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(श्रीजैन-सिद्धान्त-भवन आरा का मुख-पत्र) जैन-सिद्धान्त-भास्कर
. अर्थात् प्राचीन जैन-इतिहास, साहित्य एवं शोध-सम्बन्धी त्रैमासिक पत्र
भाग २, विक्रमसम्बत्-१६६२।
सम्पादक-मण्डल प्रोफेसर हीरालाल, एम. ए., एल.एल. बी. प्रोफेसर ए० एन० उपाध्ये, एम.ए. बाबू कामता प्रसाद, एम. आर. ए. एस. पण्डित के० भुजबली शास्त्री
जैन-सिद्धान्त-भवन पारा-द्वारा प्रकाशित
Jaina-Antiquary
AN ANGLO-HINDI QUARTERLY JOURNAL.
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विषय-सूची
हिन्दी-विभाग
विषय . . लेखक पृष्ठ-संख्या (१) अमरकीतिगणि और उनका षट्कर्मोपदेश... श्रीयुत प्रो० होरालाल जैन, एम.ए.,
एल.एल.बो. ... (२) अमरकीर्तिगणिकृत षट्कर्मोपदेश ... श्रीयुत प्रो० हीरालाल जैन, एम.ए.
एल.एल.बी. ... (३) इतिहास का जैनग्रन्थों के मंगलाचरण ... श्रीयुत पं० हरनाथ द्विवेदो, काव्य
और प्रशस्तियों से निष्ठ सम्बन्ध पुराण-तीर्थ (४) "RISABH-DETA" ( ऋषभदेव ) की . .समालोचना . ... ... श्रीयुत प्रो० हीरालाल जैन, एम.ए.,
एल.एल.बी. ... ... (५) कविवर जिनसेनाचार्य और पाश्र्वाभ्युदय ... त्रिपाठो भैरवधालु शास्त्री, बी.ए.... ७५
... १०३
(७) कतिपय (दि०) जैन संस्कृत प्राकृत प्रन्थों
पर कन्नड टीकार्य ... ... श्रीयुत पंछ के भुजवली शास्त्री ... ११० (८) गत प्रथम एवं द्वितोय किरणों में प्रकाशित
अपने लेखों के विषय में कुछ विशेष वक्तव्य ... , , , ... (९) चन्द्रगुप्त-कविता
... श्रीयुत महेशचन्द्र प्रसाद, एम.ए. ... ४१ (१०) चामुण्डराय का चारित्रसार ... , मिलापचन्द्र कटारिया ... (११) जैन मूर्तियाँ ... .., बा. कामता प्रसाद जैन, एम.
. . आर.ए.एस. ... ... ६ (१२) जैन पुरातत्व . ... ... श्रीयुत बा० कामता प्रसाद जैन, एम.
___ आर ए.एस. ... ... ४३ १९३) जय स्याद्-वाद-कविता ... ... श्रीयुत कल्याण मार जैन, 'शशी'... ७६ (१४) देवचन्द्र कृत राजावाली-कथाकी विषय-सूची , पं० के० भुजबली शास्त्री ... १५४ (१५) धार्मिक उदारता ... ... ले. बा. पूरनचन्द नाहर, एम.ए.बी.एल. ३२ (१६) नीतिवाक्यामृत और कन्नडकवि नेमिनाथ... श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री ... २६ (१७) निसिधि के सम्बन्ध में दो शब्द ... ,, प्रो० ९० एन० उपाध्ये ... १३७
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विषय
लेखक पृष्ठ-संख्या (१८) प्रकाशकीय वक्तव्य ...: : ... श्रीयुत चक्र श्वर कुमार जैन, बी.एस.
सी बी एल. ... ... (१६) प्रमाणनयतत्वालो कालंकार की समीक्षा ... श्रीयुत पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य,
न्यायतीर्थ, साहित्यशास्त्रो (२०) ,
". ."
, ... श्रीयुत पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य, ... श्रीयुत .
न्यायतीर्थ, साहित्यशास्त्री .... ७० (२१) बिजोलिया का शिलालेख : ... श्रीयुत मुनि हिमांशुविजय, न्याय
काव्य तीर्थ ... ... (२२) भास्कर स्वगताष्टक ... ... श्रीयुत पं० हरनाथ द्विवेदी, काव्य
पुराण-तीर्थ ... ... १ (२३) भास्कर की वर्ष-समाप्ति-कविता ... श्रीयुत पं० हरनाथ द्विवेदो ... ११६ (२४) महाराज जीवन्धर का हेमांगद देश और । क्षेमपुरी
... ... श्रीयुत पं० के० भुजबलो शास्त्री ... १७ (२५) महावीर कुमार के तिरंगे चित्र का परिचय ... श्रीयुत बा० छोटेलाल जैन, एम.आर.
ए.एस. ... ... ११८ (२६) विदुषी पम्पादेवी .... .. ... श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री ... ४६ (२७) विजयनगर साम्राज्य और जैनधर्म ... , , ... १३२ (२८) श्रीऋषभदेव भगवान के जीवनी के साधन श्रीयुत मुनि हिमांशुविजय, न्याय
काव्य-तीर्थ ... ... १४० (२६) "श्रीबाहुबलि शतक" की समालोचना ... श्रीयुत प्रो. हीरालाल जैन, एम.ए.,
एल एल बी. ... ... १५६ (३०) संस्कृत में दूतकाव्य साहित्य का निकास और विकास
.... श्रीयुत चिन्ताहरण चक्रवर्ती, एम.ए.... ५८ (३१) सिलार रट्टराज का नया शिलालेख और जैनधर्म
... ... श्रीयुत बा० कामता प्रसाद जैन .. १४७
ग्रंथमाला-विभाग (३२) प्रशस्ति-संग्रह ... श्रीयुत पं० के. भुभवली. शास्त्री ... १ से ३२ तक (३३) प्रतिमा-लेख-संग्रह ... श्रीयुत बा० कामता प्रसाद जैन (३४ वैद्य-सार ... ... श्रीबुत पं० सत्वन्धर आयुर्वेदाचार्य ... ,
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THE JAINA ANTIQUARY
An Anglo-Hindi quarterly Journal,
VOL. I-1936
Editors: Prof. HIRALÁL JAIN, M.A., LL.B., P.E.S.,
Professor of Sanskrit,
King Edward College, Amraoti, C. P. Prof. A. N. UPADHYE, M.A.,
Professor of Prakrata, • Rajaram College, Kolhapur, S.M.C. B. KAMTA PRASAD JAIN, M.R.A.S.,
Aliganj, Distt. Etah, U.P. Pt. K, BHUJABALI SHASTRI,
Librarian, The Centrla Jaina Oriental Library, Arrah.
Published at THE CENTRAL JAIN ORIENTAL LIBRARY.
ARRAH, BIHAR, INDIA.
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CONTENTS
(1) APPRECIATIONS
... Many scholars (2) ANCIENT SOUTH INDIAN JAINISM ... Prof. B. Seshagiri .Rao, .
M.A Ph.D. ... ... 5 (3) A NOTE OF DESIGANA
... M. Govind Pai ... (4) EDITORIAL
... Hiralal, Kamta Prasad ... (5) JAINA ART IN SOUTH INDIA ... Professor Shripad Rama
Sharma, M.A, ... ... (6) JAINA ART IN SOUTH INDIA ... Professor Shripad Rama
Sharma, M.A. ... ... 83 (7) MESSAGE ... ... ... Champat Rai Jain, Bar-at-Law 1 ..(8) MATHEMATICS OF EMICHANDRA Bibhutibhushana Dutta . ... 25 (9) NAYAKUMAR CHARIU
... Prof. Hiralal Jain, M.A.LL.B. 11 (10) RULES FOR ASCETICS IN JAINISM, BUDDHISM & HINDUISM ... S. C. Ghoshal. M.A.B.L.,
Saraswati, Kavy a tirtha,
Vidyabhusan, Bharati 67 (11) WHO WAS THE OF FOUNDER JAINISM ? B. Kamta Prasad Jain ... 19
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जैन-सिद्धान्त-भास्कर
अर्थात्
प्राचीन जैन-इतिहास, साहित्य एवं शोध-सम्बन्धी त्रैमासिक पत्र
भाग २] .
[किरण १
- सम्पादक-मण्डल प्रोफेसर हीरालाल, एम. ए., एल.एल. बी. प्रोफेसर ए० एन० उपाध्ये, एम.ए. बाबू कामता प्रसाद एम. आर. ए. एस. पण्डित के मुजबली शास्त्री, न्यायाचार्य
40
जैन-सिद्धान्त-भवन पारा-द्वारा प्रकाशित
भारत में)
विदेश में )
एक प्रति का ॥
विक्रम सम्वत् १६६२ ।
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भास्कर
दलने को पाखण्ड लोक का, करने को जग का उद्धार, प्रकट हो रहा ! विश्व-गगन में, दिनकर-सम यह वीर कुमार। विघट गयी हिंसा की रजनी, गया अनेकों का अभिमान, हुए सभी हर्षित तब इससे, बनी भूमि यह स्वर्ग-समान ।
___ (पं० गुणभद्र जी) श्रीमान् बाबू छोटेलाल जी के सहज सौजन्य से प्राप्त
THE S.P. W
ARRAR.
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॥ श्रीजिनाय नमः ।।
CONOMINOW
ANTERWARDSTICHHA
ता
ROS
SUVHIDYA SUNDATION
MUNNAutanRTAIRMALAITLEYHAIN IMILIARATRAINRITITIRIRAM
THE JAINA ANTIQUARY. जैनपुरातत्व और इतिहास-विषयक त्रैमासिक पत्र
भाग २
जून से अगस्त १९३५ तक ज्येष्ठ से श्रावण वीर नि० २४६१ तक
भास्कर-स्वागताष्टक
(ले०-५० हरनाथ द्विवेदी, काव्य पुराणतीर्थ, सम्पादक “हितैषी”)
शुचि रुचि के रुचिर रसीले, रंग में रंग कर रँगराते । भ्रम-तोम-तिमिर-जालों को, आभा से दूर भगाते ।।
निर्मल-निगमाम्बुजराजी, मदु मञ्जुल को विकसाते । भारत-श्रुत-भव्य-भवन को, भासित करते हैं पाते ।
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भास्कर
(३)
पर तत्वों के तिग्म अंशु फैलाते ।
इतिवृत्त - जगत् सद्वृत्त' - सुधा - सरिता का, सीकर पीकर इठलाते ॥
(४)
मतभेद- कुमुद - कुञ्जों को, कुंचित सद्भाव - प्रमुद - पुञ्ज को, समुदित
करते
करते
कुम्हलाते ।
मुदमाते ||
(x)
कुविचार - दिवान्ध खर्गों से, कुदृगों की दृष्टि नशाते । सुविचार - विपुल विहगों का, कल कोमल गान सुनाते ||
(६)
/
निज-अरुण किरण-मण्डल का, महि को मण्डन पहिनाते । साहित्य - शुभ्र पुष्कर के, प्रिय पुष्करः परम सुहाते ।
(७) मत्सरमलीन - उडुमाला, सत्वर सम्पूर्ण डुबाते | सहयोग-विधुर बिहगी" - उर, प्रिय-प्रणय-प्रभा चमकाते ||
(5) for कलित करों से प्यारे, नित ललित लवनता लाते । आते भास्वर 'भास्कर' का, स्वागत करते न अघाते ।।
[ भाग २
१ सम्बक् चारित्र २ उलूक ३ आकाश १ कमल १ चक्रवाकी ६ 'करों' का विशेषण
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प्रकाशकीय वक्तव्य
सर्व-प्रसिद्ध संसार की परिवर्तनशीलता का गीत गाने को अब आवश्यकता नहीं है । प्रत्येक समाज और प्राणी को नवीनता का नूतन दृश्य पल-पल दृग्गोचर हो रहा है। ऐसी दशा मे किसी देश अथवा समाज का साहित्य अथवा इतिहास इस अमिट एवं निश्चित नवीनता का शिकार बने बिना भला कैसे रह सकता है ? इसी पुरातन पद्धति के पथिक हे'कर जैन साहित्य और इतिहास को भी कई कलेवर बदलने पड़े--अनेक अठखेलियाँ खेलनी पड़ीं। पर, इतने पर भी ; ऐसे विषम समम मे भी इसने अपनी प्रकृत सत्ता रक्षित रखी अवश्य ।
एक वह भी समय था जब कि अगाध ज्ञान भाण्डार के सुचतुर संरक्षक प्रातःस्मरणीय श्रीसमन्तभद्र और आराध्यपाद अकलङ्कदेव आदि आचार्यों की निष्कलङ्क एवं प्रदीप्त साहित्यिक प्रतिभा के लोहे सब किसी को मानने पड़ते थे-नाव-धर्म के आदर्शभूत महाराज अमोघवर्ष और चामुण्ड राय आदि जैन राजाओं की डंके की चोट से समुद्घोषित शास्त्रीय घोषणा सभी साहित्यिक शूर-वीरों को कान खोल कर सुननी पड़ी थी। पर, हाय ! एक उस दुदैवग्रस्त युग की याद आये बिना नहीं रहती, जिम दिनों भारतीय सुधासरोवर की अहिंसारसाप्लुत स्वर्णमयी मछलियाँ निर्दयता की वंशी का शिकार बन कर अपने जीवन की घड़ियाँ गिन रही थीं। बल्कि उन दिनों, अथक परिश्रम से सञ्चित अपनी अमूल्य साहित्य-सम्पत्ति लुटती देखकर आचार्यों एवं ऋषि मुनियों की यही दिव्य आकाशवाणी सुन पड़ती थी कि "कोयल ! है यह पावस मौन हो, बैठ करील की डारिन प्यारी । दादुर की टिटिकारिन में तुव बोलिवे की है कहा अब वारी ?"
खैर समय ने पलटा खाया। वह समय भी परिवर्तन के पचड़े में पड़कर गुजर गया । पक्षपातरहित कुछ साहित्यिकों और ऐतिहासिकों की संख्या बढ़ी। इन्हें साहित्य-तृषा की आतुरता में जो कुछ खट्टी-मीठी, उलटी-सीधी मिली उसी से अपनी ज्ञानपिपासा शान्त करने की चेष्टा करने लगे। यहाँ तक कि शीघ्रता में स्थाद्वाद-सिद्धान्त के प्रधान पृष्ठपोषक जैनधर्म को कुछ लोग क्षणिकवादी बौधर्म की शाखा भी मानने लगे। मानने ही तक नहीं लगे बल्कि स्थायी साहित्य-रूप ऐतिहासिक पुस्तकों में इस अपने भ्रान्त सिद्धान्त को आश्रय भी देने लगे। .
साहित्य एवं इतिहास-संसार में ऐसी ही गड़बड़झाला और उलझन को देखकर आज से लगभग बीस वर्ष हुए जैन साहित्य और इतिहास पर पूरा प्रभाव डालने की सदिच्छा से इस जैन-सिद्धान्त भास्कर का उदय हुआ था। जैन शिलालेख, ताम्रपत, आचार्यपट्टावली एवं प्रशस्तियाँ प्रचुर परिमाण में निकाल कर इसने अपने सुकान्त कलेवर को आकर्षक बनाने में जरा भी कोर-कसर नहीं की थी। गिने गुथे इतिहास वेत्ताओं का आदरपास भी हो ही चला था, किन्तु व्यापार पटु जैनियों के शिक्षासंघर्ष में सबसे पीछे पड़े रहने एवं तोता-मैना के किस्से और चन्द्रकान्ता सन्तति जैसे उपन्यासों के पन्ने उलाउने भर तक स्वाध्याय धर्म की इति श्री समझने के हेतु समाज की उदासीनता
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भास्कर
भाग २
और प्राहकसंख्या की मुष्टिमेवता की घनघोर-घटा ने भास्कर की किरणों को प्रकाशित होने में अनिवार्य अङ्गा लगा कर इसे अस्तंगत कर दिया ।
अस्तु “जैन-हितैषी एवं श्वेताम्बर समाज से निकलनेवाले "जैनसंशोधक" से जैन-साहित्य और इतिहास-रक्षा की सान्त्वना सदा मिलती रही। किन्तु इनके भी बन्द हो जाने पर इधर इतिहास और अनुसन्धान की ओर सर्वतोभाव से प्रवृत्त ऐतिहासिक विद्वानों की प्राचीनता की तह की बात जानने की प्रबल प्रवृत्ति देख और जैनधर्म तथा इतिहास के सच्चे सहृदय एवं प्रसिद्ध उन्नायक कलकत्ता-निवासी श्रद्धव भाई छोटेलाल जी की प्रेरणा के प्राबल्य का अनुभव कर इस स्वर्णमय युग में ऐतिहासिक जगत् में प्रकाश डालने की कामना से भवन ने अस्तंगत भास्कर को पुनः प्रकाशित कर पृष्टता का परिचय दिया है अवश्य, किन्तु जैन-समाज यह साहित्यिक कार्य सामयिक समझ कर इसका स्वागत एवं अभिनन्दन करेगा, भवन को यह भी दृढ़ धारणा है।
भास्कर का ध्येय वही पुराना है। यदि कोई विशेष परिवर्तन है तो यही कि अंग्रेजी पढ़े लिखे विद्वानों के लिये कुछ पृष्ठों में अंग्रेजी में जैनधर्म विषय साहित्य एवं इतिहास-सम्बन्धी लेख रहेंगे तथा क्रमशः प्रकाशित होनेवाले कोई प्राचीन ग्रन्थ और भिन्न भिन्न प्रशस्तियों का प्रकाशन ।
हाँ, अन्यान्य मासिक पत्रों की अपेक्षा अगर कुछ कमी रहेगी तो इसी बात की कि इसमें किस्सेकहानी, आख्यायिका उपन्यास और हँसी-दिल्लगी चटपटे आदि विषयों का अत्यन्ताभाव रहेगा। केवल आचार्यों के मस्तिष्क की बातें रहेंगी। इसलिये आजकल के मनोरञ्जक समाचार प्रसों के युग में भास्कर के कुछ पाठकों को तो लोहे के चने चिबाने का सा अखरेगा। पर किया क्या जाय ? भास्कर के ध्येय की ओर ध्यान देने से इसमें हँसी-खुशो एवं कुश्तो की गुंजायश ही नहीं। साथ ही साथ जैन ऐतिहासिक उत्कर्ष अभिव्यक्त करने के अतिरिक्त साम्प्रदायिकता की शृङ्खला की जकड़बन्दी इसे पसन्द नहीं, क्योंकि यह तो सभी जैन-सम्प्रदायों की सहानुभूति-सुधा का पान कर अमर बनने की चेष्टा करेगा।
किसी पत्र के सुचारुरूप से संचालन में दब और लैखिक साधन की परमावश्यकता होती है। दम्ब के लिये जैन समाज लक्षाधिपति एवं कोट्यधिपति आदि सम्पन्नतासूचक प्रचुर प्रख्याति प्राप्त कर चका है। अब रही लैखिक साधन की आवश्यकता, सो अब इस समाज में साहित्विक शूरवीरों की विरलता भी बड़े वेग से विलीन होती चली जाती है। आवश्यकता है केवल अपने साहित्व और इतिहास से सच्ची लगन की। समाज से जहाँ इसे थोड़ा मी आश्रय मिला यहाँ वह अपनी सुनहली एवं गुलाबी किरणों से यहाँ की कौन बात कहे देशदेशान्तरों में भी विद्वानों का चित्ताकर्षक किए बिना वह नहीं रहेगा।
भास्कर ने अपने स्थायी जैन इतिहास और साहित्य के प्रकाशन-द्वारा जैनजनता को जो कुछ भी सेवा की है, उसका इसे गर्व है। जिस प्रकार युद्ध में बार बार हार खाकर उत्साहहीन तथा निष्क्रियशीन हो बैठे हुए एक प्रसिद्ध बादशाह अन्नकण को ले जाने में असंख्य बार विफल प्रवास होने पर भी अन्त में कृतकार्य हुई चतुर चींटी की अविश्रान्त अध्यवसायशीलता और चातुरी से "पुनः करो उद्योग" की पुनीत शिक्षा के फलस्वरूप पुनरुद्योग से समरविजयी बना उसी प्रकार आशावादिता के
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किरण !]
प्रकाशकीय वक्तव्य
आदर्श को आगे रख कर ही भास्कर ने उदयाचल के शिखरारूढ़ होने की कमनीय कामना की है। भवन ने अपनी संचित साहित्य-सम्पत्ति को भास्करद्वारा प्रकाशित कर अपना कर्तन्त्र पालन किया । देखें समाज किस रूप में अपना कर्तव्यपालन करता है।
दवाधर्म के प्राणस्वरूप सहृदय जैन बन्धुवान्धवों को अपनी जीवनमूरि साहित्यिक कृतियाँ अनेक शास्त्र-भाण्डागारों में दीमक एवं कीड़ों की खुराक होती दे कर उनके उद्धार की चेष्टा करते हुए अपनी सीमित दया एवं अहिंसा-धर्मक्षेत्र का विस्तार करना चाहिये।
अपने अपने कालिजों के कामों में सदा अस्तव्यस्त रहनेवाले प्रोफेसर बाबू हीरालाल जी जैन एम०ए०, प्रोफेसर A. N. उपाध्ये M.A. एवं जैन साहित्य की अविरत सेवा करनेवाले बाबू कामता प्रसाद जी जैन M. R. A.S. जैसे दुर्द्धर्ष विद्वान् सम्पादकों को पाने के सौभाग्य का भास्कर को अखर्व गर्व है। यह सुवर्णसंयोग ही भास्कर की सर्वाङ्गसुन्दरता एवं प्रकृत विद्वानों की मनोहारिकता की शुभ सूचना दिये देता है। साथ ही साथ जैन साहित्यिकों में ख्याति पाये हुए भवन के सुयोग्य पुस्तकालयाध्यक्ष पं० के० भुजबली शास्त्री जी की भी सम्पादक-श्रेणी में प्रविष्ट होने की अनुमति कम प्रशंसनीय नहीं है। अर्थात् इन उल्लिखित विद्वानों ने जो "भास्कर" के सम्पादन का उत्तरदायित्वपूर्ण भार बहन करने में कोई आना कानी नहीं की है इसके लिये भास्कर का प्रकाशक यह "भवन" इन महाशयों का चिरकृतज्ञ है।
अस्तु, भास्कर के प्रकाशन की चिरस्थायिता अनुप्राहक ग्राहकों की गुणग्राहिकता, जैन साहित्य तथा इतिहासप्रियता के उपर निर्भर है। क्योंकि इसकी किरणें भवन की चहारदिवाली अथवा अलमारियों के भीतर ही टिम-टिमाती रहें इसीलिये नहीं इसका प्रकाशनारम्भ हुआ है। भारतीय इतिहासों के समरक्षेत्र में जैनइतिहास भी अपने पुरातन प्रमाणबल से अंगद जैसे बड़ी दृढ़ता के .साथ सबल पैर अड़ा कर ललकारता रहे-यही इसके प्रकाशन का अन्तिम और पवित्र ध्येय है। आशा है कि सभी सहृदय बन्धुगण प्रकाशकीय वक्तव्य के इस निष्कर्ष से सर्वथा सहमत होंगे।
निवेदकचक्रेश्वर कुमार जैन (B.Sc. B.L.)
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जैन-मूर्तियाँ (लेखक-कामता प्रसाद जैन, एम० आर० ए० एस०)
"सम्मत्तरयणजुत्ता णिभरभत्तीय णिश्चमच्चंति। कम्मरकवण णिमित्तं देवा जिणणाह पडिमाउ ॥"
-तिलोयपरणति । कृतज्ञता प्रकाश करने का भाव मनुष्य में स्वाभाविक है। निरीह असभ्य मनुष्य भी
अपने वीर पूर्वजों का स्मरण करके इस भाव को व्यक्त करते हैं। ऐसा कोई सहृदय नहीं जो अपने उपकारी के प्रति प्रेम न करे और उस प्रेम को वह विविध प्रकार से प्रकट करने का उद्यम करता है। लन्दन के द्राफलगर स्क्वायर में प्रतिवर्ष हजारों अंग्रेज नर-नारी एक खास दिन इकटे होते हैं और वहाँ पर जो प्रसिद्ध नाविक एडमिरल नेलसन की पाषाण-मूर्ति बनी हुई है, उसके सामने नाचते-गाते और नेलसन को प्रशंसा के गीत गा-गा कर उस पाषाण मूर्ति पर ढेरों हार और फूल चढ़ा देते हैं। अंग्रेजों को यह क्रिया उस पाषाण-पत्थर की पूजा नहीं है, बल्कि उस महापुरुष के उपकार के प्रति भक्ति का प्रदर्शन हैं। भक्तजन अपने उपकारी की परोक्ष-विनय करने के लिये उसकी आकृति - को स्थापना पाषाण-काठ आदि में कर लेते हैं। यह एक स्वाभाविक नियम है। जैनधर्म में भी मूर्ति स्थापना का आधार 'यहो नियम है। श्रीविद्यानंदिस्वामी अपने पात्र.केसरी स्तोत्र' के निम्न श्लोक में यही प्रकट करते हैं :
'विमोक्षसुखचैत्यदानपरिपूजनाद्यात्मिकाः . क्रियाबहुविधासुभृन्मरणपीडनहेतवः। त्वया ज्वलितकेवलेन नहि देशिताः किन्तुता
स्त्वयि प्रसृतिभक्तिभिः स्वयमनुष्ठिताः श्रावकैः ॥३६॥ अर्थात्-"विमोक्ष सुख के लिये चैत्यालयादि का निर्माण, दान का देना, पूजन का करना इत्यादि रूप से अथवा इन्हें लक्ष्य करके जितनी क्रियायें की जाती हैं और जो अनेक प्रकार से बस-स्थावर जीवों के मरण तथा पीड़न की कारणीभूत हैं, उन सब क्रियायों का, हे केवली भगवान् ! आपने उपदेश नहीं दिया; किन्तु आपके भक्तजन श्रावकों ने भक्ति से प्रेरित होकर उनका अनुष्ठान किया है।"
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किरण ?
जैन-मूर्तियाँ
दूसरे शब्दों में यूं समझिये कि अरहंत भगवान ने मोक्षमार्ग का निरूपण करके जो लोक का कल्याण किया है, उस उपकार के लिये कृतज्ञता-ज्ञापन करना श्रावकों के लिये स्वाभाविक था-भक्तिभाव से प्रेरित होकर उन्होंने भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन न होने पर उनके प्रतिबिम्ब बनाये और वह प्रतिबिम्ब उनके लिये वीतराग भाव की शिक्षा देने में भी कार्यकारी हुए। उनकी आकृति ठीक वीतराग और समदृष्टि को लिये हुए बनाई गई। यही कारण है कि सम्यकदृष्टी जीव जिनप्रतिमा को साक्षात् जिनेन्द्र भगवान् समझकर पूजता है और शुभभावों के फलरूप अपने कर्मों का तय करता है। उसके लिये वह मंगल-वस्तु है।
इस प्रकार जिन प्रतिमा की आवश्यकता प्राकृत स्पष्ट है और चूंकि मनुष्य और मनुष्यस्वभाव त्रिकाल में एक समान है, इसलिये इन प्रतिमाओं का जन्म अनन्तभूत में गर्मित है। लोक में कहीं न कहीं तत्व-रूप में उसका अस्तित्व रहेगा। यही कारण है कि जैनधर्म में मूर्तियां दो तरह की बताई गई हैं (१) कृत्रिम और (२) अकृत्रिम । अकृत्रिम प्रतिमायें सारे लोक में फैली हुई हैं। भवनवासी देवों के आवासों में, ज्योतिषी देवों के विमानों में, कल्पवासी देवों के स्वर्गों में और मनुष्यलोक के विविध स्थानों में रत्नमयी शास्वत जिन प्रतिमाओं का अस्तित्व जैनशास्त्र बतलाते हैं और उनकी ठीक ठीक गिनती भी उनमें बता दी गई है। जम्बूद्वीप में भी कई स्थलों पर ऐसी जिनप्रतिमायें हैं। उनमें मुख्य जम्बूद्वीप की चारों दिशाओं पर स्थित चार द्वारों पर विराजमान हैं।' १ भक्त्याऽहत्प्रतिमा पूज्या कृत्रिमाऽकृतिमा सदा । __ वतस्तद्गुणसंकल्पात्प्रत्यक्षं पूजितो जिनः ॥४२॥६॥-धर्मसंग्रह श्रावकाचार । २ "तच्च मंगलं नाम स्थापना द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदादानंदजनक षोढा स्थापना मंगलं कृतिमाकृतिमाजिनादीनां प्रतिबिम्बं । इत्यादि ।"
-अंगोम्मटसार जीवतत्वप्रदीपिका टीका (कलकत्तो) पृष्ठ २ ३ 'कृत्वाऽकृतिमचारचैत्यनिलयान्नित्यं विलोकीगतान् । इप्यादि ।'-जिनपूजा। ४ तिलोयपएणति' में इनका विशेष वर्णन है । 'चरचाशतक' में उनकी गिनती इस प्रकार की है :
"सात किरोर बहत्तर लाख, पतालविर्षे जिनमंदिर जानौ । मध्यहि लोक में चार सौ ठावन, व्यंतर जोतिक के अधिकानौ ॥ लाख चौरासी हजार सतानबै, तेइस ऊरध लोक बखानौ ।
एकेक मैं प्रतिमा शत पाठ, नौं तिहु जोग त्रिकालु सयानौ ॥३६॥" ५ "विजयंत वैजयंत जयंत अपराजयंत णामेहिं ।
चत्तारि दुवाराई जंबूदीवे चउदिसासं ॥ सी हासणत्यत्तयभामंडलचामरादिरमणिज्जा । रवणमया जिणपडिमा गोउर दारे सोहंति ॥”–तिलोयपण्णति।
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भास्कर
[ भाग २
इन अकृत्रिम प्रतिमाओं के अतिरिक्त कृत्रिम प्रतिमायें मनुष्य निर्मित हैं। इस अल्पकाल में सबसे पहले ऋषभदेव के पुत्र प्रथम सार्वभौम सम्राट् भरत चक्रवर्ती ने जिन - प्रतिमाओं की स्थापना की थी। जिस समय ऋषभदेव सर्वज्ञ तीर्थंकर होकर इस धरातल को पवित्र करने लगे तो उस समय भरतचक्रवर्ती ने तोरणों और घंटाओं पर जिन - प्रतिमायें बनवाकर भगवान का स्मारक कायम किया था? । उपरान्त उन्होंने ही भगवान् के निर्वाणधाम कैलाश पर्वत पर तीर्थकरों की चौबीस स्वर्णमयी प्रतिमायें निर्मापित कराई थीं। जैनशास्त्र का यह कथन प्राकृत - सुसंगत है। मनुष्य - प्रकृति यह है कि वह अपने प्रेमी अथवा मान्यपुरुष का स्मारक - चिह्न अपने नगर और ग्राम में स्थापित करे और उसके मृत्युस्थान पर खासतौर पर चिह्न बना देवे । आज शहरों में राजाश्रों और देशनेताओं की मूर्तियां बनी मिलतीं हैं । और लोग महापुरुषों के तीर्थ -सम पूजते मिलते हैं। भरत महाराज का कार्य भी इसी ढंग का था। तोरणों और घंटों पर जिन प्रतिमायें अङ्कित कराई । प्राचीन भारत में बड़े-बड़े नगर परकोटे से घिरे रहते थे और उनमें तोरण द्वार तथा उनमें लटकते हुए घंटे खास चीज होते थे । इन खास स्थानों पर स्मारक - चिह्न बनाया जाना स्वाभाविक था । उपरान्त जब भगवान ऋषभदेव कैलाश से मुक्त हुये तो उस पवित्र स्थान पर विशेषरूप में जिन प्रतिमाओं का भरतेश्वर ने बनवा दिया । किन्तु इन जिन प्रतिमाओं को बनवाने में मुख्य प्रेरक हृदय की भक्ति थी । और उनके बनवाने का उद्देश्य साक्षात् जिन भगवान् की वीतराग मुद्रा के दर्शन पा लेना था । यही कारण है कि ये प्रतिमायें साधारण नेता आदि मुख्य पुरुषों के स्मारकों से विशेषता रखती थीं और वह विशेषता उनके जिनेन्द्रवत् पूज्य मानने में थी । इस प्रकार जैन शास्त्रानुसार इस काल में जिन प्रतिमा के जन्म का यह इतिहास है ।
मृत्युस्थान को पहले उन्होंने
τ
अबतक उपलब्ध हुआ भारतीय पुरातत्त्व भी जिन मूर्ति की उपर्युक्त प्रकार बहुप्राचीनता का समर्थन करता है। इस समय सिन्धु की उपत्यका का पुरातत्व सर्वप्राचीन है और विद्वज्जन उससे जिन प्रतिमा का सम्बन्ध स्थापित करते हैं । इस विषय पर हम आगामी एक स्वतंत्र लेख - द्वारा विचार करेंगे। अर्थात् आज से लगभग है हजार वर्ष पहले भी
इससे यह स्पष्ट है
कि बस प्राचीन काल
उपरान्त मथुरा और
जिन - मूर्तियाँ थीं
।
१-८ श्री आदि पुराण देखो ।
Survival of the Prehistoric Civilisation of the Indus valley, pp. 25-83 and Modern Review, August, 1932,
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तीर्थंकर श्रीपार्श्व नाथ जी की मूर्ति ( दक्षिण भारतीय कला )
तीर्थकर श्रीपुष्पदन्त जी की मूर्ति ( दक्षिण भारतीय कला
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किरण १]
जैन-मूर्तियाँ खण्डगिरि-उदयगिरि का पुरातत्त्व भी जिन-मूर्ति के प्राचीन अस्तित्व का द्योतक है। ईस्वी पहली शताब्दी में मथुरा में वह प्राचीन स्तूप मौजूद था जो उस समय 'देवनिर्मित' समझा जाता था और जिसे डॉ. बुल्हर तथा सर विन्सेन्ट स्मिथ ने भगवान् पार्श्वनाथ के समय अर्थात् ईस्वी के पूर्व आठवीं शताब्दी का बताया था। जैनस्तूप पर मूर्तियां बनी होती हैं, यह बात जैनशास्त्रों और मथुरा के स्तूपावशेषों से स्पष्ट है। अतः भ० पार्श्वनाथ जी के समय में भी जिन-प्रतिमा का होना सिद्ध है। प्राचीन काल में जिनमूर्तियों के होने का समर्थन खण्डगिरि-उदयगिरि के प्रसिद्ध हाथीगुफावाले शिलालेख से भी होता है, जिसमें लिखा है कि एक नन्द राजा कलिङ्ग से अनजिन की प्रतिमा को मगध ले गया था, उसे कलिङ्गचक्रवर्ती ऐल खारवेल्लु वापस कलिङ्ग ले आये थे। नन्दकाल में जो प्रतिमा खूब प्रसिद्धि पा चुकी थी, उसका एक काफी समय पहले निर्मित होना सुसङ्गत है। अतः यह उल्लेख भी जिनमूर्ति के प्राचीन अस्तित्व का पोषक है।
किन्तु प्रश्न यह है कि प्राचीनकाल में जिन-मूर्तियां किस ढंग की बनती थीं ? इस विषय पर दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन संप्रदाय की मान्यता भिन्न है ; यद्यपि वे दोनों जिन प्रतिमा को उक्त प्रकार प्राचीन मानने में एकमत हैं। दिगम्बरों की मान्यता है कि जिनप्रतिमा शुभलक्षण युक्त नासाग्र दृष्टिमय और श्रीवत्सचिह्न से अङ्कित नग्न शृङ्गार-वस्त्ररहित होना चाहिये। श्वेताम्बरों की मान्यता इससे विलक्षण है। उनका मत है कि प्राचीन जिन-प्रतिमाओं पर न वस्त्रलांछन होता था और न स्पष्ट नग्नत्व ही ! उनके इस कथन से कुछ भी भाव स्पष्ट नहीं होता। उस पर प्राचीन जिन-प्रतिमाओं के विषय में
१ Jaina Stupa and other antiquities of Mathur, p. 13. २ जनल आव विहार एण्ड ओड़ीसा रिसर्च सोसाइटी भाग १३ पृष्ट ३ "कक्षादिरोमहीनांगस्मश्र लेशविवर्जितं ।
स्थितं प्रलम्बितं हस्तं श्रीवत्साढ्य दिगम्बरं ॥ पल्वंकासनकं कुर्वाच्छिल्पिशास्त्रानुसारतः ।
निरायुधं च निस्त्रीक 5 संपादिविवर्जितं ॥ इत्यादि ॥"-जिनयज्ञकल ४ "पुचि जिणपडिमाणं नगिणत्त नेव नवि अ पल्लवओ।
तेणं नागाटेणं भेओ उभएसि संभूओ॥"-प्रवचनपरीक्षा 'प्रवचनपरीक्षा की उक्त गाथा उस कथा के प्रकरण में है जिसमें गिरिनार और शत्रुजय पर दिगम्बर और श्वेताम्बरों के बीच झगड़ा होने का कथन है। उसमें यह भी कहा गया है कि 'आगे
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भास्कर
[भाग २
जो वर्णन उनके शास्त्रों में मिलता है, वह इसी बात का द्योतक है कि प्राचीन प्रतिमायें नग्न बनाई जाती थीं। मथुरा और खण्डगिरि-उदयगिरि की प्राचीन प्रतिमायें नग्न ही हैं, जसे कि दिगम्बरों की मान्यता है। इसके अतिरिक्त अजैन शास्त्रकार भी जिन-प्रतिमाओं का स्वरूप वैसा ही बतलाते हैं जैसा कि दिगम्बर शास्त्र प्रकट करते हैं । देखिये 'बराहमिहिरसंहिता में कहा गया है:
__ "आजानु लम्बवाहुः श्रीवत्साङ्कः प्रशान्तमूर्तिश्च ।
दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽर्हतां देवः ॥४५॥५८॥" अर्हन्त की प्रशान्तमूर्ति श्रीवत्स चिह्न से अङ्कित तरुणरूप लम्बी बाहों वाली नंगी होती है। 'मानसार' शास्त्र से स्पष्ट है कि जिन-मूर्तियां ठीक मनुष्याकृति की-दो बाहों, दो आँखों, एक सिर सहित होती हैं और वह निराभरण व वस्त्ररहित नग्न होती है। यथा
"निराभरणसर्वाङ्गनिर्वस्त्रागमनोहरम् । सत्यवक्षस्थले हेमवर्णश्रीवत्सलाञ्छनम्।"
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किसी प्रकार का झगड़ा न होने पावे इसलिये अब जो नई प्रतिमायें बनवाई जाय, उनके पादमूल में वस्त्र का चिह्न बना दिया जाय।' (मा पडिमाणविवाओ होहीत्ति विचिंतऊण सिरि संघों। कासी . पल्लवचिं, नवाण पडिमाणपयमूले ॥) इससे स्पष्ट है कि प्राचीन प्रतिमायें निराभरण और वस्त्ररहित होती थीं। श्रीरत्नमण्डनगणि के "सुकृतसागर" नामक ग्रंथ से स्पष्ट है कि गिरिनार पर श्रीनेमिनाथ स्वामी की प्रतिमा शृङ्गाररहित नग्न थी। श्रीरत्नमन्दिरगणि की 'उपदेशतरंगिणी' से भी इसी बात का समर्थन होता है। इन उद्धरणों को श्री पं० नाथूराम जी प्रेमी ने अपने व्याख्यान में पेश करके यह दरशाया है कि मूर्ति पर शृङ्गार करने और वस्त्र पहनाने की प्रथा नवीन है। हमारे श्वेताम्बर भाई प्राचीन प्रतिमाओं में लिङ्ग चिह्न होना नहीं मानते ; किन्तु मथुरा आदि की प्राचीन प्रतिमायें उनकी इस मान्यता का खंडन करती हैं। किन्हीं जिन-प्रतिमाओं में, जो पल्यंकासन होती है, शिल्पकार अपनी सुविधा के लिए लिंग-चिह्न नहीं भी बनाता है। ऐसी प्रतिमायें दिगम्बर-मंदिरों में देखने को मिलती हैं, किन्तु इसपर से यह नहीं कहा जा सकता कि प्रतिमाओं का प्राचीन रूप नन नहीं था। १ "द्विभुजं च द्विनेत च मुण्डतारं च शीर्षकम् ।”—मानसार ७२ ।
२. मानसार ८१-८२।
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किरण ?]
जैन-मूर्तिया इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि जिनमूर्तियों का प्राचीन रूप वस्त्ररहित नग्न था और वह ठीक वैसा ही था जैसा कि दिगम्बराम्नाय के शास्त्रों में बताया गया है। यदि इसके विपरीत जिनप्रतिमा का स्वरूप वस्त्र और आभरणों से शृङ्गारित माना जाय तो वहाँ जिनप्रतिमा की स्थापना का महत्त्व ही नष्ट हो जाता है, क्योंकि शास्त्रकार का वचन है:
'कथयन्ति कषायमुक्तिलक्ष्मी, परया शान्ततया भवान्तकानां ।
प्रणमामि विशुद्धये जिनानां प्रतिरूपाण्यभिरूपमूर्तिमन्ति ॥' अर्थात्-"जन्म मरण का अन्त कर देनेवाले जिनों की मूतियाँ जो बिल्कुल उन्हों की जैसो होती हैं अपनी उत्कृष्ट शान्ति के द्वारा यह बतलाती हैं कि कषायमुक्ति कैसे प्राप्त की जाती है। इसलिये मैं उन्हें विशुद्धि प्राप्त करने के लिये प्रणाम करता हूँ।" अब भला कहिये, उन मूर्तियों पर वस्त्रादि शृङ्गार कैसे संभावित हो सकता है। अतः यह मानना ठोक है कि प्राचीन जिन-प्रतिमा निराभरण और निर्वस्त्र होती थी ! 'प्रतिष्ठासारोद्धार' नथ में उनका उल्लेख इस प्रकार है :
"शांतप्रसन्नमध्यस्थनासाग्रस्थाविकारद्वक् । संपूर्णभावरूरूऽनुविद्धांगं लक्षणान्वितम् ॥६३॥ रौद्रादिदोषनिर्मुक्त प्रातिहा कयतयुक् ।
निर्माप्य विधिना पीठे जिनविंबं निवेशयेत् ॥६४॥" अर्थात्-"जो शांत, प्रसन्न, मध्यस्थ, नासपस्थित अविकारी दृष्टिवाली हे।, जिसका अंग वीतरागपने सहित हो, अनुपम वर्ण हो, और शुभलक्षणों सहित हो रौद्र आदि बारह दोषों से रहित हो, अशोक वृतादि प्रातिहायों से युक्त हो और दोनों तरफ यक्ष-यक्षी से वेष्टित हो, ऐसी जिनप्रतिमा को बनवाकर विधि-सहित सिंहासन पर विराजमान करे।" यह जिन-प्रतिमा का आदर्श-रूप है। किन्तु बहुत सी ऐसी प्रतिमायें मिलती हैं जिनमें प्रातिहार्य व यक्षादि कुछ भी नहीं होते। इससे प्रकट है कि व्यवहार में सुविधानुसार शिल्पी जिन-प्रतिमा को बनाते हैं, जिसमें वीतराग दृष्टि, सौम्य आकृति और निर्वस्त्रता होना अनिवार्य है !
अब प्रश्न यह है कि ये प्रतिमायें किस वस्तु की और किन किन महापुरुषों की बनाई जाती हैं ? तथा उनके बनाने के स्थान क्या क्या हैं ? इन प्रश्नों के उत्तर में हमें “वसुनन्दिश्रावकाचारादि" के निम्न श्लोक मिलते हैं :
१ प्रतिष्ठासरोद्धार (बम्बई) पृष्ठ ७
२ बसुनन्दि श्रावकाचार (मुरादाबाद) पृष्ठ ६८
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भास्कर
[ भाग २ "मणिकणयणरुप्पय, पित्तलमुताहलोवलाइहिं ॥
पडिमालक्खणविहिणा, जिणाइपडिमा घडाविजा ॥३६०॥" अर्थात्-"मणि, सोना, रूपा, पीतल, मोती और पत्थर आदि में जिन भगवान् के लक्षण बनवा कर प्रतिमा बनवावे ।" आदि शब्द से मतलब चित्र, लेपमय वस्त्र, व काठ की प्रतिमाओं का है, जिनकी प्रतिष्ठा-विधि भी उनका प्रतिविम्ब दर्पण में लेकर पाषाणादि प्रतिमाके समान है। वे प्रतिमायें अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुमहाराजकी होती हैं', किन्तु मुख्यतः इनमें अर्हत प्रतिमाओं की-उनमें भी तीर्थङ्कर अर्हत की प्रतिमाओं की है अर्हत की प्रतिमा से तीर्थकर की प्रतिमा को व्यक्त करने के लिये प्रत्येक तीर्थंकर का चिह्न उनकी प्रतिमा पर बना दिया जाता है। सिद्ध की प्रतिमा शरीराकार की रेखामात्र होती है १ सौवर्ण राजतं वापि पैत्तलं कांस्यजं तथा ॥-प्रवाल्यं मौक्तिकं चैव वैडूर्यादिसुरत्नजं ।
चित्र क्वचिच्चन्दन जपपरं ॥–जिनयज्ञकल्प। २ चित्तपडलेवपडिमाए दप्पणे दाविऊण पडिबिंब ।' इत्यादि-"चिताम की तथा वस्त्र वा भीत पर खींची हुई जो जिनप्रतिमा है उसका प्रतिबिंब दर्पण में दिखावे ।"-ब० श्रा० ।
३ 'सूरीणाम्, पाठकानाम् च साधूनां च यथागमम् ।-आगम के अनुसार आचार्य, उपाध्याय और साधु की प्रतिमा बनानी चाहिये अर्थात् आचार्य और उपाध्याय की प्रतिमाओं के साथ शास्त्र भी बनाना चाहिये और साधुओं की प्रतिमा के साथ पीछी और कमंडलु ! किन्हीं का मत है कि साधुओं की प्रतिमायें न बनवा कर उनका निषिधिका पर मात्र चरण चिह्न ही बनाना चाहिये । नशियाँ इटावा में चरणसहित निषधिका दिगम्बर मुनियों की बनी हुई हैं। बीजोल्या (मेवाड़) में भी ऐसी ही निषांधकायें हैं ; किन्तु उनमें ऐसा भी है जिनपर दिगम्बर मुनियों की मूर्तियां पीछी कमंडल-सहित बनी हुई हैं। विशेषतः साधु महाराज की प्रतिमा बनाने का रिवाज बहुत कम है। अधिकांश और प्राचीन प्रतिमायें तो प्रायः अर्हतभगवान की ही मिलती हैं। ४ "स्थापयेदहतां छततयाशोकप्रकीर्णकम् । पीठं भामंडलं भाषां पुष्पवृष्टिं च दुन्दुभिम् ॥
स्थिरतरार्चयोः पादपीठस्वाधो यथायथम् । लांछनं दक्षिणे पार्वे यतं यक्षी च वामके ॥ गौर्गजोऽश्व: कपिः कोकः कमलं स्वस्तिकः शशी । मकरः श्रीगु मो गंडो महिषः कोलसेद्विको ॥
बज्र मृगोऽजष्टशूगर कलशः कूर्म उत्पलम् । शंखो नागाधिपः सिहो लांछनान्यहता क्रमात् ॥" अर्थात्-"अहंत प्रतिमा को तीन छत, दो चमर, अशोकवृक्ष, दुदुभि बाजा, सिंहासन, भामंडल, दिव्य भाषा, पुष्पवर्षा--इन आठ प्रतिहार्यो से शोभित करे। उसके बाद स्थिर और चल दोनों प्रतिमाओं में सिंहासन के नीचे जैसा शास्त्र में कहा है वैसे ही सीधी बाजू में भगवान के चिह्न को
और बाई ओर यह और यक्षी को खड़ा करे। अर्हतों के शरीर के चिह्न क्रम से (१) बैल (२) हाथी (३) घोड़ा (४) बंदर (५) चकवा (६) कमल (७) साथिया (८) चंद्रमा (6) मगर (१०) श्रीबुर (११) गैंडा (१२) भैंसा (१३) सूअर (१४) सेही (१५) वज्र (१६) हरिण (१७) बकरा (१८) मच्छ (११) कलश (२०) कछुआ (२१) कमल की पांखुरी (२२) शंख (२३) सर्प (२४) सिंह-ये चौबीस हैं।"-प्रतिष्ठासारोद्धार पृ०८
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भास्कर
UPPER PART OF A STATUE OF AJAIN TIRTHANKARA
MATHURA circa 6TH CENT. Ciren br the Secretary of State for India in Council, 1907.
मथुग से प्राप्त एक जैन तीर्थकर की मूर्ति ।
(छठी शताब्दी)
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किरण १ ]
जैन - मूर्तिया
१३
और उनमें प्रातिहार्यादि नहीं होते हैं । भी मूर्तियां सर्व अलंकारों से भूषित अपने जातीं हैं । ये सब प्रतिमायें दो तरह की
इनके अतिरिक्त यक्षों और शासन- देवताओं की बाहन व आयुधों सहित सर्वागसुन्दर बनाई (१) स्थिर ( २ ) और चल होती हैं। स्थिर
मूर्ति वह होती है जो किसी पहाड़ आदि में उकेर कर अथवा दिवाल में लेप करके बनाई जाती है और जो एक स्थान दूसरे स्थान पर नहीं ले जायी जा सकती है । प्रतिमा इसके विपरीत चाहे कहीं ले जायी जा सकती हैं।
चल
इन प्रतिमाओं का मुख्य स्थान जिनमन्दिर में गन्धकुटी है, किन्तु इसके अतिरिक्त मानस्तम्भ, चैत्यवृत्त, तोरणद्वार, आयागपट और मुद्राओं पर भी जिनमूर्तियां बनी मिलती हैं। मानस्तम्भ जिनमंदिरों के द्वार पर बना होता है, जैसे कि तीर्थकर के समवशरण के चार द्वारों पर बने होते हैं । इनपर कितनी ही जिनमूर्तियां बनी होती हैं। चैत्यवृक्ष के निम्न भाग में जिन - प्रतिमा विराजमान होती हैं, जैसे निम्न श्लोक से स्पष्ट है :
:
"ततोवीथ्यंतरेष्वासीद्वनं कल्पमहीरुहां । नानारत्नप्रभोत्सर्पद्धतध्वांतं मनोहरं ॥ १२४॥
चतुश्चैत्यद्रुमास्तत्त्वाशोकाढ्याः स्युः प्रभास्वराः ।
अधोभागे जिनार्याढ्याः सपीठाश्त्रशोभिताः ॥२२५॥
अर्थात् -"इस बीथी के बाद दूसरी बीथी में: कल्पवृक्षों का एक विशाल बन था जो कि फैली हुई उग्र रत्नों की प्रभा से समस्त अंधकार का नाश करनेवाला और महामनोहर था। उस कल्पवृक्षों के बन के अंदर अशोक आदि चैत्यवृक्ष थे जो कि अपनी महामनोहर कांति से अत्यंत देदीप्यमान थे । उनके नीचे के भाग में भगवान जिनेन्द्र की प्रतिमायें थीं एवं वे वृक्षमय सिंहासन और छत्त्रों से युक्त होने के कारण अत्यंत शोभायमान थे । (मल्लिनाथपुराण पृष्ठ १४४) " यह उल्लेख श्रीमल्लिनाथ तीर्थकर के समवशरण में स्थित चैत्यवृक्षों का है । ऐसे ही चैत्यवृक्ष आदि अन्य तीर्थंकरों के समवशरण में भी होते हैं । इन्हीं चैत्यवृक्षों की नकल करके वृक्ष की जड़ से सिंहासन पर बैठी हुई पाषाण मूर्तियां मिलती हैं ।
१ 'प्रातिहार्य बिना शुद्धं सिद्धं विम्बमपीदृशम् ।' -- जिनयज्ञकल्प |
२ 'यत्ताणां देवतानां च सर्वालंकारभूषितं । स्ववाहनायुधोपेतं कुर्यात्सर्वाङ्गसुन्दरं ॥ -- जिनयज्ञकल्प
३ "चलपडिमाए । उवरणा भणिया थिराए य ।" - - वसुनन्दी श्रावकाचार |
४ "पडिमाणं अग्गेसुं रयणथंभा हवंति वीसपुढं ; पडिमा पीढसरिच्छा पीठा थंभाणणादव्वा ।'
- तिलायपण्यति ।
ततोऽन्तरांतरं किंचिद्गत्वा हेममयोन्नताः अधोमध्य जना गा ध्वजछता भूषिताः । चतुर्गोपुरसंबद्धशाललितजवेष्टिताः । रेजुर्मध्येषु बीथीनां मानस्तंभा मनोहराः ॥ -- महिनाथ पुराणम्
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१४
[ भाग २
चैत्यवृक्षों के अतिरिक्त स्तूपों पर भी जिन प्रतिमायें होती हैं । स्तूप वस्तुतः
यही कारण है कि उनपर मुख्यतः रामनगर आदि से जो जैनस्तूपों के श्रीमल्लिनाथ तीर्थंकर के समवशरण
भास्कर
महापुरुषों के समाधिस्थल पर बनाये जाते हैं । सिद्ध- प्रतिमा का बनना बताया है। वैसे मथुरा, नमूने मिले हैं उनमें महंत - प्रतिमायें बनी हुई हैं। के स्तूपों का वर्णन इस प्रकार मिलता है :
"वोथीनां मध्यभागे तु नव स्तूपाः समुद्ययुः । पद्मरागमयाः सिद्धजिनबिंबांधलंकृताः ॥ १३४॥ स्तूपानामंतरेष्वेषां रत्नतोरणमालिकाः । भुरिंद्रधनुर्मय्य इवोद्योतितखांगणाः ॥ १३५॥
अर्थात् - "गलियों के मध्यभाग में नौ स्तूप थे जो कि पद्मराग मणिमय थे एवं सिद्ध
भगवान की प्रतिमाओं से अलंकृत थे । स्तूपों के मालिका थीं, जिन्होंने कि अपनी कांति से समस्त अतएव वे इन्द्रधनुषमयी सरीखी जान पड़ती थीं ।"
मध्यभागों में रत्नमय तोरण और आकाश को व्याप्त कर रक्खा था। - मल्लिनाथपुराण पृष्ट १४६ )
तोरण-द्वारों पर जिन-प्रतिमायें भरत महाराज ने बनवाई थीं और जम्बूद्वीप के चार तोरण-द्वारों पर अकृत्रिम जिन प्रतिमायें हैं; यह पहले लिखा जा चुका है। मथुरा से कतिपय प्राचीन आयागपट मिले हैं जो कला की अद्भुत वस्तु हैं और उनके मध्यभाग में जिनेन्द्र भगवान पल्यंकासन विराजमान हैं । वह आयागपट मंदिरों के सभामंडप अथवा श्रावकों के घरों में पूजा के लिये बने होते थे । इनकी गणना चित्रज प्रतिमां में करना ठीक है । जिस तरह कागज, वस्त्र या काँच पर बना हुआ है उसी तरह इनको भी दीवाल में लगाया जाता था। व काँच के चित्रों की प्रधानता जब बढ़ और अब यह प्रायः नहीं बनाये जाते हैं। पहले बनाये जाते थे जिनपर तीर्थों के चित्र को प्रकट करनेवाला एक शिलापट लन्दन के ब्रिटिश म्युज़ियम में है ।
चित्र दीवाल पर टांगा जाता मालूम होता है कि कागज गई तब इन प्रयागपटों का रिवाज उठ गया यह भी अनुमान होता है कि ऐसे भी शिलापट उकेरे हुये होते थे । सम्मेदशिखर के दृश्य
जैनसंघ में पहले अपने धार्मिक विश्वास को प्रकट करने के लिए तत्सम्बन्धी चिह्नों से अङ्कित मुद्रा बनाने का रिवाज थां । यह मुद्रायें वह विपक्षी को बाद के लिये आह्वान करने के लिये चबूतरों पर रखते थे अथवा स्तूप, वेदी, मंदिर आदि की नीव में उन्हें रख देते थे 1 आजकल भी श्रावक लोग नवीन वेदी आदि के नीचे प्रचलित सिक्कों को रख अब प्राइवेट तौर पर मुद्रायें बनाने का रिवाज कानूनन बन्द कर दिया गया है ।
देते हैं ।
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किरण 1
जैन-मूर्तियों और अब शास्त्रार्थ की रीति भी बदल गई है। यही कारण है कि जैन मुद्रायें अब देखने को नहीं मिलती। डॉ. हार्णले साहब को पंजाब से ऐसी मुद्रायें मिली थों और कनिंघम साहब ने भी जैनस्तूपों के नीचे वैसी मुद्रायें पाई थीं। किन्तु उनपर जिनप्रतिमा के चित्र बने होते हैं या नहीं; इस विषय में कुछ भी निश्चयरूप में नहीं कहा जा सकता, जबतक कि प्राप्त मुद्राओं का अध्ययन न किया जाय ! हाँ, सिन्ध-उपत्यका से जो प्राचीन मुद्रायें मिली हैं उनमें कायोत्सर्ग प्रतिमायें बनी हुई हैं और वह ठीक वैसी ही हैं कि जैसी जिनप्रतिमा होतो हैं'। यदि उन मुद्राओं का सम्बन्ध जैन धर्म से प्रमाणित हो सके, जिसका होना बहुत कुछ संभव है, तो यह कहा जा सकता है कि मुद्राओं पर जिन-प्रतिमा बनती थीं उनपर धार्मिक चिह्न तो निःसन्देह होते थे। __ उपलब्ध जिन-प्रतिमाओं पर एक दृष्टि डाल लेना भी उचित है। इन्हें हम तीन भागों में विभक्त करना उचित समझते हैं (१) उत्तर भारतीय (२) दक्षिण भारतीय और (३) पूर्व भारतीय ! जैनसम्राट ऐल खारवेल के समय अथवा उनके भी पहले से जैनधर्म के केन्द्र इन्हीं तीन प्रदेशों में थे। मथुरा, पटना, उज्जैन और काञ्चीपुर जैनधर्म के प्राचीन केन्द्र हैं। इन्हीं केन्द्रस्थानों के अधीन उनके आसपास श्रावकों का होना स्वाभाविक है
और उनपर वहां के देश और लोगों का प्रभाव पड़ना प्राकृत संगत है। उत्तर भारतीय प्रतिमाओं में हम संयुक्त प्रान्त से गुजरात तक और उधर पंजाब तक की प्रतिमाओं को लेते हैं। ये प्रतिमायें प्रायः एक समान देखने को मिलेंगी। 'एक समान' से हमारा मतलब मुखाकृति, शरीर-गठन आदि से है। वैसे स्वरूप में जिन-प्रतिमा सर्वत्र एक-सी ही रही मिलेगी। पंजाब में तक्षशिला आदि से प्राप्त जिन-प्रतिमाओं पर गांधार-शिल्प का प्रभाव पड़ा कहा जा सकता है। किन्तु उत्तर भारत की प्राचीन मूर्तियाँ मथुरा की बनी हुई कही जा सकती हैं और वे वर्तमान की प्रतिमाओं से शरीर-आकृति आदि में विलक्षण हैं। दक्षिण भारत की जिनमूर्तियाँ भी उत्तर भारत की मूर्तियों से शिल्प
9 Proceedings of the Asiatic Society of Bengal, Sept., 1884.
२ Arch : Survey Reports, vol. III p. 157, vol. X p. 5 and vol. XI pp. 35-39. __ ३ रा० ब० मि० रामप्रसाद चन्दा ने यह सादृश्य अंग्रेजी के प्रसिद्ध पत्र "माडर्नरिव्यू" के अगस्त १६३२ के अंक में एक लेख लिखकर प्रकट किया है। वह लिखते हैं कि ऋषभजिन की कायोत्सर्ग मूर्ति से सिन्धु-मुद्राओं पर की मूर्तियाँ बिल्कुल सादृश्य रखती हैं। (It will be seen that the pose of this image ('Iinage of Rishabha) closely resembles the standing dieties on the Indus seals.' p. 159). . ४ हमारी 'भगवान महावीर' नामक पुस्तक देखो।
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भास्कर
___ [ भाग २ नैपुण्य में भिन्नता रखती हैं। उनपर द्राविड़ लोगों की संस्कृति का प्रभाव पड़ा है और वे उन्हीं की शरीर-आकृति को प्रकट करती हैं। इसी तरह पूर्व भारत अर्थात् बङ्गाल, बिहार और ओड़ीसा की जिन-मूर्तियां वहाँ के क्षेत्र मनुष्य और शिल्प का प्रभाव प्रकट करती हैं। इन देशों की जिनमूर्तियों पर एक दृष्टि डालने से यह मूर्ति-घढ़ने का भेद स्पष्ट हो जाता है। ___ उपलब्ध प्रतिमाओं में विशेष उल्लेखनीय दक्षिण भारत की गोम्मट मूर्तियां हैं। ये विशालकाय मूर्तियां संसार में अपने ढंग की एक हैं। इनमें सब से बड़ी प्रतिमा श्रवणबेलगोल में ५६६ फीट ऊँची है। कारकल और बेणूर की प्रतिमायें इससे छोटी हैं। ये दीर्घकायिक प्रतिमायें शिल्प के अपूर्व आदर्श हैं और विद्वान् इनकी गिनती जगत की आश्चर्यमय वस्तुओं में करते हैं।
कुछ ऐसी जिन-प्रतिमायें भी मिलो हैं जो नितान्त विलक्षण हैं। लखनऊ के अजायब घर में एक मूर्ति ( No. J 18 ) ऐसी है, जिस में तेईस तीर्थकरों के बीच में ऋषभदेव को भव्यमूर्ति स्थापित है और उसके बाल कंधों तक विखरे हुए हैं। अलाहाबाद के किसी एक मंदिर में भी, मुझे याद पड़ता है कि मैं ने कुछ ऐसी ही प्रतिमायें देखी थीं। चौमुखी प्रतिमायें तो बहुत मिलती हैं। धरणेन्द्र-पद्मावती की मूर्ति पर के फणमण्डल पर बनी हुई जिन पँतिमायें मिलती हैं। दिल्ली के उर्दू (लाल ) मंदिर में मैं ने एक ऐसी मूर्ति के दर्शन किये हैं। किन्तु सब से विलक्षण मूर्ति वह है जो लन्दन के 'विकोरिया अलबर्ट म्यूजियम' में नं० ४५१ ( 451 I. S. ) पर रक्खी हुई है। यह मूर्ति उक्त म्यूजियम को 'ईस्ट ईडिया कम्पनी' द्वारा भेंट को गई थी। यह मूर्ति लाल पाषाण की पर्यकांसन में चन्द्र चिह्न को लिये हुई है, जिस से उसका चन्द्रप्रभ जिन की होना स्पष्ट है। वह १४१ इञ्च ऊंची और ४६ इंच चौड़ी है। उसका मुख इञ्च चौड़ा है और उस में विलक्षणता यह है कि उसके सात मुख बने हुए हैं। उस मूर्ति के सीधे हाथ की हथेली पर एक चौकोन चिह्न (1) बना हुआ है। उस पर एक लेख तीन पंक्तियों में है, जिस का अक्स डा. लक्ष्मीचन्द्र जी ने भेजने की कृपा की। उस पर से वह लेख इस प्रकार पढ़ा जाता है :“सं० १९२६ ३० सु० ( यहां पर अर्धचन्द्राकार चिह्न है ) गुरु माधो पु मू (१)
भ० सुरेन्दकीर्त तदा० सं० नंदलालेन प्र० तिष्टो करापितं" इस से प्रकट है कि यह मूर्ति सन् १८६६ में किन्हीं भ० सुरेन्द्रकीर्ति द्वारा माधोपुर में प्रतिष्ठित हुई थी और वह प्रतिष्ठा सिंघई नंदलाल ने करवाई थी। सं० १५४८ में सेट
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सप्तमुख जिन प्रतिमा ( पृष्ट १६ देखिये )
THE
TIRTHANKARA
भावी जिन की मूर्ति ( दक्षिण भारतीय कला )
भास्कर
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किरण १]
जैन-मूर्तिया
जीवराज पापड़ीवालेने सहर मुड़ा से में अगणित जिन-विम्बों को प्रतिष्ठा कराई थी। उनकी प्रतिष्ठा कराई हुई प्रतिमायें सारे उत्तर भारत के जिन-मंदिरों में मिलती हैं। मालूम होता है कि मुसलमान आक्रमणकों द्वारा जिन-मूर्थियों का एकदम संहार हुआ देखकर उनकी पूर्ति के लिये सेठ जीवराज जी ने अगणित प्रतिमायें प्रतिष्ठित कराई थीं। यह उनकी धर्मप्रभावना का विशेष कार्य था। इतिशम् !*
इस लेख सम्बन्धी मूर्तियों के चित्र बृटिश म्यूजियम तथा अलवर्ट म्यूजियम लन्दन के सौजन्य और आज्ञा से प्रकट किये जाते हैं। असली मूर्तियों के फोटो श्रीमान् पण्डित चम्पत राय जी जैन विद्यावारिधि की कृपा से प्राप्त हुए हैं--एतदर्थ हम उनका भी आभारी स्वीकार करते हैं। -लेखक .
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प्रमाणनयतत्वालोकालंकार की समीक्षा (ले०-पंडित वंशीधर जी, व्याकरणाचार्य, न्यायतीर्थ, साहित्य-शास्त्री)
प्रकृत ग्रन्थ में प्रमाण, प्रमाणाभासों तथा नय, नयाभासों का विवेचन सूत्रों द्वारा किया गया है। इस ग्रन्थ के देखने से मालूम पड़ता है, कि वास्तव में यह ग्रन्थ सूत्रप्रन्थों की कोटि से अधिक पीछे है। सूत्रों में सरलता, लघुता, पूर्वापर संबन्ध-वाहकता पद-सार्थकता आदि आदि बातें अधिक अपेक्षणीय रहती हैं, जो कि इस ग्रन्थ में नहीं पायी जाती हैं। कहीं कहीं पर तो सूत्रों तक की निरर्थकता भी पायी जाती है।
ग्रन्थ का आधार तथा ग्रन्थ कर्ता का इस के गोपन करने का असफल प्रयत्न ___ यह ग्रन्थ दिगम्बराचार्य श्रीमाणिक्यनन्दी के सूत्रग्रन्थ परीक्षामुख के आधार पर लिखा गया है तथा इसके बहुत कुछ विषय का आधार परीक्षामुख की टीका प्रमेयकमल मार्तण्ड जान पड़ता है। यों तो प्रायः सभी प्रन्यों में दूसरे ग्रन्थों का कुछ न कुछ मिश्रण पाया जाता है किन्तु इस ग्रन्थ में परीक्षामुख का विचित्र रूप से ही संमिश्रण किया गया है। ग्रन्थकर्ता ने परीक्षामुख से भेद पैदा करने के लिये सूत्रों में शब्द-परिवर्तन का ही प्रायः सर्वत्र ध्यान रक्खा है।
हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो शानमेव तत् ॥२-२॥ परीक्षा मु० अभिमतानभिमतवस्तुस्वीकारतिरस्कारक्षम हि प्रमाणमतो ज्ञानमेवेदम् ॥३-१॥
प्र. न० तत्वा । ___ इसी तरह का शब्दपरिवर्तन ही सर्वत्र पाया जाता है। इस प्रन्थ में कम से कम परीक्षामुख के विषय में यदि मौलिकता खोजी जाय तो कहीं कहीं पर मिल सकती है लेकिन बहुत कम, और वह भी विशेष महत्व की नहीं। कहा जा सकता है कि जब प्रतिपाद्य विषय एक है तो मौलिकता कहाँ से आ सकती है ? लेकिन बात ऐसी नहीं है ; मौलिकता रचयिता की रचनाशैली से आती है। भले ही प्रतिपाद्य विषय एक हो पर, जहाँ शब्दपरिवर्तन ही नहीं, कहीं कहीं पर तो अनुचित शब्दपरिवर्तन से हो ग्रन्थरचनाको गयी है वहाँ पर मौलिकता की खोज करना असफल प्रयत्न ही कहा जायगा।
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किरण
]
प्रमाणनयतत्वालोकालंकार की समीक्षा
' इस ग्रन्थ में परीक्षामुख से भेद दिखलाने के लिये जो शब्द-परिवर्तन किया गया है उस से सूत्रों में कुछ काठिन्य आजाना स्वाभाविक है किन्तु सूत्रों के देखने से जान पड़ता है कि ग्रन्थकर्ता को काठिन्यप्रिय भी था जिससे स्थान स्थान पर शब्दाडम्बरता को भी खूब स्थान मिला है।
सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात् सहोत्पादाच ॥६४-३॥ (परीक्षामुख) .. सहचारिणोः परस्परस्वरूपत्यागेन तादात्म्यानुपपत्तेः, सहोत्पादेन तदुत्पत्तिविपत्तेश्च, सहचरहेतोरपि प्रोक्तेषु नानुप्रवेशः ॥७६-३॥
प्र० न० तत्वा०। इन दोनों सूत्रों के देखने से मालूम पड़ सकता है कि परीक्षामुख के सूत्र में कितनी सरलता व लघुता पायी जाती है तथा प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कार के सूत्र में कितनी कठिनता व शब्दाडम्बरता पायी जाती है। इस सूत्र पर विशेष विचार आगे किया जायगा।
उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिशानमूहः ॥११-३॥ इदमस्मिन्सत्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च ॥१२-३॥ परोक्षामुख० । उपलम्भानुपलम्भसंभवं त्रिकालीकलितसाध्यसाधनसम्बन्धाद्यालम्बनम्, इदमस्मिन् सत्येव भवतीत्याद्याकारं संवेदनमूहापरनामा तर्कः॥ ७-३॥
प्र० न० तत्वा०। परीक्षामुख के दोनों सूत्र सरल और लघु होते हुए भी जिस अर्थ का स्पष्ट बोधन कर रहे हैं उसी अर्थ को प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कार का कठिन सूत्र परिमोण में उन दोनों सूत्रों से लम्बा होता हुआ भी स्पष्ठ बोधन नहीं कर सका है, इसीलिये सूत्र में दो आदि शब्द ग्रन्थकार को प्रविष्ट करने पड़े हैं। इस सूत्र में "त्रिकालीकलित" यह अंश निरर्थक ही है कारण व्याप्ति सर्वोपसंहारवती ही होती है अर्थात् सर्व देश, सर्वकाल को व्याप्त करके ही रहती है इसलिये इस अंश के बिना भी वह अर्थ आगे के अंश से निकल ही आता है। जान पड़ता है ग्रन्थकार इस सूत्र को बनाते समय अवश्य ही किसी दूसरे विचार में मग्न थे अन्यथा वे "त्रिकालीकलित” इस अंश के साथ "सर्वदेशकलित" इस अंश का भी सूत्र में निवेश करने से नहीं चूकते, कारण कि उनके मतानुसार इस अंश के अभाव में भी सूत्र के अर्थ में कमी रह जाती है। हो सकता है कि ग्रन्थकार ने सूत्र के लम्बेपन के भय से ही इस अंश का निवेश न किया हो। यह भी मालूम होता है कि ग्रन्थकार का 'इस बात का बहुत भय था कि हमारा ग्रन्थ परीक्षामुख की नकल न समझ लिया जाय, इसलिये उन्होंने अपने प्रन्थ की रचना को स्वतंत्र सिद्ध करने में अधिक परिश्रम किया
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२०
भास्कर
[ भाग २
है इसका दिग्दर्शन ऊपर करा ही दिया गया है, तथा इसके लिये ग्रन्थ में जहाँ भी अधिक लिखने की स्वतंत्रता मिली है वहां पर उन्होंने कुछ न कुछ लिख ही डाला है । कहीं कहीं पर तो इसी विचार में परीक्षामुख के कई उपयोगी सूत्रों का विषय भी छोड़ देना पड़ा है। इन दोनों ग्रन्थों को देखने से मालूम पड़ सकता है। यहां पर लेख बढ़ जाने के भय से नहीं लिखा गया है। इनके विषय में इस ग्रन्थ को दिखते हुए यह तो नहीं कहा जा सकता, कि ग्रन्थकर्ता ने उनके लिखने की आवश्यकता नहीं समझी, कारण किं इस प्रन्थ में मामूली भी बात को सूत्र में स्थान दिया गया है।
कहीं कहीं पर सूत्र- परिवर्तन के कारण ग्रन्थकार इतनी दूर पहुंच गये हैं, कि परीक्षा मुख की भावपूर्ण वर्णनशैली भी जाती रही है, इसके लिये अनुमान प्रकरण का वह स्थल, जहां पर उदाहरण, उपनय और निगमन को अनुमान में अप्रयोजक सिद्ध किया गया है, विशेषतया उल्लेखनीय है । दोनों ग्रन्थों के तीसरे परिच्छेद में इस प्रकरण को देखने से इस कथन की सत्यता का भलीभाँति अनुभव होता है। इस लेख में भी आगे इन सूत्रों को उद्धृत किया जायगा ।
इस ग्रन्थ में जितने दृष्टान्त दिये गये हैं उनमें परिवर्तन के कारण अप्रसिद्धों को बहुत स्थान मिला है, जैसे
(१) घटमहमात्मना वेद्मि ॥ ८ - १ | परीक्षामुख० ।
करिकलभकमहमात्मना जानामि ॥ १६ - १ ॥ प्र० न० तस्वा० ।
(२) प्रदीपवत् ॥ १२१ ॥ परीक्षामुख० ।
मिहिरालोकवत् ॥ १७ -१ ॥ प्र० न० तस्वा० ।
दृष्टान्तों' में शब्दाडम्बरता को स्वतंत्रता का पूरा पूरा उपयोग किया गया है।
(३) यथा नद्यास्तीरे मोदकराशयः सन्ति धावभ्वं माणवकाः ॥ ५२ -६ ॥ परीक्षामुख० । यथा मैकलकन्यकायाः कूले ताल हिन्तालयोर्मूले सुलभाः
पिण्डखर्जूराः सन्ति त्वरितं गच्छत गच्छत शावकाः ॥ ४–६॥
(४) यथा पश्य पुरः स्फुरत्किरणमणिखण्डमण्डिताभरणभारिणीं जिनपतिप्रतिमाम् ॥ २७-३ ॥ प्र० न० तस्वा० ॥
कहीं कहीं पर शब्दों के परिवर्तन से परीक्षामुख के भाव को भी धक्का पहुँचा है । को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमन्यत मिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् १ ॥ ११-१ ॥ परीक्षामुख० । खलु ज्ञानस्यालम्बनं बाह्य प्रतिभातमभिमन्यमानस्तदपि तत्प्रकारं नाभिमन्येत ? ॥ १७ - १ ॥ प्र० न० तत्वा० ॥
कः
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किरण ] प्रमाणनयतत्वालोकालंकार की समीक्षा
परीक्षामुख के सूत्र में जो कोमलतासहित उपहास प्रदर्शित किया गया है वह इस सूत्र में कठोरता को लिये हुए नज़र आता है। वास्तव में तो इसे उपहास कहना ही व्यर्थ है यहाँ पर तो कठोरता को लिये हुए अपने बचन का समर्थन ही प्रतीत होता है। इसमें पूर्वापर-संबन्धवाहकता का अभाव भी कम नहीं है। जैसे
पत्तहेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानम् ॥ २३-३॥ साध्यस्य प्रतिनियतधर्मिसम्बन्धताप्रसिद्धये हेतोरुपसंहारवचनवत् पक्षप्रयोगोऽप्यवश्यमाश्रयितव्यः ॥२४-३॥
त्रिविधं साधनमभिधायैव तत्समर्थनं विदधानः कः खलु न पक्षप्रयोगमङ्गी कुरुते ॥२९-३॥
प्रत्यक्षपरिच्छिन्नार्थाभिधायि वचनं पदार्थ प्रत्यक्षं परप्रत्यक्षहेतुत्वात् ॥२६-३॥ ___ यथा पश्य पुरः स्फुरत्किरणमणिखण्डमण्डिताभरणभारिणीं जिनपतिप्रतिमाम् ॥ २७-३॥ पक्षहेतुवचनलक्षणमवयवद्वयमेव परप्रतिपत्तेरङ्गन दृष्टान्तादिवचनम् ॥ २८-३॥ हेतुप्रयोगस्तथोपपत्यन्यथानुपपत्तिभ्यां द्विपकारः ॥२६-३॥
सत्येव साध्ये हेतोपपत्तिस्तथोपपत्तिः, असति साध्ये हेतोरनुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिः ॥३०-३॥
__ यथा कृशानुमानयं पाकप्रदेशः सत्येव कृशानुमत्त्वे धूमवत्वस्योपपत्तेः, असत्यनुपपत्तेर्वा ॥३१-३॥
अनयोरन्यतरप्रयोगेणैव साध्यप्रतिपत्तौ द्वितीयप्रयोगस्यै कत्रानुपयोगः ॥३२-३॥
न दृष्टान्तादि वचनं परप्रतिपत्तये प्रभवति, तस्यां पक्षहेतुवचनयोरेव • व्यापारोपलब्धेः ॥ ३३-३॥ प्र० न० तस्वा० ॥ .. यहां पर सूत्र नं० २३ में परार्थानुमान का लक्षण कहा गया है। उस में बतलाया है कि पक्ष और हेतु के प्रयोग को परर्थानुमान कहते हैं। सूत्र नं० २४, २५ में परार्थानुमान में पक्ष प्रयोग की आवश्यकता बतलायी है। इसके आगे क्रम-प्राप्त तो हेतुप्रयोग का विवरण था लेकिन ग्रन्थकार ने उसको छोड़ कर सूत्र नं० २६, २७ में परार्थ प्रत्यक्ष का स्वरूप दृष्टान्त बतलाया है। इस क्रम का समर्थन इसकी टीका स्याद्वादरत्नाकरावतारिका के कर्ता ने प्रासङ्गिक मान कर किया है। यह ठीक है कि प्रसङ्ग पाकर किसी वस्तु का विवेवन किया जा सकता है लेकिन जहाँ पर प्रसङ्ग हो वहीं पर वह विवेचन उपयुक्त होता है। इसलिये अन्यकार को यदि परार्थ प्रत्यक्ष का कथन करना अभीष्ट ही था तो परार्थानुमान के लक्षण के बाद ही सूत्र नं० २४, २५ में उसका विवेचन कर सकते थे
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भास्कर
[ भाग २
कारण वहीं पर उसका प्रसङ्ग है पश्चात् सूत्र नं० २६, २७ में पक्ष-वचन का समर्थन करने से आगे के कथन से उसका संबन्ध संगत हो जाता। ग्रन्थकार का ऐसे क्रम की उपेक्षा करके सूत्रनिर्माण में परीक्षामुख से भेद दिलाने के अतिरिक्त क्या प्राशय था सो समझ में नहीं आता। इसके आगे भी क्रमभंग किया है । नं० २८ का सूत्र वास्तव में अपने स्थान पर अनुपयुक्त है, कारण कि उसका संबन्ध सूत्र नं. ३३ के साथ अधिक है इसलिये सूत्र नं० २६, ३०, ३१, ३२ को क्रम से २८, २९, ३०, ३१ नं० पर लिखकर नं० ३२ पर हो उसे लिखा जाना चाहिये, ऐसा करने से सूत्रों का क्रम इस प्रकार हो जाता है
पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपवारात् ॥ २३-३॥ प्रत्यक्षपरिछिन्नार्थाभिधायि वचनं पदार्थं प्रत्यक्ष परप्रत्यक्षहेतुत्वात् ॥२४॥ यथा पश्य पुरःस्फुरत्किरणमणिखण्डमण्डिताभरणभारिणीं जिनपतिप्रतिमाम्॥२५-३॥
साध्यस्य प्रतिनियतधर्मिसम्बन्धताप्रसिद्धये हेतोरुपसंहारवचनवत् पक्षप्रयोगोऽप्यवश्यमाश्रयितव्यः ॥२६-३॥
त्रिविधं साधनमभिधायैव तत्समर्थनं विदधानः कः खलु न पक्षप्रयोगमङ्गीकुरुते ॥२७-३॥
हेतुप्रगोगस्तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिभ्यां द्विप्रकारः ॥२८-३॥
सत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिस्तथोपपत्तिः, असति साध्ये हेतोरनुपपत्तिरेवान्यथा. नुपपत्तिः ॥२६-३॥
यथा कृशानुमानयं पाकप्रदेशः सत्येव कृशानुमत्वे धूमवत्वस्योपपत्तेः, असत्यनुपपत्तेर्वा ॥ ३० -३॥
अनयोरन्यतरपयोगेणैव साध्यप्रतिपत्तो द्वितीयप्रयोगस्यैकत्रानुपयोगः ॥३१-३॥ पक्षहेतुवचनलक्षणमवयवद्रयमेव परप्रतिपत्तेरङ्गन दृष्टान्तादिवचनम् ॥ ३२--३॥.
न दृष्टान्तववनं परप्रतिपत्तये प्रभवति तस्यां पक्षहेतुवचनयोरेव व्यापारोपलब्धः ॥ ३३--३॥
पाठक देखेंगे कि यह क्रम कितना संबद्ध बन जाता है ! आगे इस लेख में आवश्यकतानुसार इन सूत्रों के नं. इसी क्रम से दिये जायेंगे।
इन सूत्रों में पदों को असंगतता व निरर्थकता भी पायो जाती है। सूत्र नं० २४ में "परार्थ" पद नहीं देकर यदि 'प्रत्यक्ष पद के आगे “अपि" शब्द का प्रयोग करके “परार्थ" पद का अर्थ निकाला जाता तो अधिक संगत होता। सूत्र न० २६ में "असति साध्ये हेतोरनुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिः" इस के स्थान में सूत्रत्व की दृष्टि से "असति त्वनुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिः" पेसा पाठ ही संगत जान पड़ता है। "साध्ये हेतोः" इतने अंश का इसी
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किरण १ ]
प्रमाणनयतत्वालोकालंकार की समीक्षा
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सूत्र के पूर्व अश में से अनुसंधान हो सकता है। इसी के दृष्टान्त सूत्र नं० ३० में स्वयं ग्रन्थकारने भी "कृशानुमत्वे धूमवत्वस्य" इस अंश का “असत्यनुपपत्तेर्वा" इसमें अनुसंधान किया है। इसी तरह सूत्र नं० २८ में “द्विप्रकारः " यह पद न भी दिया जाय तो भी सूत्र का अर्थ असंगत नहीं होता है, इसलिये “द्वि प्रकार : " यह पद वहां पर निरर्थक ही है। सूत्र नं० ३२ में "पक्षहेतुव चनलक्षणमवयवद्वयमेव" की जगह "पतलत्तणमवयवद्वयमेव" यह अ ंश उपयुक्त कहा जा सकता है, कारण कि परार्थानुमान में पत्त - प्रयोग और हेतु - प्रयोग के समर्थन का ही यहां पर प्रकरण है इसलिये सूत्र नं० २३ में परार्थानुमान के लक्षण में कहे हुए "पक्ष हेतुवचनात्मकं" इस पद का " तत्" इस सर्वनाम पद से अनुसंधान हो सकता है। यदि कहा जाय कि “एतत् " पद से समीप में कहे हुए तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति दोनों हेतुओं का भी अनुसंधान हो सकता हैं इसलिये संदेह को दूर करने के लिये सूत्र में "पतत्" पद का पाठ नहीं करके "पक्षहेतुवचन" इसका पाठ किया है । तो इसका उत्तर यह है कि पक्ष को परार्थानुमान का अंग मानना चाहिये। इसका समर्थन स्वयं ग्रन्थकार ने ही पहिले कर दिया है। इसके साथ यदि हेतु के दोनों भेदों को शामिल करते हैं तो परार्थानुमान के दो अंग नहीं होंगे, तीन हो जायँगे। इससे ग्रन्थकार का दो अवयव स्वीकार करना असंगत ठहरेगा। दूसरी बात यह है कि एक अनुमान में तंथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति दोनों हेतुओं में से एक ही रहता है ऐसा ग्रन्थकार भी प्रतिपादन कर रहे हैं इसलिये फिर भी अनुमान के दो अंग नहीं सिद्ध होंगे। तीसरी यह है कि यहां पर पक्षप्रयोग और हेतुप्रयोग के वर्णन की प्रधानता है, न कि हेतु के भेदों की, इसलिये "प्रत्यासत्तेः प्रधानं बलीयः" (समीप की अपेक्षा प्रधान का ही अनुसंधायक पद से ग्रहण होता है) इस न्याय से पक्ष और हेतु वचन का ही "पतत्" पद से अनुसंधान होगा, हेतु के भेद तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति का नहीं होगा। चौथी बात यह है कि - ग्रन्थकार ने जो क्रम सूत्रों का रक्खा है उसमें हेतु के भेदों का कथन इस सूत्र के बाद ही किया है इसलिये उस क्रम में तो “पतत्" पद से तथेोपपत्ति अन्यथानुपपत्ति हेतुओं का अनुसंधान होना असंभव ही है इसलिये इस सूत्र में " पक्षहेतुबचनलक्षणमवयवद्वयमेव " इसके स्थान में "पलक्षणमवयवद्वयमेव" पाठ रखना उचित है । "पतल्लक्षणमवयवद्वयमेव " इसके भी स्थान में यदि "एतद्वयमेव" ऐसा पाठ कर दिया जाय तो सूत्र में और भी अधिक लघुता हो जाती है तथा अर्थप्रतीति में भो कोई बाधा नहीं पहुंचता है। लेकिन यह पद् तो परीक्षामुख का है इसलिये ग्रन्थकार अपने गन्थ में कैसे रख सकते थे; उन्होंने ता इसी के भय से "एतत् " पद तक सूत्र में नहीं आने दिया । उन के अपने सूत्रों में परीक्षामुख से भेद लाने का अधिक ध्यान था सूत्रपने का ध्यान कम था, अस्तु ! सूत्र नं०
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२४
भास्कर
[ भाग २ ३३ के आगे सूत्रों का क्रम ग्रन्थकर्ताने इस प्रकार लिखा है।
न च हेतारन्यथानुपपत्तिनिर्णीतये, यथोक्ततर्कप्रमाणादेव तदुपपत्तेः ॥ ३४-३॥
नियतकस्वभावे च दृष्टान्ते साकल्येन व्याप्तेरयोगतो विप्रतिपत्तौ तदन्तरापेक्षायामनवस्थितेर्निवारः समवतारः ॥ ३५-३॥
नाप्यविनाभावस्मृतये, प्रतिपन्नप्रतिबन्धस्य व्युत्पन्नमतेः पक्षहेतुप्रदर्शनेनैव तत्प्रसिद्धः॥३६-३॥
अन्तर्व्याप्त्या हेतोः साध्यप्रत्यायने शक्तावशक्तौ च बहिर्याप्तेरुद्भावनं व्यर्थम् ॥३७-३॥ पक्षीकृत एव विषये साधनस्य साध्येन व्याप्तिरन्ताप्तिरन्यत्र तु बहिर्व्याप्तिः॥३८-३॥
यथानेकान्तात्मकं वस्तु सत्वस्य तथैवोपपत्तेरिति, अग्निमानयं देशो धूमवत्वात् , य एवंस एवं यथा पाकस्थानमिति च ॥ ३६ ॥
नोपनयनिगमनयोरपि परप्रतिपत्तौ सामर्थ्य पक्षहेतुप्रयोगादेव तस्याः सद्भावात् ॥४०-३॥ प्र० न० तत्वा० ।
ग्रन्थकार के द्वारा न० २८ पर कहे हुए सूत्र का पहिले कहे अनुसार न०३२ पर पढ़ने से सूत्र न० ३३ में भो "न दृष्टान्तववनं' इसके स्थान में "तद्धि" ऐसा ही पाठ करना चाहिये जिससे सूत्र का स्वरूप इस प्रकार हो जाता है
तद्धि न परप्रतिपत्तये प्रभवति, तस्यां पक्षहेतुवचनयोरेव व्यापारोपलब्धेः ॥ ३३-३॥ इसके आगे सूत्र न० ३४ को इस प्रकार पढ़ना चाहिये
न च दृष्टान्तवचनं हेतोरन्यथानुपपत्तिनिर्णीतये, यथोक्ततर्कप्रमाणादेव तदुपपत्तेः॥३४-३॥ इस सूत्र में "दृष्टान्तववन" यह पद इसलिये पढ़ना चाहिये कि सूत्र नं०३३ में "तद्धि" पद से सूत्र नं० ३२ में कहे हुए "न दृष्टान्तादि वचनम्" इस पद का ग्रहण होता है, इसलिये सूत्र नं०३४ में यदि उसका अनुसंधान किया जायगा, तो दृष्टान्त के साथ उस सूत्र में प्रादि शब्द से ग्रहण किये गये उपनय और निगमन का भो इस में ग्रहण करना पड़ेगा,जो कि अनिष्ट है इसलिये सूत्र नं० ३४ में "दृष्टान्तवचन" इस पद का पाठ करना आवश्यक है। फिर भी इस से सूत्रों में गौरव नहीं हाता, कारण कि जो "दृष्टान्त वचनम्" यह पद सूत्र नं० ३३ में था उसीको वहां पर नहीं पढ़ कर के सूत्र नं. ३४ में पढ़ दिया गया है। आगे के सूत्रों का कम व स्वरूप जैसा है जैसा ही रहना चाहिये, केवल इस प्रकार के परिर्तन से सूत्र नं० ४० को विल्कुल आवश्यकता नहीं रह जातो है कारण की सूत्र नं. ३३ में कहे हुए "तद्धि पद से सूत्र नं० ३२ के "न दृष्टान्तादि वचनम्" इस अंश का ग्रहण कर लिया गया है, जिस से उस में कहे हुए आदि शब्द से उपनय और निगमन का बोध हो जाता है, जैसा कि स्वर
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किरण १] प्रमाणनयतत्वालोकालंकारःकी समीक्षा प्रन्यकार ने सूत्र नं. ३२ में "न दृष्टान्तादि वचनम्" इस में कहे हुए आदि शब्द से उपनय
और निगमन का ग्रहण किया है, इसलिये जब सूत्र नं० ३३ से ही उपनय और निगमन की परप्रतिपत्ति में कारणता का निषेध हो जाता है। तो सूत्र नं०४० की निष्प्रयोजनता स्पष्ट ही है। वास्तव में जब सूत्रों में ऐसे लाघव का ध्यान रखा जाता है तभी वे सूत्रों की कक्षा को प्राप्त कर सकते हैं नहीं तो वे वाक्य ही कहे जा सकते हैं। ___ यदि कहा जाय, कि आगे इस ग्रन्थ में उपनय और निगमन का लक्षण किया गया है इसलिये उसके पहले इनका उद्देश करना आवश्यक होने से उपनय और निगमन का उद्देश करने के लिये सूत्र नं० ४० आवश्यक हो जाता है। तो इसका उत्तर इस प्रकार है कि फिर तो "न दृष्टान्तादि वचनम्" इसके स्थान में "न दृष्टान्तोपनयनिगमनवचनम्” ऐसा पाठ करना हो योग्य था अन्यथा कहा जा सकता है कि जब सूत्र नं० ३२ के पहिले किसी भी सूत्र में उपनय, निगमन का कथन नहीं है तो सूत्र नं० ३२ में आदि शब्द से उनका ग्रहण अन्यकर्ता ने कैसे कर लिया है। यदि कहा जाय कि अन्य दर्शनकारों ने इनका प्रयोग किया है इसलिय प्रसिद्धि के कारण आदि शब्द से ही उनका बोध हो जाता है तो फिर प्रसिद्ध होने के कारण उनके लक्षण करने के लिये भी उद्देश की आवश्यकता नहीं रह जाती है । वास्तव में तो ग्रन्थकार को अपने प्रन्थ में उनका उद्देशात्मक कथन करना चाहिये
और वह "न दृष्टान्तादि वचनम्" के स्थान में "नदृष्टान्तोपनयनिगमनवचनम्" ऐसा पाठ करने से ही उपयुक्त होता है, इसके लिये सूत्र नं० ४० की आवश्यकता नहीं है। इस स्थान पर परीक्षामुख का सूत्रक्रम अत्यन्त गंभीर भाव को हृदयस्थ करके लिखा गया है। पाठकों की जानकारी कालिये उसका यहां पर निर्देश कर देना आवश्यक समझता हूँ।
एतद्वयमेवानुमानाङ्ग नादाहरणम् ॥ ३७-३॥ नाह तत्साध्यप्रातपत्यङ्ग तत्र यथोक्तहेतोरेव व्यापारात् ॥३८-३॥ तदविनाभावनिश्चयार्थ वा, विपक्षे बाधकादेव तत्सिद्धः ॥ ३६-३॥
व्यक्तिरूपं च निदर्शनं सामान्येन तु व्याप्तिस्तत्रापि ताद्वप्रातपत्तावनवस्थानं स्याद् दृष्टान्तान्तरापेक्षणात् ॥४०-३॥
नाप व्याप्तिस्मरणार्थ तथाविधहेतुप्रयोगादेव तत्स्मृतेः ॥ ४१.३॥ तत्परममभिधीयमानम् साध्यधर्मािण साध्यसाधने संदेहयात ॥४२-३ ॥ कुतोऽन्यथोपनयनिगमने ॥ ४३-३॥ न च ते तदङ्ग साध्यधमिर्माण हेतुसाध्ययोर्वचनादेवासंशयात् ॥ ४४.३॥ परीक्षामुख ॥
(क्रमशः)
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नातिवाक्यामृत और कन्नड-कवि नेमिनाथ
(ले० पण्डित के० भुजबली जी शास्त्री)
गत वर्ष जब घर गया था तब कारकल के जैनछात्रावास में संचित कुछ ताडपत्रांकित प्रन्थों के दर्शन का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। उन ग्रन्थों में से एक सोमदेव सूरिकृत नीतिवाक्यामृत की कन्नड टीका भी थी। इस टीका के रचयिता नेमिनाथ हैं। इन्हों ने प्रन्थ के आदि और अन्त में मेघवन्द्र नौविद्यदेव एवं वीरनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्ती को बड़ी श्रद्धा से स्मरण किया है। इनके समाप्तिसूचक अन्तिम बाक्य इस प्रकार हैं :"स्वस्ति समस्तानवद्यविद्याविलासिनी विलासमूर्ति सकलसैद्धान्तचक्रवर्तीसम प्रसन्न कविराज विद्वज्जनमनस्सरसि-मराल श्रीमन्मेषचन्द्र बौविद्यदेव दिव्यप्रसादासाधितात्मप्रभाव श्रीमद्वारनन्दि सैद्धान्तदेव प्रसाद प्राप्त प्रसन्नकवितारामासमासादित विविध प्रेम निज कुलकुवलयानन्दसोम पूर्वदल्लि सन्धिविग्रपदविन्यासद श्रीमन्नेमिनाथ रचित नीतिवाक्यामृतवृत्ति सकलार्थदीपवर्ति सर्वशास्त्रमूर्ति चन्द्रार्कतारं वरं निल्के मङ्गलम्"। ___ अब सर्वप्रथम त्रविद्यदेव मेधचन्द्र एवं सिद्धान्तचक्रवर्ती वीरनन्दी के सम्बन्ध में कुछ विचार करना है। वीरनन्दी के गुरु यह मेघवन्द्र वही हैं जिनकी प्रशंसा आचारसार की प्रशस्ति एवं श्रवणबेलगोल के कई शिलालेखों में दृष्टिगोचर होती है। यह मूलसंघ. पुस्तकगच्छ एवं देशीयगण के आचार्य थे। इनको गणना बहुत बड़े विद्वानों में है। .
तर्कन्यायसुवज्रवेदिरमलार्हत्सूक्तिसन्मौक्तिकः शब्दग्रन्थविशुद्धशंखकलितः स्याद्वादसद्विद्रुमः । व्याख्यानोर्जितपोषणप्रविपुलप्रशोद्धवीचीवयोजोयाद्विश्रुतमेघचन्द्रमुनिपस्त्रीविद्यरत्नाकरः॥
श्रीमूलसंधकृतपुस्तकगच्छदेशीयोद्यद्गणाधिपमुतार्किकचक्रवर्ती। सैद्धांतिकेश्वरशिखामणिमेघचन्द्र
स्त्रीविद्यदेव इति सद्विबुधाः स्तुवन्ति ॥ सिद्धान्ते जिनवीरसेनसदृशः शास्त्राजनीभास्करः षट्तवकलङ्कदेवविबुधः साक्षादयं भूतले। सर्वव्योकणे विपश्चदधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयम् विद्योत्तममेघचन्द्रमुनिपो वादीभपंचाननः ॥
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किरण १] नीतिवाक्यामृत और कन्नड-कवि नेमिनाथ २७.
श्रवणबेलगोल के ४७ नं० के शिलालेखगत उल्लिखित श्लोकों से ज्ञात होता है कि 'मेघचन्द्र' जी न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त आदि अनेक विषयों के प्रखर विद्वान् थे। इसके अतिरिक्त यहां के नं० ४१, ५०, ५३, ५५ और ५६ के शिलालेखों में भी इनका विशद वर्णन मिलता है। वीरनन्दी के सिवा इन मेघवन्द्र के प्रभाचंद्र शुभकीर्ति आदि कई शिष्य थे, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोल के अन्यान्य शिलालेखों में पाया जाता है। "कर्नाटक कवि-चरिते" १ म भाग पृष्ठ १३२ से विदित होता है कि इन मेघचन्द्र ने ११४८ ई० में आचार्य पूज्यपाद के समाधिशतक की एक टीका* लिखी थी।
'कविचरिते' के लेखक का अनुमान है कि यह मेघचन्द्र ११७७ ई० में परलोकगत नयकीर्ति जी के शिष्य थे। “विनययशोनिधि पम्पन सुतंगे तिळिवन्तु पोच पोसगन्नडदि' समाधिशतक-टोका के इस उल्लिखित पद्यभाग से मालूम होता है कि मेघचन्द्र ने महाकवि पंपके सुपुत्र के लिये ही इस टीका का प्रणयन किया है। अगर यह 'पम्प' अभिनव पम्प (नागचन्द्र) ही हो तो इनके देहावसान के उपरान्त इन्हीं के लड़के के लिये मेघचन्द्र ने उक्त समाधिशतक की टीका लिखी होगी। यह अभिनव पम्प यश प्राप्त कन्नड कवियों में से एक हैं। इनके स्मारकरूप में हाल ही में कर्नाटकसंघ कर्नाटक कौलेज धारवाड की ओरसे एक सुन्दर पुस्तक प्रकाशित हुई है । यह सुप्रसिद्ध पांच-कन्नड-साहित्य महारथियों के–'पम्प' का काल-निर्णय, पम्प की रचनाशैली आदि भिन्न भिन्न विषयों पर विस्तृत और गवेषणापूर्ण पाँच लेखों से समलंकृत है। इसके भूमिका लेखक प्रख्यात कवि एवं लेखक श्रीमान् B. M. श्रीकण्ठय्य M. A. B. L. बेंगलूर हैं।
अस्तु अब मेघचन्द्र के शिष्य सिद्धान्तचक्रवर्ती वीरनन्दी जी की ओर आप दृष्टिपात करें। श्रवणबेलगोल के शिलालेखों के अतिरिक्त 'आचारसार' के अन्त में जो प्रशस्ति दो गयो है इस वीरनन्दी और इनके गुरु मेघचन्द्र जी का बहुत कुछ वर्णन मिलता है।
"सिद्धान्तार्णवपूर्णतारकपतिस्तर्काम्बुजाहर्पतिः शब्दोद्यानवनामृतोरुसरणियोगीन्द्रचूडामणिः ।
विद्यापरसार्थनामविभवः प्रोद्धृतचेतोभवः स्थेयादन्यमृतावनीमृदशनिः श्रीमेघचन्द्रो मुनिः ॥३०॥ यद्वाक्च्छीरवतंसमण्डनमणिवैदग्धदिग्धत्विषाम् यच्चारित्रविचित्रता शमभृतां सूत्र पवित्रात्मनाम् । यत्कीर्तिर्धवलप्रसादनधुरं धत्ते धरायोषितः
सत्रविद्यविभूषणं विजयते श्रीमेघचन्द्रो मुनिः ॥३१॥ * Indian antiquary vol. XIV Page 14.
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भास्कर
[ भाग २
वैदग्भ्यश्रीवधूटीपतिरतुलगुणालकृतिर्मेधचन्द्रस्त्रविद्यस्यात्मजातो मदनमहिभृतो भेदने वज्रपातः सैद्धान्तिव्यूहचूडामणिरनुफलचिन्तामणिभूजनानाम् योऽभूत्सौजन्यरुन्द्रश्रियमवति महौ वीरनन्दी मुनीन्द्रः ॥३२॥ श्रीमेघचन्द्रोज्वलमूर्तिकीर्तिः
समस्तसैद्धान्तिकचक्रवर्ती ... श्रीवीरनन्दी कृतवानुदार
.... माचारसारं यतिवृत्तसारम् ॥३३॥ अब देखना है कि 'वीरनन्दी कब हुए। श्रवण बेल्गोल के नं० ४७-५० और ५२ के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि बीरनन्दी के गुरु आचार्य मेघचन्द्र का स्वर्गवास शक सम्वत् १०३७ वि० सं० १९७२ में और इनके एक शिष्य शुभचन्द्र देव का स्वर्गवास शक सं० १०६८ वि० सं० १२०३ में हुआ था। इन्हीं प्राचार्य मेघचन्द्रजी के शिष्य प्रभाचन्द्र ने शक सं० १०४१ वि० सं० ११७६ में एक महा पूजा करायी थी।
इन आधारों का ही आश्रय लेकर पं० नाथूराम प्रेमी जी ने माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित "आचारसार" के निवेदन में श्रीवीरनन्दीजी का समय १२ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध निर्धारित किया है। आप का वीरनंदी जी का यह कालनिश्चय अनुमानपरक है। किन्तु इनके समय-निर्णय के लिये हमारे सामने एक और सुदृढ प्रमाण मौजूद है। वह यह है कि इस वीरनंदी ने शक सं० १०७६ वि० सं० १२११ में स्वरचित. आचारसार की एक कन्नड टीका * लिखी है। इससे तो आचार वीरनंदी का काल १२ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध न होकर १३ वीं शताब्दी का प्रारंभिक काल निर्विवाद सिद्ध होता है। ज्ञात होता है कि "कर्नाटककविचरिते" के इस भाग के प्रकाशित नहीं होने के कारण ही उल्लिखिन सबल प्रमाण को प्रस्तुत करने से प्रेमी जी को वञ्चित रहना पड़ा।
इस लेख के प्रकृत लक्ष्यभूत नेमिनाथ जी के समय के विषय में भी कुछ विचार करना परमावश्यक है । "सिद्धान्तचक्रवर्त्याख्येद्धवीरनन्दियतिनाथाशा" आदि टीका के प्रारंभ के इस द्वितीय पद्य से शात होता है कि इन्होंने सिद्धांतचक्रवर्ती वीरनन्दी की आज्ञा से ही नीतिवाक्यामृत की यह कन्नड टीका लिखी है। इससे यह सहसा सिद्ध होता है कि नेमिनाथ जी वीरनन्दी जी के सम-सामयिक थे। अतः नेमिनाथ का भी समय १३ वीं शताब्दी का प्रारंभ निश्चित रहा। इन्होंने टीका के अन्त में अपने को 'सन्धि विग्रही' बतलाया है। परन्तु पता नहीं लगता है कि यह कहां और किस राजा के आश्रय में रह
१-कर्नाठककविचरिते २ व भाग पृष्ठ 5
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किरण १ ]
नीतिवाक्यात और कन्नड - कवि नेमिनाथ
२६
कर सन्धि विग्रह का कार्य सम्पन्न करते थे । नेमिनाथ जी ने अपने को 'बुधविनुत' भी लिखा है । सम्भव है कि बहुतेरे पण्डित इनका समादर करते हो। इसमें सन्देह नहीं है कि संस्कृत - पाण्डित्य के साथ साथ यह एक राजनीतिज्ञ भी थे ।
अब कन्नड-व्याख्या पर भी एक नज़र दौड़ाना कोई अप्रासंगिक नहीं होगा। नीतिवाक्यामृत इस मूल ग्रन्थ के रचयिता पूज्यपाद श्रीसोमदेव सूरि हैं। यह प्रन्थ संस्कृत साहित्य का एक अमूल्य रत्न हैं। राजनीति ही इस ग्रन्थ का प्रधान विषय है। इसमें राजा और राज्यशासन से सम्बन्ध रखने वाली प्रायः सभी बातों पर विचार किया गया है। यह सम्पूर्ण ग्रंथ पद्यमय है। इसकी प्रतिपादन शैली सुलभ, सुन्दर, संक्षिप्त एवं गंभीर है। वस्तुतः यह ग्रंथ अपने नामानुकूल अगाध नीतिसमुद्र के मन्थन से संगृहीत सारभूत अमृत ही है। इसमें सनीति का अवलम्बन करने का ही प्रदेश है। आचार्य सोमदेव के गुरु का नाम नेमिदेव और प्रगुरु का नाम यशोदेव था । हमारे सोमदेव जी बड़े भारी तार्किक कवि, धर्माचार्य एवं राजनीतिज्ञ थे। इन्होंने कई ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनका विचार बहुत ही उदार था । आप तृतीय राष्ट्रकूट राजा कृष्ण के सामन्त चालुक्यवंश के द्वितीय अरिकेशरी के सभापण्डित थे। इनका समय ईस्वी सन् ६५६ है । इस सुन्दर नीतिग्रन्थ की एक संस्कृत टीका भी उपलब्ध है। वह टीका मूल प्रन्थ के साथ ही साथ वि० सं० १९७६ में माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला बंबई में छप चुकी है। उसमें टीकाकार का नाम नहीं मिलता है, पर टीकाकार के मंगलाचरण ज्ञात होता है कि वह वैष्णव थे। इन्होंने अपनी टीका में प्रमाणरूप में पचासो ग्रन्थ कारों के श्लोकों को उद्धृत किया है। टीकाकार ने मूल ग्रन्थ का आशय विशद करने के लिये भरसक प्रयत्न किया, बल्कि वह इस कार्य में फलीभूत भी हुए हैं। इसमें शक नहीं कि टीकाकार एक बहुश्रुत सुयोग्य विद्वान् थे ।
अस्तु यह कन्नड टीका सम्पूर्ण है। इससे संस्कृत टीका का मिलान करने के लिये इस समय मेरे सामने वह कन्नडटीका समग्र मौजूद नहीं है । इसके जोश मेरे पास प्रस्तुत हैं इनसे संस्कृत टीका का मिलान करने पर मालूम होता है कि संस्कृत टीका का आश्रय लेकर ही यह टीका रची गयी है । किन्तु भेद यही है कि इन्होंने अपनी इस टीका में संस्कृत टीका में समुद्धृत अन्यान्य शास्त्रीय प्रमाणों का उद्धरण नहीं किया है । समुपस्थित कन्नड टीका के कुछ अंशों से यह भी पता चलता है कि नेमिनाथ जी ने भावार्थ की ओर ध्यान नहीं देकर शब्दार्थ ही की ओर अधिक ध्यान दिया है। हो सकता है कि यत्र तत्र इन्होंने विस्तृत व्याख्या की हो। इसका निश्चय सूक्ष्म दृष्टि से सम्पूर्ण प्रन्थ के परिशीलन से ही हो सकता है।
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भास्कर
[ भाग २
x
अंत में मैं एक बात का और उल्लेख कर के इस लेख को समाप्त करता हूँ। कन्नड टीकाकार नेमिनाथ जी ने अपनी टीका के सर्वान्त में 'माघनन्दी' भट्टारक को प्रशंसारूप में याद किया है। पता नहीं लगता है कि माघनन्दी भट्टारक से इनका कैसा सम्बन्ध था । 'माधनन्दी' नाम के कई प्राचार्य हो गये हैं, अतः निन्ति रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि यह माघनन्दी कौन से हैं। माघनन्दिविषयक बातको खुलासा करने के लिये “जैन शिलालेखसंग्रह" में संगृहीत श्रवणबेलगोल के अन्यान्य शिलालेखो में अडित माघनन्दी नाम के आचार्य, मुनि एवं कवियों का एक कोष्टक तयार कर नीचे दिये देता हूँ -: . क्रम न० शि० ले न० नाम
गुरु नाम ___ शक सं० वि० सं० १ १०५ माघनन्दी
१३२० १४५५ २ १२६ ,
कुमुदवन्द्र १२०५ १३४० कुलचन्द्र १०८५ १२२० कुलभूषण १०८५ १२२० चतुर्मुख १०२२ लगभग ११५७
चारुकीर्ति १२३५ १३७० ४२, १२४, माघनन्दी नयकीर्ति १०६६ १२३४ १२८, १३० (श० सं० अ० ११०३,)
(वि० सं० १२३८)
माघनन्दी श्रीधरदेव १०६ १२३४
,, (भट्टारक) भानुकीर्ति ११७०. १३०५
(श०सं०११७० वि० सं० १३०५) १० ४६६ माघनन्दी व्रती x ११७० १३०५ ११ १२६ माघनन्दी सि० च० x १२०५ १३४.
(श०सं० १२०५ वि० सं० १३४०) १२ ४७१ माघनन्दी सिद्धान्तदेव x x x १३* भूमिका माधनन्दी गुप्तिगुप्त x x ___मेरा अनुमान है कि नं० ४६६ के शिलालेखाङ्कित भानुकीर्तिजी के शिष्य माधनन्दी भट्टारक को ही नेमिनाथ ने स्मरण किया है। कारण यह कि नेमिनाथ ने भट्टारकोपाधिविशिष्ट ही माघनन्दी का स्मरण किया है और साथ ही साथ इस भट्टारक माघनन्दी के समकालीन भी नेमिनाथ हो जाते हैं। उल्लिखित कोष्टक से यह भी पता चल जाता है कि
*नन्दी-सन्ध की पट्टावली के आधार पर
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किरण ?] नीतिबाक्यामृत और कन्नड-कवि नेमिनाथ अन्यान्य माघनन्दियों में दूसरा कोई माघनन्दी भट्टारक पदधारी है भी नहीं । अतः मेरा यह अनुमान एक प्रकार से निर्विवाद सा ज्ञात होता है।
श्रवणबेलगोल के उल्लिखित ४६६ नं० के शिलालेख में मेरे इन भट्टारक माघनन्दी की गुरुपरम्परा यों दी गयी है :
मूलसंघ देशीयगण पुस्तकगच्छ कुंदकुंदान्वय में माघनन्दी सिद्धांत-चक्रवर्ती हुए। इन के शिष्य भानुकोर्ति जी हुए। इन्हीं के शिष्य हमारे भट्टारक माघनन्दी जी हैं। इस भट्टारक माघनन्दी की प्रशंसा शिलालेख में-"अखिलकलामय, उदारचरित, अतिविशदयशोधाम, मुनिपुङ्गव, वरविद्यामहित, व्रतीश्वर" आदि अनेक विशेषणोल्लेख-द्वारा की गयी है। इनके प्रगुरु-सिद्धांत-चक्रवर्ती माघनन्दी 'होय्सलराय' के राजगुरु थे। जैनशिलालेख के सुविज्ञ सम्पादक बाबू होरालालजो एम० ए० का कहना है कि "संभवतः ये ही उस 'शास्त्रसार' के कर्ता हैं जिन का उल्लेख प्रारंभ के एक श्लोक में आया है"
जन
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धाम्मिक-उदारता
(ले० बाबू पूरणचंद जी नाहर एम० ए० बी० एल० )
संसार में धर्म ही एक ऐसी वस्तु है कि जिसकी सृष्टि सब धर्मवाले अलौकिक बताते हैं। कोई इसको अनादि कहते हैं, कोई स्वयं ईश्वर का वचन अथवा कोई ईश्वरतुल्य अवतार के कहे हुए उपदेश और नियमादि के पालन को ही धर्म कहते हैं। चतुर्दश रज्ज्वात्मक जीवलोक में जितने भी जीव हैं सुखप्राप्ति के लिये सब लालायित रहते हैं। जीव को मुक्ति अर्थात् निर्वाण के अतिरिक्त जितने प्रकार के सुख हैं सब सामयिक तथा निर्दिष्टकाल और परिमाण के होते हैं। 'धर्म' शब्द के अर्थ को देखिये तो यही ज्ञात होगा कि यह ऐसी वस्तु है कि जो जीव को दुःख में पड़ते हुए से बचावे । जो अपने को कष्ट से बचावे और सुख की प्राप्ति करावे ऐसी वस्तु को कौन नहीं चाहता ? सारांश यह है कि किसी न किसी प्रकार का 'धर्म' मनुष्यमान को चाहिये। चाहे उनका धर्म सनातन हो, चाहे जैन, चाहे बौद्ध, चाहे ईसाई हो, चाहे वे मुसलमान हों, चाहे नास्तिक हों, उनको किसी न किसी धर्म की अथवा किसी महापुरुष के चलाये हुए मतं की दुहाई देनी पड़ती है। जिस प्रकार समाज में चाहे वह गरीब हो चाहे सेठ साहूकार अथवा राजा महाराजा हो सामाजिक दृष्टि से सबों को दर्जा एक है, उनमें कोई बड़ा छोटा नहीं समझा जाता उसी प्रकार धार्मिक दृष्टि से भी एक ही धर्म के पालनेवाले सबलोगों की गणना एक ही श्रेणी में होती है। परन्तु अपने अपने धर्मवाले उनको धार्मिक दृष्टिकोण से दूसरे धर्मानुयायियों को घृणा के भाव से देखते हैं। इतिहास कहता है कि धर्म के नाम पर मुसलमान लोगों ने कई बार संग्राम छेड़ दिया था। मैं कुरान शरीफ से परिचित नहीं हूँ परन्तु सम्भव है उनके धर्म-प्रवर्तक महम्मद साहब का ऐसा उपदेश न होगा। दूसरों के धर्मका नाश करके अपने धर्म का प्रचार करना दूसरी बात है, परन्तु मनुष्य होकर इस प्रकार दूसरे मनुष्य को कष्ट पहुँचाना धर्म नहीं हो सकता। अपने धर्मानुयायियों की संख्या वृद्धि करने को धर्मसमझना स्वाभाविक है, परन्तु वे लोग इस विवार को कार्यरूप में लाने के समय सीमा के बाहर जाते थे। जैन धर्म के तत्व में अन्य धर्म का अथवा अन्य धर्मावलम्बियों को 'न निंदिजईन बँदिजई' यहाँ तक कि निन्दा करना मना है। धार्मिक विषयों में ऐसी उदारता अवश्य होनी चाहिये। हमारे तीर्थकर जातिनिबिशेष से उपदेश दिया करते थे। जैनियों के धर्मग्रन्थ से स्पष्ट है कि
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किरण ]
धाम्मिक-उदारता
तीर्थंकरों के समवसरण' में अर्थात् जिस स्थान से तीर्थंकर धर्मोपदेश देते थे वहां पर सब जीवों का-पशुपतियों तक का भी स्थान रहता था और देवता से लेकर तिर्यंच तक सर्व प्रकार के प्राणी अपनी अपनी भाषा में भगवान का उपदेश समझ लेते थे। इस अलौकिक शक्ति को तीर्थंकरों का 'अतिशय' बताया गया है।
जैनियों के अन्तिम तीर्थकर श्रीमहावीर स्वामी को हुए आज २५ शताब्दी हो चली तो भी जैनियों में वही उदारता देखने में आती है। इधर कई शताब्दी तक मुसलमान सम्रादगण भारत के शासक रहे। यहाँ के निवासियों से उनलोगों का राजा प्रजा का सम्बन्ध हुआ था। वे लोग हिन्दु धर्मावलम्बियों को समय समय पर उत्पीड़ित करते रहे। देखिये--हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थस्थान 'सोमनाथ' जो भारत के सुदूर सौराष्ट्र प्रांत में है वहाँ महम्मद गजनी ने जिस प्रकार मूर्ति को नष्ट किया था वह कथा भारत के समस्त इतिहास की पुस्तकों में वर्णित है। शताब्दियों तक अनाचार होता रहा और रही सही लगभग १७वीं शताब्दी में 'काला पहाड़' ने बिहार और बंगप्रान्त के सब हिन्दू बौद्ध देवता और देवियों की मूर्तियां तोड़ दी थीं। परन्तु धार्मिक उदारता के कारण जैनियों पर कोई विशेष अत्याचार को उल्लेख नहीं मिलता। मुझे कुछ समय पूर्व तीर्थराजगृह के पंच पहाड़ों में से पहिले विपुलाचल के श्रीपार्श्वनाथ मंदिर की विशाल प्रशस्ति मिली थी। यह संस्कृत भाषा में गद्य-पद्यमय है और इसका समय विक्रम संवत् १४१२ अर्थात् १५वीं शताब्दी है। उस समय सम्राट फिरोज़ शाह राज्य करते थे। उक्त प्रशस्ति में उल्लेख है कि मुसलमानगण भी जैनियों के धार्मिक कार्य में सहायता देते थे। प्रशस्ति के आदि और अन्त के कुछ आवश्यक अंश यहाँ उद्धृत किये जाते हैं :-- _ "ॐ नमः श्रीपार्श्वनाथाय। श्रेयः श्रीविपुलाचलामरगिरिस्यः। स्थितिस्वीकृतिः । पनश्रेणिरमाभिरामभुजगाधीशस्करासंस्थितिः॥ पादासीनदिवस्पतिः शुभफलश्रीकीर्तिपुष्पो दामः। श्रीसंघाय ददातु बांछितफलं श्रीपार्श्वकल्पद्रुमः ॥१॥ .. श्रीराजगृहमहातीर्थे । गजेंद्राकारमहापोतप्राकारश्रीविपुलगिरिविपुलचूलापीठे सकलमहीपालचक्रचूलामाणिक्यमरीचिमंजरीपिंजरितचरणसरोजे । सुरत्राणश्रीसाहिपेरोजे महीमनुशासति । तदीयनियोगान्मगधेषु मलिकवयो नाम मंडलेश्वरसमये। तदीयसेवकसहणसदुरदीनसाहाय्येन ...............इति विक्रम संवत् १४१२ आषाढ़ बदि ६ दिने। श्रीखरतरगच्छशृङ्गार. सुगुरुश्रीजिनलब्धिसूरिपट्टालंकारश्रीजिनचंद्रसूरिणामुपदेशेन ।............ठ वच्छराज ठ० देवराज सुश्रावकाभ्यां कारितः......श्रीपार्श्वनाथप्रासादस्य प्रशस्तिः॥"
भावार्थ यह है कि सुलतान फिरोज साह ने मलिक वय को मगध प्रदेश का सूबा अर्थात् शासक नियुक्त किया था। सूबा के कार्यकर्ता शाह नासरुद्दीन की सहायता से मगधदेश
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भास्कर
[ भाग २
स्थित राजगृह तीर्थ के विपुलगिरि पर आचार्य श्रीजिनचन्द्र सूरि के उपदेश से बच्छराज देवराज ने श्रीपार्श्वनाथ का मंदिर सं० १४१२ आषाढ वदी ६ को बनवाया ।
सम्राट अकबर की धामिक उदारता प्रसिद्ध है । जहाँगीर, शाहजहाँ आदि बादशाहों' के समय में भी जैनियों को धामिक विषयों में सहायता मिली थी। उनके पवित्र तीर्थक्षेत्रों के संरक्षण के लिये समय समय पर गुजरात, मालवा, बंगाल आदि प्रान्त के सूबों में लोगों से फरमाण आदि भी प्राप्त किये थे ।
जैनियों में श्वेताम्बर और दिगम्बर दो मुख्य सम्प्रदाय हैं। मैं दिगम्बर- साहित्य से विशेष परिचित नहीं हूँ । श्वेताम्बर - साहित्य के इतिहास को मैंने जहां तक अवलोकन किया है, उससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर आचार्य और विद्वानों ने प्राचीन काल से जैन विद्वानों की कृतियों को निःसंकोच से अपनाया था । उनका अभ्यास करते थे, उन पर पाण्डित्यपूर्ण टीकायें रची हैं, उनके साहित्य को बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे । यही धार्मिक उदारता है ।
जैनियों के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सिद्धसेन दिवाकर,* उमास्वति वाचक* हरिभद्र अभयदेव से लेकर हेमचन्द्राचार्य आदि तथा दिगम्बर सम्प्रदाय में कुंककुंदाचार्य, समंतभद्र, कलंकदेव, प्रभाचंद्र, विद्यानंदि, जिनसेन आदि बड़े बड़े प्रख्यात विद्वान हो गये हैं जिनकी कृतियों की पाश्चात्य विद्वानगण भी भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं। परन्तु सनातन-धर्मालम्बी पण्डित ने उन्हें कहीं अपनाया हो ऐसा देखने में नहीं आता यहां तक कि वे महत्व - पूर्ण जैनग्रन्थों के नामोल्लेख करने में भी हिचकते थे । यह अनुदार भाव उन लोगों की धार्मिक संकीर्णता है। अजैन विद्वानों के नाना विषय के ग्रन्थों को श्वेताम्बर लोगों किस प्रकार अपनाया है इसका कुछ दृष्टांत मैं यहां उपस्थित करूंगा । आशा है कि दिगम्बर विद्वानगण भी इस प्रकार धार्मिक उदारता को प्रकाशित करेंगे ।
हाल ही में अमेरिका के पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के संस्कृताध्यापक डा० नरमैन ब्राउन साहब ने 'कालिकाचार्यकथा'' नामक अङ्गरेजी में पुस्तक प्रकाशित की है, जिसकी भूमिका पृ० ४ में जैनाचार्यों के विषय में इस प्रकार लिखते हैं।
:
"It is perhaps permissible to record here my appreciation not merely of the courtesy and scholarship of Jain monks and laymen
ये तथा आगे के भी दो एक श्राचार्य दिगम्बर-सम्प्रदाय में भी मान्य हैं—–सम्पादक ।
(1) The story of 'Kalaka' by W. Norman Brown, Prof. of Sans. in the university of Pensylvania, Washington U. S. A. 1933, Preface P. IV...
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किरण १ ]
धार्मिक-उदारता
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but also of their lofty ideals and noble lives. They are of the greatness that is India. There is a spirit of helpfulness, tolerence and sacrifice coupled with their intelligence and religious devotion that marks them as one of the world's choice communities."
