज्जमानाति यदा उप्पज्जमाना होति, तदा एत्थ उप्पज्जतीति अत्थो । एस नयो सब्बत्थ । निरोधसच्चनिद्देसवण्णना ४०१. असेसविरागनिरोधोतिआदीनि सब्बानि निब्बानवेवचनानेव । निब्बानव्हि आगम्म तण्हा असेसा विरज्जति निरुज्झति, तस्मा तं "तस्सायेव तण्हाय असेसविरागनिरोधो"ति वच्चति । निब्बानञ्च आगम्म तण्हा चजियति पटिनिस्सज्जियति विमुच्चति न अल्लीयति, तस्मा निब्बानं “चागो पटिनिस्सग्गो मुत्ति अनालयो''ति वुच्चति । एकमेव हि निब्बानं, नामानि पनस्स सब्बसङ्खतानं नामपटिपक्खवसेन अनेकानि होन्ति । सेय्यथिदं, असेसविरागो असेसनिरोधो चागो पटिनिस्सग्गो मुत्ति अनालयो रागक्खयो दोसक्खयो मोहक्खयो तण्हक्खयो अनुप्पादो अप्पवत्तं अनिमित्तं अप्पणिहितं अनायूहनं अप्पटिसन्धि अनुपपत्ति अगति अजातं अजरं अब्याधि अमतं असोकं अपरिदेवं अनुपायासं असंकिलिट्ठन्ति । इदानि मग्गेन छिन्नाय निब्बानं आगम्म अप्पवत्तिपत्तायपि च तण्हाय येसु वत्थूसु तस्सा उप्पत्ति दस्सिता, तत्थेव अभावं दस्सेतुं सा खो पनेसातिआदिमाह । तत्थ यथा पुरिसो खेत्ते जातं तित्तअलाबुवल्लिं दिस्वा अग्गतो पट्ठाय मूलं परियेसित्वा छिन्देय्य, सा अनुपुब्बेन मिलायित्वा अपञत्तिं गच्छेय्य । ततो तस्मिं खेत्ते तित्तअलाबु निरुद्धा पहीनाति वुच्चेय्य, एवमेव खेत्ते तित्तअलाबु विय चक्खादीसु तण्हा। सा अरियमग्गेन मूलच्छिन्ना निब्बानं आगम्म अप्पवत्तिं गच्छति । एवं गता पन तेसु वत्थूसु खेत्ते तित्तअलाबु विय न पायति । यथा च अटवितो चोरे आनेत्वा नगरस्स दक्खिणद्वारे घातेय्यु, ततो अटवियं चोरा मताति वा मारिताति वा वुच्चेय्युं, एवं अटवियं चोरा विय चक्खादीसु तण्हा । सा दक्खिणद्वारे चोरा विय निब्बानं आगम्म निरुद्धत्ता निब्बाने निरुद्धा । एवं निरुद्धा 351 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.४०२-४०२) पनेतेसु वत्थूसु अटवियं चोरा विय न पायति, तेनस्सा तत्थेव निरोधं दस्सेन्तो "चक्खु लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा पहीयमाना पहीयति, एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झती''तिआदिमाह । मग्गसच्चनिद्देसवण्णना ४०२. अयमेवाति अञ्जमग्गपटिक्खेपनत्थं नियमनं । अरियोति तं तं मग्गवज्झेहि किलेसेहि आरकत्ता अरियभावकरत्ता च अरियो । दुक्खे आणन्तिआदिना चतुसच्चकम्मट्ठानं दस्सितं । तत्थ पुरिमानि द्वे सच्चानि वटुं, पच्छिमानि विवढें । तेसु भिक्खुनो वट्टे कम्मट्ठानाभिनिवेसो होति, विवट्टे नत्थि अभिनिवेसो। पुरिमानि हि द्वे सच्चानि “पञ्चक्खन्धा दुक्खं, तण्हा समुदयो'"ति एवं सङ्केपेन च “कतमे पञ्चक्खन्धा, रूपक्खन्धो"तिआदिना नयेन वित्थारेन च आचरियस्स सन्तिके उग्गण्हित्वा वाचाय पुनप्पुनं परिवत्तेन्तो योगावचरो कम्मं करोति । इतरेसु पन द्वीसु सच्चेसु निरोधसच्चं इ8 कन्तं मनापं. मग्गसच्चं इदं कन्तं मनापन्ति एवं सवनेन कम्मं करोति । सो एवं करोन्तो चत्तारि सच्चानि एकपटिवेधेनेव पटिविज्झति एकाभिसमयेन अभिसमेति । दुक्खं परिञापटिवेधेन पटिविज्झति, समुदयं पहानपटिवेधेन, निरोधं सच्छिकिरियापटिवेधेन, मग्गं भावनापटिवेधेन पटिविज्झति । दुक्खं परिञाभिसमयेन...पे०... मग्गं भावनाभिसमयेन अभिसमेति । एवमस्स पुब्बभागे द्वीसु सच्चेसु उग्गहपरिपुच्छासवनधारणसम्मसनपटिवेधो होति, द्वीसु पन सवनपटिवेधोयेव । अपरभागे तीसु किच्चतो पटिवेधो होति, निरोधे आरम्मणपटिवेधो । पच्चवेक्खणा पन पत्तसच्चस्स होति । अयञ्च आदिकम्मिको, तस्मा सा इध न वुत्ता । इमस्स च भिक्खुनो पुब्बे परिग्गहतो "दुक्खं परिजानामि, समुदयं पजहामि, निरोधं सच्छिकरोमि, मग्गं भावेमी''ति आभोगसमन्नाहारमनसिकारपच्चवेक्खणा नत्थि, परिग्गहतो पट्ठाय होति । अपरभागे पन दुक्खं परिञातमेव...पे०... मग्गो भावितोव होति । तत्थ द्वे सच्चानि दुद्दसत्ता गम्भीरानि, द्वे गम्भीरत्ता दुद्दसानि । दुक्खसच्चहि उप्पत्तितो पाकटं, खाणुकण्टकपहारादीसु "अहो दुक्ख'"न्ति वत्तब्बतम्पि आपज्जति । समुदयम्पि खादितुकामताभुजितुकामतादिवसेन उप्पत्तितो पाकटं । लक्खणपटिवेधतो पन उभयम्पि गम्भीरं । इति तानि दुद्दसत्ता गम्भीरानि । इतरेसं पन द्विनं दस्सनत्थाय पयोगो भवग्गगहणत्थं हत्थप्पसारणं विय अवीचिफुसनत्थं पादप्पसारणं विय सतधा भिन्नस्स वालस्स 352 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.४०२-४०२) मग्गसच्चनिद्देसवण्णना ३५३ कोटिया कोटिपादनं विय च होति । इति तानि गम्भीरत्ता दुद्दसानि । एवं दुद्दसत्ता गम्भीरेसु गम्भीरत्ता च दुद्दसेसु चतूसु सच्चेसु उग्गहादिवसेन पुब्बभागजाणुप्पत्तिं सन्धाय इदं दुक्खे आणन्तिआदि वुत्तं । पटिवेधक्खणे पन एकमेव तं जाणं होति । नेक्खम्मसङ्कप्पादयो कामब्यापादविहिंसाविरमणसञानं नानत्ता पुब्बभागे नाना, मग्गक्खणे पन इमेसु तीसु ठानेसु उप्पन्नस्स अकुसलसङ्कप्पस्स पदपच्छेदतो अनुष्पत्तिसाधनवसेन मग्गङ्गं पूरयमानो एकोव कुसलसङ्कप्पो उप्पज्जति । अयं सम्मासप्पो नाम । मुसावादावेरमणिआदयोपि मुसावादादीहि विरमणसञ्जानं नानत्ता पुब्बभागे नाना, मग्गक्खणे पन इमेसु चतूसु ठानेसु उप्पन्नाय अकुसलदुस्सील्यचेतनाय पदपच्छेदतो अनुप्पत्तिसाधनवसेन मग्गङ्गं पूरयमाना एकाव कुसलवेरमणी उप्पज्जति । अयं सम्मावाचा नाम। पाणातिपातावेरमणिआदयोपि पाणातिपातादीहि विरमणसञानं नानत्ता पुब्बभागे नाना, मग्गक्खणे पन इमेसु तीसु ठानेसु उप्पन्नाय अकुसलदुस्सील्यचेतनाय अकिरियतो पदपच्छेदतो अनुप्पत्तिसाधनवसेन मग्गङ्गं पूरयमाना एकाव कुसलवेरमणी उप्पज्जति, अयं सम्माकम्मन्तो नाम । मिछाआजीवन्ति खादनीयभोजनीयादीनं अत्थाय पवत्तितं कायवचीदुच्चरितं । पहायाति वज्जेत्वा । सम्माआजीवेनाति बुद्धपसत्थेन आजीवेन । जीवितं कप्पेतीति जीवितप्पवत्तिं पवत्तेति । सम्माआजीवोपि कुहनादीहि विरमणसञानं नानत्ता पुब्बभागे नाना, मग्गक्खणे पन इमेसुयेव सत्तसु ठानेसु उप्पन्नाय मिच्छाजीवदुस्सील्यचेतनाय पदपच्छेदतो अनुप्पत्तिसाधनवसेन मग्गङ्गं पूरयमाना एकाव कुसलवेरमणी उप्पज्जति, अयं सम्माआजीवो नाम । ___ अनुष्पन्नानन्ति एकस्मिं वा भवे तथारूपे वा आरम्मणे अत्तनो न उप्पन्नानं । परस्स पन उप्पज्जमाने दिस्वा “अहो वत मे एवरूपा पापका अकुसलधम्मा न उप्पज्जेय्यु"न्ति एवं अनुप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं अनुप्पादाय । छन्दं जनेतीति तेसं अनुप्पादकपटिपत्तिसाधकं वीरियछन्दं जनेति । वायमतीति वायामं करोति । वीरियं 353 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ( ९.४०२ - ४०२ ) आरभतीति वीरियं पवत्तेति । चित्तं पग्गण्हातीति वीरियेन चित्तं पग्गहितं करोति । पदहतीति कामं तचो च न्हारु च अट्ठि च अवसिस्सतूति पदहनं पवत्तेति । दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा उप्पन्नानन्ति समुदाचारवसेन अत्तनो उप्पन्नपुब्बानं । इदानि तादिसे न उप्पादेस्सामीति तेसं पहानाय छन्दं जनेति । अनुप्पन्नानं कुसलानन्ति अप्पटिलद्धानं पठमज्झानादीनं । उप्पन्नानन्ति तेसंयेव पटिलद्धानं । ठितियाति पुनप्पुनं उप्पत्तिपबन्धवसेन ठितत्थं । असम्मोसायात अविनासनत्थं । भिय्योभावायाति उपरिभावाय । वेपुल्लायाति विपुलभावाय । भावनाय पारिपूरियाति भावनाय परिपूरणत्थं । अयम्पि सम्मावायामो अनुप्पन्नानं अकुलानं अनुप्पादनादिचित्तानं नानत्ता पुब्बभागे नाना, मग्गक्खणे पन इमेसुयेव चतूसु ठानेसु किच्चसाधनवसेन मग्गङ्गं पूरयमानं एकमेव कुसलवीरियं उप्पज्जति । अयं सम्मावयाम नाम सम्मासतिपि कायादिपरिग्गाहकचित्तानं नानत्ता पुब्बभागे नाना, मग्गक्खणे पन चतूसु ठानेसु किच्चसाधनवसेन मग्ग पूरयमाना एकाव सति उप्पज्जति । अयं सम्मासति नाम । झानानि पुब्बभागेपि मग्गक्खणेपि नाना, पुब्बभागे समापत्तिवसेन नाना, मग्गक्खणे नानामग्गवसेन । एकस्स हि पठममग्गो पठमज्झानिको होति, दुतियमग्गादयोपि पठमज्झानिका वा दुतियज्झानादीसु अञ्ञतरझानिका वा । एकस्सपि पठममग्गो दुतियादीनं अञ्ञतरझानिको होति, दुतियादयोपि दुतियादीनं अञ्ञतरज्झानिका वा पठमज्झानिका वा । एवं चत्तारोपि मग्गा झानवसेन सदिसा वा असदिसा वा एकच्चसदिसा वा होन्ति । अयं पनस्स विसेसो पादकज्झाननियमेन होति । पादकज्झाननियमेन ताव पठमज्झानलाभिनो पठमज्झाना वुट्ठाय विपस्सन्तस्स उप्पन्नो मग्गो पठमज्झानिको होति । मग्गङ्गबोज्झङ्गानि पनेत्थ परिपुण्णानेव होन्ति । दुतियज्झानतो वुट्ठाय विपस्सन्तस्स उप्पन्नो दुतियज्झानिको होति । मग्गङ्गानि पत्थ सत्त होन्ति । ततियज्झानतो वुट्ठाय विपस्सन्तस्स उप्पन्नो ततियज्झानिको । मग्गङ्गानि पत्थ झङ्गानि छ होन्ति । एस नयो चतुत्थज्झानतो वुट्ठाय याव सत्त, नेवसञ्ज्ञनासञायतनं । 354 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.४०४-४०४) मग्गसच्चनिद्देसवण्णना ३५५ आरुप्पे चतुक्कपञ्चकज्झानं उप्पज्जति, तञ्च लोकुत्तरं, नो लोकियन्ति वुत्तं, एत्थ कथन्ति ? एत्थापि पठमज्झानादीसु यतो वुट्ठाय सोतापत्तिमग्गं पटिलभित्वा अरूपसमापत्तिं भावेत्वा सो आरुप्पे उप्पन्नो, तं झानिकावस्स तत्थ तयो मग्गा उप्पज्जन्ति । एवं पादकज्झानमेव नियमेति । केचि पन थेरा “विपस्सनाय आरम्मणभूता खन्धा नियमेन्ती"ति वदन्ति । केचि "पुग्गलज्झासयो नियमेती"ति वदन्ति। केचि "वुढानगामिनिविपस्सना नियमेती"ति वदन्ति । तेसं वादविनिच्छयो विसुद्धिमग्गे वुट्ठानगामिनिविपस्सनाधिकारे वुत्तनयेनेव वेदितब्बो। अयं वुच्चति, भिक्खवे, सम्मासमाधीति अयं पुब्बभागे लोकियो अपरभागे लोकुत्तरो सम्मासमाधीति वुच्चति । इति अज्झत्तं वाति एवं अत्तनो वा चत्तारि सच्चानि परिग्गण्हित्वा, परस्स वा, कालेन वा अत्तनो, कालेन वा परस्स चत्तारि सच्चानि परिग्गण्हित्वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति । समुदयवया पनेत्थ चतुन्नं सच्चानं यथासम्भावतो उप्पत्तिनिवत्तिवसेन वेदितब्बा । इतो परं वुत्तनयमेव । केवलन्हि इध चतुसच्चपरिग्गाहिका सति दुक्खसच्चन्ति एवं योजनं कत्वा सच्चपरिग्गाहकस्स भिक्खुनो निय्यानमुखं वेदितब्द, सेसं तादिसमेवाति । चतुसच्चपब्बं निहितं । ४०४. एत्तावता आनापानपब्बं चतुइरियापथपब्बं चतुसम्पजञपबं द्वत्तिंसाकारं चतुधातुववत्थानं नवसिवथिका वेदनानुपस्सना चित्तानुपस्सना नीवरणपरिग्गहो खन्धपरिग्गहो आयतनपरिग्गहो बोज्झङ्गपरिग्गहो सच्चपरिग्गहोति एकवीसति कम्मट्ठानानि। तेसु आनापानं द्वत्तिंसाकारं नवसिवथिकाति एकादस अप्पनाकम्मट्ठानानि होन्ति । दीघभाणकमहासीवत्थेरो पन "नवसिवथिका आदीनवानुपस्सनावसेन वुत्ता''ति आह । तस्मा तस्स मतेन द्वेयेव अप्पनाकम्मट्ठानानि, सेसानि उपचारकम्मट्ठानानि । किं पनेतेसु सब्बेसु अभिनिवेसो जायतीति ? न जायति । इरियापथसम्पजचनीवरणबोज्झङ्गेसु हि अभिनिवेसो न जायति, सेसेसु जायतीति । महासीवत्थेरो पनाह “एतेसुपि अभिनिवेसो जायति । अयहि ‘अत्थि नु खो मे चत्तारो इरियापथा उदाहु नत्थि, अत्थि नु खो मे चतुसम्पजचं 355 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (९.४०४-४०४) उदाहु नत्थि, अस्थि नु खो मे पञ्चनीवरणा उदाहु नत्थि, अत्थि नु खो मे सत्तबोज्झङ्गा उदाहु नत्थी'ति एवं परिग्गण्हाति । तस्मा सब्बत्थ अभिनिवेसो जायती"ति । यो हि कोचि, भिक्खवेति यो हि कोचि, भिक्खवे, भिक्खु वा भिक्खुनी वा उपासको वा उपासिका वा। एवं भावेय्यातिआदितो पट्ठाय वुत्तेन भावनानुक्कमेन भावेय्य । पाटिकङ्घन्ति पटिकङ्कितब्बं इच्छितब्बं अवस्संभावीति अत्थो । अाति अरहत्तं । सति वा उपादिसेसेति उपादानसेसे वा सति अपरिक्खीणे। अनागामिताति अनागामिभावो । एवं सत्तन्नं वस्सानं वसेन सासनस्स निय्यानिकभावं दस्सेत्वा पुन ततो अप्पतरेपि काले दस्सेन्तो तिद्वन्तु, भिक्खवेतिआदिमाह | सब्बम्पि चेतं मज्झिमस्स वेनेय्यपुग्गलस्स वसेन वुत्तं, तिक्खपलं पन सन्धाय “पातोव अनुसिट्ठो सायं विसेसं अधिगमिस्सति, सायं अनुसिट्ठो पातो विसेसं अधिगमिस्सती"ति वुत्तं । इति भगवा “एवं निय्यानिकं, भिक्खवे, मम सासन''न्ति दस्सेत्वा एकवीसतियापि ठानेसु अरहत्तनिकूटेन देसितं देसनं निय्यातेन्तो “एकायनो अयं, भिक्खवे, मग्गो...पे०... इति यं तं वुत्तं, इदमेतं पटिच्च वुत्त"न्ति आह । सेसं उत्तानत्थमेवाति । देसनापरियोसाने पन तिस भिक्खुसहस्सानि अरहत्ते पतिहिंसूति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं महासतिपट्टानसुत्तवण्णना निद्विता। 356 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. पायासिराजञ्जसुत्तवण्णना ४०६. एवं मे सुतन्ति पायासिराजझसुत्तं । तत्रायमपुब्बपदवण्णना- आयस्माति पियवचनमेतं । कुमारकस्सपोति तस्स नामं। कुमारकाले पब्बजितत्ता पन भगवता "कस्सपं पक्कोसथ, इदं फलं वा खादनीयं वा कस्सपस्स देथा'"ति वुत्ते “कतरकस्सपस्सा'ति । “कुमारकस्सपस्सा"ति एवं गहितनामत्ता ततो पट्ठाय वुड्डकालेपि "कुमारकस्सपो" त्वेव वुच्चति । अपिच रञो पोसावनिकपुत्तत्तापि तं कुमारकस्सपोति सञ्जानिंसु। अयं पनस्स पुब्बयोगतो पट्ठाय आविभावकथा- थेरो किर पदुमुत्तरस्स भगवतो काले सेट्ठिपुत्तो अहोसि । अथेकदिवसं भगवन्तं चित्रकथिं एकं अत्तनो सावकं एतदग्गे ठपेन्तं दिस्वा भगवतो सत्ताहं दानं दत्वा “अहम्पि भगवा अनागते एकस्स बुद्धस्स अयं थेरो विय चित्रकथी सावको भवामी"ति पत्थनं कत्वा पुञानि करोन्तो कस्सपस्स भगवतो सासने पब्बजित्वा विसेसं निब्बत्तेतुं नासक्खि । तदा किर परिनिब्बुतस्स भगवतो सासने ओसक्कन्ते पञ्च भिक्खू निस्सेणिं बन्धित्वा पब्बतं आरुय्ह समणधम्मं अकंसु । सङ्घत्थेरो ततियदिवसे अरहत्तं पत्तो, अनुथेरो चतुत्थदिवसे अनागामी अहोसि, इतरे तयो विसेसं निब्बत्तेतुं असक्कोन्ता देवलोके निब्बत्ता । तेसं एकं बुद्धन्तरं देवेसु च मनुस्सेसु च सम्पत्तिं अनुभवन्तानं एको तक्कसिलायं राजकुले निब्बत्तित्वा पक्कुसाति नाम राजा हुत्वा भगवन्तं उद्दिस्स पब्बजित्वा राजगहं उद्दिस्स आगच्छन्तो कुम्भकारसालायं भगवतो धम्मदेसनं सुत्वा अनागामिफलं पत्तो। एको एकस्मिं समुद्दपट्टने कुलघरे निब्बत्तित्वा नावं आरुय्ह भिन्ननावो दारुचीरानि निवासेत्वा लाभसम्पत्तिं पत्तो “अहं अरहा"ति चित्तं उप्पादेत्वा “न त्वं अरहा, गच्छ, सत्थारं उपसङ्कमित्वा पऽहं पुच्छा"ति अत्थकामाय देवताय चोदितो तथा कत्वा अरहत्तफलं पत्तो। 357 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१०.४११-४११) एको राजगहे एकिस्सा कुलदारिकाय कुच्छिम्हि उप्पन्नो । सा च पठमं मातापितरो याचित्वा पब्बज्जं अलभमाना कुलघरं गन्त्वा गब्भं गण्हि । गब्भसण्ठितम्पि अजानन्ति सामिकं आराधेत्वा तेन अनुञाता भिक्खुनीसु पब्बजिता, तस्सा गब्भनिमित्तं दिस्वा भिक्खुनियो देवदत्तं पुच्छिंसु । सो “अस्समणी"ति आह । दसबलं पुच्छिंसु । सत्था उपालित्थेरं सम्पटिच्छापेसि । थेरो सावत्थिनगरवासीनि कुलानि विसाखञ्च उपासिकं पक्कोसापेत्वा सोधेन्तो “पुरे लद्धो गब्भो, पब्बज्जा अरोगा"ति आह । सत्था “सुविनिच्छितं अधिकरण"न्ति थेरस्स साधुकारमदासि । सा भिक्खुनी सुवण्णबिम्बसदिसं पुत्तं विजायि । तं गहेत्वा राजा पसेनदि कोसलो पोसापेसि । “कस्सपो''ति चस्स नामं कत्वा अपरभागे अलङ्करित्वा सत्थु सन्तिकं नेत्वा पब्बाजेसि। इति नं रञो पोसावनिकपुत्तत्तापि “कुमारकस्सपो"ति सञ्जानिंसूति । तं एकदिवसं अन्धवने समणधम्म करोन्तं अत्थकामा देवता पन्हे उग्गहापेत्वा “इमे पञ्हे भगवन्तं पुच्छा"ति आह । थेरो पञ्हे पुच्छित्वा पञ्हविस्सज्जनावसाने अरहत्तं पापुणि। भगवापि तं चित्रकथिकानं भिक्खूनं अग्गट्ठाने ठपेसि । सेतव्याति तस्स नगरस्स नामं । उत्तरेन सेतव्यन्ति सेतब्यतो उत्तरदिसाय | राजोति अनभिसित्तकराजा। दिट्ठिगतन्ति दिठ्ठियेव । यथा गूथगतं मुत्तगतन्ति वुत्ते न गूथादितो अचं अस्थि, एवं दिट्ठियेव दिट्ठिगतं । इतिपि नत्थीति तं तं कारणं अपदिसित्वा एवम्पि नत्थीति वदति । पुरा...पे०... सापेतीति याव न सापेति । चन्दिमसूरियउपमावण्णना ४११. इमे भो, कस्सप, चन्दिमसूरियाति सो किर थेरेन पुच्छितो चिन्तेसि “अयं समणो पठमं चन्दिमसूरिये उपमं आहरि, चन्दिमसूरियसदिसो भविस्सति पाय, अनभिभवनीयो अजेन, सचे पनाहं 'चन्दिमसूरिया इममिं लोके'ति भणिस्सामि, 'किं निस्सिता एते, कित्तकपमाणा, कित्तकं उच्चा'तिआदीहि पलिवेठेस्सति । अहं खो पनेतं निब्बेठेतुं न सक्खिस्सामि, ‘परस्मिं लोके' इच्चेवस्स कथेस्सामी''ति | तस्मा एवमाह | भगवा पन ततो पुब्बे न चिरस्सेव सुधाभोजनीयजातकं कथेसि । तत्थ “चन्दे चन्दो देवपुत्तो, सूरिये सूरियो देवपुत्तो'"ति आगतं । भगवता च कथितं जातकं वा सुत्तन्तं वा 358 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०.