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________________ भास्कर [भाग २ चा० सा०पृ० ६५ से ६८ तक (रा० प्रा० अ०६ सू० २३ से २६ तक) चा० सा० पृ० ७६ (रा. वा० अ० ६ सू०४४) चा० सा० पृष्ठ ७८ से ८६ तक द्वादश भावनाओं का वर्णन (रा० वाअ०६ सूत्र ७ से लिया गया है। यहाँ चारित्नसार पृष्ठ ८० का "तत्र यावंतो लोकाकाशप्रदेशाः.........' से लेकर “व्यवहारकालेषु मुख्यः" तक का पाठ रा० वा० अ०५ सूत्र २२ वा० २५-२६ से लिया है) चा० सा० पृष्ठ ६३ से १०१ तक ऋद्धियों का वर्णन* (रा. वा० अ०३ सूत्र ३६) चा० सा० पृष्ठ १०२ से १०३ तक त्याग-आकिंचन्य ब्रह्मचर्य का स्वरूप (रा० वा० अ० ६ सूत्र ६ वा० २१-२२-२८ संभव है चारित्रसार में इस तरह के और भी उद्धरण हों। जितने हमारी नजरों से गुजरे वे यहां हमने लिखे हैं। .. पाठक देखेंगे कि चारित्रसार में राजवार्तिक से कितना मसाला लिया गया है। चारित्रसार के कुल १०३ पृष्ठ हैं। जिनमें से करीब २५ पृष्ठ छोड़कर बाकी सारा प्रन्थ राजवार्तिक से चर्चित है। एक तरह से इसे राजवार्तिक का चारित्र भाग कहना चाहिये। - यहां यह कह देना भी अनुचित न होगा कि मुद्रित राजवार्तिक में अशुद्धियों को भरमार है। यही क्या अन्य अनेक जेनग्रन्थों का प्रायः यही हाल है। खासकर सैद्धांतिक ग्रन्थों की छपाई में तो पूर्ण ध्यान इस बात का अवश्य रहना चाहिये कि कहीं काई अशुद्धि न रहने पावे। किन्तु क्या कहा जाय, जैनग्रन्थ-प्रकाशकों का अजब हाल है। उनकी कार्यप्रणाली इस संबंध में बड़ी ही अव्यवस्थित है जो महान खेदजनक है। . चारित्रसार से राजवार्तिक की कई अशुद्धियाँ दूर की जा सकती हैं। चारित्रसार भो. अशुद्धियों से खाली नहीं है। इसकी अशुद्धियाँ भी राजवार्तिक से दुरुस्त हो सकती हैं। क्योंकि दोनों में अशुद्धियाँ एक स्थानीय नहीं हैं। अस्तु, कुछ लोग शायद यहाँ यह कहने का भी दुःसाहस करें कि "अकलंकदेव ने ही चारित्रसार से मसाला लेकर राजवार्तिक में रक्खा हे" ऐसा कहनेवालों को यह समझ रखना चाहिये कि अकलंकदेव चामुंडराय से लगभग दो सौ वर्ष पहिले हुये हैं। तब उन्होंने चामुंडराय की कृति में से कुछ लिया हो यह कैसे संभव हो सकता है ? इसके अलावा जिनसेन ने आदिपुराण में अकलंकदेव का स्मरण किया है। और चामंडराय ने अपने चारित्रसार पृष्ठ १५ में "तथा चोक्तं महापुराणे" कहकर आदिपुराण का एक पद्य उद्धृत किया है। इससे भी चामुंडराय अकलंकदेव के उत्तरवर्ती सिद्ध होते हैं। बल्कि चामुंड * छापे की भूल से यहां दो एक स्थान में पंक्तियां उलट पलट हो गयी हैं, जिससे वर्णन का सिल-सिला टूट गया है। खेद है कि इस भूल को सूचना ग्रन्थ भर में कहीं नहीं दी है। ऐसी ही गड़बड़ पृष्ठ ३३ में भी हुई है।
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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