अर्थात् "जैन साधुओं' और गृहस्थ जनों के शिष्टाचार और विद्वत्ता के साथ साथ उनके ऊ'चे आदर्श और उत्कृष्ट जीवन का यहां उल्लेख कर देना शायद उचित होगा । उनके बड़प्पन से भारत गौरवान्वित है । उन में सहायता, सहनशीलता और त्याग की शक्ति । उनकी बुद्धि और धार्मिक लवलीनता इन सब गुणों के साथ मिलकर इन्हें संसार के आदर्श सम्प्रदायों में से एक प्रमाणित करती है।"
यह देखकर आश्चर्य होता है कि भारत के किन्हीं भी धर्मावलम्बियों में जैनियों की तरह धार्मिक उदारता नहीं पाई जाती है। यदि अजैन विद्वानगण अपने २ साहित्य से ऐसे २ दृष्टांत प्रकाशित कर सकें तो मेरा यह भ्रम दूर हो जाय। अजैन साहित्य के नाना ग्रन्थों पर जैन लोगों ने किस प्रकार टीका, वृत्ति आदि की रचना की है यह निम्नलिखित तालिका से पाठकों को विदित होगा। यहां तक कि हिन्दीग्रन्थ पर भी जैनाचायने कई टोकायें रच डाली हैं ।
जैनविद्वानों ने सिद्धान्त के अतिरिक्त व्याकरण, न्याय, काव्य, कोष, अलंकार, नीति, ज्योतिष आदि नाना विषयों पर अच्छे २ ग्रन्थ रचे हैं। केवल हेमचन्दाचार्य के ही अनेक ग्रन्थ विद्यमान हैं । इनके पूर्व सिद्धर्षि आचार्य ने 'उपमिति भव-प्रपंच- कथा' नामक ग्रन्थ लिखा था जो कि साहित्यिक दृष्टि से बड़े महत्व का है । इस लेख में इन सबों का उल्लेख करना अनावश्यक है । इतना ही लिखना यथेष्ट होगा कि श्रीमहावीर स्वामी के पश्चात् आज लगभग पच्चीस शताब्दी तक जैन लोग धार्मिक उदारता के साथ साहित्य की सेवा बजा रहे हैं। जैनाचार्यगण महत्त्वपूर्ण अजैन ग्रन्थों के नाम लेकर स्वयं अच्छे अच्छे काव्य रचे हैं । ११वीं शताब्दी में श्रीजिनेश्वर सूरिने "जेननेषधीय” नामका एक सुन्दर काव्य की रचना की थी। श्री जयशेखर सूरिने "जैन कुमार-संभव" लिखा है जो उनकी विद्वत्ता प्रकट करती है । " जैनमेघदूत" की रचना भी प्रशंसनीय है । भारतवर्ष के अन्य विद्वानों में कहीं भी इस प्रकार की उदारता का दृष्टान्त नहीं मिलेगा ।
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भास्कर
[ भाग २
व्याकरण कातन्त-सूत्र-१ बर्द्धमान सूरिकृत 'कातंत्र विस्तार' (कलाप) २ सोमकीर्ति सूरिकृत 'कातंत्र पंजिका' वृत्ति
३ जिनप्रभ सूरिकृत 'कातंत्रविभ्रम' वृत्ति ४ चारित्रसिंहकृत 'कातंत्रविभ्रमावचूरि' ५ मेरुतुंगसूरिकृत 'बालावबोध' वृत्ति ६ विजयनन्दनकृत 'कातंत्रता' ७ दुर्गसिंहकृत वृत्ति ८ पृथ्वीचंद्रसूरिकृत 'दौर्गसिंह" वृत्ति
६ मुनिशेखरकृत वृत्ति • १० प्रबोध मूर्तिकृत 'दुर्गपदप्रबोध' वृत्ति ११ मुनिचंदसरिकृत वृत्ति १२ गौतमकृत 'कातंत्रदीपिका'
१३ विजयानंदकृत 'कातंत्रोत्तर' पाणिनि- रामचंद्रर्षिकृत 'धातुपाठ' टीका सिद्धांतचन्द्रिका-सदानंदकृत 'सुबोधिनी' टोका। मुग्धबोध- कुलमंडनकृत 'मुग्धावबोध उक्तिक' काशिकान्यास-जिनेंद्रबुद्धिकृत कविकल्पद्रुम-विजयविमलकृत अवचूरि सारस्वत- १ सहजकीर्तिकृत वृत्ति
२ भानुचंद्रकृत टीका ३ दयारतकृत वृत्ति ४ मेघरनकृत 'दुटिका' वृत्ति ५ यतीशकृत 'सारस्वतदीपिका' वृत्ति ६ चंद्रकीरिकृत वृत्ति ७ नयसुंदरकृत टीका
८ श्रा० मंडनकृत सारस्वत मण्डन टीका ॐ इसी कातन्त्र सूत्र पर दिगम्बराचार्य भावसेन त्रैविग्रदेव कृत भी "कातन्त्ररूपमाला" नाम की एक प्रशस्त वृत्ति है। बल्कि कई विद्वान् कातन्त्रसूत्र के रचबिता शर्ववर्मा को जैन मानते हैं।
(सम्पादक)
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किरण
]
धाम्मिक-उदारता
पाक्यप्रकाश- १ उदयधर्मकृत टीका
२ हर्षकुलकृत टीका
३ रनसरिकृत टीका अनिट् कारिका-१ आमामाणिक्यकृत अवचूरि
२ हकीर्तिकृत वृत्ति शब्दपमेद- शानविमलकृत 'शब्दभेदप्रकाश' वृत्ति (कत्ता महेश्वर कवि)
अलंकार वृत्तरत्नाकर-- १ सोमवन्द्रसूरिकृत टीका
२ हर्हकीर्तिकृत टीका
३ समयदरकृत टीका श्रुतबोध- १ हर्षराजकृत टीका
२ हर्षकीर्तिकृत टीका छन्दः शास्त्र- १ वर्द्धमान सूरिकत टीका
२ श्रीचन्द्र सूरिकृत टीका
३ पद्मप्रभसूरिकृत टीका पगलसार- १ विवेककीतिकृत टीका काव्यालंकार- १ नमिसाधुकृत टोका काव्यप्रकाश- १ यशोविजयकृत टीका
२ माणिक्यचन्द्रकृत 'काव्यप्रकाशसंकेत' गाथासप्तशती-- १ भुवनपालकृत वृत्ति विदग्धमुखमंडन-१ शिवचंद्रकृत टीका
२ जिनप्रभसूरिकृत चूर्णि
काव्य कादम्बरी- १ सूरचन्द्रकृत टोका
२ मदनमंत्रिकृत 'कादम्बरीदर्पण' टीका ३ भानुचन्द्रकृत टीका ( पूर्व खंड)
४ सिद्धिचन्द्र कृत टीका (तर खंड) मट्टी काब-कुमुदानंदकृत “सुबोधिनी" टीका
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भास्कर
[ भाग २
रघुवंश- १ चारित्रवर्द्धनकृत 'शिशुहितैषिणो' टोका
२ धर्ममेरुकृत 'सुबोधिनी' टीका ३ सुमतिविजयकृत 'सुगमान्वया' टीका ४ समुद्रसूरिकृत टीका ५ रत्नचंद्रकृत टोका ६ विजयगणिकृत टीका ७ समयसुन्दरकृत टीका
८ गुणविजयकृत टीका कुमार संभव- १ विजयगणिकृत वृत्ति
२ लक्ष्मीबल्लभकृत टीका ३ चारित्रवर्द्धनकृत 'शिशु हितैषिणो' टीका ४ मुनिमतिरत्नकृत 'अवचूरि'
५ जिनभद्रसूरिकृत 'बालबोधिनी' टोका मेघदूत- १ क्षेमहंसकृत वृत्ति
२ महीमेरुकृत 'बालावबोध' टीका ३ सुमतिविजयकृत 'अवचूरि' ४ मेरुतुंगसूरिकृत वृत्ति ५ महिमसिंहकृत टीका
६ आसड़कृत टीका नेषध- १ जिनराजसूरिकृत टीका
२ श्रीनाथसूरिकृत 'नेषधप्रकाश' टीका
३ चारित्रवर्द्धनकृत टीका किराताज्जुनीय- १ विनयसुंदरकृत वृत्ति
२ धर्मविजयकृत 'दीपिका' टीका शिशुपालवध- १ वल्लभदेवकृत टीका
२ चारित्रवर्द्धनकृत टीका नलोदय- १ मादित्यसूरिकृत टीका वासवदत्ता- १ सिद्धिचंद्रकृत वृत्ति
२ सर्वचंद्रकृत वृत्ति ३ नरसिंहसेनकृत टीका
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किरण
धाम्भिक-उदारता
राघवपांडवीय- १ पद्मनंदीकृत टीका
२ पुष्पदन्तकृत टीका
३ चारित्तवर्द्धनकृत टीका खंडप्रशस्ति- १ गुणविनयकृत 'सुबोधिका' वृत्ति
२ जयसोमगणिकृत टीका
३ विजयगणिकृत टोका कपरमंजरी- १ प्रेमराजकृत लघु टीका
२ राजशेखरकृत टीका
३ धर्मचंद्रकृत वृत्ति भर्तृहरिशतक- १ धनसारसाधुकृत टीका
२ जिनसमुद्रसूरिकृत टीका
३ रूपचन्द्रकृत ट्वार्थ अंमशतक-रूपचन्द्रकृत ट्वार्थ षट् पंचाशिका-७०.महिमोदयकृत 'बालावबोध' टोका जगदाभरणकाव्य-शानप्रमोदकृत टीका घटकपरकान्य वृन्दावन काव्य शांतिसूरिकृत टीका शिवभद्रकाव्य राक्षसकाव्य
नाटक अनघराघव- १ जिनहर्षकृत वृत्ति
२ नरचन्द्रकृत टिप्पण
३ देवप्रभकृत 'रहस्यादर्श' टीका प्रबोधचन्द्रोदय- १ रत्नशेखरकृत वृत्ति
२ जिनहर्षकृत वृत्ति
३. कामदासकृत वृत्ति राघवाभ्युदय- १ रामचन्द्रकृत टीका दमयन्ती-चम्पू- १ प्रबोधमाणिक्यकृत टिप्पन
२ चंडपालकृत टीका नलचम्पू-गुणविजयगणिकृत टीका
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भास्कर
[भाग २
न्याय तर्कभाषा-शुभविजय कृत वार्तिक तर्कफविका-समाकल्याणकृत टीका तर्करहस्यदीपिका-गुणरत-सूरिकृत न्यायाकंदली-१ नरचन्द्रसूरिकृत टीका
२ राजशेखरसूरिकृत पंजिका
३ रनशेखरसूरिकृत टीका न्यायप्रवेश-हरिभद्रसूरिकृत टोका न्यायसार-जयसिंहसूरिकृत टीका न्यायलंकार-अभयतिलककृत वृत्ति न्यायबोधिनी-नेतृसिंहकृत टोका पातांजलयोगदर्शन-यशोविजयकृत टीका योगमोला-गुणाकरकृत लघुवृत्ति
ज्योतिष जातक-हर्षविजयकृत 'जातकदीपिका' वृत्ति लघुजातक-मतिसागरकृत 'बालावबोध' पचनिका ताजिकसार-सुमतिहर्षकृत वृत्ति वसन्तराजशकुन-भानुचन्द्रकृत टीका स्वमसप्ततिका-सर्वदेवसूरिकृत वृत्ति महाविद्या-भुग्नसुन्दरकृत वृत्ति मंत्रशास्त्र-मल्लिषेण-कृत टीका मंत्रराजरहस्य-सिंहतिलकसूरिकृत टोका योनिप्राभृत-हरिषेणकृत टीका योगरत्नाकर-नयशेखरकृत टोका
वैद्यक योगरतमाला-गुणाकरकृत टीका रसचिन्तामणि-अनंतदेवसूरिकृत टीका वैद्यकसारसंग्रह-हर्षकीर्तिकृत टीका
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धार्मिक-उदारता
किरण १ ]
वैद्यकसारोद्धार - हर्षकीर्त्तिकृत टीका वैद्यवल्लभ -- हस्तिरुचिगणिकृत टीका योगचिन्तामणि -हर्षकी र्त्तिकृत टीका
ज्वराष्टक - मल्लदेवकृत टीका सन्निपात कलिका -- हेमनिधानकृत टीका लक्षणसंग्रह -- रत्नशेखर कृत टीका
भाषा
बिहारी सतसई - - समरथकविकृत टीका रसिकप्रिया - कुशलधीर कृत 'रसिकप्रिया - विवरण' पृथ्वीराज बेली – १ कविसारंगकृत संस्कृत टोका
२ कुशलधीरकृत टीका ३ शिवनिधानकृत टीका
४ श्रीसारकृत टीका
५ जयकीर्त्तिकृत टीका
६. राजसोमकृत टीका
४१
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शुद्धाशुद्ध-पत्र
मेरी अनुपस्थिति में ग्रन्थमाला के दो फर्मों का संशोधन एक ही संशोधक के दृष्टिगोचर होने से कुछ अधिक अशुद्धियाँ रह गयी हैं, उनका शुद्ध रूप नीचे दिया जाता है ।
प्रशस्ति-संग्रह
( के० बी० शास्त्री)
पृष्ठ
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अशुद्ध रूप प्रभेन्दुरचिता (?) लघुवृत्ति
युक्तिस्व
प्रारीत्सुः
स्मृतश्चेति
एतद्विका
जैन इतिहाषान्वेषी
इसका
अघाति
अंधाख्यमुनिकेवलाः पराजितमहातपाः
विशुद्वयस्तान्
सृष्टि:
कालविषोपम्
मिवागच्छ
तयनतेजसा
ज्योत्स्ना:
जिनचन्द्रजा:
वर्धयन्ति
सम्यक्
कफगंद
योगानुयान
क्रमातू
समाछाद्य
दिवारावि
सुद्ध
format
कोलुक
मालकांनी
वैद्यसार
यष्ट्यमिधामेला ? पिटकाविणान्
भस्म बन पर जाने पर
औषाध
शुद्ध रूप
प्रभेन्दुरचितालघुवृत्ति क्
प्रारिसुः स्मृतिश्चेति एतद्विकाम् जैन इतिहासान्वेषी
इसकी अघात्यराति जम्बूख्यमुनिकेवलाः sपराजितमहातपाः विशुद्ध्या तान्
Willko
काल विषोपमम्
मित्रागच्छ तपनतेजसा
जिनचन्द्रजा
सम्बग्
कफगर्द
योगानुपा
क्रमात् समाच्छाद्य
दिवाराल शुद्ध forest कोलकं मालकांगनी rer मधाला
पिटिकादिवान्
भस्म बन जाने पर
औषधि
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भास्कर
स्याद्वादामृतपाथोधिमन्थने मन्दराचलः । पण्डिताचार्य उदितो भवनाब्जविकाशकः ।।
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प्रशस्ति-संग्रह
(सम्पादक-के भुजबली शास्त्री)
(१) ग्रन्थ नं० १६६
न्याय-मणिदीपिका (कागज पर नागराक्षर में)
रचयिता
विषय-न्याय
भाषा-संस्कृत चौडाई-७ इंच
लम्बाई-३ इंच
पत्रसंख्या--१६४
मंगलाचरण श्रीवर्धमानमकलङ्कमनन्तवीर्यमाणिक्यनन्दियतिभाषितशास्त्रवृत्तिम् । भक्त्या प्रभेन्दुरचिता(?)लघुवृत्तिदृष्टया नत्वा यथाविधि वृणोमि लघुप्रपञ्चम् ॥ ॥
मदानमरुन्नीतं मलमत्र यदि स्थितम् ।
तनिष्काभ्यार्मिवत्सन्तः प्रवर्तन्तामिहाधिवत् ॥२॥ इह हि खलु सकलकलङ्कविकलकेवलावलोकनविमललोचनावलोकितलोकालोकपरमगुरुवीरजिनेष्वररुविरमुखसरसीरुहसमुत्पन्नसरस्वतीसरसानवरतस्मरणावलोकनसल्लापदत्त. चित्तवृत्तिः। र लराजाधिराजपरमेश्वरस्य हिमशीतलस्य महाराजस्य महास्थानमध्ये निष्ठुरकष्टवादसौष्ठवदुष्टसौगतान् चटुलघटवादादिपटिष्ठतया तारादेवताधिष्ठितदुर्घटघटवादविजयेन राज्ञा सभ्यैः सभासद्भिश्च परिप्राप्तजयप्रशस्तिः सकलतार्किकचूडामणिमरीचिमेचकितरुचिररुविचकवकायमानचरणनखरो भगवान् भट्टाकलङ्कदेवो विश्वविद्वन्मण्डलहृदयाहादियुक्तिशस्त्रेण जगत्सद्धर्मप्रभावमबूबुधत्तमाम्। तदनु बालाननुजिघृक्षुरक्षयगुणोऽक्षुण्णमोक्षलक्ष्मीकटाक्षविक्षेपनिदानपरीक्षादक्षो गुणमणिवृन्देन भव्यवृन्दमानन्दयन्माणिक्यनन्दिमुनिवृन्दारकस्तत्प्रकाशितशास्त्रमहादधेरुद्धृत्य तवगाहनाय पोतोपमं परीक्षामुखनामधेयमन्वर्थमुव्हलपकरणमारषयन्मुदा तदनु तत्प्रकरणस्य विशिष्टतमोऽतिस्पष्टं मृष्टगीः प्रभागन्द्रभट्टारकर प्रमेयकमलमार्तण्डनामवृहद्वृत्ति चरीकरीतिस्म। सद्वृत्तिनन्याय
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भास्कर
मार्तण्डमण्डलायितत्वेन सकलविद्वञ्चित्तप्रकाशकत्वेऽपि बालान्तःकरणगुहाभ्यन्तरप्रकाशनसामर्थ्याभावमाकलय्य तत्प्रकाशनाय दीपिकायितां सकललोकालङ्कारयोग्यत्वतो रत्नायितप्रमेयेरारचितत्वेन प्रमेयरत्नमालेत्यन्वर्थनामोद्वहन्ती स्वालोकनप्रवृत्तिमतां पुंसां कोड़े कृतघटपदादिवस्तुप्रतिविम्बितरत्नकण्ठिकायितत्वेन वा स्वाभिधेयानि प्रमेयाणि प्रकाशयन्ती लघ्वी वृत्तिं लध्वनन्तवीर्याचार्यवर्यो भव्यानुग्रहकार्यसौकर्यसूक्तिसौकुमार्यो गुणगाम्भीर्यशाली वैजेयप्रियसूनुना हीरपाख्यवैश्योत्तमेन बदरीपालवंशद्य मणिना शान्तिषेणाध्यापनाभिलाषिणा प्रेरितः सन् प्रारीप्सुः तदादौ चिकीर्षितवृत्तेरविघ्नतः परिसमाप्तयर्थ शिष्टाचारपरिपालनार्थ पुण्यावाप्त्यर्थश्च विशिष्टेष्टदेवतामभिष्टौति । मध्य-भाग (पूर्व पृष्ठ ६४, १म पंक्ति से):
इत्यभिधानादिति प्रकाश्य प्रकारान्तरेण तदुतानायोग दर्शयितुं तावदभावप्रमाणप्रतिपादककारिकामाह, “गृहीत्वेति" वस्तुसद्भावं गृहीत्वेत्यादि सामग्रयो सर्वज्ञाभावग्राहकमभावप्रमाणमसर्वज्ञस्य नादेति इत्याह । तथाचेत्यपरथा प्रतिनियतकालप्रतिनियतक्षेत्रलक्षणवस्तुसद्भावग्रहणेऽन्यत्नान्यदा गृहोतसर्वज्ञस्मृतश्चेतिरीत्यसर्वशनास्तिताज्ञानमभावप्रमाणं न युक्तमन्यनान्यदा गृहीतसर्वसत्वप्रसङ्गात्। अन्तिम पद्य :
अकलङ्करत्ननन्दिप्रभेन्दुसदनन्तगुणिभक्त्या । एतद्विकां बालो निरूढवारि ने (?) ष किल गुरुभक्त्या ॥ स्याद्वादनीतिकान्तामुखलोकनमुख्यसौख्यमिच्छन्तः।
न्यायमणिदीपिकां हृद्वासागारे प्रवर्तयन्तु बुधाः॥ इति परीक्षामुखलघुवृत्तेः प्रमेयरत्नमालानामधेयप्रसिद्धाया न्यायमणिदीपिकासंज्ञायां टीकायां षष्ठः परिच्छेदः । शास्त्र के प्रतिलिपि कती के नामादि
श्रीमत्स्वर्गीयबाबूदेवकुमारस्यात्मजदानवीरबाबूनिर्मल कुमारस्यादेशमादाय आगराप्रान्तगतसकरौलीनिवासिनः रेवतीलालस्यात्मजराज कुमारविद्यार्थिना लिखितमिंद शास्त्रम् । .
इदं लक्ष्मणभट्टेन विलिखितं प्रथमं शास्त्रं लक्षीकृत्य लिखितम् । संशोधयितव्या विद्वज्जनैः। प्रतिलिपिकाल-सं० १९८० श्रावण-शुक्ल-त्रयोदशी ।
इसमें ग्रन्थकर्ता के नाम का उल्लेख नहीं है। किन्तु मित्रवर पं० सुजय्य शास्त्री जी का कथन है कि ताड़पत्र की किसी प्रति में इस न्यायमणिदीपिका के रचयिता अजितसेना
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प्रशस्ति-संग्रह
चार्य स्पष्ट लिखा हुआ है। बल्कि पं० सुबय्य जी का यह कथन-Catalogue of Sanskrit and Prakrita Manuscripts in the Central Provinces and Berar by R. B. Hira Lal B. A. Appendix (B.) से भी प्रमाणित हो जाता है, फिर भी जैनइतिहावान्वेषी इस ओर विशेष ध्यान देंगे। जैन सिद्धान्त-भवन की इस प्रति के अत्यन्त अशुद्ध होने के कारण इसके साहित्यिक विवेचन पर विशेष प्रकाश नहीं डाला जा सकता। तो भी यह कहना ही पड़ेगा कि इसका संस्कृत सरल एवं प्रशस्त है।
की एक दूसरी प्रति भी 'भवन' में है जिसकी वर्तमान ग्रन्थ प्रतिलिपिमात्र है। वस्तुतः दोनों प्रतियां अशुद्ध हैं। पहली प्रति की नकल कन्नडप्रति से उल्लिखित मूडविदिनिवासी बामन भट्ट के पुत्र लक्ष्मण भट्ट ने की है।
(२) ग्रन्थ नं. १६४ . चन्द्रप्रभचरित-व्याख्यानम् (का० ना०)
_ अपर नाम-विद्वन्मनोवल्लभ
रचयिता
विषय-काव्य भाषा-संस्कृत चौडाई-८॥ इञ्च
लम्बाई-१३॥ इञ्च
पत्रसंख्या-३०६
मङ्गलाचरण बन्देऽहं सहजानन्दकन्दलीकन्दबन्धुरम् । चन्द्राङ्क चन्द्रसंकाशं चन्द्रनाथं स्मराम्यहम् ॥१॥ चन्द्रप्रभारंधीरस्य काव्यं व्याख्यायते मया ।
विश्वमन्वयरूपेण स्पष्टसंस्कृतभाषया ॥२॥ मध्य-भाग-(पूर्व पृष्ठ ६६, श्लोकटीका १२)
गुरुवंशमिति। अथ प्रस्थानानन्तरे। गजेन्द्रगामी गजेन्द्र इव गच्छतीत्येवं शीलः मन्दगामीत्यर्थः। स कुमारः। गुरुवंशम् गुरवः महान्तः वंशाः वेणवः यस्मिन् तं पक्षे गुरुर्महान्
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४
भास्कर
वंशः कुलं यस्य तम् । अप्रमाणसत्वम् अप्रमाणाः प्रमाणरहिताः सत्वाः प्राणिनः यस्मिन् तं पक्षे बहुलसामर्थ्यम्। अत्युन्नतशालिनीम् अत्युन्नत्या शालिनीम् । सम्पूर्णस्थितिं व्यवस्थिति प मर्यादां । दधानं धरन्तं । रुचिराकृतिं रुचिरा प्राकृतिर्यस्य तं । एकं । स्वसमानं स्वस्य समानं । नगं पर्वतं । आलुलोके ददर्श लोकृञ् दर्शने लिट् । श्लेषोपमा ।
समातिसूचक अन्तिम पंक्ति :
इति वीरनन्दिकृतावुद्याङ्क चन्द्रप्रभचरिते महाकाव्ये तद्व्याख्याने चं विद्वन्मनोवल्लभाख्ये अष्टादशः सर्गः समाप्तः ।
चन्द्रप्रभचरित काव्य की भोतक दो टीकायें उपलब्ध हैं। एक चारुकीर्तिकृत और दूसरी प्रभाचन्द्र भट्टारककृत । प्रभाचन्द्र भट्टारक का समय वि० सं० १३१६ है और arentर्त्ति का समय शकाब्द १३२१ के बाद का ज्ञात होता है। चारुकीर्त्तिजी का यह समय तभी सम्भवपरक कहा जा सकता है, जबकि यही पार्श्वाभ्युदय के भी टीकाकार हों । चारुकीर्त्तिकृत चन्द्रप्रभकाव्य की टोका की श्लोकसंख्या छः हजार मानी गयी है । भवन की इस प्रति में भी लगभग छः हजार श्लोकसंख्या अनुमित होती है। सकता है कि यह चारुकीति जी की ही टीका है।
अतः यह कहा जा
ज्ञात होता है कि टीकाकार ने इस टीका में व्याकरण, अलङ्कार एवं केाषादि की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया है ।
पार्श्वाभ्युदय के टीकाकार चारुकीर्त्ति जी की निम्नलिखित कृतियों का पता लगता है:
(१) चन्द्र प्रभ काव्य की टीका । श्लोक संख्या - ६०००
(२) भादिपुराण
३०००
(३) यशोधरचरित
(४) नेमिनिर्वाणकाव्यटीका
(५) पार्श्वाभ्युदयकाव्यटीका
(६) गीतवीतराग
000
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(३) ग्रन्थ नं० १९८
लम्बाई – ११ इञ्च
प्रशस्ति-संग्रह
हनुमच्चरित्रम् (का० ना०)
कर्त्ता - ब्रह्माजित
विषय - चरित्र (प्रथमानुयोग)
भाषा-संस्कृत
चौडाई- -७ इञ्च
मङ्गलाचरण
सोधसिन्धुचन्द्राय सुव्रताय जिनेशिने । सुवताय नमो नित्यं धर्मशब्दार्थसिद्धये ॥१॥ वृषभाय जिनेन्द्राय वृषाय परमेष्ठिने । नित्यं स्वाम्यप्रकाशाय नमस्त्राता (?) सुतायिने ॥२॥ नमः श्रीचन्द्रनाथाय सर्वज्ञाय शिवाप्तये । अमन्दशर्मकन्दाय कन्दाय परमात्मने ॥३॥ शान्तिं कुर्यादनेकान्तबुद्धि सिद्ध्यर्थदायिनीम् । असाततीरजलधिमन्थने मन्दराचलः ||४|| श्रीमते बर्द्धमानाय नमः श्रेयाविधायिने । श्रधात्यायतिघाताय मुक्तिमार्गप्रदायिने ॥५॥ दुर्कीशपारसंसारपारावारैकतारकान् । प्रणौमि परितो नित्यमपरान् जिननायकान् ॥६॥ सार्द्धद्वयमिते द्वीपे सर्वान्तक विवज्जिते । सीमन्धरादिदेवानां पादपद्मान् प्रणौम्यहम् ॥७॥ वर्त्तन्ते भाविनोऽतीता विबुधालिप्रपूजिताः । - नौमि सर्वान् जिनान् जैनमतसिन्धुविधून सदा ॥८॥ आचाराङ्गादिभेदेन पूर्वान्तश्च प्रकीर्णकान् । निर्गतां जिनसद्वात् सारदां नौमि शारदाम् ॥६॥ यस्याः प्रसादतः सर्वो वितीर्य श्रुतसागरम् ।
पत्र सं ० - ६७
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भास्कर
परमाप्नोति भावानां तां प्रणौमि जिनास्यजाम् ॥१०॥ त्रिहीननवकोटीनां मुनीनां पादपङ्कजान् । स्मरामि स्मरजेतृणां त्रातॄणां भववारिधेः॥१९॥ नमामि वृषसेनादिगौतमान्तान् गणेश्वरान् । साीश्चतुर्दशशतान् त्र्यधिकान् श्रीसुखप्रदान् ॥१२॥ गौतमः श्रीसुधर्मा च जंघाख्यमुनि केवलाः, (१)। त्रयः केवलिनः पूज्या नो नित्यं सन्तु सिद्धये ॥१३॥ श्रीविष्णुनन्दिमित्राख्यो पराजितमहातपाः। गोवर्द्धना भद्रबाहुः पञ्चैतान् श्रुतसागरान् ॥१४॥ . द्वादशांगश्रुताभ्यासनीरेण क्षालितं न कान् । प्रणौम्यहं त्रिशुद्ध्यस्तान् पञ्चपाण्डित्यहेतवे ॥१५॥ सृष्टिः समयसारस्य कर्ता सूरिपदेश्वरः। श्रीमच्छीकुन्दकुन्दाख्यस्तनोतु मतिमेदुराम् ॥१६॥ पुराणपद्धतिर्यस्य हृदये प्रस्फुटं गता। प्रणौमि जिनसेनस्य चरणौ शरणं सताम् ॥१७॥ जीयात्समन्तभद्रोऽसौ भव्यकैरवचन्द्रमाः। दुर्वादिवादकण्डूनां शमनैकमहौषधिः ॥१८॥ अकलङ्कगुरु यादकलंकपदेश्वरः। बौद्धानां बुद्धिवैधव्यदीक्षागुरुरुदाहृतः ॥१६॥ शुद्धसिद्धान्तपायोधिपारीणः परमेश्वरः। नेमिचन्द्रश्चिदानन्दपदवीमुख्यतां गतः ॥२०॥ प्रभा गुणवती यस्य प्रभाचन्द्रस्य सूरिणः । सोऽस्तु मे बुद्धिसिद्धयर्थ कारुण्यादिरसालयः ॥२१॥ पञ्चाचाररता येऽन्ये सूरयः संस्तुताः सुरैः। ते मे दिशन्तु सन्मेधां पद्मनन्दीश्वरादयः ॥२२॥ मङ्गलादिप्रसिद्धयर्थ मया भावेन संस्तुताः।
श्रीहनुमत्कुमारस्य कथायाः सिद्धये पुनः ॥२३॥ मध्य-माग (पृष्ठ ३१, श्लोक १६)
इत्युक्तं केनचित्तावत्कुमाराय जितद्विषे। अंजनाप्रभवं वृत्तं सर्व कालविषोपम् ॥१६॥
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प्रशस्ति :
प्रशस्ति-संग्रह
महेन्द्रपुरभेदने ।
मित्रागच्छ वयं यामो अंजना मे स्थिता तत्र चित्तचे|रणतस्करी ॥१७॥ स्वमित्रेण समं वायुरचलत् श्वासुरं पुरम् । स्वात्मीयं गजमारुह्य वञ्चितः स्वजनैस्तदा ॥ १८॥ संप्राप्तो नगरीवाह्य हर्षसंभृतमानसः । प्रियाङ्कमिव संप्राप्तो दृष्ट्वा पुरवरं तदा ॥१६॥ प्रभञ्जनकुमारस्यागमनं श्रुत्वा महीपतिः । पुष्टङ्गारमकरोत् वैजयन्त्यादितोरणैः ॥२०॥
कलाधरः
जैनेन्द्रशासन सुधारसपान पुष्टो देवेन्द्रकीर्त्तियतिनायक ने ष्ठिकात्मा । . तच्छिष्यसंयमधरेण चरित्रमेतत् सृष्टं समीरणसुतस्य महर्द्धिकस्य ॥ ११ ॥ विशदशीलस्वर्धुनीशिलातलैकराजहंससेोत्सवाय क्रीडनप्रियः स्वमतसिन्धुवर्द्धने प्रकृष्टया मिनीतयनतेजसाद्भुतप्रभामितः । सुरेन्द्रकीर्त्तिविद्ययादिनन्द्यनंगमर्दनैकपण्डितः तदीयदेशानामवाप्य शुद्धबोधमाश्रितो जितेन्द्रियस्य भक्तितः ॥ ६२ ॥ गोला गारवंशे नभसि दिन मणिर्वीरसिंहेो विपश्चित् भार्या बीधा प्रतीतातनुरुहविदितो ब्रह्मदीक्षाश्रिताऽभूद् । तेनाच्चैरेष ग्रन्थः कृत इति सुतरां शैलराजस्य सूरे: श्रीविद्यानन्दिदेशात् सुकृतविधिवशात्सर्वसिद्धिप्रसिद्ध ॥१३॥ इदं श्रीशैलराजस्य चरितं दुरितापहम् ।
रवितं भृगुकच्छे च श्रीनेमिजिनमन्दिरे ||१४|| धर्मार्थी लभते वृषं धनयुतो वृद्धिश्च निःस्वो धनम् पुत्रार्थी स्वकुलेोचितं च तनयं कामांश्च कामी लभेत् (?) मोक्षार्थी वरमोत्तमाशु लभते प्रोक्तेन सान्द्रेण किम् ह्येतत् शैलमुनीन्द्रराजचरितं सर्वार्थसिद्धिप्रदम् ॥१५॥ पठिता पाठकश्चैव वक्ता श्रोता च भावुकः । चिरं नन्द्यादयं ग्रन्थस्तेन सार्द्ध युगावधिः ॥६६॥ प्रमाणमस्य ग्रन्थस्य द्विसहस्रमितं बुधैः । श्लोकानामिह मन्तव्यं हनुमच्चरिते शुभे ॥६७॥
इतिश्रीहनुमच्चरित्रे ब्रह्मा जितविरचिते एकादशः सर्गः
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.
भास्कर
__इसके लिपिकर्ता काशीनिवासी बटुक प्रसाद नाम के एक कायस्थ हैं। लिपिकाल सं० १९७८ है।
इस प्रति के अतिरिक्त भी “भवन” में एक अत्यन्त प्राचीन प्रति नम्बर वाली है। खेद के साथ यह कहना पड़ता है कि ये दोनों प्रतियां अशुद्धियों से भरी हुई हैं। बल्कि इसी प्राचीन प्रति से प्रस्तुत प्रति उतारी गयी है।
इसकी प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके कर्ता अजित ब्रह्मचारी देवेन्द्रकीति जी के शिष्य थे। इनके पिता का नाम वीरसिंह और माता का बीधा था। इनके वंश का नाम गोलङ्गार है। विद्यानन्दजी की आज्ञानुसार ही इन्होंने भृगुकच्छ (भरोच) नगर में इस प्रन्थ का प्रणयन किया है। प्रन्थ-रचनाकाल प्रशस्ति में नहीं दिया गया। पं० जुगलकिशोर जी की राय है कि यह अजित ब्रह्मचारी १६वीं शताब्दी में हुए हैं।
(४) अन्य नं. २
विद्यानुवादांग (जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय) कर्ता
(का मा०) विषय-प्रतिष्ठापाठ
भाषा-संस्कृत लम्बाई-१४ इंच
चौडाई ५॥ इंच
मंगलाचरण लक्ष्मी दिशतु वो यस्य ज्ञानादर्श जगत्रयम्। . व्यदीपि स जिनः श्रीमान्नाभेया नौरिवाम्बुधौ ॥१॥ माङ्गल्यमुत्तमं जीयाच्छरण्यं यद्रजोहरम् । निरहस्यमरिनं तत्पश्चब्रह्मात्मकं महः ॥२॥ दोषसन्तापशमनीर्वाग्ज्योत्स्नाः जिनचन्द्रजाः।। वर्धयन्ति श्रुताम्भोधि स्वान्तं ध्वान्तं धुनोतु नः ॥३॥ मोक्षलक्ष्म्या कृतं कण्ठहारनायकरत्नताम् ।। रनवयं नमः सम्यक् हरज्ञानाचारलक्षणम् ।
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प्रतिमा-लेख-संग्रह
( संग्राहक-बाकामता प्रसाद जी जैन )
श्री दि० जैन -पंचायती (बडा) मन्दिर मैनपुरी (गंज)
1 ऋषभदेव-चिह्न बैल-कृष्ण पाषाण-२८ अं० उचाई–लेख-"मितो माघ वदी : सम्वत्
१९३५ माथे। मैनपुरी मुहकमगंज के।" २ ऋषभदेव-चिह्न बैल-धातु-१४ अं०-प्रासन में शासनदेवता गोमुखाकार गोमुख और
चक्रेश्वरी तथा २ सिंह हैं-लेख-"सम्वत् १५४५ घर्षे वैशाख सुदि १० चन्द्रदिने - श्रीमूलसंधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्रीजिनचन्द्र
देवाः वाहिया-कुलोद्भव साहु लखे भार्या कुसुमा तयो पुत्र साहु मल्लू तस्य भार्या उदयश्री तयो पुत्र चन्द्र ज्येष्ठ, सा० लहण तत्कनिष्ट सा. छोटे तत्कनिष्ठ सा. वीर सिंह तस्कनिष्ठ सा. अर्जुन तस्कनिष्ठ सा० प्रभू तत्कनिष्ठ सा० पल्टू तस्कनिष्ट सा० वल्दू
तेषां मध्ये सा० अर्जुन तस्य भार्या मता तेन अर्जुनेनेदं श्रादीश्वरविंबं रच पूजनार्थ
___ कराषितां।" ३ ऋषभदेव-चिह्न बैल --मूलवर्ण पाषाण-३१ अं०-"मितो माघ वदी १ सम्वत् १९३१ मध्ये
___ मैनपुरी मुहकमगंल के सकल पंचन के।" समवशरण में विराजमान :४ शान्तिनाथ-चि० हिरण-सामान्य पाषाण-प्रासपास यक्षयक्षिणी मध्य में भामण्डल छत्रोपेत
. लिङ्गलेखादिरहित-१२ अं०-यह मूर्ति प्राचीन है। ५ पार्श्वनाथ - सर्प-श्वेत पा०-१० अं0-"स० १४१६ पटेर मध्ये भ० विश्वसेनप्रतिष्ठापितं ।" ६ चन्द्रप्रभु-धूसरवर्ण पा.-११ अंo-"सम्बत् १६१० मिती माघ सुदी १४ शनि काष्टासंघे
लोहाचार्यान्नाये भ० राजेन्द्रकीर्ति देवास्तदाम्नाये अनोत्कान्वये वातिलगोत्र साधु श्रीसाखीलाल तत्पुत्र मुनिसुव्रतदासेन सकल भ्रातृवर्ग तस्सिन्ट्यर्थ श्रीजिनबिंब
प्रतिष्ठाकारापित *इस संग्रह में उन प्रतिमाओं का विवरण दिया जाता है जिनमें लिंग-चिह्न प्रकट नहीं है और जो दिगराम्नाय के जैन-मन्दिरों में विराजमान हैं।
मौलिकता लुप्त हो जाने के खयाल से इस प्रतिमा-लेख संग्रह के लेखों की भयंकर अशुद्धियां ज्यों की त्यों छोड दी गयी हैं। सम्पादक
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भास्कर
भाग २ ]
७ सुपार्श्वनाथ-श्वेतः-१३ अं०-" सम्वत् १९५२ मिती माघ सुदी ५ काष्टासंघे भ० मुनींद्र
कीर्ति तदानाये छेदीलाल बकरस-मैन-" ८ पार्श्वनाथ-धातु-११ अंo-चक्षयक्षिणी-सहित-कमलासन - "सम्वत् १३४६ चैत्र
(पंचपरमेष्ठो) सुदी १३ मूलसंघे श्री मालवंश साधु विहु ॐ राज्ये प्रतापचन्द्रदह
___ उपसंघा।" ६ पार्श्वनाथ-धातु-१० अं0-"सं० १५२८ वर्षे बैशाष सुदी ७ श्रीमूलसंधे भ० श्रीजिनचन्द्र
तत्प? श्री सिंहकीर्ति देव महिवबंश-साधु ह्य भार्या वैसा पुत्र प्रगन्धा भार्या रेना
पुत्र जैसी भा० तावसो पुत्र गणसेन......... इत्वादि" १० चन्द्रप्रभु संघ-सहित-धातु-११ अं०-"सम्वत् १४११ वैसाख सुदी १३ श्रीमूलसंघे सा०
नरवर सिंह नगरकोटेल गोत्रा।" ११ श्रादिनाथ समूह,छत्र, भामण्डल, यक्षयक्षिणी-सहित-१४ अं०-धातु-"सम्बत् ११२१ वर्षे
माघ सुदी १५ गोलरडे एडरजू पुत्रदेव साधु जू माथेमा ।" १२ पार्यमाथ-धातु-८ अंo-"सम्वत् ११३३ ... मझिले साहु ... णीसकला ...।" . १३ अजितनाथ-श्वेत-१० अं0-"सम्वत् १६८८ फाल्गुण शुक्ला ८ शनी श्रीमूलसंधे बलात्कारगणे
सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये भ० जगद्भूषण तदानाचे सा० जगदू तस्य सेवास
पुत्र...... " १४ शांतिनाथ पंचपरमेष्ठी-खाकी पा०-२४ अं०-भामण्डल, छत्र बक्षयक्षिणी-सहित, "सम्वत्
१०१५ वर्षे माघ सुदी १ मूलसंघे...... ।" १५ चन्द्रप्रभु-समूह-सहित-धातु-१० अं-"सम्वत् १२०८ सा. कुंवरपाल पनी सुधनी नित्यं
___ प्रणमति ।" १६ पार्श्वनाथ-धातु-६ अं0-सम्बत् १४१५ माघ सुदी ११ रेतक जी साहु जू" १७ नेमिनाथ-कृष्ण पा०-५ अं०-"सम्वत् १८१५ प्रतिष्ठोषां।" । १८ पार्श्वनाथ मन्दिर-सहित-धातु-३ अं०-"सम्बत् १७११ वर्षे माघ सुदी ५ श्री मबसंधे
भट्टारक श्रीनन्ददेव ।" १६ पार्श्वनाथ मन्दिर-सहित-धातु-३ अं०-"सम्वत् १६८८ वर्षे फाल्गुण सुदो ८ श्रीमूलसंधे
बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंद० भ० श्रीजगद्भूषणदेवास्तशिष्ये वृह्म माधव
कर्मक्षयार्थ नित्यं प्रणमति ।" २० पार्श्वनाथ स्फटिक-१॥ अं०-लेखरहित । २१ पार्श्वनाथ-कृष्ण पा०-६ अं0-"माघ वदी ६सं० १९२५माथे मैनपुरी के सकल पंचन के।" २२ पार्श्वनाथ- धातु-२१ अं०-"श्री सम्वत् १९५५ माघ सुदी १२ शुद्धान्नाव प्रतिष्ठितम्
महापुरुष।"
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किरण १]
प्रतिमा-लेख-संग्रह
२३ पार्श्वनाथ-धातु-७ अं.-"सम्बत १४३६ श्रीमूलसंघेन श्रीप्रभाचन्द्र तच्छिष्य मंडलाचार्य
• श्रीधर्मचन्द्रस्तदाम्नाय खंडेलबाल तरान्वये. पाटणी गोत्र सा० टीकम भा० निहुरणा
सरितस्तत्र प्रणमंति।" २४ चंद्रप्रभु-७ अंगुल-धातु-"सं० १६५७ वैसाख बदी २ बनारसीदास प्रतिष्ठितं भोगांव
मुवासीलाल की नौजे।" . २५ महावीर-धातु-६०-"सं० १५३७ वर्षे बैसाख सुदि १४ रविवासरे श्रीमूलसंधे जैसार
सा० जैसिंह भार्या सामा पुत्र माधव कर्मक्षयार्थ निर्मितं ।" . २६ चन्द्रप्रभु-धातु-४ अं०-"सं० १९५५ प्रतिष्ठितम् गुणलाल अजमेर ।” २७ पार्श्वनाथ-धातु-५ अं०-"सं० १४७१ लमेच सीललालेन पुत्र नित्यं प्रणमंति ।" २८ पार्श्वनाथ-४ अं०-धातु-लेखरहित । २६ पार्श्वनाथ-४ अं०-धातु-"सं० १५२४ प्रतिष्ठितं ।" ३० अर्हत-धातु-३॥ अं०-लेख व चिह्नरहित । ३१ पार्श्वनाथ-धातु-३ अं०-"सं० १५०६...... । ३२ अर्हत-धातु-"सं० १९५५ ।" ३३ ,, , लेखरहित । ३४ पार्श्वनाथ-धातु--३॥ अं.-"स. १५४८". ३५ पार्श्वनाथ - धातु-३॥ अं०-लेखरहित । ३६ श्रादिनाथ-मटीला पा०-१० अं०-लेख मिट गया है। पढ़ने में नहीं पाता। प्राचीन मूर्ति
है जटादार बाल हैं। ३७ पार्श्वनाथ- धातु-३ अं० "पं० शोभाराम ।' ३८ पार्श्वनाथ-प्रातु-३ अं० – “सं ११२१" ३६ पार्श्वनाथ-धातु-२ अं०-लेख नहीं । ४० पार्श्वनाय-धातु-३ अं०-“श्रीमूनसंघे सं० १४५." ४१ प्रादिनाथ-श्वेत ०-६५ अं०-"श्री संवत् १६५२ मिती माव सुदी ५ काष्ठासंघ दिल्ली
सिंहासनाधीश भ० श्री प्रकीर्तिदेवास्तदाम्नाये अग्रवाल बाबू छेदीलाल जी विश्नुचंद्र जो नरोत्तम दास जी प्रतिष्ठा करायितां कटेश्वर म्यां" ।
नोट-जिनके साथ खड्गासन लिखा है उन वियों को छोड़कर शेष पद्मासन हैं ।
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भास्कर
भाग २]
श्री दि० जैन-मन्दिर कटरा मैनपुरी में कुल १४० मूर्तियां हैं, जिन में नीचे की
प्रतिमाओं में लिंग-चिह्न नहीं है।
१ पार्श्वनाथ-धातु-६ अं०-"सं० १११० ... ..." १ पार्श्वनाथ- धातु-६ अं०-"सं० १५४८ वर्षे वै० सु०५७ ३ पाईनाथ-, , "सं० १४५४ ... देव की......" ४ पार्श्वनाथ-,-८ अं०-"सं० १५३३ ... ... ... " ५ अहंत तीन खड्डासन-धातु-५ अं०-"सं० १६५७ वै० ..." ६ पार्श्वनाथ-धातु-५ अं०-"सं० १६८८ वर्षे फाल्गुण सुदि ८ श्रीमहारक विजन सतित साछी
__तरतमव (?)" ७ पार्श्वनाथ-धातु - ४ अं०-लेखरहित । ८ पार्श्वनाथ-धातु-६ अं०-"सं० १३३५ वैसाख सुदि ५ सा लेषंमलस्तस्पुत्र भनन सहद है...' ६ महावीर समवशरण-धातु-१० अं०-"सं० १५२६ वर्षे वैसाख सुदि २ बुधे मूलसंघे भ० सिंह
कीर्ति देवा। सा सहरदा पुत्र मोदिक लल्लू दिगम्बर मूर्ति जू सदा
-सहाई विलली।" १० महावीर समूह-सहित-धातु-१० अं०-लेख पूर्ववत् । ११ महावीर समूह---भामंडल-छत्र-यक्षादि-सहित-श्वेतपाषाण-१८ अं०-"विजपाल
नागपाल" १२ अर्हत्-११ अं०-हरितकृष्ण पा०- लेखरहित । १३ अर्हत्-५ अं०-कृष्ण पा०-लेखरहित । १४ मुनिसुव्रतनाथ-लाल-काला पा०-"सं० १५०८ वैशाष वदि ८ ... वैशाष वदि अष्टमी
परतीष्ट सधामि उपधारी......"(१) १५ पार्श्वनाथ-स्फटिक-५ अं०-- लेखरहित । १६ अर्हत्वाकी पा० -५ अं०-लेखरहित । १७ पार्श्वनाथ-धातु-६ अं0-“सं० १५४१ मूलंसंघे इत्यादि " १८ पार्श्वनाथ-धातु-८ अं०-"सं० १५३० माघ सुदि ११ भ० देवचन्द्र सा० तेऊ पुत्र भोजादेव
प्रतिष्ठापितं ।" १६ महावीर-धातु-७ अं०-"सं० १८०२ ... ...
. २० अरहनाथ समूह-धातु-६ अंo-"सं० १५४५ वैसाष सुदि ७ श्री काष्ठासंघे भ० कमल.
कीर्ति साहसुरू ... पुत्र वोधा ..."
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किरण १ ]
प्रतिमा - लेख -संग्रह
२१ महावीर समवशरण - धातु — १४ ० - " सं० १५३७ वर्ष चैसाथ सुदि १० गुरौ श्रीमूलसंघे भ० जिनचन्द्रान्नाये मंडलाचार्य विद्यानन्दी तदुपदेशं गोलारारान्वये पिबू पुत्र.........।”
२२ महावीर समूह - धातु - १४० - सं: १५१० वर्षे माघ सुदि ८ सोमे काष्ठासंघे भट्टारक कमलकीर्ति देव कान्वये गगंगोत्री ता० रन भा० देन्हो पुत्र सहय भा० वारु पुत्र मचन्द्र प्रणमन्ति ।
२३ सुमतिनाथ समूह - धातु - ११ ० " सं० १५५१ वर्ष वैसाप सुदि १३ गुरो बरहडाचा गोत्र े क्रकेश ज्ञातीय सा० शिवाभार्या सिंगार सुत देपति भार्यां देहलगदे सुत रावणे तसश्रयोर्धग्री श्रीसुमतिनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं तं या श्रीहेमविमल सूरिभिः ॥ " नागुर ग्रामे ॥
२४ पार्श्वनाथ - स्फटिक - ४ श्रं० - लेखरहित ।
२५ अर्हत्-धातु - - ५ ० "सं० १४१२ वर्षे वैसाष सुदी १३ बुधे श्रीमूलसंघे प्रतिष्ठाचार्य श्री प्रभाचन्द्रदेव लम्बकञ्चुक सा न्याङ्गदेव भार्या ताण पुत्र लावा भार्या महादेवी बारम्बार प्रणमति ।
२६ पार्श्वनाथ - धातु - ४ श्रं० - लेखरहित ।
२७ श्रेयांसनाथ - धातु - ४ ० – “ सं० १५२५ चैत्र शुक्ले ३ बुधे श्रीमूलसंघे श्रीसिंहकीर्ति प० ६० पु० लंबकंचुकान्वये साये मिण्डे भार्यां सोना पुत्र सा० जल्लू भार्या मना प्रणमन्ति ।”
२८ पार्श्वनाथ - धातु - ६ श्रं - " सं० १५४६ ज्येष्ठ वदी ६ भ० श्री हेमचन्द्राम्नाये गोयलगोत्र सा० ऊदा भार्या पोवाही
""
मोमनसिंह ।' पुत्र
२६ चोवीसीपट - धातु - ७ ० - “सं० १७१६ वर्षे चैत्रवदी ४ श्रीमूल संघे भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति..." ३० पार्श्वनाथ - धातु - ५ श्रं - " सं० १४०१ वैसाष १४ सुदी लमेचू सा० रमू......।" ३१ आदिनाथ– त्रातु — ४० - सं० १५३२ र्षे वैसाष वदी १४ सं० महिपरु पुं० संपर सुपुधेजसि । ११ ३२ पार्श्वनाथ - धातु – ६ श्रं० – “श्री मूलसंवे भ० श्री विमलेन्द्रकीर्ति सा० वीरपालू भाष वरणी बाई तेसुं" ।
३३ पार्श्वनाथ - धातु ७ श्रं० – “सं० १६६६ चैत सुदी १५ त्रौ भ० ललितकीर्ति भ० धर्मकीर्ति तदुपदेशात् सा० पदारथ भार्या जिया पुत्र दो खेमकरण पमापेता नित्यं नमति । ”
३४ पार्श्वनाथ - धातु - ६ श्रं० - "श्री मूलसंघे भ० जिनचन्द्र उपदेशात्.
""
. ३५ अर्हत् धातु - ६ – “सम्वत् १५२५ फाल्गुण ......।"
३६ अर्हत् – धातु – ३ श्रं० – “सं० १५७५......।”
३७ पार्श्वनाथ - धातु – ४ ० " सं० १५०५ वैसाथ सुदी ५ शुभमस्तु
३८ पार्श्वनाथ - धातु - ४ श्रं० - लेखरहित ।
३३ नेमिनाथ - धातु - ४ श्रं०
सं० १६८९ यस ।”
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भास्कर
भाग २] १० पार्श्वनाथ-धातु-१॥ अं0-"सं० १५३१ मूलसंधे सा०......" ४१ पार्श्वनाथ-धातु-३ अं0-"सं० १२०६......" ४२ श्रादिनाथ--धातु-३॥ अं०-"सं० ११२२......" ४३ पार्श्वनाथ-धातु-४ अं0-"श्री भट्टारक रामसेन" । ४४ चन्द्रप्रभ-धातु-४ अं0-"सं० १६०१ फाल्गुन सुदि । मूनसंघे धर्मकीर्ति प्राचार्य सा०
महन् भार्या भानुमती पुत्र सर्वन......” ४५ पार्श्वनाथ-धातु-३॥ अं०--लेख लुप्त । ४६ पार्श्वनाथ-धातु--४ अं0-"सं० १६८५ वैसाख सुदी ३" ४७ पार्श्वनाथ-धातु-६ अं0-"सं० १५२१ वैभव सावन सुदो ५ बुधे श्रीमूलसंधे"। . ४८ अर्हत् मन्दिर-सहित-धातु-१ अं०-"सं० १६८६......" ४६ पार्श्वनाथ-धातु-४ अं0-"सं० १५१४ चैतसुदी १ बुधे" १. पार्श्वनाथ-धातु - ४ अं०-"सं० १५१४। ५१ पार्श्वनाथ -धातु-४ अं०-"सं० १४३८ वर्षे......" १२ पार्श्वनाथ मंदिर-धातु-१ अं0-"सं० १७४६ माह सुदी...श्रीमूल संधे म० श्रीजगत्कीर्ति
__संघई श्रीकृष्णदास" ५३ अरिहंत--धातु-४ अं0--"श्री मूलसंधे बाई करया" ५४ पार्श्वनाथ-धातु-५ अं०-लेखरहित । १५ श्रादिनाथ--धातु-४॥ अं0--"सं० १५२५ वर्षे चैत सुदी १५ श्रोमूजसंघे भ० सिंहकीर्ति देव
गोलाराडान्वये साधु भउयार......" ५६ महत्-खगासन-धातु--५ अं०--"सं० १९७३ श्रावण वदी १ श्रोकाष्ठासंधे भ० श्रीगुणकीर्ति
सा० जिनदास"। ५७ अर्हत्-धातु-५ अं०-० १४१३ वर्षे वैसाष सुदी १३ बुधे श्रीमूलसंघे प्रतिष्ठाचार्य
श्री जिनचन्द्रदेव लंबकंचुक साहु सहदेव भार्या चम्पा पुत्र दोतदेव भार्या मूल ।
पुत्र लखनदेव पनदेव धर्मदेव प्रणमन्ति नित्यं ।" ५८ चंद्रप्रभ-धातु-४ अं0--"सं० १६०१ फागुन सुदी । भ० धर्मकीचार्य जसपालदासु भार्या
राजमति कराषिता।" ५६ पार्श्वनाथ-धातु-५ अंक-"सं० १२४२......" ६० अर्हत्-धातु-४ अं.-"सं० १४१४ वैसाष सुदी १५ श्री काष्ठासंधे सा० रह पुत्र नानिग।" ६१ विमलनाथ--धातु-३॥ अंo-"श्री अम्ब० सा० लूणा सुत सा० रम्ना विमलनाथ ।" ६२ अर्हत्-धातु-४ अं0-"सं० १५५७ वर्षे फाल्गुण वदी २ मूलसंधे ।" . ६३ पार्श्वनाथ-कृष्ण पाषाण-४ अंक-"सं० १५६२ श्रोमूत्रसंधे भ० जिनचन्द्रदेव......"
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किरण]
प्रतिमा-लेख-संग्रह
६४ अर्हन्त तीन (खजासन)-धातु -७ अं0-"सं० १५२५ वर्षे चैत्रवदी १ बुधे मूलसंधे भ०
सिंहकीर्ति:बाई महासिरि सा० नज भार्या भूरी पुत्र बहोरु भार्यावधी।" ६५ अाहत-धातु-६ अं0-"सं० १५२० वर्षे प्रासाद सुदी ७ श्रीमूलसंधे खंडेलवालान्वये सा.
हरिदाप्त प्रणमन्ति ।" ६६ पार्श्वनाथ-धातु-२॥ अं०-"श्रीशुभ......" ६७ पार्श्वनाथ-धातु-६ अं0-"सं० १५४० वैसाष सुदी १० मूलसंधे।" ६८ पार्श्वनाथ धातु-६ अं0-"सं० १६६२ माघ वदी १ मूलसंधे संघई अहिमनि" ६६ पार्श्वनाथ-धातु-६ अं0-"सं० १४५२......" ७० अर्हत्-धातु-५ अं0-"सं० १४१३ वर्षे वै० सु० १३ बुधे......" ७१ अर्हत्-धातु-४ अं०-लेख पढ़ने में नहीं पाता। ७२ पार्श्वनाथ-धातु-६ अं०-"सं० १५६२ माघ वदी १ श्रीमूलसंधे सा० बहणू भार्या हरिदेवि।" ७३ पार्श्वनाथ-धातु-६ अं०-"सं० १५४५ वर्षे......" ७४ पार्श्वनाथ-धातु --६ अं0- "सं० १५५४ वैसाष सुदी ३ चन्द्र सा• भुलू भार्या भरनो..." ७५ पार्श्वनाथ-धातु-६ अं०-लेख पढ़ा नहीं जाता। ७६ पार्श्वनाथ-धातु-४ अं०-लेखरहित । ७७ अर्हत्-धातु-२॥ अं0-"सं० १५२६" ७८ पार्श्वनाथ-धातु-५ अं0--"सं० ११०३......" ७६ पार्श्वनाथ--धातु--३ अं0-"सं० १४६०" ८० पार्श्वनाथ-धातु-७ अं०-"सं० १६६६ चैत्र सुदी १ मूलसंघे भ० ललितकीर्ति भ०
धमकीर्ति उपदेशात् सरूपचन्द्र प्रतिष्ठापितम् पौरपदेसापदिकुं पुत्र भावते ?।" ८१ अजितनाथ-धातु-७ अं०-"सं० ११११ श्रीमूलसंधे व० जिनदास उपदेशात् पौरवाद जाति
सा रहुणा भार्या गोलसिरि पुत्र गर्जू भोजराज प्रणमन्ति ।" १२ पार्श्वनाथ-धातु-७ अं0-"सं० १५३७......" ८३ आदिनाथसमवशरण-पक्षयक्षिणी-सहित-धातु-१६ अ०-"सं० ११३० वर्षे माघ
. सुदी ६......" ८४ पार्श्वनाथ -धातु-३ अं0-"सं० १९१० सा० पन्नालाल" ८५ पार्श्वनाथ-धातु-४ अंo-लेखरहित । ८६ पार्श्वनाथ-धातु-१॥ अंo-"श्रीमूलसंधे" ८७ पार्श्वनाथ-धातु-३॥ अं०-“सं० १५३४ वैसाख सुदी १० ....." ८८ महत्-अक्षयक्षिणी-सहित समवशरण-धातु १६ अं० बीच में खगासन शेष १३ पद्मासन
चहुंओर लिङ्ग तथा लेखरहित ।
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भास्कर
भाग २] ८६ पार्श्वनाथ-धातु-८ अं0-"सं० १५३४ वर्षे फाल्गुण सुदी ८ भौमे श्रीमूलसंधे सा०
बड़ भार्या ब्रह्मदेवी......” १. पार्श्वनाथ-धातु-७ अं0-"सं० १५४८ श्रीमूलसंघे श्रीभुवनकीर्ति दीक्षिता गोलसिंगारी
श्रार्या ज्ञानश्री नित्यं प्रणमंति।" ११ आदिनाथ समवशरण यक्षयक्षिणो-सहित-धातु-२५-अं०-ॐ संवत् १४५० वर्षे वैशाप
सुदी १२ गुरौ श्री चाहुवानवंशहु शेषय प्रकाशनमार्तण्ड सारच विक्रमन्य श्रीमत सरूप भूपग्वान्वय मुंडदेवात्मजस्य भूवशक्रस्व श्रीसुवर नृपतेः राज्ये वर्तमान श्रीमूलसंघ भ० श्रीप्रभाचंद्रदेव तत्पदे श्रीपमनन्दि देव तदुपदेशे गोलाराडान्वये
......इत्यादि। १२ पार्श्वनाथ-धातु-३ अं०-"सं० १५०२ वैसाख सुदी १।" ६३ " " " "
१६ पार्श्वनाथ-धातु-८ अं०-"सं० १५१५ वर्षे माघ सुदी ५ भौमे श्री मूलसंघ सरस्वती
गच्छे भ० जिनचन्द्रदेव गोलाराडान्वये सा० अभू भार्या हदो......" ... ६७ पार्श्वनाथ-धातु-७ अं0-लेख लुप्त हो या। १८ पार्श्वनाथ-धा-८ अं० -- "सं० १५३१ फाल्गुण सुदो ५......" .. १६ श्रादिनाथ समवशरण यक्षयक्षिणी सहित-धातु-१६ अं०-"सं० १९२६ वै० सुदी ७ बुधे
श्रीकाष्ठासंघे भ० श्री मलयकीर्ति भ० गुणभद्राम्नाये अग्रोस्कान्वये मित्तल गोत्र प्रादि। १०. संभवनाथ-धातु-१६ अं:-समवशरण-लेख नहीं । १०१ आदिनाथ समवशरण यक्ष-धातु-१८ अं०-"सं० १५३१ फाल्गुण सुदी ५ शुक्रे श्री
काष्ठासंघे भ० गुणभद्राम्नाये जैसवाल सा० काल्हा भाषी जयश्री आदि।" १०२ नेमिनाथ-धातु-३ अं०-लेख पढा नहीं गया । १०३ पार्श्वनाथ-धातु--३ अं0- "सं० ११०४" १०४ अर्हत् तीन खगासन-धातु-३ अं०-"सं० १५१५...... १०५ पार्श्वनाथ-धातु-११ अंक-"सं० १९५७ वै० सुदी १२ सोमवासरे...मूलसंघे दिगम्बरानाए
श्रीकुंदकुंदाचार्योपदेशात् भोगांवनगरे बढ़ेलवाल वंशोनवे गिरधारीलाल बनारसी
दास प्रतिष्ठितम् नित्यं प्रणमंति कटरा पञ्चीलाल"। १०६ अजितनाथ-श्वेत पा०-२८ अं०-"श्रीशुभ संवत्सरे नृपति विक्रमादित्य राज्यस्थ सं०
१५०५ शाके १५६३ फाल्गुन सुदी सोमवासरे श्रीमयणपुरि पातिसाह श्री मत्साहजहां राज्ये प्रवर्तमाने श्रीमूलसंधे गच्छे म० श्रीमजिनप्रभसूरि तेतो भ० श्री जिनभान......"
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वैद्य-सार
(अनुवादक--६० सत्पन्धर जैन, श्रायुर्वेदाचार्य, काव्यतीर्थ )
१-त्रिदोष पर महारस सिन्दूर शुद्ध पारदषड्गुणोक्तसुरभि-जीर्णीकृतं तद्रसं युक्त्योक्तं नवसारकं मणिशिला-पंचांशकं टंकणं । वज्रक्षारकलांशकैर्विमिलितं गंधार्धभाग क्रमात् सर्व खल्वतले विमर्च शुभगे योगादिऋक्षे दिने ॥१॥ कन्याभास्करहंसपाद्यनलकैजवीरनीरार्जुनी गोजिह्वानखरंजितं फणिलतापार्थेश्च संमर्दितं । तत्कल्कातपशोषितं च सर्व संरुध्य कृप्यां तथा यंत्रे व्यंगुलबालुकास्थितयुतं तत्पूरितं भांडकं ॥२॥ पक्व द्वादशयामकं क्रमगतं चाद्धृत्य सूतं गतं । खल्वे पूर्वकृतं विधाय निखिलद्रव्यान्वितं मर्दयेत् । प्राग्वत् कृपिकसंस्थितं दिनयुगं पक्त्वा क्रमाग्निं शनैः पश्चादागतसिद्धसूतमखिलं संमर्दयेत् तद्वैः ॥३॥ यंत्रोक्तक्रमसिद्धकैः कृतचतुर्विंशानुयाम क्रमात् सृतं पक्वमिति त्रिवारमुचितं सिद्धरसेन्द्र बुधैः। एकं द्वि त्रि यथाक्रमः दशशताधिक्यात् सहस्राद् गुणैः तस्मात् सर्वगुणानुयोगमधिकं युक्त्या त्रिवारं पचेत् ॥४॥ पक्त्वादाय सुसिद्धमंगलमिदं पूजोपचारैः क्रमम् उद्यद्भास्करसंनिभं च विमलं तत्सूर्यभारंजितं । सिद्ध सूतरसायनं गदहरं धर्मार्थकामप्रदं तत्सूतं मरिचाज्ययुक्तमनिलं हन्यात् सिताज्यैर्जयेत् ॥५॥ पित्तं तौद्रकणान्विते कफगंद व्योषार्कक्षारेण सह मन्दाग्निं स च सन्निपातसकलं योगानुयानैर्जयेत् श्वासं कासमरोचकं क्षयहरं कामाग्निसंदीपनं तुष्टिं पुष्टिबलावहं सुखकर लावण्यहेमप्रभं ॥६॥
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नित्यं सेवितशाश्वतं रसवर योगोत्तर सर्वदा रोगात् सज्जनरक्षणार्थभिषजः कीर्ति करोति सदा सर्व लोकहितंकर विरचितं शास्त्रानुसारैः क्रमातू
विख्यातं करुणाकर रसवर श्रीपूज्यपादोदितम् ॥७॥ टोका-दोषरहित तथा छह गुणों से सहित स्वच्छ शुद्ध तथा शोधन मारण करने वाले द्रव्यों से जीर्ण अर्थात् आठ संस्कार अथवा अट्ठारह संस्कार से शुद्ध किया हुआ पारा तथा शुद्ध नवसादर तथा शुद्ध मेनशिला ये तीनों समान भाग तथा पारे से पांचवे भाग सुहागा, पारे से १६ वां भाग शातलाक्षार (थूहर) तथा पारे से प्राधा शुद्ध गंधक (आंवला सार गंधक ) सबको मिला कर शुभ दिन, शुभ नक्षत्र शुभमूहूर्त में खरल में मर्दन करके घीकुमारी, (गंवार पाठा) पाक का दूध, हंसराज (तिपतिया), चित्रक, जंबीरी नींबू को रस, तथा नत्रिक, गोभी, नखर जित (एक सुगंधित पदार्थ) नागर वेल (पान) काहा, इनके स्वरस में एक २ दिन अलग २ खूब मर्दन करके घाम में सुखा करके कांच की शीशी में बंद करे तथा वालुकायंत्र में शीशी के नीचे ३ अङ्गल वालुका रहे फिर शीशी के मुंह तक बालुका भर देवे और उसको क्रम से मन्द, मध्य, खर आँच १२ प्रहर तक देवे फिर उस शीशी में से वह पारा निकाल कर उसे उपर्युक्त सब औषधियों के स्वरस में अलग २ मर्दन करे तथा दो दिन तक फिर बालुकायंत्र में पकावे, पाक होने पर पारा निकाल कर उन्हों द्रव्यों के स्वरस में घोंट एवं सुखा कर बालुकायंत्र में पकावेतथा २४ प्रहर तक बराबर भाव दे। इस प्रकार तीन बार पाक करे तो यह योग सहस्र गुणों से युक्त होता है इसलिये इसको युक्तिपूर्वक तीन बार अवश्य ही पकावे। यह पका हुआ पारा सिद्ध होने पर मंगलमय है तथा इसको इष्टदेव की पूजा करके सेवन करे। यह उदय हुए सूर्य के रङ्ग के समान स्वच्छ, उत्कृष्ट सूर्य की आभा-सहित सिद्ध पारद रसायन (महारस सिन्दूर) भनेक रोगों को हरनेवाला धर्म, अर्थ, काम को देनेवाला होता है। काली मिर्च तथा घी के साथ खाने से वायु-रोग शान्त होते हैं तथा पीपल और मधु के साथ सेवन करने से कफजन्य रोग शान्त होते हैं, सोंठ, मिर्च, पीपल और अर्कक्षार (अकौने के क्षार) के साथ सेवन करने से मंदाग्नि शान्त होती है। तथा अनेक अनुपान के योग से सम्पूर्ण सन्निपातों को और श्वास, कास अरोचक, क्षय को जीतता है, कामाग्नि को दीपन करनेवाला, शरीर को एट-पुष्ट करनेवाला, बल को देनेवाला, सुखप्रद, सुन्दरता को देनेवाला यह सुवर्ण के समान कान्तिवाला योग नित्य ही सेवन करना चाहिये। यह योग सजनों की रक्षा करने एवं वैद्यों को कीर्ति का देनेवाला तथा सम्पूर्ण लोक का हित करनेवाला शास्त्र के अनुसार भेप श्रीपूज्यपाद स्वामी ने कहा है जो प्रसिद्ध है और श्रेष्ठ रस है।
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२-प्रमेह पर वंग-भस्म शरावे निक्षिपेत् शुद्ध बंगं पलचतुष्टयम्। दीप्यकं तु चतुःप्रस्थं द्विप्रस्थं रजनोरजः ॥१॥ विलीनवंगं तज्ज्ञात्वा. गालयेद्भस्मवद्भवेत्। विदारीकंदो मुसली गोक्षुरो भूमिशर्करा ॥२॥ सुरवल्ली सारकः साम्यमेतेषां द्विगुणा सिता। बंगभस्म पर्णकं तु योजयित्वा तु भक्षयेत् ॥३॥ चुलुकं सितोदकं पानं द्विदलैश्चाम्लवर्जितम्।
सर्वप्रमेहविध्वंसि पूज्यपादनिरूपितम् ॥४॥ टीका-एक मिट्टी के गहरे सरावे में अथवा हंडी में शुद्ध बंग (रांगा) को १६ तोला लेकर डाल देवे और उसके नीचे आगी जलावे जब वह गल जावे तब उसमें ५२ छटांक जीरे का चूर्ण पीस कर डाले तथा ३२ छटांक हल्दी का चूर्ण डालता जावे इस प्रकार डालते रहने से रांगे का भस्म तैयार हो जायगी। जब वंग भस्म वारितर हो जाय (जल में तैर जावे अर्थात् नीचे नहीं डूबे ) तब नीचे लिखे अनुपान से सेवन करे। यथा विदारीकंद, मूसली, गाखुरू, भूमिशर्करा, गुर्च का सत ये पाँचो तीन तीन माशे लेकर सब का चूर्ण करे तथा सबके बराबर उत्तम मिश्री मिलाकर चूर्ण तैयार करले और फिर १ पण (५ रत्ती) वंग भस्म लेकर उसमें मिलावे तथा प्रतिदिन प्रातःकाल तथा सायंकाल मिश्री की चासनी से सेवन करे तथा उसके ऊपर एक चुल्लू मिश्री का पानी पोवे तथा खटाई और दाल की बनी चीजें नहीं सेवन करे। प्रमैहों का नाश करनेवाला यह योग श्रीपूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ है।
३-प्रमेहादि पर कर्पूररस शुद्ध सूतं पलमितं समादाय पुनस्ततः । सैन्धवं स्फाटिकं सम्यक् शुद्ध द्विचतुः पलं ॥१॥ चूर्णयित्वाथ जंवीररसेन परिमर्दयेत् । तस्योपरि रसं क्षिप्त्वा समालोड्य विमीलयेत् ॥२॥ हंडिकायां च तत्कल्कं क्षिप्त्वोपरि शरावकं । निरुभ्य संधि वघ्नीयात् दृढ़ मृण्मयकर्पटैः ॥३॥ रवियामं पचेयत्नात् ऊर्व भांडगतं भवेत् ।
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तच्चूर्ण रूपिणं सुतं समादाय पुनस्ततः ॥४॥ नवसार' क्षिपेत् सार्धनिष्कमात्रं ततः पुनः । प्रथमं नवसार ं तु चूर्णयित्वाथ भस्मकं ॥५॥ विचूर्ण्य मेलनं कृत्वा काचकूप्यां प्रपूरयेत् । कूपीद्वारं तु वध्नीयात् खच्या सूत्रेण बंधयेत् ॥६॥ द्वार विहाय संपूर्य मृदा सम्यक् प्रलेपयेत् । हंड्यामथ च बालुक्या चतुरङ्गुलमात्रकम् ॥७॥ प्रपूर्य कूपिमूर्धानमूर्ध्वं कृत्वा तिपेदथ । शेषं बाल्लुकयापूर्य चतुरङ्गलसंमितं ॥ ॥ ऊर्ध्वदेशं शरावेण समाछाद्याथ लेपयेत् । संधि मृदा गढ़' यत्ताच्चुल्ल्यामारोप्य यंत्रकम् ॥१॥ दिवारात्रिं पचेद्धीमान् चाग्निं तत्क्रमवृद्धिना ? | ज्वालयेन्निर्निमेषेण पारदं च परिक्षयेत् ॥१०॥ दृढ़ कर्पूररूपेण रसः कर्पूरतां व्रजेत् । मेहानां विशति हन्यात् चतुराशीतिवातजान् ॥११॥ स्फोटं श्वासं च कासं च पांडुं प्लीहं हलीमकम् । संधिशोफे क्षीणबले संधिवाते कफग्रहे ॥१२॥ अर्दिते पक्षघाते च हनुवाते गलग्रहे । चित्तभ्रमे भग्नकामे निःप्रतीते तुनीहते ॥ १३ ॥ श्वेतकुष्ठे ददुरोगे प्रदातव्यं भिषग्वरैः । गुंजामात्रमिदं खादेत् -- शर्करामधुनाथवा ॥१४॥ दुग्धं सेब्यं दिने तस्मात् द्राक्षाखर्जूरकं तथा । नागं नारिकेलं च कदलीफलकं तथा ॥ १५॥ तकसारः प्रदातव्यः रसे च कुपिते तथा ।
योगोऽयं प्रयुक्तः स्यात् पूज्यपादेन स्वामिना ॥१६॥
टीका - सुद्ध पारा ८ तोला लेकर तैयार रक्खे, फिर सेंधा नमक और फिटकरी दोनों का शुद्ध कर क्रम से ८ तोला और १६ तोला लेकर दोनों चूर्ण कर जंबोरी नींबू के रस में मर्दन कर लुगदी बनावे और फिर उस लुगदी में उस पारे का मिला देवे फिर एक पक्का हंडी में कपड़मिट्टी करके उसके भीतर उस लुगदी का रख कर ऊपर एक सरावा ढांक कर पकी कपड़मिट्टी करे और उसको १२ प्रहर तक आंच देवे और ठंढा होने पर ऊपर लगा
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हुआ जो सफेद रंग का हो उसको यत्नपूर्वक निकाल लेवे, और फिर उस निकाले हुए द्रव्य में ४॥ मासा ( ६ आने भर) नौसादर मिलावे दोनों का खूब पीसकर काँच की शीशी में बंद करे कूपी का मुख खड़िया मिट्टी से अच्छी तरह बंद करे, और फिर हंडी में शीशी का ऊँचा मुख करके बालू भर देवे परन्तु बालू इतनी भरे कि शीशी की तली ४ अंगुल खाली रहे । ऊपर से एक सरावा ढाँक देवे और कपड़मिट्टी कर देवे तथा चूल्हे पर चढ़ा देवे तथा एक दिनरात पकावे किन्तु आँच क्रम से हीन, मध्यम, तीखी देवे और जब स्वांग शीतल हो जाय तब खोलकर कपूर के समान जमा हुआ जो पारा है वह निकाल लेवे बस इसी का नाम रस कपूर है । यह रस कपूर २० प्रकार के प्रमेह चौरासी प्रकार के बातरोग, फोड़ा, श्वास, खाँसी, पांडुरोग, प्लीहा - हलीमक, संधिशोथ, क्षीणता, संधियों की जकड़ाहट, कफ की जकड़ाहट, अर्दित रोग, पक्षाघात, हनुवात, गलग्रह, चित्तभ्रम, अनिच्छा (नपुंसकता) इत्यादि रोगों में वैद्यवरों को देना चाहिये । इसकी मात्रा एक रत्ती है। इसके मिश्री तथा शहद के साथ देना चाहिये । इसके ऊपर दूध का सेवन अवश्य करना चाहिये तथा इसके पथ्य में मुनक्का, खजूर, नारङ्गी, नारियल, केला अवश्य देना चाहिये । रसधातु के कुपित होने पर तक देना चाहिये। यह उत्तम योग पूज्यपाद स्वामी ने कहा है
४ - क्षयरोग पर वज्रेश्वर रस
कर्ष खर्परसत्त्वं च षण्मासे हेमविद्रुते निक्षिपेच्चूर्णयेत् खल्वे षणिक सूतगंधकौ ॥१॥ अकलुकं कुणीवीजं तुल्यांशं तालकश्चतुः । मुक्ताप्रवालचूर्ण तु प्रतिनिष्काष्टकं क्षिपेत् ॥२॥ मृतलौहस्य निष्कौ द्वौ टंकणस्याष्टनिष्ककं । afrostateagrataराटानां च विंशतिः ॥३॥ शीसः निष्कत्रयं येोज्यं सर्व खल्वे विमर्दयेत् । चांगेर्यम्लेन यामै जंवीरामलैः दिनद्वयम् ॥४॥ रुद्ध्वा पुटाष्टकं देयं हस्तमात्र तुषाग्निना । जंबोरोत्थद्रवैरेव पिष्ट्वा पिष्ट्वा पुटे पचेत् ॥५॥ ततो वनोत्पलैरेव देयं गजपुटं महत् । आदाय चूर्णयेत् श्लक्ष्णं चूर्णा शुद्धगंधकं ॥६॥
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गंधार्ध मरिचं चूर्णमेकीकृत्य द्विमाषकं । लेहयेन्मधुना सार्थ नागवल्लीरसेन सह ॥७॥ पथ्यं तु प्रतियामं स्यादभुक्ते विषवद्भवेत् । रसो वज्रेश्वरः ख्यातः क्षयपर्वतभेदकः॥॥
उत्तमो राजयोगोऽयं पूज्यपादेन भाषितः। . टोका-एक तोला खपरिया का सत्व लेकर छह माशे शुद्ध सेाने को गला कर उस में डाल दे फिर दोनों का चूर्ण कर छह निष्क (१॥ तोला) पारा गंधक तथा अकालक.॥ तोला मालकांवनी १॥ तोला शुद्ध तवकिया हरताल तथा अभ्रकभस्म, कांत लौहभस्म, ताम्रभस्म चार २ निष्क (१ तोला) तथा शुद्ध माती और शुद्ध प्रवाल आठ पाठ निष्क (२ तोला) लेकर तथा लौहभस्म २ निष्क एवं सुहागा शुद्ध आठ निष्क (२ तोला) नील और कुटकी २ तोला २ शुद्ध पीली गठोली कौड़ी २० तोला, शुद्ध शीसा भस्म तीन निष्क लेकर सबको एकत्रित कर चांगेरो के रस में १ पहर तक घटे फिर सबको टिकिया बनाफर संपुट में बंदकर १ हाथ का गड्डा करके तुष की अग्नि के द्वारा पुट देवे और फिर जंबीरी नींबू के रस की भावना देवे इस प्रकार आठ पुट देवे फिर आठ पुट के बाद जंबीरी नींबू के रस की भावना देकर जंगली कंडों से १ गजपुट देवे फिर सबको चूर्ण करके चूर्ण से आधा शुद्ध आँवलासार गंधक लेवे तथा गंधक से आधी काली मिर्च लेकर सबको एकत्रित कर तीन तीन माशे शहद और पान के रस के साथ प्रातःकाल एक बार सेवन करे एवं इस दवाई के सेवन करने पर प्रत्येक पहर के बाद पथ्यपूर्वक भोजन करे यदि इस औषधि के सेवन करने पर पथ्य सेवन न किया जायगा तो यह औषधि विष के समान काम करेगी। यह बज्रश्वर रस तय अर्थात् राजयक्ष्मा-रूप पर्वत के नाश करने के लिये बज्र के समान है। यह उत्तम राजयोग पूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ बहुत उत्तम है।
५-शीतज्वर पर शीतांकुश रस तुत्थमेकं त्रयं तालं शिलाचैव चतुर्गुणं धत्तूरस्य रसैद्यः कुक्कुटीपुटपाचितः ॥१॥ शीतांकुशरसो नाम शीतज्वरनिवारणः शीतज्वरविषघ्नोऽयं पूज्यपादेन भाषितः ॥२॥
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टीका - १ भाग शुद्ध तूतिया ३ भाग शुद्ध तवकिया हरताल, ४ भाग शुद्ध मैनशिला, ४ भाग जवाखार सबको एकत्रित कर धतूरे के रस से मर्दन कर कुक्कुट पुट में पका कर रत्तियों के प्रमाण में सेवन करे तो इससे शीतज्वर दूर होता है- यह शीत ज्वररूपी विष को नाश करनेवाला पूज्यपाद स्वामी ने कहा है ।
६- मुत्रकृच्छ्र पर कृच्छ्रांतक रस पारदाभ्रकवैक्रान्तहेमकांत निगंधकम् । मौक्तिकं विद्रुमं चैव प्रत्येकं स्यात् पृथक् पृथक् ॥१॥ समं निंबूरसैर्मर्यं मूषायां संनिरोधयेत् । पंचविशंतिपुटान् दद्यात् ततः सर्वं विचूर्णयेत् ॥२॥ मात्रमात्ररसं दद्यान्नवनीतसितायुतं । बिदारी तुलशी रंभा जाती बिल्वं शतावरी ॥३॥ मुस्ता निदिग्धा वासा धात्री विनोद्भवा कुशा । पाषाणभेदी सर्पाक्षी चेक्षुकृष्णा त्रिकंटकं ||४|| एवरुबीजयष्ट्यमिधा मैला (?) चंदनबालुकं । सर्व संतु यत्नेन काथयित्वा पिबेदनु ||५|| मूत्रकृच्छाश्मरी मेहबातपित्तकफामयान् । तयाद्यखिल रोगांश्च
नाशयेनाa संशयः ॥६॥
रसः कृच्छ्रांतको नाम पिटकादिवणान् जयेत् ॥
1
टीका - शुद्ध पारा, अभ्रक भस्म, वैक्रांत मणिभस्म, सुवर्णभस्म, कान्तलौहभस्म शुद्ध गंधक, शुद्ध मोती, शुद्ध मूंगा, ये सब चीजें अलग अलग बराबर बराबर लेकर नींबू के स्वस्स में मर्दन कर मूषा में बंद कर पच्चीस पुट देवे । प्रत्येक पुट में नींबू के रस की भावना देवे इस प्रकार सब का भस्म बन पर जाने पर सबको चूर्ण कर एक माशा प्रतिदिन मक्खन और मिसरी के साथ खावे तथा औषाध के खाने के बाद हो नीचे लिखा काढ़ा पीये । बिदारीकंद, तुलशी, केला कंद, चमेली-पत्ती, बेल की छाल, शतावर, नागरमोथा, छोटी कटहल, असा, आँवला, गुरबेल, कुश की जड़, पाषाणभेद, सर्पाक्षी, गन्ना, पीपल, गोखरू, ककड़ी के बीज, मुलहटी, छोटी इलायची, सुगन्धवाला, सफेद चन्दन इन सब इक्कीस चीजों को कूटकर काढ़ा बनाकर पीये । यह ऊपर की दवा का अनुपान है। इसके सेवन करने से मूत्र कृच्छ्र, पथरी, प्रमेह, बात-पित्त, कफ के रोग तथा क्षय वगैरह संपूर्ण रोगों को नाश करता है । यह मूत्रकृच्छ्रान्तक रस उत्तम है ।
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७–विबन्ध (कोष्ठबद्धता) पर विरेचक तैल
रसगंधकनेपालदंतिवीजानि टंकणं । एरंडं तुंबिवीजानि राजवृक्षाभयानिवृत् ॥१॥ पलाशवीजमेकैकं वृद्धिभागोत्तरेण च। . स्नुहीक्षीरेण संयुक्त मर्दयेत्रिदिनान्तरम् ॥२॥ . नारिकेलफले क्षिप्त्वा महागाढातपे स्थितम् । तत्तैलं जायते शीघ्र लेपोऽयं नाभिमध्यतः ॥२॥ अणुमात्रविलेपेन सप्तवार विरेचयेत्।। तद्गन्धाघ्राणमात्रेण पंचवारं विरेचयेत् ॥४॥ गुंजावत्पादलेपेन दशवार विरेचयेत् ।
वैरेचकप्रयोगोऽयं पूज्यपादेन भाषितः ॥५॥ ___टीका-शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, शुद्ध जमाल गोटा, शुद्ध सुहागा, शुद्ध मंडीबीज शुद्ध कड़, तोमर के बीज, अमलतास, बड़ी हर का छिलका, निशोथ छिवले (पलाश) के बीज ये चीजें एक एक भाग क्रम से बढ़ती लेकर सबका एकत्रित कर थूहर के दूध से ३ दिन तक बराबर मर्दन कर नारियल के फल में भर कर खूब तेज घाम में रख दे। सब दवाइयां घुलकर तैलरूप हो जायँ तब जानो यह विरेचक तैल तैयार हो गया। यह . तैल थोड़ा सा नाभी पर लगाने से ७ बार दस्त होता है तथा १ रत्ती पाँव के तल भाग में लेप करने से दस बार दस्त होता है। और इस तैलको सूंघने से ५ बार दस्त होता है। विरेचन का यह प्रयोग पूज्यपाद स्वामी ने कहा है।
८-प्रमेह पर राजमृगांक रस सुवर्ण रजतं कांतं वपुषं चैव शीसकं। भस्मीकृत्य च तत्सर्व क्रमवृद्धया क्रमांशकं ॥१॥ व्योमसत्त्वभवं भस्म सर्वस्तुल्यं प्रकल्पयेत् । कजली सूतराजस्य सर्वैरेतः समांशकम् ॥२॥ प्रदाय लौहभस्मानि पूर्वभस्मनि निक्षिपेत् । काष्ठेनालोड्य तत्सर्व दिनमेकं-समाचरेत् ॥३॥ ततो विचूर्ण्य तत्सर्व सप्तधा परिभावयेत् । . आकुलीबीजसंजातक्वाथेनैवं हि यत्नतः ॥४॥
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THE JAIN ANTIQUARY
An Anglo-Hindi quarterly Journal,
Vol. I. ]
June, 1935.
[ No. I.
Editors : Prof. HIRALAL JAIN, M.A., LL.B., P.E.S.,
Professor of Sanskrit,
King Edward College, Amraoti, C. P. · Prof. A. N. UPADHYE, M.A.,
Professor of Prakrata,
Rajaram College, Kolhapur, S.M.C. B. KAMTA PRASAD JAIN, M.R.A.S.,
Aliganj, Distt. Etah, U.P. Pt. K. BHUJABALI SHASTRI, Nyayakulabhushana,
Nyayacharya, Librarian, The Central Jaina Oriental Library, Arrah.
Published at THE CENTRAL JAIN ORIENTAL LIBRARY,
ARRAH, BIHAR, INDIA,
and Basi
Annual Subscription :
Foreign Rs. 6-8.
Amperele
Inland Rs. 4.
Single Copy Rs 1-4.
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Om.
THE
JAINA ANTIQUARY.
"श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । tena TVRTARSKT STÅ PARINTAH!"
Vol.
1
No. 1.
§
ARRAH, (INDIA)
June, 1935.
MESSAGE.
I welcome the “Jain Antiquary," and wish it all success. I know Jainology will fully reveal the Truth and antiquity of Jainism by cogent evidence. My own researches in mythology have shown how far and wide has been the acceptance of its principles in the world. The same, I feel sure, will be found to be the result of investigation in the other departments of Research. Let me again wish the Jain Antiquary full unqualified success.
CHAMPAT RAI JAIN,
London.
APPRECIATIONS. 1. C. E. A. W. Oldham, Esqr., C.S.I., writes from London :
"I wish this new 'Antiquary' every success in its career, and trust the Editorial Board will also exort their influence towards the
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JAINA ANTIQUARY.
(Vol. I
publication of the many Jaina texts not yet available to the public, or even for the use of research workers, as these are likely to contain valuable material for the history, both religious and secular, of India." 2. Prof. E. J. Rapson writes from Cambridge (England) :--
"I heartily wish your Quarterly all possible success." 3. Rao Bahadur Sirdar M. V. Kibe, M.A., Minister of Commerce, Indore remarks :
"I am delighted to hear, you had now undertaken to publish a quarterly devoted to the study of Jainism. Although its followers are few, yet its Philosophy and its History are of great interest possessing many problems which require a close study in the interest of Humanity."
4. Late Rai Bahadur Babu Hira Lal, B.A., Retd Dy. Commissioner, Katni wrote:
“I congratulate you and your colleagues on the excellent idea of starting the Jain Antiquary, devoted to the study of Jainology, which has not been thoroughly studied upto this time. The vast literature, which the Jaina records contain are extreinely important not only from the Jaina religious point of view, but they are a storehouse of historical information and linguistic morphology which are so interesting to present day scholars of the East and the West. I wish every success to the new Quarterly and to the laudable efforts of its promoters."
5. Prākatana-Vimarsa-Vichaksana, Rao Bahadur R. Narasimhacharya M.A., M.R.A.S. writes :
“I am very happy to hear that an Anglo-Hindi Quarterly is proposed to be published to promote the cause of Jainlogy and to foster the study of the subject.........I am greatly interested in the study of Jainism and shall be immensely happy for any steps that may be taken for developing Jain Research......... Wishing you every success in your efforts." 6. Prof. W. Schubring, Ph. D. Hamburg :
"I was glad to learn from you that you are about to start, under the title of 'The Jaina Antiquary' a new Anglo-Hindi Quarterly devoted to Jaina Studies. As our own studies, as you know, are devoted to the same object, I am eagerly looking forward to the first number. You would oblige me very much by sending me one or several copies in order that I may obtain an idea of the line on which your journal is started and from which the character of any future contribution will depend. With my best wishes."
7. Dr. Hermann Goetz of the Kern Institute, Leyden writes:
"The Kern Institute of Indian Archæology is of course very much interested in your useful and promising undertaking. We therefore shall be very glad to co-operate with you...
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No. I.
EDITORIAL
EDITORIAL
Our Venture.
A fully correct and comprehensive history of India has not yet been written and can not be written unless and until single historical facts from age to age and period to period, province to province and movement to movement, are studied and examined in all their aspects. It is now well-known, at least in scholarly circles, that Jainism is one of the most ancient religions of India and that it has influenced the religion, philosophy, moral and social out-look of the people to a remarkable extent. But the details of these influences, how, why and when Jainism made its contributions to the cultural development of the Indian people, are even now a matter of vague speculation, and even scholars are not very clear about them. The Jaina idea of God and eternity of life has been woefully misunderstood and the system has been denounced as Nastika or. atheistic. The principle of Ahimsā or non-violence which is the sine-qua-non of the faith, has been misrepresented as the factory in which the shackles of slavery were forged. The philosophy of Anekānta or multifold view points with which Jainism has tried to reconcile seemingly opposite opinions and beliefs, has been derided and held up to ridicule as a jumble of contradictions. The fine arts such as architecture, sculpture, painting, music and poetry as developed by the Jaiuas have been neglected or their importance minimised, and the Jaina literature, inspite of its fullness and versatality, has not been considered worthy of serious study. This state of affairs was first due to the fact that the spirit of Jaina religion and its followers was very much misunderstood by the foliowers of the Hindu religion, but the position was continued and even aggravated by the apathy of the Jainas themselves who made no efforts to make their attitude clear and did not give sufficient publi. city to their literature. With the changing times, however, the condi. tions are now fast changing. On the one hand, the scholars all over the world are becoming increasingly interested in the study of Jainism, and on the other, the Jainas themselves have become keen about clearing their position and attitude both by propaganda and by throwing open their literary treasures to the world.
The present venture is a modest attempt to facilitate and encourage the growth of this new spirit. All Jaina and non-Jaina scholars are invited to express themselves freely about Jaina religion, philosophy, history, art and literature through the pages of the Jaina Antiquary. Our forum shall be open to all those, and only to those, who wish to present facts without any passion or acrimony. Our aim is to elicit
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JAINA ANTIQUARY.
i Vol.i.
truth, to remove prevailing doubts and suspicions to re-examine known facts impartially, to discover unknown events of history and fit them in with the known facts and to bring to light the vast ancient literature that yet remains hidden from the public view. All this we mean to accomplish by cool and patient study without distorting facts and without forcing conclusions. We are fully conscious of the difficulties which lie in our way but we also know that nothing good and great has ever been accomplished without great risks. We will do our best and we feel confident of the co-operation not only of the Jainas of all denominations, Digambaras, Svetambaras and Sthanakavasis, but also of all those belonging to India or outside, who are interested in the study of Indology. We are sure of our efforts but the measure of our achievements will depend upon the measure of co-operation that we receive. And thus only our humble venture sball crown with success, which no doubt shall be a thing of pride for the Jaina Oriental Library, Arrah and of satisfaction for that departed great soul Shriman Babu Devakumārajî, of Arrah, who founded the Library and the “Jaina Siddhanta Bhāskara," the Hindi quarterly which is being published again by his illustrious sons Messrs. Nirmal Kumarjî and Chak reswar Kumarji B. So., B.L., and of which the " Jaina Antiquary" forms a part, simply to promote the cause of Jaina Research. May the Shāgana Devas help us and the Victory be of the Great Jinas.I
HIRA LAL JAIN. KAMTA PRASAD JAIN.
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No. I. ]
ANCIENT SOUTH INDIAN JAINISM.
Ancient South Indian Jainism.
BY
Prof. B. Seshagiri Rao M.A., Ph. D. Bharatithirtha Pradhani, Vizianagram.
Jitam bhagwata Srîmad-dharma-tirtha-vidhayinā. Varddhamanena samprapta-siddhi-saukhāmritatmanā. Bhadrabalu Ins of srawana Balgola.
( जितं भगवता श्रीमद्धमतीत्र्त्यविधायिना । admiàa eimafafs Aranyakazi 11 )
A Religion of Strength.
5.
My grateful thanks are due to the Editorial Committee of the Jain Antiquary for the honour they have done me in Namas Kriya. inviting me to join their present literary enterprise. I gladly respond to their kind invitation and say something about "Ancient South Indian Jainism" with the history of which I made myself familiar to some extent.
Spiritual religion and Ritualism.
To day, institutional religion in India, of whatever denomination, has become so grossly and so largely identified with mechanical, formalistic ritualism that religion as spiritual aspiration and spiritual achievement through moral perfection has almost completely lost ground. In such circumstances, a peep into the antiquities of any faith or system of religion in India is bound to have very chastening and ennobling reactions. I trust the labours of Jain Antiquary will in time bring about this new life in that ancient system of Jainism which for at least twelve centuries, if not more, exercised great power and influence over the south, and needless to say north-Indian peoples.
It appears to me that Jainism is a religion of strength, believing that man in Spirit and that his supreme goal in life or 'Uttama Purushartha' is the attainment of Godhood or Arhathood, i.e., that Jivatma is destined to become Paramatma, its original source. The obligation to, and effort at this transformation it throws on man's efforts more than on God's Grace (or Paramêsvarasya Nirhêtuka-jâyamâna-kataksha). It is a worker's and not an idler's faith.
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sea of troubles," an It looks upon Samsara or life experience as a or experience where it is mostly, as ordi-entangling snare,-Samsara That the ideal of man is narily, a life of the impulses or the senses.
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the culture of the spirit and not of the body, that it is the spirit that abides, and it is the body that at some time or other has to be given up. That such a faith appealed to ancient South Indian peoples, thus wise, is clear from the following extracts from the Inscriptions of Sravana Belgola, the greatest and most ancient centre of Jainism in South India :
6
JAINA ANTIQUARY.
•6
(a) The dense smoke of inequity spreading wide and filling space like the huge mountain of ignorance, the fool who is entangled in the great and delusive troubles of family falling under the power of kings, goes to ruin " ".
(b) "An ignorant man, manifestly corrupting his mind with passion and enemity may fail in devotion to the Spirit, the form of all wisdom, the ever peaceful; but how can a wise man for a moment strive for any other end?" 3
(c) Thou having fixed thy mind unshaken on the indwelling spirit, love and all the desires of sense have fled away, the happiness of perfect spiritual knowledge increases, and by the complete destruction of sin, thou hast attained the state of final beatitude, Gommata deva, and unending happiness'
4
(d) He to whom all actions are directed, removed above all opposi-. tion, highly exalted, free from ignorance, without an equal, free from desire, of a glory beyond expression or thought, having subdued the power of the world, the highest,-may his glory dwell in my mind " ".
These extracts emphasise the cardinal duty and principle of selfperfective effort through the conquest of sense desire and the selfexaltation about the distractions of samsara as the highest goal of religion. Jainism is thus not only a religion of strength, but of "knowledge" (jnana) and self-discipline (siksha).
1 A large village situated in 12°51' north latitude and 76°33' east longitude in the Chennarayapatna Taluuq of the Hassan District of the Mysore State.
2 Epigraphia Carnatica Vol. II Sravana Balgola Insps No. 3, (one of the earliest on the Hill.)
3 Ibid No. 54, dated 1128 A. D.
4 Ibid No. 85, dated 1180 A. D.
5 Ibid No. 108, dated 1433 A. D.
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No. I. 1
Doubts may arise as to whether such a faith were not too intellectual, too rigid, or ascetic to be practical; whether like advaita it does not tend to withdraw man from the material arts of life and civilisation; and whether after all, it were not too difficult or too esoteric for the masses to follow. It is, however, the most pitiable and even contemptible aspect of Indian life to day that we mistake the indulgence in the luxuries of life to be the raising of its standard and keep the mass mind in perpetual ignorance of the vital issues of life and its ennobling disciplines and even nourish it on the religion of formalistic ritualism on the theory of salvation by actions karma or on ecstatic emotionalism on the theory of salvation by grace or Bhakti and Prapannata. To my mind ancient South Indian Jainism in its prestive purity and essence seems to have been a living protest against these forms of religious practice, and had successfully trained even the lowest minds in the knowing, understanding and appreciating pursuit of religion as the culture of the Spirit and the conquest of the flesh as distinguished from ritualism or ecestatic sentimentalism.
A practical religion and discipline
for all.
ANCIENT SOUTH INDIAN JAINISM.
And first, that it is deliberately intended for all and sundry and that the great Jaina rishis of old acquired their great spiritual gifts to share them with their pupils, both lay and clerical, to train them to become as spiritually great as themselves, there is ample evidence in the Sravana Baegola Inscriptions on which the present paper is based A few instances will suffice :
7.
(a) That learned muni of great acumen obtained many celebrated disciples whom he taught in order to purify the world and diffuse merit in all parts,who, putting faith in their quru, imbibed from him all learning as a calf sucking milk from the cow of plenty and growing strong with that nourishment became celebrated everywhere "-1
The outlook of Jaina Siddhanta
Charyas.
(b) "a fire to the forest of family cares.... a summit of uplifted honour, the cow of plenty in bestowing wealth, the remover, of the sorrows of those in the power of the enemies of sin and ignorance was Srutamuni, the chief Suri, pure in morals untouched by women." "
(c)
He to whom Shree Matisagara was guru, that creator of moonlike fame; he to whom the worshipped Vadi Raja, head of the gana, was fellow student, that Dayapala Vrati was
1 Ibid No. 108, dated A. D. 1433. 2 Ibid No. 105, dated A. D. 1398.
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8.
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the only fortunate one in whose mind was the desire to impart to others a portion of his own form." (N. B. Herein is the ancient ideal of guru-sishya nyaya defined as "acharyah purva rupam-antacas-y-uttara rupam." 1
And, Secondly. in all such intellectual pursuit of spiritual culture under gurus who are themselves adepts or siddhas, two practical principles played the greatest part viz. diksha or concentration and Siksha or discipline. It will not do to take a vow or pledge; it will have to be made an operative force in the daily round of life; and the constant and unfaltering pursuit of a pledge as an active force in life is siksha or discipline. The Jain faith in ancient times invited the south Indian masses to concentrate on the culture of the spirit; to live the life of the spirit and not of the senses, so that by such culture they may not only sanctify their bodies and minds, but make of themselves centres of radiating spiritual influence. It was not mere theory, nor mere gospel-preaching, not doctrinaire hair-splitting, but downright, real, practical, demonstrable life lived from hour to hour in the eye of the masses, as a living example of a possible ideal. On this head also there is ample evidence in the Sravana-Belgolo Epigraphs. In all religious controversy a stage would arrive when the final appeal would be made from disputations and theories, from raddhantas and Siddhantas to the arbitrament of life. The life is the thing, the most appealing pratyaksha Pramana or occular authority, to catch the conscience of the devotee; to overcome the hesetancy of the novitiate. That is why one of these most ancient Jaina Acaryas and disputants said :
Diksha and Siksha.
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Why vainly strive, O." Jewelcrown of the wanton populace to prove the true Tathagata faith to be false? Escape quickly, for the proverb says-" living shall see gocd' and leave your love of dispute" 2.
And here below are a few characterisations of such ancient Jaina Risis who lived their faith and promulgated it by action even more effectively than by disputation, great as they were at the latter also:
(a) "Unruffled by accusers, of a form like the beautiful placid moon, and a place of fortune, having attained the path of learning and the path of victorysuch was the maha muni Hama sana
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Some great Jaina Siddhanta caryas.
1 Ibid No. 54, dated A. D. 1128.
2 Ibid No. 105, dated 1398 A. D.
3 Ibid No. 54, dated 1128 A. D.
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No. I.]
ANCIENT SOUTH INDIAN JAINISM.
-TT
(6) " He by whom the desired form of siddhi was with worthy - words ensured to friendly men, the Dayapala Muni...do ye with words revere" 1
: (c) “In whom equal patience rejoices, in whom kindness has no
limit, whom impartiality loves, whom absence of desire desires, through love loving salvation, though in his own esteem low, yet the head of yogis, by his character an
achari, Sri Mollishena muni-him let us revere?. ) “ The ignorant and the wise, the poor and the rich, the lowly
and the honourable, the evil and the good the sorrowing and the happy, the proud and the virtuous, "he caused to become samantabhadra lever fortunate)... ... may Sri Charukriti prosper in the world......" In order that his oron merit--the destroyer of the enemy of sin, the bestower of highest happiness, difficult to obtain and an object of desire-which he had acquired by the supreme path, highly prized by the worthy, of a sanyansi, might accůre "to all people, he poured forth the nectar of his eloquence so that they all, forsaking their bodies and praising the
feet of Jina, attained to the state of the Gods." $, . Very naturally, such great Rishis of Belgola, the great examples of the higher life, in time came to be worshipped even by kings and in time became Rajagurus, Mahamandalacharyas and Jagad-gurus. Of such Rishis, who thus worked their way to power and influence through their learning, character and other attainments there are also references in the Sravana Belgola Inscriptions. A few examples are given here under :(a) "Siddhanta yogi......whoin, though his lotus feet were ever
tinted with the rays from the crowns of bending kinge, no substance and no woman, no clothing and no youthful
pride, no strength and wealth could tempt," * (6) " After bim Hulla the minister of King Narasimha ; his guru was the Jagadguru Kukkutasana Muladhari Deva.".
. (c) “ Maghanandi Siddhanta Chakravarti, Rajaguru to the Hoysala
king." 8. (d) “Mahamandalacharya Dera Kirti Pandita Deva." ?. (e) “The moons of the nails of his feet illumined as with the hues of evening from the jewels in the crown of the Ganga
1 Ibid No. 54 dated 1128 A. D 3 Ibid No. 107, dated 1398 A. D. 4 Ibid No 108, dated A. D. 1493. 5 lbid No. 137, dated A. D. 1960. 6 Ibid No. 129, dated A, D. 1253. 7 Ibid No. 89, dated A, D, 1268,
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King, was he whose name was first the word Sri followed by the famous vijaya, learned, of superhuman qualities, of glory dispensing ignorance." 1
JAINA ANTIQUARY.
(f) "He whose pair of pure lotus feet the Poysala king Vinayaditya having served was brought into the possession of great fortune, the place of implicit commands, that Santi Deva muni's ability who is worthy to describe as this much or that much; are they not rare, the possessors of such surpassing glory."
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Jaina Influence on Conquerors.
even
I shall close this paper by giving just one illustration of how the Vitaraga doctrine of Jaina Sampradaya and the Vitaragî Rishis that lived it and by doing so wielded such political power, had worked over persons high placed in life i.e., over conquerors of kingdoms and embattled hosts :
"This auspicious great minister and dandanayaka...... Ganga Raja, when the army of the Chalukyan emperor...... was left in camp at Kannegala; saying " Let go" and springing on to his horse, caring not for its being a fight by night, went with speed and with the sword in his . arm carried terror into the panick stricken army."
Thus as if it were sport, having defeated all the feudatories, he brought the whole collection of their stores and vehecles and presented them to his own lord; who saying I am delighted, delighted with the prowess of your own arm. Ask, what you will.
Having gained supreme favour he asked not at all for kingdom or wealth, but his mind fixed on the worship of Arhat, he asked for Parama.
And having so asked
He presented it for the worship of the Jinalaya which his mother Pôchala Dêvî had made and the Jinalaya which his wife Lakshmi Dêvi had made" 3. Such was the piety and contempt for mere wealth which the Jaina faith had engendered in the minds of the greatest men of action."
Such was ancient South Indian Jainism; such was its yogue and such its influence. This is but the barest of a bare outline of its cultural history which deserves a volume by itself. If Jainism and Jaina Culture should again influence Indian life in our time, it should worthily concentrate, as did its ancient Rșis in South India, on the practical teaching of its spiritual discipline, its dikshas and its sikshas to one and all, men, women and children, high and low, rich and poor,-preferably even low and poor in order that whereby the mass mind may be illumined and the mass life ennobled and freed from the bondage to ignorance and the thraldom to sense desire. Will the Jainacharyas take the leadership of the coming democracy in India ?
1 Ibid No. 5, dated A. D. 1128
2
5 Epigraphica Carnatice Vol. II Sravana Belgola Insns No. 45, dated A. D. 1117.
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NAYAKUMARACARIU.
ii
NAYAKUMARACARIU. An Apabhramsa work of the 19th century. (By Prof. Hîrā Lāl Jain, M.A., LL. B.)
1. DISCOVERY OF THE WORK. It was in the year 1924 that I first discovered the NAYAKUMARA CARIU of Puspadanta from the manuscript stores at Karanja in Berar The notes that I made on that occasion were included in the Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts in C. P. and Berar, published by the Local Government in 1926. The Apabhramsa works discovered there proved very interesting and I contributed an article on " Apabhramsa Literature" to the Allahabad University Studies Vol. I and determined the date of Puspadanta who was the chief of the authors, first in the notes contributed to the Catalogue and then in an article contributed to the Hindi Quarterly " Jain Sahitya Samsodhak" Vol. II.
2. THE AUTHOR The author of the work is Pupphayanta-SK. Puspadanta. Of this author three works have so far come to light - Mahapurana or Tisatthipurisa-gunalamkara in 102 chapters, Jasaharacariu in 4 chapters and Nayakumaraccriu in 9 chapters. From these works the following information about the poet can be gathered :
1. Puspudanta was the son of Kesava Bhatta and Mugdhadevi Brahmins of Kasyapa Gotra.
2. He travelled to Manyakheta from somewhere and was patronised by Bharata and later by his son Nanna both ministers of Kronaraja alias Vallabharja who may be identified with Krsnaraja III of the Rastrakuta dynasty of Manyakheta.
3. He began his Mahapurana in Siddhartha Samvatsara and completed it in Krodhana Samvatsara on A sadha Sukla 10 which is found to correspond with Sunday, the 11th June, 965 A.D.
4. He describes himself as tender in costitution and ugly in appearance, homeless, dressed in rags and barks, bathing in rivers and pools and sleeping on bare ground. Never-the-less, he was equanimous towards the rich and the poor and friendly to all. He had a high sense of self-respect and was excessively fond of poetry for which he earned the titles of Ahimana-meru, and Kavva-pisalla. 5. He mentions the following three historical events of his time :
(i) The king of Manyakheta, here called Tudigu, killed the
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Cauda king. The latter may be identified with Rajaditya
Cola who was killed by Krona III in 949 A. D. (ii) The king of Dhara burnt Manyakhta. This king may be
identified with the Parmar prince Harsadeva. (iii) A severe famine razed over Manyakheta. This may have
followed the raid of the capital by Har$adeva. I shall now confine myself to what the poet says about himself in the present work and the circumstances that led him to compose it. In the colophon of each Sandhi we are told that it is the work of Mahakai Pupphayanta. At the beginning of the work the poet introduces himself as the son of Muddhai (Mugdhadevi) and Kesavab katta of Kaśyapa Gotra. He was residing in the house of Nanna in the city of Manyakheta when two persons, Nailla and Silaiya, pupils of one Mahodadhi, approached him, eulogised his talents and expressed their desire to hear from him the story of Nagakumara, illustrating the fruit of observing the fast of Sri-Pancami. He was also requested to the same effect by Nanna, the minister of Vallabhar aya, and Nailla and Silaiya urged him to associate the work with the name of Nanna. The poet acceded to the request and began the story. In the prasasti that we find at the end of the work, besides the usual information about his parentage the poet records something that has not been told anywhere else. He tells us here that his parents were at first devotees of Siva, but “they had their ears filled by the ambrosia of the teacher's words and so they died by the Jaina form of renunciation." We have here, no doubt, the mention of the conversion of Puspadanta's parents from Saivism to Jainism.
3. THE POET'S PATRONS Puspadanta has, in all his works, profusely eulogised his patrons. In the Mahapurāna he tells us that when he reached Manyakheta he was received with great honour by Bharata, the king's minister who kept him in his own house aud induced him to write poetry. The Mahapurāna is dedicated to him as in the colophon of each Sandbi we are told that the work was Mahābhavva-Bharaha-anumannia, approved by the noble Bharata. Bharata was a Brahmin of Kaundinya Gotra His father's name was Aiyana or Annaiya, mother's Sridevi :and wife's Kundavva or Kanakadevi. He had seven sons, Devalla, Bhogalla, Nanna, Sohana, Gunavarma, Dangaiya and Santaiya. Of these Nanna succeeded his father in office either because his elder brothers died premature or because of his superior talents. Two works, Jasaharacariu and Nayakumarcariu are dedicated to him, the former being called Nanna-kannaharana, an ornament to the ears of Nanna, and the latter Nanna.
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NAYAKUMARACARIU.
nāmānkita, stamped with the name of Nanna. He has been highly eulogised at the beginning of the work and in the ending prasasti. One of ois adjectives, Vicchinna-Sarāsai-bandhava' seems to me to suggest that Nanna took particular interest in the revival of Prakrit poetry which was going out of use as we know that almost all of the Jaina authors who flourished immediately before Puspadanta, for example Jinasena, Gunabhadra and Somadeva, wrote in Sanskrit Of the other brothers of Nanna, Sohana and Gunavarma or Gunadharma, while yet young, had a hand in inducing the poet to compose the Nayakumaracariu, and Dangaiya is mentioned in the prasasti. The office of minister. ship was hereditory in the family but there seems to have been an interruption just before Bharata who is said to have restored the family to the position which it had lost. In the verse prefixed to the second chapter of Jasa haracariu, mention is made of Nanna's sons. Thus in Puspadanta's works we find mention of the four generations of this illustrious family associated with the ruling dynasty of Manyakheta during the tenth century.
4. THE STORY IN BRIEF The story of Nagakumara is briefly as follows :
Jayandhara was the king of Kanakapura in the Magadha country, From his first wife Visalanetra he had a son named Srîd hara. He later on married Prthvidevi, the princess of Girinagara, from whom he got another son. While yet a baby, he inadvertantly fell into a well where he was protected by a Naga who adopted him, gave him the name of Nagakumari and educated him. He then returned to his father and married two dancing girls, Ktnnari and Manohari. He subdued a vicious horse and a ferocious elephant which had defied the attempts of his elder brother at subjugation. His growing power made his elder brother jealous of him and he tried to remove him out of his way altogether. The attempt made by Sridhara on his life fortunately failed owing to the presence, as his body-guard, of Vyala, a prince of Mathura who had become his friend and attendant. In order to avoid a fratricidal war between his sons Jayandhara ordered Nagakumara to go out of the realm and come back only when called in. So Nayakumara quited the realm accompanied by his two wives and his friend Vyāla.
The period of exile was full of adventures and unfailing good luck for Nugakumara. He went to Mathura and compelled the king-regent to release the princess of Kanyakubja whom he had imprisoned. He went to Kasmira and won the hand of the princess by his skill in luteplaying. He went to the Ramyaka forest where he acquired many
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Vidyag and a great fortune from the Asura settlements. He then went to Girisi hhara and married the daughter of the chief called Vanaraja. He restored the latter to his parental throne of Pundravardhana from where his anscestors had been ousted by the coparcenars. Proceeding to the Urjayanta mountain he contracted the friendship of the king of Antarapura with whom he then went to Girinagara to help the king against the attack of Candapradyota, king of Sindhu. He exhibited extraordinary valour in the battle that followed and the king of Girinagara, recognising in him his sister's son, married his daughter to him, He then worshipped the Jina on the Urjayanta mountain.'
At this stage, his help was solicited by Abhicandra, king of Gajapura against Vidyadhara Sukantha who had killed his elder brother Subhachndra of Kausambi and captured his seven daughters. Chivalrously responding to the call, Nayakumara immediately went to Alamghanagara and rescued the princesses by slaying the Vidygdhara. He then went to Gajapura where he married the seven princesses as well as the daughter of Abhicandra. While staying here, Mahavyala, the elder brother of Vyala brought to him the news that the princess of Ujjaini did not like any man. He proceeded to Ujjaini and won the heart and the hand of the princess. He then went to Kiskhinda-Malaya and won the hand of the Meghapura princess by exhibiting his skill in the art of playing upon the Mirdanga. He then heard about some wonders in the Toyávali island where Vidyadhara Pavanavega had murdered the king of Bhūmitilaka and had captured his five hundred daughters whom he was harrassing because they would not marry their father's murderer. Nagakumara went to the island along with his comrades by the help of the Vidya and slew Pavanavega, rescued the princesses and married them all.
He then came to the Pandya capital, thence to Dantipura in the
country where he married the daughter of king Candragupta, and then to Tribhuvanatilaka where he married Lakshmimati the daughter of the chief Vijayandhara. His latest bride won his affections 80 deeply that he inquired of sage Pihitāśrava as to its cause. The latter narrated the events of his past life when he was the son of a merchant in Vitasokapura and died in the observance of the fast of Sri-Panchmi. All his personal charms and prowess in the present life were pointed out by the sage to be due to that religious fast and that his wife Lakshamimati was no other than his wife of the former birth.
At this stage minister Nayandhara arrived from home and Nāgakumãra returned to Kanakapura where he was crowned king by his own father.
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Sridhara became a recluse through sheer disgust and his parents also retired for ascetic life, Nagakumara ruled the earth for a long time. He then handed down the throne to his son Devakumāra and himself devoting to the religious life of a Digambara ultimately attained salvation.
5. THE POETRY OF NAYAKUMARACARIU. In the introductory part of his Mahapurāna, Pusparlant says that he had seen nothing of the works of Akalanka, Kapila, Kanacara, Patanjali Vyåsa, Bhāga, Kalidasa, Svayambhū, Sri-Harsa, Băņa, Rudrața, Nyasa kara, Pingala and many others. But he has completely belied himself in his works. I shall here confine myself to the present work alone to show that its author was familiar not only with the Hindu, Buddhist and Jaina religion, philosophy and mythology but with also all those branches of technical literature a knowledge of which formed a necessary part of the equipment of an accomplished poet in ancient India.
As might be expected, the poet shows a thorough grasp of the tenets of the Jaina faith to which he turns frequently but which he has particularly expounded twice (!V, 2.4; IX, 12-14). Once (IX, 5, 5) we find mention of the two questions, namely, wearing clothes and eating food during the stage of omniscience, round which ranges a long controversy between the Digambaras and the Svetambaras. Various doctrines and beliefs of the Hindu and Buddhist religions have been mentioned and commented upon in seven passages (5 to 11) of chapter nine. Systems of philosophy such as Samkhya, Mimasa, Kanikavada Sunyavada and Isvaravada and some of their founders such as Kapila, Aksapado Kanacara and Sugata are named. Even the materialist school of Bịhaspati has not been overlooked.
For poetic embellishment the author has drawn considerably upon Hindu mythology contained in the Puranas. Brahmā has been called the lotus-born and Rudra or Siva figures with his consort Parvati, his three eyes, his trident, his bowl and his garland of skulls. The stories of his burning of cupid and cutting off the head Brahmă also come in for review. Similarly, Visuu appears with his consort Lakshmi and the cowherd maids (Gopis), and his lifting of the Govardhana mountain and slaying of Madhu and Sisupala are familiar events to the poet. The lifting of the earth by the boar, the churning of the ocean by the gods and the earth being supported on the hood of a serpent are also within his knowledge. Other gods, such as Indra and his consort Paulomi, Yama Vaivasvata and Kubera or Dhanapala find frequent mention, while Bihaspati's learning and his defeat by his rival, Rambhas personal charms and Cupid's flower-arrows have received the poet's recognition.
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For the same purpose, the Mahabharat and the Ramayana have been freely drawn upon. The five fiery Pandavas and their destruction of the Kaurava forces, Arjuna's going to Drona for instructions and his enmity with Karna, the liberality of the latter and his fight against his own brothers, the purity of the character of Bhisma and his turning away from the battlefield, the righteousness of Yudhisthira and his troubles of exile, and Vrkodara with his mace serve the poet in his similes and metaphors. He mentions Arjuna as Nara and Karna as Ravinandana which shows that he was not deriving his knowledge of the Bharata story exclusively from the Jaina books. He mentions Rama and Sita as ideal man and woman, Sugriva and Hanumat as waiting upon Ram and Hanumat's loyalty for his master though he was a monkey, and Ravana's fight with the armies of gods. His allusion to the death of Ravana at the hands of Laksamana is clearly derived from the Jaina Padma Purana, but his probable reference to Vasistha's falling in to trouble for his hospitality. to Visvamitra can be from no where else than Valmiki's Ramayana.
The poet's reference to three buddhis, three saktis, pincanga mantra, arisaḍvarga, seven vyasanas and seven rajyangas shows his knowledge of works on state-craft such as Kamanda kiya Nitisära and Kautilya Arthasastra.
Some of the poet's similes are derived from the stellar region, for example, his pun on kumbha as a water jar and the constellation aquarius or the elephant's temple and the constellation in union with Saturn, on hasta as the elephant's trunk and the constellation carvus in union with the moon. He also speaks of the sun being eclipsed by Rahu and of yuti, that is, confluence of planets, as auspicious.
The description of the limbs of Nagakumara's body is in accordance with arahamihira's description of Mahapurusalaksana, and the mention of the various fine and useful arts and the handling of amorous situations in various parts of the book presuppose a knowledge of works on erotics such as Va'sayana's Kamasutra.
Turning now to the poetic qualities of the work, we find that it is full of beautiful similes and metaphors drawn from the whole range of Aryan mythology and history, and frequently and more effectively from the poet's own observation of nature and human experience. The descriprion of the Magadha country and the town of Rajagrha, of Prthvidevi as a bride, of the march of armies, their encampment and battle scenes, is atonce beautiful and fascinating. The poet is particularly fond of yamaka and sleșa some striking examples of which are found in the description of the women of Rajagrha going to worship the Jina, of the
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NAYAKUMARACARIU,
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vicious horse, of the feast given by Vanaraja, of the resolve of Arivarma's warriors, of the arrows of Sukantha and those of Nagakumara, of the bunyan tree and of the water jars used for the coronation. These and many other passages exercise the mind as well as entertain it by exhibiting all the elegance and ornamentation of artificial poetry. In fact the work, as a whole, is teeming with sweet alliterations, appropriate and striking paronomasia and delightful fancies. These the poet has well succeeded in combining with swift and easy narrative. The story is meant to illustrate the fruit of a religious fast but it has been told in the grand manner of a kāvya. The poet has rightly invoked the goddess Speech" Moving in the mention of a mahākavya, resplendent with her double ornaments, taking soft, sportive padas with multifold blandishments and feelings, giving delight by commendable sense, combining all arts and sciences and exalted characterstics, moving by the broad metreroad, bearing the ten qualities, sprinkled over with the nine sentiments and beautified by the three vigrahas." By mentioning the ten prānas the 'poet has revealed his acquaintence with the works of Bhamaha and Daodi in the body of the work the poet, by means of some stray similes, has told us what he considered to be the essentials of good poetry. A great poet would compose a sentimental kavya in mātrā metre, a good kāvya requires a choice of brilliant forms and phrases, a good poet pays attention to the style of language, a poet graces himself by means of a story well told and shorn of ornamentation is the story of · a quack poet.'
The conclusion to which we are led by these references is that the poet's statement that he knew nothing of the works of the prominent writers of yore is a mere modesty as also his statement in the present work that he was unable to describe things being a dull poet, and that his titles of inahákavi, vagesvari.devi-niketa and kavya-pisāca stand amply justified. *
* This work has been published with an exhausti ve introduction, glossary, indices and notes as the first volume of the Devendrakirti Jaina Series, Karanja.
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श्रीजैनसिद्धान्त-भास्कर के नियम।
१ यह पत्र तीन तीन महीने पर प्रकाशित हुआ करेगा। २ सर्वसाधारण के लिये डाक व्यय-सहित इसका भारत में वार्षिक मूल्य ४) रुपया और विदेश के लिये ६॥) रुपया है, किन्तु राजा महाराजाओं के सम्मानार्थ १००) रुपया रहेगा। प्रतिकिरण का मूल्य १) रुपया है। बिना अग्रिम मूल्य के प्रायः यह पत्र नहीं भेजा जा सकता। इसकी पुरानी प्रतियाँ देने के लिये "भवन' बाध्य नहीं होगा। यदि पुरानी प्रति मिलेगो भी तो उसका मूल्य कुछ अधिक लिया जायगा।
३ यदि किसी को पता बदलवाना हो तो वे सम्पादक जैनसिद्धान्त भवन आरा से पत्र व्यवहार कर ठीक कर लेवें।
४ यदि नियमित तिथि पर पाठकों के यहां "भास्कर" नहीं पहुंचे तो वे अपने यहां के डाकखाने में तलाश कर हमें सूचना दें। बाद हम डाकखाने में इसकी पूरी खोज कर के ठीक कर देंगे।
५ लेख, समालोचना के लिये पुस्तक, बदले के पत्र, मूल्य और प्रबन्ध सम्बन्धी पत्र सम्पादक "श्रीजैन-सिद्धान्त-भास्कर" आरा के पते से आना चाहिये।
६ किसी लेख के प्रकाशित करने वा न करने तथा लौटाने वा नहीं लौटाने का पूर्ण अधिकार सम्पादक को है। यदि कोई लेख सम्पादक लौटाना चाहें तो उनका डाक व्यय और रजिष्टरी का खर्च लेखक को देना पड़ेगा। अन्यथा लौटाने के लिये सम्पादक वाध्य नहीं होगा।
७ अधूरे लेख नहीं लिये जायंगे। स्थान के अनुसार लेख एक वा अधिक किरणों में भी प्रकाशित होते रहेंगे।
८ इस पत्र में ऐतिहासिक, साहित्यिक एवं पुरातत्व-सम्बन्धी लेखों के सिवा राजतिक आदि विषयों को चर्चा तक भी नहीं रहेगी। , पत्र-व्यवहार "जैन-सिद्धान्त भवन आरा" के पते से करना चाहिये ।
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आरा जैन-सिद्धान्त-भवा की प्रकाशित पुस्तकें
(२) मुनिसुव्रतचरित्र, संस्कृत भाषा-टीका सहित .... (२) शानप्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्र ० स० .... (३) जैन-सिद्धान्तभास्कर हम भाग की म किरण... ...
, २य तथा ३य सम्मिलित किरणें ... .. १) (४) भवन के संगृहीत संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी शास्त्रों की पुरानी सूची .॥) (५) भवन की संगृहीत अंग्रेजी पुस्तकों की नयी सूची .... .