४१२-४१६) चोरादिउपमावण्णना ३५९ सकलजम्बुदीपे पत्थटं होति, तेन सो “एत्थ निवासिनो देवपुत्ता नत्थी'ति न सक्का वत्तुन्ति चिन्तेत्वा देवा ते न मनुस्साति आह । ४१२. अस्थि पन, राजञ, परियायोति अस्थि पन कारणन्ति पुच्छति । आबाधिकाति विसभागवेदनासङ्खातेन आबाधेन समन्नागता। दुखिताति दुक्खप्पत्ता । बाळ्हगिलानाति अधिमत्तगिलाना । सद्धायिकाति अहं तुम्हे सद्दहामि, तुम्हे मय्हं सद्धायिका सद्धायितब्बवचनाति अत्थो । पच्चयिकाति अहं तुम्हे पत्तियामि, तुम्हे मय्हं पच्चयिका पत्तियायितब्बाति अत्थो। चोरादिउपमावण्णना ४१३. उद्दिसित्वाति तेसं अत्तानञ्च पटिसामितभण्डकञ्च दस्सेत्वा, सम्पटिच्छापेत्वाति अत्थो। विप्पलपन्तस्साति “पुत्तो मे, धीता मे, धनं मेति विविधं पलपन्तस्स । निरयपालेसूति निरये कम्मकारणिकसत्तेसु । ये पन “कम्ममेव कम्मकारणं करोति, नत्थि निरयपाला"ति वदन्ति । ते "तमेनं, भिक्खवे, निरयपाला''ति देवदूतसुत्तं पटिबाहन्ति । मनुस्सलोके राजकुलेसु कारणिकमनुस्सा विय हि निरये निरयपाला होन्ति । ४१५. वेलुपेसिकाहीति वेळुविलीहि । सुनिम्मज्जथाति यथा सुट्ठ निम्मज्जितं होति, एवं निम्मज्जथ, अपनेथाति अत्थो । असुचीति अमनापो। असुचिसङ्घातोति असुचिकोट्ठासभूतो असुचीति आतो वा। दुग्गन्धोति कुणपगन्धो । जेगुच्छोति जिगुच्छितब्बयुत्तो। पटिकूलोति दस्सनेनेव पटिघावहो । उब्बाधतीति दिवसस्स द्विक्खत्तुं न्हत्वा तिक्खत्तुं वत्थानि परिवत्तेत्वा अलङ्कतपटिमण्डितानं चक्कवत्तिआदीनम्पि मनुस्सानं गन्धो योजनसते ठितानं देवतानं कण्ठे आसत्तकुणपं विय बाधति । ४१६. पुन पाणातिपातादिपञ्चसीलानि समादायवत्तेन्तानं वसेन वदति । तावतिंसानन्ति इदञ्च दूरे निब्बत्ता ताव मा आगच्छन्तु, इमे कस्मा न एन्तीति वदति । 359 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१०.४१८-४२४) ४१८. जच्चन्थूपमो मजे पटिभासीति जच्चन्धो विय उपट्ठासि । अरञ्जवनपत्थानीति अरञकङ्गयुत्तताय अरञानि, महावनसण्डताय वनपत्थानि । पन्तानीति दूरानि । ४१९. कल्याणधम्मेति तेनेव सीलेन सुन्दरधम्मे । दुक्खपटिकूलेति दुक्खं अपत्येन्ते । सेय्यो भविस्सतीति परलोके सुगतिसुखं भविस्सतीति अधिप्पायो । ४२०. उपविजञाति उपगतविजायनकाला, परिपक्कगब्भा न चिरस्सेव विजायिस्सतीति अत्थो । ओपभोग्गा भविस्सतीति पादपरिचारिका भविस्सति । अनयव्यसनन्ति महादुक्खं । अयोति सुखं, न अयो अनयो, दुक्खं । तदेतं सब्बसो सुखं ब्यसति विक्खिपतीति ब्यसनं । इति अनयोव व्यसनं अनयव्यसनं, महादुक्खन्ति अत्थो । अयोनिसोति अनुपायेन । अपक्कं न परिपाचेन्तीति अपरिणतं अखीणं आयुं अन्तराव न उपच्छिन्दन्ति । परिपाकं आगमेन्तीति आयुपरिपाककालं आगमेन्ति। धम्मसेनापतिनापेतं वुत्तं - "नाभिनन्दामि मरणं, नाभिनन्दामि जीवितं । कालञ्च पटिकजामि, निब्बिसं भतको यथाति ।। (थेरगा० १००१) ४२१. उभिन्दित्वाति मत्तिकालेपं भिन्दित्वा । ४२२. रामणेय्यकन्ति रमणीयभावं । वेलासिकाति खिड्डापराधिका। कोमारिकाति तरुणदारिका । तुम्हं जीवन्ति सुपिनदस्सनकाले निक्खमन्तं वा पविसन्तं वा जीवं अपि नु पस्सन्ति । इध चित्ताचारं “जीव"न्ति गहेत्वा आह । सो हि तत्थ जीवसञीति । ४२३. जियायाति धनुजियाय, गीवं वेठेत्वाति अत्थो । पत्थिनतरोति थद्धतरो । इमिना किं दस्सेति ? तुम्हे जीवकाले सत्तस्स पञ्चक्खन्धाति वदन्ति, चवनकाले पन रूपक्खन्धमत्तमेव अवसिस्सति, तयो खन्धा अप्पवत्ता होन्ति, विणक्खन्धो गच्छति । अवसिटेन रूपक्खन्धेन लहुतरेन भवितब्ब, गरुकतरो च होति । तस्मा नत्थि कोचि कुहिं गन्ताति इममत्थं दस्सेति। ४२४. निब्बुतन्ति वूपसन्तते । 360 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०.४२५-४३२) गूथभारिकादिउपमावण्णना ३६१ ४२५. अनुपहच्चाति अविनासेत्वा। आमतो होतीति अद्धमतो मरितुं आरद्धो होति । ओधुनाथाति ओरतो करोथ । सन्धुनाथाति परतो करोथ । निद्धनाथाति अपरापरं करोथ । तं चायतनं न पटिसंवेदेतीति तेन चक्खुना तं रूपायतनं न विभावेति । एस नयो सब्बत्थ। ४२६. सङ्खधमोति सङ्खधमको । उपलापेत्वाति धमित्वा । ४२८. अग्गिकोति अग्गिपरिचारको। आपादेय्यन्ति निप्फादेय्यं, आयुं वा पापुणापेय्यं । पोसेय्यन्ति भोजनादीहि भरेय्यं । वड्डेय्यन्ति वड्डिं गमेय्यं । अरणीसहितन्ति अरणीयुगळं । ४२९. तिरोराजानोपीति तिरोरटे अझस्मिम्पि जनपदे राजानो जानन्ति । अव्यत्तोति अविसदो अछेको । कोपेनपीति ये मं एवं वक्खन्ति, तेसु उप्पज्जनकेन कोपेनपि एतं दिट्ठिगतं हरिस्सामि परिहरिस्सामीति गहेत्वा विचरिस्सामि। मक्खेनाति तया वुत्तयुत्तकारणमक्खलक्खणेन मक्खेनापि। पलासेनाति तया सद्धिं युगग्गाहलक्खणेन पलासेनापि। ४३०. हरितकपण्णन्ति यं किञ्चि हरितकं, अन्तमसो अल्लतिणपण्णम्पि न होतीति अत्थो । सनद्धकलापन्ति सन्नद्धधनुकलापं | आसित्तोदकानि बटुमानीति परिपुण्णसलिला मग्गा च कन्दरा च । योग्गानीति बलिबद्दे । बहुनिक्खन्तरोति बहुनिक्खन्तो चिरनिक्खन्तोति अत्थो । यथाभतेन भण्डेनाति यं वो तिणकट्ठोदकभण्डकं आरोपितं, तेन यथाभतेन यथारोपितेन, यथागहितेनाति अत्थो । अप्पसारानीति अप्पग्धानि । पणियानीति भण्डानि । गूथभारिकादिउपमावण्णना ४३२. मम च सूकरभत्तन्ति मम च सूकरानं इदं भत्तं । उग्घरन्तन्ति उपरि घरन्तं । 361 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१०.४३४-४३८) पग्घरन्तन्ति हेट्ठा परिस्सवन्तं । तुम्हे ख्वेत्थ भणेति तुम्हे खो एत्थ भणे । अयमेव वा पाठो। तथा हि पन मे सूकरभत्तन्ति तथा हि पन मे अयं गूथो सूकरानं भत्तं । ४३४. आगतागतं कलिं गिलतीति आगतागतं पराजयगुळं गिलति । पज्जोहिस्सामीति पज्जोहनं करिस्सामि, बलिकम्मं करिस्सामीति अत्थो । अक्खेहि दिब्बिस्सामाति गुळेहि कीळिस्साम । लित्तं परमेन तेजसाति परमतेजेन विसेन लित्तं । ४३६. गामपट्टन्ति वुट्ठितगामपदेसो वुच्चति । "गामपद"न्तिपि पाठो, अयमेवत्थो । साणभारन्ति साणवाकभारं । सुसन्नद्धोति सुबद्धो। त्वं पजानाहीति त्वं जान । सचे गण्हितुकामोसि, गण्हाहीति वुत्तं होति । खोमन्ति खोमवाकं । अयन्ति काळलोहं। लोहन्ति तम्बलोहं । सज्झन्ति रजतं । सुवण्णन्ति सुवण्णमासकं । अभिनन्दिसूति तुस्सिंसु । ४३७. अत्तमनोति सकमनो तुट्ठचित्तो । अभिरद्धोति अभिप्पसन्नो । पञ्हापटिभानानीति पञ्हुपट्टानानि । पच्चनीकं कत्तब्बन्ति पच्चनीकं पटिविरुद्धं विय कत्तब्बं अमञिस्सं, पटिलोमगाहं गहेत्वा अट्ठासिन्ति अत्थो । ४३८. सङ्घातं आपज्जन्तीति सङ्घातं विनासं मरणं आपज्जन्ति । न महफलोति विपाकफलेन न महप्फलो होति । न महानिसंसोति गुणानिसंसेन महानिसंसो न होति । न महाजुतिकोति आनुभावजुतिया महाजुतिको न होति। न महाविष्फारोति विपाकविप्फारताय महाविप्फारो न होति । बीजनलन्ति बीजञ्च नङ्गलञ्च । दुक्खेत्तेति दुहखेत्ते निस्सारखेत्ते । दुभूमेति विसमभूमिभागे। पतिद्वापेय्याति ठपेय्य। खण्डानीति छिन्नभिन्नानि । पूतीनीति निस्सारानि । वातातपहतानीति वातेन च आतपेन च हतानि परियादिन्नतेजानि । असारादानीति तण्डुलसारादानरहितानि पलालानि । असुखसयितानीति यानि सुक्खापेत्वा कोटे आकिरित्वा ठपितानि, तानि सुखसयितानि नाम । एतानि पन न तादिसानि । अनुष्पवेच्छेय्याति अनुपवेसेय्य, न सम्मा वस्सेय्य, अन्वद्धमासं अनुदसाहं अनुपञ्चाहं न वस्सेय्याति अत्थो । अपि नु तानीति अपि नु एवं खेत्तबीजवुट्ठिदोसे सति तानि बीजानि अङ्कुरमूलपत्तादीहि उद्धं बुद्धिं हेट्ठा विरूळ्हिं समन्ततो च वेपुल्लं 362 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०.४३९-४४१) गूथभारिकादिउपमावण्णना ३६३ आपज्जेय्युन्ति । एवरूपो खो राजञ योति एवरूपं राजञ दानं परूपघातेन उप्पादितपच्चयतोपि दायकतोपि परिग्गाहकतोपि अविसुद्धत्ता न महप्फलं होति । एवरूपो खो राजञ योति एवरूपं राजञ्चदानं अपरूपघातेन उप्पन्नपच्चयतोपि अपरूपघातिताय सीलवन्तदायकतोपि सम्मादिट्ठिआदिगुणसम्पन्नपटिग्गाहकतोपि महप्फलं होति । सचे पन गुणातिरेकं निरोधा वुट्टितं पटिग्गाहकं लभति, चेतना च विपुला होति, दिट्टेव धम्मे विपाकं देतीति । ४३९. इमं पन थेरस्स धम्मकथं सुत्वा पायासिराजञ्जो थेरं निमन्तेत्वा सत्ताहं थेरस्स महादानं दत्वा ततो पट्ठाय महाजनस्स दानं पट्टपेसि । तं सन्धाय अथ खो पायासि राजोतिआदि वुत्तं । तत्थ कणाजकन्ति सकुण्डकं उत्तण्डुलभत्तं । बिलङ्गदुतियन्ति कञ्जिकदुतियं । घोरकानि च वत्थानीति थूलानि च वत्थानि । गुळवालकानीति गुळदसानि, पुञ्जपुञ्जवसेन ठितमहन्तदसानीति अत्थो । एवं अनुदिसतीति एवं उपदिसति । पादापीति पादेनपि । ४४०. असक्कच्चन्ति सद्धाविरहितं अस्सद्धदानं । असहत्थाति न सहत्थेन । अचित्तीकतन्ति चित्तीकारविरहितं, न चित्तीकारम्पि पच्चुपट्ठापेत्वा न पणीतचित्तं कत्वा अदासि । अपविद्धन्ति छड्डितं विप्पतितं । सुखं सेरीसकन्ति सेरीसकं नाम एकं तुच्छं रजतविमानं उपगतो। तस्स किर द्वारे महासिरीसरुक्खो, तेन तं “सेरीसक''न्ति वुच्चति । ४४१. आयस्मा गवंपतीति थेरो किर पुब्बे मनुस्सकाले गोपालदारकानं जेट्ठको हुत्वा महतो सिरीसस्स मूलं सोधेत्वा वालिकं ओकिरित्वा एकं पिण्डपातिकत्थेरं रुक्खमूले निसीदापेत्वा अत्तना लद्धं आहारं दत्वा ततो चुतो तस्सानुभावेन तस्मिं रजतविमाने निब्बत्ति । सिरीसरुक्खो विमानद्वारे अट्ठासि । सो पञ्जासाय वस्सेहि फलति, ततो पचास वस्सानि गतानीति देवपुत्तो संवेगं आपज्जति । सो अपरेन समयेन अम्हाकं भगवतो काले मनुस्सेसु निब्बत्तित्वा सत्थु धम्मकथं सुत्वा अरहत्तं पत्तो। पुब्बाचिण्णवसेन पन दिवाविहारत्थाय तदेव विमानं अभिण्हं गच्छति, तं किरस्स उतुसुखं होति । तं सन्धाय "तेन खो पन समयेन आयस्मा गवंपती"तिआदि वुत्तं । 363 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा (१०.४४१-४४१) सो सक्कच्चं दानं दत्वाति सो परस्स सन्तकम्पि दानं सक्कच्चं दत्वा । एवमारोचेसीति "सक्कच्चं दानं देथा"तिआदिना नयेन आरोचेसि । तञ्च पन थेरस्स आरोचनं सुत्वा महाजनो सक्कच्चं दानं दत्वा देवलोके निब्बत्तो। पायासिस्स पन राजञस्स परिचारका सक्कच्चं दानं दत्वापि निकन्तिवसेन गन्त्वा तस्सेव सन्तिके निब्बत्ता । तं किर दिसाचारिकविमानं वट्टनिअटवियं अहोसि । पायासिदेवपुत्तो च एकदिवसं वाणिजकानं दस्सेत्वा अत्तनो कतकम्मं कथेसीति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं पायासिराज सुत्तवण्णना निद्विता। निट्ठिता च महावग्गस्सत्थवण्णना । महावग्गट्ठकथा निद्विता। 364 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दानुक्कमणिका अकतकल्याणा-५४ अकनिट्ठगामी-२९८ अकनिट्ठा-६२,२९८ अकम्मासानि-११३ अकरणन्ति-६१ अकालविज्जुलता-१३१ अकिलन्तकायाति-२५ अकुसलकम्मपथे-१५२ अकुसलचित्तानि-३२९ अकुसलदुस्सील्यचेतनाय-३५३ अकुसलधम्मा-३५३ अकुसलन्ति-२१२ अकुसलवितक्का-२९५ अकुसलसङ्कप्पस्स-३५३ अक्खधुत्ता-१८७ अक्खरानि-१८३, १८४,२७५ अखण्डपञ्चसीला-२० अखण्डानि-११३,२७७ अगारववचन-८० अग्गगन्धं-२३६ अग्गधम्म-१६१ अग्गनगरन्ति-११७ अग्गन्ति-९ अग्गपुरिसो-२३२ अग्गपुरोहितो-२३६ अग्गफलं-३१८ अग्गभत्तं-२३६ अग्गमालं-२३६ अग्गसावका-२, २०,७०,१२५ अग्गसावको-५८ अग्गसाविका-७० अग्गळरुक्खं-१५७ अग्गिकोति-३६१ अग्गिक्खन्धा - २५१ अग्गितो-११७ अग्गिनिब्बायनं-२९ अग्गिपरिचारको-३६१ अग्गिवेस्सन -१०६, ३२८ अग्गोदकं -२३६ अघाति-२३ असोति-२६४ अङ्गपच्चङ्गविनिमुत्तएकधम्मानुपस्सी-३११ अङ्गीरसी-२६३ अङ्गुलिपब्बं -७० अङ्गुलिमालत्थेरो-२२१ अचित्तीकतन्ति-३६३ अचेलको-२९,३० अच्चन्तयोगक्खेमी-२९६ अच्चुतदेवता-२५४ अच्चुतो-१५ अच्छिद्दानि-११३ अच्छोदकाति-१४३ अजपालनिग्रोधे-४९,५५ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [अ-अ] अजरं-३५१ अजातसत्तु-९५, १७८ अजातसत्तुस्स-१२१ अजातं-४२,२९३, ३५१ अजाननकभेसज्ज-२०९ अजाननकारणं-१७१ अजेळकं-२९२ अज्झत्तबहिद्धा-३१९,३२२ अज्झत्तरतोति-१३१ अज्झत्तरूपे-१३५, १३६ अज्झत्तिकबाहिरानं-३३९ अज्झत्तिकायतनपरिग्गण्हनेन-३३७ अज्झारोहो-६९ अज्झासयप्पटिबद्ध -१६ अज्झासयो-१६, २९१ अज्झिट्ठपञ्हाति-२९८ अज्झुपेतचित्तो-२६४ अज्झेसनन्ति-५२ अज्झोकिरन्तीति-१४९ अज्झोत्थटचित्तो-१२९ अज्झोसानन्ति-८० अजसं-३०० अनचक्कवाळवसेन-१३५ अञ्जतरझानिका-३५४ अचतित्थिया-१६१ अञदत्थु-२२३ अञा-२५, ३०,७९,१६८, २२१, २३६, २६८ अासिकोण्डञ्जत्थेरो-१२५,१६१ अट्ठअभिभायतनवण्णना-१३५ अट्ठउसभवित्थतं-१८० अट्ठकथाचरिया-६४ अट्ठङ्गसमन्नागतोव-३७ अट्ठनिकमग्गद्वारविवरणस्स-२९ अट्ठङ्गिको मग्गो-३०१, ३०७ अट्ठविधलोभसहगतं -३२९ अट्ठविमोक्ने-९४ अट्ठसततहाविचरितं -२८१ अट्ठसमापत्तिवसिभावाय-६२ अट्ठसमापत्तिवसेन-१०७ अट्ठसंवेगवत्थुपच्चवेक्खणेन-३४५ अट्ठारस-५२,१६४,२८६,२९५ अट्ठिकसङ्घलिकं -३२६ अट्टिकार्य-३१२ अट्ठिचम्ममत्तेनेव-३४१ अट्ठिमिञ्जकायन्ति-३१२ अट्ठिवेधपुग्गला-२६८ अट्ठिसङ्घाटजटिता-१४८ अड्डकरणं-२६७ अणणोति-५५ अतक्कावचरोति-४९ अतथसभावं-८४ अतप्पा-६२ अतिकक्खळं-५९ अतिक्कन्तयोब्बनं-४१ अतिक्कन्तसंवच्छरानि-३२५ अतिगरुकं-१६ अतिचिररत्तं-२२६ अतिथिनो-२३१ अतिदस्सनकामताय-१७१ अतिदुल्लभो-६ अतिपगुणत्ता-९३ अतिप्पभेदगतारम्मणं-३०९ अतिभोजने-३३३ अतिरमणीयो-१४९ अतिरमणीयोति-६४ अतिविकालो-४४ अतिविप्फारिको-९० अतिविसुद्धेन-३७ अतिसुरभिगन्धो-१९६ अतिसंकिलिट्ठा-५१ अतुलं-३१,१३१ अतेकिच्छो-३३९ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अ- अ ] सद्दानुक्कमणिका H अत्थगम्भीरता - ७४ अत्थङ्गमोति – ३३६ अत्थदस्सी - ४ अत्थविञ्ञापनो - २०९ अत्थसहितन्ति - २७८ अत्थाभावतो - १६२ अस्थिभावं - १८० अत्युद्धारनयेनेतं - ३१३ अत्तज्झासयानुरूपाय - २९१ अत्तत्तनियाभावदीपका - ३४९ अत्तदण्डसुतं - २३९, २४० अत्तदीपाति - १२४ अत्तनियन्ति - ८७ अत्तनोमति - १४१, १४२ अत्तपञ्ञत्तिवण्णना- ८४ अत्तभावो - १८, २३, ३५, ९०, २१५, ३४९, ३५० अत्तमनोति - ३६२ अत्तसञ्ञ - ३१३,३२०, ३२७ अधिचित्तसिक्खा - २१३ अधिट्ठानकिच्चं - १७५ अधिट्ठानचित्तेन - १७४ अधिट्ठानपारमी- २१९ अधिपञ्ञासिक्खा - २१३ अधिमत्तगिलानं – ४१ अधिमुत्तिकालकिरियं - १८ अधिमोक्खकिच्चं - ३३९ अधिमोक्खबहुलता - ३३५ अधिवचनन्ति - ८८ अधिवचनपथोति - ८३८८ अधिवचनसङ्घातो - ८८ अधिवचनसम्फस्सो - ८१ अधिवासेसीति - १२२ अधिसीलसिक्खा - २१३ अनञ्ञाति - ३० अनत्ताति - ५७, २१२, २८२, ३३१ अत्तसम्पत्तिया - २७८ अत्तसरणाति - १२४ अत्ताति - ८४, ८५, ८६, ८७, ३१०, ३३१ अननुबोधाति - ७६, ११९ अननुसन्धिकन्ति - २८१ अननुस्सुतेसूति - ४६ अथाचरियत्थेरो - ३०१ अदण्डेनाति - ३१ अदुक्खमसुखं - ३१५, ३२७, ३२८ अनन्तत्राणं - २४७ अनन्तोति - ६९ अनन्तं - ८४ अनपलोकेत्वाति - १२२ अनभिरतभावं - २४०, २४१ अद्धनियं - १६ अद्धानपरिच्छेददीपनं - ९३ अद्धानमग्गप्पटिपन्नो - १४३, १७० अनभिसम्भवनीयोति - २०९ अनयब्यसनन्ति - ९५, ३६० अनयब्यसनं - १०१, ३६० अद्धवाति - २०४ अधम्मवादिनो - १७४ अधम्मिका - ६ अनागतवचनं - १७ अनागामिखीणासवदेवता - १५४ अनागामिखीणासवानं - २४३ अधम्मिकं - १०३ अधम्मेन - १७२ अधम्मो - १७३ अधिकरणन्ति - ३५८ अधिगन्तब्बनिमित्तं - ३०९ अधिगमसद्धा - १०७ अनागामिताति - ३५६ अनागामिफलेयेव - २६९ अनागामिफलं - ७५, २५८, ३५७ अनागामिभावो - ३५६ अनागामिमग्गानुसारिनो - २७१ 3 [३] Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [अ-अ] अनागामिमग्गं-२७० अनुत्तरं- १४६, २१९, २९३, ३२९ अनागामी-९३, २०६, २९१,३०५,३५७ अनुथेरो-३५७ अनातापिनो-३१३ अनुधम्मचरणसीला-१३० अनाथकालकिरियं-२०२ अनुधम्मचारिनोति-१३० अनाथपिण्डिको-२९८ अनुधम्मचारी-१५२ अनादीनवदस्साविनो-२८९ अनुपपत्ति-३५१ अनायूहनं-३५१ अनुपस्सति -३१२, ३१३ अनाराधको-१४४ अनुपस्सनसीलो-३११ अनालयोति-३५१ अनुपस्सना-३१३,३१४ अनावत्तिधम्माति-११९ अनुपस्सीति-३१४ अनावरणविमोक्खो-१६७ अनुपापुणन्ति-१०४ अनासवो-१५८ अनुपायमनसिकारो-३३१ अनिच्चतो-८७, ३१२,३१५ अनुपुब्बविहारपटिलाभस्स-२९ अनिच्चदुक्खानत्तअसुभभूतेयेव -३१२ अनुपुरोहिते - २२९ अनिच्चन्ति-५७,१४१, २१२,३३१ अनुप्पादनादिचित्तानं-३५४ अनिच्चलक्खणविभावनत्थं-१२२ अनुप्पादनिरोधेन- ४७ अनिच्चलक्खणं-१२२, २०४ अनुप्पादितरूपावचरज्झानोति-९२ अनिच्चसजाति-१०८ अनुप्पादो-३३१, ३३२, ३३३, ३३४, ३३५, ३३७, अनिच्चसापटिलाभो-२९४ ३५१ अनिच्चसुखदुक्खवोकिण्णन्ति-८६ अनुबुद्धिया-१४२ अनिच्चा-५७,८६,१३२,२०४,२८४,२८५,२९०, अनुभोति-३०६ ३०६, ३२८ अनुयुञ्जथाति-१५६ अनिच्चानुपस्सनादिका -१७ अनुयोगं-१५६ अनिच्चानुपस्सनाय-१०८ अनुराधपुरे-१०८,२०९ अनिट्ठविपाकदानन्ति-२२ अनुरुद्धत्थेरो-६,२९५ अनिब्बत्तिनिरोधं-४६ अनुरुद्धन्ति-१६९ अनिमित्तं-३५१ अनुरोधविरोधविप्पमुत्तो-३१४ अनिय्यानिकं-१३, १९ अनुलित्तचन्दनं-२०४ अनिस्सितो-३२० अनुलोमतो-७४ अनुकम्पकोति-१५७ अनुलोमपटिलोमतो-७४ अनुखुद्दकन्ति-१६५ अनुलोमपटिलोमन्ति-९३ अनुग्गहितपञाबला-२९९ अनुस्सरणसमताय-१४५ अनुच्छविकपटिपदं -१३० अनूपघातोति-६२ अनुहिताति - १२९ अनेकजातिसंसारन्ति-७० अनुत्तरन्ति-३२९ अनेकज्झासयो-२९५ अनुत्तरविमोक्खसङ्घातअरियफलधम्मेसु-२८५ | अनेकधातुनानाधातुस्मिं - २९६ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अ-अ ] अनेजकदेवता - २५४ अनेजोति - १६७ अनोतत्तदहं - २१ अनोनमन्तोति - ३४ अनोमदस्सी - ४ अनोमनदीतीरे - २१९ अनोमसत्तपरिभोगं - ३१ अन्तरधानन्ति - ३४९ अन्तरायो - ८२, १८१ अन्तलिक्खेति - २२ अन्तेवासिकसमानुपज्झायकादिके - ३४६ अन्तोउदकपोसीनि ५३ अन्तोजम्बुदीपाभिमुखा - ४४ अन्तोनिमुग्गपोसीनीति - ५३ अन्तोपरिसोकोति - ३४९ अन्तोलेणाभिमुखं - २५८ अन्तोविमाने - २६७ अन्तोसमापत्तियं - १३६, २६७ अन्तोसोको - ३४९ अन्दुबन्धनादीनि - २८ अन्धकाराति - २३ अपचयगामिं - २११ अपात्तं - ९७, १०३, १६५ अपदानन्ति - १४० अपरगोयाने - २४३ अपरद्धन्ति - - १३० अपरन्तजनपदोति - ६५ अपराजितसङ्घ - २४५ अपराधोति - १३८ अपरापरचुतिपटिसन्धीहि - ४५ अपरामट्ठानि - ११३ अपरिच्छिन्नदुक्खानुभवनं - १५६ अपरियोसितसङ्कप्पोति - २९८ अपरिसुद्धानि - ३३९ अपरिहानियेति - १०२ अपलिबुद्धी - २०९ सद्दानुक्कमणिका " अपलोकनकम्मं - १३९ अपविद्धन्ति - २६३ अपस्सेनफलकं - २२१ अपायदुक्ख - ३४५ अपायभयपच्चवेक्खणता - ३४० अपायभयं - ३४१ अपायोति - ७७ अपारुताति- ५५, २१४ अपिलापनता - ३१५ अपूरितपारमी - ७६ अप्पटिक्खित्तं - १४१ अप्पटिपुग्गलोति - १६७ अप्पटिवत्तियधम्मचक्कप्पवत्तनस्स - २८ अप्पटिविभत्तभोगी - ११० अप्पटिवेधाति - ७६, ११९ अप्पटिसन्धि - ३५१ अप्पटिसंवेदनो - ८५ अप्पणिहितं - ३५१ अप्पना - ३४० अप्पनाकम्मट्ठानानि - ३२६, ३५५ अप्पनासमाधि - ३२९ अप्पनिग्घोसो - ११२ अप्पनं - १३६, ३४०, ३४६ अप्पमाणाभा - ९० अप्पमादविहारी - २६० अप्पमादेन - १२१, १६६ अप्पमंसलोहितत्ता - १४८ अप्परजक्खजातिकाति - ५२ अप्पलाभा - २३५ अप्पवत्तिनिब्बानं - ३४७ अप्पवत्तं - ३५१ अप्पसारानीति - ३६१ अप्पो सुक्को - १२५ अब्भवलाहकदेवता - १५३ अब्भवलाहका - ६, २५४ अब्भोकासवासो -- ३३३ 5 [4] Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [अ-अ] अब्यग्गनिमित्तन्ति-३४५ अब्याकतमेतं-७८, १४१ अब्याधि -३५१ अब्यापज्जाति-१०९,२७८ अब्यापज्जो-१५८ अभयगिरिचेतियपब्बतचित्तलपब्बतमहाविहारसदिसाव अभयचोरनागचोरादयो-२३ अभावकालो-२ अभिक्कन्तवण्णोति-२१५ अभिज्झा-३१५ अभिज्झादोमनस्सन्ति-३१३,३१५ अभिज्झाविनयेन -३१३ अभिज्ञाचित्तसम्पयुत्तानं-२१० अभिआपादकज्झानं-२४७ अभिजाबलेन-१३३ अभिज्ञायाति-२३७, २४९ अभिण्हसमुदाचारवसेन -३३० अभिधम्मपिटकं-१६४,२१३ अभिनन्दितब्बन्ति-१३९ अभिनन्दित्वा-१००,२३७ अभिनवविपस्सनं-१२३ अभिनवसुङ्कादीहि-९७ अभिनिब्बत्तेतीति-२१३ अभिनिवेसो-२८२, ३५२, ३५५, ३५६ अभिनीलनेत्तोति-३७ अभिनीहारसम्पन्नोसीति-१५८ अभिनीहारो-४,१५१, ३२१ अभिप्पकिरन्तीति-१४९ अभिभवनसचा --१३६ अभिभायतनानीति-१३५ अभिभुय्याति - १३५, १३६ अभिभू-९, २७१ अभियातुकामोति-९५ अभिसयारा-५२ अभिसमयो-१३,१९,४५, १२५, २५७ अभिसम्परायन्ति-२०७ अभिसम्बुद्धो-८,१६,१३७, १४५,१४६ अभिसम्बुद्धोति-८ अभिसम्बोधि-१७० अभिसम्बोधिजाणं-५६ अभिसम्बोधितो-१६४ अभिसित्तो-२०९, २२७, २२८ अमङ्गले -२०० अमतमहानिब्बानं -१४४ अमतं-१२८,२६१,२६५, ३५१ अमधुरन्ति-२२४ अमनुस्सदस्सनत्थं-२४९ अमनुस्सा - २४,७८, ९९, १८१ अमहग्गतन्ति-३२९ अमिता -७० अमूळ्हो-२९७ अमोघाति-२३६ अम्बजम्बुपक्कानं -८२ .. अम्बट्ठसुत्ते-२३८ अम्बपालि-१२१ अम्बपालिवनेति-१२१ अम्बपालीति-१२१ अम्बरुक्खतो-८१ अम्बलट्ठिकार्य-२०४ अम्बवनन्ति-१४५ अम्बवनेति-१४२ अम्बसण्डा-२६० अम्बिलयागु-३४१ अम्बुजोति-२६४ अयदण्डकेन-७६ अयमन्तिमा-२८ अयमहमस्मीति-८६ अयोनिसोमनसिकारं-३३२,३३३, ३३४ अरञकङ्गयुत्तताय-३६० अरञज्झासया-११५ अरञविहारे-३०४ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अ-अ] सद्दानुक्कमणिका अरञसेनासनं-३१८ अरियसच्चानन्ति-११९ अरञारामा-११५ अरियाति-११४ अरणीसहितन्ति-३६१ अरियायतनवणिप्पथानं-११७ अरति-३३३ अरियोति-३५२ अरतिरतिसहो-३१४ अरुणसिखाय-१२८ अरहतीति-४०,३०८ अरूपकम्मट्ठानञ्च-२८१ अरहत्तनिकूटेन-१२४, २३७, २९०, ३५६ अरूपकम्मट्ठानं-२८२,२८३, २८४, ३२७,३२८ अरहत्तप्पत्तखीणासवे-२४३ अरूपक्खन्धगोचरं-८५ अरहत्तप्पत्तभिक्खु-२४२. अरूपसञीति-९२,१३६ अरहत्तफलं-३५७ अरूपसत्तकं-१२३ अरहत्तमग्गविज्जा-२१२ अरूपसमापत्तिं-३५५ अरहत्तमग्गसुखञ्चेव-२१२ अरूपावचरज्झानम्पि-९३ अरहत्तमग्गेन-३३१, ३३३, ३३४, ३३७, ३३८, | अरूपावचरज्झानानं-२९ ३४०, ३४३, ३४४, ३४५, ३४६, ३४७ अरूपावचरदेवता-२४३ अरहत्तं-१०, २८,५५,७५, ९१,९३,१०५, १०६, अरूपिन्ति-८५ १२०, १२२, १२५, १३२, १३३, १४८, १५३, अरोगाति-३५८ १५८, १६३, २०१, २४१, २४२, २८५, २८६, अलमत्थदसतरोति-२२७ २८७, २८८, २९०,३०३, ३०४, ३०५, ३१८, अलाबुमत्ता-५ ३१९, ३२७, ३४२, ३५६, ३५७, ३५८, ३६३ ।। अलाभाति-१४५ अरहन्तोति-१५३ अलं फासुविहाराय-३३१ अरहाति-३५७ अलंसाटक-३३३ अरिट्ठकदेवा-२५४ अल्लकप्पं-१८३ अरियदेवता-२४७ अल्लीयन्ति-४९ अरियधनदायज्जं-३४३ अवकारो-५६ अरियधनानि-३४२ अवचो-२९६ अरियधम्मन्ति-२१२ अवन्तीनं-२२८ अरियपुग्गला-८५ अविक्खेपकिच्चं-३३९ अरियफलानि-३१८ अविखेपलक्खणो-१०८ अरियब्रह्मानो-२५६ अविचारन्ति-२८४,२९० अरियभूमि-५२, २८५, २९५ अविज्जन्धकारं-२९ अरियमग्गधम्मस्स-१६२ अविज्जा-७६,८७, २१२ अरियमग्गेन - ४७, १३२, १४६, २२५, ३१०, ३५१ अविज्जाति-८७ अरियमग्गोति-४६ अविज्जादिपटिच्चसमुष्पादं-३१९ अरियवंसदेसनाय-३०७ अविज्जानिरोधा-४७,९१ अरियवंसं-१०२, ११३ अविज्जानुसयन्ति-७५ अरियसबो-२५५ अविज्जापच्चयसम्भूतसमुदागतट्ठो-७४ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [अ-अ] अविज्जासङ्खारा-४५ अविज्जासमुदया-४७, ९१, ३२२, ३२९, ३३०, ३३६, ३३७ अविज्जासंयोजनन्ति-३३६ अवितक्कअविचारदोमनस्सन्ति-२८६ अवितक्कअविचारदोमनस्सफलसमापत्तीति-२८६ अवितक्कअविचारधम्मे-२८६ अवितक्कअविचारविपस्सना - २८५ अवितक्कअविचारसोमनस्सफलसमापत्तियेव-२८५ अवितक्कअविचारं-२८५, २८९ अवितक्काविचारउपेक्खाविपस्सनापणीततरा-२९० अवितक्काविचारदोमनस्सन्ति - २८९ अवितक्काविचारदोमनस्सविपस्सना-२८९ अवितक्काविचारुपेक्खाफलसमापत्तियेव-२९० अवितक्काविचारे-२८९ अवितक्कं-२८४, २९० अविनट्ठब्रह्मलोका-५ अविनयवादिनो-१७४ अविनयो-१७३ अविनिपातधम्मोति-१२० अविनिपातो-२०७ अविमुत्तन्ति-३३० अविसारदोति-११५ अविसुद्धत्ता-३६३ अविहञ्जमानोति-१२२ अविहिंसाति-४२ अविहेहि-६३ अवीचिपरियन्तं-७९ अवीचिफुसनत्थं-३५२ अवीचिम्हि -२८,२९ अवीतरागाति-१६८ अवूपसन्ताकारो-३३३ अवेच्चप्पसादेनाति- १२०, २१४ असक्कच्चन्ति-३६३ असङ्गहितपुप्फरासिसदिसो-१७३ असञ्जसत्ता-९० असञसत्तायतनं-८८ असञ्जा-१४३, २४३ असति-२,१३,१९,४५,४६,८१,८२,९९,१०५, ११०,३१९ असत्थेनाति-३२ असन्तन्ति-३३०,३३८ असन्तुट्ठिया-१४० असपत्ताति-२७८ असबलानि-११३ असमदेवता-२५४ असमा-७०,२५४ असमाहितन्ति-३२९ असमाहितपुग्गलपरिवज्जनता-३४५ असल्लीनेनाति-१६७ असहनलक्खणं-२७९ असात-३१५, ३४९ असाधारणाणानि-४८ असिचम्महत्थो-२३३ . असीतिमहासावका-११ असीलो-११५ असुकमग्गोति-३०८ असुकविहारभिक्खू-१०५ असुकसतिपट्टानं - २९९ असुकोति-२३३ असुञो-१६२ असुत्तनामकं-१४० असुभनिमित्तं -३३१ असुभन्ति - ५०, २१२, ३३१ असुभभावनानुयोगो-३३१ असुभसवा-२९४ असुभसादिपटिलाभो-२९४ असुभासुखभावादीनं -३१४ असुरकायं-५७ असुरभवने-२७८ असुरा-९०, २२३, २५३, २७८,२९७ असेवितब्बकायसमाचारो-२९१ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आ-आ] सद्दानुक्कमणिका [९] असेवितब्बवचीसमाचारो-२९१ असेसनिरोधो-३५१ असेसविरागनिरोधोति-३५१ असेसविरागो-३५१ असोको-१८३, १८४ असंकिलिट्ठन्ति-३५१ अस्मिमानसमुच्छेदस्स-२९ अस्सकानञ्च -२२८ अस्सजिपुनब्बसुका-१०३ अस्सयुजनक्खत्तेन-१६ अस्सरतनं-३१,१९४, २०४ अस्सराजा-१९४ अस्सवनताति-५२ अस्सादन्ति-९१ अस्सामिकभावपच्चवेक्खणेन-३४६ अस्सारोहानं-२८० अस्सासपस्सासकायो-३१९ अस्सासपस्सासनिमित्ते-३१८ अस्सासपस्सासनिरौधोति-३१९ अस्सासपस्सासोति-१६७ अस्सुधारा-२८६,२८८ अहंकारो-८६ आगमनचिन्तनत्थं-१९४ आगमनतण्हा-२३० आगमनीयसद्धा-१०७ आचरियकन्ति-१३० आचरियमुट्ठीति-१२३ आचरियवादो-१४१ आचारपञ्चत्ति-१५२ आचारपञत्तिसिक्खापदपज्ञापनं-१०९ आचारसिक्खापर्क-१०५ आजीवट्ठमकसीलं-२९२ आतप्पमकरुन्ति-२५७ आतापीति-३१३, ३१४ आदिकम्मिको-३५२ आदिकल्याणं-३०७ आदिच्चबन्धुनन्ति-२९८ आदिब्रह्मचरियन्ति-२२५ आदीनवन्ति-५७,९१,२७० आदीनवानुपस्सनावसेन-३२६, ३५५ आदेवो-३४९ आधारकं- १०५ आधिपतेय्यसंवत्तनिकन्ति-१४६ आनन्दजननी-२६३ आनन्दत्थेरसदिसा-१०७ आनन्दत्थेरो-६,११,१६, १४५,२९५ आनापानचतुत्थज्झानं-१४,३१७ आनापानपब्ब-३२०,३२६,३५५ आनापानस्सतिकम्मट्ठानं-३१७ आनिसंसदस्साविता-३४० आनुभावसम्पन्नो-२५६ आपाथगतं-३३६ आपायिका-२३२ आपोकायं-३१२ आपोधातु-३२४ आबाधिकाति-३५९ आबाधिकं-४१ आबाधोति-१२२ आ आकडमनसिकारचित्तुप्पादपटिबद्धमेव-३ आकारभावनिद्देसो-३४८, ३४९ आकासगङ्गं-११६ आकासट्टकदेवता-६, १५३ आकासट्टकभूमट्ठकरतनानि-२८ आकासट्टकविमानानि-६,७ आकासपदुमानि-८, १४९ आकासपब्बतरुक्खगता-२८ आकासानञ्चायतनादीसु-९३ आकोटितकंसतालं-७६ आगतत्तासमन्तपासादिकायं-१६५ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा आभस्सराति-९० आलयसम्मुदिता-४९ आभिधम्मिकभिक्खू-२०९ आलिङ्गन्ता-२५३ आमगन्धसुत्तेन -२३२ आलोकदस्सनसमत्थं -३१ आमिसपूजा-१५१ आलोकसज्ञामनसिकारो-३३३ आमिसप्पटिविभत्तं-११० आलोकोति-४६ आयतनकथा-३३७ आवज्जनपटिबद्धं - १७१ आयतनपरिग्गहो-३५५ आवज्जनपरियायो-२० आयतनपरिग्गाहिका-३३७ आवसथागारन्ति-११४ आयतनलोको-५२ आवासमच्छरियेन- २७९ आयतपण्हीति-३३ आवासिको-२६९, २७१ आयाचनाति-१२ आवुधदण्डधनदण्डविनिमुत्ता-२७८ आयासोति-३४९ आवुधसम्पहारो-१७९ आयुकप्पं-१२९ आसनपज्ञापनं-१०९ आयुपरिक्खयं-३०६ आसनसालायं-१११,२८७ आयुपरिच्छेदो-१३ आसयानुसयत्राणेन -५२ आयुप्पमाणं-७,१६,२६, ८९, ९०, १२९ आसवक्खयो-२९५ आयुवेमत्तं-१६ . आसवाति-२५५ आयुसङ्खारोति- १२५ आसवेहि विमुच्चति-११४ आयुसङ्खारोस्सज्जनं-१७० आसावती-२१७ आयुसङ्घारं-५, १२५, १३१, १३२, १३५, १३७, | | आसाळ्हीपुण्णमाय-२०८ १५०, २१९ आहारट्ठितिका-५२ आरक्खाधिकरणन्ति-८० आहारनिरोधाति-९१ आरक्खोति-८० आहारपरियेट्ठिमूलकं-३४५ आरकेसूति-१०४ आहारसमुदयाति-४७ आरद्धविपस्सको-१६२ आळवकसुत्ते- २०० आरद्धवीरियपुग्गलसेवनता-३४० आळारोति-१४३ आरद्धवीरियाति-१०७ अंसकूट-३८ आरम्भधातु-३३३,३४० आरम्मणपटिवेधो-३५२ आरम्मणप्पटिलाभो-२५ आरामिकसदिसा-१२७ इच्छा-२३२,३५० आरोपितदीपा-१८४ इट्ठकायो-१८४ आरोहणकिच्चं-२१७ इतिपीति-३,२१४ आलम्बणफलकं-२८८ इतिवुत्तकं-१४० आलयन्ति-४९ इत्यत्तन्ति-८४ आलयरामाति-४९ इत्यभावाय-८२ 10 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उ-उ] सद्दानुक्कमणिका [११] इत्थिकम्म-२२ इत्थिगब्मो-२१ इस्थिरतनं-३१,१९५,१९६ इद्धिकोट्ठासं-२११ इद्धिपादा-१६४, २१० इद्धिपादोति-२१० इद्धिमन्तोति-२४९ इद्धिमयपत्तचीवरस्सूपनिस्सयं-५६ इद्धिविकुब्बनतायाति-२१० इद्धिविधन्ति-२११ इद्धिविसवितायाति-२१० इन्दनीलमया-१८७ इन्दनीलमयो दण्डो-२६२ इन्दसालगुहाति-२६० इन्दसालगुहायं-२६१ इन्दसालरुक्खो-२६० इन्द्रियसमत्तपटिपादनता-३४५ इन्द्रियसंवरो-२९६ इन्द्रियानि-५२, १४४, १४५, १६४, २०७, २४५, ३४२, ३४८ इन्द्रियेसु गुत्तद्वारता-३३१ इरियापथपब्बं -३२२,३२६ इरियापथसम्पजञ्जनीवरणबोज्झनेसु-३५५ इरियापथसम्परिवत्तनता-३३३ इसिपतनं-५५, १५०, २१९ इस्सरो-३० इस्सामच्छरियसंयोजनाति-२७८ उच्छेदवादी-८४ उजुप्पटिपन्नतादिभेदं - २१८ उजुमग्गोति-२३५ उज्जङ्गलनगरकेति-१५९ उद्यानसवं-१४९ उण्णाति-३७ उण्हीससीसो-३८ उण्हीसं-३२, ३८ उतुइरियापथे-३४४ उतुनियामो-२२ उतुसप्पायं-२८३ उतुसुखसेवनता-३४४ उतुसुखं-३६३ उत्तमदीपो-६४ उत्तममनुस्सानं-६४ उत्तमसीलं-६२ उत्तमोति-२९८ उत्तरकुमारो-७० उत्तरकुरुम्हि - २४३ उत्तरचूळिकवारो-२१० उत्तरमाता-८९ उत्तरसीसकन्ति-१४७ उत्तरो-९,१४ उत्तानकुत्तानको-६७,६८,७५ उत्तासितपुरिसो-१२३ उदककिच्चं-१५३ उदकतुम्बतो -६७, १६३, १७० उदकतुम्बं -२०१ उदकधाराति-१७५ उदकपुब्बुळसदिसं -३८ उदकलेणं-१३३ उदकानुपस्सिनो-३१२ उदकं पिवे-३३१ उदपादीति-२,४,४६,५८,६१, १४६, २६०, २६७ उदयब्बयपाय-३४० उदयब्बयविपस्सनं-४७ उक्कचेलं-१२८ उक्कापातभूमिचालचन्दग्गाहादीनि-१९ उक्कायो-३०५ उग्गहणकुसलता-३४५ उग्घटितञ्जूति-५३ उच्छेददिट्ठिसहगतो-८० Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [उ-उ] उदयब्बयानुपस्सिनो - ४७ उदयब्बयानुपस्सीति-४६ उदरपटलं-२५ उदानं-५,२९,७०,१३१,१३२,१३३, १४०,१४६, २३८,३०४, ३०५, ३४२ उदुम्बररुक्खे-९ उदेनचेतियन्ति-१२९ उदेनाति-२६ उद्धग्गलोमोति-३४ उद्धच्चकुक्कुच्च-३३३, ३३४ उद्धच्चपाततो-३४० उद्धच्चसहगतञ्चाति-३२९ उद्धमातं-३२५ उपकरणतण्हं-२३१ उपको-५५ उपक्किलेसेहि-२४२, ३०२ उपचारकथं-२०२ उपचारकम्मट्ठानानि-३५५ उपचारज्झानानि-२१३ उपचारप्पनासमाधिवसेन-१३१ उपचारसमाधि-३२९ उपट्ठाककिच्चं-११,१४४ उपट्ठाकपरिच्छेदो-१३, १५ उपट्ठाकभावं-७३ उपट्ठानकिच्चं-३३९ उपट्ठानलक्खणो-१०८ उपट्ठानसालं-२६८ उपट्टितस्सतिपुग्गलसेवनता-३३८ उपट्टितस्सतिपुग्गले-३३८ उपट्टितस्सतीति-१०७, १०८ उपतिस्स-१२८ उपत्थम्भनं-१०५ उपधयो-५०,२९२,२९३ उपनिस्सयपच्चयेन-२२ उपनिस्सयं-५५, १२५ उपपत्तिभवे-७९ उपयोगवचनं-६६ उपराजहाने-८३ उपरिमकायो-३३,३४ उपरेवतो-१२६ उपवत्तनेति-१४५ उपवाणोति-१५२ उपवानो-१० उपविजजाति-३६० उपसमलक्खणो-१०८ उपसमानुस्सति-३४४ उपसम्पदाति-६१ उपसेनो-१०३ उपादानक्खन्धा-३१३,३१५,३३५ उपादानक्खन्धेसूति-४६,३३५ उपादानपच्चया भवोति-७९ उपायमनसिकारो-२१२,३३१ उपायासो-३४९ उपालित्येरसदिसे-३३४ ।। उपेक्खा-२८९, २९०, २९६ उपेक्खापहविस्सज्जनावसाने -२६१, ३०६ उपेक्खाब्रह्मविहारे-१६७ उपेक्खासम्बोज्झङ्गो-१०८,३४७ उपेक्खासहगतेनाति-२१ उपेक्खासहगतं-९३ उपोसथकम्म-७२,२०० उपोसथकुलं-२०४ उपोसथदिवसे-१०,२८७,३०४ उपोसथपवारणा-१०२ उपोसथो-१४७,१९३ उप्पज्जनकउपेक्खा-२९० उप्पज्जनकदोमनस्सं-२८५ उप्पज्जनकसम्फस्सो-८१ उप्पज्जनकसोमनस्सं - २८४ उप्पथमनसिकारो-३३१ उप्पलिनियन्ति-५३ उप्पादवयधम्मा-८६ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ऊ-ए] उप्पादवयधम्मिनोति - १६७ उप्पादवयसभावा- १६७ उप्पादितज्झानस्स - ९२ उभतोभागविमुत्तपञ्हो - ९३ उभतोभागविमुत्तो - ८८, ९३ उभतोभागविमुत्तोति - ९३, ९४ उभतोविभङ्गो - १६४ उभयनगरवासिनो - २४० उभयविमुत्तिविरहितं - ३३० उभयसमाधिविरहितं - ३३० उमापुप्फदेवा - २५४ उमापुप्फन्ति - १३६ उमापुप्फसदिसेन - ३७ उय्यानभूमियाति – ४१ उसूया - २३२ उस्मा - ३२५ उसङ्घपादो १- ३३ उस्सन्नपुञ्ञनिस्सन्दसमुप्पन्नो - २२० उस्सितसुवण्णतोरणं - ३४ उळारोति - २२, २०८ उम्पन्ति - ११८ ऊ ऊन आयुकालोपि - १९ ए एकगन्धकुटियं - १२ एकग्गता - ३४० एकच्छन्दा - २७२ एकत्तकाया - ९० एकत्तसञ्चिनोति - ९० एकत्तसमोसरणवसेन - ३१० एकथालिपाको २०३ एकधम्मोप - ८६ सद्दानुक्कमणिका एकन्तछन्दाति - २९५ एकन्तवल्लभो - ७३ एकन्तवादाति - २९५ एकपटक धरा एकमग्गो - ३०० - ८५ एक मिदाहन्ति - ९९, १३८ एकविहारे - ५४, २४६ एकसन्धि - ७४ एकादस अग्गिनिब्बायनस्स - २९ एकायनमग्गोति- ३०९ एकायनोति -३००, ३०१ एकायनं - ३०१ एकासनिकखलुपच्छाभत्तिकानं - २ एकीभूतो - २३१ एकोघपुण्णा - २२३ एकोदिभूतोति - २३१ एकसब्याकरणीयो - १४१ एजाति - २९६ एणिजयोति - ३३ एरावणो - ६४, २५२ एवमादिदोसदस्सनत्थंएवं धम्मात - १७ एवं पञ - १७ एवंमहानुभावा- २३ एवंमहिद्धिकाति - २३ एवंमहिद्धिकेति - ९५ एवंमहिद्धिको - ३० एवंसञ्जी - १३६ एवंसीला - १७ एसनतण्हा - ७९ एसिकत्थम्भो - १८६ एसितता - ७९ एका कं 13 - २७७ - ८६ [१३] Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [ओ-क] ओळारिकं-७५,८७,१३८,१५४, २०९, ३०९ ओ ओकप्पनसद्धाति-१०७ ओकारोति-५६ ओकासकरणथं--२६२ ओकासपरिदीपनं-९३ ओकासाधिगमो-२१३ ओक्कन्ति-३४८ ओघतरं-२५५ ओघतिण्णं-२५५ ओघन्ति-३०१ ओतिण्णचित्तो-१५६ ओतिण्णब्रह्मा-२४४ ओत्तप्पीति-१०७ ओदातकसिणं-२४४ ओदातगव्हा-२५५ ओदातचित्ता-२४८ ओदातपरिकम्म-१३५ ओदातमनसा-२४८ ओदातरस्मियो-२४४ ओदाताति-३७ ओपमो -२५२ ओभासजातोति-२६२ ओरकोति-४३ ओरमत्तकेनाति-१०६ ओरम्भागियानि-११९ ओरसन्ति-११८ ओसधितारकम्पि-३६ ओसधितारकोभाससदिसं-३ ओसन्नवीरिया- १२१ ओसरणसमोसरणं-८१ ओस्सट्ठो-१२५ ओहितसोतो-४१ ओळारिकाति-२१२ ओळारिकारम्मणे-३०९ ककुसन्धोति-१४ कङ्घाति-१६५, २७९ कसाधम्मोति-१६१ कझाविनोदको-२६३ कजियेन-३४१ कणतण्डुलेहि-३४१ कणमत्ता-५ कणाजकन्ति-३६३ कणिकारपुप्फसदिसेन -३७ कण्टकोति-२०२ कणिकूपगं-२७४ कण्हसुक्कसप्पटिभाग-२१२ कण्हो-१३०, २५६ कतकम्मं -३७, १३२, ३६४ कतपापपटिच्छादनलक्खणाय-२५१ कतपुञ्जे-२६९ कतमङ्गलसक्काराय-२१ कतयोगस्स-६८ कतावकासा-२७१ कतिकवत्तं-१०२,१०३ कत्तब्बन्ति-२७२,३६२ कत्तरदण्डे -३०५ कत्तरयट्टि-२०१ कत्तुकम्यताछन्दं-२१० कथेतुकम्यता-३११ कनकविमानं-२१ कपणमनुस्सा -८९ कपिलवस्थुनगरस्स-२३८ कपिलवत्थु-७३,१८३,२४९ कपिसीसा - ३८,१४३ कप्पपरिच्छेदो-१३ कप्पावसेसं-१२९ 14 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [क-क] सद्दानुक्कमणिका [१५] कम्बलवाणिजादयो-३०८ कम्बलस्सतराति-२५२ कम्मक्खयकरेन-१३२ कम्मजतेजोधातुया-१९७ कम्मजवाता-२७ कम्मजं-२८१ कम्मट्ठानमनुयुजितब्बन्ति-३१८ कम्मट्ठानवीथिं-३१७ कम्मट्ठानाभिनिवेसो-३५२ कम्मट्ठानं-१४८, १५५, १६२, १६३, २४१, २४२, २८१, २८३, २८७, २९९, ३०४, ३१३, ३१४, ३१७, ३१८, ३२०, ३२७, ३२८ कम्मनियामो-२२ कम्मरता-१०५ कम्मविपाकजन्ति-३९ . कम्मस्सकतापच्चवेक्खणा-३३२,३४४ कम्मारामाति-१०५ कम्मावरणेन-५३, २४६ कम्मासधम्मन्ति-६५,६६ कम्मासपादोति-६५ कम्मासो-६५, ६६ कयविक्कयट्ठानं-११७ करजकायो-२८२, ३१९ करवीकभाणी-३७ करवीकसद्दोति-३९ करवीको-३७, ३९ करुणा-९२ करुणाझानमग्गो-२३५ करुणाझाने-२३२,२५३ करुणेधिमुत्तोति-२३२ करेरिकुटिकायन्ति-१ करेरिमण्डपो-१,२ कलहकारणभावोति-२३९ कलहविवादसुत्तं-२४६ कलहो-२३९ कलिङ्गानं-२२८ कल्याणधम्मे-५७ कल्याणमित्तता-३३१,३३२, ३३३,३३४,३३५ कल्याणमित्ते-५३, ३३१,३३२, ३३३, ३३४, ३३५ कल्याणीति-२६३ कल्लचित्ता - २९९ कवचं-१३१,१३२ कसिणनिमित्तं-८४ कसिवाणिज्जादीनि-१०० कस्सकलेणमेव -३४२ कस्सकलेणे-३४१ कस्सपबुद्धस्स-१५३, २०० कस्सपोति-३५८ कहापणादिवसेन-२७२ कळापो-१४७ कळेवरस्स-३४९ काकण्डकपुत्तो-१०३ कापिलवस्थवेति-२४८,२५१ कामगुणानन्ति - २५ कामच्छन्दो-११९, ३१३, ३३१ कामतण्हा-३५० कामतण्हाति-८० कामबन्धनानि-२७० कामब्यापादविहिंसाविरमणसञ्जानं-३५३ कामभवो-७९ कामभोगी-१४८ कामभोगीसेय्या-१४८ कामरागपटिघसंयोजनद्वयस्स-३३७ कामरागानुसयं-७५ कामवितक्काति-२०१ कामसेट्ठो-२५१ कामसंयोजनबन्धनानीति-२७० कामालयतण्हालयेहि-४९ कामावचरकम्म-१३१ कामावचरचित्तेहि-२४७ कामावचररूपावचरं-१३१ कामावचरलोकं- १२० 15 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [क-क] कामावचरा-१६४ कामुपादानं-७९ कायकम्मन्ति-१०८ कायगतासतिअमतपटिलाभस्स-२९ कायगतासतिकम्मट्ठाने-३२३ कायद्वारे-२९१ कायन्ति-३२५ कायपसादवत्थुकं-३४९ कायपस्सद्धि-३४४ कायबन्धनं-१०५,११८ कायबलं-२९४ कायवचीदुच्चरितं -३५३ कायवचीसङ्खारा-२१२ कायवचीसमाचारं - २९३ कायवेदनाचित्तधम्मेसु-३०३ कायसक्खिं-१७३ कायसङ्खारा-२१२ कायसमाचारम्पीतिआदि-२९१ कायसमाचारो-२९३, २९६ कायसम्पत्ति-१९५ कायसम्फस्सजं-३४९ कायसम्फस्सतो-३४९ कायादिनिरोधा-३१९ कायादिपरिग्गाहकचित्तानं-३५४ कायानुपस्सना-३१६, ३१७,३१९, ३२६ कायानुपस्सनापटिपदं -३१२ कायानुपस्सनाभावनानुभावनिब्बत्तेन-३१० कायानुपस्सनामुखेन-३१० कायानुपस्सनासतिपट्टानं-३०९,३१३, ३२७ कायानुपस्सीति-३११, ३१२, ३१४ कायाभिमुखं-२१३ कायिकदुक्खस्स-३०४ कायिकन्ति-३४९ कायिकं-१२८, ३२७ कायोति-३११,३१९, ३२२ कारुञभावेन-१३४ कारुञसभावसण्ठिता-१३४ कालकञ्चा-२५३ कालकञ्चिकअसुरेसु-३४१ कालकञ्जिका-९० कालङ्कतन्ति-४२ कालामोति-१४३ कालोति - १९,४४ काससीसरोगादि-९९ कासीनं-२२८ काळकण्णिसत्ता-११८ काळलोहं-३६२ काळुदायीति-१६ किलमनकारणं-२४१ किलिट्ठचित्तानं-३०२ किलेसगहनता-५१ किलेसनिब्बानेन-१४६ किलेसपरिनिब्बानेन-८८,१३९ किलेसावरणेन-५४,२३२.. किलेसे-७५,९३, १०७, ३०५,३१३ कुक्कुटका-१४३ कुज्झनलक्खणो-२३२ कुटुमलकजातो-२१७ कुणपगन्धो-३५९ कुणालजातकं-२४१ कुणालदहन्ति-२४० कुणालसकुणराजा-२४१ कुतोमुखाति-२६८ कुमारकस्सपोति-३५७, ३५८ कुम्भण्ड -५ कुम्भण्डदेवतानं-२१६ कुम्भीरो-२५० कुरुरट्ठन्ति-६५ कुरुरट्ठवासीनं-२९९ कुरुवत्तधम्मो-६६ कुरूति-६४ कुरूसूति-६४ 16 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ख-ख] सद्दानुक्कमणिका [१७] कोणागमनोति-१४ कोण्डो -४ कोमारिकाति-३६० कोरकजातो-२१७ कोलरुक्खवासीनं-२३९ कोलियनगरवासिनो-२३८, २३९ कोलियनगरस्स-२३८ कोविळाररुक्खं-२७५ कोविळारो-६४, २१७ कोसज्जतो-३३३ कोसज्जपाततो-३४० कोसज्ज-३३९ कोसम्बकुटि-१ कोसलेसु-२०६ कोसिनारका-१७६ कोसोहितवत्थगुय्होति-३४ कंसताळसद्दो-१६० कुलकुमारियोति-९८ कुलमच्छरियेन- २७९ कुलवेमत्तं -१६ कुलागण्ठिकजाताति-७६ कुलिथियोति-९८ कुलूपकत्थेरोति-१७४ कुलूपकाति-२६८ कुल्लन्ति-११८ कुवेरो-२५१ कुसपत्तपरित्थतोति-२३४ कुसलकम्मेन-१९ कुसलन्ति-१६२ कुसलवेरमणी-३५३ कुसलसङ्कप्पो - ३५३ कुसलाकुसला -३३४, ३३८ कुसावती-१६०,२०२ कुसावतीराजधानिप्पमुखानीति- २०२ कुसिनारन्ति-१७०, १८३ कुसिनारानगरं-१४७, १७८ कुसीतपुग्गलपरिवज्जनता-३४० कुसीतपुग्गले -३४३ कूटगोणयुत्तरथो-३१७ कूटधेनुया-३१७ कूटवच्छं-३१७ केदारपाळियो-५४ केराटिकपक्खं -३३९ केवलकप्पन्ति-२१५ केवलपरिपुण्णन्ति-२१५ केवलपरिपुण्णं-३०७ केवलीति- २३४ केसच्छेदनादीनं-३४६ केसलोमादिसमूहानुपस्सी-३११ केसादिधम्मसमूहसलातकायानुपस्सीति-३१२ कोकिलमन्दधमितमणिवंसनिग्रोसं-३५० कोटिगामोति-११९ कोटिप्पत्तं-२० खग्गो तालवण्टं-३२ खणिकसमापत्ति-१२३ खण्डिच्चन्ति-३४८ खण्डो-९ खत्तविज्जाय-२११ खत्तियमहासाला-१५९ खदिरपाकारं-५८ खन्तिपारमी-२१९ खन्तिबलेन-२३५ खन्तिवादितापसकाले-१७९,२१९ खन्तिवादोति-१७९ खन्तीबलसमाहिताति-२३५ खन्धपटिपाटिया -२ खन्धपरिग्गहो-३५५ खन्धपरिग्गाहिका-३३६ खन्धलोको-५२ 17 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [ग-ग] खन्धाति-२८२ खयधम्मा-३२८ खयमज्झगाति-४८ खयवयभेदविपरिणामट्ठो-७५ खयोतिआदि-८६ खरोति-१२२ खलमण्डलमत्तं-२७१ खारकजातो-२१७ खिड्डापदोसिका -२५४ खीणासवस्स-११९,२९१, २९४ खीरपिण्डपातस्स-३४२ खीरमूलं-२२७ खीलन्ति-२४५ खुद्दकनगरके -१५९ खुद्दकनगरन्ति-१६० खुद्दकं-१६५ खेतं-५४,१६१, ३४२ खोमन्ति-३६२ गन्धारको-३०८ गबलवालियअङ्गणं-३०५ गमनमग्ग-२७२ गमनवीथिपच्चवेक्खणता-३४० गमनवीथिं-३४१ गम्भीरकथं-२९९ गम्भीरजाणचरियपच्चवेक्खणा-३३९,३४० गम्भीरदेसनापटिग्गहणसमत्थतं-२९९ गम्भीरदेसनं-२९९ गम्भीरपञआय-३४० गम्भीरावभासोति-६८ गम्भीरोति-४९,६८,६९,७०,७४,७५, २०९ गरुधम्मे-१५८ गरुभावं-९८ गरुं-९८,१०१ गहकारं-४८ गहकूट-४८ गहपतिरतनं-३१,१९६, १९७ गहितपटिसन्धिकस्स-८२ गामकम्मकरणट्ठानं-२७१ गामनिगमपटिपाटिया -२३६ गामपट्टन्ति-३६२ गामभोजको-२७२ गामवासिका-२७७ गामसीमा-९७ गावीति सा-३२४ गिज्झकूटपब्बतमझे-१० गिज्झकूटेति-९५ गिञ्जकावसथेति-११९ गिम्हिके-४० गिरिकन्दराय-२७६ गिरिगामे-१११ गिरिभण्डमहापूजाय-११२ गिरिविहारे -९३ गिलानपच्चयजीवितपरिक्खारोति-२१४ गिलानभेसज्ज-१०३ गग्गरा-१४३ गङ्गातीरे - १२८ गङ्गायमुनानं-२२० गङ्गेय्यो-१४७ गजङ्गलं-२० गण्डुप्पादमिगमंसादीसु-२८१ गतयोब्बनन्ति-४१ गद्रभपिढे-३४४ गन्थथाति-१५० गन्थं-१०३ गन्धपूज-१५२ गन्धब्बकायन्ति-२६८ गन्धब्बकायिको-२५२ गन्धब्बाति-७८ गन्धब्बो-२५२ 18 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [घ-च] सद्दानुक्कमणिका ___ [१९] घरदेवतानं-११८ घरावासो-२४० गिलानुपट्टाको-१२७ गीतवादितसञाय -२६२ गीवुक्खिपनपसारणादिकिच्चं-५४ गुत्तद्वारताय-२९४ गुळ्हउम्मग्ग-१४० गुळ्हवेस्सन्तर-१४० गेधितचित्तोति-२६४ गेधं-२६४ गेरुकपरिकम्म-३४ गेहसितउपेक्खा-२८९ गेहसितउपेक्खावेदना-३२८ गेहसितदोमनस्सवेदना-३२८ गेहसितदोमनस्सं-२८५ गेहसितसोमनस्सवेदना-३२८ गोघातको-३२४ गोचरगामे-३४१ गोचरि-१४७ गोतमगोत्तो-२९८ गोतमसावकोति-२७० गोतमोति-१७१ गोत्तपरिच्छेदो-१३ गोत्रभुाणा-४७ गोपखुमोति-३७ गोपानसियो-२१६, २७४, २७५ गोपानसी-४१ गोपो-३१७ गोमयखण्डं-१३३ गोरसदानस्स-२०३ गोविन्दोति-२२६,२२७ चक्करतनन्ति-१९०,२०४ चक्कलक्खणस्सेव-३२ चक्कवत्तिनो-३१, १९३,१९४, १९५, १९६, २०४ चक्कवत्तिरओ-३२, २४३ चक्कवत्तिसम्पत्तिं-१९,५६ चक्कवत्तिसिरिं-२६८ चक्कवत्तीति-१५७,१८९ चक्कवाळगिरि-१५८ चक्कवाळपब्बतं-३१ चक्कवाळसहस्सानि-२७ चक्कवाळेसु-८९ चक्कवाळं-२५१ चक्कानि-३२, १८८ चक्खुधम्मो-४६ चक्खुमता-२०४ चक्खुमा-५४,१३९, २४९, ३०२,३२३ चक्खुविज्ञाणं-२३, २५ चक्खुसमुदयोति- ३३७ चक्खुसम्फस्सोति-८१ चकोटककिच्चं-२१७ चतुइरियापथकप्पनं-१२४ चतुइरियापथपब्बं -३५५ चतुइरियापथपरिग्गण्हनेन-३२२ चतुइरियापथो-३२४ चतुक्कपञ्चकज्झानं -३५५ चतुत्थज्झानिकफलसमापत्तिसुखं-२१२ चतुत्थज्झानं-१६६,१६७,१७४,२१२ चतुपञ्चआलोपओकासं-३३३ चतुपटिसम्भिदाधिगमस्स-२९ चतुपारिसुद्धिसीलं-११४, ३४४ चतुब्रह्मविहारपटिलाभस्स- २९ घटकमणिकपरिच्छेदलेखादीनि-१८८ घनबद्धमोरपिञ्छकलापो-१४९ घनविनिब्भोग-३२४ घनसिनिद्धसण्हसरीरतं-३४ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [च-च] चतुभूमिककुसलस्स-६१ चतुमग्गाणपटिवेघ-१३७ चतुमग्गजाणसङ्घातबोधिं-९ चतुयोनिपरिच्छेदकआणं- ४८ चतुरङ्गसमन्नागतञ्च-५४ चतुरस्सअम्बणताळसद्दो-१६० चतुरिद्धिपादपटिलाभस्स-२८,२९ चतुसङ्केपो-७४ चतुसच्चकम्मट्ठानं-३५२ चतुसच्चधम्मो-४९ चतुसतिपट्ठानगोचराव-१२४ चतुसतिपट्ठानपटिलाभस्स-२९ चतुसम्पजञपब्-३२३,३२६,३५५ चतुसम्पजञपरिग्गाहिका-३२३ चतुसम्पजञवसेन-३२२,३२३ चतुसम्पजध-३५५ चत्तारि सच्चानि-८,१६४,३५२, ३५५ चत्तारो आहारा-५२,१६४ चत्तालीसदन्ता-३६ चन्दनगन्धोति-१९५ चन्दनचुण्णानीति-१५० चन्दमण्डलं-१८९,२४७ चन्दिमसूरियसदिसो-३५८ चन्दिमसूरियाति-३५८ चन्दो-२८,७३,२४७,२७२,३५८ चन्दोभाससदिसं-३ चम्पकपुफ-२०४ चम्पकरुक्खे - २०४ चम्पा- २२८ चम्पेय्यनागराजकाले - १७९ चम्मक्खण्डं-६७,१२४,१२९ चरतीति-४३,२३६ चवनताति-३४९ चातुमहाराजिकदेवलोके-२१५ चातुमहाराजिका-६,५६, १५३ चामरा-२७ चारिकं-४३, ४४, १७८, १८४, २२५, २३६ चितकं-१७४, १७६ चितन्तरंसो-३५ चित्तकम्मरूपकं-३५ चित्तकल्लताजननत्थं-२४६,२४८ चित्तकिरियवायोधातुविष्फारेन-३२०,३२१ चित्तक्खरं-२९४ चित्तचेतसिकानं-२२, २८२ चित्तजवाता-३२१ चित्तत्थरणेहि-५८ चित्तधम्मानुपस्सी-३११ चित्तधम्मेसुपि-३१५,३१६ चित्तनियामो-२२ चित्तपरियुट्टानं-१२९ चित्तपस्सद्धि-३४४ चित्तप्पवत्तिं- ९९ चित्तम्पि-२९३,३१५ चित्तयमकं-२०९ चित्तलतावनं-६४,२६१, २७६ चित्तवोदानं-३०३ चित्तसङ्घारा-२१२ चित्तसमुहानं-२०७ चित्तसरीरकल्लताय -२९९ चित्तसेनो-२५२ चित्तसेनोति-२५२ चित्ता-२७४, २७५,२७६ चित्ताचारं-१९७, २४६,३६० चित्तानुपस्सना-३३०,३५५ चित्तानुपस्सनाभावनानुभावनिब्बत्तेन-३१० चित्तानुपस्सनामुखेन-३१० चित्तानुपस्सनासतिपट्टानं-३०९, ३३० चित्तानुपस्सनं-३१०, ३२९ चित्तानुपस्सी-३१५, ३३० चित्तिद्धिपादो-२१० चित्तीकतं-३१ चित्तीकारविरहितं-३६३ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छ-ज] चित्तं - २०, २४, ४२, ४४, ४८, ५०, ५१, ६२, ७१, ७३, १०६, ११२, ११६, १२२, १२५, १२९, १३१, १४४, १४५, १४९, १५६, १७०, १७४, १८१, १९५, २०२, २०७, २१०, २११, २२२, २४२, २४५, २६४, ३०६, ३१०, ३१६, ३१७, ३२०, ३२१, ३२४, ३३०, ३४०, ३४५, ३५४, ३५७ | चित्तेकग्गता - ११४ चिन्तेन्तीति - २४६ चिरट्ठितिकन्ति - १३८ चिरपटिकाहं - २६७ चिरपब्बजिता - १०४ चीवरकम् - १०२ चीवरकरणं - १०५ चीवरविचारणं - १०५ चीवरवंसे - ३४२ चुण्णकभावा- ३२६ चुतिक्खपि - - २० चुतिचित्तं - २० चुतिन्ति - ७७ चुतिपटिसन्धिकिच्वं - ३ चुतिपटिसन्धिं - ३,४४ चुन्दकन्ति - १४५ चुन्दत्थेरो - १४५ चुन्दो - १०, १२८ चुम्बित्वा - ७१ चूळधम्मपालकुमारकाले - २१९ - २८३ चूळनागाति - ३०२ चूळवेदल्लसुत्तेचूळसीलतो - २१३ चूळामणिचेतिये - १८० चूळुपट्टाको ६० चेतनाति - ८१ चेतनानिमित्ते - ८१ चेतसिकन्ति - ३४९ चेतियघरं - २४८ सद्दानुक्कमणिका चेतियचारिकं - १५५ चेतियन्ति - १६९ 21 चेतोविमुत्ति - चेतोविमुत्तीति- - ३३२ चोराति - २७३, २७४ छ - ३३२ - २७ छत्तग्गाहको - छत्तवेदिका - २१८ छद्दन्तहत्थिकाले - - १७९ छद्दन्तोयेव - १४७ छन्दमूलका - ८१ छन्दरागप्पहानं - ९१ छन्दरागविनयो - ९१ छन्दरागोति - ८० छन्दसमाधिना - २१० छन्दसमाधिपधानसङ्घारानं - २१० छन्दसमाधीति - २१० छन्दिद्धिपादो - २१०, २११ छन्दोति - ८० छन्नपरिब्बाजको - १६१ छन्नो- १६ छब्बण्णरस्मियो - १५१, २३९, २४७ छविवण्णो - ३४२ छिन्नपपञ्चेति - १७ छिन्नपलिबोधो - २३० छिन्नपातं - १५४ छिन्नवटुमेति - १७ छिन्नविचिकिच्छं - २७१ छिन्नस्सरापि - ३७, १३४ छेज्जभेज्जं - ३२, ९७ ज जच्चन्धा - २८ [२१] Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [झ-ञ] जीरणताति-३४८ जीवकम्बवनं-१७८ जीवसञीति-३६० जीवितपरियादाना-३२५ जीवितसङ्घारन्ति-१२२ जीवितसङ्घारो-१२२ जीवितिन्द्रियस्स-३४९ जीवितिन्द्रियुपच्छेदमेव-३४९ जुण्हपक्खतेरसिया-२८७ जुतिमन्तोति - २४९,२५६ जेतवनं -१२४, १२८,२२१ जोतिदेवा-२५५ जोतिपालोति-२२७ जच्चन्धूपमो-३६० जनपदचारिकं-२२१ जनपदत्थावरियप्पत्तोति-३१ जनपदोति-७१ जनवसभसुत्तं-२०६ जनेसभोति-२५२ जनेसुताति-२५७ जन्तुगामे-११ जम्बुदीपतले-१७८,१७९,१८५, २२५,२२९ जम्बुदीपो-२०, ६४,२२५ जम्बुरुक्खे-८१ जयद्दिसजातकेति-६६ जयपराजयमत्तमेव-२९७ जराधम्मो-२९२,२९३ जरामरणन्ति-७८ जरामरणस्साति--४४,४५ जरामरणं-४५,७७,७८ जातकं-१२, १४०,३५८ जातनगरं-१३ जातवेदसो-४८ जातवेदं - २६४ जातिजरामरणानि-१९ जातिजळानम्पि-२८ जातिधम्मा-२९२ जातिनिरोधाति-७८ जातिपच्चया-७८ जातिपरिच्छेदादिवसेन-६ जातिपरिच्छेदो-१३ जातिमहत्तपच्चवेक्खणता-३४० जातिमहत्तं-३४३ जातोवरको - १२६ जालकजातो-२१७ जालहत्यपादोति-३३ जिण्णसकटं-१२४ जिनकाळसुत्तं-१५२ जियावेगेन-३२१ झानङ्गानि-१६७, ३१८, ३१९ झानचक्खुना– ९२ झानभूमियं-२३० झानरताति-२६३ झानलाभिनोति-२६८ झानविमोक्खपच्चवेक्खणता-३४५ झानसतिविरहिता-२७१ झानसुखपच्चया-२१२ झानागारं-२०१, २०२ झायीति-२३०, २६३ आणगतिपुञानं-२०६ जाणगतिं-- १२०, २०७ जाणतण्हादिट्ठिवितक्कवसेन-८० जाणदस्सनं -२१३ आणधम्मो-४६ आणविनिच्छयो-८० ञाणसम्पयुत्ता-२९० Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ठ-त] सद्दानुक्कमणिका [२३] आणसीहनादं-६७ जातका-३९,३४१ आतपरिञावसेन-७६ ठपनीयो-१४१ ठितचित्तस्स-१६७ ठितभिक्खू-१२१ ठितयक्खिनिया-१५६ ठितसालरुक्खानं-१७६ ठितिसुखा-३१६ ठितोति-१२९,२३२ डंसमकसम्पि-६१ तण्हाविनिच्छयो-८०, २८१ तण्हासङ्ख्यविमुत्ता-२९६ तण्हासङ्ख्योति -२९६ तहासमुदया-४७ ततियज्झानिको-३५४ ततियज्झानं-१६६,१६७ ततिययामे-४७ ततियसङ्गीतिकारापि-१८५ तत्रतत्राभिनन्दिनीति- ३५० तत्रवट्टक-३३३ तथाकारी-११४ तथागतसेय्याति-१४८ तथागतस्ससरीरं-१४९ तथागतो-१३५,१३७, १४५, २२६ तथागतोति-१७ तथाभावपटिसेधनो-३१७ तथाविमुत्तो-८८ तदङ्गविक्खम्भनप्पहानवसेन-३३७ तदङ्गविमुत्तीति-१७ । तदधिमुत्तता-३४०,३४६ तनुभावो-११९ तनुवेदना - १४२ तन्ताकुलकजाताति-७६, ७७, ८४ तन्तिधम्मा-१२३ तन्तिबद्धवीणानं-२९ तन्दी-३३२,३३३ तमतग्गेति-१२४ तम्बपण्णिदीपे-२३,१५७, १८५ तम्बपण्णिदीपं-२५८,३०५ तम्बलोहमयं-१८२ तम्बलोहं-३६२ तम्बो-१४७ तयो लोका-५२ तरितुकामो-६८ तरुणनागा-२४५ तरुणविपस्सना-४६ तक्करस्साति-११४ तक्कसिलायं-३५७ तङ्क्षणविद्धंसनधम्म-२३५ तचपञ्चककम्मट्ठानं-१६३ तच्छकनागपरिसाय-२५२ तण्डुलमत्ता-५ तण्हक्खयो-३५१ तण्हङ्करो-४ तण्हाएजाय- २४५ तण्हाचरितदिट्ठिचरितसमथयानिकविपस्सनायानिकेसु ३०९ तण्हाचरितस्स-३०९ तण्हादिट्ठीहि-११३ तण्हापपञ्चो-२८१ तण्हावानविरहितत्ता-३०७ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४] तालप्पमाणं - १२६ तालवण्टं - ३२, १५२, २२१ तावतिंसतो - १२७ तावतिंसभवने - ६५, २७६ तावतिंसा - ६, ५६, ११७, १२१, १५३, २०९, २१७ तावतिंसाति - २६१ तावतिंसानं – ४, २१७ तावतिंसे - २७० तावतिंसेहीति - ११७ तिकचतुक्कज्झानं - २३० तिक्खञाणेन - ५१ तिक्खपञ्ञ - ३५६ तिक्खिन्द्रिया - ५२ तिण्णकङ्क्षतं - २७९ तिण्णविचिकिच्छो- २२४, २२५ तिण्णो तारेस्सामि - ५० तितिक्खाति - ६१ तित्थवासोति - ७४ तित्थियपरिवाससदिसो - १११ तित्थिया - २,३ तित्त अलाबुवल्लिं - ३५१ तिदसपुरे - २६९ तिपिटकचूळनागत्थेरो - ३०१ तिपिटक चूळसुमत्थे - ३०१ तिपिटकचूळाभयत्थेरो - १०८ तिपिटकधरा - ८५ तिपिटकमहासीवत्थेरो - २० तिमिङ्गलो - ६९ तिमिनन्दो - - ६९ तिमिपिङ्गलो – ६९ तिम्बरुं - २६३ तिम्बरुति - २५२ तिरच्छानयोनियं- ३४१ तिरच्छानयोनिं - ५७ तिरोकुच्छिगतन्ति - २५ तिरोजनपदा - १२ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा तिरोरट्ठा - १२ तिलक्खणमुत्ता - १९ तिलक्खणं तिलमत्ता - ५ तिविधओकासाधिगमवण्णना- २११,२१२ तिसपो – ७४ तिसन्धि - ७४ तिस्सत्येरो - १०९, ११०, १११ तिस्सभारद्वाजन्ति - ९ - २८२, ३१९ तिस्समहाब्रह्मा - २५६ तिस्समहाविहारे - १५४, १५५ तीरणप्पहानपरिज्ञवसेन - ७६ तुट्ठचित्तो - २९८, ३६२ . तुट्ठहदयो - १९७, २०४ भावोति - १०६ तुत्ततोमरं - २६४ तुवट्टकपटिपदं - २४६ तुवंतुवं - ८० तुसितपुरवासिनो - २५५ तुसितपुरे - १८, २०, ७३, २१९ तूलसन्निभाति - ३७ तेजनं - ३२१ 24 तेजोकायं - ३१२ तेजोधातु - ३२४ भूकम्मे - ३४७ तोमरन्ति - २६४ थ थद्धमच्छरियलक्खणा - २३२ थावरियं - ३० थिनमिद्धं - ३३३ थिरभावं - ३० थूपं - १८० थेरगाथा - १४० [थ-थ ] Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [द-द] सद्दानुक्मणिका थेरा - २०, ६६, १११, ११२, १६५, १८५, १८६, २०९, २९५, ३५५ थेराति - १०४ थेरीगाथा - १४० थेरीति - ११२, ११३ दानकथन्ति - ५५ दानग्गं - १९८ दानपारमी- २१९ दायज्जमहत्तपच्चवेक्खणता - ३४० दायज्जमहत्तं - ३४३ दायादोति - १८५ दारुउक्काकलापं - २८३ दारुक्खन्धं - १७५ दासकम्मकरा - ३४१ द द-कारेन - ६५ दक्खोति - ३१८ दण्डकदीपिका - १७६ दण्डपरायनन्ति - ४१ दण्डबलिवसेन- २७२ दण्डमणिका – १४३ दण्डादानं - ८० दन्तपुरं - २२८ दब्बसम्भारकम्मे - २७४ दब्बसम्भारं - २०० दिट्ठपपञ्चोति - २८१ दिट्ठविनिच्छयो - ८०, २८१ दिट्ठिसामञ्ञगताति - ११४ दिट्ठसीसेन - ८७ दिट्ठीति - १७, ८८, ११४ 11 दिब्बइद्धियुक्त्ता - २४९ दिब्बचक्खु - १९६ दिब्बचक्खुत्राणं- २४९ दिब्बचक्खुपटिलाभस्स - २९ दिब्बचन्दनचुण्णानि - २१६ दिब्बन्ति - १८७ दिब्बपुप्फानि - २१,२१६ दमिळराजानो - २०९ दलिद्दराजाति - १८४ दस अकुसलकम्मपथा - २१२ दसकुसलकम्मपथा - २१२ दसकुसलधम्मसमन्नागतो - ३० दसथूपकरणञ्च - १८१ दसदेवकाया - २५४, २५५ दसनखसमोधानसमुज्जलं - १२६, १७०, २६३ दसपुञ्ञकिरियवत्युवसेन - ५२ दसबलञ्च - २५५ दसबलदत्तियं - १७० दसविधत्राणबलं - १६७ दससहस्सिलोकधातु - २१, २८, ५१, ७६, १२८, ३४३ दिब्बसङ्गलिका - २५ दिब्बसम्पत्तिं - ५६, ६५ दिब्बसेतच्छत्ते - २७ दिब्बसोतधातुपटिलाभस्स - २९ दिवाविहारन्ति - १७० दिवाविहारं - १३३ दिसाचारिकविमानं - ३६४ दीघङ्गुलीति - ३३ दीघनखपरिब्बाजकस्स १० दीघनखा - २३ दीघभाणक अभयत्येरस्स - १०७ दीघभाणकतिपिटकमहासीवत्थेरो - ११९ दीघभाणकमहासीवत्थेरो - ३५५ दससीलं - ३४४ दसायतनानि - ५२ दस्सनसमत्थचक्खुताय - २५२ दहरभिक्खुनियो - ११२ दहरभिक्खु - २५९, ३०५ दीघायुकदेवलोके - १८ दीघायुकबुद्धानहि - १५३, १७५ 25 [२५] Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा दीपकपल्लकं - २०१ दीपङ्करपादमूले - १५१, २१९ दीपङ्करो - १६ दीपङ्करोति – ४ दीपमालपुप्फपूजं - १०९ दीपसिखागमनं - २९१ दीपिको- - ३१८ दुक्करन्ति - ७६, ७७ दुक्खक्खन्धस्ससमुदयो - ४६ दुक्खनिरोधगामिनिपटिपदाति - ३४७ दुक्खनिरोधोति - ३४७ दुक्खन्ति - ५७, २१२, २८३, ३३१, ३४५, ३४७, देवतानुस्सति - ३४४ दुप्पञ्ञपुग्गलपरिवज्जना - ३३९, ३४० दुब्बलरागस्साधिवचनं - ८० दुब्बलरागो - ८० दुम्मेधपुग्गलानं - ३४० दुरुपसङ्कमा - २६३ दुल्लभदस्सनं - ३१ दुल्लभो - २४३, २६१ दुस्सीलकम्मे - ११५ दुस्सीलोति - ११५ देवकायाति - २४५ देवघटा - २४५ H ३४९, ३५२ दुक्खपीळिता - ८९ दुक्खमनत्ता - ५० दुक्खवेदना - ३२८ दुक्खवेदनाय - २८३, ३२८ दुक्खसच्चन्ति - ३२३, ३२४, ३२९, ३३०, ३३५, देवदुन्दुभियो - १३१ देवतारक्खा - ९९ देवतासन्निपातो - २४७, २५८, २६० देवत्थेरो - १०९, ११० देवत्तायाति - ७८ देवदत्तं - ३५८ ३३६, ३३७, ३४७, ३५५ दुक्खसच्चं - ३२०, ३२२, ३२३, ३२६ दुक्खसमुदयसम्भवोति - ८३ दुक्खसमुदयोति - ३४७ देवधीताति- २५८, २६६, २८८ देवनगरं - २१८, २६१ देवनागसुपण्णमनुस्सानं - १५० देवनिकायाति - २५५ दुक्खाति - ३४८ दुक्खापटिपदं - २११ देवपरिसं - २६१ देवपुत्तोति - ३५८, २७२ दुक्खं - १७,२५,४४, ५०, ९१, ९९, १०८, २१२, देवमनुस्सानं - २२० २८२, २८३, ३०७, ३१५, ३२८, ३४५, ३४९, देवविमानं - १८९, १९३, २४७ ३५०, ३५२, ३६० दुग्गति – ७७, १२० दुट्ठगामणिअभयवत्थुना - २०९ दुतिकायहणं - ३११ दुतियज्झानतो - २१३, ३५४ देवानमिन्दोति - १२७ देवानुभावन्ति - २३,२०८ देविलो - ७० देवीति - २०२ देसनागम्भीरता - ७४ दोणगज्जितं - १७९ दोणब्राह्मणो - १४८, १७९ दोमनस्सजातो - ३०६ दोमनस्सपच्चया - २८६ दोमनस्सिन्द्रियहि- २८६ - ३५४ दुतियज्झानिको दुतियज्झानं - १६६, १६७, २१० दुतियततियचित्तवारे. दुतियततियज्ज्ञानद्वयं ९० दुद्दिरूपन्ति - २६८ - २० 26 [द-द] Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ध-ध] सद्दानुक्कमणिका [२७] दोमनस्सं-१११, १६८, २६१, २८५, २८६, २८८, | धम्मदस्सीति-४ २८९, २९६,३०६, ३१५ धम्मदेसना-१९,५३,१०९,१४९ दोसक्खयो-३५१ धम्मदेसनायाति-५१,१२८ दोसोति-९८, २२२ धम्मधराति-१३० द्वत्तिंसकम्मकारणपञ्चवीसतिमहाभयप्पभेदहि-५७ धम्मधातुया-६२ द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणपटिमण्डितं-१७९ धम्मनियामोति-२२ द्वत्तिंसाकारा-३२३ धम्मन्ति-१२६,१५८,२७१ द्वादसाकुसलचित्तानि-३२९ धम्मपदं-८९,१४० द्वादसायतनानि-५२,१६४ धम्मपालकुमारकाले -१७९ द्वारवातपानानिपिस्स-४० धम्मपासादो-२०४ द्विपिटकधरा-८५ धम्मपुजा-३३५ द्विसन्धि-७४ धम्मपोक्खरणी-२०४ धम्मभण्डागारिको-६७ धम्मभेरिया-२९ धम्ममेघवस्सनस्स-२९ धतरटकुले-२५२ धम्मयागे-१० धतरहाति-२२९ धम्मराजाति-३०,१५९ धतरट्ठो-२१६,२५०,२५१ धम्मवादिनो-१७४ धनरासिवड्डको-१९६ धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो-१०८ धनुग्गहानं-२८० धम्मविचयो-३१४ धनुपाकारन्ति-१७६ धम्मविनये-३०१ धनं-३१,७१,१५९,२२३,२७२,२७४,२८०,३५९ धम्मविनिच्छये-१४१ धमकरणं-१०५,२०१,२२१ धम्मविनीताति-२१४ धम्मकथिकभिक्खु-२१८ धम्मसङ्घगुणे-३४४ धम्मकथिको-२५,२७,२१८ धम्मसभावपच्चवेक्खणेन-३३९ धम्मगम्भीरता-५१,७४ धम्मसमयन्ति-२४५ धम्मगरुनो-७२ धम्मसमोधानं -३२९ धम्मगुत्ताति-८९ धम्मसाकच्छापि-१३४ धम्मचक्कप्पवत्तनतो-२२३ धम्मसेनापतिमहामोग्गल्लानत्थेरादीनं-२९३ धम्मचक्कं-५,१६,१३८,१५०,२१९, २२० धम्मस्सवनं-१०९,२४३ धम्मचक्खूति-५२ धम्माति-८० धम्मचरियातिआदीसु-४२ धम्मादासन्ति-१२० धम्मचारी-२२४ धम्मानुधम्मप्पटिपन्नोति-१५१ धम्मच्छन्दो-२११ धम्मानुपस्सना-३३०,३३१,३३३ धम्मता-२१,२२,२६,१८७,२०४ धम्मानुपस्सनामुखेन-३१० धम्मताति-२१ धम्मानुपस्सनासतिपट्टानं -३०९ 27 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [न-न] धम्मानुपस्सीति-३१२,३१५ धम्माभिनन्दिनीति-३५० धम्माभिसमयो-५३ धम्मायतनस्स-३३७ धम्मासने-२५,३०२ धम्मासनं-२१७ धम्मिकाति-११० धम्मिकोति-३० धम्मिकं-९९ धम्मीति-२ धम्मोति-४९,५१,१२०,१३९, २२४,३३६ धम्मोभासं-२९ धातुआहरणं-१८१ धातुचेतियं-१२८ धातुनिधानं -१८११८३ धातुमनसिकारपब्बं -३२४,३२६ धातुलोको-५२ धातुविभङ्गे-२८३ धारणीयन्ति-१४४ धारेन्तीति-१३० धुतङ्गेहि-१०४ धुवधम्मो-२२७२२८ धुवन्ति-३३७ धूमकालिकं-१०३,१६५ नरकपपातं-२६ नवङ्गानि-१६४ नवलोकुत्तरधर्म-३४१ नवविधा-१४३ नवसिवथिकपब्बानीति-३२६ नवसिवथिका -३२६,३५५ नळकारदेवपुत्तो-२५२ नळवनं-१६२ नळोराजाति-२५२ नागग्गाहो-११६ नागत्थरो-११२ नागदीपं-१११ नागराजा-१७०, १९२, १९३, १९४,२१६ नागराति-२२१ नागलेणद्वारे-२५८ नागसमालो-१० नागसेनत्थेरो-१६५ नागापलोकितन्ति - १३८ नागितो-१० नागो-२५२, २६४ नाजत्रिन्द्रियसंवरा-३०६ नातिकाति-११९ नातिप्पभेदगतारम्मणं-३०९ नानज्झासयो-२९५ नानत्तकायाति-८९ नानत्तसचिनोति-८९ नानाकसिणलाभी-८४ नानाचित्तेन-३५ नानापुप्फानि-२९९ नानाभावो-१३८ नामकायतो-८१,९३ नामकायोति-८१ नामगोत्तं-२४६ नामरूपनिरोधातिआदिमाह-४६ नामरूपन्ति-४५,८२,८३ नामरूपपच्चया-४५,४६,७८,८२ न नगरप्पवेसनं-१०१ नगरमङ्गलं-११८ नगरावयवानुपस्सको-३११ नदीकीळं-२६१ नन्दनवनं-२०,६४,२६१ नन्दाति-२७४ नन्दीरागसहगता-३५० नप्पटिक्कोसितब्बन्ति-१३९ नयलाभ-१०० 28 . Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [न-न] सद्दानुक्कमणिका [२९]] नामरूपपरिच्छेदो-७४ नामरूपसमुदयाति-४७ नारदोति-४ नावा - २८, ५५, ३००,३२१ नाळकगामे-१२६, १२७ नाळकत्थेरो-२९५ निक्कमधातु-३३३,३४० निक्किलेसो-२४२ निक्खित्तदण्डसत्थोति-२९७ निगमसीमा-९६, ९७ निग्रोधपरिमण्डलोति-३६ निग्रोधसामणेरं-१८३ निग्रोधो-३६ निघण्डु-२५१ निच्चन्ति-२९६,३३१ निच्चलभावेन-१९९ निच्चसञ्च-३१२ निच्चसुखअत्तसुभभावानुपस्सी-३१२ नितिण्णओघं-२७१ निदानं-५५,७८, ७९ निद्दारामो-१०६ निद्देसो-१४० निधानकम्म-१८१ निधिकुम्भो-१६ निपुणोति-४९ निप्पुरिसेहीति -४० निष्फत्ति-३० निब्बत्तपत्तचीवरा-१० निब्बत्तितब्बकालोति-१९ निब्बत्तिलक्खणं-४७ निब्बानगमनटेन -३०२, ३०९ निब्बानगामिनी-२२० निब्बानधातुया-२८,१२८,१४५,१४६,२१९ निब्बानन्ति-३०७, ३०८ निब्बानपुरं-१६७ निब्बानमहानगरं-३१० निब्बानसच्छिकिरियं-३०७ निब्बानं-१७,३०,५०,५७,६१,१३२,१६७,२२०, २३७, २६५, २९३, २९६, ३०१, ३०९, ३५१ निबिचिकिच्छं-२३१ निमित्तकुसलता-३४५ निमित्तग्गाहो-३३३ निमंसलोहितमक्खितन्ति-३२५ निम्मलो-२८ . निम्मितबुद्धो-२४७,२४८ नियतोति-१२० नियामोति-२२ निय्यातितवचनं-८४ निय्यानमुखन्ति-३२०, ३२२, ३२३, ३२६ निय्यानमुखं-३१९, ३२३,३२४, ३२९,३३०, ३३५, ३३६,३३७, ३४७, ३५५ निय्यानिका-११४, १६१ निरयपालाति-३५९ निरयं-५७ निरामगन्धोति-२३२ निरामिसपूजा-१५२ निरुज्झति-५०, ३५१ निरुत्तिपथोति-८३ निरुपक्किलेसा-२४५ निरोधधम्मा-३२८ निरोधसच्चं–३२०, ३२२, ३२३, ३२६,३५२ निरोधसमापत्तिविहारी-१७ निरोधारम्मणो-३२०,३२२,३२६ निरोधोति-४६,५०,१०८ निवुतब्रह्मलोकाति-२३२ निसीदनन्ति-१२९ निस्सरणन्ति-९१ निस्सरणविमुत्तीति-१७ नीलअस्सेहि-१२१ नीलकसिणं-१३७, २४४ नीलनिदस्सनानीति-१३६ नीलनिभासानीति-१३६ 29 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] नीलरस्मियो - २४४ नीलवण्णाति आदि - १२१ नीलवण्णानीति - १३६ नीलालङ्काराति - १२१ नीलुप्पलपुप्फानि - १८४ नीवरणपरिग्गहो - ३५५ नीवरणपरिग्गाहिका - ३३५ नीवरणप्पानं - ३१३ नेक्खम्मपारमी- २१९ नेक्खम्मसितउपेक्खावेदना - ३२८ नेक्खम्मसितदोमनस्सवेदना - ३२८ नेक्खम्मसितसोमनस्सवेदना - ३२८ नेक्खम्मसिता - २९० नेमिसद्दो- २६७ नेवसञ्ञानासञ्जायतनसमापत्तिया - २२५ नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं - ९१, १६६, ३५४ नेवासिका - १०४, १०५, १११ न्हारुकार्य - ३१२ न्हारुसम्बन्धन्ति - ३२६ प पकतञ्जुता - ३३४, ३३५ पकतिपथवी - १५४ पकतिब्रह्मानं - २३६ पक्कपारिवासिकभत्तं - ३४१ पक्खित्तदिब्बोजानि - ८ पक्खित्तधातुयो - १८० पक्खित्तलोणं - २६९ पक्खिनोति - ७८ पगुणकम्मट्ठानं - ३१९ पग्गहकिच्चं - ३३९ पङ्गुळा - २ पच्चत्तवचनं - २२५ पच्चनीकधम्मे- १३५ पच्चनुभवितुं - २६८ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा पच्चयधम्मस्स - ७६ पच्चयनिरोधञ्च - ४६ पच्चयसमोसरणन्ति - ८१ पच्चयाकारं - ४७, ६७, ७६, ७७ पच्चवेक्खणन्ति - ३२४ पच्चवेक्खणानुभावेन – ५१ पच्चवेक्खणासमनन्तरन्ति - १६७ पच्चुपट्ठितचित्तसन्तानोति - ९९ पच्चुपलक्खणा- ३१४ पच्चेकबुद्धा - २, ३, २०, ७५, १६७, ३०३ पच्चेकबुद्धी - २४७ पच्चेकबोधित्राणं - ५६, ७५ पच्चेकबोधिं - २६८ पच्छानिपातिनी - १९६ पच्छाभत्तन्ति - २ पच्छिमयामे - ४७, ५१, ७६, १४९, १६२, २८७ पच्छिमसावको १४८ पजाननपरियायो - ३२८ पजानातीति - ९१, २८५, २८९, २९०, ३२२, ३२७, - ३२८, ३३०, ३३६, ३४७ पज्जलितो - २३४ पज्जोतनिब्बानसदिसो - - १६७ पञ्चकामगुणिकचित्तानि - २७० पञ्चकुण्डलिको - २१५ पञ्चक्खन्धपरिग्गण्हनेन - ३३६ पञ्चक्खन्धविनिमुत्तं - २८२ पञ्चक्खन्धाति - ३६० पञ्चगतिपरिच्छेदकत्राणं - ४८ पञ्चनीवरणवसेन - ३३५ पञ्चनीवरणानि - २१२ पञ्चबुद्धुप्पादपटिमण्डितत्ता - ४ पञ्चम अभिभायतनादीसु - १३६ पञ्चमहाविलोकनं - १९, २० पञ्चवोकारभवे - ९३ पञ्चसिखोति - २०९, २१५ पञ्चसीलं - ३४४ 30 [प-प] Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प-प] सद्दानुक्कमणिका [३१] पञ्चालरट्ठधिपतिस्स-६६ पञ्चिन्द्रियानि-५३ पञ्चुपादानक्खन्धा-५२ पञ्चत्तवरबुद्धासने-११ पञत्तिपथोति-८३ पञ्चवन्तोति-१०८ पञवा-५२,३०५ पञ्जा-४५,४६, २००, २३५, २६५, ३१४, ३४० पञाआलोको-३१४ पञाओभासो-३१४ पञाधम्मो-४६ पआपज्जोतो-३१४ पापनायाति-८४ पञापारमी-२१९ पाबलं-३१४ पञ्चावचरन्ति-८४,८८ पाविमुत्तो-८८,९१ पञाविमुत्तोति-९१ पचिन्द्रियं -३१४,३३९ पञ्हाब्याकरणं-२०६ पटाचारा-३०३ पटिकिरिया-२२९ पटिकूलमनसिकारपब्बन्ति-३२६ पटिकूलसञ्जा-२९४ पटिघनिमित्तं-३३२ पटिघसम्फस्सोति-८१ पटिघानुसयन्ति-७५ पटिच्चसमुप्पन्ना-८६, ३२८ पटिच्चसमुप्पादोति-७७ पटिच्चसमुप्पादं -४९, ५१, ५७ पटिनिस्सग्गो-३५१ पटिपत्तीति-१५६ पटिपदााणदस्सनविसुद्धिनिद्देसे - १३८ पटिपन्नभावदस्सनत्थं-२१० पटिपन्नोति-१५२, २१९ पटिपुच्छाब्याकरणीयो-१४१ पटिप्पस्सद्धिविमुत्ति-१७ पटिबलोति-२६१ पटिबाहायाति-११६ पटिभागपुग्गलविरहितो-१६७ पटिलद्धसमथो-३१४ पटिलद्धसमाधि-२१० पटिलाभछन्दो-२८० पटिलोमतो-७४ पटिलोमन्ति-९३ पटिविद्धअसाधारणबाणो-२२६ पटिविद्धदेवतानं-१२५ पटिवेधक्खणे-३५३ पटिवेधगम्भीरताति-७५ पटिवेधोति-१०७ पटिवेधं-२८३ पटिसङ्खानबहुलता-३३२ पटिसङ्खानलक्खणो-१०८ पटिसन्थारधर्म-१५८ पटिसन्थारं-७१,९९,१५९ पटिसन्धि-२०,२१ पटिसन्धिआरोहनं-१६ पटिसन्धिक्खणे-२४ पटिसन्धिचित्तं-२० पटिसन्धिचित्तेन-८२ पटिसन्धिविआणन्ति-८३ पटिसन्धिविज्ञाणभावन्ति -८३ पटिसन्धिविज्ञाणे-८२ पटिसन्धिसञ्जा-८९ पटिसम्भिदा-४८,१४० पटिसम्भिदामग्गतो-३०२ पटिसम्भिदाहि-१०५, १२२, १६३, २४२, २८८, ३०३, ३०५, ३२७ पटिसल्लीना-२६३ पटिसंवेदेतीति-३६१ पठमज्झानलाभिनो-३५४ पठमज्झानसतिं-२६९ 31 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [प-प] पठमज्झानादिलाभीनं-२२४ पठमज्झानादिवसेन - २८४, २८५ पठमज्झानिको -३५४ पठमज्झानं -१६६, २१०, २१२, २१३ पठमदुतियततियचतुत्थज्झानवसेन-२९० पठमबोधियं-१०,१५२ पठममग्गो-३५४ पठमाभिसम्बुद्धोति-१३७ पठमं झानं-२११ पणियानीति-३६१ पणीतभोजनं-१४४, ३४४ पणीतोति-४९ पण्डितवेदनीयोति-४९ पण्डितोति-१५८ पण्डुकम्बलसिलायं-६५ पण्डुकम्बलसिलं-२६१ पण्डुपलासो-२१७ पण्णसालाति-२०० पण्णसालं-४४,२०० पतिहितगुणो-१०१ पत्थितपञ्हा-२९८ पत्तअरहत्तेहि-२३८ पत्तत्थविकं- १०५ पथवीउन्द्रियजातकं-२४० पथवीकायं-३१२ पथवीतलं-१४९,२५७ पथवीदेवताय -१३४ पथवीधातु-३२४ पथवीसञिनियोति- १५४ पथवीसन्धारकउदकक्खन्धो-५१ पथवोज-६८ पदपरमोति-५३ पदब्यञ्जनानीति-१३९ पदीपोभाससदिसं-३ पदुमिनिगच्छो-५ पदुमुत्तरो-४, ७० पदुमो-४ पदेसाणे-६७,७६, २२६ पदेसवत्तिविपस्सकोपि-१६२ पधानमनुयुञ्जन्तो-७० पधानवेमत्तं-१६ पनादो-२५२ पन्नपलासो-२१७ - पपञ्चसञ्जा-२८१ पपञ्चसञ्चासङ्घानिदानोति- २८१ पपञ्चसञ्जासङ्घानिरोधसारुप्पगामिनिन्ति-२८१ पब्बजितकिच्चं-३४२ पब्बजितलक्खणं -६१ पब्बतकीळं - २६१ पब्बतेय्यको-१४७ पब्भाररुक्खमूलेसु-२४१ पमत्तबन्धूतिपि-१३० पमाणपरिच्छेदो-२५ पमाणवेमत्तं-१६ पमादाधिकरणन्ति-११५ पयागतित्थवासिनो-२५२ पयिरुपासना-३४६ पयोगो-३५२ पयोजनपरिच्छेदववत्थापनमेतं-३२० परकामिनीति-२६६ परक्कमधातु-३३३,३४० परचित्ताणं-१९७ परनिम्मितवसवत्तिदेवे-७९ परनिम्मिता-२५५ परमत्थकथा-३४८३४९ परमत्थतो-३४६,३४९ परमत्तोपि - २५६ परमधम्मिको-२२४ परमविसुद्धिं -३०३ परमायाति-१९५ परलोकवज्जभयदस्साविनो-५२ परविसंवादनलक्खणो-२३२ 32 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प-प] सद्दानुक्कमणिका परसम्पत्तिखीयनलक्खणा-२३२,२७८ परहेठना-२३२ पराजयगुळं-३६२ परिकम्मसञ्जाविरहितो-१३६ परिग्गहोति-८० परिचरणभावं-२६८ परिचारिकाति-२६७ परिचिताति-१२९ . परिज्ञापटिवेधेन-३५२ परिणायकरतनं-३१,६४,६५, १९७ परितस्सनाति-२३० परित्ताति-१३२ परित्तानीति-१३५ परित्ताभा-९० परित्तं-६, ५२,८४,८५, ९०, १३६ परिदेवो-३४९ परिनिब्बानकालो-१२५ परिनिब्बानदिवसे-१५० परिनिब्बानसमताय-१४५ परिनिब्बानं-१४२, १५४, १६७,१६८,१७१,१७४ परिनिब्बायतीति-८८ परिनिब्बायीति-१६७ परिनिब्बुतकालतो- १८१ परिनिब्बुतभावं-१६८ परिनिब्बुतभिक्खुनो - १५७ परिनिब्बुतोति- १३९, १४५, १४६, १७१, १७७ परिपुच्छकताति-३३९ परिपुण्णन्ति-१८७ परिभाविता-११४ परिभोगछन्दो-२८० परियत्तिधम्ममच्छरियेन -२७९ परियत्तीति-१०७ परियादानवचनं -३४८ परियुट्ठितचित्तोति-१२९ परियेसनाति-२९३ परियोसानकल्याणं-३०७ परियोसितसङ्कप्पोति - २२५ परिवितक्को - ५८, १२५ परिसुद्धसीला-२६८,२६९ परिसुद्धसीलो-११० परिसुद्धो-७४, २४२, ३४२ परूपघातीति-६१ परूपवादमोचनत्थं-१४२ पलिपन्नन्ति-४१ पलिस्सजाति-२६५ पलोकधम्म-१३८ पल्ललानि-११८ पवत्तिदस्सनत्यं - १६८ पवारणदिवसे-२९५ पवारणसङ्गहत्थेन-२२६ पवाळदण्डसतेन-१८८ पविचयलक्खणो–१०८ पविचयो -३१४ पविवित्तचित्तेन-३०१ पविवेकाय - १४० पवुत्ततालपक्कं -३४२ पवेणीकथं-१०४ पवेणीपोत्थकं-९८ पसटचित्तं -३२९ पसन्नचित्तो-१५३, १९४ पसन्नरूपं-१४४ पसन्नोति-१६६ पसादनीयसुत्तन्तपच्चवेखणता-३४४ पसादसद्धा-१०७ पसाधनकिच्चं-१६९ पसेनदिना-१ पस्सद्धकायं-३४४ पस्सद्धिसमाधिउपेक्खासम्बोज्झङ्गसमुठ्ठापनेन- ३४५ पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गो-१०८ पहटबुद्धवीथियाव-२४४ पहानपटिवेधेन-३५२ पहारदानं-१७३ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] पहीनकामच्छन्दस्स - ३३१ पहीनकिलेसस्स - १३२ पहीनथिनमिद्धे - ३३३ पहीनदोमनस्सा - १५४ पहूत जिव्होति - ३७ पहूत - २४८ पाकटजरा - ३४८ पाचीनसमुद्दजलतलं - १८७ पाटलिगामं - ११६,११७ पाटलिपुत्तनगरमापनवण्णना - ११६, ११७ पाटलिरुक्खस्स - ८ पाटिकङ्क्षाति - ९६ पाटिभोगोति – ३०४ पाटिहारियन्ति - १११ पाणवधादिसाहसिककम्मं - २३ पाणातिपात अदिन्नादानमिच्छाचारेहि - २९१ पाणातिपातं - ११५ पाणिताळसहोति - १६० पातिमोक्खन्ति - ६२ पातिमोक्खसंवरदस्सनत्थं - २९१ पातिमोक्खसंवरो - ६२ पातिमोक्खं - १० पादकथलिका - २२१ पादकथलिक - १०५, २०० पादधोवनकाले - २८७ पादधोवनवन्दनबीजनदानादिभेदं - १०९ पादपरिचारिका - २६७, ३६० पादपुञ्छनचोळकं - ३४६ पादापीति - ३६३ पापकन्ति - १४६ पापजिगुच्छनलक्खणाय - १०७ पापधम्मो - ११५ पापभिक्खू - १०२ पापमित्ता - १०६ पापसम्पवडा १०६ पापसहाया - १०६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा पामङ्गसुतं - ३५० पामोक्खदेवा - २५५ पायागा - २५२ पायासिदेवपुत्तो - ३६४ पायासिराजञ - ३६३ पारगङ्गावासिनोपि – १५५ पारमियो - ११, १८, १९, ५१, १३०, १३८, १५०, १५१, १७९, २१९, २२२, २२५, २२६ पारमीपूरणकाले - ५० पारिच्छत्तको ६४, २१७, २७६ पारिच्छत्तकं - २६१ पारिवासिकभत्तं - ३४१ पालिच्चं - ३४८ पावानगरे- १७० पासाणचेतियं - १८५ पासाणधूपो - १८४ पासाणफलकं - २७५ पासादिका - १२१, १९५, २७८ पाळि - ५२, ६२, ६३, १३९, १५४ पाळिमुत्तकाय - ११६ पाळिवसेन - ३३४, ३३५ पिङ्गलो- १४७ पिटकानि - १०७, १४०, १४१, १६४, २१३ पिटकेसु - २१३ पिण्डपातापचायनं - ३४१ पिण्डपातिकत्थेरं - ३६३ पिण्डपातिकाति - २८७ पिण्डपातो - ६०, ११३, ३४२ पितिपरिच्छेदोति - १३ पितु उपट्ठानं - २१८ पिपासतोति – २६३ पिप्पलिवनिया - १८० पियङ्करमाता - ८९ पियदस्सी - ४ पियदासो - १८३, १८४ पियधम्मसवना - ३०२ 34 [ प प ] Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प-प] सद्दानुक्कमणिका [३५]] पियरूपानि-३५१ पियवचनमेतं-६६,२६१, ३५७ पियवादिनी-१९६ पियसीला - १०४ पिलोतिक-१७३ पिसाचयोनियाति-८९ पिसुणवाचानं-११७ पिळन्धनपुप्फानि-१९७ पीतमल्लत्थेरो-३०५ पीतरस्मियो-२४४ पीतिपामोज्जं-३०४ पीतिसम्बोज्झङ्गो-१०८,३४४ पीतिसोमनस्सजातो-२६५ पुक्कुसोति-१४३ पुग्गलज्झासयो-३५५ पुग्गलप्पटिविभत्तं-११० पुग्गलसप्पायं-२८३ पुग्गलोति-३२४ पुञ्चकम्म- २७२, २७३, २७४, २७६ पुचक्खेत्तं - १७७ पुञचित्तेन-३५ पुञतेजेन-२४,१३४ पुअन्ति-२६५ पुञभागाति-२१४ पुञसमुदायं-१८७ पुञ्जसम्पत्तिं-१९३, १९४ पुञानुभावं-१८८, १९७ पुटकं-२५५ पुटभेदनन्ति-११७ पुटवेदिका -२१८ पुण्डरीकोति-८ पुण्णघटो-३२ पुण्णचन्दमण्डलं-२४२ पुण्णचन्दो-४८,१५२,१७५, १८९ पुण्णमाय-२१ पुण्णो-१११ पुत्तपरिच्छेदो - १४ पुत्तसिनेहो-१४ पुथुकायाति - २७८ पुथुज्जनदेवता-२४७ पुथुज्जनभिक्खूनहि -१५७ पुथुज्जनसीलवतो- १५७ पुथुज्जनोति - २३५ पुथुभूतन्ति-१३० पुथुलजिव्हो-३७ पुनब्बसुमित्तो-१५ पुनब्भवोति-२८ पुब्बण्हसमयन्ति-११८ पुब्बनिमित्तन्ति-२८,२९,२०८ पुब्बभागजाणुप्पत्तिं-३५३ पुब्बभागपटिपदाति-१५२ पुब्बभागसतिपट्ठानमग्गोति-३०१ पुब्बविदेहे - २४३ पुब्बेनिवासकथा-३ पुब्बेनिवासजाणन्ति--३ पुब्बेनिवासानुस्सरणं-२ पुब्बेनिवास-२, ३, ६, ४७, ५१,७६ पुराणजटिलानं-१० पुराणतण्डुला-३४१ पुराभेदसुत्तं-२४६ पुरिमतण्हा-३२०, ३२२, ३२३, ३२६ पुरिमसचाय-६५ पुरिसगब्भो-२१ पुरिसाजज-३४२ पुरिसाधिप्पायचित्तं-२५ पुरिसोति - २९६ पुरोहितोति-२२६ पूजयन्तीति -११८ पूरितपारमी-२०,४७ पूरितसारणीयधम्मस्स-१११ पेतवत्यु-१४० पेतसेय्या-१४८ 35 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६] पेतो - २७९ पेत्तिविसयं - ५७ पेसकारकजियसुत्तं - पेसलाति - १०४ पेसितचित्ता - १५६, २४८ पेसुञकारकोप - २७४ पेसुञकारकं - २७३ पोक्खरणिं - १२३, १९९, २००, २१५, २६४, २७२, २७३, २७५, २७६ पोक्खरसाति - ६ पोतनं - २२८ पोथुज्जनिकसद्धाय - १७७ पोनोब्भविकाति - ३५० पोनोब्भविकाय - १०४ पोराणकत्थेरा - ३०२ पोराणकुमारो - -२३० पोसावनिकपुत्तत्तापि - ३५७, ३५८ पंस्वागारकीळनं - २०४ फ - ७६ फन्दनजातकं - २४० फरणलक्खणो - १०८ फलकावुधानि – २३९ फलचित्तं - ११४ फलञाणानि - ४८ फलप - ११४ फलविमुत्ति - २१४ फलसमाधिना - १७ फलसमापत्तिधम्मोपि - १२२ फलसमापत्तिविहारेन - १२४, २६७ फलसमापत्तिं - १२३, १२५, २५७, २६७ फलसम्माञाणे - २१४ फलसम्मादिट्ठियं - २१४ फलसम्मासङ्कप्पो - २१४ फलसीलेन - १७ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा फलकचेतियं - १८२ फलिकमया - १८६, २१६ फलूपगरुक्खा - ९ फस्सपञ्चमका - २८२ फस्सवसेन - २८२, २८३, ३२७ फरससमुदयाति - ४७ फस्सोति - ७८, ८१, ८२ फारुसकवनन्ति - २६१ फासुका - ४८, २०० फीतन्ति - १३० फुल्लसालं - २६५ समित्ता- ८९ फुस्सोति - ४ फोटुब्ब १- २८०, २९५ व कसकुणिका - २७६ बदर आमलक - ५ बद्धपिण्डिकमंसो - ३४ बद्धमुखो - १५६ बन्धुजीवकपुप्फसदिसेन - ३७ बन्धुमती - २० बन्धुमा - २० बलकायो - ४१ बलन्ति - ८३ बलभेरिं - १०१ बलवपच्चूससमये - ७६, १५०, १६२ बलवपञ्ञ - ३३९ बलवपीतिसोमनस्सं - १४६, २९७ बलवरागो - ८० बलवविपस्सना - ४६ बलववीरियं - ३४० बलववेदनाय - ३२७ बलवसद्धी - ३३९ बलवसमाधिं - ३३९ 36 [ फ-ब] Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ब-ब] सद्दानुक्कमणिका [३७]] बलवसोमनस्सं-१४४, १४५,१४६, २०७ बलानि -१६४ बलिकम्म-११८,१८४, ३६२ बलिसेनं-२५३ बहलधातुकं-३७ बहिद्धाति-१६२ बहुजनहिताय-२१०, २१९, २२० बहुदुक्खा -५६ बहुलीकता-३०९ बहुलीकताति-१२९ । बहुस्सुतता-३३४, ३३५ बहुस्सुतभिक्खुं- ११७ बहुस्सुताति-१०७,११७, १३० बाकुलत्थेरो-६,२९५ बाराणसिराजा-७३ बाराणसी-२२८ बाराणसेय्यकन्ति-१३६. बालपुथुज्जनकाले - ३२४ बावरियब्राह्मणो-६ बावीसतिन्द्रियानि-१६४ बाहुजञन्ति-१३० बाळ्हगिलानाति-३५९ बिन्दूति-२०९ बिम्बादेवी-१४ बिम्बिसारेन-४३ बिलङ्गदुतियन्ति-३६३ बीजनियामो-२२ बुद्धकोलाहलं - २३६ बुद्धगुणे-४७,४८,१५१,३४४ बुद्धचक्खूति-५२ बुद्धञाणानि-१५१ बुद्धदस्सनं-२४३, २६० बुद्धन्तरम्पि-३४१ बुद्धन्ति-२५३ बुद्धपच्चेकबुद्धसावकेहि-२३५ बुद्धपसत्थेन-३५३ बुद्धपुत्तो- ३१८ बुद्धप्पमुखो-६० बुद्धभूमि-१७९ बुद्धमाता -२० बुद्धमुनि-१३१,१३२,१६७, २६५ बुद्धरक्खिताति-३०० बुद्धरस्मीनं --६७ बुद्धवचनं-१०९,११५, १४० बुद्धविसयपहं.