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किरण ३)
चामुण्डराय का चारित्रसार
उठा कर चारित्रसार में ज्यों का त्यों या कुछ मामूली हेरफेर के साथ धर दिया गया है। चारित्नसार का करीब तीन तिहाई हिस्सा राजवार्तिक की रचना से ही भरा हुआ है। नीचे हम दोनों के वे स्थान बताते हैं जहाँ एक समान गद्य पाया जाता है
चारित्रसार पृष्ठ २ पंक्ति चौथी (राजवार्तिक अध्याय ६ सूत्र २ वार्तिक ३) चारित्रसार पृष्ठ २-३ में सम्यक्त्व का अष्टांगस्वरूप (राजवार्तिक अध्याय ६ सूत्र २४ वार्तिक १) चार सा० पृ०४ सम्यक्त्व के अतीचार (रा० वा० अ०७ सू० २३) चा० सा० पृ० ४ शल्यविवेचन (रा. वा० अ० ७ सू० १८) चा० सा० पृ० ५ पंचाणुव्रत के लक्षण (रा. वा० अ०७ सूत्र २०) चा० सा० पृ० ५ से ७ तक अणुव्रतों के अतीवार (रा० वा० अ० ७ में देखो इस विषय के सूत्र) चा० सा० पृ० ८ से १५ तक शीलसप्तक के सिर्फ लक्षण और अतीचार (रा० वा० अ०७ में देखो इस विषय के सूत्र) चा० सा० पृष्ठ २२-२३ सल्लेखना का लक्षण
और अतीचार (रा. वा० अ० ७ सू० २२-३७) चा० सा पृ० २४ से २६ तक सोलह कारण भावनायें (रा० वा० अ०६ सूत्र २४) चा० सा० पृष्ठ २७ से ३० तक दशधर्मों का विवेचन (रा० वा० अ० ६ सू० ६ में बिल्कुल यही है)। फर्क इतना सा है कि यहाँ पहिले अलग अलग धर्म का स्वरूप बताकर वार्तिक २८ में दसों ही का विशेष कथन किया है।
और चारित्रसार में इस विशेष कथन को प्रत्येक धर्म के वर्णन के साथ ले लिया है तथा यहीं पर चारित्रसार में सत्य के १० भेदों का जो वर्णन है वह (राजवार्तिक अ० १ सूत्र २०, वा० १२ वें पर से लिया गया है) चा० सा. पृ० ३० समितियों का कथन (रा० वा. अ० ६ सू० ५) चा० सा० पृ. ३२ से ३७ तक अष्ट शुद्धियों का वर्णन (रा. वा० अ०६ सू०६ वा० १६) चा० सा० पृ० ३७ ३८ चारित्रकथन (रा० वा० अ० ६ सू० १८) चा० सा. पृ०३६ वाक् मन का कथन (रा. वा.. अ०५ सू. १६ वा० १५ तथा २०) चा० सा० पृ० ३६ संरंभ-समारंभ-आरंभ-कृत-कारितानुमत के लक्षण (रा. वा० अ० ६ सू० ८) चा० सा०पू० ४० से ४३ तक पंच पापों के लक्षण और उनकी भावनायें (रा० वा० अ० ७ में इस विषय के सूत्र देखो। इसी अध्याय के स्वं सूत्र में जो पंच पापों का विशेष कथन है उसे ही चारित्रसार में प्रत्येक पाप के वर्णन में छाँट लिया है) चा० सा• पृ० ४४ (रा० वा० अ०७ सूत्र १० की व्याख्या) चा० सा0 पृष्ठ ४५ से ४७ तक का कथन (रा. वा० अ० ६ सू० ४६-४७) चा० सा० पृ०४८ से ५७ तक बाईस परीषहों का वर्णन (रा. वा० अ० ६ सूत्र ८ से १७ तक) चा० स० पृ० ५६ से ६३ तक तपोवर्णन (रा. वा० अ० ६ सूत्र १६-२०-२२, किस दोष में कैसा प्रायश्चित्त लेना यह रा. वा अ० ६ सूत्र २२ वा० १० में समूचा बता दिया है । इसे ही चारित्रसार में हरण के प्रायश्चित्त के वर्णन में उद्धृत कर लिया है) चा. सा० पृ० ६४ को अन्तिम कुछ पंक्तियां (रा० वा० अ० ६ सू० २२ वा १० का अन्तिम अंश)