प्राप्ति-स्थान - जैन-सिद्धान्त-भवन, आरा ( बिहार ) ।
प्रकाशक तथा मुद्रक-बार देवेन्द्रकिशोर जैन,
श्रीसरस्वती ग्रिण्टि वर्कस, आरा ।
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Jain Antiquary
An Anglo-Hindi Quarterly Journal.
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श्रीजैनसिद्धान्त-भास्कर के नियम।
१ जैन सिद्धान्त भास्कर अङ्गरेजो हिन्दी मिश्रित त्रैमासिक पत्र है, जो वर्ष में जून, सितम्बर,
दिसम्बर और मार्च में चार भागों में प्रकाशित होता है। २ इसका वार्षिक चन्दा देशके लिये ४) रुपये और विदेश के लिये डाक व्यय लेकर
४॥) है, जो पेशगी लिया जाता हैं। १) पहले भेज कर ही नमूने की कापी मंगाने
में सुविधा होगी। ३ केवल साहित्य-संबंधी तथा अन्य भद्र विज्ञापन ही प्रकाशनार्थ स्वीकृत होंगे। मैनेजर,
जैन सिद्धान्त-भास्कर, आरा को पत्र भेजकर दर का ठीक पता लगा सकते हैं;
मनीआर्डर के रुपये भी उन्हीं के पास भेजने होंगे। ४ पते में हेर-फेर को सूचना भी तुरंत उन्हीं को देनी चाहिये। ५ प्रकाशित होने की तारीख से दो सप्ताह के भीतर यदि "भास्कर" नहीं प्राप्त हो, तो
- इसकी सूचना जल्द आफिस को देनी चाहिये। ६ इस पत्र में अत्यन्त प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल तक के जैन इतिहास, भूगोल, _ शिल्प, पुरा-तत्व, मूर्ति विज्ञान, शिला-लेख, मुद्रा-विज्ञान, धर्म, साहित्य, दर्शन, मानव
जाति-तत्त्व, प्रभृति से संबंध रखनेवाले विषयों का ही समावेश रहेगा। ७ लेख, टिप्पणी, समालोचना-यह सभी सुन्दर और स्पष्ट लिपि में लिखकर सम्पादक,
श्रीजैन सिद्धान्त-भास्कर, आरा के पते से आने चाहिये। परिवर्तन के पत्र भी इसी
पते से आने चाहिये। ८ किसी लेख, टिप्पणो आदि को पूर्णतः अथवा अंशतः स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करने
का अधिकार सम्पादक मण्डल को होगा। . ६ अस्वीकृत लेख लेखकों के पास बिना डाक-व्यय भेजे हुए नहीं लौटाये जाते। १० समालोचनार्थ प्रत्येक पुस्तक की दो प्रतियाँ "भास्कर" आफिस, आरा के पते से भेजनी
चाहिये। ११ इस पत्र के सम्पादक निम्न लिखित सज्जन हैं जो अवैतनिक रूप से केवल मात्र जैन-तत्त्व के उन्नति और उत्थान के अभिप्राय से कार्य करते हैं :
प्रोफेसर हीरालाल, एम.ए., एल.एल.बी. प्रोफेसर ए. एन. उपाध्ये, एम.ए. बाबू कामता प्रसाद, एम.आर.ए.एस. पण्डित के. भुजबली शास्त्री
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(श्रीजैन-सिद्धान्त-भवन पारा का मुख-पत्र)
जैन-सिद्धान्त-भास्कर
- अर्थात् प्राचीन जैन-इतिहास, साहित्य एवं शोध-सम्बन्धी त्रैमासिक पत्र
___ भाग २]
[किरण २
. सम्पादक-मण्डल प्रोफेसर हीरालाल, एम. ए., एल.एल. बी. प्रोफेसर ए० एन० उपाध्ये, एम.ए. बाबू कामता प्रसाद एम. श्रार. ए. एस. पण्डित के० भुजबली शास्त्री
जैन सिद्धान्त-भवन पारा-द्वारा प्रकाशित
भारत में)
विदेश में
)
एक प्रति का )
विक्रम सम्बत् १६६२
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विषय
(१) चन्द्रगुप्त - कविता [ श्रीयुत महेशचन्द्र एम० ए० |
(२) जैनपुरातत्त्व [ श्रीयुत बाबू कामता प्रसाद जैन ]
(३) विदुषी पम्पा देवी [श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री ]
(४) बिजोलिया के शिलालेख [मुनि हिमांशु विजय, न्याय- काव्यतीर्थं ] ...
विषय-सूची
हिन्दी-विभाग-
...
প
(१)
प्रशस्ति संग्रह [ श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्रो ]
(२) प्रतिमा - लेख संग्रह [श्रीयुत बाबू कामता प्रसाद जैन ]
(३) वैद्यसार [श्रीयुत सत्यन्धर आयुर्वेदाचार्य ]
...
ग्रन्थमाला - विभाग —
...
(५) संस्कृत में दूतकाव्य - साहित्य का निकास और विकास [श्रीयुत चिन्ताहरण चक्रवर्ती एम०ए० ]
(६) प्रमाणनयतत्त्वाला कालङ्कार की समीक्षा [श्रीयुत पं० वंशीधर व्याकरणाचार्यं ]
(७) कविवर श्रीजिनसेनाचार्य और पाश्वभ्युदय [श्रीयुत त्रिपाठी भैरवदयालु शास्त्री, बी०ए० ] ७५
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अंग्रेजी-विभाग-
(1) WHO WAS THE FOUNDER OE JAINISM ? [B. Kamata Prasad Jain] (2) MATHEMATICS OF NEMICHTNDRA [Bibhutibhushana Dutta] (3) OPINIONS
(4) SELECT CONTRIBUTIONS TO ORIENTAL JOURNALS
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॥ श्रीजिनाय नमः॥
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THE JAINA ANTIQUARY. जैनपुरातत्व और इतिहास-विषयक त्रैमासिक पत्र
भाग २
सितम्बर १९३५ । भाद्रपद वीर नि० २४६१
किरण २
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चन्द्रगुप्त
(ले०-श्री महेश चन्द्र प्रसाद, एम.ए.) पाहर में थे सूर्य सम, भीतर चन्द्र समान । गहन-ज्ञान-गरिमा रही, तुम में गुप्त सुजान ! ॥१॥ घर तज दक्षिण को गये, षट् रिपु हनने हेतु । रामचन्द्र जी ज्यों गये, वध-हित रावण-केतु ॥२॥ त्याग प्राज्य साम्राज्य को, अनुपम भोग-विलास। परम प्रोच्च प्रासाद को, पर्वत किया निवास ॥३॥ पर्वत जो सबके लिए, कणवत् तुमको तौन । दृढ़ता है जिसमें उसे, कठिन वस्तु है कौन ? ॥४॥
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भास्कर
[भाग २
की सेवा गुरु-वर्य की, दुरा सु-गुरु ऐश्वर्य । सूर्य-चन्द्र-कुल-चन्द्र भी, चन्द्र ! भरित आश्चर्य ॥५॥ गिरिवर पर यह है नहीं, तव पदाङ्क ऋषिराज !। यह पदाङ्क कलिराज की, प्रबल पीठ पर राज ! ॥६॥ युद्ध-वोर जैसे रहे, धर्म-वीर त्यों तात ।। बाहर-भीतर अखिल:अरि के सर रक्खी लात ॥७॥ ग्रीक-राज-दुहिता हुई, दयिता तव बल देख। ' श्रद्धा-सुरसरिता बनी, वनिता निश्छल पेख ॥८॥ जग को जीत महीप जन, करें स्वराज्य प्रसार । निज को जीत अजीत प्रभु ! किया बोध विस्तार ॥६॥ महा मही के मोह को, मार, टार जंजाल । किया स्नेह शुचि शून्य से, अकथ, अलौकिक चाल ॥१०॥ समझा स्वामी ने सकल, शुभ शरीर-विज्ञान । अवनी अवनिप अन्य जो, प्रायः परम अ-जान ॥११॥ ले मृदु जीवन को अहह ! किया सिन्धु ने क्षार । रखा रसातल में सदा, बना उसे निस्सार ॥१२॥ तुमने जीवन प्रहण कर, किया मृदुलतागार । बचा रसातल-गमन से, लहा जन्म का सार.॥१३॥ नयनानन्द-द चन्द बस, दिन में मन्द मलीन ।
आत्मानन्द-द चन्द ! तव, नित्य प्रकाश प्रवीण !॥१४॥ धन्य जनेन्द्र ! जिनेन्द्र-जन ! धन्य ज्ञान गुण-केन्द्र ।। त्यागे असु उपवास-व्रत, सकुचित किया सुरेन्द्र ॥१५॥ मौर्य ! और्ज ओ सौर्य तव, सिमटे सवानिज बीच । तुधा मार संसार में, हुए अमर अरि-मीच !॥१६॥ बाहुबली जी प्रम से, आश्रम को तव नव्य । कबसे देख रहे खड़े, गड़े भाव में भव्य !॥१७॥ इस प्रपंच के पित्त से, पीत हुआ यह चित्त । लख न सके तव शुभ्रता, व्याप विषमता-वित्त ॥१८॥ सुख-निधान नित मान हम, करें पान संसार । दो सु-दृष्टि जिसमें इसे, जानें दुख-भंडार ॥१६॥ हवा लगी न, जगी नहीं, यह मम मानस-धूर । लगे हवा ! यह जग उठे ! हे वैखानस-सूर ! ॥२०॥
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जैन-पुरातत्त्व
(ले०–श्रीयुत बाबू कामता प्रसाद जैन, एम० आर० ए० एस०)
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परातत्व' कहते हैं प्राचीन वार्ता विज्ञान को। यह वह विज्ञान है जिसमें अतीत
७ काल का सारा ज्ञान गर्मित है और सच पूछिये तो वही पूर्ण पुरातत्त्वज्ञ हो सकता है जो अतीतकाल को प्रत्येक घटना का ठीक ठीक ज्ञान हमें करा सके। यह सामर्थ्य आजकल के साधारण मनुष्यों में नहीं है। एक जमाना था कि जब यहां पर ऐसे 'पुरातत्त्वज्ञ' मौजद थे जो वर्तमान और भविष्यत्वार्ता के साथ साथ भूतकाल की घटनाओं का भी पूरा ज्ञान एक साथ करा सकते थे। उन्होंने मानवी कमजोरियों पर विजय प्राप्त कर सर्वोत्कृष्ट ज्ञान-सर्वज्ञता प्राप्त की थी और उसी के बल वह अतीत का ज्ञान अथवा यों कहिये पुरातत्व का परिचय पूरा पूरा करा सकते थे। वीर-विजयी होने के कारण ही वह 'जिन' कहलाते थे और संसार में पूज्य दृष्टि से देखे जाते थे। सिन्धुदेश के प्राचीन निवासी उन्हीं 'जिन्' की विनय करते थे, यह बात आज वहाँ के पुरातत्त्व से स्पष्ट है । बौद्ध साहित्य भी 'जिन्' महावीर को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी प्रकट करता है।। इन ऐतिहासिक उल्लेखों अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो प्रत्यक्षप्रमाणों से आज से लगभग दो-दाई हजार वर्ष और उससे भी पहले एक सर्वज्ञ 'पुरातत्त्वज्ञ' का अस्तित्व यहां प्रमाणित होता है। किन्तु उपरान्त वह विशेषता-सर्वज्ञ होने की कला–यहां के अयोग्य मनुष्यों को नसीब न रही। वह उनके सीमित ज्ञान और परिमित शक्ति के बाहर की वस्तु हो गई। फलतः पुरातत्त्व के वेत्ता भी आज पूरे काबिल नहीं मिलते। जो हैं वह अपनी अपनी दृष्टि
और अपने अपने ज्ञान के अनुकूल उसकी उपासना कर रहे हैं और अपने आविष्कारों और खोजों से दुनियां को चकित कर रहे हैं। किन्तु सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जिस मत में सबसे ज्यादा पूर्ण-विज्ञ 'पुरातत्त्वज्ञ' हुये, उसी में आज एक भी साधारण-सा पुरातत्त्वज्ञ देखने को नहीं मिलता। मेरा मतलब जैनमत से है। 'जिन' भगवान का बताया हुआ मत जिनमत या जैन मत है। और उस मत-सम्बन्धी प्राचीन वार्ता को प्रकट करनेवाले जो भी साधन और सामग्री हो, वह सब "जैन-पुरातत्त्व" है। उसमें जैन
ॐ इन्डियन हिस्टॉरीकल क्वार्टी भा० ८ अंक २ और माडर्नरिन्यू, अगस्त १९३२ देखो। + मज्झिमनिकाय ११२३८ व १२-६३; अंगुत्तरनिकाय ३।७४/इत्यादि ।
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भास्कर
[भाग २
साहित्य, जैनकला, जैनध्वंसावशेष, जैन-शिलालेख, जैनमुद्रा, जैन-तीर्थ इत्यादि सब ही का समावेश हो जाता है। किन्तु इस "जैनपुरातत्त्व" के वास्तविक ज्ञानी नज़र नहीं आते। जैनसाहित्य के मर्मी सर्वाङ्ग विद्वान् ऐसा कोई नहीं जिसने सारे उपलब्ध साहित्य का मथन किया हो और 'दूध का दूध और पानी का पानी' करके उसका सच्चा निखरा हुआ रूप जगत के सामने रक्खा हो। आज एक नहीं अनेक सरस्वती-भाण्डार अछूते पड़े हैं--- उनमें न जाने कितने अमूल्य ग्रन्थ-रत्न छुपे हुये हैं। उनको प्रकाश में लानेवाले जितने चाहिये उतने नहीं हैं। धन्यवाद है श्रीजैकोबी-सदृश पाश्चात्य विद्वानों को जिन्होंने दुनियां में जैनसाहित्य का प्रकाश फैलाया है। किन्तु सोचिये तो एक अजैन और वह भी विदेशी आपके धार्मिक साहित्य का मूल्य क्या आँक सकेगा ? कैसे वह जैन और अजैन प्राचीन कीर्तियों की ठीक-ठीक भेदविवक्षा कर सकेगा ? कैसे वह मानेगा कि भारत के बाहर भी जैनपुरातत्त्व के चिह्न मिल सकते हैं ? वह तो जानता और मानता है कि जैनधर्म का प्रचार भ० पार्श्वनाथ के समय से हुआ है और वह भारत के बाहर नहीं पहुंचा है। उसे एक आस्तिक जैनी की भांति यह कैसे विश्वास हो कि एक समय सारे भूमंडल पर जैन-धर्म व्याप्त था। धर्मविज्ञान के प्रथम प्रचारक तीर्थकर भगवान ही थे। जैन चिह्नों का, वर्तमान की ज्ञात और आगे ज्ञात होनेवाली सारी दुनियां में, मिलना असंभव नहीं है। जम्बूद्वीप में अनेक कृत्रिम और अकृत्रिम जैन कीर्तियों का अस्तित्व जैनशास्त्र बतलाते हैं। संसार में उपलब्ध पुरातत्त्व का जैनदृष्टि से यदि अवलोकन किया जाय तो उपर्युक्त व्याख्या सत्य प्रमाणित हो सकती है। जरा सोचिये, क्या भारत में ऐसी गलतियां नहीं हुई कि जिनमें जैन-कीर्तियां बौद्धादि की बता दी गई? जैनसम्राट् खारवेल और उनका प्रसिद्ध शिलालेख एक समय बौद्धाम्नाय के माने जाते थे। विद्वानों का यह भी खयाल था कि जैनस्तूप होते ही नहीं; परन्तु मथुरा के पुरातत्व ने इस धारणा को गलत साबित कर दिया। अब भी विद्वानों की यह धारणा है कि जैनों में मूर्ति बनाने का रिवाज बहुत प्राचीन नहीं है। उनकी इस मान्यता में कारण यह है कि जैनसाधु के लिये मूर्ति का आश्रय लेना-उसके दर्शन करना आवश्यक नहीं है ! किन्तु किसलिये आवश्यक नहीं है ? इसका ठीक-सा उत्तर उनके पास नहीं है, क्योंकि यह जैनों की मूर्ति-पूजा के उद्देश्य से ही अनभिज्ञ हैं। जैनों की मूर्तिपूजा आदर्शपूजा है-वह पत्थर की पूजा नहीं है। वीतरागविज्ञानता को प्राप्त करने के लिये एक गृहस्थ मुमुक्षु वैसी ही मूर्तियों से उसकी शिक्षा प्रहण करता है। साधु इस शिक्षा को पार कर जाता है इसलिये उसके लिये मूर्ति का दर्शन करना आवश्यक नहीं है परन्तु उसके लिये उसका निषेध भी नहीं है। अब भला कहिये, यह कैसे माना जाय कि एक अत्यन्त प्राचीनकाल में जैनमूर्तियां नहीं थीं). यह
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किरण २ ]
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सच है कि जैनेतर पुरातत्त्वज्ञों ने भरसक कोशिश जेनकीर्तियों को प्रकाश में लाने की की है और उन्हीं के अध्यवसाय का यह फल है कि जैनपुरातत्त्व किञ्चित् प्रकाश में आया है और इसके लिये जैनी उनके चिरऋणी रहेंगे ! परन्तु जैनदृष्टि से जैन पुरातत्त्व का ठीक विश्लेषण करना और उसको पहचानना एक जैन विद्वान् का ही काम है। जहाँ जैन विद्वान् नहीं पहुँच सकते और जिस बात को वह नहीं समझ सकते उसको एक जैन पुरातत्त्वज्ञ सहज में समझ सकता है और उसकी गम्य भी विशेष है। कौशाम्बी जैसे स्थान का कोई भी ठीक ठीक पता के समको खुदाई हुये बिना नहीं चल सकता । फिर भी यदि वहां से आई हुई और इलाहाबाद के जैनमंदिरों में विराजमान मूर्तियों के लेखों का अध्ययन किया जाय तो इस विषय में बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही जैनमूर्तियों की आकृति पर भी नया प्रकाश पड़ सकता है। जैन पुरातत्त्व का अध्ययन करके एक जैन बहुत-सी नई और बड़े मूल्य की बातें जगत को भेंट कर सकता है । किन्तु जैनों में इस विषय की ओर रुचि ही नहीं है । आजसे लगभग सोलह वर्ष पहले स्वर्गीय सर विन्सेन्ट स्मिथ ने जैनों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया था और एक बड़ा फण्ड एकत्र करके एक " जैन - पुरातत्त्व समिति” स्थापित करने का प्रस्ताव जैन समाज के सामने रक्खा था ! किन्तु जैनों पर उसका कुछ भी असर न पड़ा। इस अवस्था में सबसे पहली आवश्यकता जैनपुरातत्त्व के उद्धार के लिये यह है कि जैनों में पुरातत्त्व के प्रति रुचि पैदा की जाय और उन्हें उसका महत्त्व दरसाया जाय। साथ ही जगत के विद्वानों के समक्ष जैनदृष्टि से पुरातत्त्व को दरसाने की भी आवश्यकता है । इनके द्वारा जो भी जैन पुरातत्त्वविषयक श्रेष्ठ कार्य होते हैं उनका परिचय जैनों को कराया जाय । यह सब कार्य बिना एकसंगठित शक्ति के नहीं हो सकता। इसी आवश्यकता को महसूस करके 'श्रीजैन सिद्धान्तभवन' आरा के सुयोग्य संवालकों ने प्रस्तुत त्रैमासिक पत्र का प्रकाशित किया है । इसका उद्द ेश उपर्युक्त कार्य की सिद्धि करना है और अपने पृष्ठों द्वारा प्राचीन जैन-वार्ताविज्ञान अथवा पुरातत्त्व का यथासंभव प्रकाश करना है। उसका प्रत्येक शब्द ज्ञान रत्न की तुलना करे और सच्चे पुरातत्वज्ञ 'जिन' के 'विज्ञान' का प्रभाव दुनियां में फैलावें, यही हमारी हार्दिक भावना है । वह यथानाम ठोक "जैन सिद्धान्त- भास्कर" सिद्ध हो, यही कामना है। साथ ही यह वाञ्छा है कि जैनी शीघ्र ही जैन - पुरातत्त्व के उद्धार करने के महत्त्व को हृदयङ्गम करलें और एक बड़ा-सा फण्ड स्थापित करके जैन- पुरातत्त्वज्ञ एक नहीं अनेक इस भूतल पर घूमते हुए जैनकीर्तियों का उद्धार करनेवाले पैदा कर दें । “जैनभास्कर" के अरुणोदय में इन भावनाओं की सफलता के लिये हम सच्चे पुरातत्त्वज्ञ श्री जिनेन्द्र का पवित्र हृदय से स्मरण करते हैं और हमारी विनय है कि प्रत्येक जैन और
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भास्कर
[ भाग २ अजैन विद्वान् अपनी बिसात इस पुण्य-यज्ञ में हमारा साथी बने । प्रत्येक जिनेन्द्रभक्त का यह कर्तव्य है कि वह इस 'भास्कर' का स्वयं ग्राहक बने और अपने स्थान के मंदिर, सिद्धान्त-भवन और वाचनालय में इसके पहुंचाने का प्रबन्ध करें। 'भास्कर' का उदय चलतू साहित्य को सिरज कर थोड़ी देर का मनोरंजन करने के लिये नहीं हुआ है - इसका उदय स्थायी और अमूल्य साहित्य-ठोस ज्ञान को सिरजने के लिये हुआ है। क्या आप इस 'शान-भास्कर' से अपना गृह प्रकाशित नहीं करेंगे? यदि आप शान के उपासक हैं तो इसे अवश्य अपनाइये।
विदुषी पम्पा देवी
___ (ले-श्रीयुत पं० के. भुजबली शास्त्री)
प्राचीन कर्नाटक जैन विदुषियों में कन्ति को छोड़ कर उल्लेखाई अन्य किसी
प्राचीन जैन महिला का नाम उपलब्ध नहीं होता है, यह सचमुच खेद की बात है। प्राचीन साहित्यान्वेषण से यह प्रमाणित हो चुका है कि प्राक्तन जैन विद्वान् भारत की प्रायः सभी भाषाओं के साहित्य के स्तम्भ स्वरूप थे। निष्पक्षपाती सभी विद्वान् उन प्राचीन जैन विद्वानों की कीर्ति-गाथा को आज भी सहर्ष गाते हैं। ऐसी परिस्थिति में प्राचीन जैन विदुषियों की संख्या की कमी वस्तुतः अधिक खटकती है। यह जैन स्त्रीसमाज का दुर्भाग्य है। अस्तु, आज मैं एक कर्नाटक जैन विदुषी महिला का संक्षिप्त परिचय 'भास्कर' के सुज्ञ पाठकों के सामने उपस्थित करूँगा। .
इस विदुषी महिला का नाम पम्पा देवी है। इनके पूज्य पिता का नाम तेल सान्तार और माता का नाम चत्तल देवी था। सान्तार वंश का यह तैलसान्तार पोम्बुच्च में राज्यशासन करता रहा। यह सर्व विदित है कि प्राचीन काल में पोम्बुश्च एक समृद्धशाली जैन राजधानी थी। वहां पर पूर्वोक्त सान्तार वंश के अन्यान्य शासकों के द्वारा निर्मापित कई जैनस्मारक आज भी जीर्णावस्था में दृष्टिगोचर होते हैं। उल्लिखित तैल सान्तार महादानी रहा। इसीलिये यह जगदेक-दानी भी कहलाता था। इनकी धर्म-पत्नी पूर्वोक्त चत्तल देवी भी विशिष्ट जिन-भक्ता थी।
इन आदर्श दम्पतियों को श्रीवल्लभ अथवा विक्रम सान्तार नामक पुत्र तथा पम्पा देवी नामकी पुत्री थी। पम्पा देवी महापुराण की विशेष मर्मज्ञा रही। यह अनन्य पण्डिता थी इसीलिये शासनदेवी कही जाती थीं। इन्हें वाञ्चल देवी नाम की केवल एक पुत्री थी। यह वाञ्चल चालुक्य राजा तैल के सेनापति मल्लप्प की पुत्री एवं नागदेव की स्त्री
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किरण २ ]
विदुषी पम्पा देवी
अन्तिमबे के समान विशेष प्रवीण थी। प्रतिमबे भी परम जिनभक्ता थीं। इन्होंने कन्नड कवि श्रेष्ठ राजमान्य महाकवि पोन्न के शान्ति पुराण की एक हजार प्रति लिखवा कर धर्म्मार्थ वितरण किया था तथा डेढ़ हजार सुवर्ण और रत्नमयी जिन-मूर्तियों का निर्माण कराया था | कर्नाटक प्रान्त के प्राक्तन दानवीरों की श्रेणी में इस दान- चिन्ता- मणि ति का नाम अवश्य उल्लेख योग्यं है । एक दिन ग्रीष्मकाल में यह श्रवणबेलगोल स्थित बाहुबली स्वामी की सर्वाङ्गसुन्दर, लोक विख्यात मूर्ति के दर्शनार्थ वहां पर गयी थी । पर्वत पर चढ़ती हुई प्रतिमज्बे तीखी धूप से सन्तप्त हो मन में सोचने लगी कि अगर इस समय कुछ वर्षा होती तो बड़ा अच्छा होता । फलतः तत्क्षण अकस्मात् मेघ एकत्रित होकर जोरों से पानी बरसाने लगा । इस अचिन्तित आश्चर्य्यकारी घटना से अत्तिमन्बे की भक्तिद्विगुणित हुई। यह निरायास पर्वत पर चढ़ कर असीम भक्ति से बाहुबली स्वामी की पूजा कर सन्तुष्ट हुई ।
कन्नड-कवि रत्तत्त्रयों में अन्यतम सर्वमान्य महाकवि रन्न ने अपने अजित -पुराण में इस शुभ घटना का उल्लेख किया है । उल्लिखित हमारी पम्पा देवी ने 'अष्ट - विधार्चना - महाभिषेक' तथा 'चतुर्भक्ति' की रचना की है। यह बात पूर्वोक्त पोम्बुच्च के तोरण बागिलु के उत्तर स्तम्भ पर स्थित सन् १९४८ के शिलालेख से विदित होती है यह द्राविड़ - संघ, नन्दिगण, अरुङ्गलान्वय के अजित-सेन अथवा वादीभसिंह की शिष्या थीं। श्रीवादीभसिंह प्राचीन आदर्श जैन संस्कृत महाकवियों में अन्यतम हैं । । इनके 'गद्यचिन्तामणि' 'क्षत्रचूडामणि' काव्य सुप्रसिद्ध हैं । पूर्वोक्त इनकी ये कृतियां काव्योचित माधुर्य्यादि गुणों सेतप्रोत हैं । 'पदलालित्य, मनोहर शब्दसन्निवेश, सरल प्रतिपादनशैली, आश्चर्य्यकारी कल्पनाचातुर्य्य, चित्ताकर्षक धर्मोपदेश, धर्मानुकूल नीति, पुण्यपाप-संबन्धी स्वाभाविक शुभाशुभ फलों का वर्णन' प्रादि अनेक प्राञ्जल विशिष्ट गुणों से वादी सिंह के ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। इनके अजितसेन, वादीभसिंह, ओडेयरदेव ये तीन नाम उपलब्ध होते हैं। मेरा खयाल है कि इनमें से ओडेयरदेव जन्मनाम, अजितसेन दीक्षानाम और वादीभसिंह पाण्डित्योपार्जित, उपाधि है । वादीभसिंह का जन्मस्थान अज्ञात है । परन्तु इनका प्रोडेयरदेव नाम, मद्रास प्रान्त के पोलूरु ताल्लुक में स्थित समाधिस्थान, द्राविड़ संघ ये तीनों इनको तामिल प्रान्तीय प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं। इनकी प्राञ्जलकृतियों का आश्रय लेकर ही तामिल में 'जीवक - चिन्तामणि' और कन्नड में 'जीवन्धर चरिते' रचे गये हैं। पोच के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि वे वहां भी कुछ समय रहे । अतः वादीभसिंह शायद कन्नड़ भी जानते थे ।
*विशेष परिचय के लिये "दिगम्बर जैन" वर्ष २३ अंक १-२ देखें । + श्रवणबेलगोल का शिलालेख नं० ५४ (६७) देखें ।
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भास्कर
भाग २ विदित होता है कि वादीभसिंह को आदर्श महापुरुष महाराज जीवन्धर की जीवनी अधिक प्रिय थी। फलतः इनकी दोनों कृतियां तद्भव मोक्षगामी, आचार-शिरोमणि, महाप्रतापी जीवन्धर की जीवनी को चित्रित करती हैं। महाराज जीवन्धर का हेमांगद* देश वर्तमान मैसूर राज्य के अन्तर्गत था ऐसा कुछ ऐतिहासिक विद्वानों का मत है। जीवन्धर श्रीमहावीर स्वामी के समकालीन थे।
शिवमोग्ग जिलान्तर्गत पोम्बुच्च ग्राम में स्थित नं०४० के सन् १०७७ के मानस्तम्भगत शिलालेख से विदित होता है कि विक्रम सान्तार ने अजितसेन पण्डितदेव का चरण धोकर भूमि दान किया । कडूरु जिलान्तर्गत कोप्प तालूक कोप्प ग्राम में वर्तमान नं०३ सन् (लगभग) १०६० के शिलालेख से ज्ञात होता है कि महाराज मारसान्तार के वंशज.ने अपने गुरु मुनि वादीभसिंह अजितसेन की स्मृति में वहां के स्मारक को स्थापित किया। इसी प्रकार शिवमोग्ग जिला के तीर्थहल्लि ताल्लुक के नं० १९२ के सन् १९०३ के शिलालेखा से अवगत होता है कि पंचबस्ति के सामने अनन्दूर में चत्तल देवी और त्रिभुवनमल्ल सान्तारदेव ने द्राविड़संघ अरुङ्गलान्वय के अजितसेन पण्डितदेव के नाम से एक पाषाण-वैत्यालय बनवाया। इन उल्लिखित लेखों से ज्ञात होता है कि वादीभसिंह का समय ग्यारहवीं शताब्दी है। सोमदेव सूरिकृत 'यशस्तिलक-चम्पू' के द्वितीय आश्वासगत १२६ पद्य की व्याख्या में श्रीश्रुतसागर सूरि ने 'वादीभसिंहोऽपि मदीयशिष्यः श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिष्यः' सोमदेव सूरि के इस पद्य को उद्धृत कर वादीभसिंह और वादिराज को सतीर्थ बतलाया है। वादिराज ने सन् १०२५ में अपने पार्श्वनाथ-काव्य को पूर्ण किया था। अतः इससे भी वादीभसिंह का काल निर्विवाद रूप में ग्नारहवीं शताब्दी ही सिद्ध होती है।
और एक बात है, वादीभसिंह के ग्रन्थों में से अन्यतम "क्षत्रचूडामणि" के अन्त में 'राजतां राजराजोऽयं राजराजो महोदयैः। तेजसा वयसा शुरः क्षत्रचूडामणिर्गुणैः ॥ यह पद्य है। इस पद्यगत 'राजराज' शब्द अवश्य विचारणीय है। मेरा खयाल है कि यह श्लेषात्मक शब्द है। इसमें ग्रन्थकर्ता ने जीवन्धर के अतिरिक्त तत्कालीन अन्य किसी राजा का भी उल्लेख किया है। वह राजा चोलवंश का राजराज होना चाहिये। राजराज चोल का समय भी यही ग्याहरवीं शताब्दी है।
इसी अवसर पर मुझे सरस्वती भाग २६, खण्ड २ में प्रकाशित श्रीयुत शम्भुनाथ त्रिपाठी, व्याकरणाचार्य के द्वारा लिखित "महाकवि हरिचन्द्र" शीर्षक लेख को देखने का
ॐ इस विषय पर एक स्वतन्त्र लेख लिखा जायगा। (लेखक) + इन शिलालेखों के लिये "मद्रास व मैसूर प्रान्त के जैनस्मारक" देखें।
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किरण २]
विदुषी पम्पा देवी सौभाग्य प्राप्त हुभा। उसमें एक स्थान पर व्याकरणाचार्य जी ने हरिचन्द्र ने वादीसिंह से कथा नहीं ली इस बात को खुलासा करते हुए यों लिखा है-"राजकेशरी धर्मा-उपाधिधारी राजकुलोत्तंग के राज्यकाल में सेकिलर (तामिल कवि) ने "पिरियपुराणम्" प्रन्थ बनाया है। उसमें "तिरुत्तकदेवर" कविकृत "जीवकचिन्तामणि" का कुछ जिक्र हुआ है। तिरुत्तकदेवर ने अपने "जीवक-चिन्तामणि" में लिखा है कि “वादीम" के द्वारा प्रारंभ किये हुए इस ग्रन्थ के शेष भाग को हमने पूरा किया। इस नरेश का समय ग्यारहवीं ईसवी शताब्दी का उत्तरार्द्ध निश्चित है। अतः वादीभ का यही समय है।" व्याकरणाचार्य के इस समुद्धृत प्रमाण से भी मेरा उल्लिखित वादीभसिंह के समय-संबन्धी कथन और पुष्ट पड़ जाता है। परन्तु एक बात यहां पर विचारणीय है। वह यह है कि वादीभसिंह के जीवन्धर-जीवनी-विषयक दोनों प्रन्थ संस्कृत में हैं और पूर्ण हैं। तिरुत्तकदेवर का "जीवक-चिन्तामणि" तामिल में है। ऐसी दशा में तिरुत्तक देवर कैसे लिख सकते हैं किं वादीम के द्वारा प्रारंभ किये हुए इस ग्रन्थ के शेष भाग को हमने पूरा किया' । अगर तिरुत्तकदेवर का यह कथन सत्य है तो मानना पड़ेगा कि “जीवकचिन्तामणि" को वादीभ सिंह ने ही प्रारंभ किया था; पीछे इसी के शेष भाग को तिरुत्तकदेवर ने पूरा किया। इससे वादीभसिंह का जन्म स्थान भी एक प्रकार से निश्चित हो जाता है जो कि ऊपर अनुमान से सिद्ध किया गया था। - अब पाठकों को भलीभांति विदित हो गया होगा कि श्रीवादीभसिंह का समय ग्यारहवीं शताब्दी है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिये उल्लिखित प्रमाणों का उल्लेख कर इस लेख के कलेवर को बढ़ाना पड़ा। क्योंकि वादीभसिंह के कालनिर्णय के विना पम्पादेको के कालनिर्णय का कोई अन्य साधन नहीं दीखता। जब वादीभसिंह का समय ग्यारहवीं शताब्दी सिद्ध होता है तब इनकी शिष्या पम्पादेवी का समय भी लगभग यही है ऐसा मानना ही पड़ेगा।
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बिजोलिया के शिलालेख
(ले०-श्रीयुत मुनि हिमांशुविजय, न्यायकाव्यतीर्थ)
प्राकथन . मारवाड़ में बिजोलिया' गाँव से प्राध मील दूर पूर्वाग्नेय कोण में 'पार्श्वनाथ' नाम
का एक स्थान है। वहाँ पर पत्थर में अनेक लेख खुदे हुए हैं। उनकी किसी महाशय ने कॉपी की थी। उस कापी पर से श्रीयुत पं० भ्रमर शर्मा जी ने उसकी नकल की। और उसे श्रीयुत सत्यनारायणजी पंड्या शिवपुरी लाए थे। उपयुक्त समझ कर मैंने शर्मा जी की लिखित कॉपी से प्रस्तुत कॉपी लिखी है। अतः मैं दोनों को साधुवाद देता हूँ। . दूसरी कॉपीकार ने लिखा है:-इस समय 'पार्श्वनाथ' नामक जैनमंदिर में हनुमान, शिवजी और गणपति की मूर्ति स्थापित कर वैदिकों ने उसपर आधिपत्य जमायां है। मुकदमा चल रहा है। पहले यहाँ पर 'महाशाश' नामक मंत्री जैनधर्मानुयायी थे। उक्त प्रदेश में जैनियों का प्रचार और उदय बहुत बड़ा था। इतिहासज्ञों के लिए भी यह एक काम की चीज है।
उक्त शिलालेख का बहुत कुछ भाग मूल कॉपीकार के पढ़ने में साफ नहीं आया होगा इसलिए उन्होंने छोड़ दिया। दूसरी नकल करनेवाले शर्मा जी को प्रथम कॉपीकार के जितने अक्षर साफ समझ में नहीं आए उतने उन्होंने भी छोड़ दिये। और शर्माजी की कॉपी से मैंने यह कॉपी की है। मुझे जो पाठ संदिग्ध लगा वहाँ मैने (?) ऐसा चिह्न किया है। जो पाठ पढ़ने में साफ नहीं आया उसको मैंने भी ......चिह्न कर छोड़ दिया है। और बाकी शुद्ध या अशुद्ध जैसा पाठ उक्त दूसरी कॉपी में था वह मैंने यहाँ उतारा है। लेख का सम्बन्ध इतिहास के साथ होने से मूलस्थान में खुदे हुए शिलालेख से प्रस्तुत लेख शुद्ध किया जाय तो बहुत लाभ हो सकता है।
यहाँ दो शिलालेखों की कॉपी है। दूसरा प्रमाण में बड़ा है और पुरातत्त्वज्ञों के लिए भी काम का है। उसमें कई भारतीय राजा, मंत्री, श्रेष्ठी और उनके कुलों का वर्णन है। अनेक जैनमुनि और उनके संप्रदायों का उल्लेख है। जैनों के लिये-दिगम्बरों के लिये यह विशेष उपयुक्त है।
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भास्कर
श्रीचन्द्रप्रभ ( जयपुरीय कला )
यह चित्र १ किरण में प्रकाशित "जैन-मूर्त्तियाँ" लेख से सम्बद्ध
है
THE S. P. W., ARRAH.
A
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किरण २ ]
बिजोलिया के शिला-लेख इन दो के अतिरिक्त और भी लेख शर्मा जी की कॉपी में थे। 'रेवती नही का शिलालेख' इन दो से भी बड़ा था। उसमें 'उत्तमगिरि' का वर्णन है जो कि उत्तम काव्यबद्ध है। उक्त काव्य का नाम 'उत्तरपुराण' लिखा है। उसके पाँचो सर्ग उस शिलालेख (रेवती नदी के शिलालेख) में खुदे हुए हैं। उसमें “दत्त्वा कणं सुरेशे स्थितवति भवति स्मेरवक्त्वारविन्दे......” (उत्तरपुराण सर्ग १-५) पद्य है। यह पद्य वादिदेवसूरि के स्याद्वादरत्नाकर का है। आर्हतमतप्रभाकर पूना से प्रकाशित स्या० रत्नाकर के प्रथम भाग के पृष्ठ २ में यह चतुर्थ पद्य है। इससे ज्ञात होता है कि उक्त काव्य की रचना वादिदेव सूरि के काल में या उसके पश्चात् हुई है। वादिदेव सूरि का सत्ताकाल विक्रम सं० ११४३ से १२२५ तक है। उक्त तीसरे शिलालेख के अन्त में वि० सं० १२३६ फाल्गुन बदि १० लिखा है। इसके प्रारम्भ का भाग इस प्रकार है :. "ओम् नमः सर्वज्ञाय-अज्ञानतिमिरान्धानां त्रैलोकसर्वजन्तूनाम् । नेत्रमुन्मीलितं येन तं वन्दे ऋषभं प्रभुम् ॥". . ...
इसके प्रत्येक सर्ग के अन्त में "श्रीसिद्धिसूरिविरचिते उत्तमशिखरपुराणे (प्रथमः सर्गः द्वितीयः सर्गः इत्यादि )...
इस पंचसर्गात्मक खुदे हुए काव्य के कुल २६४ पद्य हैं। इसमें पार्श्वनाथ-कमठ का प्रसंग और भ० महावीर-गौतम का मनोज्ञ वर्णन है। इतिहासकों के लिये विशेष महत्त्व का नहीं होने से हमने इसकी नकल नहीं की है।
मैं आशा करता हूँ कि 'बिजोलिया' के सभी शिलालेखों के विषय में पुरातत्त्वज्ञ विशेष शोध करेंगे। .
शिलालेख स्तम्भ नं. २ ___ॐ अर्हद्भयो नमः । स्वायंभुवं चिदानन्दं स्वभावे शास्वतोदयम् । धामध्वस्ततमस्तोमममेयं महिम स्तुमः ॥॥ ध्रव्योपेतमपि व्ययोदययुतं स्वात्मक्रम........., लोकव्यापि परं यदेकमपि चानेकं च सूक्ष्मं महत्। श्रीचन्द्रामृतपूरपूर्णमपि यच्छून्यं स्वसंवेदनम् । शानाद् ग़म्यमगम्यमप्यभिमतप्राप्त्यै स्तुवे ब्रह्मतात् ॥२॥ त्वमर्कसोमोवृत.........तलेऽस्मिन् घनानमूर्तिः किमु विश्वरूपः। स्रष्टा विशिष्टार्थविभेददक्षः स पार्श्वनाथस्तनुतां श्रियं वः ॥३॥ श्रीपार्श्वनाथ क्रियतां श्रियं वो जगत्रयीनन्दितपादपद्मः॥ विलोकिता येन पदार्थसार्थः निजेन सज्ञानविलोचनेन ॥४॥ सद्वृत्ताः खलु यत्र लोकमहिता मुक्ता भवन्ति श्रियो; रत्नानामपि भद्रये सुकृतिनो यं सर्वदोपासते। सद्धर्मामृतपूरपुष्टसुमनस्स्याद्वादचन्द्रोदयाः काँक्षी सोनसनातनो विजयते श्रीमूलसंघोदधिः ॥५॥ श्रीगौतमस्यादिगणीशवंशे
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भास्कर
[भाग २ श्रीकुन्दकुन्दो हि मुनिर्बभूव । पट्टवनेकेशु (पु) गतेषु तस्माच्छ्रीधर्मचन्द्रो गणिषु प्रसिद्धः ॥६॥ भवोद्भवपरिश्रमप्रशमकेलिकौतूहली। सुधारससमः सदा जपति यद्वचः प्रक्रमः स मे मुनिमतलिका x x x x x x
विकचमल्लिकाजित्वर, प्रसृत्त्वरयशोभरो भवतु रत्नकोतिर्मुदे ॥॥ प्रसयेद्व चन्ति प्रशमनपटुः सौगतशिरस्करोटीकुट्टाककषितखरचावकिनिकरः। अहंकारस्मेरः स्मरदमनदीक्षापरिकरः। प्रभाचन्द्रो जियाजिनपतिमतांभोनिधिविधुः॥८॥ श्रीपद्मनन्दिविद्वन्विख्याता त्रिभुवनेऽपि कीर्तिस्ते। हारति हीरति हसति हरोत्तंसमनुहरति ॥६॥ ये के (एके तर्कवितर्ककर्कशधियः केचित्परं। सादसा अन्ये लक्षणलक्षणा परम............धोरेकसाराः परे। सर्वग्रन्थरहस्यधौतधिषणो (वि)ज्ञानवाचस्पतिः, क्षोणीमण्डलमण्डनं भवति हि श्रीपमनन्दिर्गुरुः ॥१०॥ श्रीमत्प्रभेन्द्रपट्टेऽस्मिन्पद्मनन्दीयतीश्वरः। तत्पट्टाम्बुधि* सेवीव शुभचन्द्रो विराजते ॥११॥ गंभीरध्वनिसुन्दरे समकरे चारित्र्यलक्ष्म्याकरे कारुण्या
मृतदेवतै गुणगणश्रेणीमणिदुस्तरे! स........."समुल्लसत् ....... मावेला कुले सागरे; पट्टे श्रीमुनिपद्मनंदि........... भेन्दुर्गणी ॥१२॥ महावृत्तैः योऽत्र विभूषितोऽपि संसक्तचेताः समितौ गरिष्ठः । तथा हि की, समलिंगकश्च श्रीहेमकीर्तिरभवद्यतीन्द्रः ॥१३॥ शिष्यायं शुभचन्द्रस्य हेमकीर्तिर्महान्सुधीः येन वाक्यामृतेनापि पोषिता भव्यपादपाः ॥१४॥ नि".""धिकेयं सकला x x x x x x
विशुद्धा श्रीहेमकीतर्यतिनः सुसिद्ध ॥ आस्तां च तावजगतीतलेऽस्मिन् यावत् स्यवो(?) चन्द्रदिवाकरौ च ॥१५॥ सं०४१८० वर्षे फोल्गुन शुद् ८ चन्द्र। .
शिला लेख नं० १ बावडी के उत्तर । चिद्रूपं सहजोदितं निरवधि ज्ञानकनिष्ठार्पितम् नित्योन्मीलितमुल्लसत्वरकलं स्यात्कारविस्फारितं। सद्युक्तं परमाद्भुतं शिवसुखानंदास्पदं शाश्वतम् नौमि स्तौमि जपामि यामि शरणं तज्ज्योतिरात्मस्थितम् ॥१॥ नास्तं गतः कुग्रहसंग्रहो वा नो तीव्रतेजा..........""वः । ..........."नैव सुदुष्टदेही पूर्वो रविस्तात्समुदो वृ वः ॥२॥ भवेच्छ्रोशान्तिः ........सा सुत्तविभवभंगी भवभृत्तां, विभो यया भाति स्फुरितनखरोचि करयुगम् । विनम्राणामेषामखिलकृतिनां मंगलमयों, स्थिरीकर्तु ललक्ष्मीमुपरचितरंगाब्रजमिव ॥३॥ नासाश्वासेन येन प्रबलबलभृतो पूरितः पांचजन्यः ।............"खरदरमोलत............."पद्मा दशैः ॥ हस्ताङ्गष्ठेन शार्ङ्गधनुरतुलबलं कृतसमारोप्य विष्णोरंगुल्या दोलितोऽयं हलभृदि वनितं तस्य नेमेस्तनामि ॥४॥ प्रांशुप्राकारकान्तात्रिदशपरिवृढव्यूहवद्धावकाशा। वाचाला केतुकोटिक्कणा मणिमसी किंकिणीभिः समन्तात् ॥ यस्य व्याख्यानभूमिमहह किमिद
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किरण २ ]
बिजोलिया के शिला-लेख
५.३
मित्याकुलाः कौतुकेन । प्रेक्षन्ते प्राणभाजः स खलु विजयतां तीर्थकृत्पार्श्वनाथः ||५|| वर्द्धतां वर्द्धमानस्य वर्द्धमानमहोदयः वर्द्धतां वर्द्धमानस्य वर्द्धमानमहोदयः ॥ ६ ॥ शारदाम् सारदाम् स्तौमि सारदानविशारदाम् । भारतों भारतीं भक्तभुक्तिमुक्तिविशारदाम् ॥७॥ निः प्रत्यूहमुपास्महे जिनपतीन्तन्त्रानपि स्वामिनः । श्रीनाभेयपुरःसरान्परकृपापीयूषपाथोनिधीन् ॥ यज्ज्योतिः परभागभाजनतया मुक्तात्मतामाश्रिताः । श्रीमन्मुक्तिनितम्बिनीस्तनतटे हारश्रियं विभ्रति ॥ ॥ भव्यानां हृदयाभिरामवसतिः सद्धर्मतः संस्थितिः । कर्मोन्मूलनसंगतिः शुभततिनिर्बाधबाधोद्धृतिः ॥ जा (जी) वानामुपकारकारणरतिः श्रेयः श्रियां संसृतिर्देयान्मे भवसंभृतिः शिवमतिर्जेने चतुर्विंशतिः ॥ ॥ श्रीचाहमानतिमीराजवंशपौर्वोप्ययौर्वोपि जडावतद्वः । विस्तोतवाननृपरंभ्रयुक्तो नो निःफलः सारतो तो ना ॥१०॥ लावण्यनिर्मलमहाज्वलितांगषष्टिच्छ्रीचलच्छुचिपरिधानचाली ॥
"गपर्वतपयोधरभारभुग्ना साकं मराजनि जनीव ततोऽपि विष्णोः ॥ ११ ॥ विप्रः श्रीवत्स गोत्रे ऽभूदहिच्छमपुरे पुरा । सामन्तोऽनन्त सामन्त पूर्णे तल्लनुपस्ततः ||१२|| तस्मात्तच्छ्रीजयराज विग्रहनृपौ श्रीचन्द्रगोपेन्द्रकौ । तस्माद्दुर्लभगूवकौशशिनृपो गूवाक सच्चन्दनौ ॥ श्रीमद्वप्पयराजविन्ध्यनृपतिः श्रीसिंहराङ्घ्रिग्रहौ । श्रीमद्द्द्लभगुन्दवाक्पतिनृपाः श्रीवीर्य रामोऽनुजः ॥१३॥ श्रीचन्द्रोऽवनिपेति राणकघरः श्रीसिंहये दूसलस्तभ्राताथ ततोऽपि वोसलनृपः श्रीराजदेवीप्रियः ॥ पृथ्वीराजनृपोऽथ तत्तनुभवो रासल्यदेवी विभुः ॥ तत्पुत्रो जयदेव इत्यविनयः सौमल्लदेवीपतिः ॥१४॥ हत्वा- - गर्मि चलाधिपयशी राजादिवीरत्रयं क्षिप्रं क्रूरकृतान्तवक्रकुहरे श्रीमार्ग दुर्दान्वितम् ॥ श्रीमत्सोल्लुणदंडनायकवरः संग्राम....... .. जीव.....वनियंत्रितः करभके ये नष्ट..... ...सात् ॥ १५॥ अर्णोराजास्थसूनुघृतहृदयहरिः सत्ववासिष्ठसीमो गांभीर्यौदार्यवर्यः समभवदपरालब्धमध्यो नदीत्सः । तश्चित्र जन्तजाद्यस्थितिरधृतमहापं कहेतुर्न मथ्यो, न श्रीभुक्तो नदीषा कररचितरतिर्न . सेव्यः ॥ १६ ॥ यद्राज्यं कुशवारणं प्रति कृतं राजांकुशेन स्वयं येनान्नैवनचित्रमेतत्पुनर्मन्यामहे तां प्रति । तच्चित्रं प्रतिभासते सुक्रातेनां निर्वाण नारायणन्यक्काराचरणेन भंगकरणं श्रीदेवराजं प्रति ॥१७॥ कुवलय विकाशकर्त्ता विग्रहराजो.......... ..चित्रं तत्तनयस्तच्चित्रं यत्र जडतीणसकलंकः ॥ १८ ॥ भादानत्त्वं चक भादानपतेः परस्य भादानः । यस्य दधत्करवाढः करालः करताल.......... ...॥१६॥ कृतान्तपथसज्जोऽभूत्सज्जनोऽसज्जनो भुवः । वैकुन्तं कुन्तपालो गामतो बैकुन्तपालकः ॥२०॥ जाबालिपुरं ज्वालापुरं कृत्ता पल्लिका पिपल्ली । दानद्वल तुभ्यं रोषानड्वलं येन शौर्येण ॥२१॥ प्रतोल्यां चवढभ्यां च येन विश्रामितं यशः । दिल्लिकाग्रहणं शान्तमौलिका लाभलं । भतः ||२२|| तज्ज्येष्टभ्रातृपुत्त्रोऽभूत्पृथ्वीराजः - पृथुपमः । तस्मदर्जित हेमांगो हेमवृक्षोऽभवत्ततः ॥२३॥
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श्रीविधर्मायतेनापि पार्श्वनाथ
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भास्कर
[भाग २
स्वयंभुवे। दत्तं मौराक्षरीग्रामं मुक्तिभुक्त्योश्च हेतुना ॥२४॥ स्वर्णादिदाननिवहैर्दशभिमहद्भि, तोलाचयै नगरदानपरैश्च विप्राः। येनार्चिताश्चतुरभूपतिवस्तुपालचाक्रम्य चाहमनसिद्धिकरीगृहीतः ॥२५॥ सौमेश्वरलब्धराज्यस्ततः सौमेश्वरो नृपः । सौमेश्वरनुतो यस्माद्यतः सोमेश्वरो भवेत् ॥२६॥ प्रतापलंकेश्वरइत्यभिख्यां यः प्राप्तवान्प्रौढप्रभुः प्रतापः। यस्माभिमुख्यैर्वरवैरमुख्याः केचिन्मृताः केचिभिद्रुताश्च ॥२७॥ येन श्रीपार्श्वनाथाय रेवातीरे स्वयंभुवे। शासने रेवणाग्राम दतं 'स्वर्गाभिकांक्षया ॥२८॥ अंधकाराय कवं शानुक्रमः............."तीर्थे श्रीनेमिनाथस्य राज्ये नारायणस्य च । अम्भोधि. मथनादेव वलिभिर्बलशालिभिः ॥२६॥ निर्गतः प्रवरो बंशो देववृन्दैः समाश्रितः। श्रीमालपत्तने स्थाने स्थापितः शतमन्युना ॥३०॥ श्रीमालशैलप्रवरावचूलः परोत्तरः सत्त्वगुरुः सुवृत्तः। प्राग्वाटवंशोऽस्ति बभूव तस्मिन्मुक्तोपमो वैश्रवणामिधानः ॥३१॥ तदा मनोहरे क्षेत्र कारितम् जिनमंदिरम् ।.......... कान्वायस (क्रान्त्वायश ) तत्वमेकत्र स्थिरतां गतम् ॥३२॥ यो चीकश्चन्द्रशुचिप्रमाणि थांग्रेरकादौ जिनमंदिराणि। कीर्त्तिद्रुमारामसमृद्धिहेतौ विभान्ति कंदा इव यान्यमेदाः ॥३३॥ कल्लोलमांसलितकीर्तिसुधासमुद्रः । सबुद्धि बंधु खधूद्धरणे . ... ....॥ पारोपकार्यकरणे प्रगुणान्तरात्मा। श्रीबन्धुतमस्य तनय....... पदेऽभूत् ॥३४॥ श्चुमंकरस्तस्य सुतोऽजनिष्ट शिष्यैर्महिष्ठः परिकीर्त्यकीर्तिः । श्रीजासटो सूतवदेकजन्मा यदंगजन्मा खलु पुण्यराशिः ॥३५॥.............. ......॥३६॥ चत्वारश्चतुराचाराः पुत्राः पात्र शुभश्रियः। अमुष्यामुष्यधर्माणो बभूवुर्भार्ययोर्द्वयोः ॥३७॥ एकस्यां द्वावजायेतां श्रीमदाम्बटपद्मटौ। अपरस्यां ............"लक्षनटदेसलौ ॥३८॥ प्राकारनखेरवीरवेश्मकारणपाटवम्। प्रकटितं खायवित्तेन वानुनेय . महीतलम् ॥३६॥ पुत्रौ पवित्रौ गुणरत्नपात्रो, विशुद्धमात्रौ समशीलसूत्रौ। बभूवतुर्लक्ष्मटकस्य नेत्रौ मुनीन्द्ररामेन्द्रभिधौ प्रसन्नौ ॥४०॥ षड्वंडागमवद्धसौहृदभराः षड्गीव रक्षेश्वराः षड्भेदेन्द्रियवश्यजाः परिकराः षड्कर्मक्लप्ता दश ॥ षड्वंडावनिकीर्तिपालनपराः पाडण्यचिन्ताकराः। षष्ट्यम्बुजभास्कराः समभवन् षड्देशलस्यां गजाः ॥४१॥. श्रेष्ठी दुद्दल. नायकः प्रथमकः श्रीमांसलो कामजिद्द वस्पर्श इतोऽपि सीयकवरः श्रीसाहको नामतः ॥ यतेसंक्रमतो जिनक्रमयुगाम्भोजोकभूयोपमाः। मान्या राजशतैर्वदान्यमतयो राजंति जम्बूत्सवः ॥४२॥ हर्म्य श्रीवर्धमानस्याजयमेरोविभूषणम्। कारितं यैर्महाभोगैर्विमान मिव नाकिनाम् ॥४२॥ तेषामन्तः श्रियः पानं सायकवेष्ठिभूषणम् । मेण्डणकरमहादुर्ग भूषयामास मूर्तिना ॥४४॥ यो न्यायांवरसेवनैकजलदः कीर्तेर्निधानं परं । सौजन्याम्बुजनीविकासनषिः पापाद्रिभेदे पविः ॥ कारुण्यामृतवारिधेविलसने राकाशशांकापमो नित्यं साधुजनोपकारकरणव्यापारबद्धादरः ॥४५॥ येनाकारि जितारिनेमिभुवनं देवाद्रि
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किरण २ ]
बिजोलिया के शिला-लेख
शृगोद्धरं । चंचत्कांचनचारुदंडकलशश्रेणीप्रभाभासुरम् ॥ खेलत्खेचरसुन्दरीश्रमभरं भंज...जोर्वीजनैर्ध त्तेश्वापदशैलटंगजिनभृत्योद्दामसन्यश्रियः ॥४६॥ श्रीसीयकस्य भार्ये स्तो नागश्रीमामाभिधे आद्यायास्तु वयः पुत्रा द्वितीयायाः सुतद्वयम् ॥४७॥ पंचाचारपरायणात्ममतयः पंचांगमंत्रोज्ज्वलाः पंचज्ञानविचारणासुचतुराः पंचेन्द्रियार्थोजयाः॥ श्रीमत्पंचगुरुः प्रणाममनसः पंचाणुशुद्धवृत्ताः पंचैतेतन्याग्रहं ...............रया श्रीसोयक श्रेष्टिनः ॥४॥ आद्यः श्रीनागदेवोऽभूल्लोलाकश्चोज्ज्वलस्तथा । . महीधरो देवधरो वावेतावन्यमातृजौ ॥४॥ उज्ज्वलस्यांगजन्मानौ श्रीमद्दुर्लभलक्ष्मणौ अभूतां भुवनोद्भासियशोदुर्लभलक्ष्मणोः ॥५०॥ गांभीर्य जलधेः स्थिरत्वमचलात्तेजस्वितां भास्वतः सौम्य चन्द्रमसः शुचित्वम् स्रोतस्विनीतः परम्। प्रत्येकं परिगृह्य विश्वविदिता यो वेधसा सादरं, मन्ये वीजकृते 'कृतः सुकृतिना सल्लोलकश्रेष्ठिनः ॥५१॥ अथागममन्दिरमेष कीतः श्रीविन्ध्यवल्ली धनधान्यवल्ली। तत्रातु.........तलस्तुराः कंचिन्नरेशं पुरतः स्थितं सः ॥५२॥ उवाच कस्त्वं किमिहाभ्युपेतः कुतः सतं प्राह कणीश्वरोऽहम् । पातालमूलास्तव दर्शनाय श्रीपाश्वनाथः स्वयमेष्यतीह ॥५३॥ प्रातस्तेजः समुत्थाय न कंचन विवेचितम् स्वप्नस्यान्तर्मनो भावा यतो वातादिभूषितः॥५४॥ लोलार्कस्य प्रियास्तिस्त्रो बभूवुर्मनसः प्रियाः ललिता कमला श्रीश्च लक्ष्मीर्लक्ष्मी सनामयः॥५५॥ ततः सभक्तां ललितां बभाषे गत्वा प्रियां तस्य निशि प्रसुप्ताम् शृणुष्व भद्रे धरणोहमेहि श्री.........दर्शयामि ॥५६॥ तया सचोक्तो...... यत्वमदिशत्-मेतत् श्रीपार्श्वनाथाय समुद्धति स प्रासादमध्यं च करिष्यतीह ॥५७॥ गत्वा पुनर्लोलिकमेवमूचे भो भक्तसुक्तानुमतासिरक्ता। देवे धने धर्मविधौ जिनेशो श्रीरेवतीतीरमिहापपार्श्वः ॥५॥ समुद्धरेनं कुरु धर्मकार्य त्वं कारय श्रीजिनचैत्यगेहं। येनाप्स्यसि श्रीकुलकीर्तिपुत्रयौन्नीससंतानसुखादिवद्धिं ॥५६॥ तदेतन्भीमाख्यं वनमिह निवासो जिनपतेस्तदा ते प्रावाणाः शठक्रमठमुक्तागगनतः। सुघारमि ........द्रचयतः कुण्डसरितः तदनौतत्स्थान.........रगमं पापपरमम् ॥६०॥ अनास्त्युत्तममुत्तमादिशिखरं साधुषमचोच्छ्रितं, तीर्थ श्रीवरतापिकात्रपरमम् देवोतिमुक्ताभिधः सत्यश्चोत्र घटेश्वरः सुरनुतो देवः कुमारेश्वरः, सौभाग्येश्वरदक्षिणेश्वरसुरौ मार्कण्डरिस्येश्वरौ ॥६॥ सत्योम्बरेश्वरोदेवो ब्रह्ममा श्वरादीप। ...........................॥६२॥ ..............................॥६३॥ कर्तिनाथं च व............स्वामिनः। संगमेशः कुटीशश्च मुखेश्वरवटेश्वरौ ॥६॥ नित्यप्रमोदितादेवो सिद्ध श्वरगयायुसः । गंगा भेदं च सोमीशं गणनाथ त्रिपुरान्तकः ॥६५॥ संस्था त्रिकोटिलिङ्गानां यत्नास्ति कुटिला नदी। स्वर्णज्योतश्वरो देवः समं कपिलधारया ॥६६॥ नाल्पमृत्युर्न वा रोगा न दुर्भिक्ष इत्येवं............... .....................॥६७॥ कृत्वावतारक्रियाम् । कृत्वा पार्श्वजिनेश्वरोऽत्र कृपया सौधाद्यवासः पतिः। शक्तेयः
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५६
[ भाग २
किथिकप्रिय स्त्रिभुवनं प्राणी प्रबोधप्रभुः ॥६६॥ इत्त्याकर्य वचो विशुद्धमनसा तस्योरगस्वामिनः । संप्रातः प्रतिबुद्धयपार्श्वममितः क्षोणीं विदार्य क्षणात् । तावत्तत्र विभुं ददर्श सहसा निःप्राकृताकारिणम् । कुण्डाभ्यर्णतपश्च ध्यानं दधतं स्वायंभुवः श्रीश्रितम् ॥७०॥ नासीद्यत्र जिनेन्द्रपादनमनं नो धर्मकर्मार्जनं न स्नानं न विलेपनं न च तपो ध्यानं न दानार्चनम् | नो वा सन्मुनिदर्शनम् ... . बभूव सदनं ... ॥७१॥ तत्कुण्डमध्यादथ निर्जगाम श्रीसीय
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भास्कर
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कस्यागमनेन पद्भ्याम्
॥७२॥
यंदावतारमाकार्षीदत्त पार्श्वजिनेश्वरः । तन्ननागहृदे यतं गिरिस्तंवः प्रयातसः ॥ ७३ ॥ योऽपि दत्तवान् स्वप्नं लक्ष्मणब्रह्मचारिणः । तन्नाहमपि प्राप्स्यामि यत्त्र पार्श्वविभुर्मम ॥७४॥ रेवतीतीरकुण्डेन या नारी स्नानमाचरेत् । सा पुत्रभर्तृ सौभाग्यं लक्ष्मीं च लभते .. स्नानकर्त्ता स स्थिराम् ॥७५॥ ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वैश्यो वा शुद्रजोऽपि वा । प्राप्नोत्युत्तमां गतिम् ॥७६॥ धनं धान्यं धरा.. · धौरेयतांधियम् । धराधिपनि सन्मानं लक्ष्मी प्राप्तोति पुष्कलाम् ॥७७॥ तीर्थाश्चर्यमिदम् जनेन विदितं यद् गीयतं सांप्रतं । कुष्ठप्रेतपिशाचकुज्वररुजाहीनांगगंडापहम् । सन्यासं च चकार निर्गतभयम् घूकशृगालोद्दयं । काकीनाकभवापदेव कलया किं किं न संपद्यते ॥७८॥ श्लाघ्यं जन्म कृतं धनं च सफलं नो तीर्थ सिद्धिं मतिः सद्धर्मापि च दर्शित तनुरुहः स्वप्नोर्पित सत्यतां । .रदृष्टिदूषितमनाः संदृष्टिमार्गे कृतो, जैन... . विलोलकश्रेष्ठिनः ॥७६॥ किं मेरोः शृंगमेतत्किमुत हिम गिरेः कूटकोटिः प्रकाण्डं किंवा कैलासकूटं किमुत सुरपतेः स्वर्विमानं स्वविमानं । इत्थं यस्तर्यतेस्म प्रतिदिनममरैर्मर्त्य राजोत्करैर्वा । मध्ये श्रीलोलकस्य त्रिभुवनभरणादुच्छ्रितं कीर्तिपुंजं ॥ ८०॥ पवनोद्धृतपताका पाणिको भव्यमुख्यान्पटुपरहनिनादा दाहयत्येश जेनकलि कलुष मथोच्चैर्दुरमुत्साहयेद्धा, त्रिभुवनविभु - भान्नृत्यती काश्चित्स्वानकमाधरति दधते काश्चिश्च गीतोत्सवं काश्चित् बिभ्रति तालवंशललितं कुर्वन्ति नृपं । काचिद्वाद्यमुपाहयन्ति निभृतं वीणास्वरं काश्चन यत्त्रोश्चैभ्वजकिंकिणी युवतयः केषां मुदे नाभवन् ॥ ८२॥ यः सद्वृत्तयुतः मुदोषि कलितस्त्रासादिदोषोज्जितश्चिन्ताख्यात पदार्थदानवतुरश्चिन्तामणेः सोदरः सोऽभूच्छ्रोजिनचन्द्रसूरिपुरुस्त्युत्पादपंoा यो भ्रव्यापतपोऽथ लोलकवरस्तीर्थं चकार सः ॥३॥ रेवत्याः सरितस्तटे तरुवराः यज्ञ - व्हयन्ते भृशं शाखा बाहुलतोस्करैनंखरान्पुंस्कोकिलानां रुतैः । मत्पुष्पोच्चयपत्रसत्फलवये शनिर्मलैः भो भोभ्यर्चयत् अभिषेकयत् वा श्रीपार्श्वनाथ जिनम् ||४|| यावत्पुष्करतीर्थ सैकतकुलं यावच गंगाजलं यावन्तारकचन्द्रभास्करकराः यावश्च दिक्कुंजराः । यावच्छ्रीजिनचंद्रशासनमिदं यावन्महेन्द्रं पदं तावन्तीर्थयुतं प्रशास्मसहितं जैनं
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बिजोलिया के शिला - लेख
किरण २ ]
५७
स्थिरं मंदिरम् ॥८५॥ पूर्वतो रेवतीसिन्धु मठस्थानमुदीच्यां कुण्डमुत्तमम् ॥ ६ ॥ कारितं लोलिकेने तत्सप्तायतनसंयुतम् ॥ ७॥
पिपुरं तथा । दक्षिणस्यां दक्षिणोत्तरतो वाटी नाबावृतैरलंकृतम् । श्रीमन्मारसिहे ऽभूद्गुणभद्रो महामुनिः ।
कृता प्रशस्तिरेषा कवीनां कण्ठभूषणम् ॥८८॥ नैगमान्वय कायस्थतितिपस्य च सूनुना । लिखितं केसवेनेदं मुक्ताफलमिवोज्वलम् ॥८१॥ हरसिंहसूत्रधारस्य तत्पुत्त्रो पाल्हणो भवितदं गजेनाहडंनापि निर्मापि जिनमंदिरम् ॥६०॥ नालिमः पुत्रगोविन्द पाल्हणसुत देल्हणः । उत्कीर्ण प्रशस्ति....... .. कीर्तिस्तम्भम् : प्रतिष्ठितम् ॥ ६१ ॥ प्रसिद्धिमगमद्देवः कलिविक्रमभास्वतः । षड्विंशद्वादशशते फाल्गुने कृष्णपक्ष के ॥ ६२॥
64, 500
तृतीयायां तिथों
वारे गुरोस्तारे च हस्तके धृतिनामनि योगे च करणे तैतिले राधा ॥६३॥ संवत् १२२६ फाल्गुन वदी ३ तोज कां.. ..खणाग्रामगुहितपुत्र रा० दादरा म्हं द (१) सिंहहाभ्यां क्षेत्रडोहसी (?) १। डुगराग्रामवास्तव्य मोडसोनिगवासुदेवाभ्यां .... ओतरीप्रतिगणे... .. रायताग्रांमीय मत्र... ....बड़ीयोयीम्यां satग्रामवास्तव्य पारिग्रही आल्हणेन दत्त .सी ग्रामसंग्रहित पुत्रराठप्राररुमहत्तम
......
asोहंसिका (2) 121 दत्तक्षेत्रsोहासिका (?) tasोहलिका (?)
मादवायां दत्तक्षेत्रsोहलिका ( ? )||
लघुनी....
बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिर्भरतादिभिः ।
यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ १॥
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नोट-बिजोलिया के इन दोनों शिलालेखों में पढ़ पद पर भद्दी गलतियाँ मिलती हैं । मौलिकता
नष्ट होने के खयाल से ही वे नहीं सुधारी गयीं ।
के० बी० शास्त्री
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संस्कृत में दूतकाव्य साहित्य का निकास
_ और विकास (ले०-श्रीयुत चिन्ताहरण चक्रवर्ती, एम.ए., काव्यतीर्थ)
संस्कृत साहित्य में 'दूतकाव्यों' अथवा संदेशरूप पद्यों को मुख्य स्थान प्राप्त है। संस्कृत
साहित्य में जो गीत-पद्य (Lyric Poetry) का एक अभाव सा है उसकी पूर्ति इन दूतकाव्यों एवं पञ्चकों, अष्टकों, दशकों और शतकों से हो जाती है। किन्तु इन सब में दूतकाव्य ही विशेष मूल्यमयी रचनायें हैं। इनमें कविता भी उच्च आदर्श को लिये हुये हैं और वह प्रेमियों के विरह-व्यथा वर्णन में सरसता को प्रकट करती है। साथ ही उनका, महत्व प्राचीन अथवा मध्यकालीन भारत के किसी भाग के भौगोलिक वर्णन परिपूर्ण होने के कारण और भी बड़ा हुआ है। अतः इन पद्यों के निकास और विकास सम्बन्ध में विचार करना असंगत न होगा।
अनेक विद्वानों ने अपने ज्ञान में आये हुए 'दूतकाव्यों' को सूचियां प्रकट की हैं। हिज हाईनेस महाराज रविवर्म ने मालाबार में विकसित छह दूत काव्यों का उल्लेख किया है। उधर
ऑफट सा० इनसे भिन्न अन्य दश काव्य बतलाते हैं। मनमोहन चक्रवर्ती इत दोनों को मिला कर अपनी लिस्ट में सोलह दूतकाव्यों की गणना करते हैं। किन्तु मैंने अविकल परिश्रम के फलरूप ऐसे पचास.काव्यों का पता लगा लिया हैजिनका विवेचन मैं यहां करूंगा। तो भी इनके अतिरिक्त कुछ और दूतकाव्य हैं, जिनका पता अभीतक नहीं लग पाया है।
उपलब्ध दूतकाव्यों का विवेचन । दूतकाव्य साहित्य के संभव निकास और विकास के प्रश्न पर विचार करने के पहले इस साहित्य का सामान्य अवलोकन कर लेना उचित है। यहां हम उनका उल्लेख अकारादि क्रम से करेंगे । समयापेक्षा उल्लेख करना इस समय अशक्य है। क्योंकि सबही काव्यों का रचनाकाल उपलब्ध नहीं है । छंद भी विशेषतः 'मन्दक्रान्ता' व्यवहृत हुआ है।
(१) इन्दुदूतम् —की रचना लोक प्रकाश, कल्प सुबोधिका और हैमलघुप्रक्रिया (वि० सं० १७१०) के कर्ता विनयविजयगणि द्वारा हुई है। इसमें कुल १३१ श्लोक हैं ; जिनमें यह जैनकवि गोधापुर (जोधपुर) से चन्द्रमा को अपना दूत बनाकर सूरत में अवस्थित अपने गुरु के पास अपने समुचित चारितपालन का संदेशा देकर भेजता है। जोधपुर से सूरत तक बीच में आये हुये जैन मंदिरों और तीर्थों का वर्णन भी इसमें खूब आया है। १। जर्नल रायल एशियाटिक सोसाइटी, १८८४, पृ० ४०१... २। Z. D. M G. vol. 54, p.616. ३। जर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, १६०५, पृ० ४२। ४ । काव्यमाला गुच्छ १४ पृ० ४०-६० । ५। बेलवेल्कर-Systems of Sanskrit Grammar, p. 79.
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किरण २]
संस्कृत में दूतकाव्य साहित्य का निकास और विकास
(२) उद्धवदूतम्-माधव शर्मा की रचना है। १४१ श्लोक हैं। इसमें कृष्ण की ओर से गये हुये दूत उद्धव का वर्णन है कि कैसे उनने गोपियों को कृष्णजी का संदेशा देकर शान्त किया था, जो हिन्दुओं के भागवतपुराण (१०।४७) के अनुसार है।
(३) उद्धवसन्देश-रूपगोस्वामिन की कृति बतलाया जाता है। इसमें भी १३८ श्लोकों में उद्धव जी द्वारा कृष्ण जी का संदेश मथुरा पहुंचाने का वर्णन है। कवि का अन्य ग्रंथ हंसदतम् भी
. (४) कीरदूतम्'-के कर्ता रामगोपाल को महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री जी नवद्वीप (बंगाल) के राजा कृष्णचन्द्र के दरबार का कवि अनुमान करते हैं। इसमें मथुरा की गोपियों ने एक तोते को दूत बना कर कृष्ण जी के पास अपना संदेश लेकर भेजा है। १०४ काव्य हैं ।
(५) कोकिल-संदेश-उत्तर अर्काट के निवासी रंगनाथ के पुत्र उद्दण्ड कवि की रचना है जो पन्द्रहवीं शताब्दि के प्रारम्भ में हुये हैं। कहा जाता है कि भृङ्गसंदेश के उत्तर में यह काव्य लिखा गया था, जिसे उसके कर्ता वासुदेव ने उद्दण्ड कवि के प्रति भेजा था। उसमें काञ्ची के एक प्रेमी के द्वारा कोयल को अपना दूत बना कर केरल में स्थित अपनी प्रमिका के पास भेजने का वर्णन है। • (६) कोकिल-संदेश-नृसिंहरचित । (अडयार लायब्रेरी लिस्ट, मद्रास पृष्ठ १२८)।
(७) कोकिल-संदेश- तात्य के पुत्र वेङ्कटाचार्य-द्वारा संकलित। (बर्नेल-संस्कृत ग्रंथ इन्डेक्स, पैलेस लायब्ररी, तन्जोर पृष्ठ १५७) ।
(८) चकोर-संदेश-'उपर्युक्त पुस्तक पृष्ठ १५८) ।
(E) चन्द्रदूत - कृष्णचंद्र तर्कालङ्कार की कृति है जो गोपीनाथ भट्टाचार्य के पुत्र ये। इसमें लङ्का से हनुमान जी के लौट आने पर रामचन्द्र जी के माल्यवत् पर्वत से चन्द्रमा को दूत बना कर अपना संदेशा सीताजी के पास लङ्का को भेजने का वर्णन (वैदिक रामायण के अनुसार) है।
(१०) चन्द्रदत- जम्बूकवि रचित । मालिनी छंद के २३ पद्यों में समाप्त है; जिसमें अन्त्ययमक' को प्रत्येक पद्य में चित्रित किया गया है।
(११) चन्द्रदूत-विनयप्रभ-द्वारा संकलित । (रिपोर्ट खोज संस्कृत ग्रंथ सन् १८८४-८५भाण्डारकर नं. ३५४)।
| Haeberlin's Sanskrit Anthology, pp. 384 ff. काव्यकलाप (बम्बई १८६४) पृ०५६... २। Ibid pp. 323-347 और काव्यसंग्रह (कलकता) ३।२१। ३ । संस्कृत साहित्य परिषत् कलकता के पास एक प्रति मौजूद है। ४। Notices of Sanskrit Mss. I. XXXIX. ५। मद्रास सरकारी लायब्ररी की सूची भाग १० नं० ११८३५ । ६। (इन्डियन हिस्टा० क्वार्टी भाग ३ पृ. २२३) । • Notices of Sanskrit Mss., Vol. II. p. 153. 5| A Third Report of operations in Search of Sanskrit Mss. Bombay
Circle, p. 292.
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भास्कर
भाग २
(१२) चातक-सन्देश'--१४१ श्लोकों में है। इसमें एक ब्राह्मणद्वारा चातक को दूत बनाकर विवन्द्र म के महाराज रामवर्मा के पास संदेश भेजने का वर्णन है, जिसमें राजा का अनुग्रह प्राप्त करने का प्रयास है।
(१३) चेतोदूत-१२६ पद्यों में पूर्ण हुआ है। इसमें एक शिष्य का अपने ही मन को दूत बनाकर गुरुजी के पास संदेश भेजने का जिक्र है। इसके प्रत्येक श्लोक का अन्तिम चरण मेघदूत के एक पद्य के अन्तिम चरण के समान है।
(१४) जैन मेघदूत-यह ई० ११वीं शताब्दी में हुए अञ्चलगच्छे के मेरुतुङ्ग जी की रचना है। यह कवि प्रबन्धचिन्तामणि आदि ग्रंथों के कर्ता से भिन्न है। (JBBRAS., IX. 147) इसमें राजमती जी द्वारा मेघ को दूत नियत करके श्री नेमिनाथ जी के पास अपनी विरह-व्यथा का संदेश भेजने का वर्णन है। यह चार सन्धियों में समाप्त हुआ है जिनमें प्रत्येक के क्रमशः १०, ४६, १५ और ४२ पद्य हैं।
(११) तुलसोदूत को रचना सं० १७०६ में वैद्यनाथ भट्टाचार्य ने की है। कवि ने तुलसी के पत्ते को दूत बना कर गोपियों का संदेशा कृष्ण जी के पास भेजने का चित्र अङ्कित किया है। .
(५६) नेमिदत -यह विक्रम कवि की रचना है और इसका भाव जैन मेघदूत के समान है। इसमें १२३ श्लोक हैं; जिनमें से प्रत्येक का अन्तिम चरण कालिदास के मेघदूत का एक चरण है अर्थात् मेघदूत के चरण की समस्यापूर्ति इसमें की गई है।
(१७) पदान्त-नवद्वीप (बंगाल) के प्रसिद्ध राजा महाराज कृष्णचन्द्र के पिता राजा रघुराम राय के दरबारी कवि कृष्णसार्वभौम ने रचा था। यह गोपी-कृष्ण-वार्ता को बतलानेवाला काव्य सं० १६४१ में पूर्ण हुआ था। बंगाल के पण्डितों में मेवदूत के बाद इस काव्य की ही प्रसिद्धि है।
(१८) पवनदूत -धोई कवि की रचना है जो बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन के (१२वीं श०) दरबार के एक कवि थे। उनने इसमें दक्षिणभारत की निवासिनी एक गंधर्व-कन्या का संदेश पवनद्वारा लचमणसेन राजा के पास भेजने का वर्णन किया है, जो इस राजा पर आसक्त थी।
(१६) पवनदतम-श्रीवादिचंद्रजी सरि की रचना है जो ई० १७वीं शताब्दी में हुए हैं। इसके १०१ श्लोकों में कवि ने बतलाया है कि किस तरह उज्जैन के राजा विद्यानरेश ने पवन को दूत बनाकर अपनी रानी तारा के पास संदेश भेजा था, जिसे एक विद्याधर ले गया था ।
१। J. R. A. S., 1834, p. 451. २। अात्मानन्द-ग्रन्थरत्नमाला नं. २५ । ३। श्री जैन प्रोत्मानन्द-ग्रन्थमाला नं. ७६ । ४। संस्कृत साहित्य-परिषत् कलकता के पास एक प्रति है। ५ । काव्यमाला (द्वितीय गुच्छ) । ६ । काव्यकलाप (बंबई १८७४) पृष्ठ ५३। ७। कलकता संस्कृत साहित्य परिषत् सीरीज नं० १३ व J. A. S. B. 1905, pp. 53-68. ८। काव्यमाला गुच्छ १३ पृष्ट ६-२४ और हिन्दी जैन-साहित्य सीरीज नं. ३ ।
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किरण २]
संस्कृत में दूतकाव्य साहित्य का निकास और विकास
(२०) पान्यदूत-भोलानाथ की रचना है, जिसमें १०५ पद्य शार्दूलविक्रीडित छंद में हैं। लेखक तिकुरी का एक वैष्णव ब्राह्मण है।
(२१) पिकदूतम् के ३१ शार्दूलविक्रीडित पद्यों में गोपियों द्वारा कृष्ण के प्रति कोयल को दूत मानकर संदेश भेजने का वर्णन है। (इसकी एक प्रति लेखक के पास है)। __ (२२) भक्तिदूती'-काली प्रसाद-कृत । इस अलंकृत काव्य में कवि ने भक्ति को दूती नियत करके अपनी मानी हुई वल्लभा मुक्ति के पास एक संदेशा भेजा है। कुल २३ पद्य हैं।
(२३) भृङसंदेश'--कालीकट के राजा रविवर्मा और गोडवर्मा के दरबार के कवि बासुदेव की रचना है। इसमें एक पुरुष ने अपनी स्त्रो को जो संदेश भेजा है वह कल्पित किया गया है। १६२ श्लोकों में पूर्ण है। . . (२४) भ्रमरदूत -वद्यानिवास के पुत्र रुद्वन्यायवाचस्पति द्वारा लिखित है, जो न्यायसूत्रों के टीकाकार प्रतीत होते हैं ! यह भावविलास के कर्ता से भिन्न हैं। इसका भाव चन्द्रदूत (नं० ६) की तरह है। अन्तर सिर्फ इतना है कि यहां दूत का काम भ्रमर कर रहा है ।
(२५) मनोदूत - विष्णुदास ने रचा है, जो बंगाल के प्रसिद्ध सुधारक 'चैतन्य' के एक निजी संबंधी थे। इसके १०१ वसन्ततिलका पद्यों में 'कवीन्द्र' ने अपने मन को ही दूत बनाकर विष्णु के पास भेजा है।
(२६) मनोदूत-तैलङ्ग व्रजनाथ ने सं० १८१४ में रचा था। यहां द्रौपदी ने चीरहरण के समय अपने मन को दूत बनाकर कृष्ण के पास संदेश भेजा, यह भाव चित्रित किया गया है।
(२७) मनोदूत--विष्णुदास के परशिष्य रामराम की कृति प्रतीत होती है। यद्यपि इसका भाव भी नं० २५ के अनुसार है, परन्तु यह उससे भिन्न है। इसमें शिखरिणी छंद की प्रधानता है।
(२८) मनोदूत काव्य --में आत्मा और जीव का सम्बन्ध दरसाया गया है।
(२६) मनोदूत--यह संभवतः जैनकृति है। अतः उपर्युक्त से भिन्न है। (श्वे० जैन ग्रंथावली पृष्ठ ३३२)।
(३०) मयूर-संदेश-रजाचार्य-कृत । (अडयार लायब्रेरी की सं० व प्रा० ग्रंथ लिस्ट, मद्रास पृष्ठ १३०)। 9Catalogue of Skt. Mes in the India office Library, VII, 3890. २। Notices of Skt. Mss.-R. L. Mitra, vol. III, p. 27. 3 | Descrip. Cat. of Skt. Mss, in the Madras Orient. Library, XX, No. 11865. ४ । Notices of Skt. Mss.-H, P. Sastri-vol, II. p. 153 etc. ।। H. P. Sastri-op. cit. Preface, p. 4. etc. ६ । Catal. of Skt. Mss. in the India Office Library, VII, Nos. 3897-3899. ७। काव्यमाला (१३वां गुच्छ) पृष्ठ ८४-१३०। ८। बङ्गीयसाहित्यपरिषत्, कलकत्ता-सं० प्रति नं० १२८२। & Catal, of Skt. Mss. in the Raghunath Temple Library of H. H. The
Maharajah of Kashmir-Stein-p.70,287. Intro.XXV.
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६२
भास्कर
[ भाग २
(३१) मेघदूत' - - कवि सम्राट् कालिदास कृत । यह दूत काव्यों में सर्वप्राचीन, सर्वोत्तम और बहुप्रसिद्ध है । इसकी कथा से प्रायः हर कोई परिचित है कि कैसे एक विरही यक्ष ने एक बादल को अपना दूत बनाकर अपनी यक्षी के पास संदेशा भेजा था, जिससे वह एक शाप द्वारा अलग किया गया था । अन्य बहु प्रचलित ग्रंथों की तरह इसका भी आकार अन्य कवियों की कृपा से बढ़ गया है । बल्लभदेव की टीका के अनुसार हल्जश सा० इसके १११ श्लोक बतलाते हैं, किन्तु दूसरी ओर के० बी० पाठक महोदय 'पाश्वभ्युदय' के अनुसार १२१ श्लोक बताते हैं ! दक्षिणावर्तनाथ, मल्लिनाथ और पूर्ण सरस्वती (विद्युल्लता) की टीकाओं में क्रमश: ११०, ११८ और ११० श्लोक हैं ।
(३२) मेघदूत -- मंत्री विक्रम- कृत ।
(जैनग्रंथमाला -- श्वे० कान्फ्रेन्स -- पृष्ठ ३३२)
(३३) मेघदूत - समस्यालेख -- न्याय, व्याकरण, काव्य और ज्योतिष विषयक विविध ग्रंथों के कर्ता मेघ विजयजी की कृति है । हैमकौमुदी के कर्ता भी यही हैं, जो सिद्धान्त कौमुदी का 'मोडेल' (Model) समझी जाती है और सन् १६६६ में पूर्ण हुई थी । मेघदूतसमस्यालेख में ग्रंथकर्ता मेघ को दूत बनाकर अपना संदेशा अपने गुरु विजयप्रभसूरि के पास भेजते हैं । यह सं० १७२७ को पूर्ण हुआ था । मेघदूत के पद्यों के चतुर्थ चरणों की समस्या पूर्ति इसमें की गई है।
(३४) रथाङ्गदूत - ( भूमिका, जैनमेघदूत, पृ० १०) ।
(३५) विप्रसंदेश -- लक्ष्मणसूरि - विरचित । इसमें रुक्मिणी ने कैसे एक वृद्ध विप्र को अपना दूत बनाकर कृष्णजी के पाम भेजा था, इसका वर्णन हिन्दुओं के भागवतपुराण (१०।५२ ) के अनुसार है।
(३६) शीलदूत' - महीपालचरित्र, कुमारपाल महाकाव्य और आचारादर्श के कर्त्ता चारि 'सुन्दरगणि की रचना 1 यह सर्वथा दूतकाव्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसमें कोई दूत कहीं नहीं भेजा गया है । इसके १३१ श्लोक हैं, जिनमें से पहले के १२५ श्लोकों के अन्तिम चरण कालिदास जी के मेघदूत के श्लोकों के अन्तिम चरणों के समान है । मेघदूत के चरणों का समावेश इसमें होने के कारण ही शायद इसका नामोल्लेख राजकुमार के गृहत्याग करने और भद्रवाहु स्वामी के सं० १४८७ में खम्भांत (गुजरात) नामक स्थान में (शोलदूत श्लोक १३१) ।
दूतकाव्यरूप में हुआ है । इसमें स्थूलभद्र निकट दीक्षा लेने का वर्णन है 1 पुस्तक वि० वहां के सरदार के आश्रय
में समाप्त हुई थी ।
एक प्रेमी ने स्वप्न में
अपनी प्राणवल्लभा
(३७) शुकसंदेश -- लक्ष्मीदास की रचना है, जिसमें का विछोह न सह सकने के कारण उसके पास तोते को दूत बनाकर अपना संदेश लेकर भेजा, यह वर्णन है । इसमें पूर्व संदेश और उत्तर संदेशरूप दो भाग हैं, जिनमें क्रमशः ७४ और ८६ श्लोक
१ | अनेक भावृत्तियां प्रकट हो चुकीं, जिनमें दा अच्छी हैं; (१) के० बी० पाठक वाली (Oriental Book Supplying Agency, Poona. 1916) और डॉ. हल्ज़श की (Royal Asiatic Society, London, 1911).
२। आत्मोनन्द-ग्रन्थमाला नं० २४ ।
३ ॥ पूर्णचन्द्रोदय प्र ेस, तंजोर द्वारो प्रकाशित (१९०६) ।
४। श्रीयशोविजय-ग्रन्थमाला, १४ ( बनारस सन् १९१५) ।
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किरण २] . संस्कृत में दूतकाव्य साहित्य का निकास और विकास हैं। रामेश्वरम् और गुणपुर के मध्यवर्ती स्थल का भूगोल भी खूब आ गया है। (J.R.A.S., 1884, p. 449)
(३८) शुकसंदेश-करिङ्गपल्लि नम्बूदि रचित । (List of Skt. Mss. Private Libraries of South. India Oppert, Nos. 2721, 6241)
(३६) शुकसंदेश'- रङ्गाचार्य कृत । मालूम नहीं इसके कर्ता भी वही हैं जो मयूरसंदेश (नं० ३०) के हैं।
(५०) सिद्धदूत-अवधूतराम-रचित । (Report of a Search of Skt. Mss., Kathavate, No. 596).
(४१) सुभगसंदेश--नारायण-कृत १३० श्लोकों में पूर्ण है। (J.R.A.S., 1884, p. 449) __(४२) हंसदूत-रूपगोस्वामिन् की रचना है, यद्यपि किन्हीं प्रतियों में उनके भतीजे जीवगोस्वामिन् को इसका कर्ता लिखा है। रूपगोस्वामिन् । १६वीं श० में हुए हैं और यह बंगाल के सुधारक चैतन्य के निकट शिष्यों में से एक थे। गौड़ के बादशाह अल्लाउद्दीन हुसैन शाह के दरबार में यह वैष्णव होने के पहले किसी शाही पदपर नियत थे। उपरांत यह वैष्णवधर्म के उत्कट प्रचारक हुये और तत्सम्बन्धी अनेक ग्रंथ इनने लिखे। हंसदूत में गोपियों के द्वारा हंस को दूत बनाकर कृष्ण जी के पास भेजने का वर्णन शिखरिणी छंदों में है। इनकी संख्या किसी प्रति में १०१ और अन्यों में इससे ज्यादा मिलती है ।
(४३) हंस-संदेश -श्रीवैष्णवों के प्रसिद्ध आचार्य और प्रख्यात विद्वान् वेङ्कटेश की कृति है, जो वेदांतदेशिक अथवा वेदान्ताचार्य नाम से भी परिचित हैं। इनने अनेक विषयों पर संस्कृत में १२१ ग्रंथ रचे थे। और तामिल में २४ ग्रंथ अलग ही लिखे थे। हंससंदेश में इनने राम-द्वारा हंस को दूत बनाकर लंका में सीताजी के पास भेजने का वर्णन किया है। यह दो आश्वासों में पूर्ण है, जिनमें क्रमशः ६० और १० श्लोक हैं।
(४४) हंससंदेश-भवामनकृत । शाप पाये हुये एक यक्ष ने अपनी पत्नी को हंस-द्वारा जो संदेश भेजा, उसका वर्णन है। भाव कालिदास जी के मेघदूत के ही समान है।
(४५) हंस-संदेश-यह सैद्धान्तिक काव्य ११० श्लोकों में पूर्ण है। (J.R.A.S., 1884 p. 450).
(४६) हंसदूत- रघुनाथदास-कृत। (वङ्ग-साहित्य परिचय-डी० सी० सेन, पृ० ८५०)। (४७) हृदयदूत-भट्ट हरिहर की रचना वसंत तिलका छंदों में हैं। (Weber,I, No. 571).
9 | Catalogue of Skt. Mss. in Mysore and Coorg, Rice, No. 2250, २ | Haeberlin's Skt. Anthology, pp. 323 ff etc. ३ । Cf. Des. Catl. of Skt. Mss. in the Govtt. Skt. College, Ms. No. 162.) ४ । गवर्नमेन्ट ओरियन्टल लायब्ररी, मैसूर (१९१३) द्वारा प्रकाशित । ५। भूमिका, हंससंदेश-मैसूर एडीशन-पृष्ठ ६। ६। A Des. Catl. of Skt. Mss.
in the Govt. Orient. Library, Madras. vol.XX, No. 11912.
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[ भाग २
हूँ ४
भास्कर
(४८) हंसदूत - कवीन्द्राचार्य सरस्वती - कृत ४० श्लोकों में है । '
इनके अतिरिक्त दूतकाव्य ढंग के कुछ ग्रंथ और हैं परन्तु वह हाल की रचनायें हैं, इसलिये उपर्युक्त लिस्ट में उनकी गणना नहीं की गई है। वे भारत के विविध प्रान्तों के कवियों द्वारा ई० १६वीं शताब्दी के अन्तिम भाग और २०वीं शताब्दी के प्रारंभ में रचे गये हैं। इनमें से किन्हीं की रचना
तो बहुत ही ऊँचे दर्जे की है 1 उदाहरणरूप में बंगाल के कृष्णनाथ न्यायपञ्चानन के वातदूत'
का उल्लेख किया जा सकता है; जिसमें रामद्वारा सीता को संदेश भेजने का वर्णन है । इसके बाद द्वितीय श्र ेणी के काव्यों में' यादवचंद्र विद्यारत्न (सं० १७८६) का शुकदूतम् ' और दुधीच ब्रह्मदेव शन् का पिकसंदेश का नाम लिया जा सकता है। पिकसंदेश में एक कोयल ने मधुमक्खी को दूत बनाकर कवि के पास भेजा है और उसके द्वारा भारत की वर्तमान शोचनीय दशा का वर्णन किया है। कालिदास जीके मेघदूत के समान दो अन्य रचनायें ताजी हुई हैं । मेघप्रतिसंदेश में यक्ष की स्त्री ने उसी मेघ के हाथों अपना संदेशा यक्ष को भेजा है । और वह वर्णन बड़ा ही सरस और मनोहारी है। दूसरे त्रैलोक्यमोहन गुह नियोगी कविकीर्ति के मेघदौत्य में यक्षी उसी मेघ के द्वारा कुबेर के पास यक्ष को मुक्त करने का संदेश मेजती है, जिसे वह अन्त में मान लेता है और यक्ष-यती का मिलाप हो जाता है ।
मन्दिकल रामशास्त्री के
५
६
दूतकाव्य का निकास
दूतकाव्यों में सर्व-प्राचीन कविवर कालिदास जी का 'मेघदूत' है । कालिदासजी के काव्य का . मुख्य भाव दूतरूप में एक अजीव व्यक्ति द्वारा एक प्रेमी का अपनी प्रेमिका के प्रति प्रेमसंदेश भेजना है । यहां पर यह ध्यान में रहे कि प्रायः दूतकाव्यों में प्रेमियों द्वारा किसी अजीव पदार्थ के हाथों अपना प्रम-संदेश भेजने का नियम मुख्यता से मिलता है । कालिदासजी की इस अनोखी और कविकल्पनामय सूझ का आधार, यदि कोई था, तो वह क्या था; यह मालूम नहीं है । तो भी ऐसी सूम के चिह्न हमें कालिदास जी के समय से पहले अवश्य ही मिलते हैं। उदाहरणतः 'ऋग्वेद' (१०।१०८) में 'सरमा' नामक कुरो को पणि लोगों के पास दूत बना कर भेजने का उल्लेख है । रामायण और महाभारत में भी मूक पशुओं द्वारा प्र ेम सन्देश भेजने के उदाहरण मिलते हैं । रामने हनुमान को, (जिनको वैदिकशास्त्रों में पशुजाति का अनुमान किया गया है) अपना दूत बनाकर पास भेजा था, जिनके हाथों सीताजी ने भी अपना संदेशा रामचंद्रजी के पास पहुंचाया । ( रामायण ४।४४ व ५।४० ) ( महाभारत ३ । ५३३१ - २ ) में दमयन्ती ने जो राजा नल के पास से
किन्तु इन दूतों के सम्बन्ध
आये हुये हंस के द्वारा अपना संदेशा उनको भेजा था, उसका उल्लेख है । में इतनी बात अवश्य है कि इनको निरा मूक पशु ही नहीं माना गया, किन्तु इनके मनुष्य जैसी वाक्शक्ति आदि का होना वैदिक शास्त्रों में लिखा है । इस कारण उनको दूत बनाकर भेजने में कविकल्पना का कुछ भी चामत्कारिक भाव नजर नहीं पड़ता ! किन्तु इतने पर भी यह मानना कुछ
१। A classified List of Skt. Mss, in the Palace Library at Tanjore— २। Calcutta, S. E. 1822.
Burnell, p. 1637.
३। Ryot's Friend Press.
४ । झालरापाटन राजकीय सरस्वती-भवन द्वारा प्रकाशित ।
५ । जयालय प्र ेस मैसूर (१४२३)।
६ । Sanyal & Co.. Calcutta, 1909.
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किरण २]
संस्कृत में दूतकाव्य साहित्य का निकास और विकास
अनुचित प्रतीत नहीं होता कि कालिदास जी इन उपर्युक्त उल्लेखों से प्रभावित नहीं हुए थे। वह स्वयं इस प्रभाव को मेघदूत के १०वें श्लोक द्वारा ध्वनित करते मालूम होते हैं, यथा:-"इत्याख्याते पवनतनयं मैथिलीवोन्मुखी सा।" इससे साफ प्रकट है कि जिस समय कालिदास जी मेघदूत की रचना कर रहे थे, उस समय उनके नेत्रों के सामने सीता जी द्वारा हनुमान को दूत बनाकर संदेश भेजने की घटना मौजूद थी। मल्लिनाथ ने अपनी टीका में भी एक ऐसे कथानक का उल्लेख किया है। (सीतां प्रति रामस्य हनूमत्सन्देशं मनसि निधाय कविः कृतवान् इत्याहुः । ) इनसे भी पहले के मेघदूत-टीकाकार दक्षिणावर्तनाथ भी इसका आधार इसी तरह स्वीकार करते हैं ।।
किन्तु उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त भी भारत एवं भारतेतर देशों में कालिदास जी के पहले के रचे हुए ग्रंथ और थे, जिनमें दूतकाव्यों जैसे विचारों का सद्भाव था। जैसे 'कामविलाप-जातक' (नं. २६७) में आपत्ति में फंसे हुये एक पुरुष-द्वारा कौव्वा को दूत बना कर अपनी स्त्री के पास भेजने का उल्लेख मिलता है। चीन के हस्कन (Hskin) (१९६-२२१ ई०) नामक कवि ने भी एक स्थान पर एक भद्र महिला-द्वारा एक मेघ को दूत नियत करके अपने स्वामी के पास भेजने का वर्णन किया है। इनने नागार्जुन को 'प्रज्ञामूल शास्त्रटीका' का अनुवाद चीनी भाषा में किया था।
सचमुच हमें यह विदित नहीं कि कालिदासजी को इस चीनी कवि के उपर्युक्त उल्लेखवाले ग्रंथ का पता था या नहीं, परन्तु यह तो निस्संदेह मानना पड़ता है कि वे रामायण-महाभारत एवं जातक ग्रंथों से अवश्य परिचित हो सके हैं। इस अवस्था में उनने अपने दूतकाव्य के मूलभाव का आधार इन ग्रंथों में पाया हो, तो कोई आश्चर्य नहीं ! सुतरां चीनी कवि की उक्त कल्पना किसी रूप में किसी तरह से भारत में न आई हो और उससे व्यक्त अथवा अव्यक्तरूप में कालिदास जी ने लाभ न उठाया हो, इसके लिये भी प्रामाणिकरूप में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। किन्तु इन बातों से कवि महोदय की धवलकीर्ति में कुछ भी बट्टा नहीं आ सकता है। क्योंकि अन्य देशों के बड़े बड़े कवियों ने भी जैसे अंग्रेज-कवि शेक्सपीयर ने अपने ग्रंथों के लिये 'प्लाट' (Plots) अपने से प्राचीन स्रोतों से ग्रहण किये थे। स्वयं कालिदास जी को पुराणों और काव्यों से अपने अन्य ग्रंथ जैसे अभिज्ञान शकुन्तलम् रघुवंशम् और कुमारसम्भवम् के रचने में सहायता लेनी पड़ी है। कवि का महत्व तो उसके वर्णनशैली, मनुष्यस्वभाव की भीतरी पैठ और पात्रों के ठीक और प्रभावशाली चुनाव पर ही निर्भर है।
और इस अपेक्षा यदि यह मान भी लिया जाय कि मेघदूत के रचने में कवि को अन्य स्रोत का आधार लेना पड़ा था, तो भी इस कारण भारतीय कवियों में उनका दर्जा कविसम्राट से सर्वथा उपयुक्त ठहरता है, मेघदूत काव्य में चामत्कारिक कविता के कुछ ऐसे नमूने मौजूद हैं, जो पुराणों में नहीं मिलते हैं और संस्कृत दूतकाव्यों के वह पूर्व आधार (Proto-ty pes) अथवा नमूने कहे जा सकते हैं।
किन्हीं किन्हीं का कहना है कि कालिदासजी की उपर्युक्त सूझ कवि घटकर के 'यमककाव्य' को देखकर ही उद्भूत हुई थी। यह कवि कालिदास जी के समकालीन और विक्रमादित्य के नौ-रत्नों में से एक बतलाये जाते हैं। 'यमककाव्य' में एक पत्नी की विरह-गाथा ठीक 'मेघदूत' के ढंग से वर्णित है कि कैसे पतिवियोग को न सह सकने के कारण उसने वर्षाऋतु के आगमन पर मेघों द्वारा अपनी विरहकथा का संदेश अपने पति के पास भेजा था। (यमककाव्य श्लोक ८-१३) किन्तु नवरत्नोंवाली व्याख्था का आधार कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है-इस कारण इस सम्बन्ध को विश्वसनीय सिद्ध करना जरा कठिन है।
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कवि कालिदास के मेघदूत की प्रख्याति
संस्कृत साहित्य के इतिहास में कालिदासजी के 'मेघदूत' की नवीन रचनाशैली से एक नया ही युग खड़ा हो गया ! और जनता के चित्त को भी उसने अपनी ओर आकर्षित कर लिया । सचमनोन्यथा प्रदर्शित करनेवाले अतः स्वभावतः कालिदास के इसी विशद प्रख्याति का फल
मुच मि० फाँचे साहब का यह (Elegiac) समूचे साहित्य में मेघदूत की प्रख्याति विशेषरूप था कि बाद के सच है कि इन रचना नहीं है ।
कहना बिल्कुल ठीक है कि यूरोप के मेघदूत की सानी कोई नहीं रखता । में प्राचीनकाल से हो चली थी । अनेक कवियों ने उनके इस दूतकाव्य की नकल की थी। उपरान्त के उपलब्ध दूतकाव्यों में
यह
किन्तु साथ ही यह भी कोई भी ईसा की १२वीं शताब्दी से पहले की पर इसका अर्थ यह नहीं होता कि इसके पहले से मेघदूत की प्रख्याति हुई ही नहीं थी। आठवीं शताब्दी में रचे हुये जिनसेनाचार्य के 'पार्श्वाभ्युदय' में' समस्यापूर्ति की अपेक्षा समूचा मेघदूत उसमें ओतप्रोत है । अब यदि जिनसेनाचार्य के समय 'मेघदूत' की प्रख्याति विशेष न हुई होती तो कोई कारण नहीं था कि वह उसका समावेश अपने काव्य में करना आवश्यक समझते । उपरान्त के कवियों ने भी अपनी कृतियों में इसी प्रकार 'मेघदूत' का समावेश किया है । अतः इससे मेघदूत की विशद प्रख्याति का होना स्पष्ट है । तिसपर सिंहलीय और तिब्बतीय माषाओं में जो इसके प्राचीन अनुवाद मिलते हैं, वह भी इसकी बहु प्रख्याति की साक्षी है । फिर एकदम पचास टीकाकारों ने अपनी लेखनी को इसका विकास करने में प्रयुक्त किया, वह भी इसी बात का द्योतक है । आश्चर्य तो यह है कि उस प्राचीनकाल से जो धवलकीर्ति मेघदूत की रही है, वह अब भी भारत एवं भारतेतर निवासियों में कम नहीं हुई है ।
भास्कर
—
संस्कृत में दूतकाव्यों के विकास का इतिहास -
संस्कृत में दूतकाव्यों के विकास सम्बन्धी इतिहास के लिये हमें' कालिदास के काव्य की सर्व-प्राचीन नकल से श्रीगणेश करना चाहिये । ऐसे उपलब्ध काव्यों में धूषी का 'पवनदूत' ही सर्व प्राचीन विदित होता है; यद्यपि इसका कुछ आभास इससे भी प्राचीन ग्रंथ भवभूति के मालतीमाधव में मिलता है (अ० ) । उपलब्ध दूतकाव्यों में इनसे प्राचीन कोई ग्रंथ हो यह हमें मालूम नहीं; क्योंकि उनमें से अधिकांश का समय अनिश्चित है । तो भी यह निस्संदेह माना जा सकता है कि धो के पहले भी 'मेघदूत' को आदर्श मानकर उसी के ढंग के काव्य रचे गये थे, जो सर्वथा लुप्त हो गये या किसी ग्रंथभांडार में अन्वेषक की प्रतीक्षा कर रहे हैं । सातवीं शताब्दी के अंत अथवा आठवीं के प्रारंभ में हुए कवि भामह स्पष्ट रीति से ऐसे कवियों का, उल्लेख करते हैं जो मेघ, पवन, चन्द्रमा, चक्रवाक, शुक आदि अजीब अथवा मूक व्यक्तियों से अपने काव्यों में दूत का कार्य कराते थे । ( भामहालङ्कार, १1४२ – ४४ ) अतः कवि भामह के समय दूतकाव्य ही शायद कालिदास जी के मेघदूत के प्रथम प्रतिरूपक काव्य थे, यह मानना कुछ अनुचित नहीं दीखता । प्रो० कीथ ने मेघदूत का प्रतिभास वत्सभट्टि के लेखों में और डॉ० हल्शज ने वेङ्कटाध्वरिन के विश्वगुणादर्श में जो बतलाया है, वह ठीक नहीं है ।
१। Dr. Bhan Daji's - Essay on Kalidasa, P. 7. २। Hultzsch, Preface to Meghaduta, p. VIII. ३। क्लासीकल संस्कृत लिट्र ेचर, पृष्ठ ३६ ।
[ भाग २
४। मेघदूत, भूमिका, पृष्ठ
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किरण २] संस्कृत में दूतकाव्य साहित्य का निकास और विकास
उपरांत के दूतकाव्यों मे, जो प्रायः सब ही मेघदूत के आधार से रचे गए हैं, कालिदास से सहायता ग्रहण करने के चिह्न उनमें पद पद पर प्रकट होते हैं। यह ऋण यहां तक है कि मेघदूत में जो छंद उपयुक्त हुआ है उसी को इनमें अपनाया गया है। प्रायः एक दो को छोड़कर शेष सब दूतकाव्य मेघदूत के 'मन्दाक्रान्ता' छंद में रचे गये हैं। विषय भी प्रायः सब में वही है जो मेघदूत में है, अर्थात् एक प्रेमी का अपने प्रेमपात्र को प्रेम संदेश भेजना ! इसके अतिरिक्त अनेक शब्द और भाव आदि भी इनमें वैसे और उसी तरह व्यक्त हुए मिलते हैं जैसे मेघदूत में है।' इस तरह यद्यपि इन अर्वाचीन दूतकाव्यों में मेघदूत से समानता है, परन्तु उनमें यत्र तत्र विभिन्नता भी मिलती है। उदाहरण के रूप में जहाँ पहले के काव्यों में चलते हुये बादल और पवन जैसे अजीव पदार्थों को दूत बनाया जाता था और जो एक चामत्कारिक ढंग था, उसका स्थान धीरे धीरे पशुओं और फिर मनुष्यों को दिया जाने लगा। (जैसे शुकसंदेश व उद्धव-संदेश आदि में) और हद तो 'भक्ति' और 'मन' आदि को दूत का कार्य सौंपने में हुई है (जैसे मनोदूत और भक्तिदूती में)। ऐसी रचनायें अलंकृतभाषा के उपाख्यान हो गए हैं।
दूतकाव्य साहित्यविकास में सबसे अनोखी बात जो दृष्टिगोचर होती है, वह इसमें शांति रस को समावेशित करने की है, जो संभवतः सर्वप्रथम जैनों के पार्वाभ्युदय-द्वारा प्रविष्ट हुआ है। इस ढंग पर कितने ही कवियों ने धार्मिक नियमों और ताविक सिद्धान्तों का उपदेश भी प्रतिपादित किया है। (यथा शीलदूत) कितने ही जैन कवियों ने दूतकाव्यों की रचना चिट्ठियों का कार्य करने के लिये की है, जो 'विज्ञप्तिपत्र' कहलाते हैं और जिनको उन्हें अपने गुरुओं के प्रति अपने धर्म-प्रभावना के कार्यों का परिचय कराने के लिये लिखने की आवश्यकता पड़ती थी। (जैसे चेतोदूत, इन्द्रदूत आदि) - इनमें जो यह नवीन संस्कार किये गये थे, इनसे साफ प्रकट है कि सर्वसाधारण जनता में इन दूतकाव्य को विशेष आदर का स्थान प्राप्त था। और यदि ऐसा न होता तो यह संभव नहीं था कि विविध धर्मों के आचार्य और नेता अपने नीरस धर्मसिद्धान्तों और नियमों का प्रचार करने के लिये इस साहित्य का आधार ढूंढ़ते ! इसके अतिरिक्त एक और बात जो इन दूतकाव्यों के पाठकों का ध्यान आकर्षित करेगी वह यह है कि इन काव्यों में चरित्रनायक व्यक्ति पुराणवर्णित महापुरुष हैं, यथा हिन्दुओं के दूतकाव्यों में राम सीता, कृष्ण राधा आदि हैं और जैनों में पार्श्वनाथ, नेमिकुमार, स्थूलभद्र आदि हैं। हिन्दू कवियों का मन रामसीता और राधाकृष्ण के कथानकों में बेहद पगा हुआ था कि नलदमयाती जैसे उपयुक्त उपाख्यान उनके मन को न मोह सके । बङ्गाली कवियों में से अधिकांश ने कृष्णलीला को ही अपनी प्रिय वस्तु मानी है। रामकृष्ण के कथानकों को प्रधानता देने का कारण संभवतः वैष्णवसम्प्रदाय का उपरान्त बहुजनमुक्त होना ही होगा। किन्तु इनमें काल्पनिक एवं ऐति. हासिक व्यक्तियों को भी प्रायः नहीं अपनाया गया है ।
भाषा में दूतकाव्य साहित्य---
दूतकाव्य ने जनता का मन अन्य संस्कृत रचनाओं की अपेक्षा विशेष मोह लिया था, यह बात केवल उल्लिखित 'अगणित संस्कृत दूतकाव्यों के अस्तित्व से ही प्रमाणित नहीं है, प्रत्युत इस बात से भी है कि निकट भूतकालीन भाषाकवियों ने मी इस प्रकार का साहित्य रचना आवश्यक समझा था।
१। cf. my edition of Pavanduta, Intro. pp. 13-4,
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भास्कर
[ भाग २
जैसे कि सिंहलीय भाषा में ऐसी रचनायें (मयूरसंदेश, कोकिलसंदेश आदि) बहुत बताई जाती हैं। १७वीं शताब्दी के नरसिंहदास का रचा हुआ पुरातन बंगला भाषा में भी एक 'हंसदूत' मिलता है । इसी नाम के दो और काव्य माधवगुणाकर और कृष्णचंद्र के हैं।' दूतकाव्य के साहित्यविकाश में जैनकवियों का हाथ
दूतकाव्यों द्वारा धार्मिक एवं सैद्धान्तिक तस्वों और नियमों का प्रचार करने का सर्वप्रथम श्रेय संभवतः जैन कवियों को ही है। क्योंकि पाठवीं शताब्दी जैसे प्राचीन समय के रचे हुए श्रीजिनसेनाचार्य के 'पार्धाभ्युदय' में, जिसमें कि जैनधर्म के संभवतः सर्वप्रथम ऐतिहासिक संस्थापक श्रीपाश्र्वनाथ जी का जीवनचरित्र और उनकी शिक्षा को प्रकट किया गया है, समूचा का समूचा मेघदूत समस्यापूर्तिरूप में समाविष्ट कर लिया गया है। हाँ, ऐसा करने में कवि ने कहीं कहीं कालिदास के अर्थ और भाव से विभिन्न रूप में उनका व्यवहार किया है। जैन कवियों की ऐसी और भी रचनायें, मेघदूत के आधार पर रची गई हैं, और उनमें उनके रचयिताओं ने संस्कृत भाषा पर अपने पूर्ण प्राधिपस्व को प्रकट किया है और वे दूतकाव्य साहित्य के इतिहास में मुख्य स्थान को ग्रहण किये हुये हैं। शीलदूत चेतोदूत, नेमिदूत और मेघदूत समस्यापूर्ति के ऐसे जैनकाव्य हैं जिनमें मेघदूत के प्रत्येक श्लोक का अन्तिम चरण समावेशित किया गया है। इनमें भी काव्यरचना की श्रेष्ठता का प्रभाव नहीं है। हां, यह अवश्य है कि अपने भाव को प्रकट करने के लिये, इनको भाषा सरल और मधुर नहीं रही है। किन्तु उनमें जो मेघदूत के चरण मौजूद हैं उनसे उन ग्रंथकर्ताओं के समय वह जिस रूप में प्राप्त था उसका खासा दिग्दर्शन होता है, जिससे उसका असली रूप प्रकट हो जाता है। ___ जैनियों ने जिस प्रकार इस साहित्य के द्वारा धार्मिक तत्वों को प्रकाशित करने का प्रारंभिक उद्योग किया, उसी तरह उसका एक नया रूप भी उनके द्वारा हुआ। प्रायः सब ही जैनकाव्य हिन्दूकाव्यों के शृङ्गारादि विषय-पोषक रसों के विपरीत शान्ति और भक्ति रस से परिपूर्ण हैं। इस सम्बन्ध में उनके ' 'विज्ञप्ति पत्रों को' हमें नहीं भुला देना चाहिये, जो पर्युषणपर्व के समय जैनसाधुओं द्वारा उनके प्राचार्यों को लिखी हुई चिट्ठियां हैं और जो दूतकाव्यों के ढंग पर लिखी गई हैं (जैसे चेतोदूत, मेघदूतसमस्यालेख, इन्दुदूत आदि)। दूतकाव्यों से भौगोलिक परिज्ञान
किन्हीं दूतकाव्यों में दूत को मार्ग बताने के विवरण में अच्छे रूप का भौगोलिक परिचय दिया हुआ मिलता है; यद्यपि अधिकांश में वह प्रायः नाम मात्र को है। किन्तु जो कुछ भी है वह संतोषप्रद है, क्योंकि भारतीय साहित्य में इस विषय का प्रायः नहीं के बराबर उल्लेख मिलता है। कालिदासजीने रामगिरि से अलका तक का जो भौगोलिक वर्णन अपने काव्य में लिखा है, उसके महत्व से प्रायः सब ही विद्वान् परिचित हैं। धोयी कवि के 'पवनदूत' में मलयपर्वतावली से रामा लक्ष्मणसेन की राजधानी विजयनगर बंगाल) तक के प्रदेश का अच्छा वर्णन है जिसका विवेचन १। Prof. Geiger, Litteratur und sprache der Singhalessen pp. 9-17. २। Ceylon Antiquary, vol. III. pp. 13 ff, ३ । बङ्गीय सोहित्य-परिचय पृष्ठ ८५०-६०। ४। हिस्ट्री आफ बंगाली बेन्ग्वेज एण्ड लिट्रेचर पृष्ठ २२५ ।
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किरण २]
संस्कृत में दूतकाव्य साहित्य का निकास और विकास
भी कई बार हो चुका है। (J.A.S.B., 1905, Vol. I, pp. 43-5, & Intro. to my edition of Pavanduta, pp. 19-26). वेदान्तदेशिक के हंससंदेश में माल्यवत पर्वत से लङ्का तक के मार्ग का परिचय खूब कराया गया है। लक्ष्मीदास के शुकसंदेश में रामेश्वरम् और गुणपुर के मध्यवर्ती नगरों, ग्रामों, मंदिरों आदि का मनोरंजक वर्णन है। इसी तरह मेघदूतसमस्यालेख में औरंगाबाद से द्वीपपुरी (दीव-वन्दर; गुजरात) तक के रास्ते का बड़ा ही सूक्ष्म परंतु विशद विवरण मिलता है। विनयविजयगणि के 'इन्दुदूत' में योद्धापुर (जोधपुर) से सूरत तक का मार्ग बताया गया है। इन अन्तिम दो जैनकायों के वर्णन का महत्त्व मार्ग में के अगणित जैनमंदिरों और तीर्थस्थानों के उल्लेखों के कारण बहुत बढ़ गया है। किन्तु आश्चर्य है कि बङ्गाली कवियों द्वारा लिखे हुए कृष्णसम्बन्धी दूतकाव्यों में इस विषय का कुछ भी वर्णन नहीं है। उनके ग्रंथों में वृन्दावन वा मथुरा का कुछ भी भौगोलिक वर्णन नहीं लिखा है।
नोट-यह महत्वशाली साहित्यिक लेख मूल में अंग्रेजो के प्रसिद्धपत्र "दी इन्डियन हिस्टॉरीकल क्वाटली" (भाग ३ अंक २ पृष्ठ २७३-२६७) में प्रकट हुआ है। उसी का यह हिन्दी अनुवाद पाठकों के लाभार्थ सधन्यवाद उपस्थित है। सचमुच कवि कालिदास जी के 'मेघदूत' आदर्श ने भारत में एक स्वतंत्र दूतकाव्य साहित्य की सृष्टि करा दी है, जिसका महत्व उपर्युक्त लेख से प्रकट है। हिन्दी-भाषा में भी ऐसे काव्यों का प्रभाव नहीं है। ढूंढ़ने से उसमें इस टायप की मौलिक रचनायें भी मिल जायगी-वैसे कालिदासजी के मेघदूत का पद्यमय अनुवाद तो हो ही चुका है। जैनकवियों ने भी इस साहित्य को उन्नत बनाने में बहुत कुछ कार्य किया है, यह हमारे लिये गौरव की बात है। अयसागर उपाध्याय की 'विज्ञप्तित्रिवेणी.' भी एक विज्ञप्तिपत्ररूप का काव्य है, जिसे सिन्धदेश के मलकवाहण स्थान से अणहिलपुरपाटन को लिखा गया था। इसमें भी भौगोलिक वर्णन अच्छा हैं परन्तु यह शायद 'दूतकाव्य' के ढंग का नहीं है।
-सं.
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प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार की समीक्षा
( ले ० -- पंडित वंशीधर व्याकरणाचार्य, न्यामतीर्थ, साहित्य-शास्त्री )
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( क्रमागत)
पाठक देखेंगे कि इसमें उपनय, निगमन का कितना भोवपूर्ण समावेश कर के उनकी अनुमानाङ्गता का निराकरण किया गया है। यहां पर इनका उद्देश हो जाने के कारण इनके लक्षण सूत्रों की भी संगति हो जाती है। सूत्र नं० ३७ में "नोदाहरणम्” के स्थान में "नोदाहरणादिकम्" ऐसा पाठ नहीं रखने का भी गंभीर आशय है । एक तो इस सूत्र के पहिले किसी भी सूत्र में उपनय, निगमन का कथन नहीं है । इसलिये आदि शब्द से उनका अनुसंधान ही नहीं हो सकता है। दूसरी बात यह है कि यहां पर आदि शब्द का पाठ करने से उसके आगे के सूत्र नं० ३८ में " तत्" पद से "उदाहरणादिकम् " इसका अनुसंधान होता, जो कि अनिष्ट था कारण कि उपनय और निगमन का प्रयोजन साध्यप्रतिपत्ति नहीं, किन्तु उदाहरण के प्रयोग से पक्ष में साध्य और साधन के सद्भाव के विषय में उत्पन्न हुए संदेह को दूर करना है। ऐसी हालत में सूत्र नं० ३८ में " तत्” पद के स्थान में "उदाहरणम्” ऐसा पाठ करना पड़ता तथा आगे सूत्रों में किसी प्रकार का परिवर्तन हो नहीं सकता था जिससे सूत्रों में गौरव होता, इसलिये सूत्र नं० ३७ में 'उदाहरणम्' ऐसा पाठ ही परीक्षामुख में किया गया है। वास्तव में सूत्रों में इसी तरह की लघुता, संबद्धता आदि का ध्यान रखना ग्रन्थकर्त्ता का परम कर्त्तव्य होता है । पाठक देखेंगे कि इनका ध्यान प्रामाणनयतत्त्वालोकालंकार में कहां तक रखा गया है।
यों तो इस ग्रन्थ में निरर्थक पदों का बहुत स्थानों पर प्रयोग किया गया है, लेकिन कहीं कहीं पर तो पदों की निरर्थकता का स्पष्ट अनुभव होता हैं ।
साध्येनाविरुद्धानां व्याप्यकार्यकारणपूर्वचरोत्तरचरसहचराणामुपलब्धिः ॥६६–३॥
प्र० न० तस्वा० ।
इसमें विरुद्धोपलब्धि हेतु के व्याप्य, कार्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर इन छः भेदों का नाम निर्देश किया है। सूत्र नं० ७० में कारण हेतु का समर्थन किया गया है । सूत्र नं० ७१ इस प्रकार है।
1
पूर्वचरोत्तरचरयोर्न स्वभावकार्यकारणभावौ तयोः कालव्यहितावनुपलम्भात् ॥७१–३
प्र० न० तस्वा० ।
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भास्कर
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श्री ऋषभदेव (उत्कलीय कला )
यह चित्र १म किरण में प्रकाशित "जैन-मूर्त्तियाँ " लेख से सम्बद्ध है।
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THE S. P. W.. ARRAH.