-६८ बुद्धवीथि - २४४ बुद्धवंसं-१३ बुद्धसासनं-२४९ बुद्धसीहं-६७ बुद्धसु -९० बुद्धा-२, ३, ४, ५, ६,८,९,१९, २०,३१,३४, ५५, ६१, ७२, ७३, ७५, ११५, ११८, १२५, १२६, १२९, १६७, २१९, २२५, २२६, २४६, २४७ बुद्धानुस्सति-३४३ बुद्धासनं-२४१ बुद्धिचरितानं-२४६ बुद्धप्पादो-१३, २६१ बुद्धोति-१७९, २४७,२५३ बेलुवपण्डुन्ति-२६२ बेलुवपण्डुवीणं - २६३ बोज्झङ्गाति-३०९ बोधिन्ति-१३७ बोधिपक्खियानं-१३८ बोधिपरिच्छेदो-९,१३ बोधिपल्लङ्के-१५,४८,४९,७०,२२६, २४८,२६५ बोधिरुक्खमूलेति-५५ बोधिसत्तमाता-२१,२६ बोधिसत्ता-६,१४, १८,४२,४६ बोधिसत्तोति - १८ बोधिसत्तोपि-१८,१९,४४,२०१ बोधीति-९ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा ब्यगा-८६ भङ्गस्स-८६ ब्यग्यो-३०४,३०५ भत्तकिच्चं-२,४४, ५८,६०,७१, २०० ब्याकरणं- १२० भत्तकिलमथो-२०३ ब्याधिधम्मो-२९२ भत्तपरिळाहो-३३२ ब्याधिधम्म-२९२ भत्तमुच्छा-२०३, ३३२ ब्यापादोति-११९ भत्तसम्मदो-२०३,३३२, ३३३ ब्रह्मआयु-२९८ भत्ताभिहारोति-२०२ ब्रह्मकायिकाति-८९ भद्दकप्पे-४,५ ब्रह्मगरुका-५१ भद्दन्तेति-२५३ ब्रह्मचरियन्ति-१३०,१३८,२१४,२७० भद्दयुगं-९ ब्रह्मचारी-२९६,३११ भद्दियत्थेरो-२९५ ब्रह्मदण्डकथापि-१६५ भद्रानि-११८ ब्रह्मदत्तो-२२९ भमकारो-३१८ ब्रह्मपुरोहितन्ति-२६९, २७१ भमुकन्तरेति -३७ ब्रह्मपुरोहितसरीरं-२६९, २७१ भयपरितस्सना-२३० ब्रह्मलोके-२३६, २४३, २४४, २५६, २६८, २६९, भयसा -५२ २९६ भरतो-२२९ ब्रह्मविहारा-२३० भरियपरिच्छेदो-१४ ब्रह्मसम्पत्तिं-१९,५६,७३ भवक्खयस्स-३०० ब्रह्मस्सरोति-३७ भवगामिकम्म-१३२ ब्रह्मायु ब्राह्मणो-६ भवग्गगहणत्थं-३५२ ब्रह्मजुगत्तोति-३४ भवङ्गचित्तानि-८२ ब्राह्मणगहपतिका-१९८ भवङ्गे-१०६ ब्राह्मणगामोति-२६० भवङ्ग-१६७ ब्राह्मणपरिसन्तिआदीनम्पि-१३५ भवतण्हा-८७, ३५० ब्राह्मणमहासाला-१५९ भवदिट्ठीति-८७ ब्राह्मणमहासालो-१५३ भवनेत्ति-११९ ब्राह्मणोति-१७९, २२७ भवरागसंयोजनं-३३७ भवरागानुसयं-७५ भवसङ्खारकर्म-१३२ भवसङ्खारन्ति-१३१,१३२ भगवतोति-३०१ भवोति-७९ भगवाति -६०, १२८, १३०, १६१, १७१, १७३, भस्सारामो-१०६ १७८, २०५, २२१, २२५, २२६, २४०, २४१, | भाजनभावतो-३११ २४५, ३१८ भातरगाम-११२ भगिनिचित्तं-१५६ भायनलक्खणेन-१०७ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म-म] सद्दानुक्कमणिका [३९] भारद्वाजो- ९, १० भारोति-१२,१३६, १८१ भावनापटिवेधेन-३५२ भावनापारिपूरि-३३८, ३४०, ३४३, ३४४, ३४५, ३४६, ३४७ भावनाबलं-३१४ भावविसुद्धियाव-१९६ भाविताति-१२९ भिक्खुनिभत्तं-११३ भिक्खुनुपस्सयं -३०० भिक्खुनोति-३३१ भिक्खुपरिसा-१५८ भिक्खुसङ्घदस्सनं - २४३ भिक्खुसङ्घोति-६०,१०२ भिक्खूनन्ति-२४१ भिसिसङ्कमोति-३०० भिस्माकायोति-२५६ भूतग्गाहो-११६ भूतुपादायविनिमुत्तएकधम्मानुपस्सी-३११ भूतुपादायसमूहानुपस्सीयेवाति-३११ भूमट्ठदेवता-६ भूमिकम्मतो-२७४ भूमिचालमेव-१६८ भूमिसेनापति-२३३ भूरिदत्तनागराजकाले-१७९ भेसज्जसमुद्वितो-३३९ भोजनमत्त नोपि-३३१ भोजनसप्पाय-२८३ भोजनसालायं-२८७ मग्गचित्तं-११४ मग्गजाणानं-५२ मग्गफलधम्मे-२८६ मग्गफलं-२२२, २८८ मग्गविमुत्ति-२१४ मग्गसच्च-३२०,३२२,३२३,३२६, ३५२ मग्गसमाधि-११४ मग्गसम्मादिट्ठियं-२१४ मग्गसम्मासङ्कप्पो-२१४ मग्गसीले-११३ मग्गसुखस्स-२११ मग्गोति -४६,१६४,२९९, ३००,३०२,३०८,३०९ मघमाणवकालतो-२७१,२७८ मघमाणवो-२७५ मङ्गुभूतो-११५ मङ्गलो-४ मचलगामके-२७१,२७८ मच्छरियलक्खणा-२३२ मच्छरियं-१११, २७९, २८० मज्जनलक्खणो-२३२ मज्झिमदेसो-२० मज्झिमपुरिसस्स-१८६ मज्झिमयामे-५१,७६, १४९, १६२, २६२ मज्झेकल्याणं-३०७ मञ्जतीति-२३२ मजनलक्खणो-२३२ मणिगङ्गाय-६८ मणिथूपे-१८२ मणिरतनं-३१,१९५,२०४ मतसरीरं-३२५ मत्तकरवीक-३५० मत्त ताति-६२ मत्तिकालेपं-३६० मदनीयोति-१८६ मदो-२३२ मद्दराजकुलतो-१९५ मगधरञो-११६ मगधरढे-११६,२७१ मग्गक्खणे-४८, ३५३, ३५४ मग्गङ्गबोज्झङ्गानि-३५४ 29 Jain Education Interational Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [म-म] मधुगोलकञ्च-१७२ मधुरकजातो-१२३ मधुरधम्मस्सवनं -१०५ मधुररसं-३८ मधुरस्सरोति-३८ मनसिकरोतीति-१६८,२१२ मनुस्सत्तं- १४५, ३०० मनुस्सलोकतो-६४ मनुस्ससरीरगन्धो-२८९ मनुस्साति-२६, ८९, २६२, ३५९ मनोकम्म-१०९,११० मनोपदोसिकाति-२५४ मनोभावनीयेति-१५५ मनोविज्ञेय्यो-२९५ मनोसम्फस्सो-८१ मनोसिलाय-१५३ मन्तबलेन-२११ मन्तसंविधानेन-२११ मन्दपञो-३३९ मन्दलोचनाति-२६५ मन्दवलाहकाति-२५४ मन्दसद्धो-३३९ मन्दाकिनि-१४७ मन्दारवपुष्फं-१७० मन्धाता-६५ मन्धातुकाले-६४ ममुद्देसिकोति- १२४ मरणकालकिरिया-३४९ मरणधम्मो-२९२ मरणनिमित्तानि-२६० मरणभयभीतो-२६१ मरणासन्नकाले-२०२ मलहरणिं-२०१ मल्लपामोक्खाति-१६९ मल्लपासाणोति-६८ मल्लपुत्तोति-१४३ मल्लिका-१६९, २२१ मसारगल्लकरण्डे - १८२ मसारगल्लमया-१८६ महग्गतकम्म-१३१ महग्गतन्ति-३२९ महप्फलोति-३६२ महब्बलाति-२५० महाअजगरो-२७९ महाउपासिका-१११,१२७, ३४१, ३४२ महाउपासिकाति-२९८ महाकलहो--१४८ महाकस्सपत्थेरोति-६ महाकस्सपो-१०३, १६५, १७४, १८३ महाकायो-२५६ महाखीणासवो-३४२ महागतिम्बयअभयत्थेरो-१०७ महागिरिगाम-१११ महागोविन्दपण्डितो-२३६. महागोविन्दसुत्ते-२९७ महाचेतियसदिसञ्च-१५१ महादुक्खन्ति-३६० महाधम्मदेसनं-२२३ महानिदानं-२९९ महानुभावोति-१३२, २०० महापहा-२९६ महापथवी-७६ महापदाने-१३४ महापदुमानि-८ महापदेसेति-१३९ महापरिनिब्बानसुत्तं- ९५ महापवारणा-२८७ महापुरिसलक्खणं-३५ महापुरिसस्साति-३० महापुरिसं-४०, १२७ महाबलाति-२५० महाबोधि-१६ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म-म] सद्दानुक्कमणिका [४ ] महाबोधिपल्लङ्को-५ महाब्यूहसुत्तं -२४६ महाब्रह्माति-६१ महाभिनिक्खमनं– १४, १६, ४३, ४७, ७०, १५०, २१९ महाभिसमयो-२५७ महाभूमिचालोति-१३१,१६८ महामायादेविया-३४३ महामोग्गल्लानत्थेरो-१२८,२९५ महामोग्गल्लानं-११ महारजक्खा -५२, ५३ महारवं-१४३, २७३ महावनेति-२३८ महाविपस्सनाय - १२३ महाविपस्सनावसेन - १२३ महाविपाकं -२०१ महाविहारं-३०५ महावेदल्लसुत्ते-२८३ महासतिपट्ठाने- १२१, २८३ महासमयोति-२४४ महासिरीसरुक्खो-३६३ महासीवत्थेरो-२१,९१,१२९,२८८,३५५ महिद्धिकोति-१९९ महेसक्खदेवतानं-२१७ महेसक्खो-२६२ महेसक्खोति-२६ मागण्डियसुत्ते - २८३ मागण्डियं-२९९ मातलि - २१८, २५२ मातुउपट्टानं-२१८ मातुकुच्छिं -५,१३,१६, १८,२१,१३४, १७० मातुचित्तं - १५६ मानपपञ्चो-२८१ मानानुसयं-७५ मानुसिवण्णं-१९५, १९६ मारणन्तिकाति-१२२ मारबलं-४७,५१,७६ मारसम्पत्तिं-१९, ५६,७३ मारसेनप्पमद्दनोति-३०९ मारसेना - २५६, २५७ मारोति-१३० मालापूज-१५२ माहिस्सति-२२८ मिगदायोति-५५ मिच्छाआजीवन्ति-३५३ मिच्छाजीवदुस्सील्यचेतनाय -३५३ मिच्छादस्सना-१२५ मित्तदुब्भनलक्खणो-२३२ मिथिला - २२८ मिलिन्देन-१६५ मिस्सकमग्गोति-३०१ मिस्सकवनं-६४,२६१ मुखधोवनकाले-२८७ मुचलिन्दे - ४९ मुञ्जकेसो-१९४ मुजपब्बजभूताति-७७ मुट्ठस्सति-५२, ३१३, ३३८ मुट्ठस्सतिपुग्गले-३३८ मुत्तपलिबोधस्सेव-११० मुत्तो मोचेस्सामी-५० मुदिता- ९२ मुदिताति-४९ मुदिन्द्रिया-५२ मुदुचित्ते-३४४ मुदुतलुनहत्थपादोति-३३ मुदुदीघपुथुलभावं-३७ मुधप्पसन्नो-३३९ मुनीति-१३१, १३२ मुव्हनलक्खणो-२३२ मुसावादभयेन - २१४ मूलन्ति-७६,७७ मेघियत्थेरेन-११ 41 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४२] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [य-र] मेत्तचित्तपटिलाभो-२९ मेत्ता-३३२ मेत्ताकरुणाकायिकाति-२५३ मेत्ताझाने-२५३ मेत्तापारमी-२१९ मेत्ताभावनानुयोगो-३३२ मेत्ताभावनारते-३३२ मेत्तासहगतेन-९२ मेत्तं - १०८, १०९,११०,१५८, ३३२ मेत्तेन - १५८ मेधङ्करो-४ मेधावीति-१५८ मोग्गल्लानो-१० मोघराजा-२११ मोरहत्थको-३२ मोहक्खयो-३५१ मोहमूळ्हा-५१ मोहोति-२३२ मंसकायं-३१२ मंसचक्खु-३९ मंससआ-३२४ यमकसाला -१४७,१४९ यमकसालानन्ति-१४५ यमुनवासिनो-२५२ यवलक्खणं-३३ यससंवत्तनिकन्ति-१४६ यसो-१०३ यागुदानं-१७२ यानपरिच्छेदो-१५ यामादेवलोकवासिनो-२५५ यावतिच्छकन्ति-९३ युत्तयोगो-३१८ युद्धसज्जा-१९१, २३९ योगक्खेमोति-२९६ योगसमत्थो-३१४ योगानुभावो-३१४ योगावचरो-३२३, ३५२ योगावचरोति-३३८ योगिनो - ३२३ योगी-१९३, ३२४ योग्गानीति-३६१ योनिसोमनसिकाराति-४५ योनिसोमनसिकारो-४५,३३१,३३२, ३३८,३४३ यखग्गाहो-११६ यक्खराजा-२१६ रक्खितसीलं-२६० यक्खाति-७८ रजतकरण्डेसु-१८२ यक्खिनी-८९ रजतपब्बतो-२१,१९३ यक्खोति-२७१,२७८ रजतमया--२१६,२६२ यत्थिच्छकन्ति-९३ रजतविमाने-३६३ यथाअज्झासयन्ति-११४ रजनीयोति-१८६ यथापरिसन्ति-२०९ रजोजल्लन्ति-३४ यथाभिरन्तन्ति-११४ रट्ठपालत्थेरो-२११,२९५ यथामित्तन्तिआदीसु-१२२ रट्ठपालं-२९९ यन्तं-१८३,३२१ रतनं -३१, १७८ यमकपाटिहारियं-५, १६,१३८,१५०, १७०, २१९ । रत्तकम्बलपटलं-३५० Jain Education Interational Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ल-ल] सद्दानुक्कमणिका [४३] रत्तकम्बलो-३०८ रूपकायो-३११ रत्तचित्तो-२५ रूपज्झानं- ९२ रत्तञ्जू-१०४ रूपतण्हाति-७९ रत्तिन्दिवं-१०६ रूपन्ति-४७, ८१, ३१९, ३३५ रत्तुप्पलं -३२ रूपपरिग्गहो-२८१ रमणीयतरन्ति-६४ रूपसञानन्तिआदीनं- ९१ रसग्गसग्गीति-३६ रूपसञी-९२,१३५ रसायनविधि-१४२ रूपसमुदयोति-४७ रस्मिगब्भन्तरं-२४८ रूपसम्फस्सगन्धसम्पत्तियुत्ताय-१९६ रस्मिवेमत्तं -१६ रूपादितण्हा-८० रागक्खयो-३५१ रूपायतनं-३६१ रागचरिता-५४, २४६ रूपारम्मणं-१२९,२४६, ३३७ रागदोसमोहक्खया-१४६ रूपावचरचतुत्थज्झानं-९३ रागदोसमोहखीलं-२४५ रूपावचरचित्तेन-२४७ रागदोसमोहमानदिट्ठिकिलेसतण्हासङ्खातं-३२ रूपावचरज्झानानि - ९२ रागदोसमोहरजं-५२ रूपियमया-१८६ रागरत्ता-५१ रूपुपादानक्खन्धो-३५० राजककुधभण्डानिपि-२७ रेणु-७०, २२९, २३० राजकत्तारोति-२२८ रेवतो-४ राजगह-४३, १२८,१८०, १८४, २२०, ३५७ रोगदुक्खेन-४१ राजचदानं-३६३ . रोगो-१४७, २९६, ३३९ राजधम्म-१५९ रोदुकं-२२८ राजापराधिका-२७२,२७३ रोहिणिं-२३८ राजिद्धिया-९५ रामगाम-१८३ राहु-१४,६९ राहुअसुरिन्दं-२५३ लक्खणपटिवेधतो-३५२ राहुलत्थेरो-२९५ लङ्कादीपे-१८१ राहुलभद्दे-१४ लटुकिकजातकं-२४० राहुलमाताति-१४ लाखारसपरिकम्मसज्जितं-२१७ रुक्खदेवता-१४६ लाभमच्छरियेन-२७९ रुक्खमूलगतो-३१७ लाभसम्पत्तिं-३५७ रुक्खमूलंयेव-११३ लाभो-२२१ रुधिरकायं -३१२ लाभोति -८०, २२०, २२३ रूपकम्मट्ठानं-२८१, २८२, २८३, २८४, ३२७, ३२८ | लामकजातिको-३४३ रूपकसिणलाभिं-८५ लामकं-१४६,२३५,२६८ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४] दीघनिकाये महावग्गट्टकथा [व-व] लामसेट्ठदेवा-२५५ लोहितरस्मियो-२४४ लिखनकाले -३१८ लोहितवासिनोति-२५४ लिङ्गानि-८१ लिच्छवी-१०१ लिच्छवीति-१०१ लीनमत्थं-८१ वक्कलित्थेरवत्थु-३३९ लीनाकारो-३३२ वग्गुस्सरोति-३८ लुज्जनपलुज्जनटेन -३१३ वङ्ककुटिलजिम्हभावे-२४५ लुब्भनलक्खणो - २३२ वचीकम्म-१०९, २२३ लुम्बिनीवने - २१९ वचीसङ्घारा-२१२ लूखपुग्गलपरिवज्जनता-३४४ वचीसमाचारो-२९३,२९६ लोकधम्मा-५२ वज्जिचेतियानीति- ९८ लोकधातु-१३१,१३७,२२६ वज्जिधम्मन्ति-९७ लोकधातूति-२२६ वज्जिधम्म- ९७,९८ लोकनित्थरणत्थाय-१९ वज्जिरढे-९८ लोकन्तरिकाति-२३ वञ्चनलक्खणा-२३२ लोकस्साति-२४७ वट्टकजातक-२४० लोकियलोकुत्तरसमाधिना-१७ वट्टकथा-८७ लोकियलोकुत्तरसीलेन-१७ वट्टन्ति-४० लोकियविपस्सनापि-१०८ वट्टमूलकं-३४५ लोकुत्तरधम्मा-३३७ वट्टिलेखा-३२ लोकुत्तरधम्मोति-१११,११२ वड्डकी - २७४, २७५ लोकुत्तरधम्म-१११,३४३ वडितआयुकालो-१९ लोकुत्तरमग्गो-३०२, ३१० वणमुखेहि-३२५ लोकुत्तराति-१६४ वणिप्पथोति-११७ लोकुत्तरो-३०१, ३५५ वण्णमच्छरियेन-२७९ लोको-५,५२,५६,१६२,१९८,२१३, २२६,२४२, | वत्थगुरहन्ति-३४ २९५, ३१३, ३१५ वत्थालङ्कारविमानसरीरानं - २०८ लोकोति-५१, ५२, २१३, २९५, ३१३ वत्थुकताति-१२९ लोणधूपनं-३४० वत्थुविज्जाचरियो-३१८ लोहगेहे--२७९ वत्थुविसदकिरियता-३४५ लोहन्ति-३६२ वत्थुविसदकिरियाति - ३३९ लोहपासादे - ९३, १५४, २४३ वत्थं-२६,९६,१३७,१५३,२७५, ३४२ लोहितकसिणं-२४४ वनकम्मिकादयो-९ लोहितकथूपे - १८२ वयधम्मा-३२८ लोहितचन्दनथूपे- १८२ वयधम्मानुपस्सी-३१९,३२९ 44 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व-व] सद्दानुक्कमणिका __[४५] वरबुद्धासने-३ विक्खित्तचित्तानं-३४६ वरुणदेवता-२५३ विक्खित्तन्ति-३२९ वरुणवारणदेवता-१५० विक्खित्तपुग्गलं-८७ वरुणा-२५३, २५४ विगतकथंकथोति-२२५ वलाहककुलं-२०४ विगतदोमनस्सा-२७८ वलित्तचता-३४८ विचक्का-१४३ वल्लभो-७२, २६२ विचक्खणाति-२५५ वसनगाम-२७४ विचिकिच्छछिन्नं-२७१ वसनट्ठानं-६५, ११४, ११७, १२७, १५७, २०२, विचिकिच्छा-२२४,३३४, ३३५,३३६ २७५ विचिकिच्छाव-३३४ वसभराजा-२०४ विजम्भिता-३३२,३३३ वस्सकारब्राह्मणं-९६ विजाननलिने-८१ वस्सकारो-११६ विजितसङ्गामो-३०,५५ वस्सावासं-७२ विजितसेनो-१४ वस्सूपनायिकदिवसे-७२, २९५ विजितावीति-३० वस्सूपनायिकाति-२०८ विज्जतीति-१७४ वाचाविप्पलापभूतं-३०७ विज्जाधम्मो-४६ वातभक्खो-२२४ विज्झनअयदण्डको-२६४ वातवलाहका-२५४ वित्तिं-३२१ वातातपहतानीति-३६२ विज्ञाणक्खन्धो-३६० वातुक्खित्तनावा-७७, ८७ विज्ञआणट्ठितियो-५२ वादनसज्ज-२६३ विआणनिरोधोतिआदीहि-४६ वादविनिच्छयो-३५५ विआणन्ति - ४५,८१, ३२५ वामकण्णचूळिकायं-३८ विज्ञाणसमुदयोति-३३० वामूरूति-२६४ विहीति-३०७ वायो-२५३,३२१ विटुच्च-२५१ वायोकायं-३१२ विटेण्डु-२५१ वायोधातूति-३२४ वितक्कोति-२८१ वारणा-२५३ वितिण्णकलो-३१९ वासिफरसुं-२७४ वित्थारेतुकम्यतापुच्छा-३१६ वाळबीजनी-३२ विदेसपक्खन्दनावानं-२९ वाळमिगा-३९ विदेसपक्खन्दा-२८ वाळरूपानि-२१६ विदेहरट्ठन्ति-६५ विकारदस्सनवसेन-३४८ विधुरो-९ विक्खम्भनविमुत्ति-१७ विनयधरे-३३४ विक्खम्भनविमुत्तीति-१७ विनयधरो-१०५ 45 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४६] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [व-व] विनयपत्तिं -६७ विपाकवेदना -७९ विनयपिटकं-१४०,१६४, २१३ विपाकसम्फस्सानंयेव-७८ विनयातिसारेति-१३९ विपुलभावाय-३५४ विनयोति-१३९, १४०, १४१ विपुलोति-२२ विनासेतीति-२९६ विप्पकिण्णदत्तिंसमहापुरिसलक्खणे-२२३ विनिच्छयवितक्को-२८१ विप्पकिण्णाति- १७५ विनिच्छयोति-८०,२८०,२८१ विप्पमुत्तो-४८ विनिपातिकाति-८९ विप्पलपन्तस्साति-३५९ विनीलकं - ३२५ विप्पसन्नअनाविला-२४८ विनेय्याति -३१३ विप्पसन्नइन्द्रियभावं-२०२ विपञ्चितञ्जू-५३ विप्पसन्नउदकं-६८ विपत्तिभवलोको-५२ विभङ्गट्ठकथाय-२१० विपन्नसीलो- ११५ विभङ्गे-३१३,३१४ . विपरिणामदुक्खाति-३१६ विभज्जव्याकरणीयो-१४१ विपरिणामधम्माति-२८४,२८५,२९० विभत्तरूपारम्मणेसु-२४६ विपरिणामधम्म-९१ विभवतण्हाति-८० विपरिणामलक्खणं-४७ विभागदस्सनं-१२१ विपरिणामविरागनिरोधं-२८४,२८५,२९० विभिंसकं--१८१,२५७ .. विपस्सकानं-१०८ विमतिधम्मो-१६१ विपस्सको-३१८ विमलाति-२४५ विपस्सना-४५, २०७, २३७, २८६,२९०,३१४ विमानद्वारे-२८,३६३ विपस्सनाकम्मिकस्स-३४० विमानवत्यु - १४० विपस्सनागभं-१५१ विमुत्ति-१७ विपस्सनााणे-४७ विमुत्तित्राणदस्सनेन - १२८ विपस्सनाजाणं-४५ विमुत्तिपुप्फेहि-२९ विपस्सनाति-२८४ विमुत्तिसुखेन -२९ विपस्सनाधम्म - १३० विमुत्तोति-९१,९३ विपस्सनापञ्जा-१०८,११४ विमुत्तं-४८, ३३० विपस्सनापटिपाटिया - २८२ विमोक्खोति-९२,१६७ विपस्सनामग्गफलसम्पयुत्ते - १०८ विरजं-२७० विपस्सनामग्गमूलको-४६ विरमणसञानं-३५३ विपस्सनामग्गो-४६ विरागधम्मा-३२८ विपस्सनाय -- १५१, २८१, २८९, ३५५ विरागाति-२७० विपस्सनासम्भारभूता-१०८ विरूपक्खो-२१६,२५१ विपस्सी-४,६,७,१४, १८, १९, ३९, ४२.