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किरण २ ]
प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार की समीक्षा
इसमें पूर्वचर उत्तरचर हेतुओं का स्वभाव, कार्य, कारण हेतुओं में अन्तर्भाव नहीं हो सकता है इसलिये इनको स्वतंत्र स्वीकार करना चाहिये, इस बात का समर्थन किया गया है। सूत्र नं० ७२, ७३, ७४, ७५ में इसी की पुष्टि की गयी है। सूत्र नं० ७६ इस प्रकार है
सहचारिणोः परस्परस्वरूपत्यागेन तादात्म्यानुपपत्तेः, सहोत्पादेन तदुत्पत्तिविपत्तेश्व, सहचरहेतोरपि प्रोक्तषु नानुप्रवेशः ॥७६-३॥ ___ इस सूत्र में “सहचरहेतोरपि प्रोक्तषु नानुप्रवेशः" इतना अंश बिल्कुल निरर्थक ही है, कारण कि जिस प्रकार सूत्र नं. ७१ में “पूर्वचरोत्तरचरयोः स्वभावकार्यकारणेषु नानुप्रवेशः” इसका अनुसंधान ग्रन्थकर्ता को बाहिर से करना पड़ता है, उसी प्रकार यहां पर भी किया जा सकता है। यह बात नहीं है, कि सूत्र नं० ७१ में इस पद का अनुसंधान ही न करेंगे, कारण कि इस पद का अनुसंधान नहीं करने से सूत्र नं०७१ का इतना ही अर्थ होता है कि "पूर्वचर और उत्तरचर में स्वभाव अथवा कार्यकारण भाव नहीं है क्योंकि स्वभाव और कार्यकारणभाव काल का व्यवधान होने पर नहीं देखे जाते हैं। लेकिन इतने मात्र अर्थ से आकांक्षा की निवृत्ति नहीं होती, किन्तु "इसलिये पूर्वचर और उत्तरचर हेतुओं का स्वभाव, कार्य, कारण हेतुओं में अन्तर्भाव नहीं हो सकता है" इतना अश उस अर्थ के साथ संबद्ध करने से ही वाक्यार्थ पूरा होता है। इतना अवश्य है कि यह अर्थ तात्पर्य से निकल ही आता है इसलिये इसके बोधक वाक्य का सूत्र में पाठ करने की ज़रूरत नहीं है। इसी प्रकार सूत्र नं० ७६ में भी पूर्वोक्त अंशके पाठ करने की भावश्यकता नहीं है। ___ यहां पर "प्रोक्तषु" पद असंबद्ध भी है। यह पद पहिले कहे हुए का अनुसंधापक होता है। यहां पर इस पद से "स्वभावकार्यकारणेषु" इस पद का अनुसंधान अभीष्ट है। टीकाकार ने रत्नाकरावतारिका में यही अर्थ "प्रोक्तेषु" पद का किया भी है, लेकिन इस सूत्र के पहिले किसी भी सूत्र में "स्वभावकार्यकारणेषु" यह पद नहीं पढ़ा गया है जिससे कि "प्रोक्तेषु" पद से उसका अनुसंधान किया जा सके। इसलिये “सहचरहेतोरपि प्रोक्तेषु नानुप्रवेशः' इस अंश को पृथक् करने से ही सूत्र संगत हो सकता है। यह आवश्यक है कि इस अंश के निकल जाने से सूत्र में “सहचारिणोः" पद के आगे अपि शब्द अपेक्षित हो जाता है जो कि सूत्र नं० ७१ में कहे हुए “न स्वभावकार्यकारणभावौ” इस पद का दोनों सूत्रों में अन्वित होने का बोध कराता है, इस तरह से सूत्र का स्वरूप निम्न प्रकार हो जाता हैं। ___सहचारिणोरपि परस्परस्वरूपपरित्यागेन तादात्म्यानुपपत्तेः सहोत्पादेन तदुत्पत्तिविपत्तश्च ॥७६-३॥
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भास्कर
[ भाग २
इसमें सूत्र नं० ७१ से “न स्वभावकार्यकारणभावौ" पद की अनुवृप्ति लाकर अन्त मैं उसका संबन्ध करने से सूत्र से संगत अर्थ की प्रतीति होने लगती है । इस सूत्र में " तदुत्पत्तिविपत्तेश्व" इस अंश में विपत्ति शब्द का पाठ कर के भी ग्रन्थकार ने अर्थ को कठिन बना दिया है। यहां पर विपत्ति शब्द का अर्थ अभाव हो अभीष्ट है जिससे पूर्ण पद का अर्थ होता है - तदुत्पतिरूप संबन्ध का अभाव ! लेकिन इस अर्थ के समझने में अवश्य ही कठनाई का अनुभव होता है। परीक्षामुख में इसके स्थान में यह सूत्र पाया जाता है।
७२
सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात्सहोत्पादाच्च ॥ ६४-३॥ .
षष्ठ परिच्छेद में प्रमाण और उसके फल की भेदाभेद-व्यवस्था सिद्ध करते हुए प्रमाण और फल की व्यवस्था कल्पनामात्र नहीं, किन्तु वास्तविक है इस आशय को प्रन्थकार ने इस प्रकार प्रकट किया है ।
संवृत्या प्रमाणफलव्यवहार इत्यप्रामाणिकप्रलापः परमार्थतः
स्वाभिमतसिद्धिविरोधात् ॥२१-६॥
ततः पारमार्थिक एव प्रमाणफलव्यवहारः सकलपुरुषार्थसिद्धिहेतुः स्वीकर्त्तव्यः ॥२२–६॥
इनमें नं० २२ का सूत्र बिल्कुल निरर्थक है कारण कि उसका अर्थ तो नं० २१ के सूत्र का तात्पर्य ही है। इन सब बातों के देखने से यह धारणा होती है कि यह ग्रन्थ सूत्र समुदाय नहीं किन्तु वाक्यों का ही समुदाय है ।
सप्तभंगों के उल्लेखों में भूल ।
सप्तभंगी प्रकरण में सप्तभङ्गों का उल्लेख ग्रन्थकार ने इस प्रकार किया है(१) स्यादस्त्येव सर्वमिति विधिकल्पनया प्रथमो भङ्गः ॥१५–४॥
(२) स्यान्नास्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयः ॥ १६-४ ॥
(३) स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया तृतीयः ॥१७- ४॥ (४) स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः ॥१८-४॥
(५) स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिकल्पनया युगपद्विधि
निषेधकल्पनया च पञ्चमः ॥१६४॥
(६) स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेध
कल्पनया च षष्ठः ॥२०-४॥
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किरण २ ]
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प्रमाणनयतत्वालोकालंकार की समीक्षा
(७) स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च सप्तमः ॥२१ - ४॥ प्र० न० तत्वा ॥
इन अंगों में तृतीय, पञ्चम, षष्ठ और सप्तम विचारने योग्य हैं । इसके पहिले यह जान लेना आवश्यक है कि ये सात भंग क्यों होते हैं ?
(१) वक्ता की सात प्रकार से वस्तु के कहने की इच्छा होती है इसलिये वह इन सात वाक्यों का प्रयोग करता है ।
(२) उसकी सात प्रकार से वस्तु के कहने की इच्छा इसलिये होती है कि जिज्ञासु उससे सात प्रकार के प्रश्न करता है ।
(३) जिज्ञासु सात प्रकार के प्रश्न इसलिये करता है कि उसे सात प्रकार से वस्तु के जाने की इच्छा होती है ।
(४) उसको सात प्रकार से वस्तु को जानने की इच्छा इसलिये होती है कि वस्तु में उसे सात प्रकार का संदेह पैदा होता है ।
(५) सात प्रकार का संदेह इसलिये होता है कि वस्तु में प्रत्येक पर्याय की अपेक्षा विधि - निषेध रूप सात प्रकार के धर्म पाये जाते हैं। में के सात प्रकार के धर्म ही कारण हैं । वस्तु का प्रयोग होता है ।
1 इस प्रकार परम्परा से सात भंगों एक एक धर्म की विवक्षा में एक एक वाक्य
जब स्वरूप से सत्त्व धर्म की प्रधानता से वस्तु के कहने की इच्छा होती है तब "स्यादस्त्येव सर्वम्” यह प्रथम भंग होता है । जब पररूप से असत्व धर्म की प्रधानता से वस्तु के कहने की इच्छा होती है तब “स्यान्नास्त्येव सर्वम्" यह दूसरा भंग होता है। जब क्रमार्पित स्वरूप पररूप से अस्तित्व नास्तित्व रूप तीसरे धर्म की प्रधानता से वस्तु के कहने की इच्छा होती है तब "स्यादस्ति नास्त्येव सर्वम्” यह तीसरा भंग होता है । इस भंग में अस्तित्व नास्तित्व दोनों धर्मवाच्य रहते हैं इसलिये पहिले, दूसरे भंगों से इसमें भेद होता है । कारण कि पहिले भंग में केवल अस्तित्व वाच्य रहता है, दूसरे भंग में केवल नास्तित्व वाच्य रहता है; इतना अवश्य है कि तीसरे में ये दोनों धर्म स्वतंत्र अनुभूयमान नहीं होते हैं किन्तु समूहरूप से ही इनका अनुभव होता है। जिस प्रकार बादाम, लायची, मिर्च, शक्कर आदि द्रव्यों से तैयार किये हुए पानक में इन सब का समूह रूप से अनुभव होता है इसलिये' वादाम, लायची, मिर्च, शक्कर आदि की अपेक्षा सब का मिश्रणरूप पानक स्वतंत्र एक वस्तु लोक-प्रसिद्ध है, उसी प्रकार प्रत्येक अस्तित्व, नास्तित्व की अपेक्षा दोनों का समूह भी एक स्वतंत्र धर्म सिद्ध होता है । इसको अस्तित्वविशिष्ट नास्तित्व या नास्तित्वविशिष्ट
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७४
भास्कर
[ भाग २
अस्तित्व कह सकते हैं। इसकी प्रधानता से जब वस्तु के कहने की इच्छा होती है तब "स्यादस्ति नास्त्येव सर्वम्" या "स्यान्नास्त्यस्त्येव सर्वम्" इस प्रकार तीसरा भंग होना चाहिये। ग्रन्थकार ने जो इसके स्थान में “स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव सर्वम्” इस प्रकार उल्लेख किया है इसमें उनका अभिप्राय क्या था सो नहीं कहा जा सकता। कारण कि इस भंग में दो जगह स्यात् और एव शब्दों का कथन करने से "स्यादस्त्येव" तथा "स्यान्नास्त्येव" इनसे अस्तित्व, नास्तित्व दोनों धर्म भिन्न भिन्न प्रतीत होने लगे हैं, लेकिन इस तरह की यह प्रतीति पहिले और दूसरे भंग से होती है इसलिये तीसरे भंग की इस अवस्था में कोई सार्थकता नहीं रह जाती है। दूसरी बात यह है कि जब तृतीय भंग में क्रमापितोभय-रूप धर्म ही वाच्य रहता है तब दोनों की भिन्न भिन्न प्रतीति कराने वाला ऐसा उल्लेख हा भी नहीं सकता है इसलिये तीसरे भंग का स्वरूप “स्यादस्ति नास्त्येव सर्वम्" या 'स्यान्नास्त्यस्त्येव सर्वम्' ऐसा ही होना चाहिये। इसी प्रकार पञ्चम, षष्ठ और सप्तम धर्म भी अपने अपने रूप में एक हैं इसलिये उनमें भी एक एक ही स्यात् और एव पद होना चाहिये, अन्यथा उन भंगों का प्रयोग भी निरर्थक सिद्ध होगा, कारण इस तरह से पूर्वोक्तानुसार वे भी पुनरुक्त सिद्ध हो जाते हैं । - इसी प्रकार इस ग्रन्थ में स्थान स्थान पर बहुत विषय समालोच्य हैं, लेख बढ़ जाने के भय से इस समालोचना को यहीं समाप्त करता हूँ। फिर कभी दूसरे लेख-द्वारा विशेष प्रकाश डालने की चेष्टा की जायगी।
ग्रन्थकार । इस ग्रन्थ के रचयिता श्वेताम्बराचार्य श्रीवादिदेव सूरि हैं। ये विक्रम की वारहवीं सदी के विद्वान् माने गये हैं इसलिये इसमें कोई संदेह नहीं कि ये परीक्षामुख के कर्ता श्रीमाणिक्यनन्दी से बहुत पीछे के विद्वान् हैं । कारण कि श्रीमाणिक्यनन्दी का समय विक्रम की आठवीं सदी माना गया है। इनके विषय में श्वेताम्बर ग्रन्थों को मान्यता यह है कि इन्होंने दिगन्वराचार्य उन कुमुदचन्द्र को शास्त्रार्थ में विजित किया था जिन्होंने ८४ शास्त्रार्थों में विजय प्राप्त की थी जैसा कि निम्न पद्य से प्रकट होता है।
येनार्दितश्चतुरशीतिसुवादिलीलालब्धोल्लसजयरमामदकेलिशाली ॥ वादावहे कुमुदचन्द्रदिगम्बरेन्द्रः श्रीसिद्धभूमिपतिसंसदि पत्तनेऽस्मिन् ॥७४॥
___ (गुर्वावल्या श्रीमुनिसुन्दरसूरयः ) अर्थात्-जिन श्रीवादिदेव सूरि ने चौरासी शास्त्रार्थों में विजय प्राप्त करने वाले दिगम्बराचार्य श्रीकुमुदचन्द्र को शास्त्रार्थ में परास्त किया। श्रीवादिदेव सूरि के विषय में
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किरण २ ]
कविवर श्रीजिनसेनाचार्य और पाश्वभ्युदय
श्वेताम्बर ग्रन्थों में इसी तरह के अनेक उल्लेख प्रशंसापूरक पाये जाते हैं, उन सब के लिखने का यह स्थान नहीं है इतना अवश्य है कि ये दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र कौन थे ? इनकी गुरुपरंपरा वा शिष्यपरंपरा क्या थी ? इसका उल्लेख दिगम्बर ग्रन्थों में अभी तक की खोज से नहीं मिला है। यदि वास्तव में ये आचार्य चौरासी शास्त्रार्थों के विजेता थे तो अवश्य ही इनकी कीर्ति महत्वशाली ग्रन्थों के रूप में विद्यमान रहना चाहिये थी। लेकिन प्रमाणनयत्तत्त्वालाकालंकार को देखते हुए श्वेताम्बर ग्रन्थों के उपर्युक्त कथन पर सहसा विश्वास नहीं होता है । जो हो, इस विषय पर अवश्य ही विद्वानों को प्रकाश डालना चाहिये ।
श्रीवादिदेव सूरि का ग्रन्थ स्याद्वाद - रत्नाकर भी है जो कि प्रमाणनयतत्त्वालाकालंकार की टीका है । इसके विषय में भी यह प्रसिद्धि है कि यह ग्रन्थ चौरासी हजार श्लोक प्रमाण है, लेकिन प्रकाशित ग्रन्थ को देखने से इसकी चौथाई होने में भी संदेह है। यह ग्रन्थ पांच भागों में प्रकाशित हुआ है । हो सकता है कि आचार्य का महत्त्व दिखलाने के लिये उनसे पीछे के विद्वानों की यह कल्पना मात्र हो । इसकी भी खोज बहुत आवश्यक है ।
कविवर श्रीजिनसेनाचार्य और पार्श्वाभ्युदय
( ले - त्रिपाठी भैरव दयालु शास्त्री, बी० ए०, साहित्योपाध्याय )
समय और समाज किसी भी व्यक्तिविशेष की कृतियों के साधन का असाधारण अत 1 आग की चिनगारी चाहे असीम भस्मचय के अन्तर्गर्भ में ही क्यों न छिपी हो, सामयिक वायु अपनी अप्रतिहत प्रगति से भस्मचय को उड़ाकर उसे बाहर निकाल लाती है, और समाज उसमें उद्दीपक साधनों की आहुति देकर उसे प्रज्वलित कर देता है । यही कारण है कि वैयक्तिक विकास में समय और समाज का विशेष हाथ रहता है । फिर, राजसत्ता के अनुराग और प्रोत्साहन तो उसके जीवन के मूल स्रोत हैं ही। इसीलिये आलोचकों की तीक्ष्ण दृष्टि पुरुष - विशेष पर गड़ने के पहले समय, समाज और शासन की तत्कालीन प्रवृत्तियों पर पड़ती है । अस्तु, सहृदय पाठकवृन्द ! अभीष्ट विषय पर पहुंचने के पूर्व अपने महाकवि के समय और समाज का यत् किञ्चित् उल्लेख कर देना मुझे परमावश्यक प्रतीत, पड़ता है, क्योंकि कार्य्यं जिस वातावरण में किये जाते हैं उससे वे पूर्ण प्रभावित होते हैं ।
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भास्कर
[ भाग २
आइये पाठक ! अब हम अपने दुर्धर्ष महाकवि और उनकी आसुरभित कृति पार्थ्याभ्युदय की चर्चा करें। जिन दिनों राष्ट्रकूट-बंशीय महाराज प्रथम अमोघवर्ष कर्णाटक और महाराष्ट्र के संयुक्त राष्ट्र पर शासन कर रहे थे, उन्हीं दिनों महाकवि श्रीजिनसेनाचार्य ने अपने अमर काव्य श्रीपार्थ्याभ्युदय की रचना की। आचार्य वीरसेन हमारे महाकवि
और उनके सहपाठी विनयसेन के गुरु थे। 'सत्संगतिः कथय किन्न करोति पुंसाम्। के अनुसार इन्हीं महापुरुष श्रीविनयसेनाचार्या की अभ्यर्थना एवं अनुनय-विनय से समु. त्साहित हो श्रीजिनसेन ने पार्वाभ्युदय को सङ्कलित किया। यह घटना जैन समाज के इतिहास में कोई नयी बात नहीं है। संस्कृत-साहित्य की प्रायः सारी शाखायें जैनाचार्यो को उपकृतियों के ऋणभार से लदी हैं। हेमचन्द्रादि कोष, वाग्भट्टादि अलङ्कारग्रन्थ, स्याद्वादमंजरी आदि दर्शन, अगणित काव्यग्रन्थ, शाकटायन एवं हेमचन्द्रानुशासन आदि व्याकरण ग्रन्थ, अनेक नीति एवं अगणित-शतक ग्रन्थ इत्यादि इस बात की सत्यता के ज्वलन्त उदाहरण हैं। महाराज श्रीअमोघवर्ष ने भी अपनी रचनाओं के द्वारा साहित्य की अनल्प सेवा की है। ऐसा सुषमामय वातावरण, ऐसे साहित्यसेवो कवि और काव्य के प्राण नरपति, ऐसे विद्याविनोदी बन्धु क्या कभी निष्फल जा सकते हैं ? पार्वाभ्युदय की रचना कवि ने ७३६ शकाब्द में की थी। इसमें उन्होंने महाकवि कालिदास-कृत खण्ड काव्य मेघदूत के श्लोकों के एक एक या दो दो चरणों को लेकर समस्यापूर्ति की है। इस सम्बन्ध में टीकाकार श्री योगिराट् पण्डिताचार्य का कथन है कि महाराज अमोघवर्ष की सभा में कालिदास ने अपने मेघदूत को उपस्थित किया। जिनसेनाचार्य राजपण्डित थे। उन्होंने श्लोकों को प्राचीन और पूर्व-रचित उद्घोषित किया, और अपनी बात को प्रमाणित करने के लिये ही जिनसेनाचार्य ने पार्खाभ्युदय को रच डाला। जान पड़ता है टीकाकार ने भाजप्रबन्ध में वर्णित कथाओं की छाया लेकर हो, अथवा अन्य के महत्त्व को सूचित करने के लिये ही ऐसी कोरी कल्पना कर डाली है । योगिराट् ने शकाब्द १३२१ के उपरान्त ही पाश्र्वाभ्युदय की टीका बनायी है, क्योंकि टीका में समुद्धृत नानार्थरत्नमाला का निर्माण १३२१ शकाब्द में हुआ था। जैनकवि श्रीरविकीर्ति के ५५६ शकाब्द के लेख में कालिदास का वर्णन है। अतः कालिदास और जिनसेनाचार्य की समकालीनता की टीकाकार की कल्पना सर्वथा निर्मूल है। जो हो, कवि ने कालिदास के मेघदूत को अपने समस्या-जाल में उग्रथित कर अपनी अप्रतिम प्रतिभा का परिचय दिया है। मेघदूत का नायक यक्ष अपनी प्रोषितपतिका पत्नी के पास मेघ के द्वारा अपना सन्देश भिजवाता है, अतः उस काव्य में विप्रलम्भ शृङ्गार की सरिता एकाकिनी प्रवाहित होती है। शृङ्गार रस से ओतप्रोत श्लोकां के चरणों को तेइसवें तीर्थङ्कर श्रीपार्श्वनाथ
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किरण २] कविवर श्रीजिनसेनाचार्य और पाम्युिदय जी की पौराणिकी वार्ता के सांचे में ढालने का प्रयास कवि के अद्भुत उत्कर्ष को उद्योतित करता है। यक्ष ने अपने स्वामी कुबेर की आज्ञा के पालन में अनवधानता की थी इसी कारण उसे अलकापुरी से वर्षभर के लिये निर्वासित किया गया था। आठ महीने का समय काट चुकने पर उसे आषाढ़ के प्रारम्भ में मेघ का दर्शन होता है और उसके चिरसञ्चित पत्नीप्रेम के सागर में तूफान उठ आता है। इसीलिये विवश हो प्रेम में उन्मत्त होकर वह अचेतन मेघ को चेतन समझ उसे दूत बनाकर पत्नी के पास भेजता है। मेघ को वह दीन यक्ष रामगिरि से अलकापुरी जाने का रास्ता दिखाता है और मार्ग में पड़ने वाले नगरों, वनों, पर्वतों एवं नदियों का वर्णन करने के पश्चात् उसे अपना सन्देश सुनाता है। अपने वर्णनों में महाकवि कालिदास ने अपनी स्वभावसिद्ध वैदर्भी रीति का आश्रय लिया है, एवं अपने इष्ट शृङ्गार रस का स्थान-स्थान पर इन्होंने अद्भुत प्रस्फुटित रूप दिखाया है। ___ अब हमें यह देखना है कि कविवर जिनसेनाचार्य ने किस प्रकार श्रीपार्श्वनाथ की पौराणिक कथा में शृङ्गार का समावेश किया, और किन किन स्थलों पर अपने इष्ट साधन के लिये उन्होंने उक्त कथा में घटाव, बढ़ाव या परिवर्तन किये हैं, तथा अपने महाकाव्य की रचना में साहित्यिक दृष्टि से उन्होंने कहाँ तक सफलता पायी है। परन्तु इतने बड़े कार्य को एक छोटे से लेख में समाविष्ट करना उतना ही असम्भव है जितना गागर में सागर का भरना। तथापि हम 'स्थालीपुलाक न्याय' का आश्रय लेकर कुछ न कुछ अपने प्रिय पाठकों की उत्सुकता का समाधान करना आवश्यक समझते हैं। महाराज अरविन्द के शासनकाल में कमठ और मरुभूति नामक दो सहोदर भाई राज-दरबार का अलङ्कृत करते थे। एक समय मरुभूति महाराज के साथ युद्धस्थल को गया था। इस अवसर पर बड़े भाई कमठ ने भ्रातृ-पत्नी वसुन्धरा के रूप पर आसक्त हो अपनी पत्नी के द्वारा उसे वश में कर लिया। युद्ध से लौटते ही महाराज ने इस अत्याचार का पता पा कमठ को चिरनिर्वासन का दण्ड दे नगर से निकाल दिया। कमठ इसे अपने छोटे भाई की चाल समझ वन में जाकर वैरशोध के लिये तपस्या करने लगा। शीलवान् मरुभूति का हृदय बड़े भाई की इस दुरवस्था पर पसीज गया, और वह उस से क्षमा मांगने को वन में जा उसके चरणों पर गिर पड़ा। क्रोधान्ध कमठ ने एक भारी चट्टान से उसे दे मारा। वही मरुभूति किसी दूसरे जन्म में तीर्थङ्कर श्रीपार्श्वनाथ का अवतार धारण कर काशी में तपस्या कर रहा था। कमठ भी देह त्याग कर शम्बर के रूप में अवतीर्ण हुआ; इसी स्थल से पार्थ्याभ्युदय के कथानक का आरम्भ होता है। जिनसेनाचार्य ने शम्बर को मेघदूत का यक्ष बनाया है और उसके आजीवन निर्वासन को केवल वर्ष भर का दण्ड बताकर उन्होंने समस्या-पूर्ति की कठिनाइयों को सरल किया है।
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भास्कर
[भाग २
कालिदास ने मन्दाक्रान्ता छन्द में अपने काव्य को लिखा है। अतः हमारे कवि को भी वही छन्द लेना पड़ा। इनकी रीति भी प्रायः कालिदास की ही रीति है, और दोनों ही काव्यों में प्रसाद गुण भी हैं। परन्तु काव्य की आत्मा रस है, इस के सम्बन्ध में दोनों ही दो विरुद्ध दिशाओं में चलने वाले हैं। कालिदास रसरज्जु की एक छोर शृङ्गार का ताने बैठे हैं, और जिनसेनाचार्य उसको दूसरी छोर की रौद्र, वीर एवं शान्त की तीन प्रधान गांठों को लिये अकड़े हैं। इसी उलझन के सुलझाने में जिनसेन जी ने अपनी अद्भुत भाव-प्रवणता का परिचय दिया है।
"तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाधानहेतोः” इस चरण में कालिदास ने वियोगी यक्ष की विरह-वेदना का सजीव चित्र खींचा है। वह यक्ष अचेतन मेघ को चेतन मान उसके आगे हाथ जोड़े खड़ा होकर अपनी मोहावस्था को प्रकटित करता है। उसकी विरह-वेदना इतनी बढ़ी है कि वह खड़ा होने में असमर्थ प्रतीत होता है। अब देखिये हमारा कवि इस चरण को लेकर कैसी रचना करता है
सोऽसौ जाल्मः कपटहृदयो दैत्यपाशः हताशः स्मृत्वा वैरं मुनिमपघृणो हन्तुकामो निकामम् । क्रोधात्स्फुर्जन् नवजलमुचः कालिमानं दधान
"स्तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाधानहेतोः ॥" कितना महान् अन्तर है। सिनेमा के चित्रपट पर जिस प्रकार एक सौम्यमूर्ति सहसा विलीन हो जाती है और उसके स्थान पर तत्काल ही दूसरी भयानक रुद्रमूर्ति खड़ी हो जाती है, ठीक उसी प्रकार कालिदास का वियोगका मारा यक्ष गायब हो जाता है और क्रोध से कांपता, कुटिल, कपट की मूर्ति शम्बर रुद्ररूप में प्रकट हो जाता है। धन्यवाद ! इस अनूप परिवर्तन की कला को। जिनसेनजी का यक्ष
"धूमज्योतिःसलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेघः।" । ऐसे निर्जीव मेघ के आगे नहीं, वरन् ध्यानस्थ "अन्तर्निरुन्धन्” भिक्षु पार्श्वनाथ के आगे वेरभाव से जलता खड़ा है। जरा आंकड़े लगा कर देखिये तो पता चलेगा कि जिनसेनाचार्य ने कितनी गहरी डुब्बी लगायी है। कालिदास के मेघ की अचेतनता यहां भी लायी गयी है, और उसे लाकर योगी का महान् उपकार किया गया है। मुनि को दैत्य की गालियां नहीं सुननी पड़ीं, एवं उसकी तर्जना उन्हें विचलित करने में असमर्थ हो जाती है। जिनसेन जी के विचित्र परिवर्तन के आश्चर्यकारी आयास का एक और नमूना लीजिये"कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु।"
(सशेष)
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प्रशस्ति-संग्रह
(सम्पादक–के० भुजबली शास्त्री)
(गतांक से आगे) स्याद्वादाकाशपूर्णेन्दुव्याम्भोरुहभानुमान् । दयागुणसुधाम्भोधिर्धर्मः पायादिहाहताम् ॥५॥ अहिंसासूनृतास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः। सर्वपापप्रशमनं वद्धतां जिनशासनम् ॥६॥ पश्चकल्याणसम्पूर्णाः पञ्चमझानभासुराः।। नः पञ्च गुरवः पान्तु पञ्चमीगतिसाधका ॥७॥ वृषभादीमहं वर्द्धमानान्तान् जिनपुङ्गवान् । चतुर्विंशतितीर्थेशान् स्तुवे त्रैलोक्यपूजितान् ॥८॥ वन्दे वृषभसेनादिगणिना गौतमान्तिमान् । श्रुतकेवलिनः सूरीन् मूलोत्तरगुणान्वितान् ॥६॥ अनुयोगचतुष्कादिजिनागमविशारदान् । जातरूपधरांस्तोष्ये कविवृन्दारकान् गुरुन् ॥१०॥ अर्हदादीनभीष्टार्थसिद्धय शुद्धित्रयान्वितः । इत्यनन्तगुणोपेतान् ध्यात्वा स्तुत्वा प्रणम्य च ॥११॥ श्रीमत्समन्तभद्रादिगुरुपर्वक्रमागतः। शास्त्रावतारसम्बन्धः प्रथमं प्रतिपाद्यते ॥१२॥ पुरा, वृषभसेनेन गणिना वृषभार्हतः। अनगार्योभ्यधाय्येतत् भरतेश्वरचक्रिणे ॥१३॥ ततोऽजितजिनेन्द्रादितीर्थकृद्भयोऽवधार्यताम् । तत्तद्गणधरास्तत्र धार्मिकाणामिहाब वन् ॥१५॥ ततः श्रीवर्द्ध मानाहगिरमाकर्ण्य गौतमः । राज्ञ लोकोपकारार्थ श्रेणिकायाब्रवीद् गणी ॥१५॥ तस्माद्गुणभृदाचार्यादनुक्रमसमागतः। नाना जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदयोऽयमिहोच्यते ॥१६॥
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१०
भास्कर
[ भाग २
सेनवीरसुवीर्यभद्रसमाख्यया मुनिपुङ्गवाः नन्दिचन्द्रसुकीर्त्तिभूषण संज्ञया ऋषिसत्तमाः । सिंहसागरकुंभ (?) आस्रवनामभिर्यतिनायकाः । देवनागसुदन्ततुंगसमाह्वयैर्मुनयेोऽभवन् ॥१७॥ तेभ्यो नमस्कृत्य मया मुनिभ्यः शास्त्रोदधेः सूक्तिमर्णीश्च लब्ध्वा । हारं विरच्यार्यजनेापयेोग्यं जिनेन्द्र कल्याण विधिर्व्यधायि ॥ १८ ॥ वीराचार्य सुपूज्यपाद जिनसेनाचार्य संभाषितो यः पूर्व गुणभद्रसूरिवसुनन्दीन्द्रादिनन्य र्जितः । यश्वाशाधर हस्तिमलुकथितो यश्चैक संधीरितः तेभ्यस्स्वाहृतसारमा (?) रचितः स्याज्जैनपूजाक्रमः ॥ १६ ॥ तर्कव्याकरणगमादिलहरी पूर्णश्रुताम्भोनिधेः । स्याद्वादाम्बरभास्करस्य धरसेनाचार्यवर्यस्य च शिष्येणार्यपकोविदेन रचितः कौमारसे नेर्मुनेः (१) । ग्रन्थोऽयं जयताज्जगत्त्रयगुरोर्बिम्बप्रतिष्ठाविधिः ॥२०॥ पूर्वस्मात् परमागमात्समुचितान्यादाय पद्यान्यहम् । तन्त्र प्रस्तुतसिद्धयेऽत्र विलिखाम्येतन्नरोपायतत् (?) कल्याणेषु विभूषणानि धनिकादानीय निष्किञ्चनः । शोभा स्वतनुं न भूषयति किं सा राजते नास्य तैः ॥२१॥ जिनेन्द्रवाणीमुनिसंघभक्त्या जिनेन्द्रकल्याणनुति प्रणीय
मध्यभाग (४६ पृष्ठ ७ पंक्ति)
जिनेन्द्र पूजां रचयन्ति येऽमी जिनेन्द्रसिद्ध श्रियमाश्रयन्ति ॥ २२॥
अतिनुतजलगन्धैरक्षतैरक्षतांगेवर कुसुम निवेद्यैर्दीपधूपैः फलैश्च । जिनपतिपदपद्म' योऽर्चयेदर्द्धनीयम् स भवति भुवनेशो मोक्षलक्ष्मीनिवासः ॥ ॐ ह्रीं नमो ध्यातृभिरभीप्सितेभ्यः स्वाहा नमः पुरुजिनेन्द्राय नमोऽजित जिनेशिने । नमः संभवनाथाय नमोऽभिनन्दनार्हते ॥ नमः सुमतये तुभ्यं नमः पद्मप्रभाय च । नमः सुपार्श्वदेवाय नमश्चन्द्रप्रभाय ते
11
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किरण २]
प्रशस्ति -संग्रह
अन्तिम पद्य :
तिथिरेकगुणा प्रोक्ता नक्षत्रं द्विगुणं भवेत् । लग्नन्तु त्रिगुणं तेषां शुभाशुभफलं भवेत् ।
ग्रन्थकर्ता के मंगलाचरणगत १६वें श्लोक से यह ज्ञात होता है कि वीरावार्य, पूज्यपाद, जिनसेन, गुणभद्र, वसुनन्दो, इन्द्रनन्दी, आशाधर और हस्तिमल्ल इन आठ साहित्यिकरत्नों ने प्रतिष्ठा-ग्रन्थ लिखे हैं। और इन्हीं के आधार पर आर्यप या अप्पयार्य ने इस विद्यानुवादाङ्ग प्रतिष्ठा-प्रन्थ की रचना की है। किन्तु इस समय उल्लिखित इन प्रतिष्ठाग्रन्थ प्रणेताओं के सभी ग्रन्थ प्रायः उपलब्ध नहीं होते। इसके २०वें श्लोक से यह भी विदित होता है कि इस ग्रन्थ के रचयिता धरसेनाचार्य और कुमारसेन मुनि को अपना गुरु मानते थे। इन्होंने इन्हें तर्क व्याकरण एवं सभी आगमों का मर्मज्ञ भी लिखा है। इसी श्लोक में “कौमारसेनेमुनेः" यह पद जो मिलता है, वह व्याकरण की दृष्टि से चिन्तनीय है। क्योंकि नियमानुसार “कौमारसेनस्य" होना चाहिये था। किन्तु इस शुद्धरूप की प्रयुक्ति से छन्दोभंग हो जाता है। यह प्रति बहुत अशुद्ध है, अतः जिन महाशयों के पास इसकी दूसरी कोई प्रति हो वे उससे इसका मिलान कर इस सन्दिग्ध बात पर प्रकाश डालें। संभव है कि दूसरी प्रति शुद्ध हो। - भवन की इस प्रति में तो प्रशस्ति नहीं है। किन्तु Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts in the Central Provinces & Berar" - जिसका सम्पादन राय बहादुर हीरालालजी ने किया है उसमें आर्यप या अप्पयार्य का संक्षिप्त परिचय-प्रदर्शन-पूर्गक कारंजा शास्त्रभाण्डार से प्राप्त प्रति से निम्न लिखित प्रशस्ति उद्धृत की है:
शाकाब्दे विधुवेदनेत्रहिमगे (?) सिद्धार्थसंवत्सरे माघे मासि विशुद्धपक्षदशमीपुण्यार्कवारेऽहनि । प्रन्थो रुद्रकुमारराज्यविषये जैनेन्द्रकल्याणभाक्
सम्पूर्णोऽभवदेकशैलनगरे श्रीपालबन्धूर्जितः॥ । इति श्रीसकलतार्किकचक्रवर्तिश्रीसमन्तभद्रमुनीश्वरप्रभृतिकविवृन्दारकवन्धमानसरोवरराजहंसायमानभगवदर्हत्प्रतिमाभिषेकविशेषविशिष्टगन्धोदकपवित्रीकृतोत्तमाङ्ग नाप्पयार्येण श्रीपुष्पसेनाचार्योपदेशक्रमेण सम्यग्विचार्य पूर्वशास्त्र भ्यः सारमुद्धृत्य विरचितः श्रीजिनेन्द्रकल्याणाभ्युदयापरनामधेयस्त्रिदशाभ्युदयोऽर्हत्प्रतिष्ठाग्रन्थः समाप्तः ॥
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. भास्कर
[ भाग २
इस प्रशस्ति से यही बात ज्ञात होती है कि अप्पयार्य ने सिद्धार्थ नामक संवत्सर १२४१ माघ शुक्ल दशमी रविवार एवं पुष्य नक्षत्र में पुष्पसेनाचार्य के आदेश से रुद्रकुमार के राज्य में एकशैलनामक नगर में यह ग्रन्थ लिखकर समाप्त किया है। उल्लिखित समय खुष्ट शक २०वीं जनवरी १३२० A. D. होता है। न मालूम किस आधार पर हीरालालजी ने अपने सम्पादित कैटलग में अप्ययार्य को पुष्पसेन का शिष्य लिखा है। ज्ञात होता है कि मंगलाचरण का १९वा श्लोक आपकी नजरों से नहीं गुजरा है। क्योंकि पुष्पसेन तो प्रेरक ही मालूम होते हैं।
.. उक्त यह एकशैल वर्तमान वरंगल का प्राचीन नाम है। वरंगल के और भी कई नाम हैं। यह प्राचीन तैलंग की राजधानी थी। काकतेयों ने इस पर ईस्वी सन् १९९० से १३२३ ईस्वी तक राज्य किया है। इसी वंश में राजा रुद्रदेव हुए हैं। इनकी यहीं राजधानी थी। मालूम होता है राजा रुद्रदेव इस वंश के अन्तिम राजा थे, क्योंकि इस प्रशस्ति से पता चलता है कि इस प्रन्थ की रचना ईस्वी सन् १३२० में हुई है और उस समय रुद्रदेव ही शासन कर रहे थे।
प्रशस्तिगत धरसेन, कुमारसेन, पुष्पसेन, श्रीपाल इन विद्वानों के सम्बन्ध में मेरा इस समय कुछ भी विशेष वक्तव्य नहीं है। क्योंकि श्रवणबेलगोल के कतिपय शिलालेखों में धरसेन जी को छोड़कर शेष तीन नाम उपलब्ध होते हैं अवश्य, परन्तु इनमें से कुछ शिलालेखों में तो इनका समय ही नहीं दिया गया है। जिन लेखों में समय दिया गया है, वह भी "अप्पयार्य" के समय से मेल नहीं खाता। "दिगम्बर जैन प्रन्यकर्ता और उनके ग्रन्थ" में आये हुए इन उल्लिखित नामवाले ग्रन्थकर्ताओं की कृतियों को देखने से संभवतः इनका विशेष परिचय मिल सकता है। , हिन्दी-विश्वकोष भाग ३ पृष्ठ ४६६ और List of the Antiquarian Remains in the
Nizam's Territories By cousens. "Another name of Warrangalxx, is Akshalingar, which in the opinion of Mr. consens is the same yekshilangara." --The Geographical Dictionary of Ancient & Medieaval India By
Nandoo Lal Dey P.8. २ अनुमकुन्दपुर, अनुमकुन्दपट्टन, कोरुकोल (of Ptolemy), वेणाकटक, एकशैलिनगर आदि ।
(The Geographical Dictionary P. 262.) ३ रुद्रदेव का शिलालेख JASB, 1838 P. 903 साथ ही Prof. Wilson's Mackenzie
___collection P. 76. ४ The Geographical Dictionary, P. 8.
'वरंगल के काकतीय वंशी एक राजा x x x हिन्दी-विश्वकोष भाग १२, पृष्ठ ६२७ नोट-विश्वकोषकार ने संख्या ३ देकर इनके सिवा एक और का भी उल्लेख किया है। "एक
हिन्दू राजा ये तैलंगाधिपति थे" सम्भवतः यह विश्वकोष-कार के तैलंग और वरंगल इन दोनों को दो भिन्न स्थान समझने की भूल है।
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किरण २)
प्रशस्ति-संग्रह
(५) ग्रन्थ नं०३०४
निदान-मुक्तावली
कर्ता-पूज्यपाद (१)
विषय-वैद्यक _ भाषा-संस्कृत चौडाई-८। इञ्च
लम्बाई-१३। इञ्च
पत्रसंख्या
मङ्गलाचरण
(अभाव) प्रथम श्लोक
'रिष्टं दोषं प्रवक्ष्यामि सर्वशास्त्रोषु सम्मतम् ।
सर्वप्राणिहितं दृष्टं कालारिष्टश्च निर्णयम् ॥१॥ मध्य भाग (पृष्ठ ४ पंक्ति ११) पीत्वा जलं यस्य न याति तृष्णा भुक्त्वा भृशं न क्षुदपैति यस्य ।
शक्तिक्षये वाथ सुवर्णनासा मासेऽष्टमे तस्य हि कालमृत्युः॥ खण्डं भवेद्यस्य पदं कदाचित् पङ्काङ्किते वा भुवि पांसुलेपात् ।
. ते सप्तकं (१) मासि विहाय सर्व प्रयाति याम्यं सदनं मनुष्यः॥ अन्तिम भागगुरौ मैने देवेऽप्यगदनिकरैर्नास्ति भजनम् तथाप्येवं विद्या अतिनिगदिता शास्त्रनिपुणः। भरिष्टं प्रत्यक्ष सुभवमनुमारूढसुभगम् विचार्य्यन्तच्छश्वन्निपुणमतिभिः कर्मणि सदा ॥ विज्ञाय यो नरः काललक्षणैरेवमादिभिः। न भूयो मृत्यवे यस्माद्विद्वान्कर्म समाचरेत् ॥
इति पूज्यपादविरचितायां स्वस्थारिधनिदानं समाप्तम्।
इसमें दो ही निदान हैं-(१) कालारिष्ट और (२) स्वस्थारिष्ट ।
इस ग्रन्थ की प्रति मद्रास राजकीय पुस्तकालय में संगृहीत प्रन्थ की प्रति से करायी गयी है।
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१४
[ भाग २
इस ग्रन्थ के पद्यों में पूज्यपादजी का नाम कहीं नहीं मिलता। किन्तु मूल प्रति में प्रकरणसमाप्ति-सूचक वाक्य 'पूज्यपादकृत' लिखा रहने के कारण प्रतिलिपि कर्ता लेखक को भी 'पूज्यपादकृत' ज्यों का त्यों लिख देना अनिवार्य था । अस्तु, इस ग्रन्थ के विषय और संस्कृत-रचना की ओर ध्यान देने से सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों के निर्माता प्रात:स्मरणीय हमारे प्रख्यात पूज्यपादजी को इस ग्रन्थ के रचयिता मानने में मन हि-किचाता है । सम्भव है कि यह कृति किसी दूसरे पूज्यपाद जी की है। इस सन्देहास्पद विषय को हल करने के लिये और और प्रतियों की जरूरत है। आशा है कि अन्यान्य पण्डितमण्डली भी इसकी ओर ध्यान देगी ।
(६) ग्रन्थ नं० २०६
ख
लम्बाई १३॥ इञ्च
प्रारम्भिक भाग
भास्कर
मदनकामरत्नम् कर्त्ता - पूज्यपाद (?)
मृतं सूतलोहाम्र रौप्यं समांशम्
विषय - वैद्यक
भाषा-संस्कृत
चौडाई ८ इञ्च
मङ्गलाचरण
(अभाव)
महापूर्णचन्द्रोदयः
...मृतस्वर्णगन्धं (?)
सर्व (?) विनिक्षिप्य खल्वे विमर्धेत्ततः स्वर्णतैलोद्भवेन त्रिवारम् ॥१॥ ततः शाल्मलीसारनिर्यासगुआं प्रयुञ्जीत तज्ज्ञः सुहृद्यानुपानैः । त्रिदोषत्क्षयं चापि हन्यात्परेषाम् (?) वयस्तम्भकारी गदोन्मादहारी ॥२॥ वधूगर्वहारी रतौ वृद्धिकारी कृशत्वापहारी कलापूर्णधारी समस्तेषु योगेषु भूमौ विशेषात् प्रसिद्धो महापूर्णचन्द्रोदयोऽयम् ||३२||
पत्र संख्या ६४.
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प्रशस्ति-संग्रह
किरण २]
मध्यभाग- ( पृष्ठ ३० पुष्पबाणरसः ) -
रसभस्म त्रिभागं स्यादुष्टभागं च गन्धकम् । चतुर्थ मौक्तिकं वाटं द्विभागा मौक्तिकी शिला ॥ तारमन्त्रकलोहानां वङ्गमाक्षिकनागयोः । अयस्कामं प्रवालाष्टौ तुल्यभागं प्रकल्पयेत् ॥ अन्तिम भाग -- ( पञ्चवाणरसः)
सुवर्ण रजतं कान्तं वैक्रान्तं तीक्ष्णमन्त्रकम् । प्रवालं मुक्तभसितं नागवङ्गञ्च भास्करम् ॥ एकैकसमभागं च सर्वतुल्यं रसेन्द्रियम् । तत्समं शुद्धगन्धञ्च हंसपादीरसेन च ॥ कौमारीरससंप्रोक्तं मर्दितञ्च दिनत्त्रयम् । काचकुप्यन्तरे क्षिप्त्वा विलेप्य वस्त्रमृत्तिकाम् arghas ear यामान्ते समुद्धरेत् । चूर्णीकृतं ततः खल्वे शतपत्त्ररसेन च ॥ दिनत्रयञ्च यत्नेन चाधिकं सहभावनात् । कस्तूरिकां च कर्पूरं भावयेत यथाविधि ॥ शाल्मलीकानि लाक्षाथ गान्धारी सममयेत् । वराचन्दन संयुक्तं कणक्षौद्र सिताज्यकम् । विंशतिञ्च प्रमेहाणां राजयक्ष्माननेकशः । शुक्रवृद्धिकरञ्चैव वन्ध्या च लभते सुतम् ॥ वध्यनष्टं पुष्पनष्टं मसृग्दरम् । रक्तपित्तं चाम्लपित्तं प्रस्थिस्रावहलीमकम् ॥ अहम्येव रजः स्त्रीणां भवन्ति प्रियदर्शनात् । वीर्यवृद्धिकरश्चैव नारीणां रमते शतम् ॥ पञ्चवाणरसो नाम पूज्यपादेन निर्मितः ॥
X
x
१५.
X
पूर्वोद्धृत 'निदानमुक्तावली' और यह वर्तमान 'मदनकामरतम्' दोनों ग्रन्थ प्रशस्ति नहीं रहने एवं विषयविच्छेद नहीं होने से ज्ञात होता है कि अपूर्ण हैं। साथ ही साथ इन दोनों के रचयिता भी एकही पूज्यपाद मालूम होते हैं ।
इस प्रस्तुत ग्रन्थ मदनकामरत को कामशास्त्र कहना अनुचित नहीं होगा । क्योंकि ६४ पृष्ठों में से केवल १२ पृष्ठ तक तो महापूर्ण चन्द्रोदय, लोह, अग्निकुमार, ज्वरबलफणिगरुड, कालकूट, रत्नाकर, उदयमार्त्तण्ड, सुवर्णमाल्य, प्रतापलंकेश्वर राजेश्वर, बालसूर्योदय (दो प्रकार का ) इन अन्यान्य ज्वरादि रोगों के बिनाशक रसों का विवरण और कर्पूरगुण, मृगहार भेद, कस्तूरी मैद, कस्तूरी गुण, कस्तूर्यनुपान प्रौर कस्तूरीपरीक्षा आदि है। बांकी जो ५२ पृष्ठ हैं वे कामदेव के जो पर्यायवाची शब्द हैं उन्हीं भिन्न भिन्न नामों से अङ्कित ३४ प्रकार के कामेश्वर रसमय हैं। साथ ही बाजीकरण प्रौषध, तेल, लिङ्ग-बद्ध नलेप, पुरुषवश्यकारी औषध, स्त्रीवश्यभैषज, मधुरस्वरकारी औषध और गुटिका - निर्माण - विधि भी है । कामसिद्धि के लिये छः मन्त्र भी आये हैं । उक्त दिग्दर्शन से स्पष्ट हो जाता है कि इस ग्रन्थ के सभी पृष्ठ कामविषयक विधिविधानों से ही भरे पड़े हैं ।
I
यों तो यह सारा ग्रन्थ पद्यबद्ध है किन्तु एक जगह पञ्चवाण रस के पद्याङ्कित पद्य की संस्कृत गद्य में व्याख्या कर दी गयी है।
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१६
(७) ग्रन्थ नं० २०७
ख
लम्बाई १२। इञ्च
भास्कर
जिनयज्ञफलोदयः
कर्त्ता - मुनि कल्याणकीर्ति
विषय – पूजाफलविवरण भाषा-संस्कृत
चौडाई ७॥ इञ्च
मङ्गलाचरण
सर्वज्ञ सर्वविद्यानां विधातारं जिनाधिपम् । हिरण्यगर्भ नाभेयं वन्देऽहं विबुधावितम् ॥१॥ अन्यानपि जिनान्नत्वा तथागणधरादिकान् । कथ्यते मुक्तिसम्प्राप्त्यै जिनयज्ञफलोदयः ॥२॥ जयललितको मद् गुरुर्मुनिपुङ्गवः । देवचन्द्रमुनीन्द्राच्र्योदयापालः प्रसन्नधीः ॥३॥ मादृशोऽपि च यच्छक्तिजिनयज्ञफलोदयः । (?) न तच्चित्र क्रमायातगुरुपर्वावलम्बनात् ॥४॥ कल्याणकीर्त्तिदेवस्य भारतीकविवेधसः ।
सतां चेतसि पीयूषधारां धत्ते निरन्तरम् ॥५॥ वृद्धिं व्रजति विज्ञानं कीर्त्तिश्चरति निर्मला । प्रयाति दुरितं दूरं जिनयज्ञफलस्तुतेः ॥६॥ मध्यभाग – (पृष्ठ ४१ श्लोक १६ )
जिनशासनमासाद्य ये सम्यक्त्वसमन्वितम् । • सद्व्रतं नहि कुर्वन्ति म्लेच्छास्ते पशुभिः समाः ॥१६॥ दुर्गन्धिविग्रहाः क्रूराः सर्वलोकतिरस्कृताः । कारणपङ्गुविवर्णाङ्गाः मलिनच्छिद्रवाससः ॥२०॥ विरूपा विगतच्छाया धनबन्धुविवर्जिताः । लभन्ते यन्नरा दुःखं तत्फलं पापकर्मणः ॥२१॥
[ भाग - २
पत्र संख्या ८६
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प्रतिमा-लेख-संग्रह
( संग्राहक-श्रीयुत बा० कामता प्रसाद जैन )
-
(३) श्री दि० जैन लोहिया अग्रवाल मन्दिर मैनपुरी (गंज)
, नेमिनाथ-श्वेतपाषाण-१८ अं०-"शुभसं० १९२० फाल्गुण वदि ३ गुरुवासरे श्रीमूलसंधे
वलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये श्रीमद्भट्टारक जिनेन्द्रभूषणजिदेवस्तत्प?
श्रीमद्भट्टारक महेन्द्रभूषणजिदेवस्तत्पदे श्रीमद्भट्टारक राजेन्द्रभूषणजिदेवस्तदुपदेशात् · श्रीमदग्रवंशोद्भवः वाशिलगोलोत्पन्नः ॥ काष्टासंघ बाबू व्रजमोहनदासस्तद्भार्या सुंदरि
कुंवरिस्तत्पुत्रौ बाबू जगमोहनदास बाबू मुनिसोबतदासौ तद्भार्या कांताकुंवरि टुकुटुकु कुंवरि संज्ञके चतमिः प्रतिष्टाकर्ता आरानग- केलिरामस्तत्पुत्र डालचंद अग्रवार
गरगगोलोत्पन्नस्य मस्तके कृता ।" २ चंद्रप्रभ-कृष्ण पा०-१८ अं0-"सं० १९३४ वर्षे वैशाष सुदी ७ श्रीमूलसंघे.........
राज्यप्रवर्तमाने............।" (पढ़ने में नहीं आता)। ३ अर्हत-माणिक्यरत्न-२॥ अं०-लेखरहित । ४ शांतिनाथ–स्फटिक पा०-१४ अं0-"श्रो मूलसंघ वलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदुकुंदा.
चार्यान्वये गरगगोल अगरवारवंसे झम्मनलाल प्रतिष्टितं सं० १९४५ माघवदी २।" ५ पार्श्वनाथ-हरित पा०-११ अं०-लेख नं. ४ के अनुरूप । ६ सुपार्श्वनाथ-हरित पा०-१० अं०-लेख नं० ४ के अनुरूप । ७ पार्श्वनाथ-हरित पा०-११ अं०-लेख नं० ४ के अनुरूप । ८ महावीर-श्वे० पा०-३० अं०-"श्री सं० १९५५ माघ शुक्ल १२ प्रतिष्टितं ।" ६ पार्श्वनाथ- श्वे० पा०-२८ अं०-"श्री सं० १९५५ माघ शुक्ल १२ दिगंबराम्नाय प्रतिष्टितं
हाथरसे।" नोट-जो प्रतिमायें खड्गासन हैं उनके साथ "खड्गासन" लिख दिया है वरन् सब
पद्मासन समझना चाहिये । मौलिकता लुप्त हो जाने के खयाल से “प्रतिमा-लेख-संग्रह' के लेखों की भयंकर
अशुद्धियां ज्यों की त्यों छोड़ दी गयी हैं। सम्पादक
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भास्कर
[ भाग २ १० आदिनाथ- श्वे. पा.-३२ अं-"सं० १४७० श्रीयुत राजजकोवती लो सुनाम राजपष्टि जी
जोधपुरमाही प्रतिष्ठा करापिता कल्याणदास मैनपुरीगंज।" ११ चंद्रप्रभ-स्फटिक पा०-१३ अं०-लेख नं. ४ की भांति । १२ शांतिनाथ-धातु-१८ अं-"सं० १६११ फाल्गुन मासे शुक्लपक्ष १ गुरुवासरे को प्रतिष्ठितं
__ मैनपुरी मद्धे श्रीमूलसंघ बलात्कारगणे सरस्वतोगच्छे श्रीकुंदकुंदाचार्य० कौसल
गोत्रे लाला मलैरामततसंग भ्रात कल्याण नित्यं प्रणमंत श्रीस्व०॥ १३ आदिनाथ-धातु-६ अं०-"सं० १५५७......।' १४ पार्श्वनाथ-धातु-७ अं०-"सं० १६११ फाल्गुण सुदी ७ भ्रगौ भाई मलैराम सुराणौ
प्रणमंत नित्यं ।” १५ सुपार्श्वनाथ-धातु --६ अं०-"सं० १९५२ प्यारेलाल मैनपुरी।" १६ चंद्रप्रभ-श्वेत पाषाण-१६ अं०-"सं० १६४५......।" इत्यादि १७ चंद्रप्रभ-स्फटिक -"सं० १९४५ माघ सुदी २ प्रतिष्ठितं ।" १. पार्श्वनाथ-धातु-१४ अं०-"सं० १९११ फाल्गुन मासे शुक्ल पक्षे ७ भृगौ प्रतिष्टितं
......मध्ये भाई मलराम निस्वं प्रणमंति ।" १६ अजितनाथ-श्वेत पाषाण-७ अ०- "सं० १९४५ माघकृष्ण २ प्रतिष्ठितं ।" २० पार्श्वनाथ-पाषाण-८०-"सं० १९५७ प्रतिष्ठितं।" २१ सुपार्श्वनाथ-धातु-४ अं०-"सं० १६५७ चैतवदी २ मलैराम मैनपुरी।" २२ अरहंत-धातु-४ अं0-"सं० १५४५ प्रतिष्टितं ।" २३ चंद्रप्रम-धातु-४ अं0-"सं० १९५७।" २४ महावीर-धातु-४ अं0-."सं० १९५७।" २५ महावीर-धातु-४ अं०-"सं० १९५७।" २६ नेमिनाथ-धातु-४ अंo.--"सं० १९५७ श्री भौगाँव प्रतिष्ठितं । २७ श्रेयांसनाथ-धातु-४ अं०-"सं० १६५७ बकरेमल प्र० मौगाँव मध्ये ।" २८ चंद्रप्रभ-धातु-४ अं०-"सं० १९५७ बकरेमल दिगंबर आम्नाय ।" २६ महावीर-धातु-४ अं०-उपर्युक्त लेख । ३. सुपार्श्वनाथ-धातु-४ अं०-उपर्युक्त लेख ।
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किरण २]
प्रतिमा-लेख-संग्रह
(४) निम्नांकित प्रतिमायें श्री दि० जैन-मन्दिर (भगतजी का) मैनपुरी (गंज) में
विराजमान हैं और इनके लिंग-चिह्न प्रकट नहीं हैं।
१ आदिनाथ चतुर्मुख मंदिर-सहित-श्वेत पाषाण-मंदिर-सहित ऊंचाई २८ ०-मूर्ति की
ऊँचाई ८ अं0--"सं० १९४५ माघ कृष्ण २ श्री मूलसंघ बलास्कारगण सरस्वती
गच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये अगरवारगोत्र झम्मनलालेन प्रतिष्ठापितं कल्यानं ददातु ।" २ सुपार्श्वनाथ -श्वेत पाषाण-१० अं:-"सं० १६४५ इत्यादि उपर्युक्त की भाँति । ३ सुपार्श्वनाथ-मुंगावर्ण पा०-८ अं०-लेख उपर्युक्त की भांति । ४ अनंतनाथ-श्वेत पाषाण - अं - "श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्नाये
. अगरवार झम्मनलालेन प्रतिष्ठितं सं० १९४५।" ५ विमलनाथ-श्वेत पाषाण-७ अं०-"सं० १९४५ माघ कृ. २ प्रतिष्ठितं मूल संघ
___ झम्मनलालेन प्रतिष्टितं ।" ६ अर्हत् चतुर्मुख मं देर-सहित-श्वेत-५ अं0-१॥ अं०-लेखरहिन । ७ महावीर-कृ० पा०-२२ अं-"श्री सं० १९५५ शुकु १२ वुधे सिद्ध आम्नाय प्रतिष्टितं
जानकीदास मैनपुरी।" ८ शांतिनाथ-श्वेत पा०-८ अं०-"सं० १९४५ माघ कृष्ण २......झम्मनलाल प्रतिष्ठतं । १ नमि-श्वेत-८ अं०-"सं० १९४१ माघ कृष्ण २ श्रीमूलसंघे ब. ग. स. ग० कुं०
झम्मनलालेन ।" १० चंद्रप्रभ-श्वेत-७ अं०-उपर्युक्त के समान लेख । ११ अर्हत्-मूंगावर्ण-८ अं० १२ अर्हत्-हरित पा०-८ अं० १३ श्रेयांसनाथ-श्वेत-७ अं० १४ महावीर-हरित कृ०-७ अंक १५ नेमिनाथ-श्वे०-७ अं० १६ चंद्रप्रभ-श्वे०-१८- "शुभ संवत् १९२० फाल्गुण वदि ३ गुरुवासरे श्रीमूलसंघ बलात्कार
गण सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्याम्नाये श्रीमद्भट्टारक : जिनेन्द्रभूषणजिदेवस्तस्पट्टा
न्वये श्रीमहारक महेंद्रभूषण" इत्यादि । १५ चंद्रप्रभ-श्वेत-१८ अं०-लेख पढ़ने में नहीं आता।
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भास्कर
[भाग २
१८ ऋषभनाथ- श्वेत-११ अं०-"श्री मूलसंघ बलात्कारगणे श्रीसरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्या
न्वये सं० १९४५ माघकृष्ण २ झम्मनलालेन प्रतिष्ठितं ।" १६ अर्हत्-हरितकृष्ण-७ अं०-लेख पूर्ववत् । २० कुंथुनाथ-श्वेत-८ अं०- लेख पूर्ववत् ।
ब्रह्मदाप तस्व
(५) मैनपुरी (कटरा) के दिगम्बर जैन मंदिर में स्थित ताम्रपत्रों की प्रशस्तियां । १ षोडशकारणयंत्र-"सं० १५२५ वर्ष चैत्र सुदि ७ श्रीमूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे
श्रीसुभचंद देवा तत्प४ भट्टारक श्रीनेमिचंद्र देवा तत्प?' भ० जिनचंद्रदेव तत्प? श्रीसिंहकीर्तिदेव तदाम्नाये साह लोणा षोडसकारण बंत्र करापितं ।
कर्मक्षयनिमित्त ।" २ दशलक्षणधर्मयंत्र- "सं० १६४२ वर्षे फाल्गुण सुदि १ दिने श्रीमत्काष्ठासंघे हेमचंद्र आम्नाये ।
ब्रह्मदीप तस्य शिष्य-तस्य आम्नाये वासलगोख सा० गुणदास तस्य भार्या
जाही इत्यादि।" ३ सिद्धयंत्र-"सं० १७५२ का वर्ष जेष्ट वदि ६ शुक्र वासरे श्रीमूलसंघे मं० श्री जसकीर्ति जी देवा .... भ० श्रीरत्रकीर्ति जो तदाम्नाये खंडेलवालान्वये जोबनपुर वास्तव्ये श्रीविजैस्यंघ राजेः ।" ४ षोडशकारणयंत्र-"सं० १७८३ वर्षे वैशाख वदि ८ बुधबार श्रीमूलसंघ भट्टारक श्रीदेवेन्द्रकीर्ति
स्तदानाये यासपाहक लुहाड्यागोत्र संघ ही श्री हृदयराम विवि
प्रतिष्ठा पं० भामनि ।" ५ षोडशकारणयंत्र-"सं० १६०६ फाल्गुण वदि १० मूलसंघ सरस्वतीगच्छे भ० श्रीपनकीर्ति
उपदेशात् ज्ञातौ गहतू राजमल सेठ भार्या सावाई पुत्र जगड़ सेठ भार्या
शिवबाई सुराय सेठे प्रणमन्ति ।" नोट-इनके अतिरिक्त इस मंदिर में करीव १००-१२५ यंत्र और हैं जो अभी पढ़े नहीं गये है।
(६) मैनपुरी (कटरा) के दिगम्बर जैन मंदिर में विराजमान लिंगचिह्न-सहित
प्रतिमाओं का लेखसंग्रह । १ पार्श्वनाथ-धातु-६ अं०-"संवत् ११२०।" २ चंद्रप्रभ-श्वेतपाषाण-२१ अं०-"सं० १२३४ वर्षे मास कातिक सुदी १ गुरुवासरे भट्टारक
आम्नाय सा० बुधमल अग्रवाल गर्गगोती प्रतिष्टाणाम् मंगलाल विमलं अष्टसिद्धि नवनिधिदायक बिंबस्थापन । गुरु आचार्जकात्र ।” .
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किरण २] प्रतिमा-लेख-संग्रह
१३ ३ अर्हत् तीन-(खगासन)-धातु-२४ अं० - "सं० १४३७ वैसाख सुदी १० बुधे काष्ठासंधे
भ० गुणभद्र जैसवाल सा० सूर्यचन्द्र भार्या नैमा पुत्र श्रवण नैमा कारितम् ।" ४ अर्हत् तीन-धातु-४ अं०-"सं० १५०२।" ५ पार्श्वनाथ-धातु-७ अं०-"सं० १५०२ वर्षे वैसाख सुदी ३ श्रीमूलसंधे भट्टारक श्रीजिनचन्द्र
पाकुलिया गोत्र साहु प्रमसी तत्पुत्र राजदेव नित्यं प्रणमंति ।" ६ महावीर समवशरण-धातु-११ अं०-"सं० १५०३ मागसिर सुदी ४ श्रीमूलसंघे भ०
श्री पद्मनंदि देवा.........।" ७ चंद्रप्रभ-श्वेत पाषाण बजनेवाला-३२ अं0-"संवत् १५०६ वर्षे ज्येष्ठ सुदी ११ शुक्र
काष्ठासंघे श्रीकमलकीर्ति देव तदाम्नाये सा० थिरू स्त्री भानदे पुत्र सा० जयमाल जाल्हणते
प्रणमन्ति महाराज पुत्र गोशल ।" ८ शांतिनाथ-श्वेत पा०-३६ अं0-"सं० ११०६ वर्षे चैत्र सुदी १३ रविवासरे श्री मूलसंधे
भट्टारक श्रीपद्मनंदि देवतत्प? श्रीशुभचंद्रदेव तत्प' श्रीजिनचंद्रदेव श्रीद्धौपेग्रामस्थाने महाराजाधिराज श्रीप्रतापचंद्रदेव राज्ये प्रवर्तमाने यदुवंशोलंबकञ्चुकान्वये साधु श्ची उद्धर्णस्तत्पुत्र असौ तस्य भार्या मूंगा तत्पुत्र संघाधिपति बधे भार्या मूला पुत
भोजराज तिन जिनबिंब प्रतिष्ठापए ते नित्यं प्रणमंति ।" । १ अर्हत् तीन (खगासन)-धातु-१० अं:-"सं० १५१० माघसुदि १३ सौमे श्रीकाष्ठासंघे आ.
मलयकीर्तिदेवा तयो प्रतिष्टितम् ।" १० महावीर समवशरण यक्षयक्षिणी भामंडल आदि-सहित-धातु-१६ अं०-“सं० १५२० वर्षे
___ आषाढ़ सुदी ७ गुरौ श्रीमूलसंघे भ० श्रीजिनचंद्र तस्पट्ट भ० श्रीसिंहकीर्ति लंबकं.
चुकान्वये अउली वास्तव्ये साहु श्री दिपौ भार्या इंदा सुपुत्र सा० सूर भार्या खेमा
द्वि पुत्र सालव भार्या गेमा सुपुत्र......प्रणमंति इष्टिकापथ प्रतिष्टितं ।” ११ चौबीसी पट-तीन खजासन, शेष पद्मासन-धातु-११ अं०-"सं० १५२५ वर्षे चैतसुदि
५ सोमवासरे काष्टासंघे माथुरान्वये भ० समीरसिंहदेव तस्पट्ट हेमकीर्तिदेव...।" १२ श्रेयांसनाथ-धातु-४ अं०-"सं० १५२५ चैत्र शुक्ल ३ बुधे श्रीमूलसंधे श्रीसिंहकीर्ति
५० ह० पु० बम्बकञ्चकाम्नाये सा० मिण्डे भार्या सोना पुत्र सा. जल्लू भार्या
मना प्रणमन्ति ।" १३ पार्श्व-"सं० १६८८ वर्षे फाल्गुण सुदि ८ श्रीभट्टारक विजयसतित साछीतरतमव ?" : १४ अर्हत तीन (खड्गासन)-धातु-५ अं०-"सं० १५६७......" १५ आदिनाथ-धातु-खगासन-१० अं०-"सं० १६२८ वर्षे फाल्गुण सुदी २ श्रीकाष्ठासंघे
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भास्कर
[ भाग २
भ० श्री भानुकीर्ति तदानाये जैसवाल साह प्रिथी भा० भानी तया पुत्र विसाद
भा० तूरा तयोपुत रिषभदास भा० मणिकदेवि साहा नित्यं प्रणमंति ।" १६ अर्हत्-खड्गासन-धातु-१० अं०-लेखरहित । १७ अनंतनाथ-धातु-६ अं0-"सं० १५४५ ज्येष्ठ सुदि ५ श्रीमूलसंघे भ० जिनचंद्राम्नाये
मं............" १८ पार्श्व-यज्ञादिसहित-धातु-७ अं०-सं० १६४६.........:.।" १६ पद्मप्रभ-श्वेत पा०-२१ अं०-- "सं० ११४८ वर्षे वैसाख सुदी २ श्रीमूलसंधे भट्टारक
श्रीजिनचन्द्रदेवः स जीवराज पापड़ीवाल नित्यं प्रणमंति शरणं श्रीराजाय । २० पार्श्व-धातु-६ अं०-'सं० १५६३ ज्येष्ट सुदी ३ श्री मूलसंघे ..........." २१ पार्श्व-धातु - ४॥ अं0- "सं० १५३१ मूलसंधे सा०............" २२ महावीर-श्वेत पा०-२३ अं०--"सं० १६६२ वर्षे वैसाख वदी २ शुभ दिने श्रीमूलसंधे
सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भट्टारक श्रीअभयचन्द्र देवे तत्प भ० श्री अभयनन्ददेव तत्प? आचार्य श्रीरत्न कीर्ति तस्य शिष्याणी बाई वीरमती
नितं प्रणमति श्री महावीरम् ।” २३ अर्हत् खड्गासन-धातु-२७ अं०-लेखरहित । २४ पाच--कृष्ण पा०--२४ अं0-"सं०......माघ सुदी ३ सोमवार अखरो महाराजधिराज
महाराजा श्री.........मानलियो यसकीर्ति तत्सद्मवो दुमकीर्ति तस्य प्रधाने (?) सरस्वती
देवी......मण्डलाचार्य......गीया गोत्र संघई मामसेन -" . २५ नेमिनाथ- श्वेत पा०-३० अं–“सं० १५३७ वैसाख सुदी १० बुधे काष्टासंघे भ०
मलयकीर्ति भ० गुणभद्राम्नाये अग्रोस्कान्वये गोगलगोत्र ‘सा० राजू भार्या जाल्ही पुत्र छाजू टूंडा स्त्री धीकी पुत्र कामराज भार्या उदी पुत्र ३ रामचन्द्र चन्द्रपाल जिनदास रामचन्द्र स्त्री चार्युदे पुत्र ताराचन्द्र वन्यम् महाराज श्री
कल्याणमल्ल राज्ये।" २६ चन्द्रप्रभ-श्वेत पा०-१२ अं0-"सं० १५४६ वर्षे वैसाख सुदी १४ श्री जिनचंद्रदेव सा.
___ जीवराज पापड़ीवाल मूलसंघे सरस्वतीगच्छे......" २७ चन्द्रप्रभ-श्वेत पा०-१४ अं०-"सं० १५५८ वरष वैसाख सुदी ३ श्रीमूलसंघे श्रीजीवराज
पापड़ीवाल......" २८ आदिनाथ--श्वेत--२८ अं0--लेख पढ़ने में नहीं आता। २१ नेमिनाथ-श्वेत-२० अं0-"सं० १९४८ वरषे वैसाष सुदि ३ श्री मूलसंघे भ०--सा.
जीवराज पापड़ीवाल नित्यं प्रणमंति ।"
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किरण २
प्रतिमा-लेख-संग्रह
३० चौमुखी अर्हत्-खगासन -धातु-१० अं0-"सं० १५४६ वैसाष सुदि १२ सोमदिने
भिमा माता गदा तसु पुत्र वीधा .....।" ३१ चन्द्रप्रभ-श्वेत पा०-१०॥ अंक-"सं० १५४८ वर्षे वैसाष सुदि ३ श्रीभानुचन्द्र भट्टारकजी
श्रीजिवराज पापड़ीवाल......... " ३२ आदिनाथ-श्वेत–२८ अं०-"सं० १५४८ वरषे वैसाष सुदी ३ श्री मुलसंघ भट्ठारक जी
श्रीभानुचन्द्रदेव साह जीवराज पापड़ीवाल नित्यं प्रणमति सहर मुड़ासा श्रीराजा
__सबसंघ ।" ३३ अर्हत्-श्वेत-१० अं०-'सं० १५७७ इत्यादि-" ३४ अर्हत्-कृष्ण पा०-४ अं०-'सं० १६६५” ३५ पार्श्व-खड्गा० ४ अं-लेखरहित । ३६ श्रेयांसनाथ (गैंडा)- श्वेत पा०-३२ अं० - "सं० १६८८ वर्षे फाल्गुण सुदी ८ शनौ
श्री मूलसंघे भ० श्रीज्ञानभूषणदेव तत्प भ० श्री जगद्भूषणदेव तदाम्नाये पुले ज्ञातिये खेमिज गोत्रे साधु तारन तद्भार्या मैना..... भार्या जमुना तत्पुत्र साधु भान तस्य भार्या नरायनदे तत्पुत्र साधु राजाराय खेमकरण एतेषां मध्ये साधु मानो
विम्ब प्रणमन्ति ।" ३७ अर्हत्-धातु-२३ अं०- यक्षादि चमरछवादि-सहित-लेख-रहित । ३८ अर्हत्-(खड्गासन)-धातु-३ अं०-लेख-रहित । . (कुल १४० प्रतिमायें हैं, जिनमें ३३ लिङ्गचिह्न-सहित और शेष लिङ्गचिह्न-रहित हैं)
(७) मैनपुरी (मुहकमगंज) के दि० जैन पंचायती (बड़ा) मंदिर में विराजमान
लिंगचिह्न-सहित प्रतिमाओं पर का लेख-संग्रह । १ नेमिनाथ-कृष्ण पा०-५० अं० ऊचाई - "श्री सं० १९५२ का मिती माधसुदी १ काष्ठासंधे
माथुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्याम्नाये भ० मुनीन्द्रकीर्ति देवस्तदानाये अगरवाल वैश्यवंशे बाबू रामदासजी तत्पुखा बाबू छेदीलाल विष्णुचंद्र जी नरोत्तमदासजी श्री जिनमन्दिर पूर्वक श्री जिनविम्व प्रतिष्ठा करापिता अंगरेज बहादुर श्रीमती राणी
विक्टूरिया शहंशाह राज्य प्रवर्तमाने शुभम् ।" २ तीन भगवान खड्गासन-छत्रसहित-मध्य में शीतलनाथ-इधर उधर नेमिनाथ और
अभिनंदननाथ-१३ अं0-"सं० १२१६ माघ सुदी १ साधु उदयदे पुत्र जयचन्द्र ।"
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भास्कर
[ भाग २
३ आदिनाथ--खड्गासन-धातु-१५ अं.-"सं० १९५५ प्रतिष्टितम् मैनपुरी। ४ चन्द्रप्रभ - श्वेत पा०-११ अं0-"सं० १५४८ वैसाख सुदी ३ गुरौ मूलसंघे भाटारक जी
श्रीजिनचंद्रदेव सा० जीवराज पापड़ीवाल ...........।' ५ पार्श्व--श्वेत पा०-१८ अं.-"सं० १५४८ वैसाख सुदी ३ गुरौ मलसंघे भट्टारक जी श्री
जिनचंद्र देव सा० जीवराज पापड़ीवाल ............" ६ पार्श्व-धातु-११ अं०-यज्ञादिसहित-सं० १३४६ चैत्र सुदी १३......चैत्र सुदी
१३............मूलसंघे श्रीमालवंशे साधु विहु ॐ राज्ये प्रतापचन्द्र दहउपसंघा ।" ७ पार्श्व-धातु-१० अं० .-"सं० १५२८ वर्षे वैसाख सुदी ७ श्रीमूलसंधे भ० श्री जिनचंद्र
तत्प४ श्री सिंहकीर्तिदेव महिमवंश साधु होसार्णदेवास्तत्पुत्र.......... " . ८ अजितनाथ समूह यज्ञादि-सहित-धातु-११ अं० - "सं० १५४५ जेष्ट सुदि ५ गुरौ श्रीकाष्टा
संघे भ• मलयकीर्तिदेवास्तदाम्नाये अग्रोतक मीतल गोत्र साहु भरेल.. .........
प्रणमन्ति ।" ६ अर्हत्-खाकी पाषाण-१४ अं0-"सं० १३१४ ..........." १० अर्हत्-चौमुखी-धातु-७ अं०-"सं. १५२१ वर्षे मूलसंधे............" ११ अर्हत्-चौमुखी --धातु-७ अं.-"सं० २५४१ वर्षे असौजसुदी १२ साधु पं० इन्द्रलाल ।" १२ पार्श्वनाथ-श्वेत -२० अं०-"सं० १५४८ वर्षे वैसाख सुदी ३ श्री मूल संघे भट्टारकजी
श्रीजिनचंद्रदेवा साह जीवराज पापड़ीवाल नित्यं प्रणमंती सा० धरमदास श्री.
राजा सो संघ।" १३ पार्श्व-मंदिर सहित-धातु--२ अं०--"सं० १७१० वर्ष माघ सुदी १ श्रीमूलसंघे भट्टारक
श्री नन्ददेव । १४ पार्श्व--स्फटिक--॥ अं०-लेखरहित। १५ पार्श्व-श्वेत--२० अं०-"सं० १५४८ वर्षे वैसाष सुदी ३ श्री मूलसंघे श्रीमहारक श्री
मूलसंजे श्री भट्टारक श्री जिनचद्रदेवा साहु जीवराज पापड़ीवाल निस्वं प्रणमंति । १६ पार्श्व--धातु--४॥ अं०--"सं० १५५२ मावसुदो--श्रीपार्श्वनाथ ।" १७ चन्द्रप्रभ-धातु--१० अ० - "सं० १५४२ वर्षे वैसाष सुदो ३ वासरे चलचन्द्र राजा सौसिंह
- राजा सिवसिंह के राज्य में जीवराज पापड़ीवाल माधे" १८ अर्हत्-खड्गासन-धातु-लेखरहित । १६ अर्हत् चतुर्मुख समंदिर-खड्गासन-धातु-११ अं० -"सं० १६३६ माघ सुदी १० म०
राजेन्द्रकीर्ति तदास्नाये मुनीश्वरदासेन प्रतिष्टितं छपरानगरे ।"
(कुल ५१ प्रतिमाओं में से २६ में लिङ्गचिह्न व्यक्त है)
श्रीजिनचदा
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om
THE JAINA ANTIQURY
An Anglo-Hindi quarterly Journal,
Vol. I. ]
September, 1935.
[ No. 2
Editors: Prof. HIRALAL JAIN, M.A., LL.B., P.E.S.,
Professor of Sanskrit,
King Edward College, Amraoti, C. P. Prof. A. N. UPADHYE, M.A.,
Professor of Prakrata,
Rajaram College, Kolhapur, S.M.C. B. KAMTA PRASAD JAIN, M.R.A.S.,
Aliganj, Distt. Etah, U.P. Pt. K. BHUJABALI SHASTRI,
Librarian, The Central Jaina Oriental Library, Arrah,
Published at THE CENTRAL JAIN ORIENTAL LIBRARY,
ARRAH, BIHAR, INDIA,
Annual Subscription :
Foreign Rs. 4-8.
Inland Rs. 4.
Single Copy Rs 1-4,
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m.
Vol. I.
No. 11
THE
JAINA ANTIQUARY.
"श्रीमत्परमगम्भोरस्था द्वादामोघलाञ्छनम् ।
जीयात त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥”
ARRAH, (INDIA)
September,
1935.
WHO WAS THE FOUNDER OF JAINISM?
(By Kamta Prasad Jain, M.R.A.S.)
A right answer of the question, given above as title, is yet to be searched and worked out; since the theory given as an established fact in the Text Books of Indian History of our schools and colleges, besides the general books on the subject, is that most probably the founder of Jainism was Parsvanatha, whom the Jainas regard as their 23rd Tirthankara1. This proposition is far from the truth. There was a time when European scholars regarded Jainism to be a religion of medieval advent, and then others came forward to call it an off-shoot of Buddhism2. But
1. "Most probably Parsva, the 23rd Tirthankara was the founder of Jainism." -Encyclo of Religion and Ethics, vol. VII p. 465.
"Parsva.......was indeed the Royal founder of Jainism." -Harmsworth's History of the world, II, p. 1198. Oxford Students History of India, p. 43; Early History of India, p. 31; Cambridge History of India, vol. I pp. 153 154, etc., etc.
2. Elphinstone, History of India, p. 27 and 122. Barth, Wilson, etc., quoted in the
"Jaina Itihasa Series, No. I."-p. 6.
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20
JAINA ANTIQUARY.
[Vol. I
their opinions, though honest, were not based on sound knowledge and so could not stay long. Soon after came Prof. Jacobi in the field and studied Jaina Canonical books along with the Buddhist Suttas and he proclaimed for the first time the authenticity of Jainism as an independent and pre-Buddhistic religion?. He however, regarded Parsva as an historical person and founder of Jainsim quite wonderfully; but at the very time he had to remark also that :
" But there is nothing to prove that Parsva was the founder of
Jainism. Jaina tradition is unanimous in making Rish abba, the first Tirthankara ( as its founder )....... There may be something historical in the tradition which make him the First Tirthankara'."
Unfortunately, inspite of this clear statement that no evidence is available to displace Jaina tradition of the first Tirthankara as its founder in this cycle of time, the queer view has come to be held that Parsva is the founder of Jainism. The main reason for the prevalance of this view is perhaps the hoary antiquity of Rishabhadeva, the first Tirthankara, which makes it not an easy task to believe the tradition at all. His life time goes most anterior to that of Rama and Lakshamana and the history of India has been also assumed to begin with the 8th, or 10th. century B.C. But how this assumption can be relied upon now, when the literary and moreover epigraphical evidence is available to push back the beginning period of the ancient history of India not only by decades but by centuries? The Jaina and Buddhistic literatures of the Mauryan period and the antiquities of Mohenjo Daro and Harappa cannot be overlooked in this respect. Recently it has been pointed out by Prof. Pran Nath of the Hindu University, Benares, that a copper-plate grant belonging to the period of Babylonian ascension mentions the name of Nemi, the 22nd. Tirthankara of the Jainas*. It means that the real history of India and the beginning of Jainism go back anterior to the 10th. century B.C.
Under the circumstances, sound scholarship demands a review of the ancient traditions of our Puranas with more reliability, and, as such, we cannot be justified in passing the great personality of Rishabha as a myth only, and proclaiming Parsva as the founder of Jainism! Rather
1. Jaina Sutras, 3. B. E.XLV, Intro : p. XXI. f f. 2. Indian Antiquary, vol. IX p. 163.
*" Dr. Pran Nath, Professor of the Hindu University, Benares, has been able to decipher the copper-plate grant of Emperor Nebuchandneyyar I (Circa 1140 B. C.) or II (Circa 600 B.C.) of Babylon, found recently in Kathiawad. The inscription is of great historical value......... It may go a long way in proving the antiquity of the Jaipa religion, since the name of Nomi appears in the inscription."-Times of India, 19th March 1935, p. 9.
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No. II]
WHO WAS THE FOUNDER OF JAINISM.
the Jaina and non-Jaina literary and epigraphical evidences establish it beyond doubt that there had been a real person of the name of Rishabha in ancient India, who was in fact the founder of Jainism in this cycle of time, as we shall see below:
In the Jaina literature, the Agama (Canonical) texts of the Swetambara sect are regarded by a certain scholar of the type of Jacobi as belonging to the Mauryan period * & they clearly narratet the life of Rishabha & name him as the first Tirthankara of the Jainas. Similarly the available Agama ( canonical) portion and the other texts of the first century B.C. of the Digambara sect mention this great Hero in the same way.
In the non-Jain literature our eyes naturally turn to the Vedic literature, and we find mentioned in a work of no less importance than the Rigveda itself the name of Rishabha ; but scholars doubt and say that there is nothing to show that he was a Jaina Tirthankara'. Of course Sayana and other commentators of the said Veda undoubtedly establish it to be a personal name, but they are also not clear as to the identity of the person named", and it seems that either they had no knowledge of him, or they did not want to disclose it owing to religious animosity, which indeed made many alterations and additions in the Vedas. But to remove our gloom of ignorance at this place the Hindu Puranas come to our rescue and they give, one and all, the same story of Rishabhadeo as is found in the Jaina Literature. Then, why not should we regard
* Jaina Sutras, S. B. E., Introduction † Acharanga Sutra ; Kalpasutra, S. B. E pp. 252-53, Samavayanga-Sutra.
. -(Hyderabad ed) pp. 97-194. 1. जयधवला-महाधवला-प्रवचनसार आदि। 2. ऋषभं मासमानानां सपत्ननां विषा सहिं । हन्तारं शव णां कृधि विराजं गोपितं गवाम् ॥
ऋग्वेद १०।१२।१६६ 3. Historical Sleanings p. 76. 4. Sarvanu kramanika, (London) p. 161. 5. Pargiter, A. I. H. T., p. 11 & Asur India, Intr. iv. 6. cf. Jain account of Rishabha (Harivamsa 8. 55-151) with the following quotations
from the Hindu Puranas :"अष्ठमे मरुदेव्यांतु नाभेर्जात उरुक्रमः । दर्शयन्वत्मधीराणां सर्वाश्रम नमस्कृतः ॥३३॥ इत्यादि"
-भागवत प्रथम स्कन्ध तृ० अ० मार्कण्डेयपुराण अ० १० पृष्ठ १५०; कूर्मपुराण अ०४१ पृष्ठ ६१, अग्निपुराण अ० १० पृष्ठ ६२, गरुडपुराण अ० १ पृ० १
"नाभे निसर्ग वक्ष्यामि हिमोहऽस्मिन्निवोधत् । नाभिस्त्वजनयस्पुत्र मरुदेव्यां महाद्युति ॥१६॥ ऋषभपार्थिव श्रेष्ठ सर्वक्षतस्य पूर्वजम् । ऋषभादरतो जज्ञवीरः पुक्षशताप्रजः ॥६॥ सोभिषिच्यर्षभः पुत्र महाप्रव्रज्या स्थितः । हिमान्हं दक्षिणं वर्ष भरतायन्यदेदयत् ॥६॥
ब्रह्माण्डपुराण १४ अ.
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JAINA ANTIQUARY.
[Vol. I
Rishabha of the Vedic text to be that of the Jaina literature? Moreover when the Vedic commentator insists on the elucidation of Vedic tradition with the help of traditional history in the Epics and the Puranas', it is but natural for us to regard the Vedic Rishabha to be the son of Patriarch Nabhi and his wife Marudevi and the founder of Jainism in this cycle of time. This agreement of the Jaina and the Brahmanical texts is so striking and singular that we cannot deny its validity', and, moreover, there are Vedic scholars like Prof. Virupaksh Wadiyar, M.A., VedaTirtha and others who clearly express that Rishabha of the Rigveda hymn is the same as the first Tirthankara of the Jainas3.
22
Likewise the epigraphical evidence also bears testimony to the real personality of Rishabhadeva. Most ancient Mohanjo Daro seals may be pointed out in this respect; the nudity and the pose of eyes of the figures engraved on them 1 are the characterising elements and marks of the Jain images. Rai Bahadur Ramprasada Chanda, M.A., remarks rightly about them:
66
Yoga or religious meditation is the common element of all historic Indian religions with the exception of Vedic ritualism......... The Kayotsarga (dedication of the body) posture is peculiarly Jaina. It is a posture not of sitting, but of standing. In the Adipurana (XVIII) Kayoisarga posture is described in connection with the penances of Rishabha or Vrishabh, the first Jina of the Jainas......... Not only the seated deities engraved on some of the Indus seals are in Yoga posture and bear witness to the prevalence of Yoga in the Indus valley in that remote age, the standing deities on the seals also show Kayotsarga posture of Yoga described above......... A standing image of Jina Rishabha is in Kayotsarga posture on a stelle.........in the Curzon Museum, Mathura...... It will be seen that the pose of this image closely resembles the pose of the standing deities on the Indus seals. The name Rishabha means bull and the bull is the emblem of Jina Rishabha. The standing deity figured on seals 3 to 5 may be the proto-type of Rishabha.' "15
1. Asur India, Int. IV.
2, Prof. Stevenson remarked: "It is so seldom that Jainas and Brahmanas agree, that I do not see how we can refuse them credit in this instance, where they do so."-Kalpasutra, Intro. XVI.
3. जैनपथप्रदर्शक भाग ३ अंक ३ पृष्ठ १०६ ।
4. Mohenjo Daro, I, 52-78.
5. Modern Review, Aug. 1932 pp. 156-159.
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No. II 1
WHO WAS THE FOUNDER OF JAINISM.
23
There is not only the resemblance of Jaina image of Rishabha, the first Jina, with the figures on the Indus seals, but certain seals bear an inscription, which Prof. Pran Nath reads as Jineshwara. It is enough to prove the authentic antiquity of the Jaina tradition of Rishabhadeva.
Besides it, the ancient Hathi Gumfa inscription of king Kharvela mentions clearly an image of Agra Jina ( i.e., the first Jiną : Rishabha ) which was a national asset of the Kalinga people and was taken away to Magadha by a Nanda King'.
It means that the tradition of Rishabhadeva is more ancient than that of Nanda period. The religious votaries of the times of Buddha and Mahavira no doubt regarded Rishabha as a real person and worshipped his images.
The images of Rishabhadeva and other Jaina deities bearing inscriptions dedicated to Rishabha in the Curzon Museum, Muttra, and excavated from Kanka li Tila also prove this very thing. There were images of Jinas engraved on the plane of that Stupa which was regarded in the Indo-Scythian period, as the work of Devas and which Profs. Bulher and Smith assigned to the time of Parsvanatha i.e , 8th. century B. C. This evidence pushes back the Jaina tradition of 24 Tirthankaras including Rishabhadeva far anterior to Nanda and Mahavira's time.
Now, if Rishabha was not a real personage, there is no reason why some people of ancient India should make and worship his images and dedicate inscriptions to him.
Hence, we should regard Rishabha as a real personage, and as the founder of Jainism in this cycle of time.
1. IHQ. Vol. VIII No. 2 Suppl. 2. JBORS. III 465-67. 3. Jain Stupa and other Anti: of Muttra.
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MATHEMATICS OF NEMICANDRA
.(By Bibhūtibhūşaņa Datta)
Nemicandra's Time and Place Acārya Nemicandra Siddhānta-cakravarti was a contemporary of celebrated Cāmundarāya (or Cāmundarāja), a profound scholar, a brave general and a great statesman. Cāmundarāya was minister of King Mārasimha II (died 975 A. C.) and also of his descendent King Rācamalla (or Rājamalla) II (died 984 A. C.) of the Gänga Dynasty of the West. During the reign of the former he won several great, battles. With the advance of age, Cāmundarāya devoted himself more and more to religion and became one of the greatest promoters of Jainism. Though a disciple of the venerable Saint Ajitasena, he was much devoted also to Nemicandra. In the Gommata-sūra of Nemicandra, we find appreciative mentions of Cāmuṇdarāya. In fact, as has been attested by its commentator, Abhayacandra Traividya-cakravartī, Nemicandra composed that work by way of discourses on scriptures to Cāmuṇdarāya and in answer to questions put by him. In the same way Nemicandra wrote another work, Triloka-sāra by name, so we are informed by his chief disciple, Mādhavacandra Traividyadeva, in his commentary on the work. According to the Bāhubali-carita (1614), Nemicandra accompanied Cāmundarāya on a pilgrimage to the image of Gummațeśvara at Podanapura and in obedience to his command the latter erected on the Vindhyagiri at Śravaņa Belgola (Mysore) a colossal image of Bāhubali (more commonly known as Gommațasvāmī or, Gommateśvara), the biggest and most ancient of the three Jain statues (of about 561, 42, and 35 feet in height) which are amongst the wonders of the world " and "undoubtedly the most remarkable of the Jain statues and the largest free standing statues in Asia.” This image was completed in 980 A.C.1
1 See the Introduction (pp. xxvff) of Sarat Chandra Ghoshal to his edition of the Dravya-samgraha, with the commentary of Brahmadeva, English translation, notes and an original commentary (in English) by himself, Arrah, 1917.
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JAINA ANTIQUARY.
[Vol. I Cāmuṇqarāya wrote three books, Cāmundarāya Purāna, Caritra-sāra and a commentary (in Kanarese language) of the Gommațasāra of Nemicandra. From the colophon of the first work we learn that it was completed in the Saka year 900 (= 978 A.C.). Thus it is found that Ācārya Nemicandra lived about 980 A.C.
Ācārya Nemicandra was a disciple of Ācārya Abhayanandi and belonged to the Desīya Gana of the Jainas. This seat flourished mainly in the Karņāțaka. So it is very likely that Nemicandra came from that part of Hindusthan. That was indeed the field of his activity.
Nemicandra's Works
Scholars have differred about the works of Ācārya Nemicandra Siddhānta-cakravartī. The author of the Bahubali-carita has attributed to him only three works namely the Gommațasāra, Labdhisāra and Trilokasāra. There are internal as well as external evidences to prove that these three works were truly composed by our author. So there cannot and, indeed, has not been, any difference of opinion about them. Unfortunately, we cannot be as sure about others. According to Sarat Chandra Ghoshal,” followed by J. L. Jaini, 2 he wrote two other works, Dravyasamgraha and Kșapaņasāra, probably also Pratişthāpātha. Babu Jugalkisore 3 doubts if Muni Nemicandra, the author of the Dravyasamgraha, can really be identified with Nemicandra Siddhānta-cakravartī, the author of the Gommațasāra, on the ground of certain difference, pointed out by him, between the philosophical ideas profounded in these two works. In his commentary on the Dravyasamgraha, Brahmadeva states that Muni Nemicandra stayed for some times in the temple of Tirthankara Muni Subrata in the town of Aśrama, the capital of Srīpala, a
1 Loc cit., pp. xxixff. 2 Gommațasāra, Jivakānda, edited with English translation and notes by J. L.
Jaini, Lucknow, 1927; Introduction, p. 9. 3 Trilokasāra with the commentary of Mādhavacandra Traividyadeva, edited
by Pandit Manoharalal Sastri ; Introduction, p. 10.
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No. II]
MATHEMATICS OF NEMICANDRA.
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chieftain of the famous King Bhoja of Dhārā (in Malwa). He then composed a short treatise of twenty-six verses, entitled Laghu Dravyasamgraha, for a merchant named Soma and subsequently enlarged it into Brhad-Dravyasamgraha. Our author lived long before the time of King Bhoja. The present article on the mathe. matics of Nemicandra Siddhānta-cakravarti is based wholly on materials furnished by his Gommațasāra and Trilokasāra. So the difference of opinions about his other works just noted does not affect us in the least. It may be mentioned by the way that there is nothing of mathematical interest in the Dravyasamgraha.
Nemicandra as mathematician
· Except the Trilokasāra which treats of the cosmography of the Jaiņas, other works of Nemicandra are devoted to the Jaiva philosophy. As is shown by his title, Siddhānta cakravartā ("Paramount Lord in the Siddhāntas or Jaina Scriptures”), Nemicandra was highly learned in Jaina Scriptures and is still recognised by all as a great authority on them. It appears that he had a fair knowledge also of mathematics. He is found to have employed the law of indices, summation of series, mensuration formulæ for a circle and its segment, and permutations and combinations. It is true that most of those results were not new but were known to the anterior Hindu mathematicians. But if we remember that Nemicandra was essentially a philosopher and a saint, the so much knowledge of an abstruse secular science, as displayed by him, will appear very commendable. Some of his results in combinations we have not so far found in any Hindu work before the fourteenth century of the Christian era.
Arithmetical Notations
From early times there were devised in India various methods for expressing numbers, such as by means of (1) names of things, 1 For a comprehensive account of the nominal notation or word numerals
see the following articles of the author : " Sabda-samkhyā Praņāli ” in the Bangiya Sahitya Párigad Patrikā, 1335 B. S. (=1928-29 A.C.), pp. 8-30 " Näma-samkhyā," Ibid, 1337 B,S., pp. 7-27.
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[ Vol. I
(2) letters of the alphabet, (3) tychæographic abbreviations of number names or expressions, and (4) special symbols. Again in writing in decimal notation a number chronogram in nominal notation (Vāma samkhyā) or in alphabetic notation (Aksarasankhyā or Darna-samkhayā), baving the place-value, the leftward move (vāmāngati) was followed. Occasionally, however, we meet with instances, especially in the writings of the early Jaina scholars, in which the rightward move (dakşinā-gati) has to be adopted. Nemicandra has employed most of these notations. For instance, the number 197,912,092,999,680,000,000,000,000,000, 000,000,000,000,000, is stated as
"विधुणिधिणगणवरविणभणिधिणयणवलद्धिणिधि खरहत्थी। ForAIAETU ATAT..."4
Here the rightward move is followed. But in "TUAÀFata TatqTUTAE TOTUTA EFT"5 = 7905694150, the leftward move has to be adopted.
For the alphabetic notation, he has applied the Katapayādi system in its second variant. For example, we find
"तललीनमधुगविमलं धमसिलगाविचारभयमेरू । argita FET"6
= 79,228,162,514,264,337,593,543,950,356 with the leftward move,
and
1 For a compresensive account of the aiphabetic notation see the writer's articl
“ Aksara-samkhyā Praņālī," in the Bungiya Sahitya Parvad Patrikā,
1336 B.S., pp. 22–50. 2 Bibhutibhusan Datta, “ Ankānām Vāmato gatih," Bangiya Sahitya Parisad
Patrikā, 1337 B.S., pp. 70-80, 3 Bibhutibhusan Datta, " Jaina-sähitye wāma-samkhya," Bangiya Sahitya Parişad
Patrikā, 1337 B.S., pp. 28–39. 4 Trilokasāra, Gāthā 21. 5 Ibid, Gāthā 313. 6 Gommața-sära, Jivakānda, Gäthā 158.
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No. II)
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." वटलवणरोचगानगनजरनगंकासससघधमपरकधरं ।
farauag Uafga" = 413,452,630,308,203,177,749,512,192,000,000,000,000,000,000 with the rightward move. This way of expressing numbers by contrary moves without clearly indicating which move should be adopted in a particular instance introduces a good deal of uncertainty in the arithmetical notation.
The number 65,536 is denoted by the abbreviation qrugt of its full expression "पण्ण्टोपंचसयाछत्तीसा;" 1,294,967,296 by बादालं from "वादालं a303&t 173ra fazarITFITUE!”; and 18,446, 744,073,709,551,616 by the abbraviation game of
"एकचचउछस्सत्रयं च च य सुरणसत्ततियसत्ता। सुरणं णव पण पंच य एक्कं छक्केक्कगो य छक्कं च ॥2 --
Law of Indices
Before stating Nemicandra's definition of the Law of Indices, we should explain the technical terms employed therein. If N=2", then n is called the ardhaccheda of N. The term ardhaccheda is derived from ardha=" half," cheda="divisor" and it means “the number of times that, a particular number can be halved.” Sometimes the word ardha is deleted, and we have simply the term cheda. : In general, if N=x" then n will be the cheda
of N with regard to the base x. If N=29" then n' is called the ardhaccheda of the ardhaccheda of N. Nemicandra gives the following rules :
" The ardhaccheda of the multiplier plus the ardhaccheda of the multiplicand is the ardhuccheda of the product: it has no more cheda."4
2m x 2" =2m+n.
1 Trilokasära, Gāthā 98.
2 Ibid, Gathā 66. 3 Trilokasära. Gātha 8. 4 lbid, Gāthă 105,
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30 JAINA ANTIQUARY.
[Vol. I "The ardhaccheda of the dividend minus the ardhaccheda of the divisor is always the ardhaccheda of the quotient.” 1
2m = 2n = 2m-n. « The distributed number multiplied by the ardhaccheda of the substituted number will always give the ardhaccheda of the resulting number."9
If the number M be distributed into its units and each unit be then substituted by the number N the resulting number R will be
R=NM Now if N=2", then
R=21M as stated in the rulo.
“The ardhaccheda of the distributed number added with the ardhaccheda of the substituted number is the varga-salākā of the resulting number.”3
(2")" – 2014* Thus Nemicandra knew fully the Law of Indices.
20" x x" = xm+", cm = x1 = xm-n, (.zm)" =wmn
Series Nemicandra distinguishes fourteen kinds of series (dhārā) : * (1) Sarva-dhārā (“ general series” of natural numbers),
1, 2, 3, 4, ..., N, ... (2) Sama-dhārā ("even series "),
2, 4, 6, 8, ..., 2n, ... (3) Disama-dhārā ("odd series "),
1, 3, 5, 7, ..., (2n-1), ...
1 Ibid, Gathā 106. 2 Ibid, Gāthā 107. 3 lbid, Gāthā 108.
4 Triloká sāra, Gāthās 53-66, 77-88,
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No. II]
MATHEMATICS OF NEMICANDRA. (4) Krti-dhārā (“square series”),
1, 4, 9, 16, ...
or
1, 22, 32, 42 , ... , na, ... (5) Akyti-dhārā (** non-square series "),
2, 3, 5, 6, 7, 8, 10, ... (6) Ghana-dāhrā (" cubic series "),
1, 27, 64, ...
1, 28, 33, 43, ..., 93, ... (7) Aghana-dhārā (“non-cubic series "): If from a series of natural number, the cubic numbers be omitted, we get a series of this kind. (8) Dargamātrkā-dhārā,
1, 2, 3, 4,..., v N. (9) Avargamātrkā-dhāra,
VN+1, vN+2, VN+3, ..., N (10) Ghanamātrkā-dhārā,
1, 2, 3, 4, ...VN (11) Aghanamātrkā-dhārā,
9N+1, N +2, ... N. (12) Dvirūpāvarga-dhārā
4, 16, 256, 65536, ...
or
23, 24, 25, 226, ... 28, ... (13) Doirūpaghana-dhārā,
8, 64, 4096, ...
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JAINA ANTIQUARY.
[Vol. I
23, 24, 212, ..., 28.9"-?....
(14) Dvirūpaghanāghana-dhārā,
83, 86, 812,...
or
2
1-1
3
• 2
29, 218, 236, ..., 2 The subject of series is stated to have been treated comprehensively in a special treatise entitled Vrhaddhārāparikarma ("Great Treatise on the Operations of Series"). Nemicandra has referred his more enthusiastic readers to :that treatise for fuller informations on the subject, he having noted only a small portion of it suital le foi his practical purpose. No such treatise is available now. It is
lost.
Arithmetical Progression. Nemicandra says:
** Multiply the number of terms as diminished by unity by the common difference. The product added with the first term gives the last term, and when subtracted from the last term yeilds the first. Half the sum of the first and last terms multiplied by the number of terms becomes the sum of the seri es."2
Let a=the first term, l=the last term, b=the comř on difference, n=the number of terms and Sn = the sum of a series in arithmetical progression ; then the rule says,
l=a+(n-1)6, a=1-(n-1)0
Sn=" (a +l). “The number of terms is diminished by unity and then divided by two and multiplied by the common difference. Add the result to the first term and multiply the sum by the number of terms. Know the product to be the sum of the series."
8. =n{a + (47) };
1Trilokasāra, Gāthā 91,
2 Ilid, Gāthā 163.
3 Ibid, Gāthā 164.
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No. II]
MATHEMATICS OF NEMICANDRA.
To find the number of terms of a series in A.P. whose first and last terms are known as well as the common difference, Nemicandra gives the formula,1
l-a
b.
Geomteric Progression. To find sum of a series in geometric progression (guna-dhāra), Nemicandra describes the following rule:
n=
"Multiply mutually as many common ratios as there are number of terms in the series; the product is diminished by unity and then divided by the common ratio minus one and multiplied by the first term: the result is the sum of the series in geometric progression,"
2
Algebraically
1 Ibid, Gatha 57.
where a the first term of a series in G. P., the common ratio and S the sum.
Examples from Nemicandra :3
(1+22+23+...+2") a
A= 10 +10% +108
p p
=
Sa
s=a (1),
=
+1
=
= (1-1),
9
=
p
9
p
80
+
(a little less than);
p 800
p
p + 8.10 8.102
p
+... + 10"
+....
=
+ +
...
(2n+1-3) a;
p
=
- 12/24 (-11),
72
10n
72(a little less than).
2 Trilokasara, Gāthā 231.
33
p 8.10
9
3 Ibid, Gathas, 796-7.
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JAINA ANTIQUARY.
Mensuration Formulae
Circle.
Nemicandra says:
"The circumference of a circle is grossly equal to three ti es its diameter; and neatly it is the square-root of ten times the square of the diameter. The quarter of the diameter multiplied by the circumference gives the accurate area."1
If C denote the circumference of a circle, d its diameter and A the area then
C (gross)=3d, C (neat) =√10d2, 4=1Cd.
Whence we shall have
For calculating the neat value (sukṣmaphala) of the circumference and of the area of the Jambudvipa the second formula has been employed. It has been stated that if r be the radius of a circle equivalent to a square of side a, then3
d1 =a, ds=(1+22)a,
r =
9
-a 16
16 2
*= (-10).
7=
[ Vol. I
1
b1= 100000 yojana=a, say
b2 =2a, b,=22a,..., bn =2"-1 a;
and
Circular Annulus. In the Jaina cosmography, the earth is supposed to be a flat plane divided into successive regions of land and water by a system of concentric circles. The innermost region is one of land, called Jambudvipa. Its diameter is 100000 yojana. Breadths of the successive annular regions are stated to be increasing by multiples of 2. Now if b1, b2, bз, ... denote the breadths and di, da, ds,... the corresponding diameters of outer edges, then we shall have
1. Trilokasara, Gatha, 311. See also Gathas 17, 96.
2. Ibid, Gathas 312-13.
3. Ibid, Gatha 18,
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No. II]
MATHEMATICS OF NEMICANDRA.
dz=(1+2° +23)a,
dn = (1+ 22 +28+ ... +2" )a=(2n+1 -3)a. So Nemicandra writes :
"Multiply as many twos as equal to the number (of regions) decreased and also increased by unity; then multiply the results by 100000. Subtract from the products zero and 300000 (respectively). The results will be the breadth and diameter (respectively) of the outer region." 1.
He has further stated that the diameter of the outer edge of the nth region=46, – 3a, that of its inner edge = 26,- 3a and mean diameter =36n - 3a. 2
“The two values of the cir Jumference of the Jambudvīpa being multiplied by the diameter of any desired land or sea and divided by the diameter of the Jambudvīpa, will give the two values of the circumference of that land or sea." 3
“Multiply the sum of the outer and inner edges of an annulus by half its breath and set down the results at two places. Multiply it (at one place) by 3 and (at another place, by v1o. The products will be (respectively) the gross and neat values of the area of the annulus.”'4
That is to say, if C1, C, be the inner and outer circumferences of a ciroular annulus of breadth 6 and dj, d, be the corresponding diameters, we shall have
Cy: Cy=d, :d, Gross area of the annulus = (di+d216,
Neat area of the annulus=VTO(d+d2)6. Segment of a Circle. For the mensuration of a segment of a circle, Nemicandra gives the following rules : 5 1. Ibid, Gātbā 309. It should perhaps be noted that the breadth of an annulus
(6) is called val iya-vyäsa and the diameter of its edge (d) the sūci-vyāsa. 2 Ibid, Gātha 310. 3 Ibid, Gatha 314. 4 Ibid, Gātbā 315. 5 Trilokasära, Gāthās 760—766,
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JAINA ANTIQUARY.
[Vol. I
“The diameter as diminished by the arrow being multiplied by four times the arrow becomes the square of the chord. Six times the square of the arrow being added by that becomes the square of the are.
"The square of the chord being added by four times the square of the arrow and then divided by four times the arrow gives as a rule the diameter of the circle. er of the circle.
. “A quarter of the product of the chord and arrow, and half the sum of the chord and arrow being multiplied respectively by ✓10 and the arrow give the gross and neat values of the area of the segment.
“The square of the chord being increased by the square of twice the arrow and divided by four times the arrow becomes the diameter. The difference of the squares of the chord and arrow is divided by six ; the square-root of the result is the arrow.
. “Subtract the square-root of the difference of the squares of the diameter and chord from the diameter. Know that half the remainder is the arrow..
“The square of the arc as divided by the twice the arrow is diminished by the arrow : half the remainder is the diameter. Diminish by the diameter the square-root of the square of the diameter as added by half the square of the arc: the remainder will be the arrow.
“The sum of the diameter and half the arrow being multiplied by four times the arrow gives the square of the arc. On subtracting six times the square of the arrow from that is obtained the square of the chord.”
If c=chord, h=arrow, a=aro and A'=area of a segment of a cirole of diameter d, we shall have tbe formulae.
(i) c2=4h (d–h), (ii) ao=6h2 +0%,
(iii) d = c++ th 2
4h
,
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No. II]
MATHEMATICS OF NEMICANDRA.
=1/10
4
(iv) A:
(v) A' = (c+h)h, neatly.
c2 +(2h) 2
(vi) d
4h
(vii) h=
(viii) h =
-ch grossly,
(ix) d =
a
2
-c2
6
(d — √√ã3 — c2),
-
-n).
a2
√( a
"
2h
√d2 + a- -d,
(x) h = (xi) a2 = 4h (d+1h), (xii) c2=a2-6h2,
37
1
Most of these formulæ were known before Nemicandra. (i), (ii)=(xii), (iii)=(vi), (vii), (viii) are as old as the early Jaina canonical works (500-300 B.C.). So far as known the formula (iv) was first given by Jinabhadra Gani (529-589 A.C.) and (v) by Sridhara (=750 A.C.) Though the formula (ix)-(xi) are not found stated elsewhere, they can be easily deduced from the others.
Prism, Cone and Sphere. According to Nemicandra, Volume of a prism* = (base) X (height),
Volume of a cone or pyramid5 = (base) X (hight), Volume of a sphere = (radius)3.
For measuring the volume of a heap of certain seeds such as mastard, etc., which resembles a cone in shape, he gives an approximate formula, 7
(circumference )* × (height).
Volume =
1 See the article of the writer on "Geometry in the Jaina Cosmography" in the Quellen and Studien zur geschichte der mathematik.-Abteilving B, Bd. 1, 1930, pp. 24L-254; "The Jaina School of Mathematics " in the Bulletin of the Calcutta Mathematical Society, vol. 21, 1929, pp. 115-145.
2 Brhat Keetra-samāsa, i.122. 3 Trisatikā, Rule 47, 4 Trilokasara, Gatha 17. Ibid, Gatha 19, 6 Ilid, Gathā 19. 7 Ibid, Gathas 22-23
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JAINA ANTIQUARY.
[Vol. 1
And it is supposed in such a case that
Height = ir (circumference). This approximate formula is derived as follows:
Base = x (radius) =11 (circumference) putting * = 3. Hence. Volume = { (base) x (height)
=(circumference)2 x (height).
Isosceles trapezium. Nemicandra writes :
" The difference of the face and base divided by the altitude is the rate of decrease of the base in proceeding towards the face and also the rate of increase of the face in going otherwards. Half the sum of the face and base multiplied by the altitude is the area. The area multiplied by the height is the volume."1
That is to say, if a denote the face, 6 the base and h the altitude of an isosceles trapezium, we shall have
Rate of decrease of b or increase of a = -,
Area = f(b+a)h. Hence at an altitude n' above the base the breadth of the figure will be
0-en
and at a depth h" below the face the breadth will be
a+(7a)"
Permutations and Combinations According to the Jaina philosophy there are fifteen kinds of pramāda (" carelessness") of which four form the category of vikathā (" wrong talk '), four that of kaşāya ("passion "), five that of indriya (“sense") and one belongs to each of the categories
1
Ibid, Gāthā 114,
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No. II]
MATHEMATICS OF NEMICANDRA.
of nidra ("sleep") and pranaya ("attachment "). Combinations are made of five elements of carelessness selecting only one element from each of the five categories. They are usually done by setting down the elements according to a systematic scheme and are finally marked serially according as they are obtained. Hence the problems that will arise in this respect are, as enumerated by Nemicandra, to find:
1
(i) the total number of combinations that can be made (samkhyā),
(ii) a systematic scheme of laying out the elements (prastāra),
39
(iii) the elements in a combination from its serial number (nasta),
(iv) the serial number of a particular combination (samuddista or uddiṣṭa).
The serial number (uddiṭsa) of a combination consisting of the same varieties of the elements will be different, it should be noted, according to the different order in which the different categories are taken successively for the selection of elements. In the above instance, the selection has to be made out of three categories, other two having only one element each. So there will be 6 (=3 × 2 × 1) different orders. In other words, a selection of three elements can have six serial numbers. Nemicandra bas taken the categories in the order vikatha, kaṣāya and indriya. Again in this order, the representation may be begun by laying out one or all the elements of the first category, vikatha (vide infra). Nemicandra calls the former process of representation as the prastara and the reverse process as the parivartana. Hence according to his calculation, a selection consisting of the same three elements, can have two serial numbers. But, in fact, it can have 12 different serial numbers.
1
Samkhya. Nemicandra writes:
"All the combinations previously obtained combine with each element of the next category. Hence the total number will
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JAINA ANTIQUARY.
[ Vol. I
be given by the multiplication (of the numbers of elements in the different categories)."
Thus the total number of combinations that can be made out of the fifteen elements of carelessness in the way described above is 4x4x5X1X1=80.
Prastara. Nemicandra says:
"The distribution is made thus: Write down severally the first element (of the first category) of carelessness and put over it, each of the elements of the succeeding classes. When the elements in the third category are exhausted, begin afresh with the second element of the second category; (and so on). When all the elements of these two categories have been thus distributed out, operations should be begun with (the second element of) the first category. (And so on)." 2
Let us denote the four kinds of vikatha by v,, V2, V3, 4; the four kinds of kaṣaya by k1, ka, ks, k4; and the five kinds of indriya by i1, ig, i3, i4, 5. Then the representation described here will be as follows:
is is is is is
k1 V1
is is is is is
k1 V2
is is is is is
k2 V1
i i2 is is is
k2
V2
is is is is is
ks V1
is is is is is
K3
V2
is is is is
ki
V1
i iz is is is
KA
V2
and so on with v3 and 4 in the lowest row.
Parivartana. As already stated there can be several alternative processes. Nemicandra has, however, described only one in which the procedure followed is contrary to that just mentioned. He says:
"Write down the elements of the first category as many times as the number of elements in the second category; then put over each group severally each of the elements of the
1 Gommatasara, Jrakānda, Gāthā 36,
2. Ibid, Gathās 37, 39.
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No. II 1
second category; and proceed thus all throughout. When all the elements of the first category are exhausted, begin afresh with the second category; (and so on). When all the elements of these two categories are thus distributed out, the operation with the elements in the third category begins."
1
That is to say, the representation is
in k1
V1 V2 V3 V4
i2 k1
MATHEMATICS OF NEMICANDRA.
i
k2
V1 V2 V3 V4
12
k2
u
i1 K3
V1 V2 V3 V4
i k3
V1 V2 V3 V4.
V1 V2 V3 V4
V1 V2 V3 V4
similarly with is, is, and is in the upper row.
i1 Ks
V1 V2 V3 V4
i2 KA
V1 V2 V3 V4
Nasta. To find out the elements occurring in a combination whose serial number is known, Nemicandra gives the following rule:
"Divide (the given serial number) successively by the. numbers of elements in the different categories, adding each time: The unity to the quotient, except when the remainder is zero. remainder determines the place of an element in its category; the zero remainder indicates the last element."2
This rule is quite general and is equally available in case of all representations. We shall apply it to find, for example, the 13th combination in the Prastara.
Dividing 13 by 5, we get the quotient 2 and the remainder 3. So the combination contains the element is. Adding 1 to the quotient 2, we have 3. On dividing 3 by 4, the quotient is 0 and the remainder 3. Hence there is the element k Now 0+1=1 and dividing 1 by 4, we get the quotient 0 and the remainder 1. So there is v1. Hence the 13th combination of the Prastara is
içkзv1.
Now in the Parivartana: On dividing 13 by 4, the quotient is 3 and the remainder 1. So the combination contains v1. Adding unity to the quotient, we have 3+1=4. Dividing 4 by 4 we get 1 1 Ibid, Gathas 38, 40 2 Ibid, Gathā 41
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ÍAINA ANTIQUARY.
[Vol. 1
for the quotient and 0 for the remainder. Hence there is kg. Since the remainder is 0 this time, we shall not have to add unity to the quotient. On dividing 1 by 5, we have the remainder 1. So there is 11. Hence the 13th combination of the Parivartana is v,ksi.
Uddişta. To determine the serial number of a combination, Nemicandra gives the following rule :
“Take unity. Multiply it by the total number of elements in a category beginning from the last one (in the given combination) and subtract from the product the number of elements lying thereia after the given element. Proneed (successively) in the same way througout."
For example, let us find the serial number of the combination isk:Vi. The last element in this combination belongs to the category of v. So the calculation must be begun with that. As directed in the rule, we take 1. As there are 4 elements in the category of o, we multify it by 4 and get 1 x 454. Since there are 3 elements, namely 02, 03, 04, in that category after 01, we subtract 3 from the product and get 4-3=1. Now we shall have to multiply the remainder 1 by 4, since there are 4 elements in the category of k and then subtract from the result 1, since there lies only one element, namely kg. after kg. Thus we get 1x 4–=3. Next we multiply 3 by ő, there being 5 elements in the category of i and then subtract 1, as there is only one element, viz., is, after is. So we have 3x5-1=14. Hence the serial number of the combination isk30, is 14.
To determine the nasta (i.e., the elements of a combination from its serial number) and the uddista (i.e:, the serial number of a combination for its elements), more readily without going through the lengthy processes of calculations described above, Nemioandra gives two short tables. "He says:
“Place 1, 2, 3, 4, 5; 0, 5, 10, 15; 0, 20, 40 and 60 in three rows (of cells) of the three categories of carelessness and find the 'elements and, the serial numbers of combinations in the Prastāra).» 1 Ibid, Gāthā 42.
2 Ibid, Gātbā 43
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No. II ]
MATHEMATIOS OF NEMICANDRA.
TABLE I
V4
1
Vg 40
/
60
- "Set down 1, 2, 3, 4 ; 0, 4, 8, 12; 0, 16, 32, 48 and 64 in thrre rows (of cells) of the three categories of carelessness and find the elements and the serial numbers of combinations (in the Parivartana).” 1
TABLE II
16
48
64
To find the serial number of a given combination we have simply to add together the figures present in the cells of its elements in the Tables. And to determine, on the contrary, the elements
1 Gommaļasāra, Jivakānda Gatha 44
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JAINA ANTIQUARY,
[Vol. I
occurring in a combination whose serial number is given, we shall have to break up that number into three parts picked up from three rows of cells in the Tables and write down in order the elements from those cells.
For example, since 13=3+10+0, the 13th combination in the Prastāra is i k 0,; and that in the Parivartana is v, kein, since 13=1+12+0.
Nemicandra's methods for finding the serial number of a combination of elements and vice vers from the tables are quite general as will be easily recognised : Suppose the first group consists of p elements ii, iz, is....sip ; the second group has q elements kı, k,, k3,...,kq; and the third group has r elements v1, 02, 0g. ..., 0r. Let Ni km vn) denote the serial number of the combination i, km Vn in the first scheme, that is, the Prastāra. Now form the table
... to p cells
ki
(1-11p
* ... to q cells 1p
V1+2
pg
2pq
|(1 - 1)pq
... to r cells
lpg
Then
N (i km 0m) = 1 +(m-1) p + (n − 1)) pq. In particular, putting p = 5, q = 4, 9 = 4, we get
N (iz k, 0,) = 3 + (3-1) 5 + (1-1) 5X4=13,
N (is k, vx) =5+ (2 –1) 5+ (4-1) 7 x 4 = 70, as are found from the Table I of Nemicandra,
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Opinions. Jaina Dārshana Divakara, Chanipat Rai Jain, Barrister-at-Law, Vidyā. vāridhi writes from London :
“ The first issue of the Jain Siddhanta Bhaskara has arrived this week. I have much pleasure in welcoming it as an old friend. I hope it will do really useful work.........I like the coloured portrait of Mahävira in the Kumāravastha very much."
Prof. Dr. B. Seshagiri Rao, M.A., Ph. D., M.S.A., etc. writes from Vijianagram :
"Many thanks for your sending me the first Number of 'Jain Siddhanta Bhaskara. I have gone thro' it and find it very interesting & valuable reading. You are doing real service to culture by publishing notes on Literary works in Jainism and whole works also hitherto un. published. Years back when I was at school there used to be a magazine called agga gru featafu which did similar service to our Andhra literature. I congratulate you on the present venture.”
Herbert Warren Esqr. writes from London :
"I am in receipt of No. 1 of Vol. No. 1 of the " Jain Antiquary," June 1935 issue, for which I am obliged. It is nicely got up, and no doubt will be useful to students of history and other matters connected with the Jains. I wish it every success.
Select Contributions to Oriental Journals.
1. The Journal of the U. P. Historical Society, Vol. VII Nov. 1934 :pp. 52-58.-The significance of the term "Nirgrantha "-by K. P. Jain.
The word “nirgrantha " denotes a naked ascetic of Jaina
faith and Jainas were known by this name in ancient India. pp 70-72.- Important Sculptures, Prov. Museum, Lucknow... -by R. B. Prayag Dayal,
A jain statue of some divinity in abhaymudra, with a canopy of a five-hooded cobra is described. The image compares favourably with that of Nagarjuna excavated at Nalanda in 1919-20. The other image described is that of Mahāmānashi-the Yoksini of Shāntinātha.
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46
JAINA ANTIQUARY.
(Vol. I.
2. Indian Culture, Vol. I, Jany. 1935:pp. 381-391.-Some ancient Indian Tribes by Dr. B. C. Law. 3. Journal of Indian History, Vol. XIII, pt. 2, Aug, 1934 :The genealogy and the chronology of the Early Kadambas of Vanavasi,
by Mr. M. Govind Rai. He combats the theory that the
early kadambas were all of Jaina persuasion. ... 4. -Silver Jubilee Number of the Quarterly journil of the Mythic Society,
1. Vol. XXV., Jan. 1935:pp. 87-94.-Jainism in kongu Nadu.-- by C. M. R. Chettiar, B.A., B.L. pp. 161-181.- Architecture in the Ganga Period-by M. V. Krishna Rao.
5. Indian Historical Quarterly, Vol. X, No 2, June 1934 : 5. 332.-The Jaina Calendar by Dr. S. R. Das. 6. Annals of the Bhandarkara Oriental Research Instt., XV. Jany.
1934 :Samantabhadra's Date and Dr. Pathak by Jugalkishor Mukhtar.
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RULES.
The "Jaina Antiquary" (a-gra
) is an Anglo-Hindi aarterly, which is issued annually in four parts, i.e., in June, September, December, and March.
2. The inland subscription is Rs. 4 (including postage) and foreign subscription is 6 shillings (including postage) per annum, payable in advance. Specimen copy will be sent on receipt of Rs. I-4-0.
3. Only the literary and other decent advertisements will be accepted for publication. The rates of charges may be ascertained on application to
THE MANAGER,
The "Jaina Antiquary'
99
Chowk, Arrah (India).
o whom all remittances should be made.
4. Any change of address should also be intimated to him promptly.
5. In case of non-receipt of the journal within a fortnight from he approximate date of publication, the office should be informed
it-once.
6. The journal deals with topics relating to Jaina history, geography, art, archæology, iconography, epigraphy, numisma-. ics, religion, literature, philosophy, ethnology, folklore, etc., from he earliest times to the modern period.
7. Contributors are requested to send articles, notes, reviews, etc., type-written, and addressed to,
K. P. JAIN, Esq. M. R. A. S.,
EDITOR, "JAINA ANTIQUARY" Aliganj, Dist. Etah (India). (N.B.-Journals in exchange should also be sent to this address.)
8. The Editors reserve to themselves the right of accepting, or rejecting the whole or portions of the articles, notes, etc.
9. The rejected contributions are not returned to senders, if postage is not paid.
10. Two copies of every publication meant for review should be sent to the office of the journal at Arrah (India).
II. The following are the editors of the journal, who work honorarily simply with a view to foster and promote the cause of Jainology:
PROF. HIRALAL JAIN, M.A., LL.B. PROF. A. N. UPADHYE, M.A.
B. KAMTA PRASAD JAIN, M.R.A.S. PT. K. BHUJABALI SHASTRI
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आरा जैन सिद्धान्त भवन की प्रकाशित पुस्तकें
:*:
(१) मुनिसुव्रतकाव्य (चरित्र), संस्कृत और भाषा - टीका सहित (२) ज्ञानप्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्र भाषा- टीका सहित (३) जैन सिद्धान्तभास्कर १म भाग की रम किरण
२य तथा ३य सम्मिलित किरणें
(४) भवन के संगृहीत संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी शास्त्रों की पुरानी सूची
(५) भवन की संगृहीत अंग्रेजी पुस्तकों की नयी सूची
प्राप्ति-स्थान
जैन - सिद्धान्त भवन, आरा ( बिहार ) ।
प्रकाशक तथा मुद्रक - बाबू देवेन्द्रकिशोर जैन, श्रीसरस्वती प्रिण्टिङ्ग वर्कस, आरा ।
Se
१1)
॥) (यह श्रर्द्ध मूल्य है )
(m)
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The
Jain Antiquary
An Anglo-Hindi Quarterly Journal.
. M.ranna
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श्रीजैन-सिद्धान्त-भास्कर के नियम।
१ जैन-सिद्धान्त-भास्कर अङ्गरेजो हिन्दी मिश्रित प्रैमासिक पत्र है, जो वर्ष में जून, सितम्बर,
दिसम्बर और मार्च में चार भागों में प्रकाशित होता है। २ इसका वार्षिक चन्दा देशके लिये ४) रुपये और विदेश के लिये डाक व्यय लेकर
४) है, जो पेशगी लिया जाता हैं। १) पहले भेज कर ही नमूने की कापी मंगाने
में सुविधा होगी। ३. केवल साहित्यसंबंधी तथा अन्य भद्र विज्ञापन ही प्रकाशनार्थ स्वीकृत होंगे। मैनेजर,
जैन-सिद्धान्त-भास्कर, आरा को पत्र भेजकर दर का ठीक पता लगा सकते हैं:
मनीआर्डर के रुपये भी उन्हीं के पास भेजने होंगे। ४ पते में हेर फेर की सूचना भी तुरंत उन्हीं को देनी चाहिये। ५ प्रकाशित होने की तारीख से दो सप्ताह के भीतर यदि "भास्कर" नहीं प्राप्त हो, तो
इसकी सूचना जल्द आफिस को देनी चाहिये। इस पत्र में अत्यन्त प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल तक के जैन इतिहास, भूगोल, शिल्प, पुरातत्त्व, मूर्तिविज्ञान, शिला-लेख, मुद्रा-विज्ञान, धर्म साहित्य, दर्शन, प्रभृति से संबंध रखनेवाले विषयों का ही समावेश रहेगा। लेख, टिप्पणी, समालोचना-यह सभी सुन्दर और स्पष्ट लिपि में लिखकर सम्पादक, श्रीजैन सिद्धान्त-भास्कर, आरा के पते से आने चाहिये। परिवर्तन के पत्र भी इसी
पते से आने चाहिये। ८ किसी लेख, टिप्पणी प्रादि को पूर्णतः अथवा अंशतः स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करने
का अधिकार सम्पादकमण्डल को होगा। * अस्वीकृत लेख लेखकों के पास बिना डाक-व्यय भेजे हुए नहीं लौटाये जाते। १० समालोचनार्थ प्रत्येक पुस्तक की दो प्रतियाँ "भास्कर" आफिस, आरा के पते से भेजनी
चाहिये। ११ इस पत्र के सम्पादक निम्न लिखित सज्जन हैं जो अवैतनिक रूप से केवल मात्र जैन-तत्त्व के उन्नति और उत्थान के अभिप्राय से कार्य करते हैं :
प्रोफेसर हीरालाल, एम.ए., एल.एल.बी. प्रोफेसर ए. एन. उपाध्ये, एम.ए. बाबू कामता प्रसाद, एम.आर.ए.एस. पण्डित के. भुजबली, शास्त्री
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(श्रीजैन-सिद्धान्त-भवन आरा का मुख-पत्र)
जैन-सिद्धान्त-भास्कर
अर्थात् प्राचीन जैन-इतिहास, साहित्य एवं शोध-सम्बन्धी त्रैमासिक पत्र
- भाग २]
[किरण ३
सम्पादक-मण्डल प्रोफेसर हीरालाल, एम. ए., एल.एल. बी. प्रोफेसर ए० एन० उपाध्ये, एम.ए. बाबू कामता प्रसाद एम. आर. ए. एस. पण्डित के० भुजबली शास्त्री
जैन-सिद्धान्त-भवन धारा-द्वारा प्रकाशित
भारत में )
विदेश में ॥
एक प्रति का
विक्रम सम्वत् १६६२
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विषय-सूची
हिन्दी-विभाग
विषय (१) जय स्याद्-वाद-कविता [श्रीयुत कल्याण कुमार जैन, 'शशी'] ... (२) अमरकीर्ति गणि और उनका षट्कर्मोपदेश
[श्रीयुत प्रोफेसर हीरालाल एम० ए०, एल० एल० बी०] ... ८० (३) कविवराश्रीजिनसेनाचार्य और पार्वाभ्युदय [श्रीयुत त्रिपाठी भैरवदयालु शास्त्री,बी०ए०] ६३ (४) महाराज जीवन्धर का हेमांगद देश और क्षेमपुरी [श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री] १७ (५) इतिहास का जैनग्रन्थों के मंगलाचरण और प्रशस्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध
श्रीयुत पं० हरनाथ द्विवेदी, काव्य-पुराण-तीर्थ] १०३ ... (६) कतिपय (दि०) जैन संस्कृत प्राकृत ग्रन्थों पर प्राचीन कन्नड टीकायें
[श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री] ११० (७) चामुण्डराय का चारित्रसार [श्रीयुत पं० मिलापचन्द्र कटारिया] .... ११४ (८) महाबीर कुमार के तिरंगे चित्र का परिचय [छोटेलाल जैन, एम. आर. ए. एस.] ११८ (e) जैन सिद्धांत-भवन, पाराकी संक्षिप्त रिपोर्ट [मंत्री-जैन-सिद्धांत-भवन, आरा] ११६
ग्रन्थमाला-विभाग(१) प्रशस्ति-संग्रह [श्रीबुत पं० के० भुजबली शास्त्री]
(२) प्रतिमा-लेख संग्रह [श्रीयुत बाबू कामता प्रसाद जैन] .. ___(३) वेद्यसार [श्रीयुत सत्यन्धर आयुर्वेदाचार्य] .
अंग्रेजी-विभाग
JAINA ART IN SOUTH INDIA [By Prof. Shripad Rama Sharma, M.A.) 45 A NOTE OE DESIGANA (M. Govind Pai]
... ... 63 OPINIONS
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मूबी का होसबसदि (चन्द्रनाथ - चैत्यालय)
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॥ श्रीजिनाय नमः॥
HAMARHIRIDHIANRAILLIRIALLAHURIIIII
HIRAIMALAIIMILIARIDEBITHHHHILLIIIII
C
LEANLINROSTATIALIHITHILD
MUSNIRDERHITITITUTOHTOIRIRAMGHLALITY
THE JAINA ANTIQUARY. जैनपुरातत्व और इतिहास-विषयक त्रैमासिक पत्र
भाग २
दिसम्बर १६३५ । मार्गशीर्ष वीर नि० २४६२
किरण.३
-n
irmittarin..................maramanirain......
जय स्याद्-वाद!
(रच o-श्रीयुत कल्याण कुमार जैन 'शशि') तू ऊोन्नत मस्तक विशाल
नव युक्तायुक्त-विचार-सार ! जेनत्व तत्व का स्फटिक भाल नित अनेकान्त का सिंह-द्वार ! अपहृत मिथ्या भ्रमतिमिर-जाल
करते आये तेरा प्रसार ! तू जैनधर्म का शंखनाद !
अतुलित तीर्थंकर-पूज्यपाद ! तीर्थंकर पदकी निधि ललाम;
तू पक्षापक्ष-विरूप-तूप सिद्धान्तवाद का सद्-विराम,
नय-विनिमय का साग रूप प्राकृत संस्कृति का अमरधाम
जूझे तुझसे पण्डित-अनूप तूसंसृति का निरुपम प्रसाद !
गौतम-गणधर जैमिनि कणाद ! जय स्योद्वाद् जय स्याद्वाद
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अमरकीर्तिगणि और उनका षट्कर्मोपदेश (ले०-श्रीयुत प्रोफेसर हीरालाल एम.ए., एल.एल.बी.)
__ - -
१ पोथी-परिचय 'जेनमित्र' की पुरानी फाइलों के पन्ने पलटते समय एक जगह मुझे मोती कटरा आगरा, के दिगम्बर जैन मन्दिर के कुछ हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची देख पड़ी। इनमें अमरकीर्तिकृत षट्कर्मोपदेश का भी उल्लेख था। सूचीकार ने इसे केवल प्राकृत ग्रन्थ कहा है, पर जो थोड़ा सा अवतरण वहां उद्धृत किया गया था उससे मुझे निश्चय होगया कि वह प्रन्थ अपभ्रंश भाषा में है। यह भाषा बड़ी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वह प्राचीन संस्कृत, प्राकृत और आधुनिक हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि देशी भाषाओं के बीच की एक कड़ी है। इस भाषा के ग्रन्थ अभीतक बहुत कम मिलते थे। जो मिले है उनको संशोधनपूर्वक प्रकाशित कराने का मैं कई वर्षों से प्रयत्न कर रहा हूँ। अतएव उक्त प्रति को देखने की मुझे इच्छा हुई। निदान, महावीर प्रेस, आगरा, के मालिक श्रीयुक्त महेन्द्र जी की कृपा से वह प्रति मुझे अवलोकनार्थ प्राप्त हो गई।
यह प्रति ११४५" इंच लम्बे चौड़े देशी कागज के १०२ पत्रों पर है। पत्रों में दाये. बांये १॥ इंच, तथा ऊपर नीचे १ इंच हाँसिया छूटा हुआ है। प्रत्येक पृष्ठ पर ११ पंक्तियां, . व प्रतिपंक्ति में लगभग ३५ अक्षर हैं। पुरानो प्रतियों के प्रथानुसार पत्रों के बीच में स्थान छूटा हुआ है। ७० पत्र पुराने और शेष उससे पीछे के दूसरे हाथ से लिखे हुए प्रतीत होते हैं। पुराने पत्रों में भी नं. २ का पत्र गायब हो जाने से किसी तीसरे हाथ का लिखा हुआ पन उसके स्थान पर जोड़ दिया गया है। कई पत्र आधे, चौथाई, फट गये थे, उनको जोड़कर और त्रुटित अश पुनः लिख कर मरम्मत की गई है। इस तरह इस प्रति ने बहुत जमाना देखा है और कागज ने शत्र ओं से काफी युद्ध किया है। अन्त में जो लिपि का समय दिया गया है वह उस शेष अंश के लिखे जाने का है। लेख इस प्रकार है:___"संवत् १८८४ का भादवा माशे शुक्ल पक्ष तिथौ २ शुक्रवासरे लीपकृतं महातमा पनालाल वासी सवाई जयपुरक लीषी आगरा मध्ये ॥ शुभंगमस्तु छाछाछ॥"
मूल प्रति इससे कई सौ वर्ष की पुरानी ज्ञात होती है। अनुमान होता है कि आगरा की पुरानी प्रति खंडित होगई थी, उसकी पूर्ति सवाई जयपुर-निवासी महात्मा पन्नालाल-द्वारा कराई गई थी, सम्भवतः या तो मूल प्रति के जीर्ण अंश पर से ही या जयपुर की किसी
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किरण ३ ]
अमरकीर्तिगणि और उनका षट्कर्मोपदेश
प्रति पर से । उक्त 'महात्मा' का लिखा हुआ अंश शुद्ध तो नहीं है पर इतना अशुद्ध भी नहीं है जितना उक्त वाक्य की अशुद्धता पर से अनुमान किया जा सकता है।
I
२ कवि परिचय
·
कवि ने अपने ग्रन्थ के आदि और अन्त में अपना कुछ परिचय देने की कृपा की है जिससे उनके विषय में बहुत सी ज्ञातव्य बातें विदित हो जाती हैं । उनका नाम अमरकीर्ति था । उन्होंने अपनी 'मुनि', 'गणि' और 'सूरि' उपाधियां भी जाहिर की हैं जिनसे ज्ञात होता है कि वे गृहस्थाश्रम त्याग कर दीक्षित होगये थे और उन्होंने बहुत विद्वत्ता प्राप्त की थी। उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा भी दो है जिससे वे माथुर संघी और चन्द्रकीर्ति मुनीन्द्र के शिष्य सिद्ध होते हैं । उनकी पूरी गुरुपरम्परा इस प्रकार पाई जाती है*
अमिय
(अमितगति)
1
शान्तिसेन
T अमरसेन
श्रीषे
I
T
चन्द्रकीर्ति
अमरकीर्ति
प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इस परम्परा के आदि पुरुष 'अमियगर' कौन थे । हमारे कवि ने उनको 'महामुनि' 'मुनि-चूड़ामणि', 'शम - शील- धन', 'कीर्तिसमर्थ', 'बहुत से शास्त्रों के रचयिता' तथा 'अपने गुणों द्वारा नृपति के मन को आनन्दित करनेवाले' इन विशेषणों से विभूषित किया है। विचार करने से ये अमियगर महामुनि प्राचार्य अमितगति ही विदित होते हैं जिनके बनाये हुए तीन ग्रन्थ, धर्मपरीक्षा, सुभाषित - रत्नसंदोह और भावनाद्वात्रिंशिका जैन समाज में सुविख्यात हैं। उनके श्रावकाचार, पंचसंग्रह और योगसार- प्राभृत नामक ग्रन्थ भी प्रसिद्ध हो चुके हैं। उनके बनाये हुए जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सार्द्धद्वयद्वीप-प्रज्ञप्ति और व्याख्या- प्रज्ञप्ति इन चार गन्थों के नाम भी पाये जाते हैं। इस तरह वे बहुत से शास्त्रों के रचयिता सिद्ध हैं । अमितगति ने अपने सुभाषितरन-संदोह में अपने को 'शम- दम-यम- मूर्तिः' 'चन्द्रशुभ्रोरुकीर्तिः' तथा धर्म-परीक्षा में 'प्रथितविशद कीर्तिः' विशेषण लगाये हैं जिनसे अमरकीर्ति के 'शमशीलधन' और 'कीर्तिसमर्थ' विशेषणों की सार्थकता सिद्ध होती है । यद्यपि अमितगति के ग्रन्थों में उनके देखो परिशिष्ट १ (१, ५, ६ आदि )
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भास्कर
[भाग २
किसी राजो को प्रसन्न करने का उल्लेख नहीं पाया जाता, किन्तु वे गिस राजा के समय में हुए हैं वह उज्जैनी का राजा मंज बड़ा गुणग्राही और साहित्य-प्रेमी था। आश्चर्य नहीं वे ही अमितगति के काव्यों, विशेषतः उनके सुभाषितों की गंध पाकर प्रसन्न हुए हों। भमितगति सच्चे दिगम्बर मुनि थे। वे राज-महाराजाओं को कृपाकटाक्ष के भूखे नहीं थे
और न उनके रुष्ट-तुष्ट होने का उन्हें कोई हर्ष-विषाद था। इसीसे उन्होंने मुंज की उस प्रसन्नता का अपने काव्यों में उल्लेख करने की परवाह नहीं की। इन अमितगति ने भी अपने को माथुरसंघी कहा है। इससे अमरकीर्ति की गुरुपरम्परा वाले 'अमियगई और इनके अभिन्न होने में कोई शंका नहीं रहती। अमितगति आचार्य के ग्रन्थों में उनका समय वि० सं० १०५० से १०७३ तक पाया जाता है। उनसे पौने दो सौ वर्ष पश्चात् पांचवी पीढ़ी में अमरकीर्ति हुए। इस तरह इन दोनों के समय का भी सामञ्जस्य बैठ जाता है। पूर्वोक्त परम्परा के शान्तिसेनगणी के सम्बन्ध में कवि ने कहा है कि महीश भी उनके चरण-कमलों को नमन करते थे, श्रीषेण सूरि वादिरूपी बन के लिये अग्नि ही थे, और उसी तरह चन्द्रकीर्ति वादिरूपी हस्तियों के लिये सिंह थे। इससे जान पड़ता है कि इस परम्परा में बड़े विद्वान् मुनि होते रहे हैं। (माथुरसंघ काष्ठासंघ की एक शाखा थी। इसके सम्बन्ध में मैं एक स्वतन्त्र लेख लिख रहा हूँ।) ___ अमरकीर्ति जी को वर्तमान ग्रन्थ की रचना के लिये प्ररित करनेवाले सद्गृहस्थ का नाम अम्बाप्रसाद था। वे नागरकुल में उत्पन्न हुए थे और उनके माता-पिता के नाम क्रमशः चर्चिणी और गुणपाल थे। यह ग्रन्थ उन्हीं को समर्पित किया गया है। प्रत्येक संधि के समाप्ति-सूचक वाक्य में उनका नाम स्मरण किया गया है। इस काज्य को कवि ने उनकी अनुमति से बनाया ऐसा कहा गया है। कहीं कहीं इन्हीं अम्बाप्रसाद को कवि ने अपना: लघुबन्धु' और 'अनुज बन्धु' कहा है जिससे अनुमान होता है कि हमारे कवि भी इसी कुल में उत्पन्न हुए थे और अम्बाप्रसाद के बड़े भाई थे। अपनी गुरुपरम्परा में अमरकीर्ति ने अपने को चन्द्रकीर्ति मुनि के 'अनुज सहोदर' और शिष्य कहा है, इससे उनके ये गुरु भी सगे बड़े भाई सिद्ध होते हैं।
इस ग्रन्थ की रचना कवि ने 'गुजर' विषय के मध्य 'महीयड' देश के 'गोदहय' नामक नगर के श्रादीश्वर चैत्यालय में बैठकर की थी। स्पष्टतः गुर्जर विषय गुजरात प्रान्त का १ अमितगति आचार्य के विषय में विशेष जानने के लिये देखो पं० नाथूराम-कृत 'विद्वदूरत्नमाला
पृष्ट ११५ आदि। २ देखो परिशिष्ट २ (१४, १८, १६ णंदउ अंबपसाउ वियक्खणु । अमरसूरि-लहुबंधु सुलक्खणु) ३ देखो परिशिष्ट १ (१, ६, १० बंधवेण अणुजायई......अंबपसायई) ४ देखो परिशिष्ट १ (१, ४, ४ आदि)
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किरण ३ ]
अमरकीर्तिगणि और उनका षट्कर्मोपदेश
८३
araक है। विचार करने से महीयड देश वर्तमान 'महीकांठा' तथा गोदय नगर वर्तमान 'गोध्रा' नगर के बोधक प्रतीत होते हैं। महीकांठा एजेन्सी की वर्तमान सीमा संकुचित कर दी गई है जिससे गोध्रा नगर पंचमहल जिले में पड़ता है । कवि के समय में वह महीकांठा प्रदेश में ही सम्मिलित था । सम्भवतः अम्बाप्रसाद यहीं के निवासी थे । एक जगह कवि ने उन्हें कृष्णपुर- वंश-विजयध्वज" कहा है। यह कृष्णपुर ( कण्हपुर) वंश या तो नागर कुल का ही बोधक है या नागर कुल उसके अन्तर्गत था । सम्भव है यह वंश पहले किसी कृष्णपुर से यहां आकर बसा हो इसी से वह कृष्णपुरवंश कहलाया ।
३ रचना - काल
१२३४ से १२३६
कवि ने अपने ग्रन्थ की रचना का समय भी लिख दिया है। उन्होंने अपना यह काव्य विक्रम संवत् १२४७, भाद्रपद मास के दूसरे (शुक्ल ?) पक्ष की चतुर्दशी दिन गुरुवार को समाप्त किया था । कवि के समय में गोध्रा में चालुक्यवंशी नृप वंदिग्गदेव के पुत्र कण्ह (कृष्ण) नरेन्द्र का राज्य था । इतिहास से प्रसिद्ध है कि इस समय गुजरात में चालुक्य अर्थात् । सोलंकी वंश का राज्य था जिसकी राजधानी अनहिलवाड़ा थी । पर उस वंश में वंदिगादेव और उनके पुत्र कृष्ण का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता । पूर्वोक्त समय में अनलिवाड़ा के सिंहासन पर भीम द्वितीय प्रतिष्ठित थे जिन्होंने विक्रम संवत् १२३६ से १२६६ तक राज्य किया। उनसे पूर्व वहाँ कुमारपाल ने संवत् १२०० से १२३१ तक, अजयपाल ने १२३१ से १२३४ तक और मूलराज द्वितीय ने तक राज्य किया था। भीम द्वितीय के पश्चात् वहां सोलंकी वंश की एक शाखा बाघेल या बाघेर वंश की प्रतिष्ठा हुई जिसके प्रथम नरेश विशालदेव ने १३०० से १३१८ तक राज्य किया, पर हिलवाड़ा में इस वंश का बल संवत् १२२७ से ही बढ़ना प्रारम्भ हो गया था । इस वर्ष में कुमारपाल की माता की बहिन के पुत्र अराज ने अनहिलवाड़ा के निकट बाघेला ग्राम का अधिकार पाया था । जान पड़ता है कि चालुक्य वंश की एक शाखा या तो पहले से ही महीकांठा प्रदेश में प्रतिष्ठित थी और गोध्रा में अपनी राजधानी रखती थी या अणहिलवाड़ा में बाघेल वंश का बल बढ़ते ही वहां प्रतिष्ठित हो गई थी । कवि ने वहां के कृष्ण नरेन्द्र की कीर्ति का खूब वर्णन किया है । वे नीति के पूरे जानकार थे, भीतरी और बाहिरी शत्रुओं के विनाशक थे तथा षड्दर्शन का भक्ति से
१ देखो परिशिष्ट १ (१, ८, ७ सुणि कण्हपुर- वंस - विजयद्धय )
२ देखा परिशिष्ट २ (१४, १८, ८०१० )
३ देखा परिशिष्ट १ (१, २, १ आदि)
History of Gujrat in Bombay Gazeteer Vol. I.
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भास्कर
८४
[ भाग २
सन्मान करते थे, मानो क्षात्रधर्मं ने ही शरीर धारण कर लिया हो । धर्म, परोपकार दान में उनकी प्रवृत्ति थी। उनके राज्य में दुःख, दुर्भिक्ष व रोग कोई जानता ही न था, इत्यादि ।
४ कवि की रचनाएँ
कवि ने ग्रन्थ के इसी प्रस्तावना - भाग में अपने बनाये हुए अन्य ग्रन्थों का भी उल्लेख कर दिया है जिसमें निम्न ग्रन्थों के नाम पाये जाते हैं'
_
१ मिणाह- चरिउ (नेमिनाथ - चरित्र) २ महावीर चरिउ
३ जसहर - चरिउ ( यशोधरचरित)
४ धर्मचरित्र - टिप्पण
५ सुभाषित-रन-निधि
६ धर्मोपदेश- चूडामणि
७ ध्यान- प्रदीप ( झाणपईड)
छक्कम्मुवरस ( षट्कर्मोपदेश)
इनमें से जसहर चरिउ के सम्बन्ध में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि उसे उन्होंने पद्धडिया
होना सिद्ध है । सुभाषित-रत्ननिधि सुन्दर श्लोकों का शिक्षा दी गई है।
बंध में रचा था जिससे उसकी रचना का अपभ्रंश में के सम्बन्ध में कहा है कि उसमें उन्होंने संस्कृत के ध्यानप्रदीप के विषय में कहा है कि उसमें ध्यान की को उन्होंने ऐसा रचा था कि जड़ भी उसे अच्छी तरह समझ जाय । नहीं कहा ज सकता यह सुन्दर टिप्पण उन्होंने कौन से धर्मचरित्र पर बनाया । कहीं धर्मचरित्र से उनका तात्पर्य उनकी परम्परा के पूर्व आचार्य अमितर्गात द्वारा रचित धर्मपरीक्षा से तो नहीं है ? जसहर-वरिउ और सुभाषितरत्न-निधि को छोड़ कर शेष ग्रन्थों की भाषा क्या थी यह कवि ने प्रकट नहीं किया । उनका टिप्पणग्रन्थ तो संस्कृत में ही रहा होगा, किन्तु बहुत सम्भव है कि शेष सब ग्रन्थ, और विशेषतः रोमियाह - चरिउ और महावीर - चरिउ, अपभ्रंश में ही रचे गये हों । कवि ने कहा है कि इन ग्रन्थों के अतिरिक्त उन्होंने और भी बहुत से काव्य संस्कृत और प्राकृत में रचे थे जिनसे लोगों को आनन्द मिलें । अत्यन्त खेद की बात है कि इनमें से प्रस्तुत ग्रन्थ को छोड़ कर अन्य किसी भी ग्रन्थ का हमें अभीतक कुछ भी पता नहीं है । ऊपर कहा ही जा चुका है कि अमरकीर्तिजी की गण और सूरि उपाधियों से उनकी विद्वत्ता प्रकट होती है । प्रस्तुत काव्य की संधियों की पुष्पिकाओं में उन्होंने इस रचना को महाकाव्य और अपने को महाकवि कहा है । १ देखो परिशिष्ट १ (१, ७, १ आदि)
1
संग्रह किया था । धर्मचरित्र - टिप्पण
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किरण ३ ]
अमरकीर्तिगणि और उनका षट्कर्मोपदेश
उन्होंने यह भी कहा है कि उनमें प्रमाद बिलकुल नहीं था और वे दिन-रात सुन्दर काव्यों के अवलोकन में लवलीन रहा करते थे। प्रस्तुत प्रन्थ १४ संधियों में समाप्त हुआ है, उसमें कुल २१५ कडवक हैं और सम्पूर्ण ग्रन्थ २५०० श्लोक-प्रमाण है। इस भारी ग्रन्थ को कवि ने केवल एक माह के समय में ही रच डाला था। इसमें सन्देह नहीं कि कवि प्रतिभाशाली, विद्वान् और व्यासनी थे। अम्बाप्रसाद जी ने कहा था "आपने अपने सुकवित्व-द्वारा अपने गुरुकुल और तातकुल दोनों को पवित्र, शाश्वत और महान् बना दिया है। क्या हम आशा करें कि इस प्रशंसा के आधारभूत कवि के उन सब या उनमें से बहुत से ग्रन्थों के हमें कभी दर्शन प्राप्त हो सकेंगे?
षट्कर्मोपदेश के जिन अंशों के आधार पर पूर्वोक्त वृत्तान्त लिखा गया है उन्हें परिशिष्ट में देखिये। इस ग्रन्थ के विषय और काव्य का परिचय अगले लेख में कराया जायगा।
परिशिष्ट
-88
षट्कर्मोपदेश की पूर्वपीठिका
प्रारम्भ
परमप्पय-भायणु सुह-(गइ)-पावणु णिहणिय-जम्म-जरा-मरणु । सासय-सिरि-सुंदरु पणय-पुरंदरु रिसहु णविवि तिहुवण सरणु ॥
(संधि १, कडवक ४-८) अह गुजर-विसयहु मज्झि देलु णामेण महीयडु बहु-पपसु ।
णयरायर-वर-गामहिं णिरुद्ध, णाणा-पयार-संपइ-समिद्ध । परमात्म-पद के भाजन, शुभगति को प्राप्त करानेवाले, जन्म, जरा और मरण के विनाशक, शाश्वतलक्ष्मी से शोभायमान, इन्द्रों द्वारा पूज्य और त्रिभुवन के शरण ऋषभदेव भगवान् को नमस्कार करके (मैं कान्य रचना करता हूं)।
अथ गुर्जर (गुजरात) विषय के मध्य में महीकट (महीकांठा) नामका देश है जिसके अन्तर्गत बहुत से प्रदेश हैं। वह बड़े बड़े नगरों और उत्तम ग्रामों से भरा हुआ तथा नाना प्रकार की सम्पत्ति से
१ देखो परिशिष्ट २ (१४, १८, १० इक्के मासे इहु सम्मत्तिउ) २ देखो परिशिष्ट १ (१, ७, ६ पई गुरुकुलु ताबहो कुलु पवित्तु । सुकइतें सासउ किउ महंत)।
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भास्कर
[ भाग ३
तहिं णयरु अस्थि गादहय-णामु णं सग्गु विचित्तु सुरेस-धामु। पासायहं पंतिउ जहिं सहति सरयम्भहु सोहा णं वहति ।
धय-किंकिणि कलरावहिं सरिद्धि णं कहइ सुरहं पाविय पसिद्धि । घत्ता-देसागय-लायहिं जाय-पोयहिं जं णिएवि मणि मरिणयउ ।
एवहिं संकासउ लच्छि-पयासउ णयरु ण अण्णु पवरिणयउ ॥४॥ तं चालुक्क-बसि णय-जाणउ पालइ कण्ह-रिंदु पहाणउ । जो बझंतरारि-विद्धंसणु भत्तिए सम्माणिय छदसणु । णिव-वंदिग्गदेव-तणु-जायउ खत्तधम्मु णं दरिसिय-कायउ । . . सयल काल भाविय णिव-विजउ पुहविहिं...वि णत्थि तहो विजउ। धम्म-परोवयार-सुह-दाणइं णिच्च-महूसव बुद्धि समाणइं। ५ जासु रजि जणु एयह माणइ दुक्खु दुहिक्खु रोउ ण वियाणई । रिसह-जिणेस हो तहिं चेईहरु तंगु सुहा-सोहिउ णं ससहरु ।
दसणेण जसु दुरिउ विलिजइ पुण्ण-हेउ जं जणि मण्णिजइ । घत्ता-अमियगइ महामुणि, मुणिचूड़ामणि, आसि तित्थु समसीलधणु।
विरइय-बहु-सत्थउ, कित्ति-समत्थउ, सगुणाणंदिय-णिवइ-मणु ॥५॥ १०
समृद्धिशाली है। वहाँ गोदहय (गोध्रा) नाम का एक नगर है मानो वह सुरेश का निवास स्थान विचित्र स्वर्ग ही हो। जहां प्रासादों की पंक्तियाँ विराज रही हैं मानो शरत्काल के मेघों की ही शोभा को धारण किये हों। ध्वजा-किकिणिओं के कलरव द्वारा मानो वह कह रही थी कि उसने देवों की समृद्धिशाली प्रसिद्धि प्राप्त करली। उसे देखकर नाना देशों से आये हुए लोग प्रमुदित होकर अपने मन में विचारने लगते थे कि इसके समान लक्ष्मीवान नगर तो अन्य कोई नहीं वर्णन किया गया ।
उस नगर का पालन नीतिकुशल, चालुक्यवंश में प्रधान कृष्णनरेन्द्र करते थे। वे बाह्य और अभ्यन्तर शत्रुओं का विध्वंस करनेवाले थे तथा षड्दर्शन का भक्ति सहित सन्मान करते थे। वे नृप वंदिगदेव के तनुज (पुत्र) थे, मानो क्षत्रिय धर्म ने ही शरीर धारण कर लिया हो। वे सदा काल राजविद्याओं का अभ्यास किया करते थे। पृथ्वीभर में उनकी तुलना करनेवाला कोई नहीं था (?) । धर्म, परोपकार, सुख, दान और नित्य-महोत्सव इन्हें ही लोग उनके राज्य में अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार मानते थे, पर दुःख, दुर्भिक्ष या रोग का उन्हें कोई अनुभव नहीं था। उसी नगर में ऋषभदेव तीर्थकर का चैत्यालय था जो ऊँचा और सुधा (चूनेकी पुताई) से शोभायमान था मानो चन्द्र ही हो। उसके दर्शन से पाप विलीन हो जाते थे। वह लोगों में पुण्य का हेतु माना जाता था। वहाँ मुनिचूड़ामणि, शम और शील को ही अपना धन समझनेवाले, अनेक शास्त्रों के रचयिता, कीर्ति में समर्थ तथा अपने गुणों द्वारा नृपति के मन को आनन्दित करनेवाले महामुनि अमितगति हुए।
उनके शिष्य शान्तिषेण गणि हुए जिन्होंने अपने चरणकमलों पर महीश को भी नमा दिया था ।
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किरण ३]
अमरकीर्तिगणि और उनका षट्कर्मोपदेश
८५
गणि संतिसेणु तहो जाउ सील णिय चरण-कमल-प्पामिय-महीसु । माहुर-संघाहिउ अमरसेणु तहो हुउ विणेउ पुणु हय-दुरेणु । सिरिसेणुसूरि पंडिय-पहाणु तहो सीसु वाइ-काणणा-किसाणु। पुणु दिक्खिउ तहो तसिरि-णिवासु अत्थियण-संघ-बुह-पूरियासु। परवाइ-कुंभि दारण-मइंदु सिरि चंदकित्ति जायउ मुणिंदु । तहो अणुउ सहोयरु सीसु जाउ गण अमरकित्ति णिहणिय-पमाउ। अहणिसु सुकइत्त-विलाय-लीणु जामच्छइ बहुविह सुय-पवीणु । तामण्णहिं दिणि विहियायरेण णायर-कुल-गयण-दिणेसरेण । चञ्चिणि-गुणशलहं गंदणेण अवविण्ण-दाण-पेरिय-मणेण । घाता-भन्वयण पहाणे, बुहगुण जाणे, बंधवेण अणुजायई ।
से सूरि पवित्तउ, लहु विण्णत्तउ, भत्तिएं अंबपसायई ॥६॥ १० परमेसर पइं णवरस-भरिउ विरइयउ णेमिणाहहो चरिउ। अण्णु वि चरित्तु सव्वत्थ सहिउ पयडत्थु महावीरहो विहिउ । तीयउ चरित्तु जसहर-णिवालु पद्धडिया-बंधे किउ पयासु। टिप्पणउ धम्मचरियहो पयडु तिह विरइउ जिह बुज्झेह जडु ।
सक्य-सिलोय-विहि-णियदिही गुंफियउ सुहासिय-रयण-णिही। ५ उनके शिष्य फिर पापों का नाश करनेवाले, माथुरसंघ के अधिप अमरसेन हुए। उनके शिष्य श्रीषेण सूरि हुए जो पण्डितों में प्रधान और वादिरूपी वन के लिये कृशानु (अग्नि) थे (अर्थात् उन्होंने सब वादियों को शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया था। फिर उनके दीक्षित शिष्य श्री चन्द्रकीर्ति मुनीन्द्र हुए जो तपरूपी लक्ष्मी के निवास, अर्थिजनसमूह की आशा को पूरी करनेवाले तथा दूसरे वादिरूपी हाथियों के लिये मृगेन्द्र थे। उन्हीं छोटे सहोदर गणि अमरकीर्ति उनके शिष्य हुए। इन्होंने प्रमाद का सर्वनाश कर डाला था, वे अहर्निश सत्कायों के अवलोकन में लीन रहते थे और नाना प्रकार के शास्त्रों में प्रवीण थे।
एक दिन नागरकुल-रूपी आकाश के सूर्य, चर्चिणी और गुणपाल के नन्दन, भन्यजनों में प्रधान, विद्वानों के गुणों को पहचाननेवाले तथा अमरकीर्ति के) अनुज बन्धु अम्बाप्रसाद ने अपने दिये हुए दान की मन में प्रेरणा से, भक्तिसहित और आदर करके सूरि जी से सहज ही प्रार्थना की"हे परमेश्वर ! आपने नवरसों से भरा हुआ नेमिनाथ-चरित्र रचा। दूसरा सब अर्थ-सहित महावीर का चरित्र बनाया जिसकी कथा प्रसिद्ध ही है। तीसरा चरित्र यशोधर नृप का पद्धडियाबंध में प्रकाशित किया । धर्मचरित्र का टिप्पण आपने ऐसा स्पष्ट रचा कि जड़बुद्धि भी उससे बोध लाभ करने । आपने संस्कृत श्लोकों की विधि द्वारा आनन्द उत्पन्न करनेवाले सुभाषितरत्न निधि का संग्रह किया। धर्मोपदेश-चूड़ामणि नामक, तथा ध्यान की शिक्षा देनेवाले ध्यानप्रदीप और
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τι
L
[ भाग २
धम्मोपस-चूड़ामणिक्खु तह फाण-पईड जि माणसिक्खु । छकम्मुष सहु पबंध किय ग्रह संख सई सञ्चसंध । सक्कय- पाइय कव्वय घणाई अवराई किय रंजिय-जणा हूँ । पई गुरुकुल तायहो कुलु पवित्तु सुकइन्हें सासउ कि महंतु । कयण - वयणाम जेपियंति अजरामर होइन ते गियंति । जिह राम-पमुह सुर्याकितिवंत कइमुह-सुहाइ पेच्छाहं जियंत । कर तुट्ठउ अप्पाप समणु अक्खयतणु करह पसिद्धिगण । घत्ता- -मंतासहि-देवहं, किय-चिरसेवहं, धुउ पहाउ णहु सीसौं । परकाय-पवेसर, किय-सासयतणु तिह जिह कहहिं पदीसह ॥७॥ माहासहि पणिय सम्मइ अइकारुण्णें गिहि छकम्मरं । जाई करत भविय संचइ दि िदिणि सुहु दुक्कयहिं विमुञ्चर । तेहिं विवज्जिउ गरभउ भव्वहं छग्गा-गल धरण - समु गय-गव्वहं । म मूढ़े किं पिण चिंतिउ पुण्णकम्मु इय कम्मु पवित्तर | भव काणि भुलो महु अक्खहि सम्म मग्गु सामिय मा वेक्खहि । मरसूरि तव्वयणाणतरु पयss गिeिsकम्महं वित्थरु ।
५
भास्कर
१०
उन्हीं के साथ साथ षट्कर्मोपदेश* इस प्रकार आठ प्रबन्ध, हे सत्यसंध, आपने रच डाले । संस्कृतप्राकृत के और भी बहुत से काव्य आपने बनाये जिनसे लोगों का मनोरञ्जन होता है । आपने अपने सुकवित्व द्वारा गुरुकुल और तातकुल दोनों कुलों को पवित्र, शाश्वत और महान बना दिया है । कविजनों के वचनरूपी अमृत को जो पी लेते हैं वे अजर अमर हो कर (सब कुछ) देखते हैं । जैसे राम आदि प्रसिद्धकीर्तिं महापुरुष कवि के मुख की महिमा से जीते हुए दिखते हैं । यदि कवि प्रसन्न हो जाय तो अपने को और दूसरे को समानरूप से अक्षयतन और सुप्रसिद्ध कर सकता है। यंत्र, औषधि व देवों की चिरकाल तक सेवा करने पर भी शिष्य को परकाय- प्रवेश करने व अमरशरीर होने का वह प्रभाव नहीं मिला जो एक कवि की सेवा करने में प्रत्यक्ष दिखाई देता है ॥७॥
अब दया करके आप मुझे गृहस्थ के छह कर्मों का उपदेश दीजिये जिनके पालने से भव्य प्राणी प्रतिदिन पुण्य का संचय करता और पापों से छूटता है । इनके बिना निरहंकार भव्य प्राणियों का नरजन्म अजागलस्तन के समान निष्फल है। मैं बुद्धिहीन ने अभीतक पुण्य और पवित्र कर्म कुछ भी नहीं सोचा । अतएव इस भव-कानन में भूले हुए को सन्मार्ग का उपदेश दीजिये। हे स्वामी ! अब विलम्ब न कीजिये ।"
उनके ऐसे वचन सुनकर अमरसूरि ने तत्काल ही षट्कर्मों का विस्तारपूर्वक विवेचन करना
*यहां प्रस्तुत ग्रन्थ का उल्लेख करना उचित नहीं था क्योंकि इसके ने धागे चलकर की है। किन्तु कवि इस सयय तक अपने बनाये हुए आवेग में इस प्रसंग को भूल कर कदाचित् यहाँ यह लिख गये ।
रचने की प्रार्थना तो भम्बाप्रसाद कुल ग्रन्थों का उल्लेख करने के
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किरण ३ ]
अमरकीर्तिगणि और उनका षट्कर्मोपदेश
है
सुणि कण्हपुर वंस-विजयद्धय णियरूवोहामिय-मयरद्धय । पूयय देवहं सुह-गुरु-वासणा समय सुद्ध-सज्झाय-पयासणा ।
संजम-तव-दाणहं संजुत्तई जिणदंसणि छक्कम्मइ वुत्तई। घत्ता-रयणतय-जुत्तउ, सल्लहिं चत्तउ, गुण-सील-तउ-हणियमलु। १०
जो दिणि दिणि एयई, करइ विहेयई, मणुयजम्मु तहो पर सहलु ॥८॥
षट्कर्मोपदेश की अन्तिम प्रशस्ति
(संधि १४ कडवक १८) विहियाई सुबुद्धीए एयाई मए गिहत्थ-कम्माई।
अमुणतेण सुइत्थं जिणणाह पयासियं सम्मं ॥६॥ ताई मुणिवि सोहेवि णिरंतर हीणाहिउ विरुद्ध णिहियक्खरु । फेडेवउ ममत्तु भावंतिहिं अम्हहं उप्परि बुद्धि-महंतिहिं । छक्कम्मोवएसु इहु भवियहो वक्खाणिवउ भत्तिई णवियहो। अंबपसायई चचिणपुत्ते गिह-छकम्म-पवित्त-पवित्ते गुणवालहु सुरण विरयाविउ अवरेहि मि णियमणि संभाविउ । बारह सयह ससत्त-चयालिहिं विक्कम-संवच्छरहु विसालहिं । गयहिं मि भदवयहु फ्क्वंतरि गुरुवारम्मि चउद्दिसि वासरि ।
इक्के मासे इहु सम्मत्तिउ सई लिहियउ आलसु अवहत्थिउ । प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने कहा "अपने रूप से मकरध्वज को भी लजानेवाले, हे कृष्णपुरवंश के विजयध्वज ! सुनो। देवों की पूजा, सद्गुरु की उपासना, शुद्ध आम्नाय के शास्त्रों का स्वाध्याय, संयम, तप और दान, ये ही मिलकर जैनदर्शन में षट् कर्म कहे गये हैं। रत्नत्रय से युक्त होकर, शन्यों का स्वाग करके, गुण, शील तथा तप द्वारा पापों का नाश करता हुआ जो कोई प्रतिदिन इन सत्कर्मों को करेगा उसका मनुष्य जन्म पूर्णरूप से सफल है।
यद्यपि जिनेश्वर भगवान् द्वारा प्रकाशित श्रुति के अर्थ का मुझे अच्छी तरह ज्ञान नहीं है तथापि इन गृहस्थ-कर्मों का मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार व्याख्यान किया है। इसमें जो कुछ हीन, अधिक या विरुद्ध शब्द आगये हों उन्हें बुद्धिमान मेरे ऊपर ममत्व भाव रखकर विचारपूर्वक शोध लेवें और इस षट्कर्मोपदेश का ब्याख्यान नये भव्य पुरुष को सुनावें। इसकी रचना षटकर्म-द्वारा पवित हुए, चर्चिणी के पुत्र, गुणपाल के सुत अम्बाप्रसाद ने कराई है और दूसरे सजनों ने भी अपने हृदय में इसका सम्मान किया है।
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भास्कर
[ भाग २
दउ परसासण-णिण्णासणु सयलकाल जिणणाहहु सासणु । णंदड तह वि देवि वारसरि जिणमुह-कमलुभव परमेसरि। णंदउ धम्मु जिणिंद भासिउ णंदउ संघु सुसीले भूसिउ। णंदउ महिवइ धम्मासत्तउ पय परिपालण-णाय महंतउ । णंदउ भवियणु णिम्मल-दसणु छक्कम्महिं पावियजिणसंसणु। णंदउ अबपसाउ वियक्खणु अमरसूरि लहु-बंधु सुलक्खणु । णंदउ अवरु वि जिण-पय-भत्तउ विबुह-वग्गु भाविय रयणत्तउ । घत्ता-णंदउ णिरु तावहिं सत्थु इहु अमरकित्ति-मुणि-विहिउ पयत्त। .
जाहि महि मारुव-मेरु-गिरि-णहयलु अवपसायणिमित्ते॥१८॥ इय छक्कम्मोवएसे महाकइसिरि-अमरकित्ति-विरइए महाकव्वे महाभब्व-अंबपसायाणुमण्णिए तव-दाण-वण्णणाणाम चउद्दसमो संधी परिच्छेओ समस्तो॥छ॥संधि॥ छ॥१४॥
विशाल विक्रमसंवत्सर के १२४७ वर्ष बीतने पर भाद्रपद मास के द्वितीय पक्ष की चतुर्दशी तिथि गुरुवार को एक मास में यह ग्रंथ समाप्त हुआ। मैंने आलस छोड़ कर स्वयं इसे लिखा है।
विरोधी शासन का नाश करनेवाला जिनशासन सदा काल आनन्द करे। उसी प्रकार तीर्थकर के मुखकमल से उत्पन्न परमेश्वरी वागीश्वरी देवी आनन्द करे। जिनेन्द्र-द्वारा भाषित धर्म आनन्द करे। सच्छोल से भूषित संघ आनन्द करे। धर्म में आसक्त, प्रजा के परिपालन और न्याय में बढ़ा-चढ़ा महीपति आनन्द करे। निर्मल दर्शन का स्मारक तथा षटकर्मों द्वारा जिनशासन का पालक भव्य आनन्द करे। अमरसूरि के लघुबन्धु, शुभलक्षणों से संयुक्त और बुद्धिमान अम्बाप्रसाद आनन्द करें। और भी जिनपद-भक्त तथा रत्नत्रय का धारक बुद्धिमान-वर्ग आनन्द करे। यह अम्बाप्रसाद के निमित्त अमरकीर्ति मुनि-द्वारा प्रयत्नपूर्वक बनाया हुआ शास्त्र इस लोक में तबतक आनन्द करे जबतक यह पृथ्वी है, पवन है, मेरुगिरि है और आकाश है।
इति महाभन्य-अम्बाप्रसादानुमत, महाकवि अमरकीर्ति-विरचित षट्कर्मोपदेश महाकाव्य का तप-दान-वर्णन नामक चतुर्दशं संधि परिच्छेद समाप्त ॥ संधि १४ ॥
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किरण ३ ]
अमरकीर्तिगणि और उनका षट्कर्मोपदेश
षट्कर्मोपदेश के वे संधिपद जिनमें कवि व उनके प्रेरक के नाम आये हैं।
संधि पत्ता १, १३, सो लोइ थुणिजह साहु भणिजइ अमरकित्ति-पयणिहिय मणु।
वजिय-कुवियापउ हय कंदप्पउ अंबपसाय-सु(कुसीलहणु । २, ११, परकालि वि सो चिरु दुश्चरिउ भवकाडीहिं समजिउ ।
लहु अंबपसाएं लहइ सुहु अकरकित्तिगणि पुजिउ ॥ ३, १, जिणंग-विलेपण पुण्ण समिद्ध । कहा सु.ण अंबपसाय पसिद्ध । ३, २३, जो गंधहिं अणिसु सुयंधहिं अमरकित्ति समलहइ जिणु ।
सासय सुहु सो पावइ लहु अंबपसाय विसुद्धमणु ॥ ४, २६, तझ्या भवि होएवि णरवरा। पालिविरज्जु रिवि संजमधरा।
. अमरकित्ति-अक्खय सुह भायण । अंबपसाय हवेसहिं पावण ॥ ५, १४, ते पाविवि सासयणयरि पउ अमरकित्ति होइवि अच्छेसहि ।
सिद्ध-सहावियणाणतणु अंबपसाय सयलु पिच्छेसहि ॥ ६, १, जिण णेवज-कहा आयण्णहि । अंबपसाय भविय मणि मण्णहि । ६, १४, सत्त भव वि होएविणु णिवइ अमरकित्ति सो सुरवरु ।
मणि भावहि अंबपसाय तुडं पावेसइ थिर पुरवरु ॥ ७, १, णिसुणि महासह चञ्चिणि-णदण । विरइय अमरसूरि गुरु-वंदण । ७, . ८, सारजम्मु लहेविणु कयतवहिं अमरकित्तिगणि-संसिया।
. ते होसहिं अंबपसाय पुण, सिद्ध तिलोय-णमंसिया॥ ८, १८, अवरु वि जो भत्तउ, थिरसम्मत्तउ, अमरकित्ति-जिणु पुज्जइ ।
धूवे सो सिवसुहु णिहणिय-भवदुहु, अंबपसाय समजइ ॥ ९, १, ताहं कहा वजरमि पयत्ते । अंबपसाय णिसुणि सहियत्ते। ९, ११, अविहु वि पूयाहि फलु अमरकित्ति सुहलच्छि पयासणु ।
अंबपसाय सुणताहं जं कुणेइ जीवहं भव-णासणु ॥ १०, १, णिसुणि कहा तहो पवरविहाणहो । अबपसाय सुपुण्णणिहाणहो । १०, १२, जिण-पूय-पुरंदर-विहि करइ इक्कवार जो इत्थु णरु ।
सो अंबपसाय हवेइ लहु अमरकित्ति-तियसेसर॥
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६२
भास्कर
[ भाग २
११, १, अणिसु करिजइ सुगुरुवासणा । अंबपसाय दुरियणिण्णासणा। ११, ११, सज्झायहु सण्णिहु णत्थि परु अमरकित्ति सुइठाणु वरिट्टउ ।
अंबपसाय करंतु णिरु जं णरु पावइ णाणु मणिहिउ ॥ १५, ५, पंचिंदियसंजमु भणिउ संखेवें अवरु वि आयणहि ।
गुणवाल-सुय णएणय गुरु (१) पालिय संजमु बहुगुण मण्णहि ॥ १२, १८, सम्मत्तसुद्धि इय मई कहिय. अमरकित्ति-जिणदेसिय ।
भाविजसु अंबपसाय तुडं णियमणम्मि सविसेसिय ॥ १३, १७, षयवंतु मरइ सल्लेहणई अमरकित्ति सुहु पावइ ।
सुणि अंबपसाय विसुद्धमणु भवसम्मुहउ ण आवद ॥
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कविवर श्रीजिनसेनाचार्य और पार्वाभ्युदय
(ले-त्रिपाठी भैरव दयालु शास्त्री, बी० ए०, साहित्योपाध्याय)
- (गतांक से आगे) इस चरण से यह व्यक्त होता है कि कालिदास का यक्ष मदनाग्नि से इस प्रकार व्यथित है कि उसे चेतन अचेतन का ज्ञान तनिक भी नहीं रह गया है। परन्तु, यहां
___ “योगिस्तस्मिन् जलदसमये प्रस्खले त्मधैर्य्यात् ।
कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु ॥” जिनसेन जी की निराली चतुरता चमक रही है। जो 'कामाती' विशेषण मेघदूत में यक्ष की प्रकृष्ट कामिता का प्रद्योतक है, वही विशेषण यहाँ योगी पार्श्वनाथ जी को दिया गया है। किन्तु योगी काम से पीड़ित नहीं, बल्कि अपने काक्षित लक्ष्य की ओर व्यग्र भाव से दौड़नेवाला बताया गया है। इस प्रकार अपने तीर्थङ्कर के 'कामार्ता' इस विशेषण से उत्कृष्ट गुण को दिखा कर जिनसेन जी ने अपनी धर्मप्रियता का उज्ज्वल परिचय दिया है। गौर से देखिये, क्रोधाभिभूत, खून को प्यासा शत्रु यक्ष योगी की तपस्या से किस प्रकार प्रभावित होता है और अपने शिकार को "योगिन्" ऐसे शब्द से सम्बोधित करता है।
थोड़ा आगे बढ़कर देखने से जिनसेन जी की निपुणता का और भी पता चलता है। वहाँ तो कालिदास का यक्ष मेघ का अपना छोटा भाई कल्पित कर भ्रातृजाया यानी अपनी • पत्नी को देखने का अधिकारी बनाता है। परन्तु यहाँ जिनसेन जी के यक्ष की कल्पना नहीं
करनी है। योगी तो उसका छोटा भाई है ही। इसलिये भ्रातृजोया के दर्शन का अधिकार उसे स्वतः प्राप्त है। कालिदास ने मेघ के सम्बन्ध में जो जो बातें कही हैं, उन का समावेश करने के लिये जिनसेन जी ने मेघ की कल्पना कर ली है। मेघ को ऊपर जाने की शक्ति रहती है, इसलिये अलकापुरी का जाना उसके लिये सुगम था। जिनसेन का दूत भातिक शरीर छोड़ कर ऊर्ध्वगति प्राप्त करता है, और इस प्रकार अलकापुरी जाने में समर्थ बताया गया हैं। यों अनेकों कल्पनायें कर जिनसेनाचार्य ने अपना रास्ता सुगम बनाया है। __"उपमा कालिदासस्य" यह उक्ति जगत्-प्रसिद्ध है। अब देखना चाहिये कि हमारे कवि ने उन उपमाओं को लेकर कैसी रचना की है।
___ "येन श्यामं वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते ते।
बर्हेणेव स्फुरितरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः ॥" कालिदास की उपमा तो उपमा ही है, पर हमारा कवि भी पीछे नहीं पड़ा है। वहाँ तो
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भास्कर
[माग २
बहुरंगी धनुष और बिजली की चमक से मेघ मयूरपिच्छधारी पीताम्बर कृष्ण की शोभा पाता है, और पार्थ्याभ्युदयामें
"खड्नस्यैकं कथमपि दृढं मे सहस्त्र प्रहारम् वक्षोभागे कुलिशकठिने प्रोच्छलद्रक्तधारम् विद्यु इण्डस्फुरितरुचिना वारिदस्येव भूयः । येन श्याम वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते ते॥" "शङ्कोरेवं प्रहृतमथवा धत्स्व शूराप्रणी मे। ' पिच्छोपाग्रप्रततिरुचिरं येन शोभाधिका ते क्रीडाहेतोविरचिततनोरिन्द्रनीलत्विषः स्या
बर्हेणेव स्फुरितरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः ॥" खड्ड बिजली का काम करता है और बाण का पिच्छ सप्तरंगों को धारण करता है। योगी के शरीर को यक्ष ने काला बताया हो है। इस प्रकार कवि जिनसेन जी की उपमा स्वभाविकता में शोभ रही है और कालिदास की उपमा तक पहुँचने का प्रयास कर रही है। इतनी सामग्रियों को एकत्रित कर कवि समस्यापूर्ति के दुर्वह भार का वहन करता है, अतः वह अवश्य ही प्रशंसा का पात्र है।
जब कालिदास के शृङ्गार रस की अविरल धारायं चारों ओर से सिर पर गिरती दीखने लगती हैं, तो अपने योगी का योगभ्रश के भय से बचाने के लिये जिनसेन जी झटिति उन्हें योगबल से मेघ का रूप धारण करने का आदेश देकर उन्हें कामुकता के गोरख-धन्धे से बचा लेते हैं। कैसो चतुराई है। ऐसा हो जाने पर सारी की सारी समस्यायें सीधी हो जाती हैं, रास्ता सरल हो जाता है और
"ज्ञातास्वादा विवृतजधनां को विहातुं समर्थः ।" के दोष से योगी बरी हो जाता है। कवि की कल्पना ने अद्भुत छटा दिखायी है।
"मलिनमपि हिमांशोलक्ष्म लक्ष्मीन्तनोति।" कलाधर की कलङ्ककालिमा उनकी कांति को और भी कमनीय बनाती है। कविगण अपने काव्यों का उत्कृष्ट बनाने के लिये भगीरथ प्रयास करते हैं। रचना रसमय हो, गुणों का आगार हो, रीति रमणीय हो, भाव अनूठे हों, शैली सुन्दर हो, शब्द गम्भीर हों, भाषा मनोहर हो, यही उनके लक्ष्य रहते हैं। इसी अभीष्ट की सिद्धि के लिये उन्हें जी-तोड परिश्रम करना पड़ता है। परिस्थिति में जिस प्रकार अवसर पा मनुष्य को असावधान देख रोग के अप्रिय अवाञ्छित कोड़े शरीर में घुस जाते हैं, उसी प्रकार कवियों की रवनामों में श्रुतिदुष्टादि दोष चुपके से प्रविष्ट हो जाते हैं। इसीलिये साहित्य-दर्पणकार को कहना पड़ा कि सर्वथा निर्दोष काव्य सदा असम्भव है। परन्तु ये दोष चन्द्रकिरण की माई काव्य के गुणों के प्रद्योतक ही होते है। अस्तु,
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किरण ३ ]
कविवर श्रीजिनसेनाचार्य और पार्श्वभ्युदय
प्रिय पाठक ! आप जान ही चुके हैं कि हमारे कवि को दूसरे की बन्दरी को नचाना पड़ा है। उस पर आफत यह कि जो नाच बन्दरी का अभ्यस्त है, वह नाच नहीं, बल्कि, विलकुल विपरीत और निरा नवीन। ऐसी कठिनाई का सामना कवि को करना पड़ा है। अब यदि कुछ अपकर्ष बलात्कार पा घुसे हो तो काई आश्चर्य नहीं।
....................."शुष्कवैराग्यहेतोः ।
___ स्तस्मिन्नद्रौ कतिचिदवलाविप्रयुक्तः स कामी॥" इत्यादि के द्वारा कामी कमठ में वैराग्य का प्रदर्शन प्रथम दृष्टि में विरूद्ध ही जान पड़ता परन्तु वैराग्य का यह एक 'शुष्क' विशेषण विरोध का मार्जन कर कमठ के वैराग्य को निष्फल बता काव्य को परिपुष्ट कर देता है।
"मेधैस्तावत्स्तनितमुखरैः विद्यु दुद्योतहासैः चित्तक्षोभान् द्विरदसदशैरस्य कुर्वे निकुर्वन्
मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यावृत्ति चेतः इस पद्य में मेघ-गर्जन से योगी के हृदय में चित्त-क्षोभ पैदा करने का प्रयास कमठ कर रहा है। क्योंकि वह समझता है कि योगी वियुक्त है, और वियुक्त के हृदय में मेघ-दर्शन से विकार का होना स्वाभाविक है। यदि ऐसी बात सम्भव होती तो योगी की तपस्या ही कलुषित हो जाती और काव्य में महान दोष लग जाता। परन्तु यह कल्पना क्रोधान्ध कमठ की है, अतः दोष के बदले यह उत्कर्ण ही जनाती है।
"किन्ते वैरिद्विरदनघटाकुम्भसम्भेदनेषु प्राप्तस्येमा समरविजयो वीरलक्ष्म्या: करोऽयम् । नास्मत्खङ्गः द्यु तिपथमगाद्रक्तपातोत्सवानाम्
सम्भोगान्ते मम समुचितो हस्तसम्बाहनानाम् ॥ कालिदास के “सम्भोगान्ते” इत्यादि इस चरण से शृङ्गार रस अविराम प्रवाहित होता है। ऐसे भाव को भी कवि ने समस्यापूर्ति के सांचे में ढाल कर शृङ्गार रस से हटा पूर्णतया वीर रस में पहुंचा दिया है। यद्यपि इसके लिये उन्हें 'सम्भोग' इस पद्य के प्रसिद्धार्थ का परित्याग करना पड़ा है और 'अनुभव' यह अर्थ ग्रहण करना पड़ा है, तथापि इतने महान् परिवर्तन के अद्भुत चमत्कार के सामने प्रसिद्धार्थ परित्यागदोष ठहर नहीं सकता। हां,
"इति विरचितमेतत्काव्यमावेष्ट्य मेघम् बहुगुणमपदोणं कालिदासस्य काव्यम् । मलिमितपरकाव्यं तिष्ठतादाशशाङ्क: भुवनमवतु देवः सर्वदामोघवर्णः" ॥
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भास्कर
[ भाग २
काव्य का यह अन्तिम श्लोक आत्म-प्रशंसा से गूंज रहा है। यह पाठकों की आँखों में आत्माभिमान सा खटकता है। परन्तु, जिनसेन जी ने इसमें ऐसी युक्ति निकाली है कि "बहुगुणमपदोषं, मलिनितपरकाव्यम्" इत्यादि विशेषण मेघदूत के भी हो सकते हैं, और इस तरह आत्मश्लाघा के दोष से अपने को बचा लिया है। ___अस्तु, प्रिय पाठक वृन्द ! श्रीजिनसेनाचार्य ने रौद्र वीर, शान्त इत्यादि प्रायेण शृङ्गारविरोधी रसों में शृङ्गार की सजीव मूर्ति को परिवर्तित कर के अपनी बुद्धि की चम
कारिता का परिचय दिया है। मैंने यथासाध्य समयानुकूल इस काव्य के गुणदोषों का विवेचन तो किया है, परन्तु पग-पग पर कवि की अम्वरविहारिणी कल्पना हृदयग्राहिणी भावपरम्परा, रमणीय रचना उनके उत्कर्ष को मुक्त कण्ठ से स्वीकार करने को बाध्य कर ही देती है। इच्छा थी कि अपने प्रेमी पाठकों के सम्मुख इस अनुपम काव्य के सर्वाङ्ग का स्वरूप रक्खें। पर, समयाभाव और लेख के वृहदाकार हो जाने के भय से मैंने इस काव्य के केवल कुछ ही अंश की छानबीन की है। यदि मेरे इस लेख से पाठकों का कुछ भी मनोविनोद हुआ तो समय पर फिर भी मैं अपने तुच्छ उपहारों को लेकर उनके सामने उपस्थित हूंगा। ___ सं० नोठ-प्रातःस्मरणीय महाकवि जिनसेनाचार्यरचित पार्थाभ्युदय के विषय में इस समय मैं
अपनी ओर से कुछ भी न लिखकर "हिन्दीविश्वकोष" भाग ८, पृष्ट ३१७ की ही कुछ पंक्तियाँ नीचे उद्धृत किये देता हूं :
"यह ३६४ मन्दाक्रान्ता वृत्तों का एक खण्ड काव्य है। संस्कृतसाहित्य में यह अपने ढंग का एक ही काव्य है। इसमें महाकवि कालिदास के सुप्रसिद्ध 'मेघदूत' काव्य में जितने श्लोक हैं और उन श्लोकों के जितने चरण हैं वे सब एक एक वा दो-दो कर के इसके प्रत्येक श्लोक में प्रविष्ट कर दिये गये हैं, अर्थात् मेघदूत के प्रत्येक चरण को समस्यापूर्ति कर के यह कौतुकावह ग्रन्थ रचा गया है। इसमें पार्श्वनाथ स्वामी की पूर्व जन्म से लेकर मोक्षप्राप्ति तक विस्तृत जीवनी वर्णित है। मेघदूत
और पार्श्वचरित्र के कथानक में आकाश पाताल का पार्थक्य है, तथापि मेघदूत के चरणों को लेकर पार्श्वनाथ का चरित्र लिखना कितना कठिन है, इसका अनुमान काव्यरचना के मर्मज्ञ ही कर सकते हैं। ऐसी रचनाओं में क्लिष्टता और नीरसता का होना स्वाभाविक है, किन्तु 'पार्वाभ्युदय' इन दोनों दोषोंसे साफ बच गया है। इसमें सन्देह नहीं कि इनकी रचना कविकुलगुरु कालिदास की कविता के जोड़ की है। अध्यापक के० बी० पाठक का कहना है-. ....... "The first place among Indian poets is alloted to Kalidas by consent of all; Jinasena, however claims to be considered a higher genius than the author of cloud Messenger (Meghaduta)"
अर्थात् “यद्यपि सर्वसाधारण की सम्मति से भारतीय कवियों में कालिदास को पहला स्थान दिया गया है, तथापि जिनसेन मेघदूत के कर्ता की अपेक्षा अधिकतर योग्य समझे जाने के अधिकारी हैं।"
. के. बी० शास्त्री
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महाराज जीवन्धर का हेमांगद देश और क्षेमपुरी
(ले० — श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री)
महाराज जीवन्धर श्रीमहावीर स्वामी के समकालीन तद्भव-मातगामी कलाविश एक प्रतापी जैन राजा थे । श्रेणिकादि समकालीन अन्यान्य कतिपय जैन राजाओं के समान इन्हें भी ऐतिहासिक व्यक्ति मानने में किसी को किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिये । महाराज जीवन्धर हेमाङ्गद देश के शासक रहे । हेमांगद की राजधानी राजपुरी थी। इस लेख में सर्वप्रथम मुझे हेमाङ्गद देश ही पर कुछ प्रकाश डालना है । कनिंगहम साहब के "अनशेंट जागरफी ऑफ इण्डिया" के आधार पर बाबू कामता प्रसादजी ने अपने "संक्षिप्त - जैन-इतिहास" २य भाग १म खण्ड आदि में वर्तमान मैसूर या उसके निकटवर्ती भूभाग को जीवन्धर का हेमाङ्गद देश बतलाया है । उनसे पूछताछ करने पर मुझे यह भी ज्ञात हुआ है कि कनिंगहम साहब के उक्त कथन में हेमाङ्गद के पास सुवर्ण की खान, मलय पर्वत आदि का होना ही एकमात्र कारण है । परन्तु जीवन्धर के जीवनीविषयक स्वतन्त्र रूप से रचित जीवन्धर चरित्र, जोवन्धर-चम्पू, क्षत्रचूड़ामणि, गद्यचिन्तामणि, जीवन्धरचरिते (कन्नड़) इन ग्रन्थों से हेमाङ्गद के पास सुवर्ण को खान, समुद्र, मलय पर्वत आदि का होना सिद्ध नहीं होता। पता नहीं कि कनिंगहम साहब ने किस आधार पर हेमाङ्गद के निकट मलय पर्वत आदि उल्लिखित वस्तुओं का अस्तित्व माना है । संभव है कि कनिंगहम साहब के कथनानुसार किसी ग्रन्थ में मलय पर्वतादि हेमांगद के विशेषणरूप में मिलते हो। पर मेरा निजी अनुमान है कि जीवन्धर का हेमाङ्गद दक्षिण भारत में न हो कर उत्तर भारत में ही था। क्योंकि मुनि के पूर्व कथनानुसार जिस समय गन्धोत्कट सद्योजात जीवन्धर को श्मशान से घर लेगया उसी समय धात्री. वेशधारिणी देवी, रानी विजया को दण्डकारण्य में तपस्वियों के समीप छोड़ कर स्वयं किसी बहाने से चली गयी थी । " वह दण्डकारण्य प्राचीन काल में विन्ध्यपर्वत से लेकर गोदावरी के किनारे तक विस्तृत था । इसी वन में श्रीरामचन्द्र ने वर्ष बिताये थे । इस वन का बहुत अंश आज भी वर्तमान है। प्रकार से निश्चित सा हो जाता है कि राजपुरी इस दण्डकारण्य से कर इसी के आसपास में कहीं थी ।
१
"क्षखचूड़ामणि' प्रथम लम्ब देखा । २ हिन्दी - विश्वकोष भाग १० पृष्ठ १४४ ।
वनवास काल में १४
इस घटना से एक अधिक दूर पर न रह
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[ भाग २
दूसरा कारण यह है कि जीवन्धर, यक्ष की अनुमति से उनसे विदा ले एवं चलकर पढवदेशस्थ चन्द्राभा नगरी में पहुँचते हैं और मन्त्रप्रभाव से सर्पविष से मरणोन्मुखी राजा धनपति की पुत्री पद्मा को जीवनदान देकर पीछे राजा के एकान्त प्राग्रह से इसी पद्मा का अग्निसाक्षिपूर्वक स्वीकार करते हैं। बाद जीवन्धर स्वामी कुछ दिन वहीं रहकर वहाँ से विना किसी से कुछ कहे सुने चुपचाप चलकर मार्ग में अनेक तीर्थ-स्थानों की बन्दना करते हुए - दक्षिण देश' की क्षेमपुरी या क्षेमपुर के सहस्रकूट चैत्यालय में पहुँचते हैं । जीवन्धर का हेमाङ्गद दक्षिण भारत में होता तो जीवन्धर की दक्षिणयात्रा का यह उल्लेख नहीं मिलता ।
६८
भास्कर
तीसरा कारण यह है कि जीवन्धर क्षेमपुरी में भी कुछ ही दिन रहकर जब हेमाभा ब्रुगरी में पहुंचे और वहां राजकुमारी कनकमाला से विवाह कर अपने शालों के ग्रह से बुड्डी रहने लगे तब भाई नन्दाढ्य और पद्मास्य आदि उनके मित्र भी वहीं पहुँचे । वहाँ पुर जीवन्धर से पद्मास्य इस प्रकार कहता है - "आपके विरह से दुःखित हमलोग आपकी सेवा में आते हर कुछ समय के लिये दण्डकारण्य में ठहरे। वहाँ तपस्वियों के आश्रम
१ (१) ततस्तस्माद्विनिर्गत्य देशे दक्षिणनामके । सहस्रकूउमाश्रित्य श्रीविमानं नुनाव सः ॥ (तलचूड़ामणि लम्ब ६ श्लोक ३२ ) (२) x X x तद्वनान्निर्गत्य निसर्गरुचिरं नगरप्रमुखै रोचितमपि नरोचितं सर्वोत्तरमपि नाम्ना दक्षिणदेशमासाद्य x X X X
( जीवन्धरचम्पू लम्ब ६ष्ट, पृष्ठ ६६-६७ ) (३) x x x जन्तु संरक्षणदत्तस्य विडम्बित तो गोपतेर्दक्षिणदेशस्य मणिमुकुटायमानचिकट शिखरचुलुकिताम्बरं जाम्बूनदोपपादितस्थूलस्थूणासहस्रसंबाधमण्डितमण्डपमकाण्डभवदाखण्डलधनुः काण्डशंकानिष्पादनशौण्डनैकपुष्पोपहारमहरहरभिवर्धमानसपर्यमविलयं कमपि श्रीजिनालयमद्राक्षीत् ।
( गद्यचिन्तामणि लम्ब ६ष्ट पृष्ठ १५२ ) (४) मेरेव दक्षिणदिक्किनलि बं । धुरद विषर्याद विमलपुरवर । करसु नरपति यापुरदि गुणभद्रनें ॥ परदनिहनातन कुमारिति । वरसतिय माणिक्यवेने वि । स्तरदोलेसेदलु मदनमोहन मूर्शियन्ददुलि ॥
नोट – इस पद्य में क्षेमपुर के स्थान में 'विमलपुर' मिलता है। पुर को सेमपुर का पर्यायवाची शब्द मानकर ही यह लिखा है प्रारंभिक पथ में उसे सेमपुर ही स्पष्ट लिख दिया है ।
।
२ देखो - ततचूड़ामणि लम्ब ५, ६ ।
( जीवन्धरचरिते सन्धि १२ पद्य म)
ज्ञात होता है कि कवि ने विमल
क्योंकि उन्होंने सन्धिसार-सूचक
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RUINS
% 3D
RUINS
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IELD
CE
JAINA city of CERSORPA
मूडबिद्री के चन्द्रनाथ-चैत्यालय के खंभों में
खुदी हुई हस्तकला के नमूने
4
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CHATUN-MU KWA SASTI (Destroy.dtible MD)
(श्रीयुत एस० चन्द्रराज के सौजन्यसे)
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किरण ३ ]
महाराज जीवन्धर का हेमांगद देश और क्षेमपुरी
१६
को देखने के लिये इधर उधर घूमते हुए हम सबों ने एक स्थान पर किसी एक पुण्यमाता-आपकी माता को देखा। उन्होंने हमलोगों से पूछा कि तुमलोग कहाँ के रहने वाले हो और कहाँ जो रहे हो। फिर हमने आपको घटना की सारी बातें उन माननीय माता को सुनाई। यह सुनकर उन्हें दारुण दुःख हुआ। बाद उन्हें बारबार आश्वासन दे एवं उन से आज्ञा लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हुए हैं।' पद्मास्य-द्वारा की हुई उल्लिखित दण्डकारण्य की चर्चा से भी यही ज्ञात होता है कि हेमाङ्गद देश विन्ध्य पर्वत के दक्षिण में नहीं था किन्तु उससे उत्तर। क्योंकि उस समय जीवन्धर दक्षिण में ही थे।
अब लीजिये चौथा कारण। जीवन्धर स्वामी मित्र श्रेष्ठ पद्मास्य के मुख से पूज्यमाता की चर्चा सुनकर उनके दर्शनों के लिये विशेष उत्कण्ठित हुए। श्वशुर आदि से आज्ञा लेकर उन्होंने वहाँ से चल तथा दण्डकारण्य में पहुँच कर अपनी माता का दर्शन किया। फिर उसी समय वह अपनी माता का मामा के पास भेजकर स्वयं राजपुरी को चलपड़े। इनके मामा गोविन्द विदेह (मिथिला) के धरणी-तिलक नगरी के राजा थे। पीछे जीवन्धर ने इन्हीं अपने मामा की सहायता से काष्ठाङ्गार को परास्त किया था। स्वामिद्रोही काष्ठाङ्गार को परास्त करने के लिये गोविन्द राजा जीवन्धर-कुमार के साथ विदेह से कुछ ही दिनों में राजपुरी पहुंचे थे। अगर हेमाङ्गद देश दक्षिण भारत में होता तो कुछ ही प्रयाणों (पड़ावों) में गोविन्दराज का विदेह से राजपुरी पहुंचना सम्भवपरक नहीं था। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि विदेह से हेमाङ्गद की राजधानी अधिक दूर पर नहीं थी। साथ ही साथ यह भी संभव नहीं है कि गोविन्दराज अपनी बहन विजया को विदेह से अधिक दूरवर्ती दक्षिण भारतीय राजपुरी में व्याह देता। प्राचीन मिथिला (वर्तमान तिरहुत) का विदेह कहने में मैं समझता हूं कि किसी को मतभेद नहीं हो सकता।
, देखो-"क्षत-चूड़ामणि" लम्ब ७, ८ । २ देखो."क्षत्रचूड़ामणि" लम्ब ८ । ३ (१) अथ राजपुरीं प्राप्य राजा कैश्चित्प्रयाणकैः । निकषा तत्पुरी क्वापि निषसाद महाबलः ॥
(क्षत्रचूड़ामणि लम्ब १० श्लोक २०) (२) xxx मायूरातपत्रसहस्रान्धीकृताष्टदिङ्मुखमनीकं पुरोधाय, कैश्चित्प्रयाणैर्गोविन्दराजः क्कचन राजपुरी निकषा निषसाद ।
(जीवन्धरचम्पू लम्ब १० पृष्ठ १०६) (३) xxx बलिक गोविन्दावनीश्वर। हलवु पयणदोलनुजे सहिता। xxxx
(जीवन्धरचरिते सन्धि १५, पद्य ३)
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[ भाग २
पाँचवा कारण यह है कि महाराज जीवन्धर की मुक्ति भी वर्तमान पटना जिलान्तर्गत राजगृह के विलाचल पर्वतपर ही हुई है'। ऐसी दशा में महाराज जीवन्धर के हेमाङ्गद hi दक्षिण भारत में खींच ले जाना मुझे तो युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता । उल्लिखित कारणों से मेरा अनुमान है कि हेमाङ्गद विन्ध्यपर्वत के उत्तर का ही केाई प्रदेश होना चाहिये । इस विषय पर अन्यान्य विद्वान् भी अवश्य विचार करेंगे।
भास्कर
मैं अब जीवन्धर की क्षेमपुरी या क्षेमपुर के सम्बन्ध में भी अपना विचार प्रकट कर देना चाहता हूँ । वर्तमान बंबई प्रान्तान्तर्गत उत्तर कन्नड जिला का गेरुसोप्पे ही प्राचीन क्षेमपुरी या क्षेमपुर था । गेरुसेप्पे का दूसरा नाम भल्लातकीपुर है । यह होनावर से पूरव अट्ठारह मील दूर पर अवस्थित है । गेरुसोप्पे में शासन करनेवाले सालुवशासकों का विस्तृत विवरण एपिग्राफिका कर्नाटिका भाग VIII एवं इसी के अन्यान्य भागों में भी मिलता है। मूड़बिट्टी के त्रिभुवन -तिलक चैत्यालय ( होसबस्ति) के पाँचवे शिलालेख से ज्ञात होता है कि सालुववंशी नारणाङ्क स्थानीय ( मूडबिद्री) मठाधीश श्रीचारुकीर्त्ति जी का परम भक्त था । इस शिलालेख में उक्त नारणांक के वंश का विस्तृत परिचय भी उपलब्ध होता है ।
गेरुसोप्पे चिरकालतक जैनसाम्राज्य - शासन में रहा । आज भी इसके आस ही पास डेढ़ मील की दूरी पर “नगरबस्ति केरी" में कई प्राचीन जैनमन्दिर भग्नावस्था में मौजूद हैं जो इस बात का प्रकट कर रहे हैं कि यह एक समृद्धशाली पुरातन नगर था । स्थानीय लोगों का अनुमान एवं विश्वास है कि अपने महत्त्व के दिनों में यहां पर एक लाख घर तथा चौरासी मन्दिर विद्यमान थे। यहां के मन्दिरों में सबसे बड़े महत्व का एक चौमुखा जैनमन्दिर है। इसके चार द्वार हैं तथा इसमें चार प्रतिमायें विराजमान हैं । पाँच और
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xxxxविपुलाद्वौ हुताशेषकर्मा शर्माप्रयमेष्यति ।
इष्टाष्टगुणसम्पूर्णे निष्ठितात्मा निरञ्जनः ॥
(गुणभद्राचार्यकृत उत्तर पुराणान्तर्गत जीवन्धरचरित्र पृष्ठ ५४ श्लोक ५०५ - शास्त्री कुंपुस्वामिद्वारा तांजोर में प्रकाशित) ।
२ देखो — B. L. Rices, Mysore and Coorg Inscriptions p. 152.
नोट – इस बात की सूचना मिलवर एम० गोविन्द पै ने मुझे दी है, तदर्थं वे धन्यवाद के
पात्र हैं।
३ " खेमपुरद श्रीचण्डोग्रपार्श्वतीर्थेश्वरचरणकिंकररु श्रीमच्चारुकीर्त्ति पण्डिताचार्ख व पदपद्मभ्रं गावमान (स) रुमप्प सालुवनारायांकन" ।
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किरण ३]
महाराज जीवन्धर का हेमांगद देश और क्षेमपुरी
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जोर्ण जैन मन्दिर हैं, जिनमें भिन्न भिन्न तीर्थङ्करों की मूर्तियाँ और कई शिलालेख भी मौजूद हैं। __ यह एक किम्बदन्ती है कि विजयनगर के राजाओं ने ही गेरुसोप्पे के जैनवंश को कन्नड प्रदेश में हस्तावलम्बन दे उन्नत बनाया। किन्तु पता नहीं कि इस किम्वदन्ती में कहाँ तक यथार्थता है। लगभग पन्द्रहवीं शताब्दी से यहाँ का शासन-भार प्रायः महिलाओं के ही हाथ में रहा। १६वीं और १७वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल के करीब करीब सभी लेखक गेरुसोप्पे और भटकल की महारानी का नाम आदर के साथ लेते हैं । (“बम्बई प्रान्त के प्राचीन जैनस्मारक" पृष्ठ १३५) भैरवदेवी ही गेरुसोप्पे की अन्तिम महारानी थीं
और वह सन् १६०८ में मरी। उत्तर कन्नड जिला प्राचीन काल से ही जैनियों का केन्द्र बन गया था। 'सोदे' में ८ वीं शताब्दी में ही जैनमठ स्थापित हो गया था। ("बंबई प्रांत के प्राचीन जैनस्मारक" पृष्ठ १३७) बल्कि 'राजावली कथा' के आधार पर श्रवण. बेल्गोल के शिलालेखों के उद्धारक 'राइस' साहेब का कहना है कि इस 'सादे' का प्राचीन, नाम 'सुधापुर' है तथा यहां की गद्दी पर भट्टाकलङ्क भी आसीन थे। इस उत्तर कन्नड
१ जीवन्धर-चम्पू, क्षत्रचूड़ामणि, जीवन्धर-चरिते के रचयिताओं ने जीवन्धर स्वामी के मुख से क्षेमपुर के सहस्रकूट चैत्यालय में भगवान् शान्तिनाथ की स्तुति निम्नलिखित रूप से करायो है :(१) 'भवभरभयदूर भावितानन्दसारं. धृतविमलशरीरं दिव्यवाणी-विचारम् । मदनमदविकारं मञ्जुकारुण्यपूर, श्रयत जिनपधीरं शान्तिनाथं गभीरम्" ॥
(जी. चं० लम्ब ६ श्लो०१७) (२) "स्वान्तशान्तिं ममैकान्तामनेकान्तैकनायकः। शान्तिनाथो जिनः कुर्यात्संसृतिक शशान्तये ॥"
(क्ष० चू० लम्ब ६ श्लोक ३५) (३) "देव निम्मालयद कदगलु । आव तेरदलि मुच्चिदाडेलो । . कार्यालय कद केत्तिहुवु शान्तीश्वरने निम्म" ॥x x x
(जी० च० सन्धि १२ पद्य १६) किन्तु उक्त क्षत्रचूड़ामणि के कर्ता वादीभसिंह ने ही अपनी "गद्यचिन्तामणि" में उसी सहस्रकूट चैत्यालय में जीवन्धर के द्वारा शान्तिनाथ जी की स्तुति न करा कर भगवान् वर्धमान की इस प्रकार स्तुति करायी है:(४) तरन्ति संसारमहाम्बुराशिं यत्पादनावं प्रतिपद्य भव्याः । अखण्डमानन्दमखण्डितश्रीः श्रीवर्धमानः कुरुताजिनो नः" ॥
(ग. चि० ० ६, पृष्ठ १५३) उल्लिखित उद्धरणों से भी पता लगता है कि उस काल में वहाँ (क्षेमपुरी में) भिन्न भिन्न जिनप्रतिमा मौजूद थीं।
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१०२
भास्कर
[ भाग २
प्रान्त में भट्टारकों की विरुदावली में आये हुए तीन प्रसिद्ध स्थानों का नाम उपलब्ध होता है। जैसे-उक्त क्षेमपुर'-जिसका वर्तमान नाम गेरुसोप्पे' है। 'श्वेतपुर' जिसका वर्तमान नाम 'विळिगे' है। इसी प्रकार 'संगीतपुर'-जिसका वर्तमाय नाम 'हाडुल्लि' है। (बंबई प्रान्त के प्राचीन जैनस्मारक पृष्ठ १३८) इससे भी पता लगता है कि एक जमाने में यह प्रान्त विशेष समृद्धशाली रहा। गेरुसोप्पे या क्षेमपुर के सम्बन्ध में एक और प्रमाण उपस्थित करदेना मैं समुचित समझता हूँ। वह यह है-"इंतेसव नगरि राज्यद मध्यप्रदेशदोल बळसिर्दोप्युव नंदनावनगळिं कासारनीरेजदि। कळधौतोज्ज्वल सालकोत्तलगळिंबट्टाल जालंगळिं। विलसद्गोपुरदिं सुहयंचयदि श्रीजैनगेहंगळिं। चेलुवं ताल्दिद गेरुसोप्पे नगरं कोंडाडलाबल्लरै।"
(मूडबिद्री त्रिभुवन-तिलक-चैत्यालय के शिलालेख से) वादिराज-कृत यशोधरचरित्र की लक्षण ने एक टीका लिखी है। उनका कहना है कि इस टीका को मैंने क्षेमपुर ही में रचा है। लक्षण का संकेतित क्षेमपुर उल्लिखित 'क्षेमपुर' होने की अधिक संभावना है। साथ ही साथ यह भी संभव है कि जिस नेमिनाथालय में उन्होंने इसकी टीका रची है वह नेमिनाथालय इस समय जो वहां पर भग्नावस्था में मौजूद है यही हो ।
मेरा अनुमान है कि यह 'गेरुसोप्पे' जीवन्धर का प्राचीन क्षेमपुर है। इस सम्बन्ध में विद्वानों को अनुकूल या प्रतिकूल प्रमाण उपस्थित कर इस विषय पर अधिक प्रकाश डालना चायिये। इसी प्रकार जीवन्धर के समकालीन पल्लवदेश की चन्द्राभा नगरी के राजा धनपति, उक्त क्षेमपुरी के राजा नरपति देव, मध्यप्रदेश की हेमामा नगरी के राजा दृढमित्र, विदेह के धरणी तिलक नगर के राजा गोविन्दराज आदि शासकों एवं इनकी राजधानियों के सम्बन्ध में भी अन्वेषण करने की बड़ी आवश्यकता है।
. "स्वस्ति श्रीमद्रायराजगुरुभूमण्डलाचार्यवर्यमहावादवादीश्वररायवादिपितामहसकलविद्वजनसार्वभौमाद्यनेकविरुदावलीविराजमानश्रीमन्निजघटिकस्थानदिल्लि-कनकादि-श्वेतपुर-सुधापुर-संगीतपुरक्षेमवेणुपुर-श्रीमद्धेल्गोल-सिद्धसिंहासनाधीश्वरश्रीमदभिनवचारुकीर्शि x xxxx २ श्रीमत्पद्मणगुन्मदैत्यभिहितौ श्रीवर्णिनौ भूतले भातश्चारुचरित्रवार्धिहिमगुस्तप्रीतये लक्षणः ।
मन्दो बन्धुरवादिराजविदुषः काव्यस्य कल्याणदाम् टीका क्षेमपुरेऽकरोद्गुरुतरश्रीनेमिनाथालये ॥
A triennial Catalogue of manuscripts Govt. Library Madras, 1916-17 • to 1918-19 Vol. III.-Part 1. Sanskrit C. Page 3826.
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इतिहास का जैन ग्रन्थों के मंगलाचरण और प्रशस्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध
(ले० — श्रीयुत पं० हरनाथ द्विवेदी, काव्य - पुराण - तीर्थ )
बहुतों की धारणा है कि पुराण और इतिहास एक ही पदार्थ है । प्राचीन काल में तो ये दोनों अवश्य ही एक थे, क्योंकि पुराणों के सिवा कोई इतिहास ग्रन्थ अलग उपलब्ध नहीं होता । वास्तव में पुराण और इतिहास के उद्देशों में भेद है । यह बात प्राचीन ग्रन्थों में स्पष्ट लिखी भी है। क्योंकि इतिहास की व्युत्पत्ति यों है— इति ह पुरावृत्तं आस्ते अस्मिन् इतिह-आस्-धञ् । पुरावृत्तकथा ही इतिहास है । इसे बल्कि अष्टादश शास्त्र के अन्तर्गत मानते हैं । क्योंकि यजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण में लिखा है : – “ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गीरस इतिहास: पुराणं विद्या सूखायमनुव्याख्यानानि" ।
इतिहास संसार के समस्त. वस्तुपरिवर्तन का उपाख्यान है । कीटपतङ्ग — यहाँतक कि जड़चेतन का भी इतिहास रहता है । हो, इस समय वह पुराणों में ही गंगा-यमुना के संगम की तरह स्वरूप का दर्शन किम्वा पुराणों से उसका ठीक ठीक उद्धार असम्भव हो गया है ।
इतिहास सब देशों का है । पर हमारे देश का नहीं है, यह बात सर्वथा आदरणीय नहीं । स्मरणातीतकाल से पृथ्वीपर जो देश सभ्य माना गया है, उस देश का इतिहास, उसी समय के अनुसार हो सकता, न कि सभ्यताभिमानी देशों की तरह शृङ्खलाबद्ध तिथि- मिति नक्षत सम्वत् के लेखों से सुसज्जित । बल्कि यह बात विचारशीलों से अज्ञात नहीं है । कुछ लोगों की धारणा है कि जितने समय का इतिहास श्रज्ञात है, उतने समय तक हम असभ्य थे । पर यह मन्तव्य भारतवर्ष के लिये प्रमाणभूत नहीं हो सकता । बात यह थी कि प्राचीन समय में जैसी रीति, नीति और श्रावश्यकता थी तदनुसार ग्रन्थों में बातें कहीं विस्तार से और कहीं संक्षेप से लिखी गयी है ! परन्तु वे अब इस समय के विचार से लोगों को अनावश्यक जान पड़ती हैं । की आवश्यकता दूसरे ढंग की है। नहीं ।
भला इस दशा में दूसरे देशवाले क्यों कर इसके समर्थक हो सकते हैं ?
यों तो जर्मन पुरातत्त्ववेत्ता हरनीस ने ग्रीस को विश्वसभ्यता का स्रष्टा मानते हुए यह समझा कि, सिकन्दर के आक्रमण के बाद भारतीय सभ्यता की जो वृद्धि हुई, उसका अंग अंग ग्रीस का ऋणी है। संक्षेप में यह कि, आज हम भारत में जो कुछ देख रहे हैं, वह मीस का दिया हुआ है । परन्तु
केवल मनुष्य ही तक नहीं पशुपक्षी, इतिहास का चाहे जो अर्थ या उद्देश
मिल गया है। उसके असली
अब समय सञ्चार
इसी हमारे देश के ही महानुभावों को प्राचीन लेख-शैली पसन्द
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भास्कर
[ भोग २
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हैबेल ने उनका पलड़ा ऊपर उठाकर कहा, "नहीं, भारतीय सभ्यता स्वयं विश्व-सभ्यता की जननी है। अपने विकाश के लिये इसे ग्रीसवालों के प्रसाद की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता न थी; बल्कि, उस समय भी भारतवर्ष विश्व का धर्मगुरु ही था । "
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बहुत ध्यान न दिया ।
इतिहासकारों की इस खींचातानी में नीस की बातों पर विद्वानों नीस की आँखों पर विचार - संकोच और पक्षपात का चश्मा चढ़ा हुआ था । पर भावुक हैवेल को आचार्य भारत के सभ्यतासूर्य की प्रचण्ड रश्मियों से चकाचौंध सी लग गयी थी । इन दो दलों के कोलाहल को न सुनकर टार्न, स्पूनर, फर्गुसन और स्मीथ जैसे धीर, शान्त और वैज्ञानिक लेखक. विष्पक्षता के मन्दिर में सत्य का पता लगा रहे थे । मैं समझता हूं कि, वे सत्यता के बहुत बड़े श का पता लगाने में समर्थ हुए हैं।
सिकन्दर की चढ़ाई राजनीतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण थी । इसने पहली बार भारत की महत्ता का द्वार यूरोपवालों के लिये खोल दिया । यह सच है कि, भारतवासियों के सामने सिकन्दर का कोई आदर्श समाहत न हो सका । लोगों ने उसकी चढ़ाई को एक साधारण घटना से अधिक न समझा । यहाँ तक कि, कोई बौद्ध, जैन और हिन्दू लेखक इसकी कुछ भी चर्चा नहीं करता है ।
इसीलिये भारतवर्ष का इतिहास अजीब पहेली बना हुआ है। इसकी मूल भित्ति का पता लगाना अर्थात् इसकी असली तह तक पहुंचना सिद्ध-शिला का आश्रय लेने के समान हो रहा है। यों तो अब बहुत से विद्वान् कथासरित्सागर जैसे कपोलकल्पित कथाओं एवं अल्हा - उद्दल की गायी जाती हुई वीरगाथाओं से भी वैज्ञानिक ढंग से चीर-नोर की तरह ऐतिहासिक तत्त्व निकालने में सफल से हो रहे हैं।
अस्तु, अब मैं अपने प्रकृत विषय पर आने के पहले डाक्टर राजेन्द्रलाल मिल, माननीय मिस्टर फर्गुसन तथा डाक्टर भण्डारकर को धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता, जिन्होंने संस्कृत ग्रन्थों के मङ्गलाचरण और प्रशस्तियों को संगृहीत और प्रकाशित कर भारतीय इतिहासाधन का प्रचुर परिमाण मैं उपस्थित कर देने का अक्षय्य श्र ेय उठाया है ।
हिन्दू लेखक मंगलाचरण और प्रशस्तियों का महत्व नहीं जानते थे। उन्होंने मंगलाचरण और प्रशस्तियाँ तो लिखी हैं किन्तु उनमें ऐतिहासिक मसाले मिलने कठिन से है। गये हैं । यो हिन्दू पुराणों में राजवंशों का वर्णन ऐतिहासिक अंग माना जाता है किन्तु राजाओं का समय-निर्णय करना दुस्साध्य सा हो रहा है। हाँ, इतिहास का एकमात्र साधन शिलालेख एवं ताम्रपत्र हो रहे हैं। मैं समझता हूँ कि इन दोनों के अभाव में भारतीय इतिहास बिना पेंदे की लुटिया के समान इधर उधर ढन-मनाता फिरता । जयपुर निवासी महामहे । पाध्याय स्वर्गीय पं० दुर्गादत्त द्विवेदी भारतीय इतिहास संसार के कम धन्यवाद के पात्र नहीं है जिन्होंने निर्णयसागर प्रेस से 'प्राचीन लेखमणिमाला' नाम की दो भागों में दो मोटी जि प्रकाशित कर इतिहास-लेखकों का मार्ग बहुत कुछ परिष्कृत कर दिया है।
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किरण ३] इतिहास का जैनग्रन्थों के मंगलाचरण और प्रशस्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध १०५
अस्तु, जैनग्रन्थों के मंगलाचरण और प्रशस्तियाँ ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े काम की चीजें है । कुछ ही ग्रन्थ ऐसे होंगे जिनके मंगलाचरण में अपने पूर्वं कवियों के नाम अथवा कृतियों का उल्लेख नहीं किया गया हो तथा प्रशस्तियों में अपनी गुरुपरम्परा और तत्कालीन राजवंश का परिचय नहीं दिये गये हों । यहीं तक नहीं बल्कि प्रशस्ति नीचे जिस धर्मप्राण जैनी स्त्री-पुरुष उस ग्रन्थ की प्रतिलिपि करवा कर किसी मन्दिर में प्रदान किये रहते हैं उनकी वंशपरम्परा का भी उल्लेख बहुत मिलता है । ऐसी दशा में इतिहास - प्रणेता अन्वेषकों को जैनग्रंथों के मंगलाचरण और प्रशस्तियाँ कितने काम की चीजें हैं- इस बात का पता सहज ही में लग सकता है । बड़े दुःख की बात है कि भारत के इतिहास लेखकों ने पारसी, अरबी आदि अन्यान्य सम्प्रदाय के साहित्य एवं इतिहास का अनुशीलन करने का कष्ट तो उठाया किन्तु भारतीय साहित्य तथा इतिहास का सर्वश्रेष्ठ साधन जो जैनग्रन्थ हैं उनकी ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया । इसका मुख्य कारण यह भी हो सकता है कि ग्रन्थों के प्रकाश में नहीं आने एवं जैनशास्त्रभाण्डाराधिपतियों की लापरवाही के कारण अन्यान्य ऐतिहासिक विद्वान् जैनग्रन्थों में भरे पड़े ऐतिहासिक साधनों से लाभ नहीं उठा सके । अब एकाएक सभी जैन ग्रन्थों को प्रकाशित कर देना तो अशक्य सा हो रहा है किन्तु इस "भास्कर" का यह पहले ही से ध्येय बना हुआ है कि अप्रकाशित जैनग्रन्थों को संगृहीत कर उनके मंगलाचरण और प्रशस्तियों के प्रकाशनद्वारा यावच्छाय ऐतिहासिक साधन सञ्चित कर दिया जाय । ग्रन्थमाला के रूप में अन्यत्र मंगलाचरण तथा प्रशस्तियाँ प्रकाशित की गयी हैं । इस भवन के सुयोग्य पुस्तकालयाध्यक्ष पण्डित के० भुजबली शास्त्री जी ने यथोपलब्ध सामग्री से उनके ऊपर ऐतिहासिक प्रकाश भी डाला है ।
बल्कि इसी ध्येय को लेकर
आज मैं भवन के संगृहीत एक ग्रन्थ "दयासुन्दराभिधान अपर नाम यशोधर - चरित्र" की प्रशस्ति पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर संक्षेप में उसके ऐतिहासिक साधनों का दिग्दर्शन कराने का प्रयास करता हूँ । इस ग्रंथ के रचयिता पद्मनाभ नामक कायस्थ हैं । भारतवर्ष में कायस्थ ही एक ऐसी जाति है जो अन्यान्य शिक्षित देशों से शिक्षा में टक्कर ले सकती है। पौराणिक युग से लेकर अबतक इस जाति ने शिक्षा को एकान्त चिरसंगिनी बनाकर प्रचुर प्रसिद्धि प्राप्त कर रक्खी है । धर्माशर्माभ्यु दुब नामक प्रसिद्ध जैन काव्य ग्रंथ के रचयिता हरिश्चन्द्र भी कायस्थ ही थे । हिन्दू संस्कृत साहित्य के रचयिताओं में कायस्थ जाति का कहीं नाम निर्देश नहीं है । ज्ञात होता है कि ब्राह्मणजाति ने इनके पाण्डित्य का समादर नहीं कर संकीर्णता का आश्रय लिया, इसी से कायस्थ जाति अपनी अमूल्य रचनाओं से जैनसंस्कृत साहित्यभाण्डार की पूर्ति करने लगी ।
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अस्तु, इस यशोधर-चरित के मंगलाचरण में कोई गुरुपरम्परा अथवा कविपरम्परा नहीं दी गयी - अतः यहाँ केवल प्रशस्ति ही दी जाती है किन्तु साथ ही साथ यहाँ मैं यह लिख देना समुचित
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भास्कर
[भाग २
समझता हूं कि इस एकमात्र अशुद्ध प्रति की वजह से अशुद्धियों का कुछ भी संशोधन नहीं किया
जा सका:
जातः श्रीवीरसिंहः सकलरिपुकुलवातनिर्धातपातोवंशे श्रीतोमराणां निज विमलयशोप्राप्तदिक्चक्रवालः। दानानैविवेकैर्न भवति समता येन साकं नृपाणाम् केषामेषाकहीनां प्रभवति धिषणा वर्णने तद्गुणानाम् ॥१॥ ईश्वरचूडारत्नं विनिहितकरघातवृत्तसंघातः । चन्द्र इव दुग्धसिन्धोस्तस्मादुद्धरणभूपतिर्जनितः ॥२॥ यस्य हि नृपतेर्यशसा सहसा शभ्रीकृते त्रिभूवनेऽस्मिन् कैलाशतिगि (?)र निकरक्षी?) रतिनीरं शुचीयते तिमिरम् ॥३॥ तत्पुत्रोवीरमेन्द्रः सकलवसुमतीपालचूड़ामणिर्यः प्रख्योतः सर्वलोके सकलबुधकलानन्दकारी विशेषात् । तस्मिन् भूपालरत्ने निखिलनिधिगृहे गोपदुर्गे प्रसिद्धम् भुंजाने प्राज्यराज्यं विगतरिपुभयं सुप्रजःसेव्यमानम् ॥४॥ वंशेऽभूज्जैसवाले विमलगुणनिधिः भूलणः साधुरत्नम् साधुः श्रीजैनपालोऽभवदुदितयास्तत्सुतो दानशीलः । जैनेन्द्राराधनेषु प्रमुदितहृदयः सेवकः सद्गुरूणाम् लोणाख्या सत्यशीलाजनि विमलमतिजौणपालस्य भार्या ॥५॥ जाताः षट् तनयास्तयोः सुकृतिनोः श्रीहंसराजोऽभवत् . तेषामाद्यतमस्ततस्तदनुजसैराजनामाजनि । रैराजो भवराजकस्समजनिप्रख्यातकीर्त्तिर्महान् साधुः श्रीकुशराजकस्तदनुजः श्रीक्षेमराजो लघुः ॥६॥ ज्ञाता श्रीकुशराज एव सकलदमापालचूड़ामणिः श्रीमत्तोमरवीरमस्य विदितो विश्वासपात्र महान् । मन्त्री मन्त्रविचक्षणः क्षणमयः क्षीणांरिपक्षः क्षणात् क्षोण्यामीक्षणरक्षणक्षममतिजैनेन्द्रपूजारतः ॥७ स्वर्गस्पर्द्धिसमृद्धिकोऽतिविमलश्चैत्यालयः कारितो लोकानां हृदयङ्गमी बहुधनैश्चन्द्रप्रभस्य प्रभोः। येनैतत्समकालमेव रुचिरं भज्यं च काव्यं तथा
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किरण ३ ] इतिहास का जैनग्रन्थों के मंगलाचरण और प्रशस्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध १०७
साधु राजन सुधिया कीर्त्तश्विरस्थापकम् ॥८॥ तिस्रस्तस्यैव भार्या गुणचरितजुषस्तासु रल्हाभिधाना पत्नी धन्याचरित्रा व्रतनियमयुता शीलशौचेन युक्ता । दात्री देवार्चनाढ्या गृहकृतिकुशला तत्सुतो कामरूपो दाता कल्याण सिंहो जिनगुरुचरणाराधने तत्परोऽभूत् ॥६॥ लक्षणश्री द्वितीयाभूत्सुशीला च पतिव्रता । कौशीरी च तृतीयेयमभूद्गुणवती सती ॥१०॥ शान्तिर्देशस्य... भूत्तदनु नरपतेः सुप्रजानां जनानाम् वक्तणां वाचकानां...... . तथैव ।
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यावत्कूर्मस्य पृष्ठे भुजगपतिरयं तत्र तिष्ठेद्गरिष्ठे - यावत्तत्रापि चञ्चद्विकटफणिफणामण्डले तोणिरेषा । यावत्क्षण समस्त त्रिदशपतिवृतश्चारुचामीकराई - tarai विशुद्ध' जगति विजयतां काव्यमेतच्चिराश्च ॥ १२ ॥ कायस्थपद्मनाभेन बुधपादाज्जरेणुना ।
कृतिरेषा विजयतां स्थेयादा चन्द्रतारकम् ॥१३॥
अथ सम्बत्सरेऽस्मिन् श्रीविक्रमार्कगतान्दः सम्बत् १८१२ वर्षे विक्रमभूपान्दानां द्विइन्दु वसुइन्दुवत्सराक्रान्ते मार्गशीर्ष कृष्ण ४ रबौ पुनर्वसु नक्षत्र शुक्कुनामयोगे श्रीमूलसंघे वलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्याम्नाये भट्टारक श्रीदेवेन्द्रकीर्त्तितत्पट्टे भट्टारकश्री चन्द्रकीर्त्ति ताना बाई श्रीपास (र्श्व) मती तच्छिष्य पं० मयाराम पठनार्थ लिखितं श्रीतपागच्छे श्रीविजयराजान्नाये श्रीवारणस्यां नगर्यो भीलूपुराश्रीजिनमन्दिरे श्रीपार्श्वनाथप्रसादात् अन राज्यत्रयाधिपतिराजाबल्वणस्संघदेवाः तद्राज्यप्रवर्त्तमाने । श्रीरस्तु । श्रीमूलसंधे श्रीभट्टारक जिनेन्द्रभूषणजी भट्टारक महेन्द्रभूषणजी श्रीआचार्यदेव नरेन्द्रकीर्त्तिजी श्रीगोपालचले ।
उल्लिखित प्रशस्ति के श्लोकों में जो रेखाकित नाम आये हैं उनसे यह बात ज्ञात होती है कि तोमरवंशीय राजा वीरमदेव के बड़े विश्वासपात्र मन्त्री जैसवालवंशोद्भूत श्रीकुशराज ने जिन दिनों श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकर का एक दिव्य एवं भव्य मन्दिर बनवाया उन्हीं दिनों कायस्थ कुलोद्भूत विद्वर पद्मनाभ जी ने इस प्रस्तुत ग्रंथ का प्रणयन परिसमाप्त किया ।
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भास्कर
[ भाग २
'तोमर' राजस्थान का एक प्राचीन राजपूत क्षत्रिय राजवंश है। इस श्रेणी के राजपूत अब नहीं के बराबर हैं। राजपुताने में ये लोग तुयार नाम से प्रसिद्ध हैं। जहाँ तहाँ श्रारा प्रान्त में भी तोमर वंशीय क्षत्रिय हैं। राजपूतवंश का तोमर यह नाम क्यों पड़ा इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है । अबुल फजल की आइने अकबरी में 'तुयार' वंश का उल्लेख मिलता है। (विश्वकोश)
प्रवाद है कि तोमरवंशीय अनङ्गपाल नामक एक राजा ने प्राचीन दिल्ली का पुनरुद्धार किया था । संवत् प्रतिष्ठाता विक्रमादित्य के बाद ७६२ वर्ष तक दिल्ली नगर बिल्कुल उजाड़ था। अन्त में ७३६ ई० में तोमरवंशीय अनङ्ग ने इसे पुनः बसाया । (विश्वकोश)
दिल्ली के दक्षिण पश्चिम में तुयारवती या तोमरावती नाम का एक जिला है। वहाँ आज भी तोमरवंशीय एक सरदार रहते हैं। (विश्वकोश) _ ग्वालियर में प्रायः दो शताब्दी तक एक तोमरवंश ने राज्य किया था। इस वंश के इतिहास लेखक कवि खड्गराय तोमरवंश को पाण्डुवंश का ही एक अंग मानते हैं । (विश्वकोश)
कनिंगहम साहेब को १८६४-६५ ई. में वहाँ के जमिन्दारों से एक वंशपत्रिका मिली थी। शिलालिपि में भी ग्वालियर के राजाओं में आठ तोमरवंशीय राजाओं के नाम पाये जाते हैं। खजराय के इतिहासानुकूल कनिंगहम ने ग्वालियर की तोमरवंश-तालिका जो दी है उसमें ईस्वी सन् १०८१ वाले राजा तेजपाल से लेकर ई० सन् १५१६ वाले राजा विक्रमादित्य तक बीस राजा हुए हैं। इनमें ई० सन् १३७५ वाले राजा वीरसिंह से लेकर राजा विक्रमादित्य तक अन्याय आठ राजाए तो यथार्थ में ग्वालियर के ही राजासिंहासनासीन रहे। (विश्वकोश)
अस्तु हमारे प्रशस्तिगत तोमरवंशीय राजा निम्नलिखित तीन हैं :(3) सजावीरसिंह
ई० सन् १३७५ ) यह काल-गणना विश्वकोश (२) राजा उद्धरणदेव
, १४०० (३) राजा विरमदेव अब मैं प्रशस्तिगत श्लोकों से अपने चरितनायक 'कुशराज' जी का परिचय देता हूं। (१) भूलण (२) जैनपाल*-(इनकी स्त्री का नाम 'लोणा') (३) कुशराज
जौणपाल' यह परिवर्तित नाम इन्हीं का ज्ञात होता है। काश्मीर के विश्वसनीय इतिहास राजतरंगिणी में भी कई जगह "जौणपाल" यह नाम आया है। देखें (राजतरंगिणी) .
सरान, सैराज, रैराज, भवराज, क्षेमराज ये पाँच भाई कुशराज के और थे ! इनमें पाँचवे कुशराज और छठे सबसे छोटे क्षेमराज हैं। (प्रशस्ति से ही यह बात ज्ञात होती है।)
__ ,
,
) से ली गयी है)
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किरण ३ ] इतिहास का जैनग्रन्थों के मंगलाचरण और प्रशस्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध १०६
बही कुशराज राजा वीरमेन्द्रदेव के आश्रय में मन्त्रित्व करते हुए श्रीचन्द्रप्रभतीर्थङ्कर का सुन्दर चैत्यालय बनवाकर अपना नाम अमर कर गये हैं । उन दिनों आप एक बड़े भारी धनीमानी एवं राजसम्मानित जैनी थे इसीलिये पण्डितप्रवर कायस्थ पद्मनाभ जी ने अपनी ग्रन्थसमाप्ति में जैनधर्म के आश्रयभूत कुशराज का संस्मरण किया है। इन्होंने ग्रंथ में पुस्तकरचनाकाल नहीं दिया है । किन्तु तोमरवंशीय राजा वीरमेन्द्र का वंशवर्णन कर अपने ग्रंथ का रचनाकाल (१४०० ई० सन्) का मार्ग पद्मनाभ जी ने परिष्कृत कर दिया है । अब कुजराज की वंशावली नीचे दी जाती है
(१) कुशराज (२) कल्याणसिंह
इस ग्रंथ का लिपिकाल १८१२ है । क्योंकि लिखा हुआ है कि वि० सं० १८१२ मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी रविवार पुनर्वसु नक्षत्र में मूलसंघीय, बलात्कारगण एवं सरस्वती गच्छ के कुन्दकुन्दान्नायान्तर्गत श्रीचन्द्रकीर्त्ति जी की शिष्या श्रीमती पास ( पूर्व ) मती जी के पढ़ने के लिये पं० मायारामजी ने काशी के परमप्रसिद्ध भेलूपुरा मन्दिर में इस ग्रंथ की प्रतिलिपि की । उन दिनों तीन तीन राज्यों के अधिपति राजा बल्वणस्पंधदेव का शासनं चल रहा था । इस राजा के विषय में कोई प्रकाश नहीं डाला जा सकता । उल्लिखित भट्टारक चन्द्रकीर्त्तिजी के भट्टारक देवेन्द्रकीर्त्तिजी कौन हैं यह बात ज्ञात नहीं होती । आपकी पट्टावली -- (1) भट्टारक जिनेन्द्रभूषण (२) भट्टारक महेन्द्रभूषण (३) आचार्यदेव नरेन्द्रकी हैं।
इस छोटे से लेख में मैंने यही दिखाने की चेष्टा की है कि जैनग्रंथों मे मङ्गलाचरण और प्रशस्तियों में अनन्त ऐतिहासिक साधन संचित हैं । आवश्यकता है केवल उनकी आलोचना एवं प्रत्यालोचना करने की ।
* 'तोमर' शब्द एवं वंश का विपुलवर्णन देखने की इच्छा करनेवाले कलकत्ता से प्रकाशित "हिन्दी
विश्वकोश" की हवीं जिल्द देखें ।
+ इनको रल्हो, लक्षणश्री और कौशीरी माम की तीन स्त्रियाँ थीं ।
+ इनकी माँ का नाम 'ल्हो' था। इनकी काम के समान सुन्दर आकृति थी ।
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कतिपय (दि०) जैन संस्कृत प्राकृत ग्रन्थों पर प्राचीन कन्नड टीकायें। .
मूल ग्रन्थ
टीकाकार
समय
विशेष व्यवस्था
संख्या
१९वीं शताब्दी ईस्वी सन् केशव वर्णी | १३५६ ईस्वी सन् अभयसूरि-सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य । वीरनन्दि
मेघचन्द्र विद्यदेव के शिष्य ।
अकलंकाष्टक (सं०) अमितगतिश्रावकाचार , आचारसार अत्मानुशासन आराधनासार कर्मप्रकृति
(प्रा०)
शांतिकीर्ति
| १७५५ १५ वीं शताब्दी लगभग ११५०
"
भास्कर
कल्याणकारक
(सं०)
सोमनाथ
यह पूज्यपादकृत कल्याणकारक का अनुवाद है। इसके रचयिता उग्रादित्य हैं।
"
(प्रा.)
|
शुभचन्द्र दैवज्ञ-वल्लभ
" १२०० , १७००
।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा गणितसार | गीतवीतराग गोम्मटसार चारित्रसार
मा०)
अभयसूरि-सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य ।
(
स.)
- केशव वर्णी प्रभेन्दु मुनि | १५ वीं शताब्दी, प्रभाचन्द्र लगभग १३०० "
१५ वीं शताब्दी ,
चौबीसठाण १६ | ज्वालामालिनी कल्प (सं०)
[ भाग २
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,
माघनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य।
१७ | जिनसंहिता १८ | जैन-सार क्रियासंग्रह १६ | तत्त्वार्थसूत्र
(सं०)
। कुमुदचन्द्र लगभग ११०० ,,
१८वीं शताब्दी,, बालचन्द्र लगभग ११७० ,, चिदानन्द | १८ वीं शताब्दी ,, दिवाकरनन्दि
११७० ई० में स्वर्गस्थ नयकीर्ति के शिष्य।
बालचन्द्र
| १२७३
,
नेमिचन्द्र तथा अभयचन्द्र के शिष्य ।
१७वीं शताब्दी ,,
दशभक्ति (सं० प्रा०) द्रव्यसंग्रह (प्रा.) द्वादशानुप्रेक्षा (१)
धनञ्जय निघंटु (सं०) २६ | धर्मशर्माभ्युदय २७ / नीतिवाक्यामृत २८ | पदार्थसार
पद्मपुराण ३० पद्मावती कल्प ३१ | पंचकल्याणस्तोत्र
१३वीं वि० , लगभग १२६० , १८ वीं शताब्दी ,,
नेमिनाथ माघनन्दि
किरण ३ ] कतिपय (दि.)जैन संस्कृत प्राकृत ग्रन्थों पर प्राचीन कन्नड टीकायें १११
विशेष परिचय देखा भास्कर भाग २ किरण १ कुमुदचन्द्र के शिष्य।
लगभग १५०० ,, लगभग ११७० ,,
मूलग्रन्थोशाधर जी का है। ११७७ ई० में स्वर्गीय नयकीर्ति के शिष्य।
परमात्मप्रकाश
बालचन्द्र
"
३३ | प्रवचनसार ३४ प्रतिष्ठातिलक ३५ | प्रश्नोत्तर-रत्नमाला ३६ | प्रायश्चित्त
" (सं०)
,
विद्यानन्द | १४५५
,
मूलप्रन्थकार ब्रह्मसूरि के पुत्र हैं।
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मूल ग्रन्थ।
टीकाकार।
समय
विशेष व्यवस्था।
११२
, , ,
१५वीं शताब्दी,
बृहत् पंचनमस्कार भद्रबाहु-चरित्र | भद्रबाहु-सामुद्रिक माघनन्दि-संहिता मोक्षप्राभृत यशोधरकाव्य
कुमुदचन्द्र कनकचन्द्र
लगभग १३००,
(प्रा०) (सं०)
रत्नकरण्ड
१६वीं शताब्दी ,
कमलपण्डित
१७वीं शताब्दी,
भास्कर
:
.
..
.
.
.
| रयण-सार . (प्रा०) वर्द्ध मानकाव्य (सं०) विंशतिप्ररूपण , शास्त्रसार-समुच्चय ,
सञ्जनचित्तवल्लभ , ५१ समयसार (प्रा.) ५२ समाधिशतक (सं०) ५३ स्वरूपसंबोधन ५४ ।
कुमुदेन्दु के शिष्य।
पद्मप्रभ माघनन्दि अभिनवश्रुतमुनि बालचन्द्र मेघचन्द्र
लगभग १३००,
, १२६० " , १३६५ "
११७७ ई० के स्वर्गस्थ नयकीर्ति के शिष्य । . प्रायः ११७७ के स्वर्गस्थ नयकीर्ति के शिष्य।
११४८
भाग २
...
| १६ वीं शताब्दी,
..
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,
| १७ वीं | ११०० .