५५ । विरूळहको-२१६, २५१ विपस्सीति-४,१८,३९ विरूळ्हिं-८२,८३, ३६२ 46 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [a-a] विरेचमानोति - १४२ विलातन्ति - ४२ विलीयन्तीति - २८१ विवट्टच्छदोति - २१ विवाहमङ्गलं – २७८ विविधपुप्फदामवितानं - ५८ विसदत्राणो - ६८, ७५, १३६ विसदभावकरणं - ३३९ विसभागरोगो - १२२ विसाखपुण्णमा - ४३ विसाखा - ६, २९८ विसारदो - ११५ विसुज्झन्तीति - ३०३ विसुद्धचक्खुति - २५२ विसुद्धिपवारणं - २८६, २८८, २८९ विसुद्धिमग्गे - ५,४५,४७, ९१, ९२, १२०, १३६, १३७, १३८, २०१, २१०, २१३, २१४, २३७, ३१८, ३२३, ३२४, ३३५, ३३६, ३३७, ३४७, ३५५ विसुद्धियाति - ३०२, ३०३, ३०७ विसेसाधिगमदिट्ठधम्मसुखविहारपदट्ठानं - ३१७ विसकम्मो - १९९ विस्सज्जनछन्दोति - २८० विस्सट्टकम्मट्ठानं - ८७ सद्दानुक्कमणिका विस्सट्टकायिकचेतसिकवीरिये - ३४३ विस्समनसालं - २७४ विहरतीति - ६४, ६५, १२१, १२७, २२०२६१, २७१, ३१३, ३१४, ३१७, ३१९, ३२०, ३२९ विहारपरिच्छेदो - १५ विहारभूमिग्गहणधनपरिच्छेदो - १५ विहारोति - १५७ विहिंसालक्खणा - २३२ वीणा - २८, २६२ वीणासहस्स– २६६ वीतदोसन्ति - ३२९ वीतदोसो - २४२, २६३ वीतमोहन्ति - ३२९ वीतमोहो - २४२, २६३ वीतरागन्ति - ३२९ वीतरागो - २४२, २६३ वीमंसासमाधीति - २१० वीमंसिद्धिपादो - २१० 47 वीरङ्गरूपाति – ३१ वीरियछन्दं - ३५३ वीरियपारमी- २१९ वीरियबलं - ३१४ वीरियसभावा – ३१ वीरियसम्बोज्झङ्गो - १०८, ३४१ वीरियिद्धिपादो - २१० वीरियिन्द्रियं - ३१४, ३३९ वुट्ठानगामिनिविपस्सना - ३५५ वुड्डपब्बजितोति - १७१ वुत्तकामगुणनिस्सितं - २८४ वुत्ततण्हाविनिच्छयवसेन - २८१ वृत्तप्पकारपुञ्ञकम्मपच्चयउतुसमुट्ठानं - १८७ वृत्तयुत्तकारणमक्खलक्खणेन - ३६१ वूपसन्ततेजं - ३६० वूपसमोति - १६७ वेघनसा- २५५ वेजयन्तरथो - ६४ वेजयन्तो - ६४, १३३, २७६ वेजयन्तं - १३३, २६१ वेज्जकम्मदूतकम्मादीनि - १०२ वेज्जकम्मादिकारका - १०२ वेदीपं - १८३ वेठमिस्सकेनाति - १२४ वेणुखण्डं - ३१६ देवता - २५४ [४७] वेदनन्ति - ३२७ वेदना - ४७, ५२, ८१, ८४, ८६, १२३, १२७, १४९, १६४, २८१, २८२, ३१०, ३१५, ३१६, ३२७, ३२८ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [स-स] वेपुल्लपब्बतो- २५० वेमज्झट्ठानसङ्खाते-३२४ वेवचनं-६, १७, २२, २३, ३०, ६१, ८६, १३०, २४५ वेसालिनगराभिमुखं-१३९ वेसाली-१२१ वेस्सभू-१४, २२९ वेस्सवणो-२१६ वेस्सामित्ता-२५० वेहप्फलापि-९० वेहायसा - २५२ वेलुरियमया-१८६ वेळुवगामकोति-१२२ वेळुवगामो-१२२ वेळुवने-१० वोसानन्ति-१०६ वोहारमत्तं-३२१, ३२७, ३४८, ३४९ वेदनाकम्मट्ठानवण्णना-२८१,२८२,२८४ वेदनाक्खन्धपरिग्गहोव-३३० वेदनाक्खन्धादीनं-५७ वेदनाक्खन्धो-२१० वेदनाति-७९, ८१,२८३, ३०५, ३१५, ३२७ . वेदनाधम्मो-८५ वेदनानिरोधा-८६ वेदनानुपस्सना - ३२९, ३५५ वेदनानुपस्सनाभावनानुभावनिब्बत्तेन - ३१० वेदनानुपस्सनामुखेन-३१० वेदनानुपस्सनाय -३३० वेदनानुपस्सनासतिपट्ठानं-३०९, ३२९ वेदनानुपस्सीति-३१५ वेदनानुवत्तनवसेन - १२२ वेदनानुवत्ती-१६७ वेदनापच्चयेन-८० वेदनापरिग्गहसुत्तन्ते - १० वेदनापरिग्गाहिका-३२९ वेदनापि-२८२ वेदनावसेन -२८२, २८३, २८४, ३२८ वेदनाविक्खम्भनतो-१४६ वेदनाविरहिते-८६ वेदनासासङ्घारविाणानं-४७ वेदनासभागा-२९० वेदनासमुदयोति-४७ वेदनासम्पयुत्तत्ता-८५ वेदनासीसेन -- २८३ वेदनासंयुत्तेति-२८३ वेदपटिलाभन्ति- २०९,२९७ वेदयतीति-३२७ वेदयितनिमित्ते-८१ वेदयितलिङ्गे-८१ वेदल्लपिटकानं-१४० वेदितब्बोति--२७० वेनेय्यपुग्गला -५४ वेपचित्तिअसुरो-२५३ सउत्तरन्ति-३२९ सउद्रयाति-२३७ सकटचक्कानं-२३ सकटसतानि-१४३ सकटं-३२१ सकदागामिअनागामिअरहत्तफलमेव -२९१ सकदागामिफलं-७५, १२०, २५८ सकदागामिमग्ग-२९७ सकदागामी-२०६, २९१, २९७,३०५ सकमातुमिच्छादस्सनमत्तम्पि-१२५ सकलकायं-२५८ सकलजम्बुदीपे- ११७, २२७, २३२, २३६, २४३, ३५९ सकलसरीरं-१४,२८३, ३४४ सक्कपञ्चसुत्तं -२६० सक्कमारब्रह्मसिरियो-२६८ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स-स] सद्दानुक्कमणिका [४९] सक्कायदिट्ठि-८५ सतपाकतेलं-२८३ सक्कोति-२५, २६, ३४, ३९, ५६, ६९,८७,११५, सतिअविप्पवासेन-१६६ १५१, १५२, १५४, २११, २४२, २४७, २५४, | सतिगोचरो-३०८ २७३, २७९, २८६,२९४, २९५, ३३९ सतिन्द्रियं -३१५, ३३९ सक्खिभावत्थाय-२९८ सतिपट्ठानदेसनं-१२१ सक्खिसावको - १६३ सतिपट्टानन्ति-३०८ सग्गकथन्ति-५६ सतिपट्ठानभावना-३२०, ३२७ सग्गसम्पत्ति-६० सतिपट्ठानभावनानुयोगमनुयुत्ता-२९९ सङ्घटितचित्तं -३२९ सतिपट्टानमग्गो-३०७ सङ्खधमोति-३६१ सतिपट्टानाति-३०८, ३०९ सङ्खपालनागराजकाले - १७९ सतिपट्ठानादिधम्मा- १२३ सङ्खलिकानि-१३८ सतिबलं-३१५ सङ्खारकेलायनो-३४७ सतिमाति-२१३, ३१३, ३१५ सङ्कारक्खन्धो-२१० सतिसम्पजञानं-३२० सङ्घारमज्झत्तता-३४६ सतिसम्पजङ-२०,३३८ सङ्गणिकारामोति- १०६ सतिसम्बोज्झङ्गन्ति-३३८ सङ्गीतिकारकानं-१६३,१६६ सतिसम्बोज्झनो-१०८, ३३८ सङ्गीतियोति-१४१ सतिसम्बोज्झङ्गं-१०८ सङ्घरक्खित-१३३ सतोति-१८, ८२, २३४, २६५, २९७ सङ्घरक्खितसामणेरो-१३२ सत्थकभावदस्सनत्थं-१५५ सचित्तपरियोदपनन्ति-६१ सत्थवाहो-१४,५५ सच्चपरिग्गहोति-३५५ सत्थाति-१६४,२४८ सच्चपारमी-२१९ सत्थादानं-८० सच्चप्पटिवेधो-१०७ सत्थुदायज्ज-३४२ सच्छिकिरियापटिवेधेन-३५२ सत्थुमहत्तपच्चवेक्खणता-३४० सच्छिकिरियायाति-३०७ सत्थुसासनन्ति-१४० सजाति-२६४ सत्तअरियधनतो-११५ सञ्चलितखन्धसाखविटपा-१४९ सत्तबोज्झङ्गा-३५६ सजातगब्भा-२६ सत्तभू-२२९ सञ्जानननिमित्ते-८१ सत्तमज्झत्तता-३४६ सञ्झारागसस्सिरिका-१८८ सत्तरतनानि-७१,२९९ साक्खन्धो-२१० सत्तसङ्घारमज्झत्तपुग्गलसेवनता -३४६ सञाति-८१ सत्तस -३२४ सजावेदयितनिरोधसमापत्तिया-१६६ सत्तानुपस्सना-१७ सण्ठानपारिपूरिया -१९५ सत्तावासा-५२ सतधोतसप्पिं-२८३ सत्तिपञ्जरं-१७६ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५०] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [स-स] सत्तोति-३२४ सदण्डावचरको-२९७ सदामत्ता-२५५ सदिसो-३९,९६, १७७, २४७,२६० सद्दतण्हादीसु-७९ सद्दलक्खणं-१४३ सद्धन्ति-५५ सद्धम्मो-२३५ सद्धाति-१०७ सद्धापवानं-३३९ सद्धाविमुत्तो-१०७ सद्धिन्द्रियं-३३९ सद्धिविहारिकादयो-२७९ सनकुमारो-२१८, २३०, २३२, २३४, २५६ सनन्तनोति-२३४ सनाभिकं-१८७ सन्तपरिवारो-२४२ सन्धिसमलसङ्कटीराति-१६९ सन्नद्धकलापन्ति-३६१ सन्निधिछन्दो-२८० सन्निपातोति-१० सपजापतिका-२७० सप्पटिघं-८१ सप्पाटिहारियन्ति-१३० सप्पायकथाति-३३१, ३३२,३३३, ३३४,३३५ सप्पिनवनीतेन-१६१ सप्पिफाणितयोजितस्स-३४२ सबलं-११३ सब्बकल्याणञ्चेव-२२७ सब्बकामा-१४ सब्बकामेहीति-३८,१९९ सब्बकिच्चसंविधानसमत्थं -१९७ सब्बकिच्चानुसासनेन-१९७ सब्ब ताणसिरिपत्तस्स-३९ सब्ब ताणे-२२५ सब्ब ताणं-७५,१३०,१६२, २१९, २६५ सब्ब बोधिसत्तानं-१०७ सब्बत्थककम्मट्ठानं-३१४ सब्बत्थकबहुस्सुतोति-१०७ सब्बदुक्खक्खयत्थं-११४ सब्बधम्मता-३० सब्बनिमित्तानन्ति-१२४ सब्बपरियत्तिको-३०२ सब्बपलिबोधे-२३५ सब्बपापस्साति-६१ सब्बपापं -६२ सब्बप्पकारकायानुपस्सनानिब्बत्तकस्स-३१७ सब्बबुद्धानं-९,४९,६२ सब्बबोधिसत्तानं -१३,३०,४२ सब्बरतनथूपे-१८२ सब्बरोगा-२८ सब्बलोकुत्तमं-२७१ सब्बसङ्घारसमथोति-५० सब्बसमापत्तिसुखं- १६७ सब्बालङ्कारपटिमण्डिता-२२१ सब्बालङ्कारविभूसिता -२१ सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो-५० सब्बोतुकन्ति-१९८ सब्मिरक्खितधम्मो-२३५ सब्रह्मचारिमहत्तपच्चवेक्खणता-३४० सब्रह्मचारिमहत्तं-३४३ सभावाति-५२ समक्खन्धसाखो-३६ समचित्तसुत्तदेसनादिवसे - १२५ समणधम्मपटिपत्तिकरणोकासो-१९९ समणधम्म-११, १२१, २८८, ३०४, ३०५, ३३३, ३४१, ३५७,३५८ समणलक्खणं-६१ समणोति-६१ समत्योति-२४६ समथनिमित्तं -३४५ समथविपस्सनाबलेन-१३२ 50 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स-स] सद्दानुक्कमणिका [५१]] समथविपस्सनाहि-६२ समथवीथिपटिपन्नं- ३४५ समनुपस्सतीति-८८ समन्तचक्खूति-५२ समन्तपासादिकाय-१०७ समन्नागतोति-३१, ३४,११५, १९७, २६५ समपञासलक्खणवसेन - ४७ समयन्तरन्ति-६७ समलं-१६९ समवट्टक्खन्धोति-३६ समसमफलाति-१४५ समसीसी-३२७ समागमोति-२४५ समाचिण्णधम्मे-२६९ समादपेसीति-५७ समाधि-११४,२१०,३४० समाधिनाति-२६७ . समाधिन्द्रियं-३३९ समाधिपरिक्खाराति-२१३,२१४ समाधिपारमिं-९,१० समाधिवीरियानञ्च - ३३९ समाधिसम्बोज्झङ्गो-१०८ समानदिट्ठिभावं-११४ समानाचरियभिक्खूति-२८७ समापत्तिदीपनं-९३ समापत्तिबलेन -९ समापत्तिविक्खम्भिता-१२३ समाहितचित्तानं-३४६ समाहितोति-१३१, १३२ समुच्छिन्दन्तानं-९७ समुच्छेदपटिप्पस्सद्धिनिस्सरणविमुत्तीनं-३३० समुच्छेदविमुत्तीति-१७ समुट्ठितरूपानि-८२ समुदयदस्सनं-४७ समुदयधम्मानुपस्सी-३१९,३२२, ३२९ समुदयन्ति-९१ समुदयवयधम्मानुपस्सीति-३३० समुदयसच्चं -३२०, ३२२, ३२३, ३२६ समुदयोति-४६,४७,७९, ३३६, ३५२ समुदाचारतण्हा-८० समुद्दो-३२ समोलम्बिततालक्खन्धमत्तं-५८ समोसरणाति-८१ समोसरणंओसरणसमोसरणं- ८० समोहन्ति-३२९ समोहो-२६३ समंसलोहितं - ३२६ सम्पजनसङ्खातेन-३१३ सम्पजञ्जेन- १२१,३१४ सम्पजचं-३१४ सम्पजाननं–३२० सम्पजानमुसा-८९ सम्पजानवेदियनं-३२७ सम्पजानातीति-८३,१२१ सम्पजानो-२१, १०६, १२१, १२२, १३१, १३५, १३७, १५०, ३१३, ३२८ सम्पजानोति-१८, ३१३, ३१४, ३१५ सम्पतिजातोति-२७ सम्पत्तिभवलोको-५२ सम्पत्तिसम्भवलोको-५२ सम्पयुत्तचित्तो-२१२ सम्पयुत्तधम्मा-८२ सम्परायोति-२३५ सम्पहंसेसीति-५७ सम्बहुलपरिच्छेदो-१६ सम्बहुलवारो-१३,२८,२९,३२ सम्बोज्झङ्गे-१०८, ३०९, ३४७ सम्बोधि-१२०,२९७,३३८ सम्बोधिपरायणोति-१२० सम्बोधिमुत्तमन्ति-२६५ सम्भूतत्थेरो-२११ सम्मप्पधाना-१६४ 51 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५२] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [स-स] सम्मसद्दोति-१६० सम्मसनञाणस्स-८७ सम्माआजीवेनाति-३५३ सम्माआजीवो-३५३ सम्माकम्मन्तो-३५३ सम्मादिट्ठि-११४,३१४ सम्मापटिपत्ति-१५१ सम्मापटिपदा-१५२ सम्मापरिब्बाजनियसुत्तं-२४६ सम्मावाचा-३५३ सम्मावायामो-३१४,३५४ सम्माविमुत्तानं-४८ सम्मासङ्कप्पो-२१४,३५३ सम्मासति-१०८,३१५, ३५४ सम्मासमाधीति-२१४,३५५ सम्मासम्बुद्धस्साति-५० सम्मासम्बुद्धाति-२२५ सम्मासम्बुद्धो-७,८, २२१,२६१, ३००, ३१८ सम्मासम्बुद्धोति-४ सम्मासम्बोधिं-७३,१४६,२६८ सरणङ्करो-४ सरणं गता-२५३ सरतीति-८३,१२१ सरदसूरियमण्डलोभाससदिसं-३ सरवनं-१६२ सरागन्ति-३२९ सरीरन्ति-७७,१४९, ३२५ सरीरप्पभा-१६,२०८ सरीररस्मि-१६ सरीरवण्णगुणवण्णमच्छरियेन-२७९ सरीरविभागनिमित्तं-१७९ सरीराभा-१९५,२५४ सरीसपाति-७८ सलक्खणसामञ्जलक्खणानं -३१६ सलळागारकेति-२६७ सलळागारन्ति-१ सल्लपितपुब्बन्ति-१३४ सवनीयोति-२०९ सविचारन्ति-२८४,२९० सविचिकिच्छो-२३१ सविज्जुको-२५७ सवितक्कसविचारउपेक्खाफलसमापत्तितोपि-२९० सवितक्कसविचारउपेक्खाविपस्सनातोपि-२९० सवितक्कसविचारदोमनस्सन्ति-२८९ सवितक्कसविचारदोमनस्सफलसमापत्ति-२८६ सवितक्कसविचारदोमनस्सविपस्सनातोपि-२८९ सवितक्कसविचारधम्मे-२८६ सवितक्कसविचारसोमनस्सफलसमापत्तितोपि-२८५ सवितक्कसविचारसोमनस्सविपस्सनातोपि-२८५ सवितक्कसविचारं-२९० सवितक्कं-२८४, २९० ससविसाणस्स-८६ सस्सतदिट्ठिसहगतो-८० सहजातपरिच्छेदञ्च-१६ . सहजातसमोसरणं-८०,८१ सहतच्छकाति-२५२ सहधम्मा-२५४ सहलिदेवता-२५४ सळलघरे-२६१ सळायतनपच्चयाति-७८ साकपण्णं-३४१ साखानगरकेति-१५९ साखापदुमानि-८,१४९ सागरपरियन्तन्ति-३१ साणभारन्ति-३६२ सातागिरा-२५० सातागिरिपब्बते-२५० सातोदकाति-१४३ साधारणभोगीति-११० साधुसद्दो-२२६ सापेक्खकालकिरिया - २०३ सापेक्खाति-१०४ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स-स] सद्दानुक्कमणिका [५३] सामीचिकम्म-१०९ सामीचिप्पटिपत्राति-१३० सामुद्दिकमहानागत्थेरोति-१३३ सारकप्पेति-४ सारणीयधम्मपूरको-१११,११२ सारणीयधम्मो-११०,१११ सारथि-४१,२४५,३२१,३४५ सारमयोति-१९९ सारिपुत्तत्थेरो-१२५,२९५ सारिपुत्तमोग्गल्लानन्ति-१० सारिपुत्तो-१०, ११, १२६ सालराजालेति-६२ सालरुक्खो -९ साललट्ठि-३५० सालवनन्ति-१४६ सालाकम-२७५ सावकपारमित्राणं-१०,५६,७५ सावकपारमीजाणेन-२२५ । सावकयुगपरिच्छेदो-१०,१३ सावकसन्निपातपरिच्छेदो-१०,१३ सावज्जानवज्जा-३३४ सासनन्ति-६२,२४९, ३५६ सासनपटिसासनं-१७८ सासनब्रह्मचरियं-१३०,१३८ साहसिकधनविलोपपीळिता-३० सिक्खतीति-३१८ सिक्खत्तयब्रह्मचरियं-२१४ सिक्खापदानि-१०३, १६५, १७२, १७३ सिखी-४,७,८,१४ सिजीवण्णन्ति-१४४,१४५ सिद्धत्थो-४ सिनिद्धपुग्गले-३४४ सिनेरुकूटे-३ सिप्पिका-२५ सिराजालं-३५,३६ सिरिगब्_-२१, २४,१८७ सिरिवड्डनो-१५ सिरिसम्पत्तिया-१२२ सिलोकोति-२२३ सीतवलाहका-६ सीतोदकाति-१४३ सीलकथन्ति-५६ सीलगन्धतो-२८९ सीलतो-११५ सीलन्ति-११४ सीलपरिक्खारो-२१३ सीलपरिभावितोति -११४ सीलपारमी -२१९ सीलपारिसुद्धिमत्तेन - १०६ सीलपुप्फसदिसं-५६ सीलब्बतपरामास-३३६ सीलरक्खकानं-२७७ सीलवतीति-२४ सीलवन्तेत्याति-११८ सीलविपन्नोति-११५ सीलसदिसो-५६ सीलसम्पन्ना - २४ सीलसंवरेन-६२ सीलूपघाती-६१ सीलं-१९, २४, ५१, ५५, ५६, ६१, ७२, ११३, ११४, ११५, १५१, १५२, १५६, २७७, ३०४, ३५० सीसपसाधनमङ्गलसाला-१७६ सीहपुब्बद्धकायो-३५ सीहसेय्यं-११६, १५० सीहहनु-३६ सीहळभासाय-१३४ सुक्कदाठो-३६ सुक्खविपस्सको-९१ सुक्खासनीति- १४३ सुखदुक्खवेदनानं-२८३ सुखदुक्खानं-२८३ 53 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५४] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [स-स] सुखनिच्चअत्तविपल्लासविपल्लत्था-३१० सुखन्ति - ४८, १६७, २१२, २८३, ३३१ सुखवेदनाक्खणे-३२८ सुखवेदनाय - २८३ सुखसञ्च-३१३ सुखसम्फस्सोति-३०८ सुखादिवेदनं-८७ सुखुमच्छविलक्खणं-२५ सुगतोति-१३१ सुगतोवादं-१२२ सुचित्ता-१४ सुचिसमतलं-१९४ सुजाता-१४६, २७४, २७६ सुजातोति-४ सुञतधम्मस्स-३१६ सुझागारन्ति-११६ सुत्तनिपातो-१४० सुत्तन्तपिटकं-१४०,१६४,२१३ सुत्तन्तादिधरो-१०५ सुत्तन्ताभिधम्मपिटकानि-१४० सुत्तपटिपाटिया-१४० सुत्तविभङ्गेति-१३९ सुत्तानुलोम-१४१ सुदत्तो-१५ सुदन्ताति-२४५ सुदस्सी-६२ सुदिन्नत्थेरो-१४० सुद्धरूपक्खन्धो-८६ सुद्धाति-२२२, २४५, २४८ सुद्धावासकायिकानन्ति-२४३ सुद्धावासब्रह्मानं-५ सुद्धावासा - ४१, ९०, २४३ सुद्धोदनमहाराजानं-१८२ सुधम्मतन्ति-२१८ सुधम्मतायाति-२६९ सुधम्मदेवसभं-२६१ सुधम्मा- ६४,२७४,२७५,२७६ सुधाभोजनीयजातकं -३५८ सुनक्खत्तो-१० सुनन्दा - १४ सुनिधवस्सकाराति-११६ सुनिधो-११६ सुन्दरकप्पे-४ सुन्दरधम्मे-३६० सुन्दरपवसब्ब ताणेन-५४ सुपण्णराजा-६९ सुपण्णा- २२३, २५२, २५३ सुपिनं-२१ सुप्पतिट्ठितपादोति-३२ सुप्पबुद्धो- १४ सुभगवनेति-६२ सुभद्दोति-१७१ सुभनिमित्तं-३३०,३३१ सुभसुखभावादीनं-३१३ . सुभासितानीति-२७० सुमनकुमारो-७१ सुमनत्थेरो-७१,७३ सुमनदाम-३२ सुमनपुप्फानि- १०८ सुमनो-४, १५, १६,७०,७१ सुमेधो-४ सुरत्तसुद्धसिनिद्धपवाळमया - १८८ सुलभपच्चयो-१११ सुलेय्यरुचिरा-२५४ सुवण्णघटे - १७६ सुवण्णतोरणं-३५० सुवण्णथूपे-१८२ सुवण्णदण्डा-२७ सुवण्णदीपे-१८२ सुवण्णपञ्जरं-३९ सुवण्णपब्बतो-२१ सुवण्णबिम्बसदिसं-३५८ 54 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स-स] सद्दानुक्कमणिका सुवण्णमञ्जूसं-२९९ सुवण्णमासकं -३६२ सुवण्णवण्णोति-३४ सुवपोतकं-३०० सुविकसितचित्तसन्तानो-४८ सुविज्ञापया-५२ सुविमुत्तचित्तो-२६६ सुविसुद्धेसु- ९२ सुसङ्घतनगरं-५५ सुसमारद्धाति-१२९ सुसमाहितो-३०५ सुसील्यमत्तनो-८९ सुसुनागाति-२४५ सूकरभत्तन्ति-३६१,३६२ सूकरमद्दवन्ति-१४२ सूकरयक्खो -२२४ सूचिघरं-१०५ सूरियरस्मियो-१८८ सूरियरस्मिसम्फस्सं-५२,५३. सूरियवच्छसाति-२५२, २६३, २६६ सूरियसमानसरीरा-२६३ सूरियालोकं-३३३ सेठ्ठचरियं-२७० सेतउसभो-५६ सेतकाति-१४३ सेतम्बरुक्खो -८ सेतु-११८,२१५, २७२, २७३ सेदितसाकं-२३१ सेनापति -६,५९, ६०, ८३, ९७, २२९ सेरीसकन्ति-३६३ सेलो ब्राह्मणो-६ सेवितब्बकायसमाचारो-२९१ सेवितब्बवचीसमाचारो-२९१ सेसचित्तचेतसिकरासीति-२१० सोकधम्मो-२९२ सोकपरिदेवानं-३०३, ३०७ सोकसल्लं-१७८,२६१ सोकोति-३४९ सोचनलक्खणो-३४९ सोणत्थेरस्स-३३९ सोणत्थेरो-२११,२९५ सोणुत्तरन्ति--९ सोणो-९ सोण्डाति-१८७ सोतापत्तिफलसमापत्तिं -६७ सोतापत्तिफले-३९,७३, १२८,१६१, २४१,२६१, २६६,३०३, ३०६ सोतापत्तिफलं -८९,२५८,२९१ सोतापत्तिमग्गट्ठो-१६२ सोतापत्तिमग्गं-७५, ३५५ सोतापन्नभावं-२९७ सोतापन्नसकदागामिनो-१६८ सोतापन्ना-८९, २४१, २५८, २९१ सोतापन्नोति-२०७ सोत्थियो-१५ सोपानफलके -२८८ सोभितो-२ सोभितोति-४ सोमदेवताति-२५३ सोमनस्सजातो-५४ सोवण्णमया-१८६ सोवण्णमयं-२१६, २६२ सोवीरानञ्च - २२८ संकिलिटेन-३०३ संकिलेसधम्मो-२९२,२९३ संकिलेसवोदानपञत्तियेव-३०३ संकिलेसोति-५६ संवित्तन्ति-३२९ संयोजनन्ति-३३६ संयोजनानि-७५ संविग्गहदयो-४१ संविदहतीति-९९ 55 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा [ह-ह] संवुतद्वारतायाति - २९४ संसारोति-७७ स्वाक्खातोति-२०६ हेमवतपब्बते-२५० हेमवतो-१४७ हंसवती-७० ह-कारो-६८ हठ्ठतुडचित्ता-२५२, २५३ हत्थकम्म-१७२ हत्थट्ठिकन्ति-३२५ हत्थपादङ्गुलियो-३३ हत्थारोहानं-२८० हत्थिकायरथकायादयो-३११ हत्थिनागो-१३८ हत्थिरतनं -३१,१९४,२०४ हदयमसं-२४६ हदयरूपे-३०५ हदयवत्थुञ्च - ८३ हदयवत्थुञ्चेव-८२ हदयं-१२९ हरिचन्दनथूपे-१८२ हरितालअञ्जनसुवण्णरजतचुण्णानि -१५० हरितालेन-१५३ हानिवुद्धियो-१०२,१०४,१०५ हारगजाति-२५५ हारितमहाब्रह्मानं -२५६ . हितसुखमधिगच्छेय्याति-२२५ हितानुकम्पी-३०१ हिमपातो-५ हिमवन्तपब्बतो-५४ हिमवा-३२, १४९ हिरञवतिया -१४६ हिरिमनाति-१०७ हेट्ठालोहपासादे - २९, ९३ हेतुभूतं- १३१ हेमन्तिके-४० Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्कमणिका एकायनं जातिखयन्तदस्सी-३०१ एवाहं चिन्तयित्वान-३०४ एवं नातिमहन्तम्पि-२०१ एवं सम्माविमुत्तानं-४८ एसेव मग्गो नत्थो -३०२ अच्चङ्कुसोव नागोव-२६४ अच्ची यथा वातवेगेन खित्ता-९३ अज्जेवाहं पब्बजितो-१३३ अज्जेवाहं पब्बजितो...