, "
प्रभाचन्द्र
सागारधम मृत सिद्धान्तसार
सिद्धस्तोत्र ५८ सिद्धराशि
__ (सं०)
मूलप्रन्थ आशाधर जी का है।
कल्याणकीर्ति
| क्षत्रचूड़ामणि
क्षपणसार
नोट-यह तालिका 'कन्नड़-कवि-चरिते' भाग १,२,३ के आधार पर तैयार की गई है। बहुत कुछ सम्भव है कि, इसमें और भी कई टीकार्य छूट गई हों जो 'कन्नड़कविचरिते' के रयिता को भी उपलब्ध नहीं हुई हों। इसलिए यह तालिका पूर्ण नहीं कही जा सकती। उक्त 'कविचरिते' के भागों में कई ग्रन्थों का परिशिष्ट में केवल नाम ही दिया गया है। इससे उन ग्रन्थों का विशेष हाल मालूम नहीं हो सका। बल्कि, जिनग्रन्थों पर मुझे सन्देह हुआ उन ग्रन्थों का नाम भी मैंने इस तालिका में शामिल नहीं किया है । जिन प्राकृत, संस्कृत ग्रन्यों के पाठ अशुद्ध मुद्रित हैं या पाठों में संदेह है उन पाठों को इन टीकाओं के मूल से मिलाने से वह दूर हो सकता है। साथ ही साथ यह भी सम्भव है कि, इन कन्नड़-टीकाकारों ने संस्कृत-टीकाकारों को अपेक्षा मूल ग्रन्थों के अर्थ को विशदरूप से खोल दिया हो अतः समालोचनात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन के लिये यह तालिका उपयोगी है।
के० बी० शास्त्री,
किरण ३ ] कतिपय (दि०) जैन संस्कृत प्राकृत ग्रन्थों पर प्राचीन कन्नड टीकायें ११३
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चामुंडराय का चारित्रसार
(ले०-श्रीयुत पं० मिलापचन्द्र कटारिया)
दिगंबर जैनसमाज में "चारित्नसार" नामक ग्रन्थ के रचयिता चामुण्डराय समझे
जाते हैं। प्रन्थ के परिसमाप्तिसूचक गद्य से भी यही ध्वनित होता है। किन्तु प्रन्थ की हालत को देखते हुए चामुंडराय को उसका निर्माता नहीं कह सकते। अधिक से अधिक हम उन्हें संग्रहकर्ता कह सकते हैं । निर्माता और संग्रहकर्ता में भेद है। निर्माता वह होता है जो ग्रन्थ की शाब्दिकरचना का अपनी बुद्धि से प्रणयन करता है। किन्तु संग्रहकर्ता में यह बात नहीं है। वह दूसरों के रचित वाक्यों का संचित कर उसका काई नया नाम धर देता है। 'चारित्रसार' को भी प्रायः यही हालत है। यद्यपि धर्मशास्त्र नये नहीं बना करते। परंपरा से जो वाङ्मय चला आता है उसी के अनुसार कथन उनमें रहता है। और प्रामाणिक भी वे तभी माने जाते हैं। लेकिन यह बात उनके अर्थ के संबंध में है। शब्द से तो वे भी नये बनते हैं। प्राचीन गूढ अर्थ का स्पष्ट करना और अपने शब्दों में कहना यही नवीन धर्मशास्त्रकारों का काम होता है। इस प्रकार की नवीन कृतियों में कहीं कहीं प्राचीन आगमों के वाक्य भी बिना उक्त च लिखे ज्यों के त्यों उद्धृत कर लिये जाते हैं। जैसा कि सर्वार्थसिद्धि के वाक्य राजवार्तिक में और राजवार्तिक के वाक्य श्लोकवार्तिक में पाये जाते हैं। किन्तु इनके कर्ताओं ने जितना कुछ दूसरों से लिया है उससे कई गुणा अपनी बुद्धि से बनाकर रक्खा है। इसलिये ऐतों को तो ग्रन्थकर्ता ही कहने चाहिये। पर जो ग्रन्थ का बहुभाग या समग्र ही कलेवर दूसरों के रचे वाक्यों से भरते हैं और अपनी बुद्धि कुछ भी खर्च नहीं करते, या करते भी हैं तो इतनी सी जैसे ऊंट के मुंह में जीरा, वे उस ग्रन्थ के निर्माता नहीं कहला सकते। अपना आटा हो और दूसरे का नमक तो वह रोटी अपनी कही जायगी। पर दूसरे का आटा हो और अपना केवल नमक, तो वह रोटी दूसरे ही की कही जायगी। चारित्नसार के संबंध में भी यही बात घटित होती है। चामुंडराय की निज की रचना या तो उसमें कुछ भी नहीं है और हो भी तो नमक के बराबर-बाकी आटा सब दूसरों ही का उधार लिया हुआ है। यह बात चारित्रसार और तत्वार्थराजवार्तिक को तुलनात्मक ढंग से अध्ययन करनेवाले को स्पष्टतः दृग्गोचर हो सकती है। राजवार्तिक में से अनेक जगह का चारित्र-विषयक गद्य-भाग उठा
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किरण ३)
चामुण्डराय का चारित्रसार
उठा कर चारित्रसार में ज्यों का त्यों या कुछ मामूली हेरफेर के साथ धर दिया गया है। चारित्नसार का करीब तीन तिहाई हिस्सा राजवार्तिक की रचना से ही भरा हुआ है। नीचे हम दोनों के वे स्थान बताते हैं जहाँ एक समान गद्य पाया जाता है
चारित्रसार पृष्ठ २ पंक्ति चौथी (राजवार्तिक अध्याय ६ सूत्र २ वार्तिक ३) चारित्रसार पृष्ठ २-३ में सम्यक्त्व का अष्टांगस्वरूप (राजवार्तिक अध्याय ६ सूत्र २४ वार्तिक १) चार सा० पृ०४ सम्यक्त्व के अतीचार (रा० वा० अ०७ सू० २३) चा० सा० पृ० ४ शल्यविवेचन (रा. वा० अ० ७ सू० १८) चा० सा० पृ० ५ पंचाणुव्रत के लक्षण (रा. वा० अ०७ सूत्र २०) चा० सा० पृ० ५ से ७ तक अणुव्रतों के अतीवार (रा० वा० अ० ७ में देखो इस विषय के सूत्र) चा० सा० पृ० ८ से १५ तक शीलसप्तक के सिर्फ लक्षण और अतीचार (रा० वा० अ०७ में देखो इस विषय के सूत्र) चा० सा० पृष्ठ २२-२३ सल्लेखना का लक्षण
और अतीचार (रा. वा० अ० ७ सू० २२-३७) चा० सा पृ० २४ से २६ तक सोलह कारण भावनायें (रा० वा० अ०६ सूत्र २४) चा० सा० पृष्ठ २७ से ३० तक दशधर्मों का विवेचन (रा० वा० अ० ६ सू० ६ में बिल्कुल यही है)। फर्क इतना सा है कि यहाँ पहिले अलग अलग धर्म का स्वरूप बताकर वार्तिक २८ में दसों ही का विशेष कथन किया है।
और चारित्रसार में इस विशेष कथन को प्रत्येक धर्म के वर्णन के साथ ले लिया है तथा यहीं पर चारित्रसार में सत्य के १० भेदों का जो वर्णन है वह (राजवार्तिक अ० १ सूत्र २०, वा० १२ वें पर से लिया गया है) चा० सा. पृ० ३० समितियों का कथन (रा० वा. अ० ६ सू० ५) चा० सा० पृ. ३२ से ३७ तक अष्ट शुद्धियों का वर्णन (रा. वा० अ०६ सू०६ वा० १६) चा० सा० पृ० ३७ ३८ चारित्रकथन (रा० वा० अ० ६ सू० १८) चा० सा. पृ०३६ वाक् मन का कथन (रा. वा.. अ०५ सू. १६ वा० १५ तथा २०) चा० सा० पृ० ३६ संरंभ-समारंभ-आरंभ-कृत-कारितानुमत के लक्षण (रा. वा० अ० ६ सू० ८) चा० सा०पू० ४० से ४३ तक पंच पापों के लक्षण और उनकी भावनायें (रा० वा० अ० ७ में इस विषय के सूत्र देखो। इसी अध्याय के स्वं सूत्र में जो पंच पापों का विशेष कथन है उसे ही चारित्रसार में प्रत्येक पाप के वर्णन में छाँट लिया है) चा० सा• पृ० ४४ (रा० वा० अ०७ सूत्र १० की व्याख्या) चा० सा0 पृष्ठ ४५ से ४७ तक का कथन (रा. वा० अ० ६ सू० ४६-४७) चा० सा० पृ०४८ से ५७ तक बाईस परीषहों का वर्णन (रा. वा० अ० ६ सूत्र ८ से १७ तक) चा० स० पृ० ५६ से ६३ तक तपोवर्णन (रा. वा० अ० ६ सूत्र १६-२०-२२, किस दोष में कैसा प्रायश्चित्त लेना यह रा. वा अ० ६ सूत्र २२ वा० १० में समूचा बता दिया है । इसे ही चारित्रसार में हरण के प्रायश्चित्त के वर्णन में उद्धृत कर लिया है) चा. सा० पृ० ६४ को अन्तिम कुछ पंक्तियां (रा० वा० अ० ६ सू० २२ वा १० का अन्तिम अंश)
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भास्कर
[भाग २
चा० सा०पृ० ६५ से ६८ तक (रा० प्रा० अ०६ सू० २३ से २६ तक) चा० सा० पृ० ७६ (रा. वा० अ० ६ सू०४४) चा० सा० पृष्ठ ७८ से ८६ तक द्वादश भावनाओं का वर्णन (रा० वाअ०६ सूत्र ७ से लिया गया है। यहाँ चारित्नसार पृष्ठ ८० का "तत्र यावंतो लोकाकाशप्रदेशाः.........' से लेकर “व्यवहारकालेषु मुख्यः" तक का पाठ रा० वा० अ०५ सूत्र २२ वा० २५-२६ से लिया है) चा० सा० पृष्ठ ६३ से १०१ तक ऋद्धियों का वर्णन* (रा. वा० अ०३ सूत्र ३६) चा० सा० पृष्ठ १०२ से १०३ तक त्याग-आकिंचन्य ब्रह्मचर्य का स्वरूप (रा० वा० अ० ६ सूत्र ६ वा० २१-२२-२८ संभव है चारित्रसार में इस तरह के
और भी उद्धरण हों। जितने हमारी नजरों से गुजरे वे यहां हमने लिखे हैं। .. पाठक देखेंगे कि चारित्रसार में राजवार्तिक से कितना मसाला लिया गया है। चारित्रसार के कुल १०३ पृष्ठ हैं। जिनमें से करीब २५ पृष्ठ छोड़कर बाकी सारा प्रन्थ राजवार्तिक से चर्चित है। एक तरह से इसे राजवार्तिक का चारित्र भाग कहना चाहिये। - यहां यह कह देना भी अनुचित न होगा कि मुद्रित राजवार्तिक में अशुद्धियों को भरमार है। यही क्या अन्य अनेक जेनग्रन्थों का प्रायः यही हाल है। खासकर सैद्धांतिक ग्रन्थों की छपाई में तो पूर्ण ध्यान इस बात का अवश्य रहना चाहिये कि कहीं काई अशुद्धि न रहने पावे। किन्तु क्या कहा जाय, जैनग्रन्थ-प्रकाशकों का अजब हाल है। उनकी कार्यप्रणाली इस संबंध में बड़ी ही अव्यवस्थित है जो महान खेदजनक है। . चारित्रसार से राजवार्तिक की कई अशुद्धियाँ दूर की जा सकती हैं। चारित्रसार भो. अशुद्धियों से खाली नहीं है। इसकी अशुद्धियाँ भी राजवार्तिक से दुरुस्त हो सकती हैं। क्योंकि दोनों में अशुद्धियाँ एक स्थानीय नहीं हैं। अस्तु,
कुछ लोग शायद यहाँ यह कहने का भी दुःसाहस करें कि "अकलंकदेव ने ही चारित्रसार से मसाला लेकर राजवार्तिक में रक्खा हे" ऐसा कहनेवालों को यह समझ रखना चाहिये कि अकलंकदेव चामुंडराय से लगभग दो सौ वर्ष पहिले हुये हैं। तब उन्होंने चामुंडराय की कृति में से कुछ लिया हो यह कैसे संभव हो सकता है ? इसके अलावा जिनसेन ने आदिपुराण में अकलंकदेव का स्मरण किया है। और चामंडराय ने अपने चारित्रसार पृष्ठ १५ में "तथा चोक्तं महापुराणे" कहकर आदिपुराण का एक पद्य उद्धृत किया है। इससे भी चामुंडराय अकलंकदेव के उत्तरवर्ती सिद्ध होते हैं। बल्कि चामुंड
* छापे की भूल से यहां दो एक स्थान में पंक्तियां उलट पलट हो गयी हैं, जिससे वर्णन का सिल-सिला टूट गया है। खेद है कि इस भूल को सूचना ग्रन्थ भर में कहीं नहीं दी है। ऐसी ही गड़बड़ पृष्ठ ३३ में भी हुई है।
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किरण ३]
चामुण्डराय का चारित्रसार
ق م م
राय ने ही खुद चारित्रसार के अन्त में एक पद्य देकर इस विषय को खूब स्पष्ट कर दिया है। चामुंडराय लिखते हैं कि “तत्वार्थराजवार्तिक, राद्धांतसूत्र, महापुराण और आचारप्रन्थों में जो विस्तार से कथन है उसी को संक्षेप में इस चारित्रसार में मैंने कहा है।" वह पद्य यह है--
तत्वार्थराद्धांतमहापुराणेष्वाचारशास्त्रेषु च विस्तरोक्तम् ।
पाख्यात्समासादनुयोगवेदी चारित्रसारं रणरंगसिंहः॥ इस पद्य में प्रयुक्त "तत्त्वार्थ" शब्द का अर्थ "तत्वार्थराजवार्तिक" करना चाहिये। तत्वार्थ के साथ राद्धांत नहीं लगाना चाहिये। राद्धांत नामका अलग ग्रन्थ है। उसका उक्तं च चास्निसार पृष्ठ ७१ में "आदाहीणं पदाहीणं......" आदि प्राकृत गद्य दिया है। आचा. रशास्त्र यहाँ मूलाचारादि समझना चाहिये । चारित्रसार में मूलाचार की भी गाथायें उक्तं च रूपसे पाई जाती हैं।
इससे यह साफ सिद्ध हो जाता है कि चामुंडराय न केवल अकलंकदेव के बाद के ही किन्तु महापुराणकार जिनसेन और गुणभद्र के भी बाद के हैं। यही समय नेमिचंद्राचार्य का है। क्योंकि चामुंडराय और नेमिचन्द्र की समकालीनता निर्विवाद है। अतः इतिहासज्ञों ने जो दूसरे प्रमाणों से उनका समय ११वीं शताब्दी प्रकट किया है वह बिल्कुल ठीक जान पड़ता है। और अब तो उसमें काई संदेह ही नहीं है।
इस लेख में जिस चारित्रसार के पृष्ठों का उल्लेख किया है वह 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला'द्वारा प्रकाशित समझना चाहिये। __ सं० नोट-कटारिया जी का यह लेख विचारणीय है। इस “चारित्रसार" के संग्रह ग्रंथ सिद्ध होने पर भी मैं समझता हूं कि पाठकों की दृष्टि में विद्वद्वरेण्य चामुण्डराय जी का पाण्डित्य खटक नहीं सकता। क्योंकि इनके द्वारा रचित आजतक के उपलब्ध कन्नडगद्य ग्रंथों में सर्वप्रथम "आदिपुराण'' ही इनकी विद्वत्ता का ज्वलन्त दृष्टान्त है। इसके अतिरिक्त यह भी निर्विवाद सिद्धान्त है एवं विज्ञ कटारिया जी भी सर्वथा सहमत होंगे कि हमारे यह चामुण्डराय जी संस्कृत के भी अच्छे ज्ञाता थे। इस चारिखसार में जिस प्रकार इन्होंने राजवार्तिकादि ग्रंथों से प्रचुर सहायता लेकर उसका उल्लेख नहीं किया है उसी प्रकार अपने कन्नड आदिपुराण में भी बीच बीच में प्रस्तुत विषय को प्रमाणित करने के लिये चामुण्डराय ने भिन्न भिन्न ग्रंथों के कई संस्कृत प्राकृत पद्यों को उद्धृत किया है। पर वहाँ भी उनका उल्लेख नहीं करने से कुछ विद्वानों ने उन पद्यों को इन्हीं की रचना समझ रक्खा था। इसी भ्रम को दूर करने के लिये मैंने "विवेकाभ्युदय" (मैमैसूर) के एक लेख में सप्रमाण सिद्ध कर दिया है कि ये पद्य अमुक अमुक ग्रंथ के हैं ।
के० बी० शास्त्री
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भास्कर की प्रथम किरण में प्रकाशित श्रीमहावीर कुमार के तिरंगे चित्र का परिचय
श्रीमहावीरावतरण
- २५०० वर्ष पहले भारतवर्ष धर्म के नाम पर होनेवाले अत्याकाँप उठा था। स्वार्थी और सत्ताधारी लोग समाज पर मनमाने अत्याचार करने लगे थे । निरर्थक बलिदान और अर्थशून्य अश्वमेध, गोमेध, अजमेध और नरमेध तक धर्म के नामपर खुले आम होने लग गये थे । सर्वत्र लाहि ! वाहि !! की करुणध्वनि से धरा प्रतिध्वनित हो रही थी । प्राणिमात्र अधीर हो उठे थे । और चातक की भाँति किसी अतिaाता की आशा में सभी लोग टकटकी लगाये बैठे थे। ठीक उसी समय भगवान महावीर का स्वर्ग से अवतरण हुआ । संसार में शान्ति का साम्राज्य हो गया । बलिवेदियाँ और यज्ञ-कुण्ड शान्त हुए । अत्याचार एवं अनाचार विलीन हो गये । प्रेम का प्रवाह बह चला । रक्त- रञ्जित वसुन्धरा पुनः पुण्यभूमि बनी । " अहिंसा परमोधर्मः " का बिगुल पुनः बज गया ।
पावन
के में रात्रि के पिछले प्रहर का समय है। चारो ओर निस्तब्ध आषाढ़ मास शुक्लपक्ष शान्ति का ही दौर दौरा है । नीचे आषाढ़ के बादल हैं । प्राणतेन्द्र के रूप में भगवान महावीर पुष्पोत्तर विमान से चय कर रहे हैं । छत्राकार श्वेत पुष्पपुञ्ज पुष्पक विमान का परिचय दे रहे हैं । मुकुट में बैल का चिह्न प्राणतेन्द्र के प्रकट करता है । १४वीं सीढ़ी से उतरना प्राणत नामक १४वें कल्प (स्वर्ग) का सूचित करता है । सन्तप्त संसार को दाहिने हाथ से अभय प्रदान करते हुए भगवान उतर रहे हैं।
दाहिनी ओर मातंग यक्ष ओर बायीं ओर सिद्धायिनो यक्षिणी भगवान वर्द्धमान का सूचित करते हैं । यक्ष का वर्ण हरित और वाहन हाथी है । 1 ऊपर दोनों हाथों में धर्मचक्र धारण किये हुए हैं। वरद और अभयमुद्रा है । इसी प्रकार यक्षिणो का वर्ण सुवर्ण वाहन हंस है । दाहिने हाथ में पुस्तक और वाम हस्त वरदरूप में है । नीचे बलिवेदी और
यज्ञकुण्ड है 1
छोटेलाल जैन
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जैन-सिद्धान्त-भवन, आरा
की संक्षिप्त रिपोर्ट (वीर सं० २४६०-६१) १-चीर सं० २४६० ज्येष्ठ सुदी ५ से वी० सं० २४६१ ज्येष्ठ सुदी ४ तक ३६०५ महाशयों ने भवन से लाभ उठाया है। विशिष्ट दर्शकों में से श्री धनंजय प्रसाद राय बी० ए०, सहदेव सहाय सिन्हा, बी० ए०, बी० एल० (डालटेनगंज), चन्द्रकुमार शास्त्री, न्यायकाव्यतीर्थ, एम. ए०, एल. एल. बी० (मुजपफरनगर), प्रो० डब्ल्यू. नौरमैन ब्राउन (पेन्सिलभेनिया युनिवसिटी, अमेरिका), एम० आर० खार्डेकर बी० ए०, असिस्टेन्ट एडिटर बाम्बे क्रानिकल (बम्बई), गौरीलाल शास्त्री (देहली), रामशरण उपाध्याय (हेडमास्टर ट्रेनिङ्ग स्कूल, पटना)
आदि महाशयों ने अपनी अमूल्य सम्मति प्रदान कर भवन का प्रबन्ध, ग्रन्थ-संग्रह आदि को प्रशंसा की है। - २-इस वर्ष भवन में विविध भाषाओं की मुद्रित पुस्तके (संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी आदि) ६४, अंग्रेजी की ४००; कुल ४६४ संगृहीत हुई हैं। . इस साल के पुस्तक दातारों में नागरी-प्रचारिणी सभा आरा, राजकीय पुस्तकालय मैसूर, श्रीमान् चम्पतराय जी आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
३-इस वर्ष संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के निम्नलिखित ग्रन्थ लिखवा कर संगृहीत किये गये:-(१) व्रततिथि निर्णय (सिंहनन्दी), (२) नेमिपुराण (ब्र० नेमिदत्त), (३) आत्मानुशासनम् (संग्रह), (४) आत्मतत्व-परीक्षण (राजा देवराज), (५) प्रमाण-प्रमेयकलिका (नरेन्द्र सेन), (६) जम्बूस्वामी चरित्र (राजमल्ल), (७) सुखबोध (योगदेव), (८) मुनिवंशाभ्युदय (चिदानन्द), (६) जैनेन्द्र पुराण का अवशिष्ट भाग । इस कार्य में राजकीय पुस्तकालय मैसूर, वाबू पन्नालाल अग्रवाल देहली से विशेष सहायता मिली है, अतः ये धन्यवाद के पात्र हैं।
४-इस वर्ष ३८० प्रन्थ भवन से बाहर दिये गये। इनसे स्थानीय महाशयों के अतिरिक्त उदयपुर, अजमेर, मैसूर, मद्रास, उज्जैन, पटना, कलकत्ता, बम्बई आदि भिन्न भिन्न स्थानों की संस्थाओं और विद्वानों ने भी लाभ उठाया है।
-इस साल सरस्वती-भवन बम्बई तथा रायचन्द्र आश्रम, अगास के लिये यहां से 'जयधवल' लिखवाया जा रहा है।
६- इस वर्ष प्रकाशन-विभाग में काई पृथक् ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ। प्रस्तुत 'भास्कर' में ही तीन ग्रन्थ धारावाहिक रूप से निकल रहे हैं जो आप पाठकों के सामने मौजूद हैं ।
७-इस वर्ष विशाल भारत, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सरस्वती, जैनमित्र, जैनगजट, (हिन्दी) वीर, जैनदर्शन, खण्डेलवाल जैन हितेच्छु, जैन महिलादर्श, दिगम्बरजैन, जैनबोधक, Jain Gazette, Indian Culture, Indian Historical quarterly, Journal of B. & 0. Reserch Society, Indian Library Journal, सूर्योदय, (संस्कृत), उद्यानपत्रिका (संस्कृत), कर्नाटक-साहित्य-परिषत्-पत्रिका (कन्नड), प्रबुद्धकर्णाटक (कन्नड) आदि पत्र भवन में आये हैं। इनमें से अधिकांश पत्र भेंटरूप में ही प्राप्त हुए हैं। अतः उसके संचालक एवं सम्पादक विशेष धन्यवाद के पात्र हैं।
मंत्री-जैन-सिद्धान्त-भवन, पारा
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ग्रंथमाला-विभाग
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प्रशस्ति-संग्रह
(सम्पादक–के भुजबली शास्त्री)
(गतांक से आगे) अन्तिम भाग
श्रीमूलसंधे मुनिशीलतुंगे श्रीकौन्दकुन्दे वरसूरिवृन्दे । वंशे च देशीयगणे गुणाढ्ये मह्यामतुच्छे घनपुस्तगच्छे ॥४११॥
आसीदसीमापनसोगेपूर्वोऽवल्यम्बुराशिर्गुणरत्नराशिः। तस्मादभूश्चन्द्र इव व्रतीन्द्रः श्रीदेवकीर्तिर्जितमारमूर्तिः ॥४१२॥ सद्गोत्रजस्तदनुवृत्तरथाधिरूढः सच्छीलवाजिरखिलात्मसुखप्रवृत्तिः । दोषाकराक्रमणचारुकरप्रचारो हंसोऽप्यसौ ललितकीर्तिरभूदहसः ॥४१३॥ श्रीललितकोर्तियतिमहदुदयगिरेरभवदागममयूखः। कल्याणकीर्तिमुनिरविरखिलधरातलबोधनसमर्थः ॥४१४॥ केचित्काव्यकथाप्रथाकुशलिनः केचिश्च सिद्धान्तिनः। केचिद् व्याकरणप्रयोगनिपुणाः केचिन्नरास्तार्किकाः ॥ केचित्तीव्रतपःप्रभावकलिताः केचित्कवित्वश्रमाः। केचिद्वाचकचासुरीपरिचितास्ते तस्य शिष्या बभुः॥४१५॥ त्रिभुवनकलशोऽपि नेमिनाथः कलशमगादथ भैरवेन्द्रतो जिनेन्द्रः । तदुदयभुजि पाण्ड्यदेवनाम्नि ह्यवति चकार कलक्षितिं क्षितीशे ॥४१॥ अन्यदा ललितकीर्तिमुनीन्द्रः संयुतामलतपोधनयुक्तः । तत्क्षितीशकृतचैत्यनिवासं रक्षिताखिलगुणः प्रययौ सः ॥४१॥ एकस्मिन्दिवसे मुनिनाथो नाकफलां जिनपतिपदपूजाम् ।। श्रोतृजनेभ्यो विशदीकुर्वन् मातृवचो निचयात्स च दन्यौ ॥४१॥ अल्पं कथावतारं महदिदमखिलं सत्पुराणप्रसिद्धम् । काव्यं पूजाप्रभावं तदलघु गुरु तत् कार्यमल्पगम्यम् । तत्तत्संगृह्य विद्वत्परिषदुपनिषद्भूतवागर्थगुम्फम् सिद्ध निर्धतदोषं श्रुतजनवितरत्तत्वविज्ञानसौख्यम् ॥४१॥ एते सन्मुनिवृषभाः कवित्वभाजो वादीन्द्राः कति कति च प्रवाग्मिनोऽमी। अध्यात्मप्रसरण........................किञ्च एव संबभूवुः ॥४२०॥
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भास्कर
[ भाग २
अयञ्च कल्याणयशा मुनीश्वरः सुकाव्यतर्कागमशब्दवैभवः । पुराणपारीगण इह प्रसादनः समर्थ एवेति विचिन्त्य स व्रती ॥४२१ ॥ मामाहूय व्रतिकुलतिलको मिव विशदी कुर्वन् । दन्तत्विभिर्मयि मुनिरवदन्मस्तकविस्तृतकरनीरेजः ॥४२२॥ एकान्तोद्धतवादिपर्वतशिरो वज्रायते वागियम् साहित्यार्णवपूर्णचन्द्रति मुने कल्याणकीर्त्तस्तव । मन्दारद्रुमगुच्छविच्युतसुधासंभूतमन्दाकिनी
स्वर्णाम्भोरुहवासभासुररमानेत्रांशुसंवादिनी ॥४२३॥
अगमंगलनिवासभारत संगतार्थरचनां च तावकीम् । मंगलां कुरु जिनेज्यया लसत्तुंगवैभवयुतां गुणस्तुतेः ॥४२४॥ इति मुनिपतिवाग्भिः प्रेरितेनामलाभिः लघुतरमतिवाचा शक्तिसाम्राज्यभाजा । अपि च गुरुसमीपे यन्मयारंभि पूर्वम् ननु किमकरणीयं सत्पराधीनवृत्तेः ॥४२५॥ चारित्रवाराशिसुधाकरेण कल्याणकीर्त्ति (वतिना) मुनिनाऽभ्यधायि । जैनेन्द्रयज्ञस्य फलोदयाख्यं काव्यं जयत्वातितिचन्द्रतारम् ॥३२६ ॥ द्विसहस्रमिदं प्रोक्तं शास्त्रं ग्रन्थप्रमाणतः । पञ्चाशदुत्तरैः सप्तशतश्लोकैश्च संगतम् ॥४२७॥ पञ्चाशत्रिशतीयुक्तसहस्रशकवत्सरे ।
लवंगे श्रुतपञ्चम्यां ज्येष्ठे मासि प्रतिष्ठितम् ॥ ४२८ ॥
इत्यार्षे श्रीमत्कल्याणकीर्त्तिमुनीन्द्रविरचिते जिनयज्ञफलोदये विप्रभट्टहेमप्रभादिकृत जिनयज्ञाष्टविधानाख्यवर्णनं नाम नवमी लम्बः समाप्तः ।
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इसके कर्ता मुनि कल्याणकीर्त्ति कार्कल के मठाधीश ललितकीर्त्तिजी के शिष्य थे । इनका प्रन्थनिर्माण समय शालिवाहन शक १३५० है तथा यह पाण्ड्य राजा के शासनसमय में विद्यमान थे। इस ग्रन्थ के रचयिता आदि पर चौवीसवं वर्ष के दिगम्बर जैन मासिक पत्र के विशेषाङ्क (१-२ ) में मैंने कुछ विस्तृत रूप से ऐतिहासिक प्रकाश डाला है ।
afa याकीर्तिजी के गुरु ललितकीर्तिजी भैरवराजवंश के क्रमागत राजगुरु हैं। आज भी कार्कल मठ की गद्दी पर बैठनेवाले भट्टारकों का वही परम्परागत ललितकीर्तनाम चलाता है। इस "जिनयज्ञफलोदय" के "पञ्चाशत्रिशतीयुक्तसहस्रशकवत्सरे । लवंगे श्रुतपञ्चम्यां ज्येष्ठे मासि प्रतिष्ठितम् ॥” इस श्लोक से इनका समय शक सम्वत्
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किरण ३ ]
प्रशस्ति-संग्रह
१३५० सिद्ध होता है। मुनि महाराजजी ने उसी ग्रन्थ के निम्नांकित श्लोक में भैरवराज तथा उनके पुत्र पाण्ड्यदेव का इस प्रकार उल्लेख किया है :
. "त्रिभुवनकलशोऽपि नेमिनाथः कलशमगादथ भैरवेन्द्रतो जिनेन्द्रः। तदुदयभुजि पाण्ड्यदेवनाम्नि ह्यवति चकार कलक्षिति क्षितीशे।” इन दोनों में से भैरवरस ओडेय का समय शक सम्वत् १३४० (ई० सन् १४१८) एवं पाण्ड्यरोज का समय शक सं० १३५३ (ई० सन् १४३१-३२) माना जाता है।
भैरवराज का काल कवि के द्वारा उल्लिखित श्लोक में जिन नेमिनाथ तीर्थङ्कर का उल्लेख किया गया है उन्हीं के मन्दिर के दरवाजे पर लगे हुए शिलालेख से लिया हुआ है। पाण्ड्यराज वही वीरपाण्ड्य भैरवरस ओडेय हैं जिन्होंने कार्कल में बाहुबली स्वामी की विशाल एवं मनोश मूर्ति को स्थापित कर अपने नाम को अमर कर दिया है। बाहुबली स्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा शक सम्बत् १३५३ (ई० सन् १४३१-३२) में हुई थी। यह बात मूर्ति की बगल में लगे हुए संस्कृत एवं कन्नड शिलालेखों से ज्ञात होती है। इस शुभावसर पर प्रसिद्ध विजयनगराधीश द्वितीय देवराय भी आमन्त्रित किये गये थे। यह प्रतिष्ठा-महोत्सव बड़े समारोह से मनाया गया था। प्रशस्तिगत इस "देवचन्द्रमुनीन्द्रार्यो दयापालः प्रसन्नधीः।” श्लोकांश से यह भी विदित होता है कि ललितकीर्तिजी को देवचन्द्र नाम के एक दूसरे शिष्य भी थे। कवि कल्याणकीर्तिजी के गुरू ललितकीर्तिजी मूलसंघ, कुन्दकुन्दान्वय, देशीयगण, पुस्तकगच्छ के पट्ट-क्रमागत भट्टारक थे। इन भट्टारकों का मूलस्थान मैसूर राज्यान्तर्गत "हणसोगे" था । प्रशस्तिगत ४१२ वें श्लोक से ज्ञात होता है कि ललितकीतिजी के गुरु देवकीर्तिजी थे। विदित होता है कि यह ललितकीर्तिजी अन्यान्य विषयों के अच्छे मर्मज्ञ थे। क्योंकि कल्याणकीर्तिजी ने इस प्रशस्ति में दिखलाया है कि काव्य, व्याकरण, न्याय, सिद्धान्तादि विषयों के शाता कई शिष्य और भी ललिलकीर्तिजी के मौजूद थे। ___ कल्याणकीर्त्तिजी ने ग्रन्थ रचना का उद्देश ग्रन्थ के अन्त में यों बतलाया है कि एक बार मेरे पूज्य गुरुदेव ललितकोर्तिजी ने बहुतेरे श्रोताओं को जिनपूजा का फलोपदेश देने के पश्चात् यह कहा कि मैंने यह पूजाफल संक्षेप में वर्णित किया है-पुराणों में इसका विस्तृत विवरण है। साथ ही साथ मुझे योग्य समझ कर उन्होंने एतद्विषयक एक ग्रन्थ-प्रणयन करने का आदेश भी दिया। उन्हीं की आज्ञा का पालन-फलस्वरूप यह जिनयक्ष फलोदय है।
निम्नलिखित श्लोक के आधार पर इस ग्रन्थ की श्लोक-संख्या दो हजार सात सौ पञ्चास (२७५०) सिद्ध होती है :
"विसहस्रमिदं प्रोक्तं शास्त्र प्रन्थप्रमाणतः। पञ्चाशदुत्तरैः सप्तशतश्लोकैश्च संगतम् ॥"
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भास्कर
[ भाग २ - "कर्णाटक कविचरिते" के द्वितीय भाग से ज्ञात होता है, हमारे यह कल्याणकीर्तिजी निम्नलिखित प्रन्थों के भी रचयिता हैं :
(१) ज्ञानचन्द्राभ्युदय (२) कामनकथे (३) अनुप्रेते (४) जिनस्तुति (५) तत्त्वमेदाष्टक (६) सिद्धराशि। इन ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय क. कविचरिते के मान्य सम्पादक ने अपने ग्रन्थ में दे दिया है। इस कवि का लिखा हुआ संस्कृत भाषाबद्ध एक यशोधरचरित एवं कन्नड में फणिकुमार-चरित भी हैं। यशोधरचरित की श्लोक सं० १८५० और रचना-समय शक सं० १३७५ है। इस प्रन्थ का आधार गन्धर्व कवि का प्राकृतग्रन्थ है और इसकी रचना पाण्ड्य नगर (कार्कल) के गोम्मटेश्वर चैत्यालय में हुई थी। फणिकुमार. वरित का प्रणयनकाल शक सं० १३६४ है। ताड़पत्राङ्कित ये दोनों प्रन्य भवन में मौजूद हैं। भवन के संगृहीत ताड़पत्राङ्कित “चिन्मय-चिन्तामणि" नामक कन्नडपद्यात्मक लघुकलेवर प्रन्थ भी संभवतः इन्हीं कल्याणकीर्ति का हो।
(८) ग्रन्थ नं.२७
षड्दर्शन-प्रमाण-प्रमेयानुप्रवेश
कर्ता-शुभचन्द्र
-
विषय-न्याय
भाषा-संस्कृत चौडाई ४।। इञ्च
लम्बाई ८। इञ्च
.
पत्रसंख्या २४
मङ्गलाचरण साधनन्तं समाख्यातं व्यक्तानन्तचतुष्टयम् । त्रैलोक्ये यस्य साम्राज्यं तस्मै तीर्थकृते नमः॥
मध्य भाग (पूर्व पृष्ठ १० पंक्ति ३य)
अपरं च द्रव्यतत्त्वादिनित्यद्रव्यवृत्तयोंऽत्याविशेषाः अयुतसिद्धानामाधाराधेयभूतानां यः सम्बन्धः इहेदं प्रत्ययहेतुः स समवायः। प्रत्यक्षलैङ्गिके वे एव प्रमाणमिति वैशेषिक
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२१
किरण ३ ]
दर्शनसमासः । सांख्यैस्तु वत्सनिजबुद्ध्या परिकल्पितोऽयं निवृतिनगर्योः पन्थाः । यदुत पञ्चविंशतितत्त्वपरिज्ञाना निःश्रेयसाधिगमः । तत्त्र भयो गुणाः । सत्त्वं रजस्तमश्च । तत्र प्रसादलाघवप्रसवानभिषंगद्वेषप्रीतयः कार्य सत्वस्य । शोकतापस्वेदस्तम्भोगप्रद्वेषाः कार्य रजसः । मरणसाधनबीभत्सदैन्यगौरवाणि तमसः कार्यम् । ततः सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः सैव प्रधानमित्युच्यते ।
प्रशस्ति :
प्रशस्ति-संग्रह
जयति शुभचन्द्रदेवः कण्डूगणपुण्डरीकवनमार्त्तण्डः । चण्डविदण्डदूरो राद्धान्तपयोधिपारगो बुधविनुतः ॥
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इस लघुकलेवर ग्रन्थ में विद्वद्वर शुभचन्द्रदेव ने षड्दर्शनों के प्रमाण और प्रमेय का संक्षिप्त परिचय दिया है। शुभचन्द्र नाम के कई विद्वान् हुए हैं। "दिगम्बर जैन ग्रन्थकर्त्ता और उनके ग्रन्थ" के अनुसार निम्न लिखित पाँच (?) शुभचन्द्र के नाम उपलब्ध होते हैं:
(१) शुभचन्द्राचार्य (ज्ञानार्णव के कर्ता--जीवनकाल ११वीं शताब्दी*) (२) शुभचन्द्रभट्टारक (जीवनकाल वि० सं० १४५०) (३) शुभचन्द्र ( प्रसिद्ध पाण्डव-पुराणादि अन्यान्य कई ग्रन्थों के कर्त्ता - जीवन काल वि० सं० १६८०) (४) शुभचन्द्राचार्य (संशयिवदनविदारण के कर्ता- जीवन काल ) (५) शुभचन्द्र ( करकराडु महाराजचरित्र आदि जीवन - वि० सं० १६११) पाण्डवपुराणादि के कर्त्ता भट्टारक शुभचन्द्र का जीवनकाल प्रेमी जो के उक्त ग्रन्थ में वि० सं० १६५० लिखा हुआ है। किन्तु यह समय मुझे भ्रमपूर्ण मालूम होता है। क्योंकि पाण्डवपुराण की निम्नाङ्कित प्रशस्ति से यह बात स्पष्ट ज्ञात हो जाती है कि उनका समय वि० सं० १६०८ है :
"श्रीमद्विक्रमभूपतेर्द्वि कहतस्य षष्ठे संख्ये शते (?) रम्याष्टाधिकवत्सरे सुखकरे भाद्र द्वितीयातिथौ ।
श्रीमद्वाग्वरनीवृतीदमतुले श्रीशाकवाटे पुरे
श्रीमच्छ्रीपुरुधानि च विरचितं स्थेयात्पुराणं चिरम् ॥
पाण्डवपुराण के कर्त्ता से भिन्न नहीं है ।
इससे यह भी विदित होता है कि करकराडु महाराजचरित्र के रचयिता शुभचन्द्र क्योंकि जीवनकाल में केवल तीन वर्ष की दूरी प्रारंभ में प्रेमी जी के द्वारा लिखित
*रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला में प्रकाशित ज्ञानार्णव "श्रीशुभचन्द्राचार्य का समय निर्णय" के आधार पर ।
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२२
[ भाग २
अधिक नहीं कही जा सकती है एवं करकण्डु महाराज का चरित्र भी दोनों शुभचन्द्र की रचना में आगया है । फिर भी यह अनुमानपरक है। प्रशस्ति एवं रचनाशैली आदि से इसका प्रकृत निर्णय किया जा सकता है । पाण्डवपुराण की प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि "संशयिवदनविदारण" के कर्त्ता पाण्डवपुराण के कर्ता शुभचन्द्र से भिन्न नहीं हैं पाण्डवपुराण और संशयिवदनविदारण के कर्त्ता शुभचन्द्र का भिन्न भिन्न मानने की धारणा में मुख्य कारण यह हो गया है कि संशयिवदनविदारण प्रन्थ का प्रतिलिपिकाल संग्रहकर्ता को वि० सं० १९८८ मिला है। मेरे अनुमान से यह काल भ्रमपूर्ण सा ज्ञात होता है ।
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भास्कर
इसी प्रकार श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में भी मुझे शुभचन्द्र चतुष्टयी के दर्शन होते हैं। एक तो देवकीर्त्ति के शिष्य दूसरे गण्डविमुक्त मलधारिदेव के शिष्य, तीसरे माघनन्दी के शिष्य और चौथे रामचन्द्र के शिष्य ।
पाण्डवपुराण की प्रशस्ति में प्रतिपादित " षड्वाद" ही संभवतः यह प्रस्तुत ग्रन्थ "षड्दर्शनप्रमाणप्रमेयानुप्रवेश" हो । किन्तु साथ ही साथ मन में यह भी शङ्का स्थान कर जाती है कि पाण्डवपुराण, कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा आदि अपने अन्यान्य ग्रन्थों की प्रशस्तियों में अपनी विस्तृत गुरुपरम्परा आदि का परिचय जिस प्रकार इन्होंने दिया है; इसमें भी दे दिये होते । अस्तु, जो हो इस ग्रन्थ की रचनाशैली एवं भाषा - सरणी प्रशस्त है । अन्तिम श्लोक से यह भी ज्ञात होता है कि आप अपूर्व वाद-पटु, तपस्वी एवं सिद्धान्त शास्त्र के प्रखर विद्वान् थे ।
बल्कि उल्लिखित श्रवणबेलगोल के शक सम्वत् १०४५ के ४३ (११७) वें शिलालेख में वर्णित २ य शुभचन्द्र देव की ओर मेरा ध्यान कुछ आकृष्ट सा हो जाता है । क्योंकि उस शिलालेख में वर्णित शुभचन्द्र के व्यक्तित्व और पाण्डित्यद्योतक विशेषणों में इस ग्रन्थ का अन्तिम एकमात्र श्लोक मिल सा जाता है । अतः इतिहास- प्रेमी विद्वान् इस ओर विशेष ध्यान देंगे ।
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किरण ३ ]
(६) ग्रन्थ नं० २१२
लम्बाई—८। इञ्च
ग्रन्थावतरण
प्रशस्ति-संग्रह
अलंकार - संग्रह
कर्त्ता - अमृतनन्दयोगी
विषय - अलङ्कार
भाषा संस्कृत
चौड़ाई —४॥ इञ्च
मङ्गलाचरण
जगद्वैचित्र्यजननजागरूकपदद्वयम् ।
अवियोग रसाभिज्ञमाद्यं मिथुनमाश्रये ॥१॥ तदुल्ला सरसाकारां तत्त्वकैरवकौमुदीम् । नमामि शारदां देवीं नामरूपाधिदेवताम् ॥२॥
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पत्त्रसंख्या – १०४
उद्दामफलदां गुर्वीमुदधिमेखलाम् (१) । भक्तिभूमिपतिः शास्ति जिनपादाब्जषट्पदः ॥३॥ तस्य पुनस्त्यागमहासमुद्रबिरुदाङ्कितः । सोमसूर्यकुलोसा महितो मन्वभूपतिः ॥४॥ स कदाचित्सभामध्ये काव्यालापकथान्तरे । अपृच्छदमृतानन्दमादरेण कवीश्वरम् ॥५॥ वर्णशुद्धिं काव्यवृत्तिं रसान् भावाननन्तरम् । नेतृभेदानलङ्कारान् दोषानपि च तद्गुणान् ॥६॥ नाट्यधर्मान् रूपकोपरूपकाणां भिदालप्सि (?) । चाटुप्रबन्धभेदांश्च विकीर्णस्तत्र तत्र तु ॥७॥ सञ्चित्यैकत्र कथय सौकर्याय सतामिति । मया तत्प्रार्थितेनेत्थममृतानन्दयोगिना ||||| तत्त्रान्तरेदितानर्थान् वाक्यान्यैव क्वचित् क्वचित् । सञ्चित्य क्रियते सम्यक् सर्वालङ्कारसंग्रहः ॥६॥
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२४
मध्यभाग — (पृष्ठ पूर्व ५२ पंक्ति ४) -
अन्तिम भाग -
-:
भास्कर
लेति पूर्वकथितं पुनरपि लीलेति कथितमेतस्मिन् । यस्मिन्नदः प्रकृष्टं तत्प्रकर्षं तदामनन्ति यथा ॥
कः कः कुत्र न घर्घरायितधुरी घेोरो घुरेत्सूकरः कः कः कं कमलाकरं विकमलं कर्त्तुं करी नोद्यतः । के के कानि वनान्यरण्यमहिषा नोन्मूलयेयुर्यतः । सिंहे! स्नेहविलासबद्धवसतिः पञ्चानना वर्त्तते ॥
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[ भाग २
इत्यमृतानन्दयोगिविरचिते अलङ्कारसंग्रहे वसुनिर्णयो नामाष्टमोऽध्यायः ।
"कन्नड़ कविचरिते " भाग २य पृष्ठ ३३ में एक अमृतनन्दी कवि के बारे में निम्नलिखित उल्लेख मिलता है।
"इन्होंने अकारादि वैद्यनिघण्टु लिखा है । यह जैन कवि हैं । इनका लगभग १३०० शताब्दी में होना संभव ज्ञात होता है ।"
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“रसरत्नाकर” नामक कन्नड़ अलङ्कार ग्रन्थ की भूमिका में स्वर्गीय ८० वेङ्कटराव बी० ए० एल०टी० तथा पण्डित एच० शेष ऐय्यङ्गार ने लिखा हैं कि - " अमृतनन्दी का अलङ्कारसंग्रह नाम का एक ग्रन्थ है । उसमें (१) वर्णगण- विचार (२) शब्दार्थ - निर्णय (३) रसनिर्णय (४) नेत्त्रभेदविचार (५) अलङ्कारनिर्णय (६) देोषगुणालङ्कार - निर्णय (७) सन्ध्यङ्गनिरूपण (८) वृत्तिनिरूपण (१) काव्यालङ्कारनिरूपण नामक ये नव परिच्छेद हैं। यह भी इनका कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है । क्योंकि प्राचीन आलङ्कारिक प्रन्थों का देखकर 'मन्व' भूपति की अनुमति से यह ग्रन्थ संचित करके मैंने लिखा है यों ग्रन्थारंभ में रचयिता ने स्वयं कहा है । यह मन्व राजा सोमसूर्यकुलोत्तंस, समुद्रबिरुदाङ्कित, यमगंडरगंड, केारवं कभीम, समरनिरङ्कुश एवं नूत्तसाहसाङ्क आदि बिरुदावली से अलंकृत थे। इस बात का कवि ने ग्रन्थ के प्रत्येक परिच्छेदान्त-पद्य में कहा है । इस मन्वभूपति के पिता शिवपादाब्जषट्पद भक्ति भूमिप थे ।*
तिरुचनापल्ली के जम्बुकेश्वर देवस्थान में प्राप्त प्रतापरुद्रदेव के एक शासन से मन्वगण्ड गोपाल नामक एक प्रताप रुद्र का सामन्त था ऐसा विदित है, इसलिये अनुमान किया जाता है कि यही अमृतनन्दी के आश्रयदाता होंगे ।
* किन्तु भवन की इस प्रति में ""जनपादाब्जषट्पदः " यही पाठ है ।
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प्रतिमा - लेख - संग्रह
( संग्राहक — श्रीयुत बा० कामता प्रसाद जैन )
(८) मैनपुरी ( मुहकमगंज) दि० जैन पंचायती मंदिर के यंत्रों की प्रशस्तियां ।
१ : सम्यक्चारित्रयंत्र – “ सं० १४७४ वर्षे माघसुदी १३ गुरौ श्री मूलसंघे गोलाराडान्वये सा भोजू पुत्र मलइ सिंह तत्पुख सेनराजधामू चामू सविमल सुरपाल सा० सेवराज पुस करन् असिक्स सिवपालोनेदं यंत्रं प्रतिष्ठाप्य नित्यं प्रणमन्ति ।
... प्रणमति । "
२ सिद्धयंत्र -- " सं० १५३४ श्री मूलसंघ भ० जिनचन्द्रान्नाये भ० श्रीभुवन कीर्तिस्तत्पट्ट श्री ज्ञानभूषण गुरूपदेशात् लंबेचू सा० उजागर ३. अनन्तयंत्र - " सं० १५...... श्री मूल संघे उपदेशात् कसिम वास्तव्य घरकौ संघ हा तसा केशसा शुभं भवतु ।
४ सिद्धयंत्र - - " सं० १६७५ वर्षे फाल्गुण वदी ३ शुभदिने श्री मूलसंघे भ० श्री धर्मकीर्ति भ० विशाल कीर्तिं तदाम्नाये खंडेलवाल प्रमोदक ? सम्मेदगिरौ वास्व
शीलभूषण भ० महीचन्द्र तत्सिष्य मंडलाचार्य श्री सिंधिया गोल सा० हिमत भा० उधा तत्पुत्रे पदार्थक प्रतिष्ठाय प्रतिष्ठितं ।”
सेनगणे भ० श्रीगुणभद्रस्तद्भट्टारक श्रीलक्ष्मीसेन ज्ञातीये संघई हेमा सा: भार्या अम्वातयो सुत . श्री अनंत यंत्रां प्रतिष्ठाप्यं नित्यं प्रणमंति
५ सम्यक् चारित्र – “संवत् १६८६ ज्येष्ठ वदि ११ शुक्रे
श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदान्नाये भ० श्रीधर्मकीर्ति देवा भ० श्रीशीलभूषण देवा भ० श्री ज्ञानभूषण देवा भ० श्री जग भूषण देवा तदान्नाये गोलारान्वये खरौआ जातीये कुलहा गोस पंडिताचार्य पं० भोजराज भा० प्यारो तयो पुत्र ३ पं० श्रीमकरंद भा० दर्शन दे...... पं० दयालुदास भा० खिमोती पं० श्रीश्रीपाल भा० मथरा पं० मकरंद पुल ६ पं० चिन्तामणि भा० सुन्दरि पं० मनीराम भा० सुरितान दे पुत्र पं० हेमराज पं० लला पं० चन्द्रसेन भा० हिमोती पं० चूड़ामणि पं० परताप भा० परिमलदे पं० बलभद्र पं० हीरामणि पं० श्रीलाल पुत्र पं० तेजपाल भा० केवल मौलिकता लुप्त हो जाने के खयाल से " प्रतिमा - लेख संग्रह " के लेखों की भयंकर अशुद्धियां ज्यों की त्यों छोड़ दी गयी हैं ।
सम्पादक
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भास्कर
[ भाग २
दे पं० मनोहर पं० जयन्ती पं० रामचन्द्र पं० रघुपति ६० मधुसूदन ५० भोपति
पं० ताराचन्द्र पं० मनीराम व्रतउद्यापनार्थ यंत्र । ६-सिद्धियंत्र-"सं. १६८८ वर्षे आषाढ़ वदी ८ श्रीमूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदुकुंदा
म्नाये भ० श्रीशीलभूषण देवास्तत्पट्ट भ० श्रीज्ञानभूषण देवास्तत्प?' भ० श्री जगद्भूषणदेवास्तदाम्नाये गोलसिंगारान्वये रंगा गोशे साहु श्रीलालू तस्व भार्या जिना तयो पुत्रा कुवेरसी तस्य भार्या चढा (१) त्यो पुत्रा चत्वारि ज्येष्ठ पुत्र धरदास द्वितियपुत्र दमोदर तृतीय पुत्र भगवान चतुर्थ अभेधर दास भा० अर्जुना एतेषां मध्ये धरदास दशलक्षणी वृत- उद्यापनार्थ यंत्र प्रतिष्ठा करापित
शुभं भवतु ।” ७-सम्यग्दर्शनयंत्र-“सं० १७२२ वर्षे माधवदी ५ सौमे अव० श्री मूलसंधे भ० श्रीजगद्भूषण
तत्पट्ट भ० श्री विश्वभूषण तदाम्नाये यदुवंशे लम्बकंचुक पचोलनेगोत सा भावते हीरामणि कन्हर रमीले लालसेन उद्यात्मणि शिरोमणि अतिवल जयकृष्ण एतेषां सा० भावते हीरामणि लालसेन रमीले यंत्र प्रतिष्टा करापितं ।
लिखितं पं० गरीबदास।" ८-सम्यग्ज्ञानयंत्र-"सं० १७६० वर्षे फाल्गुण सुदी १ गुरौ श्री मूलसंधे सरस्वती गच्छे
बलात्कारगणे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री सुरेन्द्रभूषण देवास्तदाम्नाए लंबकंचु. कान्वये रपरिया गोत्रं सा० कुमारसेनि भार्या जीवनदे पुत्र ३ ज्येष्ठ खरगसेन भार्या बलको पुत्र २ जयकृष्ण २ मनसुष एतेषां मध्ये सा० रामसेन नित्वं
प्रणमंति ।” १-षोड़शकारणयंत्र-"सं० १७६६ वर्षे माघ सुदी ५ सोमवासरे श्रीमूलसंघे वलात्कारगणे
सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्याम्नाए भ० श्री विश्वभूषणदेवास्तत्प?' श्रीदेवेन्द्र भूषण देवास्तत्प४ श्री भ० सुरेन्द्रभूषण देवास्तदाम्नाए लंबकंचुकान्वये बुढ़ ले ज्ञातीये रावत गोत साहु बदलूदास भार्या सुधी तयो पुत्र वयः जातः पुत जेष्ट राम भार्या पुना पुत्र जगमन भा० उदोती पुत्र विनयसिंह द्वितीय भ्राता सा० तुलाराम भा० देव जाता पुलाः षट् ज्येष्ठ शिवराम भा० धरनी द्वितीय हंसराज भा० वणे पुत्र परमानन्द द्वितीय पुस देवीदास भा० लक्ष्मी चतुर्थ पुत्र उत्तमचन्द्र भा० रत्नावती पुत द्वितीय ज्येष्ठ सुखमनि भा० ओसुम ता० वि० टोडरमल पं० चन्द्रभान भा० उदोता षष्ठे दीनानाथ भा० देविकुंवरि पुल परचाराम एतेषां मध्ये साहु तुला रामेण यंत्र प्रतिष्ठा कारिता। उदलस्य सागरोपुरेण कृता ।"
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किरण ३ ]
प्रतिमा-लेख-संग्रह १० सम्यग्दर्शन यंत्र-"संवत् १७७२ वर्षे फाल्गुणवदो है चंद्र श्री मूलसंघे वलात्कारगणे सरस्वती
गच्छे कुंदकुंदाचार्याम्नाये भ० श्री देवेन्द्रभूषण देवास्तत्पट्ट भ० श्रीसुरेन्द्र भूषण देवास्तस्मात् ब्रह्म जगतसिह गुरुपदेशात् तदाम्नाये लम्बक कान्वये बुढेले ज्ञातोये कौआ गोत्र श्री सा० सिवरामदास भा० देवजावी तयो पुता वय ज्येष्ठ देवीदास भार्या द्वौ ज्येष्ठ लालकुंवरि तस्या पुता त्रय ज्येष्ठ शोभाराम भा० जाम्वतो. तयो पुत्र निहालचन्द्र द्वि० अतिराज भा० जयकुंवरि तृतीय खेमराज भा० सम्वेधी पुनः द्वितीय नन्द राम भार्या घोका तयो पुत्र महानन्द भा० सुमित्रा पुनः तृतीय गरहरदास भा० भवानी तयो पुत्र द्वौ ज्येष्ठ वटऊ मल भा० कमलकुंवरि द्वि० शिवानन्द भा० बलको एतेषां मध्ये देवीदास नित्वं
प्रणमंति । ११ दशलक्षणयंत्र - "सं० १७६१ वर्षे फाल्गुण सुदो ६ बुधवासरे शुभ दिने मूलसंधे सरस्वतीगच्छे
बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्रीविश्वभूषणदेवास्तस्पट्ट' भ० श्रीदेवेन्द्रभूषण देवास्तत्पट्ट भ० श्री सुरेन्द्रभूषण देवास्तदाम्नाए बुढेलान्वये गृगगोत साहु तुलाराम सुपुत्र दारा सहितस्तस्यं ज्येष्ठपुत्र सा० देवीदासस्य दारा पुतौ विभूषित नित्यं सर्वे प्रणमंति। अटेरपुरे साहु तुलारामेण यंत्र
प्रतिष्ठा कारितः तत्र प्रतिष्टितम् ।' १२ षोडशकाणयंत्र- "सं० १८२८ मितो भाद्रव कृष्ण पंचमी शुक्र श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे
सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री विश्वभूषणजो त० भ० देवेन्द्रभूषणजी त० भ० सुरेन्द्रभूषणजी त० भ० लक्षमीभूषणजी त० भ० जितेन्द्रभूषण जी तदाम्नाये पंडेलवालान्वये इष्वाकुवंशे छावरागोत्र नानिगराम नित्यं प्रणमंति ।
मैनपुरी के भगत जी के दिगंबर जैन मन्दिर का लेख-संग्रह ।
यंत्र-प्रशस्तियां (आठ यंत्र हैं, किन्तु प्रशस्ति किसी पर नहीं हैं )
लिंग-चिहन सहित प्रतिमाओं पर के लेखों का संग्रह । १ अनंतनाथ-श्वेतपाषाण-८ अं0-"सं० १९४५ माघकृष्ण २ श्रीमूलसंधे बलात्कारगणे
सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दान्वये झन्मनलालेन प्रतिष्टितम् ।" २ पार्व-खड्गासन-४ खड़ग० मूर्तियां अगल बगल-यक्षयक्षिणी भामंडलादि-सहित-कृष्ण
पाषाण ४० अं०-"श्रीमूलसंधे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे कुंदकुंदाचार्यान्वये श्रीमंत श्री. हरेन्द्रभूषणजी उपदेसो नरंगी माथे मैंनपुरी साहु लाल मनीरामा मारगसुदी २ सं० १९४,
(२१ मूर्तियों में से कुलं दो मूर्तियाँ लिङ्ग-चिन्ह-सहित हैं।)
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भास्कर
[ भाग २
... मैनपुरी लोइयन का दि० जैन मंदिर में विराजमान लिंग-चिह्न
सहित मूर्तियों का लेख-संग्रह । , सिद्धपरमेष्ठी-धातु-१० अंo-"श्री सं० १९३६ वैसाख शुदी ७ श्री दस्यांगपुरे प्रतिष्ठित
मिदम् सिद्धविवं हनलाल मैंनपुरी।" २ सिद्धपरमेष्ठी-धातु ११ अं०--"सं० १९४५ मधु कृष्ण २ प्रतिष्ठतं ।' ३ आदिनाथ-धातु -१५ अं०-"सं० १९११ फाल्गुण मासे शुक्ल पक्षे , भ्रगुवासरे को
प्रतिष्ठितं मैंनपुरी मध्ये श्रीमूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये अग्रवाल कुकस गोत्र लाला मलैराम जी तत्संग भ्राता कल्याण नित्वं
प्रणमति श्रीस्व" · चन्द्रप्रम-धातु-१८ अं०-"सं० १८८६ चैतमासे शुभे शुक्लपक्ष २ शुभ शुक्रवासरे प्रतिष्ठितं
श्री काष्टासंघे वलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीलोहाचार्यान्वये तस्य शिष्य अनुसारेण
अग्रवालवंशे गरग-गोत्र श्रीकासीरामजी नित्यं प्रणमंति । श्रीहरचंद पुरमध्येश्री।" पार्श्व-धातु-२३ अं०--"सं० १६०२ माघ मासे शुक्लपक्ष १३ सोमवासरे को श्रीमूलसंधे
बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुंदकुंदाचार्याम्नाय तद्वचनोपदेशात् वंश अग्रवाल लोहिआ
खुसालचंद हरचंदपुर वाले तिनके माथे ।' ६ पाव-धातु--२२ अं0--"श्रीसंवत् १८९६ चैतमासे शुक्लपक्ष ३ शुक्रवासरे को प्रतिष्ठितं
श्रीकाष्टासंघे वलास्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीलोहाचार्यान्वये तस्य प्रतीतानुसारेण अग्र
वाल वंश...गो केवलराम जी नित्यं प्रणमंति श्री मैनपुरी श्रीस्तु ।" ' • सिद्ध-धातु-१३ ० - "श्रीमूलसंधे झम्मनलालेन प्रतिष्ठितं सं० १९४५ माघ कृष्ण २।" + आदिनाथ-धातु - १५ अं.-- 'श्रीमूलसंधे वलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुंदकंदाचार्यान्वये
गर्गगोत्र अग्रवंशे झम्मनलाल प्रतिष्टितं सं० १९४५ माघ कृष्ण २।" है पार्श्व-धातु-१४ अं0--"सं० १६१५ फाल्गुणमासे शुक्लपक्षे ७ भृगौ प्रतिष्टितं......मद्ध
भाई मलैराम नित्यं प्रणमंति ।" १. सिद्ध--धातु-१० अं0-"सं. १९४५ माघ कृष्ण २।" (कुल ३६ प्रतिमाओं में से उपर्युक्त १० के लिङ्ग-चिह्न प्रकट है )
___यंत्र लेख-संग्रह । . सम्यग्ज्ञान-"संवत् १७३४ वर्षे माघसुदी १ श्रीमूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदा
चार्यान्वये श्री भ० जगभूषणदेवा तदानाये लंबकंचुकान्वये रावत-गोत्र चंडमार दुर्गे रावत प्ररसादतत्पुत्र रावत सिरोमनि......जंत्रक रापिता नित्वं प्रणमंति"।
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किरण- ३ ]
प्रतिमा - लेख - संग्रह
२१/
२ दशलाक्षणिक यंत्र - "संवत् १७६० वर्षे फाल्गुण सुदि १ गुरौ श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्नाये भ० श्री विश्वभूषण देवास्तत्पठ्ठे श्रीदेवेन्द्रभूषण वेवास्तपट्ट भ० श्रीसुरेन्द्र भूषण देवास्तदाम्नाए यदुवंशे लंबकंचुकान्वये रपरिया गोल सा० छवीले पुस सा० शंकर भार्या तिलका पुस ३ ज्येष्ठ साह मारसेनि द्वि० सा० सुखमल..... सा० उदैराजेन यंस प्रतिष्ठापितं ।”
३ षोड़शकारण यंत्र - " शुभ संवत् १३२० फागुण वदि ३ गुरुवासरे श्रीमूल संघे व० ग० स ग० कुं० श्रीमदुन्नहारक जिनेन्द्रभूषण जिद्देवस्तत्पट्ट े श्रीमद्भट्टारक महेन्द्रभूषण जिदेवस्तत्पट्ट े श्रीभट्टारक राजेन्द्रभूषणजि देवस्तदुपदेशात् श्रीमदुग्र वंशोद्भवः वाशिलगोत्रोत्पन्नः । काष्टा संघे बाबू ब्रजमोहनदासस्तद्भार्या सुंदरि - कुंवरिस्तत्पुत्र बाबू जगमोहन दास बाबू मुनिसुव्रत दासौ तद्भायें कांताकुंवरि टुकटुक कुंवरि संज्ञके च ताभि: प्रतिष्टयकर्ता आरा नगर्खा केलिरामस्ततं पुत्र डालचंद अग्रवार गरग गोलोत्पन्नस्य मस्तके कृता ।"
४ सम्यक् चारित्र यंत्र - नं ३ की भांति ।
१ नवग्रहयंत्र - लेख - रहित
।
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मैनपुरी के मूर्ति-लेखों से प्राप्त परिचय
मैनपुरी के जिन चार दिगम्बर जैन मंदिरों की मूर्ति एवं ताम्रपत्र - लेखों का संग्रह प्रकट किया गया है, उनसे जो परिचय प्राप्त होता है, उसे पाठकों के अवलोकनार्थ हम नीचे अंकित करते हैं । सबसे पहिले आचार्यों और भट्टारकों का विवरण इस प्रकार है:
--
विशेष विवरण
नं०
ง
भ० अभवचन्द्र २ भ० अभयनन्द देव
8
८
नाम आचार्य व भट्टारक
६
"
" गुणकीर्ति
,, गुणभङ्ग
35.
55
""
कमलकीर्ति
"
99
"
चंद्रकीर्ति
जिनचंद्रदेव
:
: : :
गुरु का नाम
......
भ० अभवचन्द्र
संघ
मूल बलात्कार
";
काष्टा
93
गण
मूल
काष्टा
99
:
: : :
⠀⠀
गच्छ अन्वय
सरस्वती कुंदकुंद ० सं० १६६२ से पूर्व
66
:
: : :
:::
95
:
किस समय में उल्लेख मिलता है ।
: : :
""
सं० १५४५
सं० १४७३
सं० १४३७
सं०१५२६ व १५३१
पन्द्रहवीं श०
सं० १६५२
सं० १४१३
सं० १६६२ में इनके पट्ट पर आचार्य रत्नकीर्ति विराजमान थे ।
सं० १५०६ व सं० १५१० लेखों में भी भ० कमलकीर्ति का उल्लेख है ।
इनकी आन्नाव में भ० मलयकीर्ति
हुए ।
सं० १५३७ - १५४५ में इनके पट्ट पर लक्ष्मीसेन थे
२२
भास्कर
भाग २
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________________
१.
, जिनचन्द्र
...
।
मूल ।
बलात्कार | सरस्वती कुन्द०
.............. मूल । बलात्कार सरस्वती छन्द०
किरण ३]
सं०१९०२ से १५१५ भ० प्रमाचन्द्र के शिष्य पानन्द
देव (१४५०) थे। इन्हीं प्रभाचन्द्र का उल्लेख प्रतिष्टाचार्यरूप में सं० १४१२ में हुआ है। पद्मनंद के पट्ट पर शुभचंद्र आसीन हुए। शुभचंद्र के उत्तराधिकारी जिनचंद्र थे, जिनके बाद पट्ट पर भ० सिंहकीर्ति (१५२०-१९३८) बैठे। शायद ग्वालियर के पट्ट का उल्लेख है।
सेठ जीवराज पापड़ीवाल ने इनके द्वारा अनेक बिम्ब प्रतिष्टित कराये
......
प्रतिमा-लेख-संग्रह
...
१३ | ब्रह्म जिनदास
,
बलात्कार सरस्वती
कुन्द
सं० ११३७ से पूर्व | इनकी आम्नाय में विद्यानदि
मंडलाचार्य और श्रीभुवनकीर्ति हुए। सं० १९११ ... "शास्त्रपूजा" "गुरुपूजा' आदि ग्रंथ
अपभ्रंश भाषा में शायद इन्हीं ब्रह्म
जिनदास ने रचे हैं। सं० १५१२ सं० १५५३ से पूर्व सं० ११५३ शाके सं० १०४६ सं० १५५१ से पूर्व
भ० जिनचन्द्रदेव ... ,, जिनप्रभसूरि , जिनभानुदेवसूरि ... | भ० जिनप्रभसूरि ,, जगतकीर्ति , जसकीर्ति
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अन्वय किस समय में उल्लेख
नाम आचावं व भट्टारक
गुरु का नाम
| संघ
गण | गच्छ ।
विशेष विवरण
१९
, जगभूषण
...
भ. ज्ञानभूषण
मूल बलात्कार सरस्वती कुन्द०
२० , जिनेन्द्रभूषण ... भ० लक्ष्मीभूषण
|
"
,
"
,
भास्कर
सं० १६८६ ...| भ० धर्मकीर्ति के पट्ट परभ शील
भूषण हुये। उनके पट्ठाधीश म० ज्ञानभूषण थे। और इनके उत्तराधिकारी भ० जगद्भूषण हुए। फिर
भ० विश्वभूषण (१७२२) और
| देवेन्द्रभूषण (१७३५) हुए। सं० १८२८ ... इस लेख में अटेर के पट्ट पर उपर्युक्त
| विश्वभूषण और देवेन्द्रभूषणको लिखा है। देवेन्द्रभूषण के बाद पट्ट पर भ. सुरेन्द्रभूषण (१७६०-१७६६) बैठे। इनके उत्तराधिकारी भ० लक्ष्मीभूषण (१७६१) हुये, जिनके पद पर भ. जिनेन्द्रभूषण ने अधिकार जमाया। इस प्रकार भ० धर्मकीर्ति से भ० जिनेन्द्रभूषण तक सब ही भट्टारक
अटेर की गही पर हुये प्रतीत होते हैं। सं० १४१६ में यहाँ पर भ. विश्वसेन थे। सं० १८१८ में भ० जिनेन्द्रभूषण के पश्चात् उनके उत्तरा. धिकारी क्रमश: भ० महेन्द्रभूषण
और भ० राजेन्द्रभूषण थे। (सं. १९२०) ।
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श्रीपूज्यपाद-कृत
वैद्य-सार (अनुवादक-पण्डित सत्यन्धर जैन, आयुर्वेदाचार्य, काव्यतीर्थ)
(गतांक से आगे) २०--नवज्वरे करुणाकररसः रसगंधकं भागैकं तथा च लौहटंकणं। मनःशिला मयस्कांतं नाग गगनमेव च ॥१॥ सवंगशुल्वसंयुक्तां कृत्वा कजलिकां बुधैः। लौहपाने पचेत् सम्यक् यावदरुणवर्णता ॥२॥ करुणाकररसो नाम नवज्वरनिवारणः । निमित्तदोषदोषेभ्यश्चानुपानं प्रयोजयेत् ॥३॥ पूज्यपादकृतो योगः नराणां हितकारकः।
सर्वरोगसमूहनो कथितो विज्ञसंम्मतः ॥४॥ टीका-शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, लौहभस्म, कच्चा सुहागा, शुद्ध मैनशिल, कान्तलौहभस्म, शीसाभस्म, अभ्रकभस्म, वंगभस्म और ताम्रभस्म ये सब बराबर बराबर लेकर कजली बनावे और लोहे की कड़ाही में डालकर पकावे, जब पकते पकते लाल वर्ण हो जाय तब तैयार समझे। यह करुणाकर नाम का रस नवीनज्वर को नाश करनेवाला है। इसको ज्वर, तथा वात, पित्त, कफ दोषों के अनुसार अनुपान भेद से सेवन करना चाहिये। यह पूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ योग मनुष्यों का हित एवं संपूर्ण रोगों को नाश करनेवाला विद्वानों द्वारा मान्य कहा गया है।
२१-श्रामादौ मेघनादरसः हिंगुलं टंकणं व्योष सैधवं निवृतानि च। दन्ती:हिंगुविडंगं च दीप्ययुग्मं समांशकम् ॥१॥ तच्चूर्णसमभागं च जैपालफलमिश्रितः। मर्दयेत्खल्वमध्ये तु जंबीररसभावितः ॥२॥
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१६
भीस्कर
बटिकां गुंजमात्रषु उष्णांबुना पिबेन्नरः । आमं विरेचनं कुर्यात् मेघनाद स्त्रिदोषजित् ॥३॥ पंचगुल्मं तयं पांडुकामलाजीर्णदुर्बलं । मूत्ररोगं हरेच्छवासं कासलीहमहोदरान् ||४||
करसेन नाशयति अम्लप्लीहजलोदरान् । शूलहृद्रोगदुर्नामकृमिकुष्ठहलीमकं ॥५॥ मंडलं गजचर्माणि योगेन तिमिरापहः । मांसोदरे च मंदाग्नौ मधुना खल्वरोचके ॥६॥ मेघनादरसः प्रोक्तः त्रिदोषमलनाशनः । अनुपान विशेषेण रागान् मुंचति कार्मुकान् ॥७॥ पूज्यपादकृतो योगो नराणां हितकारकः ।
[ भाग २
टीका - शुद्ध सिंगरफ, शुद्ध सुहागा, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, सेंधा नमक, निशोथ, दन्ती, हींग, वायविडंग, अजमोद, अजवायन ये सब बराबर बराबर लेवे तथा इन सबके बराबर शुद्ध जमालगोटा मिलावे और खल में जंबीरी नींबू के रस में भावना देकर एक एक रत्ती की गोली बनाकर प्रातःकाल एक एक गोली गर्म जल के साथ सेवन करे तो इससे ग्रामदोष का विरेचन होता है, तथा यह मेघनाद रस तीनों दोषों को जीतनेवाला पांचों प्रकार के गुल्मरोग, क्षय, पांडु, कामला, अजीर्ण, दुर्बलता, मूत्ररोग, श्वास, खाँसी, तिल्ली, महान उदर रोग, अदरख के रस के साथ सेवन करने से अम्लरोग प्लीहा, जलोदर, शूल, हृदयरोग, बवासीर, कृमिरोग, कुष्ठरोग, हलीमक, मंडल (चकते पड़ना) गजचर्म ( गजकर्ण रोग) विशेष अनुपान से तिमिर रोग का भी, मांसोदर, मंदाग्नि अथवा मधु के साथ सेवन करने से सर्व प्रकार के अरोचक का और त्रिदोष का नाश करनेवाला है यह मेघनाद रस अनुपान - विशेष से अनेक प्रकार के रोगों को नाश करता है। यह पूज्यपाद स्वामी का बनाया हुआ योग मनुष्यों का हित करनेवाला है ।
२२ - जीर्णज्वरादौ घोड़ा चोलीरसः
पारदं टंकणं गंधं विषं व्योषं फलत्रयम् । तालकं च समोपेतं जैपालं समभागकम् ॥ १॥ किंशुकस्य रसे दत्त्वा याममात्रं तु पेषयेत् । गुंजाप्रमाणवाटिकां छायाशुष्कां तु कारयेत् ॥२॥
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किरण ३ ]
वैद्य-सार
मरिचैः क्षोधितैः स्वरसैश्चार्द्रा कस्य च पाययेत् । जीर्णज्वरं शुलमेहं कठिनं तु महोदरं ॥३॥ प्लीहां च कृमिदेोषं च हरेत् कुंभाह्वयं गं । घोड़ाचूलिरितिख्यातो पूज्यपादेन भाषितः ॥४॥
१६
टीका - शुद्ध पारा, शुद्ध सुहागा, शुद्ध गंधक, शुद्ध विष, सोंठ, मिरच, पीपल, त्रिफला, शुद्ध aafकया हरताल का भस्म और शुद्ध जमालगोटा ये सब चीजें बराबर बराबर लेकर पलास के फूल के स्वरस में एक प्रहर तक घोंट कर एक पक रत्ती की गोली बांधकर छाया में सुखावे। इस गोली का एक रत्ती पीसी हुई काली मिर्च तथा अदरख के रस के साथ पिलावे । यह जीर्णज्वर, शूल, प्रमेह, कठिन उदर रोग, प्लीहा, कृमि और कुंभकामला hra करता है । यह घोड़ाचोली रस. पूज्यपाद स्वामी का बतलाया हुआ योग बहुत उत्तम है।
२३ - विधे इच्छा भेदिरमः
सूतं गंधं च मरिचं टंकणं नागराभये । जैपालबीजसंयुक्तो क्रमेण वर्धनं करेत् ॥ १॥ सर्वतुल्यैर्गुडैर्म इच्छाभेदिरसः स्मृतः । चतुर्गु आवडी योग्या ततः तोयं पिबेन्मुहुः ||२|| विबंध ज्वरगुल्मं च शोफशूलोदरभ्रमम् । पांडुकुष्टाग्निमान्धं च श्लेष्मपित्तानिलं हरेत् ॥३॥
सोंठ, बड़ी हर्र का
टीका - शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, काली मिर्च, सुहागे का फूल, बकला, शुद्ध जमाल गोटा, ये क्रम से एक एक भाग बढ़ा कर लेवे अर्थात् पारा १ भाग गंधक २ भाग, मिर्च ३ भाग सुहागा ४ भाग, सौंठ ५ भाग, हर्रे ६ भाग, जमालगोटा ७ भाग लेवे और इन सबको पीसे तथा सबके बराबर पुराना गुड़ मिला कर चार चार रन्ती की गोली बनावे, सुबह शाम एक एक गोली सेवन करे और ऊपर से २ तोला पानी पीये तथा प्यास लगने पर कई बार पानी पीवे इससे रेचन होता है । यह दवा ज्वर, गुल्म, सूजन, शूल, उदर रोग, भ्रम रोग, षांडु, कुष्ट, अग्निमांद्य-कफ, पित्त और बात इन सब रोगों का नाश करनेवाला है।
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भास्कर
[ भाग २
२४-विबंधे विरेचकतिक्तकोशातकीयोगः तिक्तकोशातकीबीजं तिन्तडीबीजसंयुतम्। पातालयंत्रमार्गेण तैलं तत्तिक्ततुंबके ॥१॥ सार्धे सषीजे मासार्ध क्षिपेत् सिद्ध भवेत्ततः। तेन पादप्रलेपेन नामिलेपेन वा भवेत् ॥२॥ आमं विरेचयत्याशु वान्तौ तु हृदयं पुनः। '
लेपयेत् क्षालयेन्निम्बवारिणा स्तंभनं भवेत् ॥३॥ टीका-कड़वी तुरई के बीज, तिन्तडीक के बीज, इन दोनों को बराबर बराबर लेकर पाताल यंत्र के द्वारा उनका तैल निकाले और उस तैल को कड़वी तुमरियाबीजसहित आधी काट कर उसमें भर कर १५ दिन तक रखे तो यह तैलसिद्धि हो एवं फिर उसको निकाल कर काम में लावे। उस तैल को पैरों में लगाने से तथा नाभी पर लेप करने से आम दोष का विरेचन होता है, यदि बमन हो जाय तो हृदय पर लेप करे और नीम की पत्ती के ठंडे पानी से प्रक्षालन करे तो बमन शान्त हो जाता है।
२५–विबंधे प्रथम इच्छाभेदिरसः जैपालरसगंधांश्च स्नुहीक्षीरेण मर्दयेत् । विश्वाहरीतकी शृङ्गबेरद्रावेण संयुतः ॥१॥ माषमानं ददेश्च व इच्छाभेदि विरेचनम् ।
यथेष्टं रेचनं भूयात् पूज्यपादेन भाषितः ॥२॥ टीका-शुद्ध जमालगोटा, शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, इन तीनों को लेकर थूहर के दूध से घोंटे और उसमें सोंठ, बड़ी हर्र का बकला अदरख के रस के साथ मर्दन करके रख लेवे उसको एक मासे की मात्रा से देवे तो यथेष्ट इच्छानुकूल विरेचन होवे। .
२६-द्वितीय इच्छाभेदिरसः व्योषं गंधं सूतकं टंकणं च तेषां तुल्यं तिन्तडीबीजमेतत् । खल्वे यामं मर्दयेन्नागवल्लीपर्णेनैवंवल्लमात्रप्रवृत्तिः ॥ इच्छाभेदि दापयेच्चाथ सेव्यं तांबूलाते तोयपानं यथेच्छ । यावत्कुर्याद् रेचनं तावदेव शूलेषदावर्तपांडूदरेषु ॥१॥
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किरण ३] वैद्य-सार
२१ टीका-सोंठ, मिर्च, पीपल, शुद्ध पारा, सुहागा इन सबको बराबर बराबर और सबके बराबर तिन्तडीक के बीज ले। खरल में एक प्रहर तक पान के स्वरस में घोंट कर तीन तीन रत्ती के प्रमाण से देवे तथा ऊपर से एक पान का बीड़ा खावे। पश्चात् जितना पानी पीना होय पीवे इससे उत्तम विरेचन हो जाता है तथा सर्व प्रकार के शूल उदावर्त, पांडुउदर रोग शान्त हो जाते है।
नोट-जितने बार दस्त लेना. होय उतने बार पान का बीड़ा खाकर पानी पीवे ।
२७-श्वासकासादौ गजसिंहरसः रसलोहं शुल्वभस्म वत्सनाभं च गंधक । तालीसं चित्रमूलं च एला मुस्ता च प्रन्थिकं ॥१॥ त्रिकटु त्रिफलायुक्त जैपालं तु विडंगकम् । सर्वसाम्यं विचूण्यैव ऋगवेरद्रवैयुतम् ॥२॥ चणप्रमाणवटिकां भक्षयेद्गुडमिश्रिताम् । श्वासकासक्षयं गुल्मप्रमेहं तृड्जरागदम् ॥३॥ वातमूलादिरोगाणि हंति सत्यं न संशयः। ग्रहणी पांडु शुलं च गुदकीलं गूढगर्भकम् ॥४॥
गजसिंहरसो नाम पूज्यपादेन भाषितः। टीका-शुद्ध पारा, लोह भस्म, ताम्रभस्म, शुद्ध विष, शुद्ध गंधक, तालीस पत्र, चित्रक, छोटी इलायची, नागरमोथा, पीपरामूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, हरी, बहेरा, आँवला, शुद्ध जमालगोटा, वायविडंग ये सब औषधियां बराबर २ लेकर अदरख के रस के साथ घोंट कर चना के बराबर गोली बनाबे तथा पुराने गुड़ के साथ एक एक गोली प्रातःकाल और सायंकाल सेवन करे तो श्वांस, खांसी, क्षय, गुल्म, प्रमेह, तृषा, ग्रहणी, शूल, पांडु, गुदकील (बवासीर का भेद) मूढ़गर्भ तथा अनेक प्रकार के बातरोग नाश हो जाते हैं इसमें कोई संशय नहीं है, ऐसा पूज्यपाद स्वामी ने कहा है।
२८-श्वासकासादौ सूतकादियोगः सूतकं गंधकं भाी चामृतं चित्रपत्रकं । विडंगरेणुका मुस्ता चैलाकेशरप्रांथिका ॥१॥
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२२
भास्कर
फललयं कटुत्रयं शुल्वभस्म तथैव च । पतानि समभागानि गुडं द्विगुणमुच्यते ॥२॥ सर्वेषां गुटिकां कृत्वा मात्रां चरणकमात्रिकां । एकैकां भक्षयेन्नित्यं तेषां चैव विचक्षणः ॥३॥ श्वासकासक्षये गुल्मे प्रमेहे विषमज्वरे । तृष्णायां ग्रहणीदोषे शूले पांड्रामये तथा ॥ ४ ॥ मूढगर्भे बातरोगे कृच्छ्ररोगे च दारुणे । कृमिरोगेषु मन्दाग्नौ मांसोदररुजासु च ॥५॥ कंठग्रहे हृद्ग्रहे हिक्कामूर्धरुजासु च । अपस्मारे तथोन्मादे रक्तवृद्धौ च दारुणे ॥ ६ ॥ सर्वागेषु च कुष्ठेषु सर्वस्मिन्नश्मरीगदे । लूतायां सन्निपाते च दुष्टसर्पे च वृश्चिके ॥७॥ हस्तपादादिरोगेषु सर्वेषु गुलिका मता ।
सुतकादिरयं योगः पूज्यपादेन भाषितः ॥ ८ ॥
[ भाग २
टीका -- शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, भारंगी, शुद्ध विष, चित्रक, तेजपत्त्र, वायविडंग, रेणुकाबीज, नागरमोथा, छोटी इलायची, नागकेशर, पीपरामूल, त्रिफला, सोंठ, मिर्च, पीपल, ताम्रभस्म, इन सबको समान भाग लेकर कूट कपड़छन करके सब चूर्ण से दूना गुड़ लेकर एक चना के बराबर गोली बनावे और एक एक गोली प्रतिदिन प्रातःकाल सेवन करे, तो इससे श्वास, खांसी, क्षय, गुल्म, 'प्रमेह, विषमज्वर, तृष्णा, ग्रहणी, दोष, भूल, पांडु रोग, मूढ -गर्भ, बातरोग, कठिन मूत्रकृच्छ्र, कृमिरोग, मंदाग्नि, नासिका रोग, कंठरोग, हद्रोग, हिचकी शिरोरोग, अपस्मार, उन्माद, रक्तवृद्धि, सर्वाङ्ग में होनेवाला कुष्ट रोग, पथरी रोग, मकड़ी के विष में, सन्निपात में, सर्प के काटने पर, बिच्छू के काटने पर, हाथ-पैर के किसी भी रोग में यह सूतकादि योग बहुत उत्तम है ऐसा पूज्यपाद स्वामी ने कहा है
1
२६ –क्षयकासादौ अग्निरसः
सूतं द्विगुणगंधेन मर्दयेत् कज्जलीं यथा । तयोः समं तीक्ष्णचूर्ण कुमारीवारिणा द्रुतम् ॥ १॥ सर्वस्य गोलकं कृत्वा ताम्रपात्रे विनिक्षिपेत् । आच्छाद्यैरण्डपत्रेण यामार्फे चोष्णतां नयेत् ॥२॥
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किरण ३ ]
वैद्य-सार
धान्यराशौ विनिक्षिप्य द्विदिनं चूर्णयेत्ततः। त्रिकटुत्रिफला चैलाजातीफललवंगकम् ॥३॥ चूर्णमेषां समं पूर्वरसस्यैतन्मधूयुतम्। द्विनिष्कं भक्षयेन्नित्यं स्वयमग्निरसोह्ययं ॥४॥ क्षयकासक्षयश्वासहिकारोगस्य नाशकः। ज्वरादितरुणे प्रोक्तान् चानुपानान् प्रयोजयेत् ॥५॥ सर्वकासेषु मतिमान् कासोक्तैरनुपानकैः ।
तयादिनाशको योगः पूज्यपादेन भाषितः ॥६॥ टीका-शुद्ध पारा तथा दूना गंधक लेकर कजली बनावे और दोनों के बराबर तीक्ष्ण लौहभस्म लेकर घीकुआरि के स्वरस में गाली बनाकर ताम्बे के पात्र में रख कर बंद करके डेढ़ घंटे तक आँच देकर गर्म करे और फिर उसी संपुट को धान्य की राशि में दो दिन तक रख देवे, पश्चात् निकाल कर सबको पीसकर चूर्ण बनाले तथा सोंठ मिरच, पीपल, त्रिफला, छोटी इलायची, जायफल, लवंग इनका चर्ण पहले के रस के बराबर ही ले-एवं घोंट कर तैयार करले। यह स्वयं अग्निरस तैयार हो गया समझो। इस चूर्ण को मधु के साथ सेवन करना चाहिये तथा ज्वर इत्यादि में जो अनुपान कह चुके हैं, खाँसी और श्वास में जो अनुपान कह चुके हैं उन्हीं अनुपानों से इनका भी देना चाहिये। यह क्षय आदि को नाश करनेवाला पूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ उत्तम योग है।
३०-वाजीकरण रतिविलासरसः हरजभुजगकांताश्चाभ्रकं च त्रिभागं कनकविजययष्टी शाल्मली नागवल्ली । सितमधुघृतयुक्तं सेवितं वल्लयुग्मम् ।
मद्यति बहुकांतं पुष्पधन्वा बलायुः ॥१॥ टीका-शुद्ध पारा, शुद्ध शीसा, कांतलौह भस्म ये तीनों बराबर बराबर लेवे तथा अभ्रक भस्म, तीसरा भाग ले और सबको घोंट कर तैयार कर लेवे, फिर शुद्ध धतूरा के बीज, विजया की पत्ती, मुलहठी, सेमल का मूसला एवं पान इनके साथ मिश्री तथा शहद के साथ साथ रत्ती प्रमाण सेवन करने से बहुत स्त्री वाले पुरुष को कामदेव तथा बल और आयु मदमत्त कर देते हैं अर्थात् वह क्षीण-शक्ति नहीं होता।
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भास्कर
[ भाग २
३१-वाजीकरणादौ लीलाविलासरसः
अहिफेनं वार्धिशोकं च त्रिसुगंधं च तत्समम् । धूर्तबीजसमायुक्तं विजयाबीजतत्समम् ॥१॥ तद्रसैः भावनां कुर्याद्रसो लीलाविलासकः। चणकप्रमाणवटिका दीयते सितखंडया ॥२॥ बहुमूत्रविनाशश्च शुक्रस्तंभं करोति च।
यामिनीमान-भंगं च कामिनीमदभजनम् ॥३॥ टीका-शुद्ध अफोम, समुद्रशोष, छोटी इलायची, दालचीनी, तेजपात, ये तीनों बराबर तथा शुद्ध धतूरे के बीज और उसी के बराबर भांग के बीज लेकर धतूरा और भांग के स्वरस की भावना देकर चना के बराबर गोली बांधे। इस गोली को मिश्री के साथ देने से बहुमूत्र रोग शांत हो जाता है तथा वीर्य का स्तम्भ होता है और रात्रि का मानभंग और कामिनी के मद का नाश होता है।
३२--ग्रामदोषादौ उदयमार्तण्डरसः . हिंगुलं च चतुनिष्कं जैपालं च त्रिनिष्ककं । वत्सनाभं चैकनिष्कं त्रिकटु चैकनिष्ककं ॥१॥ हरीतकी चैकनिष्क निष्कमेरंडमूलकं। करंजबीजं निष्कं च नीलांजनमनःशिला ॥२॥ रसतुत्थं पिप्पली च वराटं शंखभस्मकं । कनकं निम्बबीजं च प्रत्येकं च निशाद्वयम् ॥३॥ सर्व च प्रतिानष्कं च दिनं खल्वे विमर्दयेत्। अजखीरेण संमिश्रश्वणमात्रवटीकृतम् ॥४॥ वटकं गुडमिश्रेण ऊषणेन समन्वितम् । सेव्यश्चोष्णकोलाले वामदोषविरेचकः ॥५॥ पंचगुल्महरः शूलहरो वातविशोधनः । रसोऽयं पूज्यपादोक्तः सर्वशीतज्वरापहः ॥६॥
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THE
JAINA ANTIQUARY
An Anglo-Hindi quarterly Journal,
Vol. I. ]
· December, 1935.
[ No. 3.
Editors: Prof. HIRALAL JAIN, M.A., LL.B., P.E.S.,
Professor of Sanskrit,
King Edward College, Amraoti, C. P. Prof. A. N. UPADHYE, M.A.,
Professor of Prakrata,
Rajaram College, Kolhapur, S.M.C. B. KAMTA PRASAD JAIN, M.R.A.S.,
Aliganj, Distt. Etah. U.P. Pt. K. BHUJABALI SHASTRI,
Librarian, The Central Jaina Oriental Library, Arrah.
Published at THE CENTRAL JAIN ORIENTAL LIBRARY,
ARRAH, BIHAR, INDIA.
Annual Subscription :
Foreign Rs. 4-8.
Inland Rs. 4.
Inland Ro. 4.
Forofga Revision
Single Copy Rs 1-4.
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Om.
THE
JAINA ANTIQUARY.
"श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥"
)
Vol. I. No. "III
ARRAH, (INDIA)
December,
1935.
Jainá Art in South India (By Prof. Shripad Rama Sharma, M.A.)
The most distinctive contribution of Jainism to Art in South India was in the realm of Iconography. As with everything else in life the Jainas appear to have carried their spirit of acute analysis and asceticism into the sphere of art and arthitecture as well. There are minute details, for instance in the Mānasāra, a standard book on the subject in South India, according to which
." The image of a Jina should have only two arms, two eyes, cropped head ; either standing with legs kept straight or in the abhanga manner; or it may be scated in the padmāsana posture, wherein also the body must be kept erect. The figure should be sculptured as to indicate deep contemplation ; the right palm should be kept facing upwards upon the left palm held in the same manner (and both resting on the crossed legs). On the Simhāsana on which the image of the Jina is seated (and round the prabhāoali) should be shown the figures of Narada and other rishis hosts of gods (and goddesses), vidyādharas and others, as, either seated or standing in the air, and offering worship to the Jina.
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(Vol. I
"Below the simhāsana must be the figures of (other) Jinas in a worshipping attitude; these are the siddhas (or adisidhns ?), the sugandhas (sugatas) ?), Chahantu (chārhantas, i.e., Arhantas ?), Jana (Jina ?) and parsvakas ; these five classes are known by the name of Pancha-parameshtins. The complexions of these are respectively spaţika (crystal), white, red, black and yellow. The central Jina figure should be shaped according to the uttama-daśatala measure, whereas those of the devatas and the twenty-four Tirthankaras surrounding him in the other (madhyama and adhama) daśatala measures. The body should be perfectly free from ornament, but on the right side of the chest (a little over the nipple) there should be the Sri-vatsa mark of golden colour.
"On the right and left side of the gate of the temple of Jina, there should be the dwāra pālakas named Chanda and Mahā Chanda respectively."1
It becomes clear from this extract that there was a regular system of sculpture and architecture to which the workers were expected strictly to conform. “The excessive deference to ritual prescription, generally recognised as a defect in Hindu art" observes Smith, " is carried to such an extremity by the Jains that images differing in age by a thousand years are almost indistinguishable . in style. The uniformity which runs though the centuries extends all over India, so that little difference between Northern and Southern productions is noticeable, and the genius of individual artists, finds small scope for its display." The best illustrations of this remark are undoubtedly the three wellknown colossi of South India, viz., the statues of Gommata or Bāhubali at Śravaņa Belgola, Karkal, and Yenār or Venur. The last one is the smallest of the three (35 ft. high) and the first the biggest, rising to a height of 56ft. All the three are carved each out of a single block of gneiss, giving expression to the same ascetic ideal in the self-same, manner, with the exception of the dimples in the cheeks of the Yenur colossus expressing " a deep, grave smile.” They date respectivaly
1. Mānsāra ch.55; cf. Gopinathrao, Travancore II, pp 118-19. 2. Smith, History of Fine Arts in India, pp. 267-68.
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from about 983 A. D., 1432 A, D., and 1604 A. D. All are set on heights of more or less prominence, visible from a considerable distance around; and despit their formalism command respectful attention by their enormous mass and expression of dignifieķ serenity. That of Karkal is said to be 41 ft., 5 inches high, 101 ft. thick, weighing about 80 tons. This is one of those cotóssäl statues that are found in this part of the country," says Walhouse, "statues truly Egyptian in size, and unrivalled through out India as detached works ......... Nude, cut from a single mass of granite, darkened by the monsoons of centuries, the vast statue stands upright, with arms hanging straight, but not awkwardly, down the sides in a posture of somewhat stiff but simple dignity."
This figure of Gommata is indeed known only in South India, and statues of that size are very rare elsewhere. 4 Gommata, Bāhubali, or Bhujabali is supposed to have been the son of the first Tirthankara Vrishabha, who attained salvation in that position of Kāyotsarga. His feet are entwined with weeds and Kukkuta. sarpas. On the Chandragiri Hill at Sravana Belgoļa is also another statue that of Bharata, brother of Bălubali, of great size, broken below the knees, get standing erect: "
“A statue solid set
And moulded in colossal calm." In the Jaina cave at Bādāmi a similar figure is seem which, in the opinion of Fergusson, is much older (c: 600 A. D.) than the three great monoliths, but represents the same individual—the ideal ascetic who stood in meditation until the ant-hills arose at his feet and creeping plants grew round his limbs. “This Gomata, Gummata or Dorbali,, he also says, “has no prominent place in the Cl. Hultzech, Jain Colossi in South India, Ep. Ind. VII, pp. 108-12. Ep. Car.
II, Introd., p. 15. 2. Cf. Fergusson, A History of Indian and Eastern Architecture IỊ pp 72.8;
Buchanan, Travels III, p. 83. 3. Cf. Sturrock, Sonth Canara I, p. 86 ft. . 4. At Nara in Japan is a bronze statue of Buddha 60ft: high; and at 'Bāmiyán, a
stone image, also of Buddha, 173 ft., high. See, Carpentier, Buddhism and Christianity, p. 15; Nariman: The Indian Daily Mail Annual, 1926, p. 12. Cf. At Gwalior, Smith, op. cit,, pp. 268-70,
9.4
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[Vol. I Svetāmbara pantheon, though Pārsvanātha is with them occasionally represented in a similar position "1.
The question naturally arises, as to how these huge images were moved to their present place. « The task of carving a rock standing in its place had it even been twice the size, the Hindu mind never would have shrunk from ; but to move such a mass up the steep smooth side of the hill seems a labour beyond their power, even with all their skill in concentrating masses of men on a single point," says Fergusson. Yet the fact remains that at least at Karkal the statue with its immense proportions was moved up a smooth and steep rook nearly 800 feet high. According to tradition, it was raised on to a train of twenty iron carts furnished with steel wheels, on each of which 10,000 propitiatory cocoanuts were broken and covered with an infinity of cotton; it was then drawn by legions of worshippers up an inclined plane to the platform on the hill-top, where it now stands. 3
Folk songs of South Kanara also throw some light upon this point, and seem to contain the soul of truth within their legendary exterior. They ascribe the erection of all the three statues to the familiar devil Kalkuda :
The king of Belur and Belgula sent for Kalkuda the stone mason of Kallatta Mārnād (N. E. of Mangalore). He put the thread on his shoulder to let people know his caste, and held up an umbrella He made sharp his adze and put it on his shoulder. He made sharp his chisel and put it in a bag. He made sharp his axe and put it on his shoulder. He carried a cord and a pole for measuring. He dressed himself in his dressing room, and then he dressed himself again. "I am going to the kingdom of Belgula," he said to his wife. He reached Belgula where he ascended twelve steps of stone. He passed by the gate. He passed by a painted chāvadi. He passed by a pillar of precious stone, and a large yard. There the king sat down on his throne with
1. Fergusson, op. cit., pp. 72, 73 no. 3 ; Ep. Car, II Introd., pp. 12-1.
2.
ş. Thurston, The Castes and Tribes of Southern India II, pp. 422-23
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pea cock's feathers. He held up his hands and saluted him: "Come Kalkuda, take a seat," said the king.
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'Why did you send for me?" asked Kalkuda. "Now this is evening and the time to take one's food: therefore take five seers of rice, and go to your lodging; I shall tell you your work tomorrow morning, and then you must work well," said the king.
Next morning the king directed him to do fine work, such as a basti (temple), with 1,000 pillars, aud with 120 images. Seven temples with seven idols; a small temple inside and a garden outside an elephant in the outer yard, and also a large idol called Gummada. Work such that only one door was opened when a thousand doors were shut, and that the thousand doors are opened when a single door was shut ;-a building for dancing and another for dancing-girls, and also others for lodgings;-an elephant that seemed to be running ;-a fine horse and a lion.
"I want to choose my own stones," said Kalkuda.
"Go there to a large rock, and get the stones you like," said the king.
"He went to a large rock called Perya Kalluni and remembered the gods on the four sides. He found the cleft in the stones and put his chisel there, and then he applied his axe. The stone was separated, just like flesh from the blood. He then did fine work, and built the basti of a thousand pillars, etc.1
Then the song proceeds." It is a year and six months since I came. I must go to my native country. Therefore, I beg leave," said Kalkuda.
The king presented him with a cot to lie down on, a chair to sit on, five torches for light, a stick to walk with, clothes up to the shoulders, and betel leaves to fill his mouth.
Then Kalkuda's son, seeing his own father's work said: "All the work is done well, except the image of a trog which is not done well. Its eyes are not done well. Its paws are not well done. Its eyes are not done well. Its paws are not well done Its legs are not properly done."
1, Burnell, The Devil Worship of the Tuluvas, Ind. Ant. XXV, MS, 25.
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[Vol. I
"Rāma, Rāma, Brêmêtti" exclaimed Kalkuda, Many have seen and examined my work; many have been satisfied with it. You were born but yesterday, and are only just grown up, still you have found out a mistake in my work: If the king heard of this. he would tie me to an elephent's leg and beat me with horse-whips. He would dishonour me, and then what would be the use of my life? So saying Kalkuda put down his tools and took out a knife from his girdle and cut his own throat. Thus did he kill himself.
"Father, although you are dead....I will not leave your tools," said the son.... And he worked at Belgola better than his father had done. He built the seven temples; he established a Brahma (?) etc.
*
"C
Bairana-suda (Bairāsu Wodeya ?) King of Karkal, heard the news, sent for him, and told him to work in his kingdom..... He made a basti with a thousand pillars, 120 images, a dancing room, a lodging for dancing-girls, etc.
400***
"Go to a rock on dry land and make a Gummatasāmi there," said the king. He made the Gummatasami. He made a pillar called Banta Kamba, a pillar of Maharnavami. He made a garden inside the temple.
"You people, bring fifty cocoanuts in a basket, and betel-nut on a fan; call together the 5,000 people of Karkal, and raise the Gummatasami," he said. But they could not do it.
"Very well," sail Kalkuda (the younger), and he put the left hand under the Gummata and raised it, and placed it on a base, and then he set the Gummata upright.'
This interesting legend makes it clear that the Jainas employed Brahmanical architects and sculptors as well. In the sequel we are told that the King of Karkal said, "I will not let Kalkuda, who has worked in my kingdom, work in another country;" and he cut off his left arm and right leg. In spite of this, however, Kalkuda
2. This is evidently a reference to the Brahma-deva Pillar, or Manastambha on the Chandragiri Hill, which is a beautiful work of art. Cf. Ep Car. II Introd., p. 24.
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No. III ]
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went to Timmajila, King of Yeņūr, and did fine work with only one arm and one leg. His sister, Kallurti (another devil worshipped in South Kanara) is said to have taken full revenge for the illtreatment of her brother to which the fall of the Kārkal Wodeyars is attributed. The legend also amply illustrates the life of a sculptor, his skill, his sense of honour, his hereditary attachment to his vocation, his small remuneration, as well his hardships which often disabled him for life, though his indefatigable enthusiasm for bis task was more than could be curbed by such calamities. But in spite of all this we cannot fail to notice that lack of versatility in expression, which resulted in repeating the same acts and same acts and same forms over and over again at Belguļa, at Kārkal, and al:o at Yeņūr, almost like a machine turning out stereo-type blocks. “Numberless images might be figured," says Smith, “ without adding anything to the reader's knowledge of Indian art. They differ from one another merely in the degree of perfection attained in mechanical execution." There is in the Madras Museum, a Jaina image on the base of wbich are written the words that King Salva Deva, a great lover of Sahitya (literature), made (the image) according to rule.'4 There are innumerable suoh images made of metal, stone, or even gems. “The Jainas," as Walhouse has remarked, “delighted in making their images of all substances and sizes, but almost always, invariable in attitude, whether that be seated or standing. Most of the images belong to the Digambara sector school, and are nude. Small portable mages of the saint are made of crystal, alabaster, soap-stone, bloodtone, and various other materials ; while the larger are carved rom whatever kind of stone is locally available." He also menions a life-size brass image of Santiśwara at Yeņūr, "erect and nshined in burnished silver and brass-work variegated with red
1. Evidently, Timmerāja who erected the Yemūr colossus. He must therefore
have belonged to the Ajila or Ajalar family. See, Sturrock, op.
cit., p. 55. 2. Burnell, op. cit, p. 224, 3. Smith, op. cit, p. 268. 4, Rangachary, Inscriptions of the Madras Presidency, II, 325
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ornaments."i Each Tirthankara is distinguished from another by his colour, bis chinnha and lānchhana and the Yakshas and Yakshinis who attend on him; the Svetambara images differ from the Digambara particularly in the nudity and absolute lack of ornament in the latter. But, in the words of Mr. Nanalal C. Mehta,“ Somehow or other the aesthetic element was over.shadowed by other considerations, and size rather than strength in sculpture, elaboration of detail more than the beauty of form or outline in building, and narration more than accomplished expression in pictures become the dominant qualities of Indian art as developed under the austere influence of Jainism ”. 3
Another peculiar contribution of the Jainas, not only to Suth Indian, but also to the whole of Indian or even Eastern art, is the free-standing pillar, found in front of almost every basti or Jaina temple in South India. "In the whole range of Ingian art,' observes Smith, “there is nothing, perhaps, equal to these Ķanara pillars for good taste. A particularly elegant example, 52 ft., in height, faces a Jain temple at Mudbidrê. The material is granite, and the design is of singular grace (c. 11th or 12th cent. A. D.)".4 There are about twenty such pillars in the District of South Kanara alone, which made many other distinctive contributions to Jaina art, as we shall notice in the course of these pages. There are two kinds of such pillars in South India, namely, the Brahma-deva-stambhas and the Mānastambhas. The former bear figures of the Brahmanical god Brahma ; the latter are taller and have a small pavilion at the top on the capital.5 We have already referred to the Lyagada Brahma-deva pillar at Chandragiri which is considered a beautiful work of art'. The fine Māna-stambha in front of the Parsvanatha Basti at Sravana Belgola is distingui. shed by a sikhara over the cell which is always surmounted by a small dome," as is universally the case with every vimāna in Dra.
1, Walbouse cited by Smith, op. cit., pp. 238, 268. 2. Burgess, Digambara Jain Iconography, Ind. Ant. XXXII, p. 459 f. 3, Mehta, Studies in Indian Painting, p. 22. 4. Smith, op. cit., p. 22. 5. Ep. Ind. VIII, p. 123,
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मूडबिद्री के न्द्रनाथ - चैत्यालय के खंभों में खुदी हुई हस्तकला के नमूने
( श्रीयुत एस० चन्द्रराज के सौजन्यसे)
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No. III]
vidian architecture, instead of with the amalaka ornament of the Northern sikharas."1
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or
These stambhas or detached pillars are quite different from the dipa-stambhas or lamp-posts of Hindu temples, and in the opinion of Fergusson, are the lineal descendants" of the Buddhist ones. which bore either emblems or statues-generally the former figures of animals. "Pillars are found of all ages in India," he says, from Asoka pillars down to the Jainas. They might be compared to the Egyptian obelisks-but when we look at the vast difference between their designs, it becomes evident that vast ages must have elapsed before the plain straight-lined forms of the obelisks could have been changed into the complicated and airy forms of the Jaina stambhas ".2 Mr. Walhouse remarks, "The whole capital and canopy (of Jaina pillars) are a wonder of light, elegant, lightly decorated stone work; and nothing can surpass the stately grace of these beautiful pillars, whose proportions and adaptations to surrounding scenery are always perfect, and whose richness of decoration never offends."3
53
Apart from these pieces of individual statuary or architectural work, the Jainas distinguished themselves by their decorative sculpture, and attained a considerable degree of excellence in the perfection of their pillared chambers which were their favourite. form of architecture. These took various shapes and gave full play to a variety of designs, differing according to the locality, the nature of the climate or the substance available out of which to execute their artistic ideals. Dr. Coomaraswamy finds fault with Fergusson for his "sectarian classification which he says quite misleading; ""for, just as in the case of sculpture there are no Buddhist, Jaina, or Brahmanical styles of architecture, but only Buddhist, Jaina and Brahmanical buildings in the Indian style of the period." Without entangling ourselves in this controversial question, we might accept the geographical classification of Dr. Coomaraswamy as an adequate" (though not "the only ")
is
61
1. Fergusson, op. cit., p. 75.
2. Ibid, pp. 81-83.
4.
59
3. Walhouse, Ind, Ant. V. p. 39, Coomaraswamy, History of Indian and Indonesian Art, pp. 106-7.
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oelassification, for our purposes. “The three most clearly differentiated types are,” according to him, " the Northern marked by the curvilinear sikhara the Southern, with a terraced pyramidal tower, of which only the dome is called the sikhara and the Central, combining both types with peculiarities of its own." These three types are thus designated in the Silpa-śastras :
A. Nāgra-mainly, North of the Vindhyas. B. Vêsara-Western India, the Deocan and Mysore.
C. Drāvida, Madras Presidency and North Ceylon.1 It is to be understood that these are the most predominent characteristics of each area, but not the monopoly of any particular zone. For instance, in a Ratta inscription of Saundatti that king Rājā “ caused to be erected at Kalpôle a temple of Jina, wonderful to be heheld, the diadem of the earth, having three pinnacles (sikharas) unequalled so that Brahma, Vishnu and Siva were charmed with it;" he also built "a place of retreat for the bigh-minded devotees of the god Santinatha (Jina) adorned with golden pinnacles and arched portals, fashioned like a seamonster, and pillars of honour, etc."9
A more peculiar type of Jaina temples is found in South Kanara, below the ghats on the West Coast. Apart from the Betta or shrines consisting of an open court.yard surrounded with cloister round about the colossi, are the temples of Mudbidrê, belonging mostly to the time of Vijayanagar Kings, with their sloping roofs of flat over-lapping slabs, and a peculiar type of stonescreen enclosing the sides, recalling a Buddhist railing--resemble Himalayan structures, rather than anything else more familiar in India. The
1. Cf, Ibid., pp. 106-7. 2. Fleet, Ratta Inscriptions, JBBRAS X, p. 235. 3. Cf, Coomaraswamy, op. cit.. pp. 118-19; Fergusson, op. cit., p. 75 f. This
ressmblance with Nepalese or Himalayan architecture is generally explained by saying that "similar conditions produced similar structures"; but those who say this forget or are unaware of the existence of a number of Nepalese jogis at Kadri (Mangalore) from unknown times, in the vicinity of whose Matha are a number of tombs said to be those of GorakhNath and his followers from the Himalays. If this fact does not wholly explain, it certainly lends support to the bypothesis of actual Northern influence,
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No. III]
influence of this style is seen not merely in South Kanara, but also further South along the coast. Mr. Logan observes, "The Jains seem to have left behind them one of their peculiar styles of temple architecture; for the Hindu temples, and even the Muhammedan mosques of Malabar, are all built in the style peculiar to the Jains, as it is still to be seen in the Jain bastis at Mudbidrê and other places in the South Canara district" How the Muhammedans came to adopt this style for their mosques, he explains by stating that some of the original nine mosques were built on the sites of temples (or bastis) and perhaps the original buildings were retained or they set the model to later mosques.1
JAINA ART IN SOUTH INDIA
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Of the various styles we can only choose a few typical instances, and dwell more on the peculiarities of the consolidated Jaina art as a whole.
The bastis on the Chandragiri Hill (Sravana Belgola) are fifteen in number. They are all ofthe Dravidiam style of architecture and are consequently built in gradually receding storeys each of which is ornamented with small simulated cells. No curvilinear sikhara, such as is universal with the Northern Jainas, occurs among them, and their general external appearance is more ornamental than that of the Northern Jaina temples. 2 Quite in contrast to these are the bastis of Mudbidre.
The external plainness of the Jaina temples of South Kanara gives no clue to the character of their interiors. In the words of Fergusson, "Nothing can exceed the richness or the variety with which they are carved. No two pillars are alike, and many are ornamented to an extent that may almost seem fantastic. Their massiveness and richness of carving bear evidence to their being copies of wooden models."s
This last observation is fully confirmed by an inscription in Coorg, above the ghats, which definitely speaks of a basadi made of wood to serve as model for another to be later on constructed
1. Logan, Malabar, pp. 88 618; cf. Fergusson, op. cit., pp. 7, 68-9.
2.
Cf. Fergusson, op, cit. I., p. 172; Ilid II, p. 74.
3. Ibid., pp. 78-9; Sturrock, op. cit., p. 85.
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in stone. Its estimated cost was 330 honnu.1 The wooden model must easily have been dispensed with in cases of material which was as tractable as wood. For instance, at Barkur. Buchanan observed a basti, built ly the Wodeyars, about which he remarks-"The workmanship of the pillars and carving is superior to anything that I have seen in India, probably owing to the nature of the stone which cuts better than the granite in common use, and preserves its angles better than the common pot-stone, of which many temples are constructed." The variety of material used for temple structure, naturally varied with the locality. There is a Jaina temple in Belgaum with pillars of black Belgaum porphyry which is said to take a high polish and is strongly magnetic. At Ellora, in one of the Jaina caves, a shrine has two round pillars of polished red stone which give a hollow metallic sound when tapped with the fingres.
The plans of these bastis are everywhere the same, with but slight variations according to size. They begin with spacious, well lighted porches or mandapas-of which there are three in larger temples, (known respectively as Tirthankara.- Gaddige, and Chitra-mantapas), and two in smaller ones (called Tirthankara, and Namaskara-mandapas)-leading to a cell in which the images of one or more Tirthankaras are placed. A special type of the smaller shrines common in Mysore is what is called the Trikutachal with three garbha-girihas, three sukhanasis, and a Navarangi or porch. Shrines of this type are taken as good specimens of the Hoysala style, two examples of which are: the Jaina basti at Markuli (a small village 3 miles east of Ambuga on the Mysore Arsikere railway-line) and the Santinatha temple of Jinanatha-pura (a mile north of Sravana Belgola). The latter is said to be the most ornate temple in the whole of Mysore State.5
1. Cf. Rice, Coorg Inscriptions, Ep. Car, I, 10, p. 56.
2. Buchanan, op. cit. III, pp. 132-33.
3. Cf. Belgaum, Bom. Gaz. XXI, p. 540.
4. Fergusson, op. cit., p. 79; cf. Madras Ep. Rep. 1916-17, pp. 113-14.
5. Mysore Archæological Report, 1925, p. 1: Ep. Car. II Introd., pp. 32-33.
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Another variety of smaller temple is that found at Guruvayanakêrê in South Kanara. It is a five-pillared shrine, in front of the larger temple to which it belongs. Fergusson has observed that four pillared sbrines are not uncommon in the Southern temples, but five pillars is peculiar,-and also having access to the upper chambers (which in this case are three in number).1 The Mêguti temple at Aihole, in the Bijupur District, is also said to be “somewhat peculiar, the shrine being surrounded by eight small rooms (8 ft. wide) in place of a pradakshina passages "2 But by far the best model of a Jaina temple is that of the Chaturmukhbasti or the four-faced temple, found at Karkal and Gersoppa ; a plan of of the latter is given on the page opposite. The following description of the former by Walbouse is also worth reproduction :
“On a broad rocky platform below the bill on the side next the town stands a remarkable Jain temple, much differing from the ordinary Hindu style ; square with a projecting columned portico facing each of the four quarters. The columns, quadrangular for a third part of their height, pass into rounded sections, separated by cable bands, and bave the sides and sections richiy disco. rated with deities, and most graceful and intricate arabesque designs, rosettes and stars, leaf and scroll work, in endles combination, all made out of the carper's brain, wrought almost as finely as Chinese ivory work. The friezes and pediments round the porticoes and temples are ornamented in like manner, and frequently a stone in the wall displays some quaint wonderfully well-cut device; a hundred-petalled flower disc, two serpents inextricably intertwined, or a grotesque head surrounded with fruitage. The temple is roofed with immense overlapping flagstones, and bore some sort of cupola now ruined in the centre. On the massive folding doors of one of the portals being rolled back, a strange sight is disclosed. In a large square recess immediately facing the entrance stand three life-sized images of burnished copper, the counterparts of the great statue on the hill above, each
1. Fergusson, op. cit., p. 79. 2. Ibid. I., p. 356 ; cf. Havell, Ancient and Mediaeval Architecture
of India, p. 68.
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resembling each, and looking weird and unearthly in the gloom of the adytum as the light through the opening doors falls upon them. A like triad stands within each of the other three entrances."1
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Details of the interiors of other Jaina temples also reveal an almost confusing variety of figures, decorations, and symbols. To give but one illustration, in the Markuli temple, already referred to, the main image of Adisvara is seated in Yogamudra, palm on palm crossed legs in the front. Behind him is a prabhavali built against the wall. On either side are standing figures of Bahubali and Parsvanatha with a serpent of five hoods over the heads of the latter, Bahubali is flanked by two small figures one with six hands and another only with two. Of the six hands and another only with two. Of the six hands of the former, three hold respectively an ankusa a kalasa, and a trident; the rest hold fruit. Another seated male figure has four hands holding an ankuća, akshamālā, and fruit in the three with the fourth hand in Paradahasta pose. There is also a female figure with twelve hands: Four on the right hand four on the left holding each a chakra or disc; two with a thunderbolt, and the remaining, with a lotus and varada-hasta. On the ceiling are lotuses and other flowers. 2
Often on the pillars of Jaina temples are curious figures like that of the giraffe or the interlaced basket work of which Fergusson finds parallels in Irish manuscripts and crosses, as well as in America and the valley of the Danube in Europe.3 The number of pillars also is sometimes far in excess of mere architectural needs, as in the case of the Thousand Pillar Basti of Mudbidrê. "It is very extensive, magnificient, containing on and about a thousand pillars and no two alike. In the prophylaeum are several of great size, the lower halves square, the upper round and lessening, recalling Egyptian forms, and all covered with a wondrous wealth of sculptured gods, monsters, leaf and flower-work and astonishing arabesque interlacement cut with admirable clearness. One quadrangular face bears a hymn graven curiously in twenty
1. Cf. Sturrock, op. cit., p. 90.
2. Cf. Mysore Archæological Report, 1925, p. 2.
3. Cf. Fergusson, op. cit., p. 82.
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five small compartments, each containing four compound words, which may be read as verses in all directions, up or down, along or across. On the outer pediment there is a long procession of various animals, living and mythical, among them the centaur and mermaid and an excellent representation of a giraffe." The two specimens of wood-carving, viz., the Panchanari-turaga and Navanarikunjara, are also from Mudbidre and belong to the Chouter's place there.
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To these illustrations from Mysore and the West Coast we might add another from the Deccan to show that the love of profusion and variety was essentially the same, whether in the North or South differing only in the details of expression. The temple of Belgaum with its pillars of magnetic black porhyry has already been referred to. Its sculptures are no less interesting. The brackets of the pillars are ornamented with heads of cobras. In each of the eight architraves which support the dome of the temple are carved five small cells or mandirs, each containing a sitting Jina, and, between the cells are four attendants or supportersstanding figures each under a small canopy. On one carved slab is a figure on horse-back with a high cap, a canopy or umbrella over his head, and a woman behind him. Another is a fancy alligator or makara, a large-headed gaping and similarly mounted short legged dragon. In the centre of the dome is a beautiful pendentive boldly designed and well executed, but damaged at one point. The door leading from the hall to the inner temple has been very gracefully carved. On the centre of the lintel is a sitting Jina and above the cornice are four sitting men. On the neat side pillar colonettes are five bands with human groups in some of which the figures though little more than an inch high are in strong relief. Inside the bands of human figures is a band of rampant lions, their necks adorned with high frills. Outside the colonettes is a band of holy swans, another of lions, and a third of human figures, mostly on bended knees. The pillars of the inner temple or shala are square and massive, relieved by having all the
1. Walhouse quoted by Sturrock, op. cit., p. 88.
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chief fronts, the triangles on the base and neck, carved with flowers A richly carved door leads to the small ante-chamber in front of the shrine. On the under-side of the door cornice is carved a dancing figure between two musicians.
It will be at once noticed that the austere asceticism which symbolised itself in the huge stoic and naked monoliths was also counter-balanced, if not more than counter-balanced by the abundance and variety of these sculptures which in a sense give expression to the later and emotionalised Jainism. There are not a few traces of the early tree and serpent worship of the Dravidians in Jaina sculptures ; and the five, seven, or thousand headed nāgā is everywhere present in the Jaina temples. It is in fact, observes Fergusson, the nāgā that binds together and gives unity to the various religions of South India ; and snake images are very frequent about Jaina temples particularly in Mysore and Kanara.2 In the Chatur-mukha Basti at Gersoppa there is, among the various Digambara figures huddled together, one of Parsvanātha with a beautifully carved śeshaphana as also in the exquisite seated marble figure still worshipped at Sravaņa Belgoļa. Hindu or Brālımaņical influence is also traceable in the sculptures of Indra or Sukra, Garuda, Saraswati, Laxmi, etc.,3 striking exa'nples of which are found in the figure of Laxmi bathed by two elephants at the entrance of the great enclosure round the Gummata at Beļgoļa, and in the huge seated figure of Indrą which has given the name of Indra-sabha to one of the most interesting caves at Ellora This naturally leads us to a consideration of Jaina excavations in South India, which are perhaps more quinerous in the Bombay Division than anywhere else in the peninsula :
"The varying practical requirements of the cult of each religion, of course, had an effect on the pature of the buildings required for particular purposes," observes Smith, 4 and the striking
1. Belgaum, Bom. Gaz. XXI, pp. 540.41. 2. Cf. Fergusson, op. cit. I, pp. 42-44 and 44 n 1; ibid. II, p. 79. 3. Ibid., pp. 4-5; Bühler. Indian Sect of the Jainas, App. by
Burgess, Jaina Mythology, p. 61 f, 4. Smith, op. cit., p. 9.
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paucity of Jaina caves, as compared with either Buddhist' or Brāhmanical ones, is a strong commentary upon those who adver: sely reflect upon the ascetic nature of the Jaina religion. The importance attached to the lay community, as well as the active part played in wordly life by the Jaina monks, must largely account for the fact that although like the Buddhists tlie Jainas had a monastic organisation "it never attained power like that of the Buddhist order”. 1 As Burgess has pointed out, the Jaina caves in Western India do no exceed 4 per cent. of the whole. The figures given by him are: Buddhist 720; Brāmaņical 160 ; and Jaina only 33. The earliest of these belong to the Bth or Bth Century A.D. and the latest perhaps to the 12th century A. D. They are all Digambara, and include one or two very fine specimeris. Like the 'Brahmanicai caves they are also built after the plan of the Buddhist vihāras, probably " as a means of pressing their candidature for a larger share of popular favour."Chotā Kailās or smaller Kailās, at Ellora, is a curious example of the imitation of the works of one sect by the votaries of another “For there can be no doubt,” says Burgess, " this was undertaken in imitation of the great Brāmaņical temple of Kailāsa, but on a much smaller scale." He also adds, “these two temples cannot be far distänt in date' (9th cent. A.D.) 3
By far the most interesting caves of the Jainas in this part of the country are of course, the gr ups calleil the Indra Sabhā and Jagannātha Sabhā. They constitute a maze of excavations learling from one into another, and Havell observes.-" The name of the two temples, and the orientation of their shrines indicate that unlike most of the other shrines at Ellora, it was not the tamasic aspect of the Trimūrti that was here invoked, but the blessings of the Rain God, represented by Vishnu the preserver and his sakti, Laxmi, the bringer of prosperity. Only as the temples belonged to the Jaina sect they appealed specially to their saints, the Tirthankaras, to whoin analogous divine powers were attri
1. Cf. Ibid., p. 11. 2. Burgess. Cave Temples of India, pp. 170-71, 3. Ibid., pp. 495-96
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buted. With this qualification of the symbolism of the structure and ornament has the same significance as in Brahmanical and Buddhist temples."1
The entrance of the Indra Sabha is completely sculptured out of a living rock, like the Kailas temple which it resembles in many respects, though on a considerably smaller scale. Immediately within the walls is the Jaina equivalent of Siva's Nandi shrine. The cubical cell is of the Brahma type, and stands for the fourheaded Brahma symbol as seen at Elephanta, though the four sides are sculptured with the figure of Mahavira. The main block of Indra Sabha consists of a two-storeyed temple, out into the rock for a depth of over 100 ft. "Perhaps the most remarkable of the sculpture of the Indra Sabha," observes Havell, is the strikingly beautiful and original façade of the side chapel on the western side of the main temple, the richness of which contrasts so admirably with the larger surfaces of the grand chhaja shading the the main front and the magnificent profile of the elephants kneeling above it."2
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The figure of Indra himself is sculptured on the left of the main temple, seated on a sleeping elephant. Similarly seated under a tree, carved with infinite care and accuracy with birds, fruits and leaves brought into remarkable relief, is Indrani in the opposite corner facing her Lord. This goddess, unlike Indra, is seated on a crouching lion whose head is completely damaged. She is not the only goddess in the group. There is also four-armed Devi with two discs in the upper hands, and a vajra in her left, resting on her knee. To her left is another goddess with eight arms seated on a pea-cock; evidently Saraswati. Some of the remarkable things to note are the dogs and deer at the foot of Mahavira's throne in the Jagannatha group. There are numerous other figures common to other Jaina temples, but the magnificent pillar carving with nude standing Digambaras on their inner face, is particularly note-worthy. (See photograph opposite.) To be Continued.
1. Havell, op. cit., p. 201. The Brahmanical caves predominate at Ellora; they are 17. whereas Buddhist ones are 12, and Jina only five. All are situated within the radius of a mile. 2. Cf. Plate LX1, Havell, op. cit., p. 202.
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A NOTE ON DEST-GANA. Until before the time when the Jaina Order came to be divided into the two prime sections, viz , 'Digambara' and 'Srētāmbara' it was also known by the general names such as giga', 'sara' etc. In about 136 A, V., which is about 80-81 A.C., it was split up into the two sections named above ;? whenceforth the Digambara section also came to be called as the "Mūla-Sangha" (FIFA) especially in the Deccaņ and South India. The famous Kondakundāchārya ( ITEERD), who was also called Padmanandi (qara)? is said to have been a leader of the Mūla-Sangla during his time.3. About 700 years after the Nirvāņa of Śrī Mahāvīra (528-527 B.C.) i.e., in about 172-173 A.C., this Mūla-Sangha again was divided into four sub-sanghas, viz., dapia, AFFE, ARÊT and daga by one Arbadbali Achārya who was the spiritual descendent of the great Kondakundācharya, and perhaps then or gradually later on came into being further sub-divisions called 'gaņa' (601), such as 'TSCHITTOT', 'g-arant' etc, and yet further ones called " gaccha " (1779), such as pergatitory, OrCalaia, etc., and still further ones called 'vali' (afa)*, such as gaatītafa etc. As will be seen from the quotations given below, all these different sections, sub-sections, etc., such as fia, nu, tess and the did not (and even now do not) connote any difference whatsoever, in tenets or obserrance or anything else of the members of adherents of the respective divisions, but, as it is said, they were brought into opérations merely as a set-off against the possible misunderstanding
1, guite afiang fa HATITEA ATUITA I ___ सोरठे बलहीए उप्पएणो सेवड़ो संघो ॥ (दर्शनसार श्लोक ११) 2. quafragmafuta: sitelr5€5: 1 (samo faro efo & 8) 3. startekaararanasanTaoTI (Ibid No. 69).
4. Be it noted once for all that this word 'af' is not the Sanskrit word 'afaineaning' a fold ', but a Sanskritised form of the Kanarese Word afar' (bali) which means 'a family', and of course a spiritual family' in this case.
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or the like that might be brought about in future, when the religion was spread broadcast over the land.
'अर्हद्वलिः संघचतुबिधं स श्रीकाण्डकुन्दान्वयमूलसंधं । कालस्वभावादिहजायमानद्वेषेतराल्पीकरणाय चक्रे॥
तत्सेननन्दिनिदिवेशसिंहसंघेषु यस्तं मनुते कुदृक्सः । संघेषु तत्र गणगच्छवालत्रयेण लोकस्य चनुषि भिधाजुषि नन्दिसंघे देशीगणे धृतगुणेऽन्वितपुस्तकाख्य गच्छे .......................॥' देवनन्दिसिंहसेनसिंघभेदवर्तिनां देशभेदतः प्रबोधभाजि देवयोगिनां । वृत्ततः समस्ततोऽविरुद्धधर्मसेविनां मध्यतः प्रसिद्ध एष नन्दिसंघ इत्यभूत् ॥
नन्दिसंघे सदेशीयगणे गच्छे च पुस्तके । श्रीमूलसंघे ततो जाते नन्दिगणप्रभेदविलसद्दशीगणे विश्रुते ।
Thus the Desig ana (देशीगण) is a section of the larger division called the Nandi Sangha (नन्दिसंघ). This Desigana is variously called as देशीय, देशिय, देशिक, देशिग, देसिय, देसिग, महादेशि-गणं in the several Kannada inscriptions at Sravanabeļgo!a. In the Sanskrit work called 'बाहुबलिचरित्र', which however, has not yet been published, the following explanation is offered to account for the name esit which this section came to be acquired :
पूर्व जैनमतागमाधिविधुवच्छ्रीनन्दिसंघेऽभवन् सुज्ञानर्द्धितपोधनाः कुवलयानन्दा मयूखा इव । सत्संघे भुवि देशदेशनिकरे श्रीसुप्रसिद्ध सति
श्रीदेशीयगणे द्वितीयविलसनाम्ना मिथः कथ्यते ॥ 1. Sravanabelgola Inscriptions. No. 254. 2. Ibid, No. 258. 3. Ibid, No. 64. 4. Vide Nos. 64 ; 70; 73 ;
117; 125; 126 ; 127 ; 128 ; 268 ; 351 etc. 5. Quoted in the Introduction (p. xxx) to " Dravya Saigraha " S,B.J.
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No. III ]
A NOTE ON DESIGANA.
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Therefore the said tot seems to have been so called as its grati became famous in every country (agregirant) they visited, perhaps on a religious mission to preach and spread Jainism. But this explanation seems to be lacking in historical sense in that it clearly seems to have been easily based on the actual and primary meaning of the word ag' which means 'a country'; or in other words this explanation is merely a ready-made enlargement of the literal sense of ag'. I cannot bring myself to accept this explanation, but shall offer mine own in instead, which, however, I leave to the readers to judge.
That portion of the Deccan that lay between the Western Ghaut Bālāghāt (aroratt) the Karnāṭaka country of the ancient and medieval times and the river Gödārarī was called simply the
Dēša ;3 and the Brāhmanas, who were the inhabitants of this country of ' are still known as arma' Brāhmaṇas. It is because a certain portion of the members of the afatia colonised or settled or otherwise dwelt in the said country of it, I presume, their section must have come to be called aging. For as we have seen above, there are other sections of " Mūla-Sangha," which are called the 'grace -107' and 'Fic-Tu'. Now in the former name, the word 'grata'4 is the name of a certain portion of South India, which now lies in the S W. of the Mysore State, and its capital was Kittipur fragt or Kittur (125) which is now included in the
tocarà tālūka of the said state. The Greek geographer Ptolmey (150 A. C.) has mentioned the ‘Pounnata' (or Pounata) as containing mines of the precious stone, known as beryl' (dad). The पुन्नाट संघ of the Digambara Jainas was also known as कित्त र संघ Though it is not possible to say where the place called (Forge) 1. The uplands of the present North-Kanara district (in Bombay
Presy.) Vide“ Bombay Gazeteer, Vol. XIII, pt. I p. 2. 2. Vide " Imperial Gazeteer " Bombay Prescy) vol. I, pp. 194—196. 3. #Etreta 97819 HITT 94 (aar')
4. In the earlier times 'Paiz' included also the present district of Coimbatore in the Madras Presidency.
5. Sravanabelgola Inscrips. No. 81.
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was situated, it is quite clear at is and cannot but be the name of some certain locality, in that it contains the word 6 which is a Kanarese word meaning a town', a village etc., and having no sense else Therefore I believe that the called must have acquired that name, undoubte ly on account of having been formed as such; or having had its habitation in, or having had some or other conspicuous connection with that portion of the Deccan known as .
M. GOVIND PAI.
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1.' is the name of the place and thus the form of the nominative singular, whereas 'काणूरु' is the genitive singular of the same. In the case of 'g' also, the nom. sg., from is 'gaz' (where the Kanarese suffix a country) and the पुनाडु ' and ' पुन्नाट' are each the Gen. sg. form; but as the said country has been termed in histories as q (though quite wrongly) following the terminology of the Greek Ptolemy, I have kept it as it is.
forms
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Opinions.
1. Mr. A. Banerji Sastri, Professor & Head of the Department of Sanskrit, Hindi, Bengali & Maithil, Patna College :
“Appears to me to be a useful and promising undertaking. Jaina texts contain valuable material for the history of India and their publication in the pages of this Journal will be of great help to students of Indology. I hope the editors will keep this in view in their choice of materials."
2. Prof. E. J. Rapson, M.A., 8, Mortimer Road, Cambridge:
“Please accept my best thanks for your kindness in sending me a copy of the Jaina Antiquary,' I wish this Journal all success."
3. Mr. Chintaharan Chakravarti, Kavyatirtha, M.A., Lecturer, Bethune College :
"It is a fine publication and I wish it a glorious future. I have every hope that you would not spare any pains for keeping up the scholarly standard of the paper so that it may win the sympathy and respect of the world of scholars. The articles in the first number are all well. written and bespeak a bright future. I highly appreciate your idea of publishing. old tents through the pages of your journal. The Descriptive Catalogue of Sanskrit MSS and the Pratimālekha Samgraha will be highly useful publications when completed."
4. Mr. S. C. Ghoshal, M.A., B.L., Saraswati, Kavyatirtha, VidyaBhushan, Bharati, Sadar Sub-Divisional Officer, writes from Cooch Behar. :
"I welcome the appearance of the Bhaskara as there was no Journal of this nature specially devoted to antiquarian researches regarding Jainism. I find the articles interesting and illuminating, and wish every success to the undertaking."
5. Mr. V. S. Agrawala, Curzon Museum of Archæology, Muttra :
"I am indeed grateful for your kindness in sending me the first issue of the Jain Antiquary, which, from its inception, forebodes such encouraging performance. It supplies a real want in the domain of Jainology and must very soon occupy its due place as the standard Quarterly Research Journal concentrating on all branches of Jain literature, art
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and archæology. It was painful to see Jain sources languishing for want of a suitable medium of utterance, and you therefore deserve unanimous congratulation for having so admirably realized the needs of the time."
6. Prof. Otto Stein PH.D. writes from Prague (Zekoslovekia):
“ The Jain Antiquary is highly interesting and I will not fail to contribute."
7. Prof. Bibhuti Bhushan Dutta writes :
" Kindly accept my best thanks for the first issue of the Jain Antiquary. It is very promising."
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RULES. 1. The " Jaina Antiquary” (staferelen HTETT) is an Anglo-Hindi quarterly, which is issued annually in four parts, i.e., in June, September, December, and March.'
2. The inland subscription is Rs. 4 (including postage) and foreign subscription is 6 shillings (including postage) per annum, payable in advance. Specimen copy will be sent on receipt of Rs. 1-4.0.
3. Only the literary and other decent advertisements will be accepted for publication. The rates of charges may be ascertained On application to
THE MANAGER, The " Jaina Antiquary”
Jain Sidhanta Bhavan, Arrah (India). to whom all remittances should be made.
4. Any change of address should also be intimated to him promptly. . 5. In case of non-receipt of the journal within a fortnight from the approximate date of publication, the office should be informed at-once.
6. The journal deals with topics relating to Jaina history, geography, art, archæology, iconography, epigraphy, numisma. tics, religion, literature, philosophy, ethnology, folklore, etc., from the earliest times to the modern period.
7. Contributors are requested to send articles, notes, reviews, etc., type-written, and addressed to,
K. P. JAIN, Esq. M. R. A. S., Editor, " JAINA ANTIQUARY"
Aliganj, Dist. Etah (India). (N.B.-Journals in exchange should also be sent to this address.)
8. The Editors reserve to themselves the right of accepting, or rejecting the whole or portions of the articles, notes, etc.
9. The rejected contributions are not returned to senders, if postage is not paid.
10. Two copies of every publication meant for review should be sent to the office of the journal at Arrah (India).
11. The following are the editors of the journal, who work honorarily simply with a view to foster and promote the cause of Jajnology :
PROF. HIRALAL JAIN, M.A., L.L.B. : PROF. A. N. UPAĎHYE, M.A.
B. KAMTA PRASAD JAIN, M.R.A.S. Pr. K. BHUJABALI SHASTRI.
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आरा जैन सिद्धान्त भवन की प्रकाशित पुस्तकें
**:
(१) मुनिसुव्रतकाव्य (चरित्र) संस्कृत और भाषा - टीका सहित (२) ज्ञानप्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्र भाषा - टीका सहित (३) जैन- सिद्धान्त- भास्कर १म भाग की १म. किरण... २य तथा ३य सम्मिलित किरणें
""
(४) भवन के संगृहीत संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी ग्रन्थों की पुरानी सूची
(५) भवन की संगृहीत अंग्रेजी पुस्तकों की नयी सूची
प्राप्ति-स्थानजैन - सिद्धान्त भवन, आरा ( बिहार ) ।
प्रकाशक तथा मुद्रक - बाबू देवेन्द्रकिशोर जैन, श्रीसरस्वती प्रिण्टिङ्ग वर्कस्, आरा ।
11)
(यह श्रर्द्ध मूल्य है)
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WALA
Britania MINIMUM
Theo
Iain Antiquary
An Anglo-Hindi Quarterly Journal.
ודיבא
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श्रीजैन-सिद्धान्त-भास्कर के नियम।
१ जैन-सिद्धान्त-भास्कर अङ्गरेजो हिन्दी मिश्रित प्रैमासिक पत्र है, जो वर्ष में जून, सितम्बर,
दिसम्बर और मार्च में चार भागों में प्रकाशित होता है। २ इसका वार्षिक चन्दा देशके लिये ४) रुपये और विदेश के लिये डाक व्यय लेकर
४॥) है, जो पेशगी लिया जाता हैं। १) पहले भेज कर ही नमूने की कापी मंगाने में सुविधा होगी। केवल साहित्यसंबंधी तथा अन्य भद्र विज्ञापन ही प्रकाशनार्य स्वीकृत होंगे। मैनेजर, जैन सिद्धान्त-भास्कर, आरा को पत्र भेजकर दर का ठीक पता लंगा सकते हैं।
मनीआर्डर के रुपये भी उन्हीं के पास भेजने होंगे। ४ पते में हेर-फेर की सूचना भी तुरंत उन्हीं को देनी चाहिये। ५ प्रकाशित होने की तारीख से दो सप्ताह के भीतर यदि "भास्कर" नहीं प्राप्त हो, तो
इसकी सूचना जल्द आफिस को देनी चाहिये। है इस पत्र में अत्यन्त प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल तक के जैन इतिहास, भूगोल,
शिल्प, पुरातत्त्व, मूर्तिविज्ञान, शिला-लेख, मुद्रा-विज्ञान, धर्म, साहित्य, दर्शन, प्रभृति
से संबंध रखनेवाले विषयों का ही समावेश रहेगा। ७ लेख, टिप्पणी, समालोचना-यह सभी सुन्दर और स्पष्ट लिपि में लिखकर सम्पादक,
श्रीजैन सिद्धान्त-भास्कर आरा के पते से आने चाहिये। परिवर्तन के पत्र भी इसी
पते से आने चाहिये। ६ किसी लेख, टिप्पणो आदि को पूर्णतः अथवा अंशतः स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करने
का अधिकार सम्पादकमण्डल को होगा। . अस्वीकृत लेख लेखकों के पास विना डाक-व्यय भेजे हुए नहीं लौटाये जाते। १० समालोचनार्थ प्रत्येक पुस्तक की दो प्रतियाँ "भास्कर" आफिस, आरा के पते से भेजनी
चाहिये। ११ इस पत्र के सम्पादक निम्न लिखित सजन हैं जो अवैतनिक रूप से केवल मान जैन-तत्व के उन्नति और उत्थान के अभिप्राय से कार्य करते हैं :
प्रोफेसर हीरालाल, एम.ए., एल.एल.बी. प्रोफेसर ए. एन. उपाध्ये, एम.ए. बाबू कामता प्रसाद, एम.आर.ए.एस. पण्डित के. भुजबली, शास्त्री
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(श्रीजैन-सिद्धान्त-भवन पारो का मुख-पत्र)
जैन-सिद्धान्त-भास्कर
- अर्थात् प्राचीन जैन-इतिहास, साहित्य एवं शोध-सम्बन्धी त्रैमासिक पत्र
भाग २]
[किरण ४
सम्पादक-मण्डल प्रोफेसर हीरालाल, एम. ए., एल.एल. बी. प्रोफेसर ए० एन० उपाध्ये, एम.ए. बाबू कामता प्रसाद, एम. आर. ए. एस. पण्डित के० भुजबली शास्त्री
जैन-सिद्धान्त-भवन श्रारा-द्वारा प्रकाशित
भारत में )
विदेश में ४
एक प्रति का
विक्रम सम्वत् १९९२
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विषय-सूची हिन्दी-विभाग
. विषय
(१) भास्कर की वर्ष समाप्ति-कविता [ श्रीयुत पं० हरनाथ द्विवेदी] .... .... ११६ (२) अमरकीर्तिगणि-कृत षट्कर्मोपदेश
[श्रीयुत प्रोफेसर हीरालाल जैन एम० ए०, एल० एल० बी० ]... (३) विजयनगर साम्राज्य और जैनधर्म [श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री] ... १३२ (४) निसिधि के सम्बन्ध में दो शब्द [ श्रीयुत प्रो० ए० एन० उपाध्ये] ... (५) श्रीऋषभदेव भगवान के जीवनी के साधन ।
... [श्रीयुत मुनि हिमांशुविजय न्याय-काव्य-तीर्थ] ... १४० (६) सिलार रटुराज का नयासिलालेख और जैनधर्म [श्रीयुत बा० कामता प्रसाद जैन] १४७ (७) गत प्रथम एवं द्वितीय किरणों में प्रकाशित अपने लेखों के विषय में कुछ
विशेष वक्तव्य [श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री] ... ... १५२ (5) देवचन्द्रकृत राजावली कथा की विषय-सूची [श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री] १५४ (१) "श्रीबाहुबलि शतक" की समालोचना
[श्रीयुत प्रो० हीरालाल जैन एम० ए०, एल० एल० बी०] ... १५६ (१०) “RISABH-DEVA" की समालोचना
[श्री त प्रो० हीरालाल जैन एम० ए०, एल० एल० बी०] ... १६०
ग्रन्थमाला-विभाग(१) प्रशस्ति संग्रह [श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री] (२) प्रतिमा-लेख-संग्रह [श्रीयुत बाबू कामता प्रसाद जैन] (३) वैद्यसार [श्रीयुत सत्यन्धर आयुर्वेदाचार्य]
... JR..
अंग्रेजी-विभाग(1) RULES FOR ASCETICS IN JAINISM, BUDDHISM & HINDUISM
By S. C. Ghoshal, M.A.B.L., Saraswati, Kavyatirtha, Vidyabhusan, Bharati]
. . ... 67 (2) JAINA ART IN SOUTH INDIA (By Prof. Shripad Rama Sharma, M.A.] 83 (3) OPINIONS. (4) SELEOT CONTRIBUTIONS TO ORIENTAL JOURNALS.
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॥ श्रीजिनाय नमः॥
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THE JAINA ANTIQUARY. जैनपुरातत्व और इतिहास-विषयक त्रैमासिक पत्र
भाग २
मार्च, १९३६ । फाल्गुन वीर नि० २४६२
किरण
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भास्कर की वर्ष-समाप्ति (ले०-श्रीयुत पं० हरनाथ द्विवेदी)
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वरवीर-धर्म-धुरधारी “निर्मल' निधिपति अपनाकर, सहृदय सुविज्ञ सम्पादक-मण्डल-अविरल-बल पाकर ।।। इतिहास-पुरातत्त्वों का शुचि-शुभ्र सार विकसाकर, पाठक पवित्र-प्रेमी को प्रोज्ज्वल कर से हुलसाकर ।२। जिनधर्म-चक्रधारी-सम "चक्रेश' चारु महिमाकरमंजुल-सुछत्र-छाया में शोभन यह वर्ष बिताकर ।३। लेखक-ललाम के अनुपम लेखन-प्रदीप दीपित कर, श्री “शान्ति”-सुधा-मानससर के हंस-वंश-अवतर कर ।। छबि-धाम “लाल छोटे' की वर वृहत् लालिमा लाकर सुख से निजतेज प्रसारा, 'भास्कर'' ने तम विनशाकर |RA
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अमरकीर्तिगणि-कृत षट्कर्मोपदेश
(ले०-श्रीयुत प्रोफेसर हीरालाल जैन, एम.ए., एल.एल.बी.)
एक प्रन्यकर्ता व अन्य का ऐतिहासिक परिचय पूर्व लेख में कराया जा चुका है।
यहाँ इसके विषय आदि का परिचय कराया जाता है। प्रन्थ का विषय नाम ही से स्पष्ट है। इसमें गृहस्थों के लिये नित्य पालने योग्य छह कर्मों का उपदेश दिया गया है। ये छह कर्म हैं देवपूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान। इन्हीं का विवरण प्रन्थ की चौदह सन्धियों में किया गया है। तेरह कडवकों की प्रथम सन्धि का कवि ने षट्-कर्म-निर्णय नाम दिया है। इसमें पूर्वोक्त कवि-परिचय के पश्चात् देवपूजा के हेतु सच्चे देव की परीक्षा की गई है। कवि का कहना है कि 'देव की जब परीक्षा करके पूजा की जायगो तभी उससे पुण्य होगा; विना परीक्षा की पूजा से दुर्गति ही बढ़ेगी। 'दृढ़ मिथ्यात्व में फँसे होने के कारण देव की परीक्षा न जान कर मूर्ख सभी को देव मानने लगता है तथा अपने चित्त को एक जगह कहीं भी नहीं लगाता। सब वस्तुओं में विष्णु का बास बताता है, फिर पीछे उन्हीं को लात लगाता है। आठ मूर्त पदार्थों में ईश्वर का भाव भाता है और तत्काल ही उनका अविनय करता है। विष्णु को नमस्कार करता है तथा स्कर और मच्छ को मारता है उन्हें विष्णु की मूर्ति समझ कर पाप का विचार नहीं करता। महाराक्षस और भूत जो अशुचि-रूप हैं तथा क्षेत्रपाल, बेताल आदि इनकी सेवा से क्या होना है ? ये तो हिंसा के घर हैं और दुष्कर्मों के बांधनेवाले हैं। चंडी आदि सब योगिनी मद्यपान और पशुभक्षण करनेवाली हैं; उन्हीं निर्दयो योगिनियों को देवता मानकर निर्लज्ज संशय-विद्ध मन से, उनकी वंदना करता है। गौ श्रादि तियंच जीवों के भङ्गों को सुख से नमस्कार करता है जिनसे पाप का प्रसंग होने वाला है। बड़, पीपल, जामुन, नीम ऊमर, देहली, दूब, जल, जलचर तथा कंजिनी आदि
। देउ परिक्खिउ पुरणहं कारणु । अपरिवखिउ दुग्गइ-विस्थारणु । १, १,' २ दिन-मित्थत्त-सहावारूढउ । तहो परिक्ख अमुकतउ मूढउ ।
सपल वि देव सहावे मंतइ । एकहि कहिं मिण चित्तु णिवत्तइ । सम्वहि वहिं विगुहु पसंसह । पच्छा ताई मि पाहिं फंसह । अट्टहिं मुत्तिहिं ईसरु भावइ । तक्खणि ताहं मि अविणउ दावई । वियह णवइ सूबरु तिमि मारह । तहो मुत्तिउ पाविड़ ण विवारइ ।
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किरण ४ ]
अमरकीर्तिगणि-कृत षट्कर्मोपदेश
१२१
गृहस्थी के उपकरणों और जीवों के संहार करनेवाले आयुध ष्यादि सभी का देवता मान कर उनके विनय से नमस्कार करने लगता है । इन नाममात्र के देवताओं का प्रेरा हुआ, मूर्ख गुरुद्वारा धोखे में डाला जाकर, भ्रमता फिरता है । जो देव देखा उसी से लग गया; उचित अनुचित की कुछ खोज ही नहीं करता। जब हाथ में अक्षमाला लेता है तब अपने मन में शंका उत्पन्न करता है कि यह देव नहीं है । जो प्रिया के प्रेम में आसक है, विषयों में प्रमत है, देव होकर भी नाचता फिरता है, जो भयानक है (दारुवणु १), दुराग्रही है, वह शुभ प्रभु कैसे हो सकता है ? अवश्य वह लोगों को ठगता है'। जो गोपियों के नाम से जाना जाता है उसे लोग पुरुषोत्तम कैसे कहने लगे ? जिसका मन एक ग्वालिन के देखने से ही विचलित हो जाय, देवत्व उसके पास भी कैसे फटक सकता है ? गौतम ऋषि की भार्या में जिसका मन विस्मित हो गया वही सहस्रनयन सुरपति बन गया ? चन्द्र वृहस्पति की भार्या पर आसक्त हो गया, लोगों ने उसे कलंकित मात्र कहकर रहने दिया। यदि देव भी प्रिया व सुत के मोह में पड़कर मनुष्यों के समान आचरण करते हैं। और क्रोधातुर व कामातुर हुए, दुष्कर्मो में लिप्त, संसार में घूमते फिरते हैं, तो फिर मनुष्यों और देवों में तो कोई अन्तर ही दिखाई नहीं देता ? पुण्य का कारण फिर क्या ठहरा ? जो स्वयं पापकर्म करते हैं वे दूसरों का कैसे पुण्यकर्म में लगा सकते हैं ? जिनके चित्त में सदा संशय विलास कर रहा है, उनमें तो कोई वीतराग गुण दिखाई नहीं देता '" इत्यादि ।
३
४
धत्ता - मह - रक्खस - भूवइ', असुइ-सरुवई, खेत्तवाल - वेयालाइ | ह य देव, हुति असेवई, दुकम्म हिंसालइ ॥६॥ चंडिय - पंमुहउ जोइणि सारउ । मज्ज -पाण-पसु-कवलण-यारउ । देव मणिवि वंद णिग्घिणु । णिविणाइ संसय सल्लिय- मणु । गो-मुहाई तिरिक्खहं श्रंगई । सुहिण णमंसइ पाव-पसंगइ || वड पिप्पलु, जंबू शिंबंचुरु । देहलि दुध्व-इव्भु जलु जलयरु । कंजिणि - पमुह घर - उवयरई । आउहाई जीवहं संघरण । इय सव्व देवइ मरणंतउ । विणयें एवकार गामाहास- देव- मइ - पेरिउ । हिंडइ जड-गुरूहिं जो जो देउ थिइ तहो लभ्गइ । जुत्ताजुत्तु किंपि ण हु मग्गइ |
विरयंतउ |
अवहेरिउ |
देव गियर्माणि संसउ भावहिं । अक्खमाल जावहिं करुठा वहिं ।
धत्ता - पिय-पेम्मासत्तउ, विसय पमत्तउ, देव हविवि जो चइ ।
दारुवणु कयग्गहु, कह सो सुहपहु, लोयहं अवसु पर्वच ॥ १०॥
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१२२
भास्कर
[भाग २
- इस प्रकार मिथ्या देवों का निराकरण करके संधि के शेष भाग में सच्चे देव का निर्णय किया गया है। जिसके क्रोध, लोभ, मद, आलस्य, जरा, भय, विस्मय आदि दोष नहीं, जिसके न गले में मुंडमाला है, न कर में कपाल है ; न कंठ में वासुकि है, न सिर पर गंगा है, न त्रिशुल है, न खट्वांग हैं, न धनुष है, न अर्धनारी-रूप शरीर है, जिसके न लीलाविलास है, न स्वयं गाता है, न नाचता है और न रोष-तोष उपजाता है, न सन्तुष्ट होकर आधे क्षण में राज्य देता और न रुष्ट होकर पकड़ता और मारता; जो केवल जीवों की दया तथा अपने और पराये हित में मग्न है, वही देव नमस्कार करने योग्य है। दूसरे देवों के साथ देख परख कर यही वीतराग कहा जा सकता है।
दूसरी सन्धि से नवमी सन्धि तक कवि ने क्रमशः जल, सुगन्ध, अक्षत, पुष्प, नेवेद्य, दीप, धूप और फल इन अष्ट द्रव्यों द्वारा देव-पूजा करने का माहात्म्य बतलाया है, और प्रत्येक के फल के उदाहरणस्वरूप एक एक कथा दी है। तदनुसार इन सन्धियों का
जो गोविहिं णामेहि वि तक्किउ.। सो पुरिसुत्त कह जणि कोक्किउ । गोविहि दंसणि जो वियलिय-मणु । परिभमेइ तहो कहिं देवत्तणु। जो गोत्तम कलत्त-विभियमइ । सहसणयणु संजायउ सुरवइ । चंदु विहप्पइ-भज्जासत्तउ । भणिवि कलंकिउ जणि वि गुत्तउ । देव वि पुणु जइ मणुयायारिहिं । वत्तहिं पिय-सुय-मोहुग्गारिहिं । देव वि जइ कोहाउर कामिय । भवि भर्मति दुकम्मोहामिय। . ता मणुवहं देवहं वि ण अंतरु । दोसइ पुराणहेउ काई मिथिरु। . पावयम्मु जे सई उप्पायहिं । पुण्णकम्मि किह ते परु लायहिं। .
ताहं ण वीयराय-गुणु दोसइ । संसउ जाहं चित्ति णिरु विलसइ । ५ जस्स कोहो ण लोहो ण माहो मओ । णालसो णो जरा णो पिहा विभवो ।
मुंडमाला गले णो कवालं करे । बासुई णस्थि कण्ठे ण गंगा सिरे । णो तिसूलं ण खड्गयं णो धणू । अद्धणारी णरा दोसए णो तणू। जो ण लीला-विलासो सयं गायए। णच्चए रोसतोसं समुप्पायए । देइ रज्जं खणखें ण संतुट्टओ । गिण्हए मारए जो पुणो रुटुनो।
x x x x x x x x . धत्ता-जीव-दयासत्तउ, स-पर-हियत्तउ, सो पुणु देउ णमिज्जइ ।
इबरेहि परिक्खिउ, देवेहि लक्खिड़ वीयराउ पणिज्जइ ॥१२॥
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किरण ४ ]
अमरकीर्तिगणि-कृत षट्कर्मोपदेश
१२३
कवि ने क्रमशः (२) जलपूजा कथा वर्णन, (३) गंधपूजा - फल-कथा-वर्णन, (४) भक्षत पूजा-विधान कथा प्रकाशन, (५) पुष्पपूजा - फल- निर्णय वर्णन, (६) नैवेद्य पूजा-फल-कथावर्णन, (७) दीपक-प्रबोधन- पुण्यकथा वर्णन, (८) धूपपूजा कथा - वर्णन, और ( 8 ) फल-पूजाकथा-वर्णन, नाम दिये हैं । कथायें साधारण प्रचलित व्रत-कथाओं के समान ही हैं, पर कहीं कहीं इनमें बड़ी रोचक और मर्म की बातें कह दी गई हैं। उदाहरणार्थ अक्षत - पूजाविधान - कथा में राजा और एक शुकी की बातचीत हुई है । प्रसङ्ग ऐसा है कि राजा के बाग में एक सुन्दर आम का झाड़ था । वहीं एक शुक और शुकी का जोड़ा रहता था। शुकी के गर्भ समय उस आम के मौर खाने का दोहला उत्पन्न हुआ । यह आम बड़ी सावधानी से रखाया जा रहा था - कोई पक्षी भी उसके पास फटकने नहीं पाता था। तो भी अपनी प्रिया के प्रमवश तोता अपने जीवन को संकट में डाल रोज उस आम की मौर ले आता था । आखिर एक दिन रखवाले ने जाल डालकर इस तोते को फँसा लिया और राजा के सम्मुख उपस्थित किया। राजा मौर के नष्ट होने से बड़े रुष्ट थे, इससे तोते के उन्होंने मार डालने का विचार किया, पर इतने ही वहाँ वह शुकी प्रा गिरी और बोली 'राजन् इसने मेरे लिये वह साहस किया था, इसलिये इसकी जान छोड़िये और मुझे दण्ड दीजिये । राजा ने तोते से पूछा 'रे तोता ! तूने समझदार होकर भी ऐसी गलती क्यों की ? क्यों तूं इस मादरजात के बहकावे में आकर ऐसा अपराध कर बैठा ?' इसके उत्तर में तोता तो न बोलने पाया, शुकी बोल उठी
में
'हे राजन्, लोग दूसरों पर तो बड़े जल्दी हँसने लगते हैं पर स्वयं अपनी कमजोरी पर ध्यान नहीं देते रे, स्त्री के लिये ही तो मनुष्य सब सुखों के देने वाले अपने मातापिता तक का दूर छोड़ देता है । स्त्री के लिये वह धर्म छोड़कर दिनरात कुकर्म करता है । स्त्री के लिये ही वह समरांगण में भिड़ता, दूसरों का मारता और स्वयं मरता है । स्त्री के लिये तो वह देव, गुरु व सज्जनों तक की निर्लज्ज होकर चोरी कर डालता है । स्त्री के लिये वह कुल परम्परा को छोड़कर निन्दनीय व्यसनों में पड़ जाता है, और बड़प्पन, सुहृत्ता, प्रसिद्धि, शील आदि गुणों तक का तिलाञ्जलि दे देता है । स्त्री के लिये ही वह अपने ऊपर दूसरों का ऋण चढ़ा लेता है और अपने जीवन का तृण के समान गिनने लगता है । और, हे देव ! तुम भी तो अपनी भार्या के लिये जान निछावर करने के लिये तैयार हो गये थे, फिर एक बेचारे पक्षी को आप क्या दोष देते हैं। अपनी
प्रिया के मोह में तो बड़े बड़े विद्वान् भी मूढ़ हो जाते हैं'। '
६ सा अंपेइ कीरि गिवद्द इस्थ संधु लोउ । परु उवहसइ मुगद्द हु किंपि यिय-गोहु ॥
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भास्कर
[ भाग ३
तीसरी सन्धि में तपस्या में प्रवृत्त एक सुन्दरी और उसके रूप पर आसक्त एक विद्याधर के भाव और क्रियाओं की विषमता का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है
'जैसा जैसा उस सुन्दरी का ध्यान लगता जाता था, वैसा वैसा यह विद्याधर उसको अपना रूप बतलाने का प्रयत्न करता था। जैसे जैसे उसके ध्यान के अन्त होने का लक्षण नहीं दिखता था वैसे वैसे यह उसके गात्र की ओर घूर घूर कर देखता था। वह अपने मन में परमाक्षर 'ओं' का चिन्तन कर रही थी, तब यह अपने मन में रतिसुख का विचार कर रहा था। जैसे जैसे वह अपने शील को सम्हालने में लगती थी वैसे वैसे ये सविकार मन से देखते थे। वह गुरु के वचनों को छोड़ने के लिये तैयार नहीं थी, ये प्रेम के मारे बेहाल थे। वह अपनी प्रतिज्ञा भंग नहीं करती थी, ये नाना प्रकार के हावभाव दिखा रहे थे। वह द्वंद्व-भावना को छोड़ रही थी, ये गिड़गिड़ा कर बोल रहे थे। वह कर्मों के क्षय की भावना भा रही थी, तब ये उसके चारों ओर चकर काट रहे थे। वह भावनाओं में लीन थी तो ये कामवाण से तड़प रहे थे। और जैसे जैसे वह तत्वों के विवेचन में संलग्न हेाती थी वैसे वैसे ये हज़रत पृथ्वी पर पड़े अपने आपको भूल रहे थे।
महिलहिं कज्जि सव्व सुक्खयरई । णरु दूरम्मि चयइ णिय पियरई। महिलहिं कज्जि करेइ कुकम्मई । अहणिसु दूरोसारिय धम्मइ। महिलहिं कज्जि भिडइ समरंगणे । परु मारइ मरेइ सई तक्खणे । । महिलहि देउ गुरु वि (पुणु) सज्जणु । मूसइ चोरु जेम अइणिग्घणु । महिलहि कज्जि कुलक्कम वज्जइ । णिंदियाइ वसणाइ पजई । महिलहि कज्जि गुरुत्तु सुहित्तणु । मुवइ पसिद्धि सोलु विवसत्तणु । महिलहिं कज्जि चडावइ पररिणु । णिय-जीविउ अवगएणइ जिह तिणु । तुहुं मि देव णिय-भज्जा-कारणि । जं जीविउ चएहि तुट्ठउ मणि । तं पक्खिहि मि दोसु किम दिज्जह । पिय मोहें विउसु वि मोहिज्जइ ॥४॥ जह जह झाण किं पि आहासइ । तह तह सो णं मुत्ति पयासह । जह जह सा ण झाणु परिसेसइ । तह तह सो तहो गत्तु गवेसइ । जह जह सा परमक्खरु चिंतइ । तह तह सो रइसुहु मणि चिंतह । जह जह सा ससीलु संभालइ । तह तहसो सवियारु णिहालइ । जह जह सा गुरु-वयणु ण छंडइ । तह तह सो गेहें अवरुडह । जह जह सा स-पइज्ज ण भंजइ । तह तह सो बहु भाव पउजह ।
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मूडबिद्री के चन्द्रनाथ - चैत्यालय के खंभों में खुदी हुई हस्तकला के नमूने
(श्रीयुत एस० चन्द्रराज के सौजन्य से )
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किरण ४]
अमरकीर्तिगणि-कृतषट्कर्मोपदेश
अन्य की दशवीं सन्धि में जिनपूजा पुरंदरविधि-कथा कही गयी है, उपवासविधि बतलाई गई है और जिनपूजन व व्रत-उद्यापनविधि का विवरण है। इस सन्धि के साथ षट्कर्मों में से प्रथम देवपूजा का उपदेश समाप्त होता है। ___ ग्यारहवीं सन्धि में दूसरे और तीसरे गृहस्थकर्म अर्थात् गुरु-उपासना और स्वाध्याय का उपदेश दिया गया है, 'गुरु के उपदेश से ही ज्ञान मिलता है, इसलिये गुरु की सेवा करनी चाहिये बिना सूर्य-प्रकाश के कहीं लोक के पदार्थ दिखाई देते हैं' ? गुरु कैसा होना चाहिये ? 'जो मन की शंकाओं का निवारण कर सके, शीलवान् हो, शुद्ध निष्ठावान् हो, जिसका चारित्र ही भूषण हो, दूषणों का जिसके त्याग हो, वही गुरु उत्कृष्ट है, जो इन्द्रियों के विषय-विकारों में भूला हो, वह गुरु तो सच्छिद्र नाव के तुल्य है। मोह, प्रमाद और अहंकार में जो मता हुआ है वह विकलत्र अर्थात् ब्रह्मचारीगुरु कैसे बनायो जा सकता है ? गृह, केलन, मित्र और संपदा में जो बँधा है वह मोहांध कैसे गुरु होगा? जो मद्य पिये और मांस भोजन करे वह निर्लज्ज कैसे गुरु माना जा सकता है ? जो जीवों की रक्षा न करे, न मन में शुद्ध आचार भावे वह पापी गुरु, अन्धों का अन्धे के समान अपने शिष्यों को स्वर्ग के दर्शन कैसे करा सकता है ?..
अतएव उत्कृष्ट गुरु का सदैव विनय करना चाहिये। विनय बड़ा ही अच्छा गुण
जह जह सा दुविहासा मेल्लइ । तह तह सो सविलक्खु पबोल्लइ । जह जह सा फम्मक्खउ भावइ । तह तह सो चउपासिउ धावइ । जह जह सा भावणउ वियप्पइ । तह तह सो सरजालें कंपइ ।
जह जह सा तच्चक्खु विवेयइ । तह तह सो महि पडिउ ण चेयई । '८ जाणिज्जह सा गुरु-कहिय, तेण गहिजइ सुगुरु-वासणा । . रवि-उज्जोयह विणु हवइ, किह लोयम्मि पयस्थ-पयासणा ॥११,१॥
मण-संदेह-णासणो, सील-वासणो, विहिअ-सुद्ध-णिट्ठो ।
जो चारित्त-भूसणो, चत्त-दूसणो, सो गुरु वरिठ्ठो ॥११,१॥ १० इंदिय-विसब-विवारहि भुल्लउ । सो गुरु वणिय-तरंडहु तुल्लउ ।
मोह-पमाय-मएहि पमत्तउ । किह सो गुरु किजइ वियलत्तउ । घर-कलत्त-सुहि-संपव-बद्धड । किह सो गुरु हवेइ मोहंधउ ।
मज्जु पिएइ करह मंसासणु । किह सो गुरु मरिणजह णिग्धिणु । घत्ता-जो जीउ स रक्खइ पावमई, सुद्धायारु ण णियमणि भावइ ।
सो गुरु अंधह अंधु जिह, सीसह केम सग्गु संदावह ॥११,१॥ .
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१२६
भास्कर
[ भांग २
है - ' विनय से बहुत पुण्य होता है और छोटे बड़े सभी प्रसन्न होते हैं ।
विनय से देवता
पति का नाश कर देते हैं और दुष्ट भी शान्त हो जाते हैं । विनय से सब विद्यायें सिद्ध होती हैं, ग्रहों की पीड़ा रुक जाती है, लोक में प्रसिद्धि होती है, लक्ष्मी कभी साथ नहीं छोड़ती। विनयी मनुष्य का सब लोग आदर करते हैं और दुर्जन भी भाई बन जाता है । विनय से दान, शील, तप सहज ही सधते हैं और कोई शत्रु नहीं बनता । विनय से सब लोग वश में हो जाते हैं । विनय ही एक ऐसा कर्म है जिसका कभी कोई विरोध नहीं करता । विनय सब कल्याणों का करनेवाला, और नरकों की दुर्गति को टालनेवाला है। परोक्ष विनय का ही फल सुनो। द्रोणाचार्य का विनय एक भील ने किया था जिससे. प्रतिदिन धनुर्विद्या का अभ्यास करते करते उसे शब्द-वेधी बाणकला सिद्ध हो गई थी । " गुरु-उपासना का विषय इस संधि के सात कडवकों में समाप्त होकर आठवें कडवक से स्वाध्याय का उपदेश प्रारम्भ होता है। स्वाध्याय पाँच प्रकार का है, वाचना, पृच्छना अनुक्षा, आज्ञा और उपदेश । अब कौन सा शास्त्र स्वाध्याय के लिये उपयुक्त गिन जाय ? कवि उत्तर देते हैं " जिसमें पूर्वापर विरोध न हो, दया के बहाने भी पशु के मारने और उसका मांस खाने की बात न हो, जहाँ लोकविरुद्ध आचरण और मलिन क्रियाओं का उपदेश न हो, तथा जहाँ कुदान और कु- परिग्रहण का आदेश न हो और पापों के साधनों की पुष्टि न की गई हो वही आगम सचमुच में सर्वोत्कृष्ट है। ऐसे आगम का
११ विउ विसेस -पुराण- उच्पायणु । विणए रंजिज्जइ लहु-गुरयणु ।
विणए ं देव वि श्रवइ णासहि । विणए दुट्ठ वि सेस पयासहि । fare विज्जउ सबल वि सिज्झहि । विणए गह पीडाउ गिरुमहि । विए लोय पसिद्धि पवच्चइ । विणेए लच्छिय कहव ण मुच्चइ । free raरु होइ कयायरु । विणए दुज्जणु जायइ भारु । fare दा सीलु त सुहयरु । विश्ए कोवि ण जायइ तहु पह | विणए वस हवेइ सयलु वि जणु । विणउ इक्कु अविरुद्ध उ कम्म I विणउ स्थल-कल्लाह' कारण । विगउ गरह. दुग्गइ - विणिवारणु । - गिणि परोक्खय-विण्य-फलु, दोणायरिउ भिल्ल पणवंतहु | सधैं बहु संजाउ तहो, दिशि दिखि धणुहन्भासु कुणं तहो ॥ ११,३॥ १२ पुष्वावर - विरोह- परिचुक्कर । सो आयमु परमत्थ गुरुक्कउ । जेथु दयाभासेविण हम्मद । पसु तहु कप्पिड मंसु य जिम्मइ ।
धत्ता
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किरण ४]
अमरकीर्तिगणि-कृत षट्कर्मोपदेश
१२७
नित्य स्वाध्याय करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इससे बुद्धि बढ़ती है । बुद्धि-हीन : मनुष्य की बड़ी दुर्दशा होती है; उसकी सब क्रियाओं का फल उलटा ही होता है "वह धूर्त पिशाचों की मीठी मीठी बातों में फँस जाता है और फिर भ्रमता फिरता है। वह तीर्थो में भटकता है, पानी में डूबता है तथा कामक्कशों द्वारा अपने शरीर को दण्ड देता । इस प्रकार वह बहुत से त्रस और स्थावर जीवों का घात करता है पर पुण्यहेतु कुछ नहीं साधता । जिस प्रकार कोशे का कीड़ा अपनी ही क्रिया से अपने आपको बंधन में डाल लेता है वैसे ही यह जीव दुष्कर्मों का अपनी ओर आकर्षित करता है"१३ । इस सन्धि में या आगे की सन्धियों में कोई कथानक नहीं हैं। इस सन्धि को कवि ने 'गुरूपासना - स्वाध्याय निर्णय प्रकाशन' नाम दिया है ।
reaf सन्धि में चौथे कर्म 'संयम' का उपदेश है। इसके लिये इन्द्रिय-संयम की सबसे प्रथमकता है। "एक ही स्पर्श इन्द्रिय के सुख की लालसा के कारण बन के हाथी को भी दूढ़ बन्धन में पड़कर ताड़नादि दुःख भोगना पड़ता है । रसना इन्द्रिय के लोभ से दुस्तर समुद्र में रहनेवाला मत्स्य भी गल द्वारा फँसा लिया जाता है । घ्राण इन्द्रिय में रक्त भौंरा कमल के भीतर मरता है, नयन इन्द्रिय के वशीभूत होकर मूढ़ पतंग एक क्षण में दीपक के तेज से भस्म हो जाता है, और श्रवण इन्द्रिय के वश में पड़कर गान में आसक्त हुआ हरिण व्याध द्वारा तुरन्त मार डाला जाता है । एक एक इन्द्रिय के दोष से ये सब जीव इस प्रकार विनष्ट हो जाते हैं; फिर जो मनुष्य पाँचों इन्द्रियों के सुखों की अभिलाषा करता है; वह तो भव भव में दुःख सहेगा ही । सर्प, सिंह, हाथी, क्रूरग्रह, रूठे हुए व्यंतर, कुपित नरेश्वर तथा अन्य दुर्जन भी जीव को वह दुःख नहीं दे सकते जो इन्द्रियों के विषय देते हैं। ये तो जीव का एक ही जन्म में विध्वंस कर सकते हैं, किन्तु वे जन्म जन्मान्तर में भी पिंड नहीं छोड़ते " 1
„ १8
जेत्थु ग लोय - विरुद्धा रण । पर्याडज्जहिं बहु - मल- वित्थरणइ । जेथु दुद्दा पडिगाणु । ण वि पोसिज्जइ दुरिय- पसाह ॥११८॥
१३ बुद्धि - ही जणु धुत्त - पिसार्या हि । गहिलउ हिंड किय-सुहिवायहिं । तिरथई अवगाह जले बुड्डइ । काय - किलेसहि गितयु दंड । तस थावर बहु जीव विरोहह । पुराण हेड ण वि काई उ साहइ । कोसियारु जिह अप्पर वेढइ । तिम स जीउ दुक्कम्महु कढई ॥११,६॥ १४ वण- करि फासिंदिय - सुह - गिद्धउ । सहह बंधु ताड दिवद्ध । रसदिय - लुद्धउ दुत्तरि जलि । तिमि बहुउ गलेय णिन्भर गलि ।
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c
[ माग २
पर इन्द्रियां बेचारी अपने ही बल पर कुछ नहीं कर सकतीं। "जैसे धन्धा मनुष्य, एक स्थान पर खड़ा, अपने काम की अभिलाषा रखता हुआ भी, बिना दर्शक के कहीं आ नहीं सकता, उसी प्रकार बिना मन के व्यापार के इन्द्रियाँ अतीन्द्रिय विषय सुखों का रस नहीं चल सकतीं। जैसे जड़ कट जाने पर बड़े बड़े पत्तोंवाला वृक्ष, जैसे राजा के बिना चतुरंग सेना, जीव के बिना सारा कलेवर और सम्यक्त्व के बिना व्रतों का विस्तार निरर्थक है, उसी प्रकार मन के बिना ये प्रबल इन्द्रियाँ भी कुछ नहीं कर सकतीं। पर यह मन हो तो सुख और दुख के भावों से बँधे हुए ल लोक्य के जीवों के लिये बड़ा दुर्जय है। सब को दिखता है कि मन चंचल है, पर जिनदेव को छोड़ कर और कोई उसे काबू में नहीं ला सका । तिलोत्तमा को रस से नाचती और हावभाव विभ्रम प्रकट करती हुई देखकर चतुरानन का चित्त भी चलायमान हो गया, ब्रह्मा का भी कामोन्माद बढ़ गया । मन में काम-विकार से संतप्त होकर हरि गोपियों में अनुरक्त हुए भटकने लगे। ऋषि के आश्रम में तरुणी से मोहित मन होकर शिव सौ गुना नाचने लगे और गौतम ऋषि की भार्या में आसक्त होकर इन्द्र का चित्त चल पड़ा और वे सहस्राक्ष बन गये ।" " ५ इस बुर्जय मन को ही वश करना बड़ा भारी और सच्चा संयम है
।
भास्कर
इंदिदिरु | पंकद मरिवि
घाणिं दिय देय रत्तउ दिय-वसेण खणि दृड्ढउ । सल हु सर्वादिय-वसु गेयासत्तउ । वाहें
मारिड
हरिणु
इ
विण
इ दियहं वि दोसें । इस सयल वि जो रु पंचेंद्रिय - सुर-लालसु । दुक्खु सहइ सो भवि भवि
विं तर ।
तं दुक्खु फणि केसरि कुंजर । कूरग्गह सरोस तह
कुविष गरेसर अवर वि दुज्जय । एय- जम्म विद्धंसण कियमण ।
जीवहु दिति विषय जं भवि भवि । उप्पण्णद्द सरीर तह गवि वि ॥ १२,१॥
१५ अंधु जेम आयह वजिउ ठाराठिओ । अच्छा चलणहु सक्कइ जइ वि सक्ज-पिओ ।
मण-वावार - विमुक्कई तिहपुरा इ' दियई । विसय सुक्खु ण विषाणइ अवसु श्रतिं दिषङ्ग ॥ छिर-मूलु जिह तरु वडिय दलु । विइ- हीखु जिह चउरंगु विबलु ।
वय विस्थरु । खिरस्थइ ।
बिणु जीवें जिह सवल कलेवरु । विणु सम्मतें जिह तिह मण- वज्जियाई सुसमत्थई । पंचेंदिवइ हवे म दुउजेड हवइ तिजयत्थह । जीवहं सुह दुह-भावावस्थहं । म चंचल इह सव्वहं दीसइ । जिए मुएवि अरण्यहं कहु सीसइ । पियेषितिलोत्तम सरसुतिय । विन्भम हाव भाव पवतिय ।
जाउ
दीव ते
सय सहरु ।
विमूढउ |
तुरंतउ ।
कबतोसें ।
सालसु ।
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किरण ४]
अमरकीर्तिगणि-कृत षट्कर्मोपदेश
इसके पश्चात् दयाधर्म की प्रशंसा और उसके पालन का उपदेश है। फिर सात मिथ्यात्वों के उल्लेख और उनके त्याग के उपदेश, तथा सम्यक्त्व के व मूल गुणों के धारण की प्रेरणा के साथ संधि समाप्त होती है। इस संधि का नाम कवि ने 'सम्यक्त्वशुद्धि-प्रकाशन' रक्खा है।
तेरहवीं सन्धि में भी संयम का उपदेश चालू है। यहां अहिंसा, अचौर्य, सत्य, शील और अपरिग्रह इन पांच अणुव्रतों का, दिग्वत, देशवत और अनर्थ-दण्ड-व्रत इन तीन गुण प्रतों का, तथा सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग-परिमाण और अतिथि संविभाग इन पार शिक्षाघ्रतों का, और फिर निशिभोजन त्याग का उपदेश है। निशिभोजन त्याग को कवि ने व्रतों का सार कहा है और इस पर उन्होंने बड़ा जोर दिया है। जो इसे पालन नहीं करते उन पर इस जन्म और अगले जन्म में बड़ी बड़ी आपत्तियां आती हैं, पुत्र कलत्रादि सब दुराचारी हो जाते हैं, तथा जो इसे पालते हैं उनके सुखों का पारावार नहीं है, ऐसा कहा है। फिर मौनव्रत का उपदेश है। मल-मूत्रोत्सर्ग, भोजन, स्नान व देवबन्दन क्रियाओं में मौन रखना चाहिये। इसके पश्चात् समाधिमरण के उपदेश के साथ सन्धि समाप्त होती है और संयम कर्म का उपदेश पूरा होता है। इस सन्धि को कवि ने 'संयम कर्म' कहा है।
अन्त की चौदहवीं सन्धि में तप और दान कर्मों का उपदेश है। तप बाह्य और अभ्यन्तर रूप से दो प्रकार का है और प्रत्येक के छह छह भेद हैं, इस प्रकार तप बारह प्रकार का है। बाह्य तप के अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश, तथा आभ्यन्तर तप के प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान भेद हैं। इनका वर्णन प्रथम आठ कडवकों में समाप्त होकर छठवें अन्तिम फर्म दान का उपदेश प्रारम्भ होता है। दान का माहात्म्य बड़ा भारी है- "वह गृहस्थधर्म का सार कहा गया है। दान से पापों की अवधि टलती है तथा ऋद्धि और पुण्य उत्पन्न होते हैं । दान सब कल्याणों का भाजन है, तीनों लोकों को हिला देनेवाली शक्ति है, भागभूमि के सुखों का विस्तार बढ़ानेवाला है, लोक का अद्भुत वशीकरण है और गौरव का हेतु है। दान जाति और कुल के नाम को जगा देता है, सुपात्रों से संयोग
चलिय-चित्तु चउराणणु जायउ । बंभु पड्ढिय-कामुम्भायउ । मणि मणसिय-विवार-संतत्तउ । हरि हिंडइ गोविहिं अणुरत्तउ । रिसि आसम मोहिय तरुणिहिं मणु । हरु दारुपणु पच्चिउ सयगुणु । गोत्तम-रिसि-भजहिं आसत्तठ । हरि,सहसक्खु जाउ चल-चित्तउ ॥१२,२॥
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[ भाग २
संतुष्ट हो जाता है।
जोड़ देता है, दुर्गति का समूल नाश कर देता है और शुभगति को सामने ला देता है । एक दान से ही सज्जनता का पोषण होता है और बैरी का भी मन दान कामधेनु है, कल्पवृक्ष है, चिन्तित फल देनेवाला चिन्तामणि है । वाला सिद्धमंत्र है और पाप के मेल को धोने के लिये बीजाक्षर है" " " । यह दान प्रहार, औषधि, अभय और शास्त्र ऐसा चार प्रकार से सुपात्र और कुपात्र का विवेक करके देना
दान स्पष्ट फल देने
चाहिये ।
भास्कर
ग्रन्थ को पूरा करते हुए कवि ने उक्त छह कर्मों की महिमा गाई है - "इन छह कर्मों से श्रावक की पहिचान होती है, दिन भर के किये हुए पाप विलीन हो जाते हैं, सम्यक्त्व की शुद्धि होती है, गृहस्थी के काम काज से चित्त को कुछ विश्रान्ति मिलती है, जैनधर्म जाना जाता है, नर-जन्म में गणना होती है, उपसर्ग श्राने से रुकते हैं, ऋद्धि आने में चूकती नहीं, दुष्कर्म टूट जाते हैं, प्रमाद छूट जाता है, मन में शक्ति उत्पन्न हो जाती है, स्वर्गगति मिलती है, लोक में प्रसिद्धि होती है, त्रिभुवन में हलचल हो जाती है, बड़े बड़े पुरुष वशीभूत हो जाते हैं, देव भी आज्ञाकारी बन जाते हैं, सब वाञ्छाएँ पूरी होती हैं, देव दंदुभि बजाते हैं, केवल ज्ञान उत्पन्न होता है और अविचल सुख की प्राप्ति होती है । जो मनुष्य निःशल्यमन और संसार की बाधाओं से विरक्त होकर षट् कर्म का पालन करेगा वह स्थिर दृष्टि से उसी मोक्षमार्ग का दर्शन पा जायगा जिसे जिनेश्वर भगवान् ने ही देख पाया है ।"१७
१६ दाणु कहिउ गिइ धम्महं सारउ । दाणु होइ दुरियावहि वारउ | सत्त-कलापह भाषणु । भोय- महि- सुह - विस्थार गुरुत्तहि हेउ पउत्तउ । सुपत्त संग-संजोयणु ।
।
दाणु परिद्धि-पुराण उपाय | दाणु दा तिलोयहं खोहहु कारण । दाणु दा लोग वसियर रुित्तः । दाणु दाणु जाइ-कुल- खामुजोयणु । दाणु दाणु होइ दुग्गइ - णिणासणु । दाणु अवसु सुहगइ - उन्भासणु । दाणु इक्कु सुणत्तणु पोसइ । दाखु वि वरिय मणु संतोसह । दाणु विकामधे सुरवर-तरु । दाणु वि चिंतामणि चिंतिययरु । दावि सिद्धमंतु पर्याय - फलु । दाणु वि बोयक्खरु हयकलिमलु ॥१४, ६ ॥ १७ छक्कम्महिं सावहु जाणिज्जइ । छक्कम्महिं दिणि दुरि विलिजइ ।
फिइ ।
छम्महिं सम्मत्तु विसुज्झइ । छकम्महिं घरकम्मु कम्महिं जिधम्मुमुखिज्जइ । छकम्महिं गरजम्मु
गणिज्जइ ।
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किरण ४]
अमरकीर्तिगणि-कृत षट्कर्मोपदेश
इस प्रकार यह अमरकीर्तिगणि का षट्कर्मोपदेश पूरा होता है। यहाँ जो विवरण दिया गया है उससे ग्रन्थ के विषय का, कर्ता की भाषा-शैली का तथा काव्य के गुणों का परिचय पाठकों को मिल जायगा। ग्रन्थ के कर्ता काष्ठा संघ के थे, पर प्रन्थ भर में ऐसी कोई बात कम से कम मेरी दृष्टि में नहीं आई जो दूसरे किसी भी संघ के अनुयायी को अग्राह्य हो। पूजा के अष्ट द्रव्यों का क्रम तक कर्ता ने सर्वमान्यतानुसार ही रक्खा है। प्रन्य उद्धार के योग्य है। इति शम् ।
छक्कामहिं उवसग्गु ण ढुक्कइ । छक्कम्महिं रिद्धिहि ण वि चुक्का । छक्कम्महिं दुक्काम तुहिं । छक्कामहिं पमाय विहट्टहिं । छक्कम्महिं पसत्ति मणि जम्मइ । छक्कम्महिं सुरणयरिहि गम्मइ । छक्कम्महि पसिद्धि जणे लब्भइ । छक्कम्महि तिहुवणु खणि खुब्भइ । छक्कामहि वसि जायई परवर । छक्कामहि देव वि आणायर । छक्कम्महि गंछिउ संपज्जइ । छक्कामह' सुरदु'दुहि वजह ।
छक्कामहिं उप्पज्जा केवलु । छक्कम्महिं लब्भइ सुहु अवियलु । ...त्ता-छक्कामइ जो पारु सल्लमणु, भविउ भवाहि-विवजिउ पालह ।
सो जिणणाहे दीसियउ, मोक्ख-मगु थिर-दिट्टि णिहालइ ॥१४,१७॥
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विजयनगर-साम्राज्य और जैन-धर्म
(ले०-श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री) .
जब सन् १३२७ में मुहम्मद तुग़लक ने 'होय्सल' राज्य को समूल नष्ट कर उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया तब दक्षिण भारतीय भिन्न भिन्न राज्य सजग होकर दो वीर योद्धाओं के नेतृत्व में संगठित हुर। इस संगठन का परिणाम यह हुआ कि इन शूरवीरों ने कुछ ही समय के बाद एक नवीन राज्य की नीव डाली। इस नवीन राज्य की राजधानी विजयनगर ही बनी। उल्लिखित वोरों के नाम क्रमशः हरिहर और बुक्क थे। ये दोनों सहोदर भाई थे। इन भाइयों ने दक्षिण भारत में बड़े वेग से बढ़ती हुई यवनशक्ति को बडी वीरता से रोका। इसी समय वहाँ यवनों ने बहमनी राज्य को स्थापित कर गुल्बर्गा को इसकी राजधानी बनाया। उस समय दक्षिण में यही दा राज्य प्रधान थे और सदेव इनमें एक दूसरे के प्रति पारस्परिक संघर्ष चलता था। लगभग सन् १४८१ में बहमनी राज्य बरार, गोलकुण्ड, बीजापुर आदि भिन्न भिन्न प्रदेशों में पांच भागों में विभक्त हुआ। विजय नगर का कलह बीजापुर के आदिल शाहों के ही साथ चलता रहा। पूर्वोक्त पाँचों महम्मदीय राज्यों में पारस्परिक द्वष एवं नोक-झोंक चलते रहने के कारण प्रायः विजयनगर को ही विजयी बनने की सुविधा मिल जाती थी। अन्त में मुसलमानों ने अपनी इस भूल को समझ लिया। फलतः इन लोगों ने संगठित होकर सन् १५६५ में तालिकोट के मैदान में लड़कर दक्षिण भारत से सदा के लिये हिन्दसाम्राज्य की जड़ ही उखाड़ डाली। इस युद्ध में यवनों ने विजयनगर के तत्कालीन शासक रामराय को मारकर उनकी सुन्दर राजधानी विजयनगर को तहस-नहस कर डाला। लोक विश्रुत, हिन्दुओं की भूतपूर्व राजधानी विजयनगर का ध्वंसावशेष देखकर आज भी सहृदयों की आँखों से प्रवाहित अश्रुधारा रोके नहीं रुकती।
यह हुआ विजयनगर साम्राज्य का संक्षिप्त इतिहास। अब मैं अपने पाठकों का ध्यान प्रकृत विषय की ओर आकृष्ट करता हूँ। विजयनगर राजवंश में वीर बुक्कराय को जैन धर्म कमी नहीं भूल सकता। क्योंकि इन्होंने अपने शासनकाल में एक अमूल्य उपकार के द्वारा जैनधर्म को एक प्रकार से चिरणी बना दिया है। इस बुक्कराय (प्रथम) ने उन दिनों जैन और वैष्णव सम्प्रदाय में धधकती हुई विद्वेषाग्नि को बुझा कर शान्ति स्थापनाद्वारा अपनी अमिट धार्मिक मैत्री दुनिया को दिखा दी थी। यह शासक सर्वधर्म
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भास्कर'
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एलोरा का अलंकृत स्तम्भ (दक्षिण भारतीय कला )
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किरण ४]
विजयनगर साम्राज्य और जैन-धर्म
समदर्शी थे इसके लिये यही एक पूर्वोक्त उदाहरण पर्यात समझा जायगा। यह समुज्ज्वल एवं लोकहितकर गुण सभी शासकों में होना परमावश्यक है। किन्तु मुझे यहां कहना पड़ता है कि साम्प्रदायिकता के रंग में सराबोर होकर कई शासक इस अनुकरणीय गुण को भूल जाते हैं यह खेद की बात है। खैर इस महत्त्वपूर्ण शासकोचित सद्गुण का विवरण इस प्रकार है:
वहाँ के वैष्णवों ने जैनियों के धार्मिक अधिकार में कुछ हस्तक्षेप किया। जैनियों ने निरुपाय हो कर वैष्णवों के इस धर्मसम्बन्धी हस्तक्षेप का अनौचित्य दिखाते हुए राजा बुक्क राय के पास जा उनसे न्याय भिक्षा मांगी। राजा बुक्क ने जैनियों का हाथ वैष्णवों के हाथ में रखकर शपथपूर्वक यों फैसला किया-"धार्मिक विषयों में जैन और वैष्वण सम्प्रदाय में कोई भेद नहीं है। जैनियों को पूर्ववत् पञ्चमहावाद्य और कलश का अधिकार रक्षित रहेगा। जैनधर्म की वृद्धि और ह्रास वैष्णवों को अपनी ही वृद्धि और हानि समझनी चाहिये। श्रीवैष्णव मेरा यह उल्लिखित शासन मेरे राज्य के सभी देवालयों में स्थापित कर दें। बल्कि सूर्य-चन्द्र के अस्तित्व के साथ अर्थात् जब तक सूर्य और चन्द्रमा का अस्तित्व रहे, मेरे वैष्णव-समुदाय जैन धर्म की रक्षा करते रहेंगे। यह विवरण श्रवण बेल्गोल के नं० १३६ (३४४) वाले शक सम्बत् १२६० के शिलालेख में अङ्कित है। इस शिलालेख में यह भी उल्लेख मिलता है कि श्रवण बेल्गोल में २० वैष्णव अङ्करक्षकों की नियुक्ति के लिये प्रतिवर्ष प्रत्येक जेनी के घर से एक एक हण* संग्रहीत किया जाय और इस द्रव्य का अवशिष्ट भाग वहां के जैन-मन्दिरों के जीर्णोद्धार-कार्य में व्यय किया जाय। और इस कर-संग्रह के व्यवस्थापक तिरुमले तातय्य रहें। साथ ही साथ शिलालेख में यह भी लिखा मिलता है कि इस राज-शासन का उल्लङ्घन करनेवाले राज, संघ एवं समुदाय के द्रोही करार दिये जायें।
बुक्क राय के इस पक्ष-पात-शून्य फैसले से वैष्णव होते हुए भी इनकी प्रजा-प्रियता पद-पद पर प्रदर्शित होती है। वास्तव में यह एक आदर्श शासक थे।
लगभग शक सम्वत् १३३२ के श्रवणबेलगोलस्थ नं० ४२८ (३३७) के शिलालेख से सात होता है कि देव राय महाराय की रानी भीमादेवी पण्डिताचार्य की शिष्या थीं और इन्होंने मंगायि में श्रीशान्तिनाथ तीर्थङ्कर की बिम्बप्रतिष्ठा करायी थी। यह देव राय प्रायः प्रथम देव राय ही होंगे। मालूम होता है कि भीमादेवी जैनधर्मावलम्बिनी थीं। श्रवणबेल्गोल के शक सम्वत् १३४४ लेख नं० ८२ (२५३) में हरिहर (द्वितीय) के सेनापति इरुगप्प ने श्रवणबेलगोल में जो भूदान किया था उसका वर्णन मिलता है। यह इरुगप्प देव राय द्वितीय
* उस समय का प्रचलित मुद्राविशेष ।
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[ भाग २
के समय में भी मौजूद थे। इनके द्वारा नानार्थ रत्नमाला नामक एक संस्कृत पद्यात्मक कोष रचे जाने की बात मिलने से यह ज्ञात होता है कि यह इरुगप्प संस्कृत के भी एक अच्छे मर्मज्ञ विद्वान् थे । इन्होंने विजयनगर में भी श्रीकुन्थनाथ तीर्थङ्कर का एक मन्दिर निर्माण कराया था । हरिहर राय (सन् १३३६ - १३५०) ने तुळु जैनराजाओं को जो वंश-परम्परा से राज्य शासन करते चले आते थे निष्कण्टकता एवं निर्भीकतापूर्वक शासन करने का अधिकार दे दिया था। बल्कि इन आदर्श- शासक हरिहर राय की ओर से तुळु जैन राजाओं को अपने जैनराज्य में सभी अधिकार मिले थे । १३७६ - १४०४ ) ने जिस प्रकार कदरे के मञ्जुनाथ, कान्तावर के कान्तेश्वर आदि जैनेतर देवस्थानों को जागिर दी थी उसी प्रकार मूड़विद्री के जैनगुरुबसदि को भी दी थी। शक सम्वत् १३२६ के मूड़विद्री के गुरुबसदि के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि द्वितीय बुक्क राय ने इस बसदि (मन्दिर) को भूदान दिया था। सुप्रसिद्ध देव राय द्वितीय (सन् १४२९ - १४५१) ने हट्ट गडि के चन्द्रनाथ देवालय, मूडबिद्री के त्रिभुवनतिलक चैत्यालय वारंग के नेमिनाथ मन्दिर आदि इस जिले के कई जैनचैत्यालयों को जागीर दी थी - यह बात वहाँ के भिन्न भिन्न शिलालेखों से सिद्ध होती है ।
द्वितीय हरिहर राय (सन्
भास्कर
ख्रिस्त शक १४३१ - ३२ में कार्कल के शासक भैरवराय के सुपुत्र वीर पाण्ड्य ने कार्कल में जो लोक विख्यात बाहुबली स्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी उस प्रतिष्ठासमारोह में द्वितीय देव राय भी सम्मिलित हुए थे । वीर पाण्ड्य ने आपका बड़ा सम्मान किया था । विजयनगर के एक शासन से विदित होता है कि उक्त देव राय ने विजयनगर में भी पार्श्वनाथ स्वामी का एक मन्दिर बनवाया था। इनके समय में विजयनगरसाम्राज्य बहुत ही उन्नतावस्था में था। इटली के पर्यटक निकोलोकोन्टो और पर्शिया के राजा कक्कलियन के राजदूत अब्दुल रज़ाक इन दोनों ने देव राय के राज्यविभव को अपने अपने यात्रा-विवरणों में बड़े सुन्दर ढंग से चित्रित किया है। उस समय विजयनगर राजधानी साठ माईल के घेरे में फैली हुई थी । इनके यात्राविवरण से यह भी विदित होता है कि द्वितीय देव राय का राज्य कृष्णानदी से कन्याकुमारी तक विस्तृत था पर्व तत्कालीन विजयनगर के शासक भारतीय राजाओं में अधिक शक्तिशाली थे ।
अस्तु इसी राजवंश के द्वितीय विरूपात राय (सन् १४६५ - १४७१ ) ने भी मूडबिद्री वाले त्रिभुवनतिलक चैत्यालय को जागीर दी थी । विट्ट पाडि के बल्लाल के सहोदर भाई के घर पर के एक शासन से ज्ञात होता है कि सलुववंशीय नरसिंह के छोटे भाई इम्मड नरसिंह ने सन् १४९० में चिह्न पाडि के हलर बसदि (मन्दिर) में जागीर दी थी ।
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किरण ४
विजयनगर साम्राज्य और जैन-धर्म
प्रख्यात दानवीर कृष्णदेव राय (सन् १५०९-१५३०) के द्वारा मूडविद्री के गुरुवसदि* एवं चंगलपट्ट के प्रैलोक्यनाथ जिनालय को वृत्ति दी गयी थी।
यों तो विजयनगर साम्राज्य के स्थापनाकाल से ही दक्षिण भारत में हिन्दु संस्कृति की उत्तरोत्तर वृद्धि होती रही है, पर इन कृष्णदेव राय के शासन-समय में तो वह हिन्दू संस्कृति अत्युन्नतावस्था को प्राप्त हो गयी थी। उत्तर भारत में विक्रमादित्य का नाम जैसी श्रद्धा के साथ लिया जाता है वैसे ही दक्षिण भारत में इन कृष्णदेव का नाम लोग बड़े आदर के साथ स्मरण करते हैं। विजयनगर राजवंश के अन्यान्य छोटे-मोटे राजाओं ने भी जैनदेव-मन्दिरों को समय समय पर वृत्ति प्रदान कर सम्मानित किया है। यही तक नहीं इस वंश के राजाओं से जैन कवियों को भी अन्यान्य साहाय्य-द्वारा पर्याप्त प्रोत्साहन मिला है। प्रथम हरिहर (सन् १३३६–१३५३) के शासनकाल में मुगुलिपुर के स्वामी प्रथम मंगरस ने खगेन्द्रमणि-दर्पण का प्रणयन किया था। धर्मनाथ पुराण के रचयिता मधुर द्वितीय हरिहर (सन् १३७७-१४०४) के राजसभा-पण्डित थे। विलिगे. तालुक के एक शासन से विदित होता है कि शब्दानुशासन के कर्ता भट्टाकलंक के गुरु भट्टाकलंक ने प्रथम श्रीरंग राय (सन् १५७३ -१५८४) की राजसभा में उनको प्रेरणा से सारत्रय एवं अलंकारनय को पढ़कर कीर्ति समर्जित की थी। इस शासन से यह भी ज्ञात है कि शब्दानुशासनकर्ता भट्टाकलङ्क प्रथम वेङ्कटपति राय (सन् १५८६-१६१७) के शासनकाल में जीवित थे।
इस दिग्दर्शन से यह बात जानने में अब जरा भी सन्देह नहीं रह जाता है कि विजयनगर के साम्राज्य-शासन-समय में जैनी सुखपूर्वक निर्वाधरूप से अपने धर्मकर्म का पालन करते थे।
बल्कि दक्षिण कन्नड़ जिले में शासन करनेवाले अजिल जैन राजवंश के एक विशेष वक्तव्य (कैफियत) से पता लगता है कि इस वंश का सम्बन्ध विजयनगर साम्राज्य से भी था। इसका विवरण यों है :
इस वंश के पूर्वज तिम्मण्ण अजिल के मरणोपरान्त इस राजवंश में केवल दो स्त्रियाँ रह गयी थीं। इनमें से एक विधवा और दूसरी कुमारी थी। ये दोनों सगी बहनें थीं। तिम्मण्ण अजिल के शत्र ओं ने इनके मर जाने पर इनकी सभी चल अथवा अचल सम्पत्तियों को लूट-खसोट कर दोनों स्त्रियों को निस्सहाय बना दिया। ऐसी दशा में इन दोनों ने विजयनगर साम्राज्य के शासक के पास जा अपना पूर्व परिचय-प्रदानपूर्वक
* उल्लिखित प्रमाणों के लिये "द० कन्नड़ जिल्लेय प्राचीन इतिहास" देखें। "कर्णाटक कविचरिते" के २व भाग की अवतरणिका देखें ।
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१३६
भास्कर
[ भाग २
अब
अपनी दयनीय दशा का कच्चा चिट्ठा कह सुनाया । विजयनगर के साम्राज्य - शासक ने इनकी दुरवस्था पर तरस खा इन्हें आश्वासन एवं अभयदान देकर अपने यहाँ रख लिया । बल्कि उनके वंश का प्रकृत पता लगा कर उस स्वभाव-सुन्दरी उक्त कुमारी से अपनी शादी भी करली । इस नवविवाहिता स्त्री के गर्भ से विजयनगर साम्राज्य - शासक को तिम्मण्ण राय और कामि राय नामके दो पुत्ररत्न उत्पन्न हुए । इन दोनों लड़कों के रक्षण, भरण एवं पोषण बड़ी सतर्कता के साथ हुए। बाद इन दोनों भाइयों के तरुण हो जाने पर इनकी मौसी विधवा ने राजा से निवेदन किया कि हमसबों ने अत्यन्त अपमानित होकर आपकी शरण ली थी। हम सबों के सौभाग्योदय से आप जैसे माननीय सहृदय शासक की छत्रछाया में रहकर इस समुन्नतावस्था को प्राप्त करने की सुविधा उपलब्ध हुई । मुझे इन दोनों बच्चों को साथ लेकर अपनी जन्मभूमि का दर्शन की हार्दिक उत्कण्ठा हो रही है - आशा है कि आप मेरी यह विनीत प्रार्थना स्वीकृत करेंगे । राजा ने यह प्रार्थना सहर्ष कबूल करली । और इन दोनों लड़कों को उस विधवा के साथ उनकी जन्मभूमि को भेजकर मंगळूरु प्रान्त के कुछ हिस्से बड़े लड़के तिम्मण्ण राय और कुछ हिस्से छोटे लड़के कामि राय को देकर इन्हें अपने अपने प्रान्तों का शासक बना दिया। बल्कि अधिक स्नेहभाजन होने की वजह से अपने छोटे लड़के इन कामि राय को कुछ अधिक हिस्सा दिया । इसके बाद बड़े लड़के तिम्मण्ण राय एणूरु में और छोटे कामि सय नन्दावर में भिन्न भिन्न दो राजधानी बनाकर सुख से रहने लगे। बड़े तिम्मण राय का वंश अजिल और छोटे कामि राय का वंश बंग के नाम से प्रसिद्ध हुए । इन दोनों के वंशज आज भी मौजूद हैं। अभी तो ये जनी हुई हैं किन्तु ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध होता है कि यह वंश पहले हिन्दू था ।*
अन्त में मैं विजयनगर के सम्बन्ध में सुहृद्वर बाबू हीरालाल जी एम०ए०, एल०एल०, बो० का मत नीचे ज्यों का त्यों उद्धृत किये देता हूँ :
"इस वंश के नरेश यद्यपि हिन्दू थे पर जैनधर्म की ओर उनकी दृष्टि सहानुभूतिपूर्ण रहती थी । इसका बड़ा भारी प्रमाण बुक्क राय का वह शिला लेख है जिसमें उनकी बड़ी सहृदयता के साथ जैनियों और वैष्णवों के बीच सन्धि स्थापित करने का विवरण है। बिजयनगर के हिन्दू नरेशों के समय में राज्यघराने के कुछ व्यक्तियों ने जैनधर्म स्वीकार किया था । उदाहरणार्थ हरिहर द्वितीय के सेनापति के एक पुत्र व 'उग' नामक एक राजकुमार जैन धर्मावलम्बी हो गये थे ।
( 'मद्रास व मैसूर प्रान्त के प्राचीन जैनस्मारक' की भूमिका पृष्ठ १४ ) * इस वंश का यह विशेष वक्तव्य ( कैफियत ) “सुवासिनि" सम्पुर : संचिके १ में देखें ।
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निसिधि के सम्बन्ध में दो शब्द
(ले० – प्रो० श्रीयुत ए० एन० उपाध्ये)
कनड़ी और संस्कृत के अनेक जैन शिलालेखों में 'निसिधि' शब्द पाया जाता है । किन्तु उसका अक्षर - विन्यास (spelling) सर्वत्र एक सा नहीं है । कनड़ी के शिलालेखों में उसके भिन्न भिन्न रूप पायें जाते हैं यथा 'निषिदि' 'निषिधि' 'निसिदि' निसिधि' 'निसिद्धी' 'निसिधिग' और निष्टिग । ' उत्तर कर्नाटक में आजतक भी 'निसिद्दी' शब्द प्रचलित है । संस्कृत के शिलालेखों में उसके 'निषिधि' 'निषद्यका' और 'निषद्या" रूप पाये जाते हैं । इसके रूपों की विभिन्नता मूल शब्द तथा उसकी बनावट के ऊपर प्रकाश डालने के लिये किसी को भी लालायित कर सकती है ।
अनेक शिलालेखों के अध्ययन करने से इस शब्द का अर्थ बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है । मृत्यु के बाद बनाये जानेवाले उस ढांचे या मकान को 'निषद्या' कहते हैं जो संभवतः उस स्थान पर बनाया जाता था जहाँ किसी पूज्य साधु ने अपने अन्तिम श्वास पूरे किये थे या जहां पर उसका शरीर जलाया जाता था अथवा जहाँ पर उसकी अस्थियाँ गाड़ी जाती थीं। इस प्रकार की समाधियाँ प्रायः चबूतरे के रूप में पाई जाती हैं । चबूतरे के चारों कोनों पर चार खम्भे होते हैं और उन पर एक गुम्बजदार भारी छतरी होती है जो पत्थर या ईंटों से बनायी जाती है। कभी कभी केवल चबूतरा ही होता । चबूतरे पर मृत - साधु के पदचिह्न और कहीं कहीं मूर्ति' भी अङ्कित होती है। अधिकतर पदचिह्नों के पास एक शिलालेख रहता है उससे मृतसाधु का परिचय तथा उसके अन्तिम हालात मालूम होते हैं और स्मारक के निर्माता का भी पता चलता है ।
बहुत से जैन ग्रन्थों में धरातल में ऊंचे चौरस स्थानों का ( seats) वर्णन मिलता
१ इ० सी०२, नं० ६४, १२६, २७२, ६२, १५ १६, ८५, १२, १०३, १०४, ११२, २७३, ११७,१८, ६५ आदि ।
२ इ० सी० २, नं ० . ६६ इसमें 'निषिद्यालयम् ' वाक्य आया है; ६५, ६३, २५४ ॥
३ उदाहरण के लिये —कोप्पल में चन्द्रसेन निसिदि - जयकर्नाटक, X, १० और कागवाड़ा में नागचन्द्र — निसिदि, जिनविजय XXVI
४ बेल्गोल के ऐसे बहुत से शिलालेख ।
५ देखो, निसीहिया का वर्णन, भगवती आराधना, गाथा १६६४ - ६७ ( कोल्हापुर संस्करण पृष्ठ १७२ से), शास्त्रसारसमुच्चय पृष्ठ १७० से (बेलगाँव संस्करण) ।
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१३८
[ भाग २
है । इन पर बैठकर जैनसाधु सल्लेखना धारण करते थे । कोप्पल तथा जैनों के अन्य पवित्र स्थानों पर इस प्रकार की वेदिका याज भी सुरक्षित हैं। जो शब्द अप्रसिद्ध होते हैं उनकी व्याख्या की आवश्यकता होती है । जब हम संस्कृत में 'निषद्यका' और 'निषद्या ' तथा कड़ी में निषदि और निषीदी रूप देखते हैं तब हमें इसमें कोई सन्देह नहीं रहता कि यह शब्द 'नि' उपसर्ग पूर्वक 'सद्' धातु से बना है और उसके दो रूप निषद्या और निषीदिका - - अवश्य प्रचलित होने चाहिये। जिनका अर्थ-आसन, बैठने का स्थान, विश्रामस्थल और 'कुछ धार्मिक क्रियाओं के काम में आने वाला स्थान विशेष' आदि होते हैं । आजकल जो निशियां मिलती हैं वे भी किसी न किसी साधु के वासस्थान हैं जहाँ उन्होंने मृत्यु के पूर्व अपने दिन बिताये थे या अन्तिम समाधि धारण की थी । इससे भी हमारी उक्त धारणा की पुष्टि होती है ।
भास्कर
किन्तु 'निषिधि' 'निसिधि' 'निसधिग्' और 'निसीधि' इन रूपों में आये हुए 'ध' को कैसे समझाया जाय ? इस शब्द के प्राकृत रूप पर ध्यान देने से 'घ' की समस्या सरलता से हल की जा सकती है । प्राकृत में 'निषीदिका' का 'निसीहिया' रूप बनता है । साधारणतया 'ह' 'ध' के तुल्य हो सकता है। यद्यपि 'द' का 'ह' हो जाना स्वाभाविक नहीं है। किन्तु इस प्रकार के उदाहरण पाये जाते हैं जैसे ककुद - ककुह' । जैन ग्रन्थों में जैनसाधुओं के जीवनी तथा स्मारकों के वर्णन में 'निसिधि' शब्द का प्राकृत रूप बहुधा पाया जाता है यथा", "निसेधिकी - निषीदस्थानम्, आह च जीवाभिगम मूल टीकाकृतनिसेधकी निषीदस्थानमिति" । कुछ स्थलों पर इसका अर्थ स्वाध्यायशाला भी पाया जाता है । अस्तु, इस शब्द का संस्कृत अनुवाद पूर्ण उपयुक्त नहीं है, शायद टीकाकार भी इसके विषय में संदिग्ध था और इसीलिये अपने से प्राचीन लेखक का उद्धरण देकर वह अपने उत्तरदायित्व से बच जाता है। आधुनिक कनड़ी लेखक मुख्यतया जैन, संस्कृत शब्दों के अपभ्रंश के लिये सर्वदा प्राकृत व्याकरण का आश्रय लेते हैं । फलस्वरूप के प्राकृत 'मिसीहिया' रूप के साथ - जो कि उनकी दृष्टि में था - उन्होंने कनड़ी के शिलालेखों में 'घ' को स्थान दे दिया । किन्हीं किन्हीं रूपों में 'द्ध' भी पाया जाता है । निषद्या और fruttaar (प्रा० निसीहिया) इन दो रूपों की गड़बड़ी का ही यह परिणाम है। जैसा कि संस्कृत के 'सुगति' और 'सद्गति' इन दो रूपों की गड़बड़ी से 'सुगाई' रूप भी पाया
I
१ हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण १ - २२५ ।
२ राब प्रसेनीयसुत्त, सूख नं० २८ में 'निसीहिय' शब्द आया है और उस पर मलयगिरि की टीका में यह वाक्य है - श्रागमोदयसमिति का संस्करण पृ० ६३ ।
३ उत्तराध्ययन] २८, ३ में सुग्गई प्रयोग पाया जाता है ।
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किरण ४]
निसिधि के सम्बन्ध में दो शब्द
जाता है। जब किसी शब्द का मूल दृष्टि से श्रोझल हो जाता है तब उसके स्थान में कोई भी अशुद्ध रूप प्रचलित होने लगता है। कनड़ी का 'निष्टिग'' और संस्कृत 'निसिधि' इसी कोटि के रूप हैं।
खारवेल के शिलालेख को पन्द्रहवीं पंक्ति में 'निसीदिय' शब्द आता है। यथा'भरहतनिसीदियसमीपे'। वहाँ यह शब्द स्पष्ट रूप से 'अहंन्' के अग्निसंस्कार के स्थान पर बनाये गये स्मारक को बतलाता है। इस स्मारक का आकार शायद बहुत कुछ प्रांतीय बनावट के ऊपर निर्भर है। दक्षिण भारत में ऊँचा चौकोर चबूतरा बनाया जाता है। यह बात विचारणीय है कि खारवेल के शिलालेख के 'निसीदिय' को स्तूप समझना उपयुक्त होगा या नहीं ? कुछ शिलालेखों से यह स्पष्ट है कि निषीदिका का बड़ा आदर था और उस स्थान पर पूजा और प्रतिष्ठा भी होती थीं।
- - इ० सी०२, नं० ६५ । १ इ० सी० २, नं० ११७, ११८, १२८ इत्यादि ।
३ भण्डारकर प्राच्य-विद्यामन्दिर पूना की पत्रिका जिल्द १४ भाग ३-४ से ६० कैलाशचन्द्र शानद्वारा अनुवादित ।
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श्रीऋषभदेव भगवान की जीवनी के साधन
(ले०–श्रीयुत मुनि हिमांशुविजय, न्याय-काव्य-तीर्थ)
अधुनिक शैली पर तीर्थंकरों के चरित्र लिखने को आवश्यकता है-सो भी प्रथम तीर्थकर की अत्यधिक। यहां पर श्वेताम्बर जैन साहित्य में ऋषभदेव-संबंधी उल्लेखों को उपस्थित किया जाता है।
श्वेताम्बर जैन ग्रन्थ श्वेताम्बर ग्रन्थों को मैं दो भाग में विभक्त करता हूँ; एक तो भगवद्भाषित और गणधर-रचित आगम-ग्रन्थ और दूसरा आगम से भिन्न ग्रन्थ जो भिन्न भिन्न आदर्श आचार्यों से लोकहित के लिये लिखा गया है।
श्रागम-ग्रन्थ मूल आगमों में किसी तीर्थंकर का चरित ( जीवनी ) एक ही साथ में एक ही जगह पर प्रायः नहीं पाता है। कहीं किसी तीर्थंकर की कुछ बात तो कहीं अन्य तीर्थंकर की बात, और कहीं सब तीर्थंकरों की दीक्षा-सम्बन्धी, आयुष्य-सम्बन्धी, माता-पिता-सम्बन्धी बात, ऐसे भिन्न भिन्न द्वारों में (प्रकरणों में ) विकलित (त्रुटित ) रीत्या तीर्थंकरों के चरित्र आते हैं; इसी लिये जब तक सभी आगमों का पूरा परिशीलन न किया जाय तब तक पूरा पता नहीं चल सकता है।
समवायांग ४५ आगमों में समवायाङ चौथा अंग ( आगम ) है। इसके ऊपर श्रीअभयदेव सूरि का विवरण है। यह श्रीआगमोदय-समिति सूरत से इस्वी सन् १९१८ में प्रकाशित हुआ है। इस आवृत्ति के अनुसार श्रीऋषभदेव और भरतादि के सम्बन्ध की बातें निम्न सूत्र और पृष्ठों में आतो हैं।
सूत्र संख्या | पृष्ठ संख्या 8
से ८७ तक।
28 श्रीनागमोदयसमिति और देवचन्द लाल भाई पुस्तकोद्धार
फंड के आगमों के पृष्ठों में एक हो तरफ पृष्ठ संख्या छपी है, इसलिये हमने भी दोनों तरफ की एकही पृष्ठ संख्या लिखी है।
१०४से१०५ तक
सूत १५० और १५८ की प्राकृत गाथा पहली से ३३ गाथा तक ।
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मूडबिद्री के चन्द्रनाथ-चैत्यालय के खंभों में खुदी हुई हस्तकला के नमूने
(श्री एस० चन्द्रराज के सौजन्य से)
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किरण १]
श्रीऋषभदेव भगवान की जीवनी के साधन.......१४१
विषय
श्रावश्यक
(पूर्व भाग) आवश्यक सूत्र पूर्व भाग श्रीभद्रबाहु स्वामी की नियुक्ति श्रीमलयगिरि आचार्य के विवरण: युक्त श्रोआगमोदय-समिति सूरत से ई० सन् १६२८ में प्रकाशित हुई है। इसकी गाथाओं में कुलकर, नाभिराजा, भगवान् ऋषभदेव, भरतादि के साथ सम्बन्ध रखने वाली बहुत सी वार्ता आती है। इसी आवृत्ति के अनुसार स्थान पृष्ठादि निम्नरीस्या हैं:
गाथा संख्या । पृष्ठ संख्या १४६ से १६६ तक पृष्ठ १५३ से १५७ तक कुलकरों का अधिकार विस्तार से । गाथा १६७ से १८६ .,,, १५७ ,, ११३ , श्रीऋषभ देव भगवान् के पूर्व भव, सम्यक्त्व-प्राप्ति
के उपाय, जन्माभिषेक और इक्ष्वाकु-कुल की उत्पत्ति इत्यादि
का विस्तार से वर्णन । १८८, २९६, १६३, २२१, भगवान् की बाल्यावस्था, युवावस्था, विवाह, राज्य
व्यवस्था, समाजव्यवस्था, शिल्प, कर्म, कला, शिक्षा और
साधु-साध्वी आदि की संख्या।। , २६६ ,, ३४६ ,, , २१४ ,, २३२, भरत वाहुबलि प्रभृति पुत्रों को राज्य-भाग देना, दान,
दीक्षा, तापस-प्रथा का प्रारंभ, नमि और विनमि की सेवा, एक वर्ष तक निर्जलाहार, तप, श्रीयांस के हाथ से पारणा, केवलज्ञान, भरत को चक्र की प्राप्ति होना तथा भगवान् की केवलोत्पत्ति, भरत-वाहुबलि का युद्ध, वाहुबलि को
केवलज्ञानादि । , ३५० ,४३६ ,, , २३
मरीचि के त्रिदण्डि वेष-आचार का वर्णन, सांख्य-मत को उसके कपिलशिष्य से उत्पत्ति, ब्राह्मण शब्द की उत्पत्ति, प्राचीन वेदों की उत्पत्ति, भगवान का निर्वाणो. स्सवादि, भरत राजा को आदर्श गृह में केवलज्ञानादि ।
२४७
स्थानाङ्ग (दूसरा भाग) यह तीसरा अङ्ग है। इसके उपर श्रीअभयदेव सूरि की टीका आगमोदय-समिति सूरत से ई. सन् १९२० में प्रकाशित हुई है। इसमें कहीं कहीं कुलकर, श्रीऋषभदेवादि के विषय में कुछ कुछ उल्लेख मिलता है। - सूत संख्या | पृष्ठ संख्या
विषय सुस ११५ से५६७तक पृष्ठ ४६६ विमल वाहन का शरीर प्रमाण, श्रीऋषभदेव का तीर्थ
। प्रवर्तन समयादि । .....
......
...
....
................ प्रवतन
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भास्कर
[भाग २
जम्बद्वीप-प्रज्ञप्ति
__ (प्रथम भाग) इस आगम में जम्बूद्वीप के वर्णन के अनन्तर भरतक्षेत्र का वर्णन करते हुए कुलकरों से लेकर भरत चक्रवर्ती के मोक्ष तक का वृत्तान्त विस्तार से लिखा है। इसके ऊपर श्रीशान्तिचन्द्र की विस्तृत और सुन्दर टीका है। मूल सूत्र के वृत्तान्त को टीका में बहुत विस्तृत किया है। यह प्रथम भाग देवचंद खान भाई पुस्तकोद्धार-फंड सूरत से सन् १९२० में प्रकाशित हुआ है। इस प्रथम भाग में निम्न सूत्र भौर पृष्ठों में निम्नलिखित वृत्तान्त आता है। सूत्र संख्या | पृष्ठ संख्या
विषय सूत्र २८ से २६ तक पृष्ठ ११२ से १३४ तक सुमति आदि कुलकरों के नाम हक्कारादि नीति आदि। , ३० से ३३ तक , ३५ से १६४ ,, भगवान् ऋषभदेवजी का जन्म, समाज, राज्यव्यवस्था,
चार हजार पत्रियों के साथ दीक्षा ग्रहण का वर्णन, भगवान् की मुनिचर्या का वर्णन, उनके गणधर-साधु आदि को संख्या, भगवान् का संहनन, कुमारावस्था आदि का काल, निर्वाण, इन्द्रादि द्वारा निर्वाणोत्सव, और तीसरे आरे की
३४ से ४० तक ,११४ से १७८ ,, __ चौथे, पाँचवे, छठे आरे का वृत्तान्त ।। ११ से १ तक ,, १७८ से २८१, भारतवर्ष का वर्णन, भारत नाम पड़ने का कारण,
विनीता का वर्णन, भरत के राज्य का वर्णन, चक्र की . प्राप्ति और पूजोत्सव, षट्-खण्ड की साधना का विस्तार से वर्णन, आपात किरातों के साथ युद्ध, अश्वरत्नादि १४ रखों की प्राप्ति, ऋषभकूट में अपना नाम लिखना, नमि-विनमि की साधना, पश्चिम दिशा की साधना, भरत चक्रवर्ती का विनीता में प्रवेश, भरत के चक्रवर्तित्व का अभिषेक, भरत चक्रवर्ती की राज्य-समृद्धि का वर्णन, भरत का केवलज्ञान, मुनि-वेष का ग्रहण और मोक्ष।
कल्पसूत्र इस ग्रंथ की प्रसिद्धि श्वेताम्बर जैनों में और ग्रंथों की अपेक्षा से बहुत ज्यादा है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक पर्युषणों महापर्व के समय इस ग्रंथ को मुनिराज आद्यन्त बाँचते हैं और श्रावकश्राविकायें सुनती है । इस प्रथ को नौ भागों में विभक्त करके नौ व्याख्यानों में पूरा करने की प्रणाली
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किरण ४ ]
ऋषभदेव भगवान की जीवनी के साधन
१४३
इसके बनानेवाले उर्द्धरेता (महात्मा) महाज्ञानी चतुर्दश पूर्वधारी श्रीभद्रवाहु स्वामी हैं । इन्होंने#. नवमें पूर्व में से उद्धार करके दशाश्रु त स्कन्ध के आठवें अध्याय के रूप में इस कल्पसूल को बनाया है। इसके अन्दर परमात्मा महावीर का आदर्श जीवन चरित्र विस्तार से आता है। इसके सिवाय श्रीपार्श्वनाथ आदि का भी जीवनचरित्र संक्षेप से आता है " तेणं कालेणं तेणं समएणं उसमे अरहाकोस लिए चउ उत्तरासाढे अभीइ पंचमे होत्था " ॥ सूत २०४ पृष्ठ २२६ से सूल २२८ पृष्ठ २४५ तक भगवान् श्रीऋषभदेव का जीवन चरित्र इसमें आता है । श्रीविनय विजयोपाध्याय जी की रचित सुबोधिका टीका + के साथ यह कल्प सूख श्रीआत्मानन्द सभा भावनगर से सन् १९१५ में प्रकाशित हुआ है। इसकी टीका में भी भगवान् श्रीऋषभदेव का जीवन चरित्र विस्तार से और सुन्दररीत्या आता है। नीचे लिखे हुए सूत्रों में और पृष्ठों में नीचे लिखा हुआ वृत्तान्त भाता है :
सूत संख्या
पृष्ठ संख्या
विषय
सूस २०४ से २०१तक पृष्ठ २२३ से २३१ तक
" २१०
” २११ से २१२
99
""
२१३ से २२८.
g
""
२३१ से २३२,
” २३३ से २४०
""
२४० से २४५
39
"9
श्रीऋषभदेव भगवान का व्यवन (गर्भ में आना), जन्मोत्सव |
भगवान् के ऋषभादि पाँच नाम ।
कुमारावस्था, पुरुषों को ७२ और स्त्रियों को ६४ कलाओं का उपदेश, राज्याभिषेक, दीक्षोत्सव, भगवान् की चर्चा, केवलज्ञान |
भगवान् के गणधर साधु श्रावक-श्राविकादि की संख्या, कुमारावास, राज्यपरिभोगादि के काल की संख्या, मोच, युगान्तभूम्यादि, श्रीऋषभदेव और श्रीमहावीर के तथा आगम लेखन - काल में काल के अन्तर की संख्या ।
श्रीश्रावश्यक सूत्र का भाष्य (प्रथम भाग )
यह भाष्य श्रीभद्रवाहु स्वामी के पहले का होना चाहिये, पहले लिखी हुई आवश्यक निर्युक्ति से वह भिन्न है । श्रीआगमोदय समिति सूरत द्वारा यह ई० सन् १९१६ में प्रकाशित हुआ है । यह भाग्य नियुक्ति और श्रीहरिभद्रसूरी की टीका के साथ छुपा है । इनके अन्दर श्रीमहावीर स्वामी के तीसरे भव का वर्णन करते हुए "चइऊण देव लोगा इहचेव व भारहंमी वासंमी इश्खागकुले जाओ उसभसुअसुओमती" ॥ गाथा १४८ पृष्ठ १०६ से लेकर "सेसाणं उन्मुअयणं संवेगो नारा दीक्खाय ॥" गाथा ४३६ पृष्ठ १६१ तक विस्तार से श्रीऋषभदेव का चरित्र आता है ।
* संघ चतुर्दशपूर्वं विद्य गप्रधान श्रीभद्रबाहु स्वामी दशाश्रु तस्कन्धस्याष्टमाध्ययनतजा प्रत्याख्यानप्रवादाभिधान नवमपूर्वादुद्धृत्य कल्पसूत्र रचितवान् ॥ सुबोधिका टीका पृष्ट ८
+ इसके ऊपर करीब ३० टीका संस्कृत में बनी हैं। और डॉ० याकोबी, तथा शुचिंग, आदि विद्वानों ने इसका प्रङ्गरेजी तथा जर्मन आदि भाषाओं में अनुवाद भी किया है ।
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१४४
... . भास्कर
[ भाग २
इसके अलावा भगवती आदि सूत्र और उन पर भिन्न भिन्न भाष्य टीकाओं में श्रीऋषभदेव का चरित्र आता होगा परन्तु अपनी आँखों से देखे बिना नियत स्थानादि मैं कैसे लिख सकता हूं।
आगमों से भिन्न ग्रन्थ भागों से भिन्न ग्रन्थों के मैं पाँच भाग करता हूं, जिनमें भगवान् श्रीऋषभदेव के नामादि का उक्लेख आता है।
किसी विषय के प्रन्थ में मंगलाचरण के तौर पर श्रीऋषभदेव का नाम तथा स्तुति हो । जैसे श्रीहेमचन्द्राचार्य के मुख्य शिष्य महान् नाट्यशास्त्रज्ञ श्रीरामचन्द्र-रचित 'सत्यहरिश्चचन्द्र नाटक' परम श्रावक वाग्भट्टकृत 'वाग्भटालंकार' 'विजयशप्रस्त्यादि।
२ जो ऋषभदेव-विषयक स्त्रोत्र स्तुति तथा महात्म्य वाले हों जैसे :- मानतुंग सूरिकृत 'भक्तामर', महाकवि धनपाल की 'ऋषभपंचाशिका' इत्यादि ।
३ जो आगम शैली के ग्रन्थ या टीकाय हो, जैसे 'प्रवचनसारोद्धार', कल्पसूत्रादि की सभी टीकाएं विशेषावश्यभाष्य आदि।
४ जो रस और अतिशयोक्ति उपमा प्रभृति अलंकारादि काव्य गुणों से भरी हुई वर्णनशैली के काव्य हों, जैसे 'जैनकुमारसम्भव' नाभेयद्विसन्धान आदि ।
५ जो ग्रन्थ ऋषभदेव-विषयक छोटी से लेकर बड़ी ऐतिहासिक बातों को रसमयी भाषा में . प्रकट करने वाले हों। जैसे त्रिषष्टिशलाका-पुरुष-चरित्र आदि।
इन पाँच प्रकार के ग्रन्थों में से भगवान् की जीवनी लिखने के लिये आखीर के तीन प्रकार के ग्रन्थ ही विशेष उपयुक्त हो सकते हैं, इसी लिये इनके विषय में कुछ परिचय देना उचित होगा। इन ग्रन्थों की पृष्ठ विषयादि की सूची लेख की काया दीर्घ हो जाने के भय से मैं नहीं दूंगा।
प्रवचनसारोद्धार प्रवचन यानी आगम उनका सार, यह ग्रन्थ आगम नहीं है परन्तु भिन्न भिन्न आगों में आने वाले भिन्न भिन्न द्वारों (विषयों) का इस ग्रन्थ में प्राकृत भाषा में संग्रह किया है। वारमी शताब्दी के श्रीनेमिचन्द्रसूरि ने इस ग्रन्थ को लिखा है । इसके ऊपर प्रौढ विद्वान् श्री सिद्धसेनसूरि ने संस्कृत में विस्तृत टीका लिखी है । प्रस्तुत टोकायुक्त यह ग्रन्थ श्रीयुन देवचंदलाल भाई जैन पुस्तकोद्धारफंड सरत से ई० सन् १९२२ में प्रकाशित हुआ है । इसमें चैत्यवन्दनादि २७६ द्वार (विषय-प्रकरण) है, जिसमें द्वार पृष्ठ नं. ८२ से लेकर सब तीर्थंकरों के आदि गणधर, आदि साध्वी वगैरों के नाम विषय (द्वार)नं० ३६ पृष्ट नं० १०० तक आते हैं।
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किरण ४ ]
. श्रीऋषभदेव भगवान के जीवनी के साधन
के साधन
१४५
जैनकुमार-सम्भव इस ग्रन्थ के कर्ता महाकवि श्री जयशेखर सूरि हैं। इस ग्रन्थ का नाम देने में कालिदास का अनुकरण है और कुमारसम्भव की तरह इसकी रचना भी कोमल एवं प्रौढ़ है, परन्तु शृङ्गार-बहुल वर्णन इसमें नहीं है । यह ग्रन्थ महाकाव्य की शैली का होने से रघुवंशादि की तरह, यमक, उदात्त, उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि आलंकारिक श्लोकों से भरा हुआ है। इसमें अयोध्या के तथा श्रऋषभदेव भगवान् के जन्म आदि का काव्यदृष्टि से वर्णन किया है। श्रावक भीमसिंह माणेक बंबइ वाले ने इसको गुजराती अनुवादसहित प्रकाशित किया है। इसका आदिम श्लोक यह है
- अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति, पुरी परीता परमधिलोकैः । निवेशयामास पुरः प्रियायाः, स्वस्या वयस्यामिव यां धनेशः ॥१॥
अलंकार संपन्नकामा नयनाभिरामाः, सदैव जीवत्प्रसवा अवामाः । यत्रोज्झितान्यप्रमदावलोका अदृष्टशोका न्यविशंत लोकाः ॥२॥ (जैनकुमार-सम्भव)
त्रिषष्ठिशलाका-पुरुषचरित्र वारमी शताब्दी के सर्व-विद्या-विशारद श्रीहेमचन्द्रसूरि ने कालिदास जैसी अपनी प्रासादिक प्रौढ कविता में त्रिषष्टिशलाका-पुरुष-चरित्र को पद्यबद्ध बनाया है । इसमें २५ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, १ वासुदेव, ६ प्रतिवासुदेव और ६ बलदेव इन ६३ शलाका ( उत्तम ) पुरुषों के विस्तार से पूरे चरित्र हैं। अतएव इसका यथागुण नाम है, इस ग्रन्थ में सारा जैन इतिहास तथा तत्वज्ञान आ जाता है। यह ग्रन्थ करीब ३६००० श्लोक का है। इसके दश पर्व (भाग) पाड़े हैं। प्रथम पर्व में परमात्मा श्रीऋषभदेव तथा भरत चक्रवर्ती आदि की जीवनी विस्तार से करीब ५००० हजार श्लोकों में लिखी है। प्रथम पर्व के ६ सर्ग हैं । पहिले सर्ग में भगवान् के १२ पूर्व भवों का वर्णन, दूसरे में कुलकरों का वृत्तान्त, जन्मोत्सवादि, तीसरे में दीक्षामहोत्सव, केवलज्ञान, तीर्थप्रवर्तनादि का वर्णन, चौथे सर्ग में भरत चक्रवर्ती का दिग्विजय, भगवान् के ६० पुत्रों की दीक्षा आदि का वर्णन, पाँचवें में भरत बाहुबलि के बुद्ध का वर्णन और छ? सर्ग में कैवल्यावस्था में भगवान् का विहार, अष्टापद ऊपर निर्वाणोत्सव, भरत का केवल ज्ञान आदि का वर्णन आता है। यह मूल ग्रन्थ श्रीजैनधर्म प्रसारक-सभा भावनगर से पूरा प्रकट हुआ है । इसके प्रथम सर्ग का इंग्लीश अनुवाद डा० प्रो० बनारसीदास जैन एम० ए०, ने किया है जो Jain Jataks के नाम से मोतीलाल बनारसीदास ने अपने The Punjab sanskrit depot Lahore से सन् १९२५ में प्रकट किया है । इसके परिशिष्ट पर्व का ग्लीश और जर्मन भनुवाद छप चुका है और डा० मिस जोन्सन ( अमेरिकन विदुषी)
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भास्कर
[ भाग ३
ने इसका इंग्लीश अनुवाद शुरू से करने का काम उठाया है, इसी लिये शिवपुरी में करीब छः महीने रह कर इसने मुनिराजों के पास एतद्विषयक अभ्यास किया था। सारे ग्रन्थ का गुजराती अनुवाद दो जगह से हुआ है-कुछ भाग का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। वर्तमान में उपलब्ध ऋषभचरित्रों की अपेक्षा इसमें विस्तार से चरित्र लिखा है। तुलनात्मक दृष्टि से श्रीजिनसेनाचार्य का महापुराण इसकी पद्धति का ग्रन्थ कहा जा सकता है। इसके अलावा भगवान् के चरित्र-विषयक हस्तलिखित ग्रन्थों के नाम और स्थान नीचे लिखे जाते हैं । ग्रन्थ का नाम ग्रन्थकर्ता
प्राप्तिस्थान नाभेय नेमि द्विसन्धान-काव्य श्रीहेमचन्द्राचार्य पाटण प्राचीन भंडार नं०१,झवरीवाडा, पाटण माभिनन्दनोद्धार-प्रबन्ध
डेलाका भंडार अहमदावाद ऋषभोल्लास-कान्य
डेला का भंडार अहमदावाद भरतवाहुबलि-कान्न
श्रीविजयधर्म लक्ष्मी ज्ञान-मंदिर आगरा बाहुबलिचरित्र
जैसलमेर ( मारवाड़) भरतचरित्र (प्राकृत)
डेक्कन कोलेज पूना भी आदिनाथ-चरित्र (प्राकृत) श्रीषद्ध मान सूरि
जैनेतर ग्रन्थ में ऋग्वेद, यजुर्वेद, महाभारत, मत्स्यपुराण, विष्णुपुराण, शिक्षात्रयी, न्यान्यबिन्दु प्रभृति में भगवान् श्री ऋषभदेव के सम्बन्ध में स्तुति अथवा नामोल्लेख आता है। भागवत में तो मैंने सब से ज्यादा देखा । पाँच वें स्कन्ध में अध्याय तीसरे (३) से लेकर नवमें (6) अध्याय तक. श्रीऋषभदेव का तथा भरतका चरित्र है। इसके अतिरिक्त और भी बहुत श्वेताम्बर जैन और जैनेतर प्रन्थों में भगवान् के सम्बन्ध में बहुत कुछ आता होगा। एतद्विषयक विद्वानों से मेरी प्रार्थना है कि वे लोग अपने ज्ञान का लाभ जनता को दें। जो विद्वान् वेद, ब्राह्मण, उपनिषद, पुराण व अन्य प्राचीन साहित्य का अध्ययन व अवलोकन करें, उन्हें उक्त प्रकार के उल्लेख नोट कर के प्रकाशित कर देना चाहिये।
नोट- वृहहिपनिका नामक प्राचीन प्रामाणिक सूची में इस ग्रन्थ का नाम है, जो जैन साहित्यसंशोधक भाग १ के दूसरे अंक में छपी है। २ यद्यपि मैं श्वेताम्बर दिगंबरादि भेदकारी नाम लिखना पसन्द नहीं करता हूं किन्तु प्रस्तुत लेख श्वेताम्बर ग्रन्थों के विषय में लिखा होने से यहाँ पर बारबार यह शब्द मजबूरन लिखना ही पड़ता है।
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सिलार रट्टराज का नया शिलालेख और जैनधर्म
(ले०–श्रीयुत बाबू कामता प्रसाद जैन)
जैनधर्म क्षत्रियों का धर्म है। उसका प्रतिपादन और विकास क्षत्रियों द्वारा हुआ है। क्षत्रिय वंश के बड़े बड़े राजा और महाराजाओं ने उसकी शांतिकारिणी शरण में रह कर अपने नाम को अमर किया है। ऐतिहासिक काल के प्रसिद्ध सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य, ऐलखारवेल, अमोघवर्ष, कुमारपाल आदि भारतीय राजा जैनधर्मानुयायी थे और वे भाज अपनी किसी न किसी विशेषता के कारण भारतीय इतिहास में अनुपम हैं। दसवीं शताब्दी में दिगम्बर जैनधर्म का प्रचार दक्षिण भारत में अच्छे पैमाने पर था। दक्षिण भारत में तब राष्ट्रकूट वंश के राजाओं की प्रधानता थी और उनको जैनधर्म से प्रेम था। दिगम्बर जैन मुनिजन राज्याश्रय को पाकर निश्चिन्तता-पूर्वक अहिंसामय धर्म का प्रचार तब कर रहे थे। किन्तु जैनधर्म का यह अभ्युदय पड़ोस के शैव लोगों को अखर गया और पारस्परिक ईर्ष्या-कलह का युद्ध छिड़ गया। ऐसे ही समय में एक सिलार वंश के राजा, जैनधर्म-भुक्त हुए थे। वह पहले शैव थे। इतिहास भी कल त कउन्हें शैव मान रहा था। किन्तु उनके नवीन लेखों के प्रकाश में आने से इस धर्मपरिवर्तन का पता चल गया है यह राजा वलिपट्टन के रट्टराज थे।
सिलार रट्टराज के तीन ताम्रपत्र मिले हैं, जिनमें से एक पर दोनों ओर लेख अङ्कित है। ये ताम्रपत्र कहाँ से मिले, इसका पता नहीं चलता। हाँ, यह स्व० प्रो० एस० आर० भाण्डारकर के पास थे और अब उनके भाई प्रो० डी० आर० भाण्डारकर ने उनको श्रीयुत हारणचन्द्र चकलादार को दे दिया है । चकलादार महाशय ने उनको पढ़ लिया है और उनका परिचय एक लेख-द्वारा कराया है। यह लेख कलकत्ते के 'इन्डियन हिस्टॉरीकल क्वार्टी' नामक पत्र में (भाग ४ पृ. २०३-२२०) प्रकट हुआ है। उसी का सारांश धन्यवादपूर्वक पाठकों के अवलोकनार्थ यहां उपस्थित किया जाता है।
उपलब्ध लेख में सिलार महामण्डलीक रट्टराज के भूमिदान का उल्लेख है। यह राजा दक्षिण कोडण देश के सिलारवंश से सम्बन्धित था। इसका एक पूर्व-लेख खारेपाटन से पहले मिला था, जिसे प्रो० कीलहॉर्न ने 'इपीग्रोफिया इन्डिका (भा० ३ पृष्ठ २९२) में प्रकट किया था। वह शक संवत् १३० का है और प्रस्तुत लेख, अर्थात् जो प्रो० भाण्डारकर को मिला था अथ च जिसका उल्लेख यहाँ हो रहा है, उस पर शक सं० ९३२
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भास्कर
[भाग २
मङ्कित है। इसलिये दोनों लेखों में केवल दो वर्ष का अन्तर है । दोनों लेखों के लेखक भी लोकपार्य नामक सजन हैं। वह सन्धिविग्रहिक-मंत्री देवपालके पुत्र थे। दोनों में साहण्य भी खूब है, परन्तु विलक्षणता भी कुछ कम नहीं है।
प्रस्तुत लेख का आरम्भ 'स्वस्ति' शब्द से होता है और मंगलाचरण के बाद ४-३२ पंक्तियों में रट्टराज के वंश का परिचय है, जो खारेपाटन के लेख के समान है। उससे इसमें कोई खास विशेषता है तो वह स्वयं रट्टराज के सम्बन्ध में है। इन दो वर्षों के अन्तर में उसके धर्मपरिवर्तन के साथ साथ राज्योत्कर्ष भी हो गया था। प्रस्तुत लेख के मंगलाचरण में एक उदारभाव स्पष्ट है। इसमें किसी खास देवता का स्तवन नहीं किया गया है। इसके प्रतिकूल खारेपाटन के लेख में स्पष्टतः 'ॐ नमः शिवाय' लिखा है। इस लेख में ब्राह्मणों का उल्लेख सामान्यरूप से किया गया है-गोत्र आदि लिखने की आवश्यकता नहीं समझी गई है। यद्यपि दान ब्राह्मणों के प्रति किया गया है, परन्तु किसी धार्मिक कार्य के लिये नहीं। इन सब बातों से रट्टराज के धार्मिक श्रद्धान में पड़ा हुआ अन्तर स्पष्ट है। मालूम होता है कि उसका विश्वास जैनधर्म के प्रति हो गया था, क्योंकि लेख का प्रारंभ 'स्वस्ति' शब्द से किया गया है, जैसे कि जैन लेखों में अक्सर होता है। इतने पर भी यद्यपि रट्टराज का अनुराग जैनमत की ओर हो गया था, परन्तु वह अपनी बहुसंख्यक ब्राह्मण-धर्मानुयायी प्रजा का दिल नहीं दुखाना चाहता था। इसीलिये उसने मंगलाचरण में किसी खास देवता का स्मरण नहीं किया है ।* ___ रट्टराज के समय में दक्षिण भारत में जैनमुनियों द्वारा धर्मप्रचार खूब हो रहा था। राष्ट्रकूट वंश के राज्यकाल में जैनधर्म का सूर्य मध्याह्न में था। और सिलारवंश के राजा राष्ट्रकूटों के करद थे। जैनाचार्य श्रीसमन्तभद्र जी ने सिलारवंशी की एक दूसरी शाखा की राजधानी करहाड़ (Karhad) में पहुंच कर वहां के राजा को सम्बोधन किया था। इस आशय के दो श्लोक श्रवणबेलगोल की मल्लिषेण-प्रशस्ति में अङ्कित हैं ।। राष्ट्रकूटों में
* लेख में श्लोक के प्रारंभिक शब्द स्पष्ट प्रकट नहीं होते और वर्तमान रूप में जैसे वे पढ़े गये हैं, उनसे उनकी व्याकरण की असम्बद्धता प्रकट है। सम्भव है, कि यहां वीतरागदेव का स्पष्ट उल्लेख हुआ हो।-अनु० - इपी० इन्डिका, ३ पृष्ठ १८६ :
'पूर्व पाटलिपुत्र-मध्यनगरे भेरी मया ताड़िता, पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये काञ्चीपुरे वैदिशे।
प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं सङ्कटं।। .... वादाी विचराम्यहन्नरपते शाई लविक्रीड़ितं ॥७॥ इत्यादि ।
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भास्कर
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कारकल के गोम्मटेश्वर (दक्षिण भारतीय कला)
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किरण ४ ]
सिलार रट्टराज का नया शिलालेख और जैन-धर्म
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सम्राट अमोघवर्ष जैनधर्म के एक महान संरक्षक थे। उनका लगभग सन् ८१४-८७८ तक चौंसठ वर्ष का विस्तृत राज्यकाल था और इस बड़े राज्यकाल में जैनधर्म का चारो ओर खासा प्रचार हुआ था। राष्ट्रकूटों के पश्चात् चालुक्यों का अभ्युदय हुआ। रट्टराज का सम्बन्ध इनसे भी था। चौलुक्य अभ्युदय के प्रारंभिक काल में जैनधर्म का उत्कर्ष अतुण्ण बना रहा। (बम्बई गजेटियर भाग १ खण्ड २ पृष्ठ २०८) किन्तु पूर्वोक्त ताम्रलेख के लिखे जाने के समय दक्षिण भारत के जैनों और शैवों में पारस्परिक स्पर्धा खूब चल निकली थी। चालुक्य जयसिंह द्वितीय सन् २०१८ में राज्याधिकारी हुए थे और वह पहले जैन थे। किन्तु अपनी पत्नी सुग्गलदेवी के प्रयत्न से वह शैव धर्मानुयायी हो गए थे। इतने पर भी कोल्हापुर में राज्य करनेवाले सिलारवंश की शाखा के राजाओं में . जैनधर्म का विशेष प्रभाव कार्यकारी था । सर्वोपरि जिस दक्षिणी मराठा प्रदेश में रहराज का राज्य था, वहां आजतक जैनधर्म का खूब प्रचार है। ... यह पहले ही लिखा जा चुका है कि रट्टराज का जैनत्व उसके प्रस्तुत ताम्रलेख से स्पष्ट है, क्योंकि उसमें बिना किसी 'प्रणव' के केवल 'स्वस्ति' शब्द से ही--एक जैन ढंग पर उसका प्रारंभ हुआ है। जैन लेखों के प्रारम्भ में 'श्री' शब्द भी मिलता है, जैसे कि विजयादित्य के कोल्हापुर वाले लेख में है। (इपी० इन्डिका, भाग ३, पृष्ठ २०६) तिसपर यह भी संभव है कि जिन पाँच बड़े मठों के प्रति रट्टराज ने सम्बोधन किया है, उनमें से कोई जैन हों ! (पञ्चमहामठ स्थान नगर हजमान प्रधानामात्यवर्गः संविदितः।-पंक्ति३५) अतः उपर्युक्त बातों का लिहाज रखते हुए रट्टराज को उपर्युक्त ताम्रलेख लिखते समय जैनधर्मानुयायी हुआ, मानना अनुचित नहीं है। ___ रट्टराज के धर्मपरिवर्तन के साथ साथ उसके राज्याधिकार में भी अन्तर पड़ा था। खारेपाटन के अपने लेख में उसने राष्ट्रकूटबंशी राजाओं को मान्यता दी है। परन्तु उपरान्त में उनका स्थान चालुक्य तैलप को मिल गया है। चालुक्य तैलप ने राष्ट्रकूटों को परास्त कर दिया था। तैलप के बाद उसका पुत्र सत्याश्रय राजा हुआ था और रट्टराज ने अपने को उसका करद लिखा है। (परम भट्टारक महाराजाधिराज श्री सत्याश्रयदेवानुभ्यातमण्डलीकश्रीरट्टराज ) किन्तु प्रस्तुत लेख में किसी के राज्याश्रय स्वीकार करने का उल्लेख नहीं है। रट्टराज का स्वयं अपना राज्य हो गया था और उसी राज्य के अन्तर्गत यह लेख लिखा गया था। (श्री रहार्यराजराज्ये ) इससे स्पष्ट है कि रट्टराज ने चालुक्यों
* जर्नल ऑफ बम्बई यांच ऑफ दो रायल ऐशियाटिक सो० भा० १३ पृष्ठ १७ व इण्डियन ऐण्टीक्वेरी भाग १२ पृ० १०२ ।
दक्षिण महाराष्ट्र देश में जैनों के पाँच मठों का अस्तित्व मिलता है।
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भास्कर
[ भाग २
को गुलामी का पट्टा उतार कर फेंक दिया था और वह एक स्वाधीन शासक बन बैठा था ? पश्चिमी चालुक्यों का तत्कालोन (शक सं० ६३०-६३२ ) इतिहास उसके संपूर्ण इस साहसी कर्म का रहस्य उघाड़ देता है। उससे प्रकट है कि सन् ६३० में राजराज केशरीवर्मन् ने सत्याश्रय को परास्त कर दिया था। किन्तु इतने पर ही इस युद्ध का अन्त न हो गया। पराजित सत्याश्रय पर राजकेशरीवर्मन् के उत्तराधिकारी राजेन्द्र चालदेव ने भी धावा बोल दिया। इस लड़ाई में उसने सत्याश्रय के राज्य को तबाह कर दिया था। बच्चों, अबलाओं और ब्राह्मणों को तलवार के घाट उतारा था। इतने पर भी सत्याश्रय ने चोलों को सन् १००७ (शक सं०९३० ) में रणक्षेत्र से भगा मारा था। इस प्रकार यद्यपि सत्याश्रय ने अपने देश को शत्रु ओं से रहित कर दिया था, परन्तु वह अधिक समय तक न जिया जो अपने राज्य की नींव सुदृढ़ कर पाता। और उसके उत्तराधिकारी भी अयोग्य निकले। इस परिस्थिति से रट्टराज ने लाभ उठाया और वह स्वाधीन शासक बन गया। स्वाधीनता भला किसे प्रिय नहीं है ? अब वह 'महामण्डलीक' कहलाने लगा था, उनका सन्धिविग्रहिक मंत्री देवपाल अब 'महाश्री' की उपाधि से विभूषित हो गया था। अतः रट्टराज का राज्याभ्युदय भी स्पष्ट है।
रट्टराज की राजधानी बलिपट्टन नामक महादुर्ग था; जिसको स्थापना उसके पूर्वज धम्मियर ने की थी। वह समुद्रतट पर कहीं थी । उपरान्त इस पर उत्तरकोण के सिलार बंशी राजाओं का अधिकार हो गया था। प्रस्तुत लेख का पूर्वाश इस प्रकार है :
१ "स्वस्ति (I) श्रीर =अपि विपुलआप्ताद्-अभिम२ त-देवता–प्रसादेन । संसार-सा३ र-धर्म-क्रियावतां प्राणिनां स४ ततम् ॥ आसीद-विद्याधर-आधीसो ५ गरुत्मद-दत्तजीवितः (1) जीमूतकेतोः स६ त्सुनो नाम्ना जीमूतवाहनः ॥ ततः ७ सिलार-बंशोभूत सिंहल-क्षमाभृतां वरः ८ - प्रभूत-भूत-सौभाग्य-भाग्यवांस-तत्र चो& जितः॥ नाना सणफुल्लः ख्यातः कृ१० -ष्णराज-प्रसादवान् । समुद्र तीर-सह्या११ -तदेश-संसाधको नृपः॥ तत्सुतो धर्म१२ -व-आभूनन्नाम्ना धम्मियरः परः॥ प्रता१३ -पवान्न्महादुर्ग-बलिपट्टन कृत् कृती १४ । तस्माद-ऐयपराजोन्भूद्र-विजिगीषु१५ --गुणान्वितः। स्नातर= चन्द्रपुर-आसन्न-ना
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किरण ४ ]
१६ - लिकेराम्बुना स यः ॥ बभूव = आव (स) रस-त१७ - स्मान् = नीति - शास्त्रार्थ - तत्त्ववित् । एक-मे१८ -त्र- - प्रलग्नारि - काण्डश्=चन्ड – पराक्रमः ॥ १६ आदित्यवर्मा पुत्रो - भूत् - तेजस = आदित्यव -
२० - तु ततः । तस्माद् = अवसर - आर्या भू (ज्) जितारि - - र् = धर्म्मवान् = नृपः ॥ चेमुल्य - चन्द्रपुर - ज
२१
२२ क्षमा भृत् साहाय्य - कारकात् । ततो-भू
२३ - दु= इन्द्रर ( रा ) ( ज ) स = त्याग = भोगवान्प्रतिसुन्दरः ॥
सिलार रट्टराज का नया शिलालेख और जैन-धर्म
दूसरे ताम्रपत्र पर :
२४ ( त ) स्मात् = प्रभूतभाग्यो - भूद भी ( मो ) भी २५ माभ - विक्रमः । तेजसा राहू (व)
२६ = ग्रस्त - चन्द्रमण्डल - उज्ज्वलः ॥ त२७ -तश्=च्= प्रावसरो राजा जातो-तीन (व) २८ विवेकवान् । प्राज्ञः प्राज्ञः पटुः
२६ सू (शू) रो धीरः परमरूपवान्। रह
.
३० - नाम् = प्राभवत्= तस्माद् = राजा पुण्यवतां व३१ - रः । नीतिज्ञो नीतिशास्त्र - आर्थ- वृद्ध-३२ - सेवी जितेन्द्रियः ॥ तस्य महामण्ड
३३ - लीक - श्री--रहार्य - राज - राज्ये । चन्द्रा =
३४ - कर्क - प्रवर्द्धमाने पूज्ये श्री वलिप
३५ ने ॥ पञ्चमहामठस्थान नगर ह
१३६ - जमान -- प्रधानामात्य - वर्गाः संवि
३७ - दितं (तः ) ॥ शक नृप- काल - अतीत-सं३८ - वत्सर नवशतेषु, द्वात्रिन्शद-अधि
३६ - केश्च = अतो-पि ६३२ साधारण
-स
४०
( ब ) तसर = आंतर्गत - पुष्य - बहुलं - प्रति४१ - पदिरवि-वारे उत्तरायण-संका
४२ न्तौ समस्त - - - राज = श्रावली - समलङ्कृ४३ तः ( त ) श्री रट्टराजेन स्व हस्तेन हस्त-- -ओ४४ दकं कृत्वा वा (ब्रा) ह्मण -- सेनावई - नाग४५ - मैय -- सुत -- सङ्कमयैस्य कल्वाल-
४६ भक्त - भ्रामाद् = वेङ्गणक्षेत्र - इत्यादि... "
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गत प्रथम एवं द्वितीय किरणों में प्रकाशित अपने लेखों के विषय में कुछ विशेष वक्तव्य
(ले०-श्रीयुत पं० के० भुजबली शास्त्री) भास्कर की रम किरण में प्रकाशित "नीतिवाक्यामृत और कन्नड़ कवि नेमिनाथ"
""तथा श्य किरण में प्रकाशित "विदुषी पम्पादेवी" इन लेखों के बारे में मुझे इधर जो विशेष बातें मालूम हुई हैं उन्हें मैं नीचे उद्धृत किये देता है, जिससे ऐतिहासिक विक्ष-पाठकों की भ्रम निवृत्ति हो। बल्कि इन विशेष बातों का संकेत मुझे सुहद्वर विद्वान् महामहोपाध्याय, रायबहादुर नरसिंहाचार्य, एम० ए० ने किया है, अतः मैं आपका अनुगृहीत हूँ:
(१) ई० सन् ११४८ में समाधिशतक की टीका लिखनेवाले मेघचन्द्र और ६० सन् १११५ में स्वर्गस्थ मेघचन्द्र ये दोनों भिन्न भिन्न व्यक्ति हैं। एक दूसरे का पारस्परिक कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं ने जो इन्हें अभिन्न समझ रक्खा था वह पंडित नाथ राम प्रेमी जी द्वारा लिखित 'अाचारसार' के "निवेदन" के आधार पर। इसी प्रकार "शुभचन्द्र" को मैंने जो मेघचन्द्र को शिष्य लिखा , है इसका आधार भी प्रेमी जी का वही उक्त "निवेदन" है। वास्तव में शुभचन्द्र मेघचन्द्र के शिष्य नहीं हैं। साथ ही साथ शुभचन्द्र
और मेघचन्द्र के शिष्य प्रभावन्द्र का स्वर्गागहण-समय श्रवणबेलगोल के ११७वें एवं १४०३ . शिलालेखों से क्रमशः ई• सन् ११२३ और ई. सन् १९४५ प्रमाणित होता है।
(२) उक्त माननीय विद्वान् के संकेत करने एवं प्रन्थान्त के गद्य के पुनरवलोकन से मुझे भी विश्वास हो गया है कि नेमिनाथ वीरनन्दी (मेघचन्द्र के शिष्य) का ही शिष्य है। किन्तु मेरे उक्त लेख में यह बात शब्द-प्रतिपाय नहीं थी। क्योंकि वहाँ मैंने लिखा है कि "इन्होंने (नेमिनाथ ने) ग्रन्थ के आदि और अन्त में मेघचन्द्र विद्यदेव एवं वीरनन्दी सिद्धान्त-चक्रवर्ती को बड़ी श्रद्धा से स्मरण किया है।"
(३) नेमिनाथ के द्वारा स्मरण किये हुए माघनन्दी भट्टारक नयकीर्ति के शिष्य हैं न कि भानुकीर्ति के। (श्रवणबेलगोल के २०६६, पंक्ति १३०-१) साथ ही साथ शास्त्रसार के कर्ता माघनन्दी कुमुदचन्द्र के शिष्य हैं, इनका काल लगभग ई० सन् १२५२ है। (श्रवणबेलगोल ३४३)
(१) दूसरी किरण में प्रकाशित “विदुषो पम्पादेवी" यह लेख ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी के द्वारा संपादित “मद्रास व मेसूर प्रान्त के प्राचीन जैन-स्मारक" के आधार पर लिखा
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किरण ४]
अपने लेखों के विषय में कुछ विशेष वक्तव्य
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गया था। नगर के ३७वं शिलालेख के अनुवाद की ब्रह्मचारीजी की पंक्तियाँ यों हैं :___“पम्पादेवी महापुराण में विदुषो थी। यह इतनी विद्या-सम्पन्न थी कि इसे शासनदेवता कहते थे।" .................................
“पम्पा देवी ने अष्टाविधार्चना महाभिषेक और चतुर्भक्ति रची।" ब्रह्मचारी जी ने इन पंक्तियों से पम्पादेवी को विदुषी एवं प्रन्थकी सिद्ध किया है। किन्तु उक्त शिलालेख (ई. सन् १९४७) से अष्टविधार्चना महाभिषेक और चतुर्भक्ति ग्रन्थ सिद्ध न होकर सेवाएं सिद्ध होती हैं। साथ ही साथ "नूतनातिमब्बे" का सम्बन्ध आपने जो पुत्री बाघलदेवी के साथ माना है वह माता पम्पादेवी से ही समन्वित सिद्ध होता है।
(२) विक्रम सान्तर की "त्रिभुवन-दानी” यह पद उल्लिखित नगर के शिलालेख (पं०६३-४ ) से उपाधि सिद्ध होता है जिसे हमने ब्रह्मचारी जी के अनुवाद के आधार पर "विक्रमसान्तर महादानी रहा; इसी लिये यह जगदेक दानी भी कहलाता था" यों लिखा है।
(३) ब्रह्मचारी जी के म० व मै० प्रा० प्रा० जै. स्मारक में सान्तर, चट्टल, बाचल ये शुद्ध रूप 'सान्तार', 'चत्तल' एवं 'बाञ्चल' इन अशुद्ध रूपों में परिवर्तित हो गये हैं, अतः मेरे लेख में भी ये ही अशुद्ध रूप ज्यों के त्यों रह गये हैं।
(४) मैंने जो अपने लेख में वादीभ-सिंह का समय ११ वीं शताब्दी लिखी है, वह सामान्य दृष्टि से। यों तो नगर के ४०वें और ३७वे शिलालेखों से इनका समय ११वों शताब्दी का अन्त और १२वीं शताब्दी का पूर्वाद्ध अनुमित होता है। साथ ही साथ तीर्थहल्लि तथा नगर के शिला-लेख में दी हुई परम्परा से यह भी निश्चित होता है कि वादीभ सिंह वादीभ राज के बाद के थे।
(५) चोल राजाओं में प्रथम राज-राज ने ई० सन् १८५ से ई० सन् २०१२ तक राज्य. किया था। वादीभ-सिंह इनके समय में नहीं रहे होंगे। द्वितीय राजराज ने ई० सन् १९४६ से ई० सन् १९७८ तक शासन किया था। अतः इसी राज के शासनकाल के आरम्भ में वादीभ-सिंह रहे होंगे।
(६) तिरूत्तक देवर के "जीवक-चिन्तामणि" ग्रन्थ में यह नहीं लिखा हुआ है कि वादीम के द्वारा रचे गये ग्रन्थ का शेष भाग मैने पूर्ण किया। साथ ही साथ तमिलु विद्वानों ने तिरुत्तक देवर का समय ई० सन् १० वीं शताब्दी निश्चित किया है। इस समय-संकेत से भी सिद्ध हो जाता है कि १ शताब्दी पूर्व के यह तिरुत्तक देवर १ शताब्दी वाद के वादीम सिंह के ग्रन्थ का भाषान्तर नहीं कर सकते हैं। इसलिये पं० शंभुशरण त्रिपाठी का "तिरुत्तक देवर ने अपने जीवक-चिन्तामणि में लिखा है कि वादीम के द्वारा प्रारम्भ किये हुए इस ग्रन्थ के शेष भाग को हमने पूरा किया" यह कथन सर्वथा निर्मल है जो कि हम को भी खटका था।
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देवचन्द्रकृत राजावली कथा की विषय-सूची
यह 'राजावली कथा' एक ऐतिहासिक ग्रन्थ मानी जाती है। बल्कि कई ऐतिहासिक विद्वानों ने इसके प्रमाणभूत उद्धरणों से अपनी कृति को समलङ्कृत किया है। पर है यह कन्नड़ भाषा में । अतः हिन्दी भाषा-भाषी इतिहासवेत्ताओं की कुछ जानकारी के लिये यहाँ इस ग्रन्थ के अन्तर्गत विषयों की सूची मात्र दिये देता हूँ। अवकाशानुसार इस ग्रन्थ के अन्तर्गत बातों पर भी प्रकाश डालने की चेष्टा की जायगी ।
- के० बी० शास्त्री
प्रथम प्रकरण
( १ से ६ पृष्ठ तक )
१ मङ्गलाचरण |
२ पाठक विद्वानों से इसकी स्वीकृति की प्रार्थना एवं त्रुटियों को सुधारने के
लिये अनुरोध ।
३ 'राजावली कथा' के नाम की सार्थकता का स्पष्टीकरण ।
४ लोकस्वरूप |
५ कालव्यवस्था ।
६ मनुओं का विषय, आदि ब्रह्म (ऋषभ तीर्थङ्कर) की उत्पत्ति, सृष्टि विषय |
७ वर्णाश्रम धर्म-विवरण |
.