पे०...-१३३ अनिच्चा वत सङ्खारा-३०६ अनुजानातु मे भन्ते- १२५ अनेकजातिसंसारं-४८ अनेकसाखञ्च सहस्समण्डलं - २७ अमनुस्सो कथं वण्णो-२३४ अयोधनहतस्सेव-४८ अलङ्कतो चेपि समं चरेय्य -३११ किं मे अज्ञातवेसेन-५१ को नाम एत्थ सो सत्तो-३२१ आ खन्धानञ्च पटिपाटि-७७ आसनं उदकं पज्जं-२३१ गहकारक दिट्ठोसि-४८ गोचरि कळापो गङ्गेय्यो-१४७ इच्छितं पत्थितं तुम्ह-७३ उभो पादानि भिन्दित्वा-३०४ चक्कानुभावेन हि तस्स रो-१९१ चत्तारो ते महाराजा-२५१ चत्तारो पञ्च आलोपे-३३१ 57 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५८] चित्तीकतं महग्घञ्च - ३१ चित्तेन संकिलिट्टेन – ३०३ - க छिन्नो दानि भविस्सामि - १२५ ज जिणञ्च दिवा दुखितञ्च ब्याधितं - ४३ जीवितं अप्पकं मय्हं - १२५ ट ठिते मज्झन्हिके काले - ४४ द दन्तपुरं कलिङ्गानं - २२८ दूरे सन्तो पकासेन्ति - ५४ ध धम्मं चरथ भद्दं वो - २२४ न नमो ते पुरिसाजञ्ञ - ३४२ न मत्थि ऊनं कामेहि - २३४ न वे कदरिया देवलोकं वजन्ति - २२२ न सन्ति पुत्ता ताणाय - ३०३ नाञ्ञत्र बोज्झा तपसा - ३०६ नाभिनन्दामि मरणं - ३६० नावा मालुतवेगेन - ३२१ निच्चं उत्रस्तमिदं चित्तं - ३०६ दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा प 58 पञ्जरस्मिं गत्वान – ३०५ पनादो ओपमञ्ञ च - २५२ पाणेसु च संयमामसे - ८९ पुच्छामि मुनिं पहूतपञ्चं - २४८ पुत्तो यदा होमि जयद्दिसस्स - ६६ पुरिमं दिसं धतरट्ठो - २५१ भ भद्दको वतायं पक्खी - २२४ भासितं बुद्धसेटुस्स - ३०५ म मग्गानट्ठङ्गिको सेट्ठो - ३०२ मग्गो पन्थो पथो पज्जो - ३०० मा सद्दमकरि पियङ्कर - ८९ य यथा थम्भे निबन्धेय्य - ३१७ यथापि दीपिको नाम - ३१८ यन्तं सुत्तवसेनेव - ३२१ यावता चन्दिमसूरिया - २२६ यो तं हिंसति वारेमि - २३३ यो सुखं दुक्खतो अद्द - ३१५ यं पस्सति न तं दिनं - ३१२ यं पुब्बे तं विसोधेहि - ३०३ रूपेन संकिलिट्टेन - ३०३ [छ-र] Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व-स] गाथानुक्कमणिका वामेन सूकरो होति-२२४ सतसहस्सेन मे कीतं -७२ सत्तभू ब्रह्मदत्तो च-२२९ सब्बे विजितसङ्गामा-२५७ समवत्तक्खन्धो अतुलो-१४ सल्लपे असिहत्थेन-१५६ सहस्सं ब्रह्मलोकानं-२५६ सीलवा वतसम्पन्नो-३०५ सुतना सब्बकामा च-१४ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ सूची पालि टेक्स्ट सोसायटी (लंदन) -१९७१ पालि टेक्स्ट सोसायटी पृष्ठ संख्या पालि टेक्स्ट सोसायटी प्रथम वाक्यांश वि. वि. वि. वि. वि. वि. पृष्ठ संख्या पंक्ति संख्या ४०७ ४०८ ४०९ ४१० ४११ ४१२ ४१३ ४१४ ४१५ ४१६ एवं मे सुतं पुब्बेनिवासबाणं पच्चेकबुद्धा च इध भन्ते ति उप्पन्ना । ततो सतसहस्सयोजनमत्ता सुद्धावासब्रह्मनो पि चातुम्महाराजिका गच्छति । तेन पठवीतलं पुरोहितपुत्तो सावकसत्रिपातपरिच्छेदे तत्थ एकदा यस्सं दिसायं पस्ससीति वुत्ते सब्बबोधिसत्तानं हि विपस्सी ककुसन्धो तत्थ विपस्सिस्स व्याममत्ता । तत्थ एवं सीला ति विचारेस्सति । तत्थ माला ति तत्थ वस्ससतसहस्सतो ततो मातरं or or mm x 5 5 w a voara a ona ४१७ ४१८ ४१९ ४२० ४२१ ४२२ ४२३ ४२४ ४२५ ४२६ ४२७ ४२८ ४२९ ४३० Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६२] ४३१ ४३२ ४३३ ४३४ ४३५ ४३६ ४३७ ४३८ ४३९ ४४० ४४१ ४४२ ४४३ ४४४ ४४५ ४४६ ४४७ ४४८ ४४९ ४५० ४५१ ४५२ ४५३ ४५४ ४५५ ४५६ ४५७ ४५८ ४५९ ४६० ४६१ ४६२ ४६३ ४६४ ४६५ ४६६ यथा च अयं एत्थ अयं अत्यो यदा संसप्पन्ता जीवितन्तरायो राजानो महग्घाभरण बोधिसत्तमातरं अलग्गो हुत्वा अनेकसाखञ्च इमे वारा पटिग्वहणं विमुत्ति सुखेन गन्तब्बतिया वत्तति ति अग्घोनत्थि असत्थेनाति घ पादा परिवत्तन्ति कटियं अङ्गानि पुथुला सीहस्सेव नाभितो उहीससीसोति तत्रिदं अहोसि येन चेत्थ नव धिरत्थु अथ खो भिक्खवे चारिकं चरतीति अनेव तानीति ठाने वित्थारतो किं कथितन्ति ? तत्थ इति रूपन्ति तदेतं निसिन्नमत्तस्सेव खीयन्ति आता ति दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा 62 ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ २१ २१ २२ २३ २४ २५ २६ २६ २७ २८ २९ २९ ३० ३१ ३२ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ४९ ५० ५० ४ wou m m २६ २० १८ १२ ८ २३ १६ ९ १ १९ १३ ८ २ २४ २२ २० १८ १६ १० ૪ २४ २१ १९ १५ १३ १७ १५ Iw x var wo m १६ १२ ८ १ ६ २ २३ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची [६३] ४६७ ४६८ ४६९ ४७० ४७१ ४७२ ४७३ ४७४ ४७५ ४७६ ४७७ ४७८ ४७९ ४८० ४८१ ४८२ ४८३ ४८४ ४८५ ४८६ ४८७ ४८८ ४८९ चित्तं नमि अयं पनेत्थ नाम अस्थि अभब्बपुग्गले उद्वेही ति अवस्सयो पतिट्ठा छन्दरोगो कातब्बो दक्खिणद्वारेन विचित्रत्येरनेहि नागारा न सेनापतिना जङ्घ-सीस-पिट्ठि-आदीनि पापानं समितत्ता विपस्सिस्स चेव एवं मे सुतं हत्थी, दिब्बरुक्खसहस्स नाम लभि ति उपाविसि विभूतो हुत्वा गम्भीरं महापञताय छयोजन-सतिकं देवलो च न मयं कारापेत्वा नाम बुद्धो नाम-रूप-परिच्छेदा अयं चेत्थ पच्चयाकारं मुजबब्बजभूता भवेय्याति सा च हि जाति यदिदं वेदना एवं वचनत्थं उद्देसा। नाम-रूपपच्चया Awx rrrr-~22. RAMMor wow Mor2329 ४९० ४९१ ४९२ ४९३ ४९४ ४९५ ४९६ ४९७ '४९८ ४९९ ५०० ५०१ ५०२ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] ५०३ ५०४ ५०५ ५०६ ५०७ ५०८ ५०९ ५१० ५११ ५१२ ५१३ ५१४ ५१५ ५१६ ५१७ ५१८ ५१९ ५२० ५२१ ५२२ ५२३ ५२४ ५२५ ५२६ ५२७ ५२८ ५२९ ५३० ५३१ ५३२ ५३३ ५३४ ५३५ ५३६ ५३७ ५३८ पटिसन्धिगहणे सम्पजानो ति तथत्ताय सञ्ञासङ्घारविञ्ञाणक्खन्धवत्युका वेदनाधम्मे सुखमं वा ति विद्विति मा सद्दं करी आभस्सरा अविज्जानिरोधा पच्छिमे विमोक्खे अद्धानपरिच्छेददीपनं यावतकं अट्ठविमोक्खे एवं मे सुतं • त्वा कुज्झित्वा निक्खेपनं करोन्ता चोरो ति, कातब्बन्ति रक्खावरणगुत्ति यदिदन्ति करिस्सामीति न सन्निपतिंसु कत्तब्बं कत्वा सिक्खापदानि गच्छन्ति नाम करोन्ति ओतरति पटिवेधबहुत विपस्सकानं दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा गच्छाम, बोधिवन्दनाय पि । अप्पटिविभत्तभोगी साराणीय धम्मपूरकस्सा पि मे भन्ते निच्चं इधेव गावी विय ति अत्थो 64 ८३ ८३ ८४ ८५ 8262200 ८६ ८७ ८८ ८९ ९० ९१ ९२ ९३ ९४ ९५ ९५ ९६ ९७ . ९८ ९९ १०० १०१ १०१ १०२ १०३ १०४ १०५ १०६ १०७ १०८ १०९ ११० १११ १११ ११२ ११३ ११४ ३ २६ २२ २० २३ २१ १९ १७ १५ १० ५ ५ १ १ १७ २१ १७ १३ ९ ४ १ 10 10 2 २४ २१ १९ १७ १५ s २ २४ २१ १७ १३ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३९ ५४० ५४१ ५४२ ५४३ ५४४ ५४५ ५४६ ५४७ ५४८ ५४९ ५५० ५५१ ५५२ ५५३ ५५४ ५५५ ५५६ ५५७ ५५८ ५५९ ५६० ५६१ ५६२ ५६३ ५६४ ५६५ ५६६ ५६७ ५६८ .५६९ ५७० ५७१ ५७२ ५७३ पापमो सीहसेय्यं ओसरनट्ठानं कायबन्धनं भवंगमनवसेन अयं हेत्थ वृत्तनयेन चापि एवमाह अधिवासेसि देसिस्सामीति आनन्द ममं अभिसमया वन्दित्वा अत्थी ? ति भण्डगाहकसामणेरसदिसो अथ थेरो पुनप्नं तं अज्ज एवमेवं महाभूमिचालो अरियमग्गेन कम्पेतुं धम्मचक्कप्पवत्तने सोणदण्डकूटदन्तसमागमादिवसेन जानामि पस्सामी ति न तानि तम्पि तथा भगवन्तं अभिधम्मपिटकानि इदं चतुत्थं अनुलोमकप्पियं अच्छोदिका ति मट्टन्ति अनेकेहि संदर्भ-सूची भगवा हि गन्तब्बं होति 65 ११५ ११६ ११७ ११८ ११९ १२० १२१ १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२७ १२८ १२९ १३० १३१ १३२ १३३ १३४ १३५ १३६ १३६ १३८ १३९ १४० १४१ १४२ १४३ १४४ १४४ १४५ १४६ [६५] १३ १० ८ ४ ३ १ २ २४ २१ २० १५ १३ ८ २ २३ १७ १३ १० १० ७ ५ १ १ २४ १ १ ३ १ २ ३ ४ २७ २३ २० Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६ ] ५७४ ५७५ ५७६ ५७७ ५७८ ५७९ ५८० ५८१ ५८२ ५८३ ५८४ ५८५ ५८६ ५८७ ५८८ ५८९ ५९० ५९१ ५९२ ५९३ ५९४ ५९५ ५९६ ५९७ ५९८ ५९९ ६०० ६०१ ६०२ ६०३ ६०४ ६०५ ६०६ ६०७ ६०८ ६०९ कुसिनारायं पन पन: तुम्हं होन्ति सुवण्णवण्णानि वीतिनामेत्वा करोन्तेन न उपहति, पितरं मसक्खताय तत्थ पठविसञ्ञिनियो थेरो किर तिठितयक्खिनिया पुथुज्जनभिक्खूनं एव बहुन्ति अट्ठ उपोसथे कुड्डनगरकन्ति एकेककुलपरिवत्तं अस्सोसि खो निरन्तरो अस्स भगवति पब्बजितो इति इमानि सङ्घस्स पत्तकल्लं संगीतिकारानं येहि केचि रत्तावसेसन्ति याव सन्धिसमलसङ्कतीरा रुक्खमूले तं न गहेतब्ब खादनियम्पि सिक्खापदानि भगवा मय्हं तीणि केचिगन्धमालादिहत्था सुमनमकुलसदिसा ओलम्बेत्वा देव, अम्हे हि गाथाहि उन्नतपदेसे भगवतो सरीरानि दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा 66 १४७ १४८ १४९ १५० १५१ १५२ १५३ १५४ १५५ १५६ १५७ १५८ १५९ १६० १६० १६१ १६२ १६३ १६४ १६५ १६६ १६७ १६८ १६९ १७० १७१ १७१ १७२ १७३ १७४ १७५ १७६ १७७ १७८ १७९ १७९ 2 2 २२ २२. २२ १७ १३ ११ ८ ७ ६ ८ ९ ६ २ १ २३ २१ १६ १४ १६ १४ १२ ११ १० ११ ७ ६ २६ २१ १९ १६ १३ ७ ५ o N. २० Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची ६१० ६११ ६१२ ६१३ ६१४ १८० १८१ १८२ १८३ १८३ १८४ १८६ ६१५ ६१६ ६१७ १८६ १८७ १८८ ६१८ ६१९ ६२० ६२१ ६२२ ६२३ ६२४ १८९ १९० १९१ १९२ ६२५ १९३ १९४ १९५ १९५ ६२६ मग्गं कारेत्वा अत्तनो बालानुरूपेन दन्तकरण्डेसु गहेत्वा सत्तवस्सकाले गहेत्वा धातुगेहं एवं मे सुतं मदनीयो ति याय सुद्धसिनिद्धदन्तपन्तिया वीथिचतुक्कादिसु पाकारमत्थकेनेव महाजनो पन आरब्भ विप्पकिण्णानि किञ्चि करणीयं हत्थं पसारेसि फरमानं विय सुपिसितस्स एवं पातुभूतगहपतिरतनस्स कीळमानो विय . बहुं न अत्तानं एवं आवासं भत्ताभिहारो ति कस्मा आह पंस्वागारकीळनं इत्थि रतनस्स एवं मे सुतन्ति भातिरिवा ति अच्छरियं यञ्च अनभिसम्भवनीयो ति महामेघमुदिङ्गसद्दो यथेव हि सत्तिसरपटिच्छन्नम्पि उपादाय अप्पहीनत्ता दुतियो विपस्सनतो ६२७ ६२८ १९७ ६२९ १९८ ६३० ६३१ १९९ २०० ६३२ २०० ६३३ ६३४ ६३५ ६३६ ६३७ ६३८ २०२ २०३ २०४ २०५ २०६ २०७ २०७ ६३९ .६४० ६४१ ६४२ ६४३ ६४४ ६४५ २०९ २०९ २१० २११ २१२ २१३ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६८] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा २१४ ६४६ ६४७ ६४८ २१५ २१६ ६४९ २१६ ६५० २१७ २१८ २२१ ६५१ ६५२ ६५३ ६५४ ६५५ ६५६ ६५७ ६५८ २२२ २२३ ६५९ २२४ २२४ २२५ २२६ २२७ २२८ २२९ ठितस्स एवं मे सुतन्ति तस्सा किर सन्निपतन्ति विय करोति नमस्समाना परिनिब्बायन्तो अभिनिष्फन्नो नीलुप्पलेहि फलिस्सति अभिनिष्फन्नो सदिसं वायथा तिट्ठति, एत्थ जाणे ठितस्स अनुसानिया पीळं करोन्ती ति सत्त अनुपुरोहिते पोराणकं कही अकविं सकुणपगन्धा आह । तस्सत्यो मे समनस्स एसेव गतगतवाने सब्बानिपेतानि एवं मे सुतन्ति न मयं अम्हे हनन्तु राजानो पसन्ना एतस्साति सब्बपठमं वण्णभूमि अपि सुदं पच्छिमचक्कवालमुखवट्टियं ओतिण्णो अथ ततियो २३० २३१ २३२ २३३ २३४ ६६० ६६१ ६६२ ६६३ ६६४ ६६५ ६६६ ६६७ ६६८ ६६९ ६७० ६७१ ६७२ ६७३ ६७४ ६७५ ६७६ ६७७ ६७८ ६७९ ६८० ६८१ २३५ २३६ २३७ २३८ २३८ २३९ २४० २४१ २४२ २४२ २४३ २४४ २४५ 68 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची ६८२ २४६ ६८३ ६८४ २४७ २४८ ६८५ ६८६ ६८७ ६८८ ६८९ ६९० ६९१ ६९२ ६९३ २४८ २४९ २५१ २५२ २५२ २५३ • แม้ * * * * * * * * * * २५४ ६९४ ६९५ ६९६ "६९७ ६९८ ६९९ ७०० ७०१ ७०२ सदेवलोकस्स अत्थस्स सरीरतो उग्गम्म सावके इद्धिमन्तो पुरिमं दिसं इमे देवराजानो वेहासया वरुणादेवता वारुणदेवता सूलेय्यरुचिरा सट्टेते उप्पन्नो वत्तेतुं उणिस्सामा ति गणनपथं अतीता एवं मे सुतन्ति परिक्खीणो दानि पि एककस्स गमनकालं आम आदिन्नमग्गगमनवसेन थनवेमज्झं पन सप्पो वीणासद्दस्स च एवञ्च पन देवानं इन्दस्स अस्थि नत्थी ति परित्तो कामावचरत्तभावो हन्द वितायाम न तस्थ किं देवपुत्तो ति उपसङ्कमित्वा महं मन्तो, अपत्तिकं करोमा ति कण्णिकं यं मनुस्सा कालं इमानि सुवण्णरजतमणिविमानानि २५५ २५६ २५७ २५८ २५८ २६० २६० २६१ २६२ २६३ २६४ ७०३ २६५ ७०४ २६६ ७०५ २६७ * * * * * * * * * * * * * * * 9 * * * * * ७०६ ७०७ ७०८ ७०९ २६७ २६८ २६९ २७० ७१० २७१ ७११ ७१२ ७१३ ७१४ ७१५ २७२ २७२ २७३ २७४ २७५ ७१६ २७६ २७७ ७१७ 69 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७०] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा ७१८ ७१९ २७८ २७९ २७९ ७२० २८१ ७२१ ७२२ २८१ २८२ ७२३ ७२४ ७२५ art48:43 "M २८३ २८४ ७२६ २८५ ७२७ ७२८ ७२९ ७३० ७३१ ७३२ ७३३ ૨૮૬ २८७ २८७ २८८ २८९ २९० २९१ २९२ २९३ ७३४ सो : धीतु असहनलक्खणं ताव नं देथा ति द्वासट्ठि दिट्ठियो एतदेव वुच्चति किं हेतुका जानाति, एवं रूपानं त्वेव अप्पटिलाभतो मानवसेन अञ्चे पुच्छन्ति बहि आगतो पादे धोविस्साम अवितक्कअविचारदोमनस्सविपस्सना ये अवितक्के चिन्तेसि : महं भिक्खवे जातिधर्म यो न सेवितब्बो यं रूपं पस्सतो कामवितक्कादयो तण्हासङ्ख्यविमुत्ता असुरे जिनिंसु भविस्सति । अयं एवं मे सुतन्ति । मज्झिमनिकाये सतिपट्टानं मोचेसुं । तं निब्बानमेव तेन धम्मासने चतुम्नं असङ्ख्येय्यानं इमं गाथं तियामरत्तिं समणधम्मो रञा कतानुग्गहो उपेक्खापहविस्सज्जनावसाने लोकुत्तरमग्गस्स अधिगमाय वाचाविप्पलापभूतं हि सतिगोचरो .. ७३५ ७३६ ७३७ २९४ २९५ ७३८ २९६ ७३९ ७४० २९७ २९८ २९९ ७४१ ७४२ २९९ ७४३ ७४४ ७४५ ७४६ ३०० ३०१ ३०२ M4329 94224143324 ३०२ ३०३ ३०४ ३०५ ३०६ ७४८ ७४९ ७५० ७५१ ७५२ ७५३ ३०७ ३०७ ३०८ . 70 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची [७१] ७५४ ७५५ ७५६ ७५७ ७५८ ३०९ ३१० ३११ ३१२ ३१२ ३१३ ७५९ ३१४ ७६० ७६१ ७६२ ३१५ ३१६ ३१७ ७६३ ३१८ ७६४ ७६५ ७६६ ३१९ ३२० ३२० ७६७ ७६८ ३२१ ७६९ 990 ७७१ ३२२ ३२३ ३२४ एकायनमग्गो ति च यथा हि चतुद्वारे ति आह । तस्मिं हेत्थ यथावुत्तसमूहविनिमुत्तो तथा हि लोकसङ्घातत्ता समन्त्रागतो, तेन यो सुखं अनेकप्पकारं विसेसाधिगमं सतियोत्तेन बन्धितब्बं अनुयुञ्जन्तो भिक्खु ति वितिण्णको यावदेवा ति गच्छती ति। यं तं सुत्तवसेनेव चपरन्ति आदिमाह दुक्खसच्चन्ति एवं विभजित्वा निसिन्नभावो अयं कायो परिग्गाहिका सति पवत्तिं उपादाय या पुब्बे भूतपुब्बा समुदयञ्च वयञ्च इति अज्झत्तं वा ति । असुभनिमित्ते पटिघनिमित्तं धम्मेहि पहीनस्स चन्दालोकं दीपालोकं अरहत्तमग्गेन, अयोनिसोमनसिकार एवं पञ्चक्खन्धवसेन ति अप्पहीनटेन सम्बुज्झति, वत्युविसदकिरिया, इन्द्रियसमतपटिपादना तं पस्सद्धादिभावनाय समपासलक्खणपरिग्गाहिकाय ७७२ ३२५ ३२६ ३२७ ३२८ ७७३ ७७४ ७७५ ७७६ 999 ७७८ ७७९ ३३० ३३१ ३३२ ७८० ७८१ ७८२ ७८३ ७८४ ७८५ ७८६ ७८७ ७८८ ३३२ ३३३ ३३४ ३३५ ३३६ ३३७ ३३८ ३३९ ३३९ ३४० ७८९ 71 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७२] दीघनिकाये महावग्गट्ठकथा ७९० ७९१ ७९२ ७९३ ७९४ ७९५ ३४१ ३४२ ३४२ ३४४ ३४४ ३४५ ७९६ ३४६ ७९७ ७९८ ३४७ ३४८ ३४९ ३५० ७९९ ८०० ८०१ ८०२ ८०३ ८०४ ३५१ ३५२ विरियस्सा ति सदोसेन, समोहेन अपुत्तो ति धम्मसङ्घसीलचागदेवतानुस्सति, सीतुण्हेसु च उद्धतं चित्तं सत्तसङ्खारकेलायनपुग्गलपरिवज्जनता निन्नपोणपब्भारचित्तस्सापि नाम |खन्धानं न पुग्गलस्स तत्र तत्राभिनन्दिनी न अल्लीयति कम्मं करोति नाम | पाणातिपातवेरमणिआदयो मग्गक्खणे पि एवं योजन सायं अनुसिट्ठो एवं मे सुतन्ति एको एकस्मिं अनधिभवनीयो दुग्गन्धो ति रामणेय्यकन्ति हरितकमत्तन्ति सुवण्णन्ति सुवण्णमासकं सीलवन्तदायकतो पि सो सक्कच्चदानं ३५३ ३५४ » M499222222222422 » or ८०५ ३५५ ८०६ ८०७ ८०८ ८०९ ८१० ८११ ८१२ ८१३ ८१४ ८१५ ३५६ ३५७ ३५७ ३५८ ३५९ ३६० ३६२ ३६४ ["पी. टी. एस. भाग-३ (१९७१) प्रारम्भ।] Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ May the merits and virtues earned by the donors and selfless workers of Vipassana Research Institute, Igatpuri be shared by all beings. May all those who come in contact with the Buddha Dhamma through this meritorious deed put the Dhamma into practice and attain the best fruits of the Dhamma. Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DEDICATION OF MERIT *9X**«feng+*«3Ñ€¥Q*?*** May the merit and virtue accrued from this work adorn the Buddha's Pure Land, repay the four great kindnesses above, and relieve the suffering of those on the three paths below. May those who see or hear of these efforts generate Bodhi-mind, spend their lives devoted to the Buddha Dharma, and finally be reborn together in the Land of Ultimate Bliss. Homage to Amita Buddha! NAMO AMITABHA Printed and Donated for free distribution by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow South Road Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: 886-2-23951198, Fax: 886-2-23913415 Email: overseas@budaedu.org.tw Printed in Taiwan 1998, 1200 copies IN046-2005 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a Comorate Fody citize Edelha Baotions1 Fourtes 11th Floor, 55 reng Chow South Red Sce 1. "Painel, aven, 2000 1998, 120C coisa ISEN 21-7414-343