राजवंशोत्पत्ति |
8 भरतचक्रवर्ती का दिग्विजय, बाहुबलि-युद्ध एवं दीक्षा ग्रहण |
१० मरीचिदीक्षा, कपिल - सिद्धान्त की उत्पत्ति ।
११ अक्षय तृतीया इस नामकरण का हेतु ।
१२ श्रावणी कर्म का आदि कारण । १३ शिवरात्रि शब्द की चरितार्थता
I
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किरण ४ ]
देवचन्द्रकृत राजावली कथा की विषय-सूची
द्वितीय प्रकरण
( ७ से १३ पृष्ठ तक) १ द्वितीय चक्रवर्ती सगर के साठ हजार पुत्र और भगीरथ प्रादि की कथा। २ अत्रि आदि ऋषियों के समय में कपिलादि के सिद्धान्तों का बाद-विवरण। ३ षड्दर्शन की उत्पत्ति एवं नैयायिक दर्शन-विषयं । ४ कणाद, मीमांसा, जैमिनि, सांख्य इन दर्शनों का विषय । ५ बौद्ध एवं चार्वाक दर्शन का विषय । ६ विष्णु कुमार मुनि के द्वारा वामनावतार ।
७ जमदग्नि परशुराम का विषय । . . सुभौमचक्रवर्ति कथा, सौरधर्म की उत्पत्ति तथा विनायक (गणेश) चतुर्थी का हेतु ... मल्लिकार्जुन पूजा का कारण और त्रिदेव के श्रेष्ठत्व की चर्चा ।
तृतीय प्रकरण
(१३ से १८ पृष्ठ तक) १ कर कण्डु की कथा, पत्थर में खुदे हुए सर्प की पूजा का कारण, वामी (सर्पविल) में पूजा-रूप में दूध-घी देने और नाग-चौथ मनाने का हेतु।
२ अनरण्य की सभा में देवता-विषयक चर्चा । ३ तीर कदम्ब की कथा, महाकालासुर एवं पर्वतक के चलाये हुए यक्ष की चर्चा। ४ राम-कथा। ५ शिशुपाल-कथा। ६ कृष्णजन्म। ७ कंसनिधन । .
चतुर्थ प्रकरण
(१८ से ३० पृष्ठ तक) १ जनमेजय राजा की कथा, चन्द्रवर्द्धन महाराज की सभा में सुघटित स्वर्धाविषयक चर्चा।
२ श्रेणिक-कथा। ३ अभय कुमार का जन्म एवं उनका कार्य । ४ वर्द्धमान स्वामी की कथा।
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भास्कर
[ भाग २
५ गौतम स्वामी की कथा। ६ चेलिनी महादेवी का श्रोणिक से सम्बन्ध ।
पंचम प्रकरण
(३० से ४७ पृष्ट तक) १ सत्यन्धर की कथा। . २ जीवन्धर की कथा। ३ पुनः श्रेणिक-चर्चा।
षष्ठ प्रकरण
(४७ से ७० पृष्ट तक) १ श्रेणिक का धर्मश्रवण। २ दीपावली का कारण। ३ पार्श्वभट्टारक एवं शाक्य मुनि की कथा । ४ भद्रवाहु-कथा। ५ नन्दवंश की उत्पत्ति, चन्द्रगुप्त-कथा और श्वेताम्बर शाखा का प्रादुर्भाव । ६ विक्रमादित्य की कथा।
७ अपलसंघ का प्रादुर्भाव तथा पूज्यपाद स्वामी के शिष्य के द्वारा द्राविड़ संघ की स्थापना तथा काष्ठासंघ की उत्पत्ति।
८ मरुत एवं बिल संघ की स्थापना और अर्हद्वल्याचार्य के द्वारा संचालित संघ, गण, गच्छ आदि का विवरण।
सप्तम प्रकरण
(७० से ८६ पृष्ठ तक). १ शालिवाहन-कथा। २ बसुपाल राजा की सभा में पञ्चांग-विषयक-चर्चा। ३ समस्त प्राणिवर्ग के प्राय(यु)-व्यय की चर्चा ।
अष्टम प्रकरण
(८६ से ११७ पृष्ठ तक) १ जिनदत्त राय की कथा। २ चण्डविक्रम की कथा।
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किरण ४]
देवचन्द्रकृत राजावली कथा की विषय-सूची
१५७
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.
३ पूज्यपाद एवं नागार्जुन की कथा । ४ प्राचारांग भादि के नाम। ५ संघों की उत्पत्ति। ... ६ भूतबलि पुष्पदंत की कथा। ७ कुन्दकुन्दाचार्य-कथा एवं कतिपय यतियों के नाम । ८ कल्किराज की कथा। & बिजलराज और मरिविजल की कथा। १० समन्तभद्र की कथा। ११ अकलंकदेव एवं हिमशीतल महाराज की कथा। १२ चामुण्डराय एवं बेल्गुल का विषय। १३ जिनसेन गुणभद्रकृत ग्रन्थ-विषयक चर्चा । १४ भोजराजचर्चा।
तरण का कारण।
नवम प्रकरण
(११७ से १४० पृष्ठ तक) १ कन्ति एवं चालों की कथा। २ विद्यानन्द की कथा तथा किरातराजसन्तति और दुर्भिक्ष की चर्चा। ३ हस्तिमल्लाचार्य की कथा। ४ शंकराचार्य एवं गंगा की कथा। ५ हस्तिमल्लिषेण की वंशपरम्परा। ६ बल्लालराज की वंश-परम्परा।
दशम प्रकरण
(१४० से २०६ पृष्ठ तक) १ आनेगोंदि मल्लिराय की कथा। २ सारंगधर की कथा एवं कुछ राजाओं का विषय । ३ खदिरलिंग का विषय । ४ दिल्ली के बादशाह की चर्चा । .५ हरिहर राय की कथा। ६ पुकराय की कथा।
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भास्कर
७ प्रौढ़ देवराय, रामचन्द्र राय आदि अन्यान्य शासकों की चर्चा ।
६ हरिहर राय के कुमार वीर राय की कथा ।
६ श्रीरंग राय के द्वारा श्रीरंगपट्टा की स्थापना और राजमोडेयर की कथा ।
१५ के
एकादश प्रकरण
(२०१ से २४७ पृष्ठ तक )
१ राजओडेयर के कुमार चामराजओडेयर की कथा ।
२ कण्ठीरवनरसराज ओडेयर और दोड्डु देवराज प्रोडेयर की कथा ।
३ चिक्क देव राज की कथा ।
४ कंठीरव आरस को कथा ।
५ दाडु कृष्णराज की कथा ।
६ हैदर खां का विषय ।
७ टिप्पू सुलतान का विषय ।
८ मैसूर देश में श्रङ्गरेजों का प्रवेश ।
८ चामराज ओडेयर के पुत्र कृष्णराज प्रोडेयर और पूर्णय्य का विषय । १० मैसूर का शासन- भार अङ्गरेजों को अपने हाथ में लेना । ११ इस ग्रन्थकर्त्ता की बंशावली ।
द्वादश प्रकरण
(२४७ से २८६ पृष्ठ तक )
१ देवी रम्मणि का इस राजावली कथा का श्रवण ।
२ मैसूर राजाओं की बंशावली ।
त्रयोदश प्रकरण (२८६ से २३८ पृष्ठ तक)
.
(भाग ३
१ जाति - निर्णय |
नोट – इस राजावली कथा की मैसूर राजकीय प्राच्यपुस्तकागार की संगृहीत प्रति से प्रतिलिपि कराई गई है। भवन की इस प्रति के प्रारंभ में जो विषय सूची दी गयी है, यह उसी का अनुवादमात्र है।
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बाहुबलि-शतक
[ रचयिता और प्रकाशक महेशचन्द्र प्रसाद, एम० ए०, देवाश्रम धारा ११३५, कागज और - छपाई अच्छे हैं, बाहुबलिस्वामी का सुन्दर चित्र भी है, मूल्य सिर्फ दो पाना ]
मैसूर राज्य के हासन जिले में स्थित श्रवणबेलगोल जैनियों का एक प्रमुख तीर्थ स्थान है। वहां के विन्ध्यगिरि पर खनासन विराजमान बाहुबलिस्वामी की मूर्ति अपनी विशालता और कारीगरी के लिये भारत के इतिहास में प्रसिद्ध है। इसके कलाकौशल की प्रशंसा बड़े बड़े विद्वानों और गुणग्राहकां ने की है। लेखक को इस स्थान के दर्शन करने का सुअवसर श्रीमान् पक्रश्वरकुमार जो, पारा, के साथ मिला। मूर्ति के दर्शन से प्रभावित होकर उन्होंने प्रस्तुत काव्य को रचा है, तथा कृतज्ञता-पूर्वक उसे अपने उपकारी को ही समर्पित किया है।
प्रस्तुत काव्य बाहुबलिस्वामी की उक्त मूर्ति की १०५ दोहों में स्तुति है। पहले पांच दोहों में मंगलाचरण के पश्चात् कवि ने क्रमशः श्रवणबेलगोला, मैसूर, उक्त मूर्ति, उसकी स्थिति, उसके रुप और फिर उसके शिर, केश, मुख, भाल, भृकुटी आदि प्रत्येक अङ्गकी शोभा का सुन्दर वर्णन किया है। शैली प्राचीन है। अर्थ-सौन्दर्य के साथ शब्दालंकार की अोर कवि का ध्यान विशेष रहा है। इसी से स्तुति में स्थान स्थान पर कुछ जटिलता आगई है। शब्दों के खेल के कुछ उदाहरण देखिये :मूर्ति के वर्णन में कवि कहते हैं:
जग ते पाहत होत जब, जग में पाहुन हात ।
जग ते पाहन होत जब, जग में पाहन हात ॥१०॥ मुख की हास्य मुद्रा का वर्णन है :
हास नहों, उपहास यह, कली बली का मानु ।
कली कलेजे को कली, तोड़ी कली समानु ॥४०॥ इनका अर्थ समझने के लिये थोड़ी देर सिर खुजलाना पड़ता है। पर कहीं कहीं घेसा ही शब्द-सौन्दर्य अर्थ की सुगमता के साथ भी मिलता है जैसे
नहीं धरा पर कछु धरा, भरा क्लेस निहसेस। धीर धराधर पै खड़े, यह देत उपदेस ॥४०॥
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[ भाग
भास्कर निम्न दोहे में 'जगत्कर्ता का उल्लेख शायद जैनियों को कुछ खटके
धनि धनि मूरत की कला! धनि धनि मूरतकार ।
जग-करता करतार है, तुम करता-करतार ॥७॥ यद्यपि काव्यशैली प्राचीन है तथापि उस में रेडियम का प्रकाश और मोटर की दौड़ भी दिख रही है, यथा
नासहु तम-अग्यान तुम, प्रग्या-प्रमा प्रकासि । जन-हित जनु काउ दिव्य-रुचि, रुचिर रेडियम-रास ॥७॥ बना सर्वदा ही रहै, तब सनेह पेट्रोल ।
जाते पहुँचै मोक्ष का, श्रातम-मोटर पोल ॥८॥ (रचनो अवलोकनीय है)
-हीरालाल, ___RISABH-DEVA.
(THE FOUNDER OF JAINISM) TAuthor, C. R. Jain, Bar-at-law; Publisher, Jain-Mitra-Mandal, Delhi, 1935, price -/4/-]
Barrister C. R. Jain is well-known as the author of many books on Jainism and comparative religion. He wrote a big volume on the life of the first prophet of Jainism, Lord Rishabhadeva, several years ago. The present book is on the same subject in a much smaller and handy size. In eleven short chapters is described in a lucid style the previous ten lives of of Rishabhadeva, his birth and childhood, his family and public life, his renunciation omniscience and his preaching mission. We have then a chapter on the sixteen deams of his son and royal succesor Bharat, who Bensed through them the deterioration of the coming age. Then follows an account of the strength of Rishabha's spiritual followers and his Nirvana. The whole account is strictly in accordance with the Jaina Puranas. The book ends with the 'Last Word' contributed by Mr. Kamta Prasad Jain who has drawn attention to several references to Rishabha and other Tirthankaras of the Jainas in non-Jain literature beginning with the Ve. dic age. In the Foreword and the Introduction added by the author him. self attention has been drawn to the place and importance of Rishabha deva in Jainism and his mention in the Hindu Puranas. There are two illustrations in the book-one of the statue of Rishabhadeva in one museum in Paris (France) and the other of the assembly of Rishabhdeva's devotees after his omniscience, as preserved in the Jaina Siddhanta Bhavan Arrah. The learned author has presented subject in a readable, interesting form and the book deserves to be widely read by those interested in the lives of the Great Teachers of humanity who have lived in the past.
H. L. Jain
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ग्रन्थमाला - विभाग
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प्रशस्ति-संग्रह
(सम्पादक–के० भुजबली शास्त्री)
(क्रमागत ) नेल्लूर के शक वर्ष १२२१ (खीस्ताब्द १२६६) के एक शासन में "तस्याप्रजः सुतो मन्वगण्डगोपालभूपतिः। प्रतापरुद्रभूपस्य प्रसादाचितवैभवः” ऐसा उल्लेख मिलता है। इससे इस मन्वभूप का समय खिस्त शक १२९६ सिद्ध होता है। अतः कवि अमृतनन्दी का काल भी खिस्त शक १३वीं शताब्दी का अन्तिम भाग ज्ञात होता है। यह कवि प्रतापरुद्र के प्राश्रय में प्रतापरुद्रीय प्रन्य के रचयिता विद्यानाथ के समकालीन होंगे या कुछ इधर के।"
इन उल्लिखित दोनों उद्धरणों से इस ग्रन्थ के रचयिता यही अमृतनन्दी हैं तथा इनका समय भी वही १३वीं शताब्दी है यह बात प्रमाणित होती है।
११०) ग्रन्थ नं० २१
केवलज्ञानहोरा फर्ता-चन्द्रसेनमुनि
विषय--ज्योतिष भाषा-संस्कृत चौड़ाई-८॥ इञ्च
लम्बाई-१३॥ इञ्च ।
पत्रसंख्या -३१
प्रारम्भिक भाग:
अनन्तविद्याविभवं जिनेन्द्र निधाय नित्यं निरवद्यबोधम्। स्वान्तेऽहमिन्दुप्रभमिन्द्रवन्ध वक्ष्ये परां केवलबोधहोराम् ॥१॥ होरा नाम महाविद्या वक्तव्यश्च भवद्धितम् ।
ज्योतिर्शानकलासारं भूषणं बुधपोषणम् ॥२॥ *बीच बीच में कुछ सादे पृष्ठ भी हैं।
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२६
केवलज्ञानहोरायाः चन्द्रसेनेन भाषितम् । परोपदेशिकं ग्रन्थं (?) मया सप्तशतं (?) कृतम् ॥३॥ आगमः (?) सदृशो जैनः चन्द्रसेनसमो मुनिः । केवली (?) सदृशी विद्या दुर्लभा सचराचरे ॥४॥ श्रीमत्पञ्च गुरू ंश्चतुर्विधसुराधीशार्श्वितान् संस्तुतान् चातुर्वर्णजन (?) चतुर्गतिभवक्लेशापहारानपि । तत्वान् सप्तवरैकवाक्य निरतान् दोषद्वयध्वंसकान् आचार्यश्च (?) उपासकान्सुमनसा वन्दामहे दिग्ग्रहान् ॥५॥ तन्मात्र वेदाम्बुधिबाणशैलशश्यति चन्द्राश्वभवे ध्रुवाङ्काः । प्राच्यादिदित्तु प्रथिता मुनीन्द्र नष्टादिविज्ञानविधौ विधेयाः ॥६॥ .
X
X
मध्यभाग (पृष्ठ १८४ पंक्ति ५ )
भास्कर
x
तन्मात्त्रवेदाम्बुधिकाम शैलशतांगने त्रक्षितयो द्रुतान्ताः (ध्रुवाङ्काः) । प्रागादिदिक्षु प्रथिता मुनीन्द्र नष्टादिविज्ञानविधौ विधेयाः ॥ पृच्छकदिग्दशगुणितं प्रहरयुतं विगुणितं त्रिंशत् ।
X
समेतं विश्व (2) संप्रश्नाक्षरयुतं । वसु ७ । हतं । तच्छेषं १ । प्रवर्ग २ | चवगं ३ टवर्ग ४ | तवर्ग ५ । पवर्ग ६ । यवर्ग ७ | सवर्ग कवर्गे । अथ । एकादिशून्यपर्यन्तं १ । . वर्ग २ | कवर्ग ३ । चवर्ग ४ । टवर्गं ५ | तवर्ग ६ । पवर्ग ७ । यवर्ग । शवर्ग । तद्वर्गशेषं । भेशबाण ५ । हृतं । वि । विषमाक्षरं । सं । समाक्षरं । अन्त्याक्षरं । तदक्षरशेषं । गिरिवाण ५७ । हतं दिव । त्रि । पूर्वाक्षरं । सं । द्वितीयाक्षरं । एते अक्षरभेदाः ।
X X X X X X X
X
[ भाग ३
x
अन्तिम भाग-
x x X X x x हलिके ८५ । हुलिगोटु ८६ । हेरदवल्लि ८७ । हिरिगण ८८ । हल्लयाल ८६ । हालूरु १० । होमारु ६१ । हाडूरु ९२ । देवति ६३ । हैकंब ९४ । हगरे १५ । हरियट्टि १६ । हुक्केरि ६७ । हरिगे । हिप्परगे १६ । हुरुर्मुजि १०० । काडन हुन्बल्लि १०१ । हे सदुर्ग १०२ । हिजयिडि १०३ । हुबळ १०४ । हुणिसिगे २०५ । इन गवाडे १०६ । हामाळि १०७ । सम्पूर्णम् ।
या पुस्तकं द्वष्टं तादृशं लिखितं मया । अबद्ध ं वा सुबद्ध ं वा मम दोषो न विद्यते ॥१॥
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किरण ४]
प्रशस्ति-संग्रह
हमारा ज्योतिषशास्त्र दो भागों में विभक्त है। एक गणित और दूसरा फलित या होरा. विज्ञान । प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम "केवलज्ञानहोरा" है। हारा की व्युत्पत्ति विद्वानों ने यो की है-"आद्यतवर्णलोपात् हारास्माकं भवत्यहोरात्रात्"-अर्थात् 'अहोरात्र' शब्द का प्रादिम अक्षर 'अ' और अन्तिम अक्षर 'त्र' इन दोनों के लोप कर देने से हारा'* शब्द व्युत्पन्न हुआ है। 'केवलज्ञानहोरा' इस नामसे बहुत से व्यक्तियों की यही धारणा है कि यह भी फलित ज्योतिष का एक मौलिक ग्रन्थ होगा। अवकाशाभाव से इसका विशेष परिचय इस समय यहाँ पर नहीं दिया जा सका। हाँ इस विद्या के मर्मज्ञ किसी सावकाश विद्वान् को इस पर कुछ विशेष प्रकाश डालने की चेष्टा करनी चाहिये। “दिगम्बर जैन प्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ' में भी इसे ज्योतिषशास्त्र ही लिखा है। साथ ही साथ प्रेमी जी की इस पुस्तक में इस 'केवलज्ञानहोला' की श्लोकसंख्या तीन हजार बतलायी गयी है। परन्तु प्रारंभिक “परोपदेशिकं ग्रन्थं ? मया सप्तशतं कृतम्” इस तीसरे पद्यभाग से इस प्रन्य की श्लोकसंख्या सात सौ सिद्ध होती है। किन्तु ग्रन्थ बहुत बड़ा है। न मालूम प्रन्थकर्ता ने यह सात सौ संख्या किस बात की दी है।
इसके कर्ता चन्द्रसेनमुनि हैं। इन्होंने अपने इस ग्रन्थ के "केवलज्ञानहोरायाश्चन्द्रसेनेन भाषितम्" इस पद्यांश में इस बात को स्पष्ट कर दिया है। साथ ही साथ "आगमः सदृशो जैनः चन्द्रसेनसमो मुनिः। केवली (१) सदृशी विद्या दुर्लभा सचराचरे ॥” इस पद्य में अपनी प्रचुर प्रशंसा भी की है। इधर उधर बहुत कुछ टटोलने पर भी इनके बारे में विशेष परिचय मैं नहीं मालूम कर सका। ग्रन्थान्तर्गत बातों से ज्ञात होता है कि आप ज्योतिषशास्त्र के एक अच्छे ज्ञाता थे। इसमें कोई शक नहीं कि आप कर्नाटकनिवासी एवं कन्नडभाषी थे। क्योंकि अपने ग्रन्थ के संस्कृतबद्ध पद्यों (कर्णसूत्रों) का खुलाशा करने के लिये इन्होंने जहाँ तहाँ कन्नडभाषा का भी अधिकतर आश्रय लिया है। भवन की यह प्रति श्रवणबेलगोल की कन्नड़ प्रति से उतारी गयी है, किन्तु है यह बहुत अशुद्ध । अतः यहाँ आपकी संस्कृत-रचनाशैली के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। किसी शास्त्रागार में इसकी कोई शुद्ध प्रति का अन्वेषण परमावश्यक है। इसमें जो प्रकरण। हैं उनमें कुछ का नीचे नाम-निर्देश किया जाता है :
हेमप्रकरण, दाम्यप्रकरण, शिलाप्रकरण, मृत्तिकाप्रकरण, वृक्षप्रकरण, कार्पास-गुल्मवल्कल-तृण-रोम-चर्म-पटप्रकरण, संख्याप्रकरण, नष्टद्रव्यप्रकरण, निर्वाहप्रकरण, अपत्य
* ज्योतिषोक्त लग्न एवं एक राशि या लग्न के आधे भाग को भी होरा कहते हैं। + ये प्रकरण किसी काण्ड या अध्याय के अन्तर्गत है।
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भास्कर
[भाग
प्रकरण, लाभालाभप्रकरण, मोक्षप्रकरण, स्त्रीसंभोगप्रकरण, भोजनप्रकरण, स्वमप्रकरण, सामुद्रिकपकरण, स्वरप्रकरण, वास्तुविद्याप्रकरण, शकुनप्रकरण, देहलोदीक्षाप्रकरण, अजनबियाप्रकरण, विषविद्याप्रकरण। इसी प्रकार देशभेद, उपकरणभेद, शास्त्रभेद, रतभेद, पक्षिभेद, यन्त्रभेद, मन्त्रभेद, जातिभेद, मुद्राभेद आदि अनेक द्रव्यों के भेद भी इसमें दरसाये गये हैं। बल्कि मुद्राभेद नामक शीर्षक में विक्रम, चालुक्य, कादम्ब, युधिष्ठिरादिक अनेक ऐतिहासिक एवं पौराणिक प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम भी आये हैं।
(११) बन्ध नं० २१४
दानशासन कर्चा-श्रीवासुपूज्य ऋषि
विषय-दानफलादिविवरण भाषा-संस्कृत
चौडाई ५।। इञ्च
लम्बाई १३॥ इञ्च
पत्रसंख्या ५५
प्रारम्भिक भाग
यस्य पादाब्जसद्गन्धाघ्राणनिर्मुक्तकल्मषाः । ये भव्याः सन्ति तं देवं जिनेन्द्र प्रणमाम्यहम् ॥१॥ दानं वक्ष्येऽथ वारीव शस्यसम्पत्तिकारणम् ।
क्षेत्रोप्तं फलतीव स्यात् सर्वस्त्रीषु समं सुखम् ॥२॥ . शुद्धसइदृष्टिभिः शुद्धपुण्योपार्जनलम्पटैः।
सार्द्ध ब यादिम अन्य नेतरैस्तु कदाचन ॥३॥
मध्य भाग (पूर्व पृष्ठ २८ पंक्ति ?म)
श्रीमचिलोकभवनान्तरसर्ववस्तुप्राहिप्रबोधनिटिलाक्षिविराजमानम् । ज्ञानकगोचरमशेषमुनीन्द्रवन्यमिन्द्राचिनानिमहत्वामहं सामि ॥
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किरया . ]
प्रशस्ति-संग्रह
कर्महद्धर्मकृत्पात्रं तस्य भेदानहं ब्रुवे। पागे देयं न चान्यत्र क्षेत्रे कृष्यधिपो यथा ॥२॥ रत्नत्रयात्मको धर्मस्तमाचरति धार्मिकः । धर्माभिवृद्धये स्वस्य धार्मिके प्रीतिमाचरेत् ॥३॥ पानभेदकथादक्षः पात्रं पञ्चविधं मतम् । तद्यथेति कृते प्रश्ने सूरिराह तदुत्तरम् ॥४॥ उत्कृष्टपानमनगारमणुव्रताढ्य मध्यं व्रतेन रहितं सुदृशं जघन्यम् । निदर्शनं व्रतनिकाययुतं कुपात्रं युग्मोज्झितं नरमपातमिवञ्च विद्धि । संगादिरहिता धीरा रागादिमलवर्जिताः। शान्ता दान्तास्तपोभूषास्ते पाशं दातुरुत्तमम् ॥६॥ निस्संगिनोऽपि वृत्ताढ्या निःस्नेहाः सुगतिप्रियाः । अभूषाध तपोभूषास्ते पात्रं दातुरुत्तमम् ॥७॥ परीषहजये शक्ताः शक्ताः कर्मपरिक्षये। शानध्यानतपःशक्तास्ते पात्रं दातुरुत्तमम् ॥८॥ प्रशान्तमनसः सौम्याः प्रशान्तकरणक्रियाः। प्रशान्तारिमहामोहास्ते पात्रं दातुरुत्तमम् ॥६॥ धृतिभावनया युक्ताः सत्वभावनयान्विताः। तत्त्वार्थहितचेतस्कास्तेपात्रं दातुरुत्तमम् ॥१०॥ परीषहजये शूराः शूरा इन्द्रियनिग्रहे। कषायविजये रास्ते पात्रं दातुरुत्तमम् ॥११॥
अन्तिम भाग
मत · समस्तै मृषिभिर्यदाहृतः प्रभासुरात्मावनदानशासनम् । मुदे सता.पुण्यधनं समर्जितं दानानि दद्यान्मुनये विचार्य तत्॥ शाकान्दे त्रियुगाग्निशीतगुणितेऽतीते वृषे वत्सरे माघे मासि व शुक्लपक्षदशमे श्रीवासुपूज्यर्षिणा। प्रोक्तं पावनदानशासनमिदं शात्वा हितं कुर्वताम् दानं स्वर्णपरीक्षका इव सदा पात्रत्रये धार्मिकाः॥
समासमिदं दानशासनम्
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[ माग
ग्रन्थके अन्तिम पद्य से स्पष्टतया ज्ञात होता है कि इस "दानशासन" के कर्त्ता वालुपूज्य ऋषि हैं। साथ ही साथ उक्त पद्य से यह भी विदित होता है कि यह ग्रन्थ शक सम्वत् १३४३ माघ शुक्ल दशमी का समाप्त हुआ था । ग्रन्थकर्त्ता ने अपने इस ग्रन्थ में गुरुपरम्परा, गण, गच्छ आदि की कुछ भी चर्चा नहीं की है 1 अतः इनके विषय में अधिक प्रकाश नहीं डाला जा सका । दाक्षिणात्य कतिपय शिलालेखों में " वासुपूज्य" यह नाम मिलता है अवश्य । पर प्रस्तुत वासुज्पूय के गणगच्छादि के न मालूम होने से नहीं कहा जा सकता है कि अमुक वासुपूज्य ही इस दानशासन के कर्त्ता हैं । अगर किसी विद्वान् के इन वासुपूज्यऋषि के गणगच्छादि विशेष बातों का पता ज्ञात है। तो उन्हें प्रकट कर देना चाहिये ।
:―
इनकी संस्कृत रचनाशैली साधारणतया अच्छी है । प्रत्येक भाग की श्लोकसंख्या अलग अलग बता कर इस ग्रन्थ को इन्होंने निम्नलिखित भागों में विभक्त किया है :(१) अष्टविधदानलक्षण (२) उत्तमपात्रसामान्यविधि (३) अभयदानविधि (४) दानशालाविधि (५) क्रियाविधि (६) द्रव्यशोधनविधि (७) पात्रलक्षणविधि (८) करणनयलक्षिताहारदानविधि (१) भैषज्यदानविधि (१०) शास्त्रदानविधि |
(१२) ग्रन्थ नं० २१५
ख
भास्कर
लम्बाई ६॥ इञ्च
प्रारम्भिक भाग -
भव्यकण्ठाभरणपञ्चिका
कर्त्ता -अर्हास
विषय - देवगुरुशास्त्रादिलक्षण
भाषा-संस्कृत
चौड़ाई ६
-PIP POW
पत्र संख्या २३
श्रीमान् जिनेा मै श्रियमेष दिश्याद्यदीयर नोज्ज्वलपादपीठम् । करैर्नतेन्द्रोत्करमौलिरत्नैः स्वपत्तरागादिव चालितं स्वैः ॥४१॥ . सदापि सिद्धों मयि सन्निदध्यात्स सिद्धिवध्वा सह सान्द्रसौख्यम् । चर्वत्यजत्र' तनुमारुतान्तः संभोगभाविश्रमभीतवैद्यः ॥२॥
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किरण ४ ]
प्रशस्ति-संग्रह
आचार्यवर्याश्चरितानि शिष्यानाचारयन्तः स्वयमाचरन्तः।। षट्त्रिंशतापि स्वगुणैर्युतास्तैः सदापरात्माष्टगुणाभिलाषाः ॥३॥ तेऽध्यापकाः स्युर्ददते नितान्तं ये ब्रह्मवर्यव्रतपालिनेोऽपि । दयाञ्च चित्तेषु सरस्वतीञ्च मुखेषु देहेषु तपःश्रियश्च ॥४॥ ते साधवो मे ददतु स्ववृत्तिं दयालवोऽपि वतदिव्यशस्ौः। अनंगराजं समरे निहत्य कुर्वन्त्यनंगोरुपदं स्वकीयम् ॥५॥ जिनागमक्षीरनिधिर्गभीरो विलोडितश्चेद्विबुधैविधानात् । ददाति रत्नत्रयमुज्ज्वलांगं तदा स तेभ्योऽप्यमृतं दुरापम् ॥६॥ श्रीगौतमाद्या जिनयोगिनो ये वीरांगदान्ता महितात्मवृत्ताः । . तदीयनामाक्षररत्नमाला मदीयवाण्या मणिकण्ठिका स्यात्॥७॥ ' अथाशरीरानुपमाम्बुजाक्षीमप्याशु वश्यां यदलं विधातुं। शतं सुवर्णाभिनवार्थरत्नस्तद्भव्यकण्ठाभरणं तनिष्ये ॥८॥
मध्यभाग (पूर्व पृष्ठ १४ पंक्ति ४)
श्रित्वादिम (?) तापमितेषु बुद्ध्वानाश्रित्य मूलाच्च भजत्स्वमुक्त्वा । छायाद्रुवत्तस्य न रुट्परागस्तथापि ते दुःखसुखास्पदानि ॥१॥ तस्मिन्निदानीमिव सार्वभौमे देशे वसत्यप्यतिविप्रकृष्टे। " चरन्ति ये ते सुखिनस्तदीयामाज्ञामनुल्लङ्घय परे सदुःखाः ॥२॥ जना गृहग्रामपुरीजनान्तषट्खण्डमात्रप्रभुशासनं चेत् । उल्लंघयन्तोऽप्युरुदुःखभाजस्तकिं पुनस्सर्वजगत्प्रभास्तत ॥३॥ . सतो हितं शास्ति स एव देवः सदाण्य (?) ते शासनतत्फलेच्छाम् । कलस्वनं कर्णसुधारसौघं वमत्तयोर्वाद्यमपेक्षते किम् ॥४॥
अन्तिम भाग--
.. . .. . ‘अास्सहार्थाभिदयेति सर्वेऽप्याचार्य्यमुख्या गुरवस्त्रयोऽपि । असारसंसारविनाशहेतोराराधनीया अनिशं मया स्युः॥१॥ सूक्त्यैव तेषां भवभीरवो ये गृहाश्रमस्थाश्चरितात्मधर्माः । त एव शेषाश्रमिणां सहाया धन्याः स्युराशाधरसूरिवर्याः ॥२॥
ओराध्यमानामलदर्शनास्ते धर्मेऽनुरक्ताः शमिनां सदापि । .... एकं यथाशक्ति भजन्त्यशल्यमेकादशाणुवतिकास्पदेषु ॥३॥
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भास्कर
माग २
ते पात्रदानानि जिनेन्द्रपूजाः शीलोपवासानपि चिन्वते च । न्यायेन कालादसतीश्वरोपभोगस्य शर्मानुभवन्ति चाक्षम् ॥४॥ कर्तुतपः संयमदानपूजास्वाध्यायमप्याश्रितचारुवार्ताः। ते तद्भवं श्रीजिनसूक्तशुद्धया पक्षादिभिश्वाघलवं क्षिपन्ति ॥५॥ त एव मान्या भुवि धार्मिकौघा धर्मानुरताखिलभन्यलोकैः। सुधानुरक्ता ह्यनुरागसूतिमाधारपानेष्वपि तन्वतेऽस्याः ॥६॥ इत्युक्तमाप्तादिकसत्स्वरूपं संतृण्वतोऽव दृढा रुचिः स्यात् सज्ञानमस्याश्चरितं ततोऽस्मात्कर्मक्षयोऽस्मात्सुखमप्यदुःखम् ॥७॥ प्राप्तादिरूपमितिसिद्धमवेत्य सम्यगेतेषु रागमितरेषु च मध्यभावम् । ये तन्वते बुधजना नियमेन तेऽर्हद्दासत्वमेत्य सततं सुखिनो भवन्ति ॥८॥
इत्यर्हदासकृतभव्यकण्ठाभरणस्य पञ्चिका समाप्ताभूत्। . इस "भव्यकण्ठाभरणपञ्चिका” के कर्ता कविवर अर्हद्दासजी हैं। अभी तक इनके तीन ही प्रन्थ उपलब्ध हुए हैं। बल्कि प्रस्तुत कृति को छोड़ कर शेष दो ग्रन्थ-पुरदेवचम्पू" तथा "मुनिसुव्रतकाव्य' प्रकाशित हो भी चुके हैं। पहला ग्रन्थ "माणिक्यचन्द्र जैनप्रन्थमाला" बंबई से और दूसरा "मुनिसुव्रतकाव्य" संस्कृत हिन्दी-टीका-सहित “जैनसिद्धान्तभवन" आरा से। इनकी कविता के बारे में यहाँ पर मैं विशेष कुछ न लिख कर सहृदय पाठकों से "मुनिसुव्रतकाव्य" को ही साद्यन्त एक बार पढ़ जाने का अनुरोध करता हूं। हमारे अर्हदास जी गद्य-पद्य दोनों के सिद्धहस्त लेखक हैं। आपकी सभी रचनायें माधुर्य पार प्रासादादि काव्योवितगुणों से ओतप्रोत हैं । ___ आप विद्वद्वर आशाधर जी के शिष्य हैं। यह बात आपकी तीनों कृतियों के निनलिखित अन्तिम पद्यों से स्वयं सिद्ध होती है :
मिथ्यात्वकर्मपटलैश्विरमावृते मे युग्मे दृशोः कुपथयाननिदानभूते । पाशाधरोक्तिलसदञ्जनसंप्रयोगैः स्वच्छीकृते पृथुलसत्पथमाश्रितोऽस्मि ॥
(मुनिसुव्रतकाव्य) सूत्यैव तेषां भवभीरवो ये गृहाश्रमस्थाश्चरितात्मधर्माः। त एव शेषाश्रमिणां सहायाः धन्याः स्युराशाधरसूरिवर्याः ॥
(भव्यकएठाभरपञ्चिका) मिथ्यात्वपंककलुषे मम मानसेऽस्मिन् आशाधरोक्तिकतकप्रसरः प्रसन्ने । उल्लासितेन शरदा पुरुदेवभक्तया तश्चम्पुदम्भजलदेन समुज्जजम्भे ॥
(पुरुदेवचम्)
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प्रतिमा-लेख संग्रह ..
. :)
किरण ४ ]
.
(संग्राहक-श्रीयुत बार कामता प्रसाद जैन )
मैनपुरी के मूर्ति-लेखों से प्राप्त परिचय (क्रमागत)
नाम आचार्य व भट्टारक
अन्वय किस समय में उल्लेख
गुरुका नाम
संघ
गण
गच्छ
मय में उल्लेख
विशेष विवरण
- मिलता है।
बलात्कार सरस्वती
कुन्द
०
०
सं० १७७२ सं०१७१० सं० १४५४ सं०१५३० सं० १७१६
०
| ब्रह्म जगत सिंह भ० सुरेन्द्रभूषण भ० नन्ददेव , देवकीर्ति ,, देवचन्द्र , देवेन्द्रकीर्ति , दमकीर्ति , देवेन्द्रकीर्ति , देवेन्द्रभूषण ... | भ० विश्वभूषण
मंडलाचार्यधर्मचन्द्र ... ,, प्रभाचन्द्र | भ. धर्मकीर्ति
...,, ललितकीर्ति
प्रतिमा-लेख-संग्रह
०
० M
TG
:
बलात्कार सरस्वती
:
३०
:
बलात्कार सरस्वती
१७८३
नं० २५ और यह शायद एक हैं। सं० १७३४
अटेर पट्टाधीश । सं०१४३६
सं० १६६६ सं० १६०१ में प्राचार्य लिखा है। | सं० १६८६ से पूर्व | अटेर। सं० ११२५ | इन्हीं शुभचन्द्र के उत्तराधिकारी
भ० जिनचन्द्र थे, किन्तु इस लेख में उनको भ० नेमिचन्द्र का पदाधिकारी लिखा है।
मिचन्द्र
"शुभचन्द्र
,
"
"
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________________
न०
माम आचार्य व महारक |
गुरु का नाम
गच्छ | अन्वय | किस समय में उल्लेख
- मिलता है।
विशेष विवरण
, पद्मनंदि
... |सं० ११०३
प्रतिष्टाचार्य भ० प्रभाचन्द्रदेव भ• पद्मनंदि
" भानुकीर्ति | " भानुचन्द्र
, भुवनकीर्ति
"प्रभाचन्द्र
काष्टा
सं० १४१२ सं० १४५० सं० १६२८ सं० १९४८
... | मुड़ासा में प्रतिष्टा कराई । सं० १५४८ ... | सं० १५३४ के लेख में भ० ज्ञान
| भूषण के गुरुरूप में उल्लेख है।
यह भिन्न मालूम देते हैं। सं० १९२० सं०१५३७३१५४५ सं० १५१०३१५२६ सं० १६७५
बलात्कार | सरस्वती
कुन्द
भास्कर
काष्ठा
, महेन्द्रभूषण ... | भ० जिनेन्द्रभूषण | , , मलयकीर्ति
| गुणभद्रानाये मलयकीर्ति आचार्य भ० महाचन्द्र | भ० शीलभूषण , महीचन्द्र .
महाचन्द्र , मुनीन्द्रकीर्ति ...
काष्टा , पनकीर्ति ,, बसकीर्ति , रामसेन आचार्य रत्रकीर्ति
म. अभयनन्ददेव रत्रकीर्ति मंडलाचार्य ...
" जसकीर्ति भ० राजेन्द्रकीर्ति
" पुष्कर माथुर बलात्कार सरस्वती
सं० १९५२
...| बनारस में प्रतिष्ठा कराई ।
अखरो ग्राम।
बलात्कार
कुन्द | सं० १६६२
|सं० १०५१ .
सं० १९१०-१९३६
काष्टा
[भाग २
" तामाये हरचं
तदानाये
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., राजेन्द्र भूषण
किरण ४ ]
अटेर ।
|, महेन्द्रभूषण , ललितकीति , लक्ष्मीभूषण
| भ० सुरेन्द्रभूषण | , लक्ष्मीसेन
गुणभद्र ,, विजयकोति विद्यानंदि मंडलाचार्य ... जिनचन्द्राम्नाये भ० विमलेन्द्र कीर्ति ... ब्रह्मदीप ...
हेमचन्द्राम्नाये
भ० जगद्भूषण मंडलाचार्य विशालकीर्ति ,, महीचन्द्र भ० विश्वसेन , सिंहकीर्ति समोरसिंहदेव शुभचन्द्र | भ० पद्मनं दे
|, जिनचन्द्र
काष्टा
भ० विश्वभूषण
...
मूल
| बलात्कार| सरस्व
अटेर।.
बलात्कार सरस्वती कुन्द
कुन्द . सं० १९२०
सं०.१६६६ सं० १८२८ ।। सोलहवीं शताब्दी
सं० १६८८ बलात्कार सरस्वतं
| सं० १५३७ सं०१६६६ सं०१६४२ सं० १७६६ सं० १६७५ सं० १४१६
सं० १५२६ माथुर
सं० १५२५ बलात्कार सरस्वती
सं० १५२० सं० १५२५-१५२८ सं० १६८६ सं० १७६०-१७६१ सं० १५२५ सं० १५४६
सं० १५५१ | सं० १९३२
| सं०.१६४५ बलात्कारस
कुंद | सं०१६८६ व १५३०
अटेर। सं०१५२५।
.
प्रतिमा-लेख-संग्रह
काष्टा
६४
देवेन्द्रभूषण
अटेर।
६८
समीरसिंहदेव
काष्टा
नागुरनामे। इन्द्रप्रस्थ ।
काष्टा
हरचन्द्र
हरेन्द्रभूषण , ज्ञानभूषण
... | भ० राजेन्द्रकीर्ति ... ... | , शीलभूषण । मूल
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________________
[ भाग
३८
भास्कर
१
के
काष्ठा संघ की उत्पत्ति के विषय में एक से अधिक मत हैं। दसवीं शताब्दी के देवसेनाचार्य मतानुसार सं० ७५३ में भ० कुमारसेन द्वारा इस संघ की उत्पत्ति हुई थी; किन्तु इस काल से भी पहले इस संघ का अस्तित्व मिलता है । एक कथा में काठ अथवा मिट्टी की मूर्ति बनाने का विधान करने के कारण इस संघ का यह नाम पड़ा बताया गया है । किन्तु हम तो समझते हैं कि मथुरा के निकट जमुना तट पर स्थित काष्ठा नामक ग्राम की अपेक्षा, इस संघ का यह नाम पड़ा था। इस संघ के पुष्कर व माथुरगण और नदी तट गच्छ आदि इस बात के द्योतक हैं कि किसी ग्राम की अपेक्षा से ही इस संघ का नाम 'काष्ठासंघ' पड़ा है । मथुरा प्राचीन काल से जैन धर्म का प्रमुख स्थान रहा है और उसके निकट काष्ठा नामक ग्राम भी मिलता है । द्रमिल संघ - द्राविड़ संघ, पुन्नाट संघ आदि नाम भी देश अपेक्षा है । अतः काष्ठासंघ भी जैन मुनियों के उस साधुसमुदाय का नाम प्रतीत होता है, जिनका मुख्य स्थान काष्ठा नामक स्थान था । देवसेन जी ने माथुर संघ की गणना अलग की है; किन्तु अन्य विद्वान् उसे काष्टसंघ का एक गच्छ ही बतलाते हैं; यथा :
काष्ठासंघ भुविख्याता जानन्ति नृसुरासुराः । तत्न गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षितौ ॥१॥ श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुर बागड़ाभिधः ।
लाड़ बागड़ इत्येते विख्याताः क्षितिमण्डले ॥३॥ — सुरेन्द्रकीर्तिः |
देवसेन जी के उपर्युक्त भेद-विवक्षा का कारण यह प्रतीत होता है कि काष्टासंघ में गोपुच्छ की पिच्छि रखने की आज्ञा है और माथुर संघ में पिच्छि रखने का विधान नहीं है । श्रीश्रमितगति आचार्य का श्रावकाचार माथुर संघ का है; किन्तु उसमें कोई बात ऐसी नहीं है जो मूलसंघ के विपरीत हो । काष्टासंघ का कोई आचारग्रंथ नहीं मिलता और यह भी नहीं मालूम कि उसमें और मूलसंघ में: क्या अन्तर था; किन्तु उपर्युक्त मैंनपुरी के लेख संग्रह से प्रकट है कि काष्टसंघ और मूल संघ में ऐसा कुछ विशेष विरोध नहीं था; यही कारण है कि एक ही जाति के लोग दोनों ही संघों के श्रनुयायी थे । इतना तो निस्सन्देह स्पष्ट है कि उल्लिखित लेखों के समय अर्थात् १४ वीं से ११ वीं शताब्दी ई० तक जैनों में काष्टासंघ और मूल संघ की कट्टरता का पक्ष नहीं था। यहां तक कि लोग काष्टासंघ के गए और गच्छ रूप में मूलसंघ के बलत्कारगण और सरस्वती गच्छ का उल्लेख करते थे। मालूम नहीं मूल में इन दोनों संघों में कितना भारी भेद था । देवसेनाचार्य के बताये हुये भेदों में केवल दो, कड़े बालों या गाय की पूंछ की पिच्छी रखना और तुल्लकों के लिये arrar का विधान करना मुख्य हैं । ( दर्शनसार गा० ३५) किन्तु इन बातों का सम्बन्ध गृहस्थों से विशेष नहीं है। कहा जाता है कि काष्टासंघ में बीस पंथ के अनुसार जिनेन्द्रपूजन में फल, फूल
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किरण ४
प्रतिमा-लेख-संग्रह
और केशर चर्चाने का रिवाज था। किन्तु इससे मी कुछ सिद्धान्त भेद नज़र नहीं पड़ता और इस तरह हम तो समझते हैं कि काष्ठासंघ और मूलसंघ में ज़्यादा भेद नहीं था। माथुर संघ का सम्पर्क काष्ठा संघ से धनिष्ठ था और यह प्रकट ही है कि माथुर संघ के श्रावकाचार और सैद्धान्तिक मान्यताओं में मूलसंघ से कुछ भी भेद नहीं था, जैसे कि श्रीअमितगति आचार्य के ग्रंथों से प्रकट है। अत एव काष्ठासंघ के साथ भी मूलसंघ का अधिक अंतर होना असम्भव है यही कारण है कि मैनपुरी के लेख संग्रह में एक ही जाति के लोग मूल और काष्ठा दोनों संघों के अनुयायी मिलते हैं। मैंनपुरी के बड़े मंदिर जी में एक हस्तलिखित गुटका संवत् १८६७ का ढाका शहर का लिखा हुआ मौजूद है। उसमें काष्ठासंघ के अनुसार नित्यनियम अर्थात् देव-शास्त्र गुरु-पूजा दी हुई है। प्रचलित नित्यनियम पूजा में और उसमें केवल इतना ही अंतर है कि उसमें "काष्टकविनिर्मुक्त' आदि" श्लोक के बाद ये श्लोक और दिये हुये हैं :
"श्रीयुगादिदेवं प्रणमत्य पूर्व, श्रीकाष्टासंघे महिते सुभन्याः । (१) श्रीमत्प्रतष्ठिा श्रुततो जिनस्य, श्रीयज्ञकल्पं स्वहिताय वक्ष्ये ॥१२॥ आदिदेवं जिनं नत्वा केवलज्ञानभास्कर। काष्ठासंघश्चिरं जीयाक्रियाकाष्ठादिदेशकः ॥१३॥ श्रीनाभिनंदनविभुप्रणिपत्य भक्त्या, यद्देशनामृतरसेन जगत्प्रपूर्णम् ।
काष्ठाख्यसंघवरमंगलहेतुनित्यं, यस्यागमान्निगदितांघ (?) करोमि पूजां ॥१४॥ इन श्लोकों में केवल काष्ठासंघ का बोध कराने का भाव है और उसके उत्कर्ष की भावना भाई गई है। हां, हमारो उपर्युक्त व्याख्या का इससे भी समर्थन होता है कि इस संघ का नाम देश अपेक्षा है, क्योंकि उपर्युक्त नं० १३ के श्लोक में इस संघ की क्रियायें काष्ठादि देश की बताई हैं। मालूम होता है कि साम्प्रदायिक द्वषबश काठ की मूर्ति आदि बनाने की अपेक्षा काष्ठासंघ कहलाने को कथायें कपोलकल्पनावत् रची गई हैं। उनमें कुछ भी सार नहीं है। काष्टासंघ की जैनपूजा में अवश्य कुछ क्रिया भेद था; किन्तु वह भी विशेष नहीं प्रतीत होता। पूजा में अगाड़ी कुछ भी पाठ भेद नहीं है। केवल 'देवजयमाल' में 'वत्ता गुट्ठाणे' आदि के स्थान पर एक अन्य जयमाल है, जिसका प्रारंभ इन गाथाओं से होता है :
"चउबीस जिणंदह तिहुयणचंदह, अह सयलचियभायणहं । जयमाला विरवम्मि गुणगण समरम्मि कम्म महागिरि चूरणहं ॥२॥
जय जय रिसहणाह भव रहिया, जय जय अजिय सुराहिव महिया । इत्यादि" सेनगण का सम्बन्ध बंगाल के सेनराजवंश से प्रतीत होता है। ( वीर वर्ष ४ पृ० ३२८ ) बलात्कार गण की उत्पत्ति किस अपेक्षा है, यह ज्ञात नहीं। कहा जाता है इस गण के सुद्ध अथवा ज़बरदस्त होने के कारण यह इस नाम से प्रख्यात हुआ था।
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भास्कर
[ भाग ३
(२) कुटुम्ब और श्रावक-श्राविकायें :, अग्रवाल-गगंगोत्रे सा० बुधमल (१२३४ सं०) । २ अग्रोत-गोयल-काष्ठा-सा० राजू भार्या जाल्ही-पुत्र छाजू, कामराज, रामचंद्र, चंद्रपाल,
जिनदास, ताराचंद्र आदि (१५३७ सं०) ३ अप्रोत-वाशिल-ब्रजमोहनदासभार्या सुंदरि पुत्र बाबू जगमोहनदास, वाबू मुनिसुनतदास
भार्या कांताकुंवरि, आरा निवासी (सं० १९२०) ४ अप्रोत-गर्ग-केलिराम पुत डालचन्द मैनपुरी (१९२० सं०) . ५ अप्रोत-मित्तल-देवदास भार्या लाड़ो, पुत्र धर्ममल, तेजा, गयचंद, चाहड़ा, (१९२६) ६ अप्रोत-र्ग-भुजू भार्या ताल्ही, पुत्र रत्नो, हरताल्हा और लाहट भार्या विणी, पुत्र हंस,
बाई जिनमति । (१५२६ सं०) ७ अग्रवालवैश्य-बाबू रामदास-छेदीलाल, बिसुनचंद्र-नरोत्तमदास (१९५२) .. ८ अग्रोत-वासिल गोत्रे-सौ खिलाल, मुनिसुव्रतदास (१९१० सं०) .
t ,-मीतल गोत्रे सा० भरे भार्या पुनिमा, पुत्र लखा, होसा, वापू (१५४५) १० , -छेदीलाल, विसुनचंद, नरोत्तमदास वटेश्वर में प्रतिष्ठा कराई (१९५२)
, -गर्ग-मूलसंधे-झम्मनलाल (१६४५ सं०) १२ , -कुकसगोत्र-मूलसंघे मलैराय भ्राता कल्याण (१९११ व १६५७) १३ , -गर्ग-काष्ठा कासीराम हरचंदपुरमध्ये प्रतिष्ठा कराई (१८८६ सं०).
, लोहिआ-खुशालचंद हरचंदपुर वाले (१६०२ सं०)
; केवलराम मैनपुरी (१८६६) १६ , गोयल गोत्र-सा० अदा भार्या पोवाही पुत्र मोमनसिंह (११४६ सं०) १७ , वासिल गोत्र--काष्ठा-उरगदास भार्या जान्हीं (१६४२) १८ , -गर्ग--सा० रत्न भार्या देन्ही पुत सहय भार्या वारु पुत्र षेमचंद (१११० सं०)
॥ ऋकेश शातीये-वरहडामा गोत्र-सा० शिवा भा० सिंगार आदि नागपुर (१९५१) २. खंडेलवाल-लुहाड्या-संघई हृदयराम (१७८३ सं०)
, -सा हरदास मूलसंघे (११२० सं०) २२ , -सिंधिया - सा० हिमत भार्या उधा पुत पदार्थक (१६७५ २०)
, -इष्वाक्वंशे-छावरागोत्र-नानिगराम (१८२८ सं०) २४ , -पाटनी-सा० हीकम (सं० १४३६) २५ गीयागोगे-संघई मामसेन
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किरण ४]
प्रतिमा-लेख-संग्रह
२९ गोलालारान्वये-साह पियू (१५३७ सं०) २. , -सा० भउवा भा० परमा पुत्र कर्ण भा० रणा पुत्र भीष्म (१९२५) २८ -खरौआ ज्ञातीये-कुलहा गोत पंडिताचार्य पं. भोजराज भार्या प्यारो पुत
पं० मकरन्द इत्यादि (सं० १६८६) , सा० भोजू-मलेसिंह-सोनराज (१४७४ सं०)
सा० ऐडरज-(सं० १५२१) ३.०, सा० अभूभार्या लड़ो पुत्र खौसा (१५११) ३१ गोल सिंगारा-रगा गोत्र-श्रीलाल भार्या जिया पुत्र धरमदास दामोदर (१६८८) ३२ जेसवाल-काठा संघी- सा० प्रिथी भा० भानी पुत्र विसाहा रिषभदास (१६२८)
३ , -सा० दास भार्या रजमती (सं० १६०१) ३४ , -काष्ठासंधी-सा० कन्हर भार्या जयश्री पुत हंसराज द्वितीय भार्या भावधी पस - रामचंद्र (सं० १५३१)
, -मूलसंधे-सा० जै सिंह भार्या सामा पुत्र माधव (सं० १५३७) ३६ , -काष्ठा-सा० सूर्यचंद्र भार्या नेमा पुल श्रावणा (सं० १४३७) ३. धाको शातीये संघई हेमा भार्या अम्बा पुत्र सं० मुदूसा..."कसिमवासी (१५......) ३८ नगरकोटेलगोगा सा. नरवर सिंह (सं १४११) ३६ पोरवाड़ जाति-सा० रहणा मार्या गोलसिरि पुत्र गर्जू भोजराज (सं० ११११) ४० पुले शातीये खेमिज गोगे-सा० तारन भार्या कैन ..."राजाराम खेमकरन (१६८८ मूल)
१ माहिमवंश-सा० हंसारादेव भा० प्रगंधा वरेना; पुत्र जैसी-तावसी-गर सेन (१९८८) ४२ बुदेल शातिये मूलसंघ–गिरधारी लाल बनारसीदास भोगांव (१९१७) कटरा मैनपुरी
पञ्चीलाल। . , -गृम गोत्रे-तुलाराम भार्या दारा पुत्र देवीदास अटेर (१७६१ सं०)
-लम्बकमचुकान्वये-कौआ गोत्र-सा सिवरामदास भार्या देवजाही
पुत्र देवीदास भार्या लाला कुंवरि पुत्र शोभाराम.....(१७७२) -लम्पकच्चुकान्वये-रावत गोगे-बदलू भा० लुधी पुत्र केणराय.........
_. तुलाराम (१७६६) ४६ यदुवंशे लम्बकञ्चुकान्वये सा० उद्धरण पुत्र असौ भार्या मूंगा पुत्र संघाधिपति वधे भा० मूला
पुत्र भोजराज धौपे ग्राम (१५०६) (नोट-इससे प्रकट होता है कि पहले संघाधिपति की उपाधि एक ही व्यक्ति को रहती थी
खानदान को नहीं)
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भास्कर
( भाग २
४७ राहत् शातीये-राजमल सेठ भा० सावाई पुत्र जगडू भा० शिव पुत्र सुराम सेठ (१६०६) .. ४८ लम्बकाञ्चुक-मूलसंधे-सा० चाङ्गदेव भा० ताण पुत्र लाल्हा भा० महादेवी (१४१२) ..
, -सा० मिण्डे भा० सोना पुख सा जल्लू भा० मना (१५२५ सं०) १० , -सहदेव+चम्पा = हेतदेव+मूला = लेखनदेव, पद्मदेव, धरमदेव, (१४१३)
--रावत-रावतप्रसाद पुत्र रावत सिरोमनि, चंडमारदुर्ग (१७३४), ५२ , - यदुवंशे-रपरिया गोत्र-छवीले - शंकर (१७६०) ५३ , -दिपौ + दूदा = सूर, खेमा, सालम, गैमा (१५२०) अंउली निवासी। ... .
, - रपरिया गोशे-मारसेन+जीवनदे=खरगसेन+वलको जयकृष्ण व मनसुख(१७६०) ५५ लंबेचू–उजागर (१५३४) ५६ , -यदुवंश - पचोलते गोत्र-सा भावते भा० हीरामनि पुत्र कन्हर, रमीले, लालसेन,
शिरोमणि, अतिवल (१७२२) १७ , -सिउलाल (१४७१) ५८ वाकुलिया गोत्र-प्रभसी पुत्र राजदेव (११०२) ५६ वरहिया कुले-सा० ल्हखे+कुसुमा = मलू+उदयश्री = लहण, छोटे व वीरसिंह (१५४५) . ६० संघई श्रीकृष्णदास (१७४६) ६. संघई अहिमनि (१९६२) ६२ श्रीमालवंश--मूलसंधे--सा० विहु (श्रीप्रतापचंद राज्ये (सं० १३४६) ६३ सा० लेखमल पुत्र भजनसिंह (१३३५) ६४ सा० सहरदा वमोहिक लल्लू, विलसी (१५२६) ६५ सा तेज पुत्र भोजादेव (१५३०) ६६ सा० खुरु पुत्र वीधा (१५४५) ६७ सा वीरपाल भर्या रमीवाई ६८ सा० पदारथ भा० जिवा पुत्र खेमकरण परमा (१६६६) ६६ सा० महत् भा० कान्हमती पुत्र सर्वत (१६०१) ७० सा० जीवराज पोपड़ीवाल (१५४८-१५४६) ७१ सा० लोणा (१५२५) । ७२ सा० भिमा माता गदा बीधा (१५४६) ७३ सा० विजयपोल-नागपाल (प्राचीन लिपि में) ७४ सा जिनदास काष्ठासंघे (१४७३) ७५ सा० रह पुत्र नानिग काष्टासंघे (१४१४)
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श्रीपूज्यपाद-कृत
वैद्य-सार
(अनुवादक—पण्डित सत्यन्धर जैन, आयुर्वेदाचार्य, काव्यतीर्थ)
(गतांक से आगे) टोका-शुद्ध सिंगरफ, १ तोला, शुद्ध जमालगोटा ६ माशा, शुद्ध सिंगिया ३ माशा, सोंठ, मिर्च, पीपल तीन तीन माशा, बड़ी हर का छिलका ३ माशा अरण्ड की जड़ की छाल ३ माशा, पूतकरंज को मांगी ३ माशा, नीला सुरमा तथा शुद्ध मेनशिल, शुद्ध पारा, तूतिया भस्म, पीपल, कौड़ी भस्म, शंख भस्म, शुद्ध धतूरे के बीज, नीम की निबोडो की गिरी. हलदी, दामहलदी ये सब तीन तीन माशा लेकर सब औषधियों को बकरी के दूध में एक दिन भर खरल में मर्दन करे तथा चना के बराबर गोली बनावे, इस गोली को गुड़ और काली मिर्च के साथ सेवन करे और ऊपर से उष्ण जल का पान करे तो इससे ग्रामदोष का रेचन होता है, पांचों प्रकार के गुल्म रोग दूर होते हैं, शूल को नाश करता, वायु का शोधन करता तथा शीत ज्वर का नाश करनेवाला है। यह पूज्यपाद स्वामी का बनाया हुआ उत्तम योग है।
३३–प्रमेहे प्रमेहगजकेसरी रसः सूतं च वंगभस्मानि नाकुलोबोजमभ्रक्रम् । अयस्कांतं शिलाधातु कनकस्य च बीजकम् ॥१॥ . गुडूची सत्वमित्येषां त्रिफलाक्वाथमर्दिताम् । गुंजामानवीं कृत्वा छायाशुष्कां तु कारयेत् ॥२॥ शर्करामधुसंयुक्तो प्रमेहोन् हति विशति । नटेन्द्रियं च दाहं च मन्दाग्निंमद्यदोषकं ॥३॥ सोमरोगं मूत्रकृच्छ्र वस्तिशूलं विनश्यति।
पूज्यपादप्रयोगोऽयं प्रमेहगजकेसरी ॥४॥ टीका-शुद्ध पारा, बंगभस्म, शुद्ध रासना के बीज, अभ्रक भस्म, कांत लौहभस्म, शुद्ध शिलाजीत, शुद्ध धतूरे के बीज, गुरुव का सत्व इन सब औषधियों को त्रिफला के
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भास्कर
[ भाग २
काढ़े में घोंट एवं एक एक रत्ती के बराबर गोली बनाकर छाया में सुखावे। मिश्री या शहद के साथ इसका सेवन करने से बीस प्रकार के प्रमेह को नाश करता है, नपुंसकता, दाह, मंदाग्नि तथा मद्य के दोष को जीतनेवाला एवं सोमरोग, मूत्रकृच्छ्र, वस्ति के शूल को भी नाश करता है। यह सब प्रकार के शूलों को नाश करनेवाला पूज्यपाद स्वामी का बनाया हुआ प्रमेहगज केशरी उत्तम प्रयोग है।
३४--मन्दाग्नौ बड़वाग्निरस: शुद्धं सूतं ताम्रभस्म तालबोलं समं समं॥ अर्कतीरेण संमर्थ दिनमेकं द्विगुंजकम् ॥१॥ बड़वाग्निरसं खादेन्मधुना स्थौल्यशांतये ॥
पूज्यपादप्रयुक्तोऽयं खलु मंदाग्निनाशकः ॥२॥ - टीका-शुद्ध पारा, ताम्रभस्म, तवकिया हरताल भस्म, शुद्ध बोल बराबर बराबर लेकर इन सबों का अकौवा के दूध में दिन भर घोंटे तथा दो दो रत्ती की गीलो क्लाये। इसी का नाम बड़वाग्नि रस है-इसको शहद के साथ सेवन करने से स्थूलता दूर होती है। यह पूज्यपाद स्वामी का प्रयोग मंदाग्नि का नाश करनेवाला है।
३५--रक्तदोषे तालकेश्वररसः तालकं मृततानं च समं खल्वे विमर्दयेत् ॥
भ्याकर्कोटकीकंदस्वरसेन दिनत्रयम् ॥१॥ द्विगुंजं मधुना दद्यात् पश्चात् क्षौद्रोदकं पिबेत् ॥
रक्तदोषप्रशांत्यर्थं पूज्यपादेन भाषितः ॥२॥. टीका-तकिया हरताल का भस्म तथा ताम्रभस्म ये दोनों खरल में बांझककोड़ा के कंद के स्वरस में तीन दिन तक घोंट कर दो दो रत्ती की गोली बांधे। उस गोली को सुबह शाम मधु के साथ सेवन करे और ऊपर से मधु का पानी पिये। यह रक्तदोष की शांति के लिये पूज्यपाद स्वामी ने कहा है। .
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किरणे ४]
वैध-सार
३६--बहुमूत्रे तारकेश्वररसः मृतं तारं मृतं वंगं मृतं कांताभ्रकं ससम् ॥ मर्दयेन्मधुना दिवसं रसोऽयं तारकेश्वरः ॥१॥ माषैकं लेहयेत् क्षौद्रः बहुमूननिवारणः॥
मूत्रदोषप्रशांत्यर्थ पूज्यपादेन भाषितः ॥२॥ टीका-चांदी का भस्म, वंग का भस्म, कांत लौह भस्म तथा अभ्रक भस्म ये चारों बराबर बराबर लेकर मधु के साथ एक दिन भर बरावर घोंटे और एक माशे की मात्रा से प्रातःकाल मधु के साथ सेवन करे। इसका बहुमूत्र रोग की शांति के लिये पूज्यपाद स्वामी ने कहा है।
३७–भेदिज्वरांकुशरस रसंस्य द्विगुणं गंधं गंधसाम्यं च टंकणम् ॥ रससाम्यं विषं योज्यं मरिचं पंचभागकं ॥१॥ कट्फलं दंतिबीजं च प्रत्येकं मरिचान्वितम् ॥ गुड़ चीसुरसास्वरसैः मर्दयेद्याममात्रकम् ॥२॥ मापैकेन निहत्याशु ज्वराजीर्ण त्रिदोषजं ॥ क्षणे चोष्णं क्षणे शीतं क्षणेऽपिज्वरमुत्कटं ॥३॥ कचिद्रात्रौ दिवा कापि द्वितीयंत्र्याहिकं च तत् ॥
ज्वरचातुर्थिकं चापि• विषमज्वरनाशनः ॥४॥ टीका - शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गंधक २ भाग, सुहागे का फूल २ भाग, शुद्ध विष १ भाग, काली मिर्च ५ भाग, कायफल ५ भाग तथा शुद्ध जमालगोटा ५ भाग इन सबको गुर्च तथा तुलसी के रस से घोंट कर रख लेवे। एक माशा की मात्रा से अनुपानविशेष के द्वारा देने से सब प्रकार के ज्वर, अजीणं, पित्तरोग, शीतजन्य रोग तथा उत्कट ज्वर सर्व प्रकार के विषम एवं व्याहिक, व्याहिक, चातुर्थिक ज्वर आदि को शान्त करता है।
३८--क्षयकासादौ अग्निरसः शुद्धसूतं द्विधा गंधं खल्वेन कृतकज्जली ॥ तत्सम तीक्ष्णचूर्ण च मर्दयेत् कन्यकाद्रवैः॥१॥
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२८
भास्कर
[भाग २
यामद्वयात् समुद्धृत्य तद्गोलं ताम्रपानके ॥ आच्छाद्यैरंडपश्च यामार्धेनोप्णतां व्रजेत् ॥२॥ धान्यराशौ न्यसेत् पश्चात् पंचाहात्तं समुद्धरेत् ॥ सुपेष्य गालयेद्वलो सत्यं वारितरं भवेत् ॥३॥ कन्याभृङ्गीकाकमाचीमुंडीनिगुडिकानलम् ॥ . कोरटं वाकुची ब्राह्मी सहदेवी :पुनर्नवा ॥४॥ शाल्मली विजया धूर्तद्रवैरेषां पृथक् पृथक्॥ सप्तधा सप्तधा भाव्यं सप्तधा त्रिफलोद्भवैः ॥५॥ कषाये घृतसंयुक्तं ताम्रपाने क्वचित् क्षणे॥ त्रिकुटस्त्रिफला चैला जातीफललवंगकम् ॥६॥ एतेषां नव भागानि समं पूर्व रसंक्षिपेत्॥ लिह्यान्माक्षिकसर्पिभ्या पांडुरोगमनुत्तमम् ॥७॥ स्वयमग्निरसो नाम क्षयकासनिकृन्तनः॥
अर्व्यपादप्रकथनः सर्वरोगनिकृन्तकः ॥८॥ टीका-शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गंधक २ भाग इन दोनों की कजली करे तथा कजली के बराबर शुद्ध तीक्ष्ण लोह का चूर्ण लेवे फिर सबको घीकुवांरी के स्वरस से २ पहर तक घोंटे और गोला बनाकर तांबे के संपुट में बंद करके ऊपर से एरंड के पत्ते से आच्छादन करके ॥ घंटे तक आंच देवे जिससे यह औषधि गर्म हो जाय फिर वह संपुट धान्य की राशि में रख देवे तथा ५ दिन तक धान्य राशि में रहने के बाद निकाले और अच्छी तरह पीस कर कपड़ा से छान ले। पश्चात् जल में डालकर देखे, यदि जल के ऊपर तैर जाय तो सिद्ध हुमा समझे। तदुपरांत घीकुवारि (गवारपाठा) मोगरा, मकोय, मुंडी, नेगड, (सम्हालू) चित्रक, कुरंट, वाकची, ब्राह्मी, सहदेवी, पुनर्नवा, सेमल, भांग, धतूरा इन सबके काढ़े से या स्वरस से अलग अलग सात सातभावना देवे तथा उसमें थोड़ा घी मिलाकर ताम्मे के बर्तन में क्षण भर के लिये रक्खे फिर सोंठ, मिर्च, पीपल, त्रिफला छोटी इलायची जायफल, लौंग इन सबका चूर्ण और सब के बराबर ऊपर कहा हुआ अग्निरस लेकर घी तथा मधु के साथ सेवन करे तो पांडुरोग शांत होता है एवं क्षय खांसी को भी इससे लाभ होता है। यह सब रोगों को नाश करनेवाला पूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ उत्तम योग है।
नोट-यह ऐसा योग है कि इस योग में इसी प्रकार से लौह भस्म हो जाता है-वेद्य महानुभाव संदेह न करें।
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किरण ३ ]
वैद्य-सार
३१ - ज्वरादौ महाज्वरांकुशरसः
शुद्धसूतं विषं गंधं धूर्तबीजं त्रिभिः समम् ॥ सर्व चूर्ण द्विगुगव्योषं चूर्णं गुंजप्रमाणकम् ॥१॥ घटकं भृंगनीरें कारयेश्च विचक्षणः ॥ महाज्वरांकुशो नाम ज्वरान्सर्वान् निकृन्तति ॥२॥ पकाहिकं द्वयाहिकं वा त्र्याहिकं च चतुर्थकम् ॥ विषमं वा त्रिदोषं वा हंति सत्यं न संशयः ॥३॥
टीका -- शुद्ध पारा, शुद्ध विष, शुद्धगंधक, एक एक भाग, बराबर बराबर तथा शुद्ध धतूरे के बीज तीन भाग, सब के चूर्ण से दूना सोंठ, मिर्च, पीपल का चूर्ण मिलाकर घोंट लेवे। फिर इस रस की एक एक रती के बराबर भंगरा के स्वरस में गोली बनावे ।, यह महाज्वरांकुश रस अनुपान भेद से सब प्रकार के ज्वरों को तथा एकाहिक, ह्याहिक याहिक और चतुराहिक त्रिदोषज आदि सब ज्वर को नाश करता है
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४० - उदररोगे शंखद्राव:
स्फाटिक्यं नवसारकं च लवणं तुल्यं च भागत्त्रयम् ॥ सार्धं भूलवणं हितं द्रवमिद्वैतद् भैरवीयंत्रके ॥१॥ मर्त्यापीतमिदं भगंदरमजीर्ण मुदरादिशुलादिकम् ॥ शंखद्राव वराभिधानमुदरे भूतान् रोगान् हरेत् ॥२॥
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टीका - फिटकरी, नौसादर सेंधानमक ये बराबर बराबर लेकर १ || भाग कलमी शोरा सम्मिश्रण कर भैरवयंत्र के द्वारा शंखद्राव निकाले । इसके पीने से भगंदर, अजीर्ण, उदरशूल आदि प्रनेक उदर रोगों का नाश होता है ।
४१ – विबंधे जयपालयोगः
-
जयपालस्य च बीजानि पिप्पली च हरीतकी ॥ तत्समं शुल्वचूर्ण तु बज्रीक्षीरेण भावितम् ॥१॥ मरिचप्रमाणगुटिकां तांबूलेन च मर्दयेत् ॥ उष्णोदकेन वमनं शीतलेन विरेचनम् ॥२॥
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२०
भास्कर
टीका-शुद्ध जमालगोटा के बीज, पीपल, बड़ी हर्र को छिलका, बड़ी हर्र के बराबर ताम्रभस्म इन सबको थूहर के दूध की भावना देवे तथा पान के रस के साथ काली मिर्च के बराबर गोली बांध लेवे। इसको गर्म पानी से सेवन करने से बमन होता है तथा शीतल जल के साथ खाने से विरेचन होता है।
४२--शीतज्वरे शीतकेशरीरमः हिंगुलं टंकणं गंधं सूतं पुनः गंधकं ॥ विषं तुत्य कांतशिलाबोलतालनवसागरं ॥१॥ .. . कारवल्लीरसे पिष्ट्वा मर्दयेद्याममात्रकम्॥ वणमानवटी कुर्यात् गुड़मिश्रं तु सेवयेत् ॥२॥ चातुर्थिकज्वरं हंति पथ्यं दयोदनं हितम् ॥
सितेभकेशरी नाम पूज्यपादेन निर्मितः ॥३॥ टीका-शुद्ध सिंगरफ, सुहागा, शुद्ध गंधक, शुद्ध पारा, शुद्ध विष, तुत्य भस्म, क्रांतलौह भस्म, शुद्ध शिला, शुद्ध बोल, शुद्ध तवकिया हरताल और शुद्ध नौसादर ये सब चीजें बराबर बराबर तथा गंधक दो भाग लेकर करेले के रस में एक प्रहर घोंट कर चना के बराबर गोली बनावे। इसको पुराने गुड़ के साथ सेवन करने से सब प्रकार का ज्वर नाश होता है। इसका पथ्य दहीभात है।
४३-शीतज्वरे शीतांकुशरसः तुत्थं पारदटंकणे विषवली स्यात् खर्परं तालकं ॥ सर्व खल्वतले विमर्थ गुटिकां स्यात्कारबेल्ल्याः द्रौः॥ गुंजैकप्रमितः सुशर्करयुतः स्याजीरकैर्वा युतः॥
एकद्वित्रिचतुर्थकज्वरहरः शीतांकुशो नामतः ॥१॥ टीका-शुद्ध तृतिया भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध सुहागा, शुद्ध विष नाग, शुद्ध गंधक, शुद्ध खपरिया, शुद्ध तवकिया हरताल इन सबों को लेकर खल में करेले के रस से मर्दन करके एक एक रत्ती प्रमाण गोली बनावे। मिश्री और जीरे के साथ एक एक गोली देने से सब प्रकार के विषमज्वर दूर होते हैं।
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किरण ३ ]
वैद्य - सार
४४ - हृदरोगादौ सिद्धरसः
जातीफलं सैंधवहिगुलं च सुवर्णमित्रं विषपिप्पलीनाम् ॥ महौषधी बायु बिडंगहेमबीजं समञ्वोन्मत्तजंबुनीरैः ॥१॥ तदाद्र तायैः पृथुयाममात्रं निरंतरं कल्कंखल्बमध्ये ॥ सुमर्दनीयं वटकं च कुर्यात् गुंजाप्रमाणं सितया समेतम् ॥२॥ निर्हति हृद्रोगप्रमेहसतं बाताविसारं ग्रहणीशिसेवक ॥ करोति निद्रां फफशूलसिद्धरसोऽयमानयति प्रसिद्धम् ॥३॥
"
टीका - जायफल, सेंधा ममक, सिंगरफ, शुद्ध सुहागा, शुद्ध विष, पीपल, सोंठ, वायविडंग, और सत्यानाशी के बीज ये सब बराबर भाग लेकर जंवीरी नींबू के स्वरस में दो प्रहर घोंट कर एक एक रप्ती के प्रमाण गोली बनावे | यह गोली मिश्री की चासनी के साथ सेवन करे तो हृदयरोग, प्रमेह बातरोग, बातातीसार, ग्रहणी तथा शिरोरोग शान्त होता है, बल्कि इससे निद्रा भी आती है और कफजन्य शूल इससे शान्त होता है।
४५ - शूलादौ शूलकुठाररसः
त्रिकुटः त्रिफलासुतं गंधटंकणतालकं । ताम्रविषविषमुष्टिं च समभागं समाहरेत् ॥१॥ भागविंशतिभियुक्तं जयपालं च पृथक् ददेत् । सर्व भृङ्गरसे पिष्ट्वा गुलिकां कारयेत् भिषक् ॥२॥ द्यः शूलकुठारोऽयं विष्णुचक्रमिवासुरान् । सर्वशुले प्रयुक्तोऽयं पूज्यपाद महर्षिणा ॥३॥
टीका - त्रिकटु, त्रिफला, शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, शुद्ध सुहागा, हरतालभस्म, ताम्रभस्म
·
विषनाग और शुद्ध कुचला ये सब एक एक भाग तथा बीस भाग शुद्ध जमालगोटा लेवे । सबको भंगरा के रस में घोंट कर एक रती प्रमाण गोली बनावे और एक एक गोली गर्म जल से देवे तो कैसा ही शुल हो अवश्य ही लाभ होगा। जिस प्रकार विष्णु के सुदर्शनचक्र से असुरों का नाश हुआ उसी प्रकार इससे शूल का नाश होता है ।
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३२
भास्कर
४६ - अजीर्णादौ अर्धनारीश्वररसः
बिषं सगंधं हरितालकं च मनःशिला निस्तुवदंतिबीजं ॥ सूतं सताम्र दरदैः समेतं प्रत्येकमेतत् समभागकं स्यात् ॥१॥ निर्गु डिपत्रस्य रसेन पेयं धत्तूरपत्रं सहमंजरी च । दिनत्रयं मर्दित एव सम्यक् गुंजाप्रमाणां गुटिकां प्रकुर्यात् ॥२॥ छायाविशुष्कं सगुडं च भक्ष्पं प्रपक्कदुग्धमनुपानमेव । सकोष्णवारिसदनानुपानं रसोऽर्धनारीश्वरनामधेयः ॥३॥
[ मांग ३
टीका - शुद्ध विष, शुद्ध गंधक, हरिताल भस्म, शुद्ध मैनशिल, शुद्ध जमालगोटा, शुद्ध पारा, ताम्र भस्म तथा शुद्ध सिंगरफ ये सब समान भाग लेकर सम्हालु की पती के रस की भावना देवे फिर धतूरे के पत्तों के रस की बाद में तुलसी के पत्तों को रस की भावना देवे। इन तीनों के रस की तीन दिन तक लगातार भावना देने के पश्चात् एक एक रती प्रमाण गोली बांधे और छाया में सुखावे । पुराने गुड़ के साथ सेवन करने के बाद एक पाव कच्चा दूध पिये और यदि अजीर्ण हो तो यह गोली गर्म जल के अनुपान से देवे। यह अर्धनारीश्वर रस उत्तम है ।
४७ - प्रमेह चन्द्रकलारस:
पला तु कर्परशिलासुधात्रीजातीफलं गोत्रशाल्मलीत्वक् । सूतं च बंगायसभस्ममैतत्समं समं तत्परिभावयेच्च ॥ १ ॥ गुड़ चिकाशाल्मलिकारसेन निष्कार्धमानं मधुना च दद्यात् । वध्वा गुटी चन्द्रकलेतिसंज्ञा मेहेषु सर्वेषु नियोजयेच्च ॥२॥
टीका- छोटी इलायची, शुद्ध कपूर, शुद्ध शिलाजीत, श्रवला, जायफल, गोखरू, सेमल की छाल, शुद्ध पारा, बंगभस्म और लौहभस्म ये सब बराबर बराबर लेकर खरल में गुर्व तथा सेमर के कंद के स्वरस में घोंट कर गोली बनावे और सुबह शाम १॥ माशे की मात्रा से शहद में सेवन करने से सम्पूर्ण प्रकार के प्रमेह शान्त होते हैं ।
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THE JAINA ANTIQUARY
An Anglo-Hindi quarterly Journal,
Vol. I, )
March, 1936.
[ No. 4,
Editors: Prof. HIRALAL JAIN, M.A., LL.B., P.E.S.,
Professor of Sanskrit,
King Edward College, Amraoti, C. P. Prof. A. N. UPADHYE, M.A.,
Professor of Prakrata,
Rajaram College, Kolhapur, S.M.C. B. KAMTA PRASAD JAIN, M.R.A.S.,
Aliganj, Distt. Etah, U.P. Pt. K. BHUJABALI SHASTRI,
Librarian, The Central Jaina Oriental Library, Arrah.
Published at THE CENTRAL JAIN ORIENTAL LIBRARY,
ARRAH, BIHAR, INDIA.
Annual Subscription :
Foreign Rs. 4-8.
Ialand Rs. 4,
Single Copy Rs 1-4.
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Om.
THE
JAINA ANTIQUARY.
"श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥"
Vol. I. ) No. IV
ARRAH (INDIA)
March,
1936.
Rules for Ascetics in Jainism, Buddhism
Hinduism
[S. C. GHOSHAL, M.A.B.L., Saraswati, Kavyatirtha, Vidyabhushan, Bharati.]
Hinduism, Buddhism and Jainism are the oldest religious movements in India, where a very large number of different religions have originated and secured innumerable votaries. Though there is evidence about the definite time when Buddhism was first preached, the origin of Hinduism and Jainisin is lost in obscurity. The earliest work on Hinduism is the Vedas, and the later Upanishads and Grihya and Dharma Sutras contain much valuable information regarding the principal tenets and practices of ancient Hindu religion. If we compare these with the same of Buddhism and Jainism, we shall find that the principal tenets and practices are similar in all these religions and the subsequent quarrels and frictions between the different votaries of these religions took rise in minor differences among householders. The sages of all those sects who were advanced in higher planes viewed with equanimity others without the slightest bitterness.
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JAINA ANTIQUARY.
[Vol. 1
We shall show in this article that some of the practices in Jainism vehemently attacked by Hindus and Buddhists were included in their own religious doctrines.
Jains have mostly been attacked for prescribing nakedness. Gautama Buddha attacked naked saints who are called Achelakas. Buddha said “O Bhiksus. There are some Achelakas, who attend calls of nature and eat in a standing posture. They lick their palms and fingures after eating. They do not go to beg, if called. They do not wait, if asked to do so. They collect rice by begging before all. They never accept alms, if the same be prepared for them beforehand. They never accept any invitation. They do not accept alms if offered from Kunti, Udukhal, Falaka, Danda and Musala. They do not accept alms if one among two persons rises up while eating and offers alms. They do not accept alms from a pregnant woman, from a woman who is engaged in suckling an infant................... They never touch fish or flesh. They never drink wine. They are satisfied with what they can get from a single house. .......... They eat at intervals of one, two seven or fifteen days. They live on vegetables. They practise meditation standing. They lie on thorns. Anguttara NikāyaAchelaka Bagga. See also Manorathapurani). .
In Dandavaggo we find Buddha speaking thus : "ण णग्गचरिया ण जटापङ्का णाणासका थण्डिलसायिका वा। रजो व जल्लं डक्कुटिकाप धारणं साधेति मच्चं अवितिगणकङ्ख ॥ अलंकतो चेपि समं चरेय संतो दणतो णियतो वम्भचारी।
सम्वेसु भूतेसु णिधाय दण्डं सो बम्भको सो समण से भिक्खु ।" I, E, "Nakedness, matted hair, mud, fasting, lying on the ground, smearing the body with dust' or standing still cannot cleanse a man who is not free from desire. Even if a man wears ornaments, if he be calm, collected and steady, and practises Brahmacharya and refrains from oppressing creatures, he is the real Brahmin and he is the real Sramana," he is the real Bhiksu.
The Achelakas here referred to are the same who have practices of Digam Vara Jain saints. In the work named Mulāchāra by
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No. IV] RULES FOR ASCETICS IN JAINISM, BUDDHISM & HINDUISM. 69
Batterakāzhārya we find that the condition of an Achelaka means non-covering of the body by cloth, deer-skin, barks, or leaves of trees. It has also been mentioned that ascetics should eat while standing and in the palm of their hands. Begging from a pregnant woman or from a woman engaged in suckling an infant is also prohibited. 3 The faults arising from fireplace, Udukhalas, and vessels, etc. have been mentioned for evidence. The previous arrangement for alms to particular persons have been prescribed as prohibitive. That the Jain monks did not accept invitations like Brahmins appear from a story in the Panchatantra where a Jain sage being invited says: "O Sravaka, why do you, who know Dharma, speak thus ? Are we like the Brahmanas that you are inviting us? We always move about according to rules and if we find a Srāyaka having reverence, we go to his house, and if he prays with great persistence, we eat as much in his house as would enable us to live."6
Naked saints were not peculiar to Jain religion only, but were also found in the Hindu religion specially in the Sivaite secte. The fourth stage of life named Sannyāsa or Bhiksu enjoined that the saints should wear only a Kaupin or remain entirely naked.
(1) "वस्थाजिणवक्केण व अहवा पत्ताइणा असंवरणं ।
णिभूसण णिग्गंथं अच्चेलक्कं जगदि पूज्जं ॥" (2) "अंजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डाइविवजणेण समपावं ।
पडिसुद्धे भूमितिए असणं लिदिभोषणं णाम ॥" (3) "प्रतिवाला अतिवुड्ढा घासत्ती गम्भिणी व अंधलिया ।
अंतरिदा व णिसण्णा उच्चस्था अहव णीचथ्या ।" लेवणमजणकम्म पियमाणं दारयं च शिक्खविय ।
एवं विन्हा दिया पुण दाणं जदि दिति दायगा दोसा ॥" (4) "अप्पासुरण मिस्सं पासुयदव्यं तु पूदिकम्मं तं ।
चुल्ली उक्खनी दबी भायणगंधत्ति पंचविहं॥" (5) "जावदियं उद्देसो पासंडोत्ति य हवे समुद्देखो।
समणोत्ति व प्रादेखो णिग्गंथोत्ति य हवे समादेसो ॥" (6) "भाः श्रावक ! धर्मज्ञोऽपि किमेवं वदसि ? किं वयं ब्राह्मणसमानाः, बत आमन्त्रणं करोषि ?
वयं सदैव तत्कालपरिचर्यया भ्रमन्तो भक्तिभाजं श्रावकमवलोक्य तस्व गृहे गच्छामः, तेन महता यत्नेन अभ्यर्थिता तद्गृहे प्राणधारणमात्रामशनकियां कुर्मः।"
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JAINA ANTIQUARY.
[Vol. I
In Siva Purāna it is enjoined that if one thinks the practice of wearing clothes to be not correct, and if he has renunciation, he should leave even the staff and Kaupin; otherwise he may retain these two while entering upon the Asrama known as Sannyāsa." The method of initiation of a saint is prescribed in the said Purāna, and it has been mentioned that the wearing cloth should be laid aside and the desciple should walk naked for more than seven paces, but if he wishes to retain a loin-cloth conforming to the ideas of ordinary householders he may take up a Kaupin and a staff given to him by his Guru. 8 One who has conquered shame should practise nudity, while one who has not attained this stage but suffers from a sense of shame is permitted to wear a cloth or a skin. This alternative, however, has not been accepted as praiseworthy, for it has been mentioned that he is the best of saints and he is the highest of penitents who discırds the staff, loincloth, girdles, etc. 10 In Jābālopanishad, Paramahansa Upanishad, Nāradaparibrājakopanishad, Bhiksukopanishad, Turiātitopanishad, Sannyāsopanishad and Paramahansaparibrājakopanishad we find Param(7) "गृह्णीयाद्दण्डकौपीनायुचितं लोकवर्शने । विरतश्चेन्न गृहणीयाल्लोकवृत्तिविचारणे ॥""
____(Siva Purana. Kailasa Sanhita. III 51) (8) "प्रास्वाचम्ब समागम्ब भूमौ वस्त्रादिकं त्यजेत् ।
उदङ्मुखः प्राङ्मुखो वा गच्छेत् सप्तपदाधिकम् ॥ किंचिद्रमथाचार्यस्तिष्ठ तिष्ठति संवदेत् । लोकस्व व्यवहारार्थ कौपीनं दण्डमेव च । भगवन् स्वीकुरुष्वेति दयात् स्वेनैव पाणिना ॥"
[lbid. IX. 74-76] (9) "ततस्तु जटिलो मुंड: शिखैकजट एव था।
भूत्वा स्नात्वा पुनर्वीतलजश्चेत् स्वादिगम्वरः ॥ अन्वः काषायवसनश्चर्मचीराम्वरोऽथवा । एकाम्बरो वल्कली वा भवेद्दण्डी च मेखली ॥"
(Siva Purana Vayaviya Sanhita XXIX. 20—21) . (10) “ततो दण्डजटाचीरमेखलाद्यपि चोत्सृजेत् ।
सोऽत्याश्रमी च विज्ञेयो महापाशुपतस्तथा। स एव तपता अधः स एव च महाव्रती॥"
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No. IV | RULES FOR ASCETICS IN JAINISM, BUDDHISM & HINDUISM. 71
bansas and Jnana Vairājnya Sannyāsis, who never wear any clothes. 11 In the Tantras also we find naked Avadhuts. 1 2 In Siva Purāna, Kurma Purāna, Padma Purāna, etc, we find stories of Hindu naked saints moving about freely in the courts of kings, or in hermitages before females and begging alms from female householders. 18
It is only at a very late stage that nudity became an object of repugnance to a certain section of the Hindus, and we see a rule in the Hindu Smriti that one should practise purification when one sees a naked saint. Nakedness became associated with Jainas only, forgetting that the highest gods and goddesses of the Hindus like Siva and Kāli are naked, and the great sages of old were advocates of nudity when they reached the fourth stage of the Asramas prescribed in the Shastras for the Hindus.
There are rules for Paribrājakas following Hinduism in the Vedio period for. observing nudity. In Apastam ba Dharmasutra we find :
“ Tasya muktamāchchhādanam vihitam."
"Sarvatah parimoksameke." In Vaikhānasa Dharmaprasna we read :
“Paramahansa nama sāmbara digambara pa." As regards the practice of non-washing the body, we find that Asnāna is one of the Mulagunas of the Jainas. . "Nhānādi bajjanena ya vilitta jalla malaseda sabbangam. Anhānam ghoragunam samjamadugapalayam munino."
(MULACHARA) i.e., a Yati should desist from bathing, etc., and his body may
(11) For a detailed description and quotations see my work entitled
"The Digambara Saints of India" Pages 40-44. (12) "feriastar atenuar meat waa." (Nirvāna Tantra) Also "gayaa fafaa: Tres faign: 1
सचेलश्चापि दिग्वासा विधियोनिविहारवान् ॥
agiot adqiten gertat faciat: 1" (Mundamālā Tantra. Patala II.) (13) See my “The Digambara Saints of India " Chapter IV,
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be covered with dirt, sweat, etc., and he should practise at the same time the restraint of the senses and the mind.
In Gobhila Grihya sutra we find that the Brahmachāries in the Vedic ages were forbidden to bathe : D
“Snānam.” From the previous Sutra the word "Barjjaya ?? follows. This means " Leave bathing." In Apastamba Dharamsutra we find :
"Angāni na praksāliyata." i.e. “Do not wash the limbs.” In the following Sutra it is mentioned that if any one touches an unclean thing he can wash his body.
The point is that a sage should not constantly give his thoughts to his body, as his attention should always be to higher things. The Jaina sages do not cleanse their teeth.
"Angulinhavalehanikalihim pasanachhalliyadihim. Dantamalasohanayamsamjamagutto adantāmanam."
(MULACHARA.) i.e. A Yati should not clean his teeth by fingers, nails, tooth-picks or other articles.
The Vedic Brahmachāri also did not clean his teeth. In Gautania Dharma Sutra we find :
“Barjjayen madhumānsa......snāna-dantadhāvana......" .e. "Leave Honey, flesh,...... bathing and cleaning teeth.” About the very spare eating of the Jain saints mentioned in Achelaka bagga quoted above, we my mention that in Hinduism and Buddhism we find constant injunctions about restraining food, Aswaghosa in his puddhacharita has put into the mouth of Buddha :
“Aharah prānajātrāyai na bhogāya na driptaye."
i.e. “The food should only be to keep the life and not for enjoyment or pride."
Apastam ba bas mentioned that a person following the Bānaprastha Asrama should pick up the grains after the reapers remove the crops. They should not take anything more.
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“Silonch hena vartayet. Na chāta Urddhwam pratigrinhiāt." In Vasistha Dharmasutra we find :
"Prānajātrikamātrah syät."
i.e. "Be only content with what is essentially necessary to live ” Baudhāyana also says :
"Ahāramātram bhunjita kevalam prānajātrikam." i.e." Eat only that food which enables one to live." In the Satapatha Brāhmana we find :
" Yaduha va atmasammitamannam tadavati tanna hinasti. Yad bhuyo binasti tad yat kaniye na tadavati.”
¿.e. " That rice which is measured according to one's necessity, never causes any suffering. That which is much, causes . suffering. That which is less than necessary, cannot keep on life.” In the Srimadbhagavadgitā also it has been mentioned :
“ Yuktāhārabihārasya yuktachestasya karmasu.
Yuktaswapnābabod hasya yogo bhavati duhkhahā.". i.e. "The Yoga of one who practises eating, sleeping, waking, movements and action keeping due moderation becomes capable of removing sufferings” The same thing has been clearly set forth in Mulāchāra :
"Na balayusauattam na sarirassuvachayatta tejatam.
Nānatta samjamattam.jhānatam cheva bhunjejje." i.e. “Do not eat to gain strength, long life, sweet taste, development of the body cr spirit.” Eat for the sake of knowledge, restraint and contemplation."
As regards the practice of Jaina Yatis regarding lying on the ground, Mulāchāra lays down:
" Phāsuya bhumipayese appamasamtharidamhipachohanne:
Dandam dhanubba sejjam khidisayanam oyapāsena."
ie. “A Yati should lie on a place where there are no living creatures which may be killed by the pressure of his body. The place should be secluded and the bed should be of insignificant materials such as grass. He should lie on one of his sides either
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straight like a rod or a little curved like a bow, but never on his back or with his face downwards."
It will appear from the rules prescribed for the Vedic Brahmacharis that they also were enjoined to lie on the ground. In Khadira Grihya Sutra we find.
"Adhah sambesi "
i.e. "He should lie on the ground." The commentator Rudraskanda has mentioned that this rule prohibits the use of cots etc. In the commentary of Apararka of Yajnyabalkya Samhita the following rule from Yama is quoted:
"Khattvasanancha sayanam barjjayed dantadhabanam. Swapedekah kuses weva."
i.e. "Discard sitting or lying on cots, refrain from cleansing teeth, and sleep alone on the Kusa grass."
In Vasistha Dharmasastra we find :
"Khattasana dantapraksalanabarjji."
i.e. "One should refrain from lying on cots and washing the teeth." In Paribrājaka Dharma (10. 8) there is a rule that one should be "Sthandila sayi" i.e., a sleeper on the ground."
The rule that the Jaina ascetics should remain in the same. place during the rainy season was also followed by the Hindu and Buddhist saints. In Gautama Dharmasutra it is enjoined that a Bhiksu should remain in the same place during the rains. "Dhruvasile Barsasu" (3. 12).
The Buddhists also followed this practice. In Mahābagga we find that when Buddha was in Rajagriha he was informed that the Sakyaputra Sramanas wandered during the rainy season causing damage to young grass and destroying small creatures. Buddha then ordered that his desciples also should remain in the same place during the rainy season.
The Vedic Bhiksus did not reside in houses. (Apastamba 2. 9. 21. 10). The Sakyaputra Sramanas following the Buddhistic religion at first resided in forests, under the trees, in open fields or in caves. In Chullabagga we find that according to the
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request of a Sresthi in Rajagriha, Buddha permitted the Bhiksus to reside in Vibāras or Asramas. We find Jain saints also residing in open air.
Apart from these external practices, we see a similarity in the principles which are essential in Binduism, Jainism, and Buddbism.
A Jain Yati has to practise twenty-eight Mulagunas, which are five Mabābratas, five Samitis, five kinds of control of senses, six Avasyakas, uprooting of hair, non-bathing, nudity, not cleansing the teeth, lying on the ground, taking food in the standing posture and only in the hollow of the hands, and eating only once during the day. We have already shown that in the Hindu and Bauddha systems there are outward practices similar to those in Jainism regarding nudity, non-bathing, not cleansing the teeth, and lying on the ground. Regarding uprooting the hair the Jain ascetics uproot the hair of the head, beard, and moustache every two months, or every three months, or every four months. Fasting and Pratikramana should be practised on that day. In Mulāchāra this is thus enjoined:
"Viya tiya chaukka māse loche ukkassa majjhina jainno.
Sapadikkamane divase uvayaseneva kayavve.”' In Gautama Dharmasutra we find :
“Mundah sikbi vā." j.e. A Bhiksu should shave his head, or keep only a tuft of hair. Haradatta in his commentary on this Sutra writes :
"Sarvāneva kesan saha sikhaya vāpāyed. Sikhabarjjam vāpayed vā....... Ata Sruti smriti :
" Agneriva sikhā nānyā yasya jnānamayi sikhā.
Sa sikhitityuchyate vid wānnetare kesadlıārinah.” i.e. Shave off all hair including the tuft or excluding it........ So it has been mentioned in the Srutis and Smrities :
He is the really tufted person who has the tuft of knowledge like a flame of fire. Others are merely holders of hair.
The Buddhist monks also shaved their heads.
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The five Mahabratas of the Jains are: 1. Abimsā, not to cause any injury to any living being by thought, špeech or conduot; 2. Satya, truth in thought, speech or action. 3. Asteya, to take nothing unless and except it be given. 4. Brabmacharya, chastity and 5. Parigrahatyāga, renunciation of worldly concerns. In Tattwārthādhigamsutra these are thus enumerated :
“ Himsānritasteyabrabmaparigrahevyo biratirvratam." In Baudhāyana Dharmasutra all these five have been mentioned as Vratas. Viz.
"Athemāni Vratāni bhavanti Ahimsā Satyam Astainyam Maithunasya cha barjjanam Tyāga ityeva.” 2, 10, 41.
In Patanjala Yogasutra the Angas of Yoga are described in Chapter II. Among these Yogāngas are the five Yamas. These are nothing but the same Mahāvratas of the Jainas. The two Yogasutras are :
“Yamaniya masanaprānāyāmıpratyābāradhāranādhyāsana
mādhayostwavangāni." “Ete jatidesakalasamayanavachchinnah sarvvabhaumah Mahavratam."
Yogasutra. II—30. 31. In the rules for the Vedio Brahmacharis, also, these are men. tioned in different places. In Apastamba 1, 1, 2, 26 we find " He shall preserve chastity." In Gautama III, 12 we find." "He must be chasto." In Gautama III, 11 we find: “An ascetic shall not possess any store." The Buddhists have Panchasila or Pancha. siksāpada which are the same as the five vratas of the Jainas. These are: 1. One should refrain from Prādāti pāta. 2. One should refrain from Adattādān. 3. One should refrain from Abrahmacharya. 4. One should refrain from Mrisābāda 5. One should refrain from drinking wine. Next come the five Samitis of the Jainas. These are :
1. Iryā, or A Yati should walk carefully during the day-time, avoiding trampling of insects etc., and only with some specified object.
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"Plāsuyamāggena divā jugāntarappehinā sakājjena. Jantunā pariharanteniriyāsamidi have gamanam."
MULACHARA. 2. Bhāsā. A Yati should refrain from finding fault with, or ridiculing others. He should not praise his own acts, and should not engage in harsh talk or undesirable gossip.
“Pesunnahāsa kakkasa paranindā ppappa samsa bikahadi. Vajjittā sa parahiyam bhāsāsamidi have kabanam.".
MULACHĀRA. 3. Esanā. A Yati should eat pure food free from forty-six kinds of faults. He should eat only to appease hunger, being indifferent whether the food be hot or cold.
“Chhadaladosasuddham karanajuttam visuddhanavakodi. Sidadisamabhutte parisuddha esanāsamidi."
MULACHARA. 4. Adānaniksepa. This consists of careful handling of materials such as books, brush of peacock-feathers, water-pot etc.
* Nanubahi samjamuvahim sauchuvabim annamappa
muvabm vā. Payadam gahanikseve samidi adānapiksepa.”
MULACLARA. 5. Pratisthāpanika. This is easing oneself in a placo solitary and hidden from the eyes of men, and which is not prohibited from being used for such a purpose, which is at a distance from villages and residences of people, and where there are no holes (where insects etc. may live.)
“Egante achchitte dure gudhe visalamabirohe. Uchcharadichohao padithavaniya bave samidi."
MULACHARA. In the rules for Vedic ascetics we also find the same enjoined. In Gautama III. 17 and 18 we find “ Abandoning all desire for sweet food.” “He shall restrain his speech, his eyes and his actions." "In Baudhāyana 2, 3,20 we find “Let him not make empty, ill-sounding, or harsh speeches."
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[ Vol. I In Āpastamba Dharma-sutra it is enjoined Let him not be addicted to gossipping." "Let him be discreet." 1, 1, 3, 13, 14.
"Let him avoid to praise himself before his teacher, saying "I have properly bathed or the like” (Ibid. 1, 11, 32, 10.) “He sball...... observe silence, uttering speech on the occasion of the daily recitation of the Veda only.” (Ibid. 2, 9, 21, 21.) Gautama prescribes that it is'prohibited “ to make bitter speeches." II. 19. “A Brahmin shall always abstain from spirituous liquor's II, 20." He shall keep his tongue, his arms, and his stomach in subjection" II, 22. "He shall avoid to contend with words." “He shall keep his organ, his stomach, his hand, his feet, his tongue, and his eyes under due restraint” IX. 50.
Vasistha lays down: “To avoid backbiting, jealousy, pride, self-consciousness, un-belief, dishonesty, self-praise, blaming others, deceit, covetousness, delusion, anger, and envy is considered to be the duty of men of all orders." X, 30. “Let him not make empty, ill-sounding, or harsh speeches." II, 3, 6, 20.
Very detailed rules are given in the Dharmasutras for attending calls of nature. Some of these are given below :
“ He shall eat facing the east, void fæces facing the south, discharge urine facing the north."
“He shall void excrements far from his house, having gone towards the south or southwest." Apastamba. 1, 11, 31, 1, 2.
“Let him not ease nature without first covering the ground with grass or tbe like.
Nor close to his dwelling. Nor on ashes, on cowdung, in a ploughed field, in the shade of a tree, on a road in beautiful spots.
Let him eject both urine and fæces facing the north in the daytime.” Gautama, IX. 38-41.
"A man who knows the sacred law shall perform in secret all acts connected with eating, the natural evacuations,...... And a man shall void both urine and fæces facing the north in the daytime.rs Vasistha VI. 9-10.
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The rule about control of the sense-organs as laid down for the Jaina ascetics is this:
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Chaksu sodam ghanam jibbhā phasam cha indiya pancha. Sagasagavisayachinto nirohiyabba saya munina."
i.e
A sage should not see dancing, hear sounds of musical instruments, enjoy scents of sandal, etc., eat food palatable like the same used by householders, or touch articles giving a sense of pleasure.
In the Vedic rules for Brahmacharis, the same control of the senses has been ordained.
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"Nor pungent condiments salt, honey, or meat.' "He shall not use perfumes."
is
He shall not embellish himself (by using ointments and the like)" Apastamba 1, 1, 2, 23, 25, 27.
"Let him restrain his organs from seeking illicit objects." lbid 1, 1, 3, 18.
In Gautama we find : "He shall avoid honey, meat, perfumes, garlands, sleep in the daytime, ointments, collyrium, a carriage, shoes, a parasol, love, anger, covetousness, perplexity, garrulity, playing musical instruments, bathing, cleaning the teeth, elation, dancing, singing, calumny, and terror. II. 13. He shall avoid to show himself covered with perfumed ointments or wearing garlands" IX 32.
"There is no salvation for him, who is addicted to the pursuit of the science of words, nor for him who rejoices in captivating men, nor for him who is fond of good eating and fine clothing, nor for him who loves a pleasant dwelling." Vasistha. X. 20.
"Let him avoid dancing, singing, playing musical instruments, the use of perfumes, garlands, shoes, or a parasol, applying collyrium (to his eyes) and anointing the body."
(Baudhayana. 1, 2, 3, 24)
In Buddhism, also, Astasilas or eight Silas are prescribed and the seventh and eighth Silas prescribe that the Bhiksus should refrain from dancing, music, playing upon musical instruments and they should not use garlands, ointment, and ornaments.
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[Vol. I Seeing these similarities in the rules for ascetics, western scholars like Prof. Max Muller in Hibbert Lectures, Prof. Buhler in his translation of the Baudhāyana Sutra, Prof. Kern in his History of Buddhism in India, and Prof. Jacobi in his Introduction to the translation of the Jaina Sutras (Sacred Books of the East Vol. XII Part I) have come to the conclusion that the originals of the monastic orders of the Jainas and Buddhists are to be found in the Hindu ascetic. "The Brahmanic ascetic was the model from which they borrowed many important practices and institutions of ascetio life." (Jacobi.)
It may, however, be remembered that the rules for renunciation of the wordly objects and practising penances are similar every. where in the world. The penances of ascetics in India find their counterpart in the suffering of Christian saints. With the advance in successive stages of asceticism hermits of every sect and every country take up almost similar practices with a slight difference according to the climatic conditions. In a warm country like India it is essential that the hermits should make themselves used to the biting of mosquitoes and flies and we find instructions regarding the same in Hindu and Jaina canons. Baudhāyana prescribes :
“Na druhyed dansamasakān himavān ta paso bhabet."
ie. A hermit should not be averse to bites from flies and mosquitoes. In Jainism it is one of the Parisahas to endure the biting of flies and mosquitoes. Even Christian saints like Macarius of Alexandria, St. Marc of Athens, and Saint Mary of Egypt moved about without any clothing to protect their bodies against the inclemencies of weather.
As a result of these outward practices the internai change is the same in hermits of all classes. There is the thought of Maitri, Pramoda, Kārunya, Mādhyastba (“Maitri-pramoda-käruny-mādbyasthyāni cha sattwagunadhikaklisyamanabinayesu” Tattwarthasutra VII 11) in their minds. (Maitri-karuna-muditapeksanam sukhadubkha punyapunyavisayanam bhabantah chittaprasadanam" (Yoga sutra of Patanjali I, 33) The Asravas are checked by Sambara according to Jainism, which Sambara is described thus in Buddhism:
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(6 Kayena samvare sadhu sadhu vachaya samvare.
Manasă samvare sadhu savvattheo samvare.
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(Dhammapada. Bhiksubaggo 2.
We should therefore remember that though the goal is the same, the paths and means of locomotion are different according to the inclination of different persons. As Ramakrishna Paramahansa has said, "Though men appear alike on the outside, they are entirely different in their internal likings and capacities. So, what is good for one is injurious to another." Religious teachers in India always recognized this, and prescribed rules to suit individual tendencies. This is opposed to the congregational activities of the West and the idea of the Church. In India it is the Guru who judges what is suitable for the religious aspirant, and individual struggle is necessary for one's spiritual uplift. The rules to help one advancing in the religious path are in substance the same, though in practice these may have become different. It is useless to quarrel for these differences, for every rule and custom was introduced for a particular purpose, and men are free to choose what is suitable for them according to their belief. In the words of Ramakrishna "He alone is really great who can realize the truth in the different doctrines."
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JAIN ART IN SOUTH INDIA (By Prof. Shripad Rama Sharma, M.A.) [Continued from page 62.]
Yet Ellora forms one of a group; there are others, more ancient, further South. "When Buddhism was tottering to a fall," observes Burgess, "the Jainas timidly at first in Dharwar and the Dekkhan, and boldly afterwards at Elura, asserted themselves as co-heirs to the Buddhists, with the Brahmins."1 The caves at Ellora, being thus of later date, are supposed to represent a decadent age in Jaina sculpture. The rock-cut style was only a passing episode in their architectural history and was dropped by the Jainas when it was no longer wanted. It has had no permanent effect upon their own peculiar style. Notwithstanding this, however, the architects who excavated the two Sabhas at Elūra," says Burgess," deserve a prominent place among those, who, regardless of all utilitarian,considerations, sought to convert the living rock into quasi-eternal temples in honour of their gods." There are similar excavations in the Deccan at Badami, Aihole, Dharasinva, Ankai, Patany, Nasik and Junagad, as well as in the far South of Kulumulu or Kalugumalai in the Tinnavelly District. The caves at Dharasinva (37 miles n. of Solapur) are, perhaps the largest of these. The halls here are of considerable size, being 80 ft. deep and 79-85 ft across, with eight cells in each of the side walls and six in the back, besides the shrine. In one is an image of Parsvanatha with a seven-hooded serpent above him, seated on a throne, in jnana-mudra. Hanging from the east is a carved representation of rich drapery. In front of it was a wheel set edge-wise, with antelopes at each side. Then there are sardulas, and other nondescript monsters as well. That at Aihole is two-storeyed with a number of halls attached as at Ellora. From their appearance, as well as the presence of the peculiarly Southern Gummata (as at Badami) Fergusson concludes that the excavators must have
1. Burgess, op. cit., p. 510.
2. Ibid., pp. 511-12; cf. his Report on the Cave Temples in Western India, p. 44, f.
3. Ibid., pp. 503-04; Fergusson, op. cit., pp. 18-19.
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brought the Dravidian style with them into the Deccan. He says, the Ellora group (i.e. the Deccan) exhibits an extraordinary affinity with the southern style. They must have all been excavated by the Chālukyas and the Rāshtrakutas (7th to the 8th cent. A. D.) whose kingdoms extended from the Tungabhadra and Krishna in the South to Ellora and Mālkhed in the North?. The Bādāmi oave contains names of Digambará Sadhus, and the figures are marked by the sacred thread seen also in the statue of Indra at Ellora ; on either side of the statue of Malāvira are chauri. bearers, sarduias, makaras etc.2. The caves of Nasik have cells and halls for the monks, and those at Yeola in the same district have small but richly-carved door-ways. Among the smaller caves of interest might be mentioned those of Ankai, in the Khandesh district. They are seven in all, and belong to about the 1lth or 12th cent. A. D. They are rich in sculpture; a notable sample of wbich are the female dancing figures on petals bearing musical instruments. That of Kalugumalai, in the Tinnevelly district, is a rock-cut temple which deserves mention also not for its size but for its elegance of details. The temple now used by the Saivas is described as “a gem of its class.". It too belongs to about the same period as the caves of Ankais. These excavations are not copies of structural buildings, but are "rock-cut examples, which had grown up into a style of their own distinct from that of structural edifices "8.
Jaina art is to an overwhelming degree religious, and hence we find in it a certain lack of the purely aesthetic element conducive to its own growth. Even religion is emotional, and in the conventional Jaina art the ethical object predominates. The dominance of this ideal is indicated by sculptures representing scenes from the lives of their saints, rather than heroes in any
1. Burgess, pp. 20-22. 2. Ibid., A. S. of W. I., Belgaum and Kaladgi Dists. 1874,
pp. 25-26 ; Cave Temples, p. 491. Burgess and Cousens, Revised Lists of Antiquarian Remains in
the Bombay Presidency, VIII, pp. 46-49, 52. Fergusson, op. cit., pp. 18-19; Burgess, Cave Temples, pp. 505-37.
22 ; Burgess, op. cit., p. 159.
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other walk of life. For instance, in the Chandragupta Basti at Sravana Bego!a, the fagade is made of a perforated stone screen containing as many as ninety sculptured scenes of events in the lives of Bhadrabāhu and Chandragupta. It also finds illustration in the pictorial art of painting. On the walls of the Jaina Matha at Beļgola are several examples of how the chief tenets of their religion were sought to be inculcated by means of this art. In one of the panels (North) Parsvanātha is represented in his samavasarana or heavenly pavilion where the Revalin or Jina preaches eternal wisdom to the śrāvaka. A tree with six persons on it illustrates the six lesyas of Jaina philosophy by which the soul gets merit and demerit. Neminātha is also similarly represented in the act of expounding religious doctrine. The only secular scene that finds a place there is that of Krishnarāja Odeya III during his Dasarā-darbār (on the right panel of the middle cell)?. But even such paintings are very rare in South India. There is nothing in what has survived of Jaina art in South India comparable with the immaculate Buddhist frescoes of Ajanta. A few traces of old paintings are still to be seen on the ceilings of the Ellora caves. There are also some at Cānchipuram and Tirumalai in the South 3. Dubreuil has drawn attention to others at Sittanavasa] in Pudukottai State, near Tanjore, assigned to about the 7th cent. A D.4. These paintings are in a Jaina rock.cut temple, akin in their style to Ajanta. but less forceful and impres sive.5 More interesting, perhaps, are those of Tirumalai (N. Arcot). Smith says, the Jaina holy place at Tirumalai'is "remarkable as possessing the remains of a set of wall and ceiling paintings ascribed, on the evidence of inscriptions, to the 11th cent. A. D. (E.I. ix,229;”.6 Traces exist of still older paintings covered up by the existing works. But with the exception of one they are 1. Rice, Mysore and Coorg from the Inscriptions, p. 5; cf. Smith,
op. cit. ; pp. 270. . Cf. Ep. Car. II Introd., pp. 80-81. 3. Coomaraswamy, op. cit., pp. 118-18 ; Ibid. III. PI. LXXX. 256. 4. Dubreuil. Pallava Painting, d. 3: Coomaraswamy, op. cit., p. 89. 5. Cf. Ajit Ghose, A Comparative Survey of Indian Painting, I.H.Q,
II 2, p. 303. 6. Smith, op. cit., p. 344.
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said to be purely .conventional and of little artistic importance. That exception is a representation of twelve Jaina nuns who are white-robed. But they are not to be supposed that they are Svetāmbara; for we have seen that such an order of Digambara sisterhood still exists in the Arcot district, of whose antiquity, : therefore, this is a valuable confirmation. 1
Apart from this mural painting, there was another kind of Jaina art which was particularly prevalent in Guzerat, viz, the art of illustrating with beautiful pictures manuscripts of not less artistic interest than they were of religious importance. Dr. Coomaraswamy has observed that Mediaeval Inlian art has nothing finer to show than these Jaina paintings; only the early Rajput pictures of rāgās and rāginis are of equal aesthetic rank. ' A short allusion to these therefore would not be a digression, especially as the subjeots.' . dealt with are persons of vital interent to our history.
"The tradition of Jaina painting”, says Coomaraswamy, "is recovered in manuscripts of the thirteenth and subsequent centu. ries. The text most frequently illustrated is the Kalpa sūtra of Bhadrabāhu, containing the lives of the Jainas, most of the space being devoted to Mabāvira. There are also illustrated cosmologies and cosmological diagrams, and appended to the Kalpa Sūtra there is usually to be found the edifying tale of Kālikācharya......... The pictures take the form of square panels of the full height of the page, occupying spaces left for the purpose; only in very rare cases is the wbole page used. The proper subject to be represented is often indicated by a marginal legend, sometimes by a diagramatic marginal sketch, former doubtless due to the scribe, but the latter to the artist taking note of his instructions. The same subjects are repeated in the various manuscripts almost without variation. It is quite evident that both in composition and style the pictures belong to an ancient and faithfully preserved tradition" 3.
There is a similarly illustrated manuscript of Bhaktāmara Stotra, in the Ailak Panālal Digambara Jaina Saraswati Bhavana
1. Of. Thurston, Castes and Tribes of Southern India, II, pp. 432-33. 2. Coomarswamy, Introduction to Indian Art, p. 117. 3, Ibid., pp. 214-15.
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(Bombay), which, however, being on paper unlike the palm-leaf described by Coomaraswamy, has full-page coloured paintings of unique artistic value. It is a pity that it is so damaged and worn out that at the slightest touch the paper crumbles to dust. Not the least interesting figure in.it (out of nearly forty) is that of a four-headed Digambara Brahma, standing on a lotus-stool with the Bull of Adinātha below. There is a triple umbrella over his heads, the whole profile being surrounded with a halo of light. On the right is a naked sādhu, standing on a wooden seat; and on the left a crowned royal figure. On the inner surface of the back over: leaf are carelessly scribbled the words: 'saa 9588 að flaturate na rad Name AreaST BIZTIEITTH Antzat ferafe. l' (Sam. 1751, Phalgun 13). But the contrast of this with the artistic script of the text as well as the present condition of the manuscript makes it appear to be much older. Other manuscripts on palm-leaves like Pampā Bhārata in Kanarese script, are not wanting in this treasure-house of Jaina manuscripts. One more example of book-illustration, the only one I have seen of South India, is that from an old illumined manuscript of Nemichandra's Trilokasāra where the great teacher is represented as expounding the doctrines of his religion, and among the auditorium is said to be Chāmundarāya, his famous disciple, who caused the Beļgo!a colossus to be erected.
From this we must now turn to yet another form of Jaina art, namely, that of inscribing on rock or copper-plate, some of which are of not less artistic interest than they are of historical value. The Kudlur plates of Mārasimha Ganga, for example, are both literature, art, and history rolled in one. Particularly noteworthy in it is the seal which is beautifully executed. It is divided transversely into two unequal compartments, the upper enclosing about three fourths of the space, and the lower about one-fourth. The upper division has in the middlea fine elephant in relief, standing to the proper right, surmounted by a parasol with the sun and the crescent at the upper corners. Behind the elephant is a lamp-stand with what 1. For a facsimile of this illustration see, Dravyasamgraha. S.B.J.
I Introd. p. XXXIX (facing).
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looks like a chouri above it, and in front is a vase surmounted by a dagger, and another lamp-stand. The lower compartment bears in one horizantal line the legend: Sri MarasinghaDevam in Halé-kannada characters 1. The official designation of the engravers is often Viswakarma; and not infrequently we have reference to "the ornament to the forehead of titled sculptors" 2. The banners of Jaina kings are also not without interest. Those of Ganga Permadi and Hastimalla, indicate the stamp and symbol of Jainism, viz. the Pincha-dwaja (Flag of pea-cock feathers) described as "the banner of the divine Arhat" 3.
Finally, we cannot conclude this survey better than by pointing to the taste of the Jainas in always selecting the best views for their temples and caves. At Ellora they came perhaps too late, when the best sites had been already appropriated by the Buddhists and the Hindus; but speaking of the Jaina ruins at Hampi, Longhurst observes, "unlike the Hindus, the Jainas almost invariably selected a picturesque site for their temples, valuing rightly the effect of environment on architecture" 4. The hill originally occupied by them, South of the great Pampati temple, is significantly called the Hêma Kūtam or the Golden, Group 5 There is also not a more picturesque spot in the vicinity than that chosen and occupied by the Jainas at Sravana Belgola, their first colony in the South. Mudbidri, in South Kanara, their last stronghold is thus described by Walhouse in his matchless style:"No Cistercian brotherhood was wiser in choosing a dwelling-place than the Jainas. Their villages are marked by natural beauty and convenience. This one, named Mudbidri, is in a slight hollow on the verge of a wide rolling plain covered after the rains with vast expanses of tall grass between flat lined elevations which are often studded with beds of a light blue
ever
1. Mysore Archeological Report, 1921, p. 18.
2. Rice, Coorg Inscriptions, Ep. car. I, p. 7: Ep. Car. II Introd., p. 52.
3. Hultzsch, Ep. Ind. Ind. III, p. 165; Ind Ant. XVIII, p. 313,
4. Longhurst, Hampi Ruins, p. 99.
5. Ibid., pp. 25-6.
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gentian. The village is embowered in fruit and flower-trees and intersected by a labyrinth of hollow ways or lanes worn by the rains and tread of generations. Rough steps ascending to a covered entrance like a lych-gate lead up to the houses that stand back among the trees. The banks and walls built of laterite blocks black with age are shrouded with creeping plants, azure convolvuli, and a profusion of delicate ferns sprouting from every crevice, and words are wanting to describe the exquisite varieties of grass that wave everywhere on walls and roofs. Bird-of-paradise plumes, filmiest gossamer, wisps of delicate-spun glass, hardly equal in fairy Aneness the pale green plumy tufts that spring in upregarded loveliness-after the monsoon. Shade and seclusion brood over the peaceful neighbourhood, and in the midst stand the greatest of Jaina temples built nearly five centuries ago " 1.
1. Walhouse, cited by Sturrock, cp. cit.; pp. 87-8.
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Opinion.
Praktana vimarsa vichakshana, Karnataka Prachya vidya vaibhava, Rai Bahadur R. NARASIMHACHARYA, M.A., M.R.A.S.
Malleswaram, Bangalore. * Please accept my warm thanks for your kind courtesy in sending me two issues of "Sri Jaina Sidhanta Bhaskara" which I have read with great interest. The articles appearing in the journal are all of very great value and bear testimony to the scholarship and erudition of the contributors. ggfen-, afant-de-FinE, QUATT, 41-antica, among the Hindi articles and "Ancient South Indian Jainism; 'Nayakumarchariu' and Mathematics of Nemichandra among the English articles are very useful. The illustrations, which are charming, enhance
the value of the journal. The publication of unpublished jaina works · is welcome. I wish every success to the Journal and earnestly hope
that it will have a long career of usefulness.
SELECTED CONTRIBUTIONS TO ORIENTAL JOURNALS.
1. Annals of the Bhandarkara Oriental Research Institute.-Vol. XVI, pts. I-II :Some Fresh Light on the Dhārāśiva Cavo And The origin of the
Silābära Dynesty :-By Prof. Hiralal Jain, M.A., L. L. B.-It throws new light on the antiquity of Jainism and antiquity
of the Jaina Purăņas. . 2. Quarterly Journal of the Mythic Society. Vol. XXV,
No. 4, April 1935 :pp. 236—246. Two centuries of Wadeyar Rule in Mysore :--
By N. Subba Rau, M.A. pp. 261—264. Karuvūror Vanjimānagaram, By S. V. Viswanatha,
M.A.-It is established that “the original Vañji was Kahur
and Tiruvanjikkaļam was only a copy of it. p. 323. Puspadanta-purāņam of Guņavarma, edited by A Venkala
Rao and H. Sesha Yengar reviewed. Can be had from the
Madras University for Rs. 4 only. 3. Bulletin of the Sri Rama Varma Research Institute.
No.3:-Mr. Krishna Menon writing on the Dravidian Culture,
considers that the Dravidians were in India long prior to
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the Aryans with an independent civilisation of their own and that the Ramayana and the Mahabharata indicated the existences of prosperous independent kingdom in South India.
4. Indian Culture, Vol. II, No. I:
Pre-historic trade-routes and Commerce by P. Mitra.
5. Journal of the University of Bombay.-Vol. III, pt. VI. (May 1935). A.M. Ghatage points the linguistic nature of Sagraseni Prakrit and its grammatical peculiarities,
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RULES. 1. The." Jaina Antiquary” (wa-farema IEET is an Anglo-Hindi quarterly, which is issued annually in four parts, i.e., in June, September, December, and March.
2. The inland subscription is Rs. 4 (ir cludirg postage) and foreign subscription is 6 shillir g; (ir cludirg postage) per annum, payable in advance. Specimen copy will be sent on receipt of Rs. 1-4 0.
3. Only the literary and other decent advertisements will be accepted for publication. The rates of charges may be ascertained on application to
THE MANAGER, The " Jaina Antiquary”
Jain Sidhanta Bhavan, Arrah (India). to whom all remittances should be made.
'4. Any charge of address should also be intimated to him promptly.
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6. The journal deals with topics relating to Jaina history, geography, art, archæology, iconography, epigraphy, numismatics, religon, literature, philosophy, ethnology, folklore, etc., from the earliest times to the modern period.
7. Contributors are requested to send articles, notes, reviews, etc., type-written, and addressed to,
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PROF. HIRALAL JAIN, M.A., L.L.B. PROF. A. N. UPADHYE, M.A. B. KAMTA PRASAD JAIN, M.R.A.S. Pr. K. BHUJABALI SHASTRI.
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________________ आरा जैन-सिद्धान्त-भवन की प्रकाशित पुस्तकें (1) मुनिसुव्रतकाव्य (चरित्र) संस्कृत और भाषा-टीका-सहित ... .. (2) शानप्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्र भाषा-टीका-सहित ..... (3) जैन-सिद्धान्त भास्कर १म भाग की हम किरण .. ... , २य तथा ३य सम्मिलित किरणें ... ) (4) भवन के संगृहीत संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी ग्रन्थों की पुरानी सूची // ) (यह अर्द्ध मूल्य है) (5) भवन की संगृहीत अंग्रेजी पुस्तकों की नयी सूची प्राप्ति-स्थान____ जैन-सिद्धान्त-भवन, आरा ( बिहार ) / प्रकाशक तथा मुद्रक-बाबू देवेन्द्रकिशोर जैन, श्रीसरस्वती प्रिण्टिङ्ग वर्कस, आरा। .