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________________ चामुंडराय का चारित्रसार (ले०-श्रीयुत पं० मिलापचन्द्र कटारिया) दिगंबर जैनसमाज में "चारित्नसार" नामक ग्रन्थ के रचयिता चामुण्डराय समझे जाते हैं। प्रन्थ के परिसमाप्तिसूचक गद्य से भी यही ध्वनित होता है। किन्तु प्रन्थ की हालत को देखते हुए चामुंडराय को उसका निर्माता नहीं कह सकते। अधिक से अधिक हम उन्हें संग्रहकर्ता कह सकते हैं । निर्माता और संग्रहकर्ता में भेद है। निर्माता वह होता है जो ग्रन्थ की शाब्दिकरचना का अपनी बुद्धि से प्रणयन करता है। किन्तु संग्रहकर्ता में यह बात नहीं है। वह दूसरों के रचित वाक्यों का संचित कर उसका काई नया नाम धर देता है। 'चारित्रसार' को भी प्रायः यही हालत है। यद्यपि धर्मशास्त्र नये नहीं बना करते। परंपरा से जो वाङ्मय चला आता है उसी के अनुसार कथन उनमें रहता है। और प्रामाणिक भी वे तभी माने जाते हैं। लेकिन यह बात उनके अर्थ के संबंध में है। शब्द से तो वे भी नये बनते हैं। प्राचीन गूढ अर्थ का स्पष्ट करना और अपने शब्दों में कहना यही नवीन धर्मशास्त्रकारों का काम होता है। इस प्रकार की नवीन कृतियों में कहीं कहीं प्राचीन आगमों के वाक्य भी बिना उक्त च लिखे ज्यों के त्यों उद्धृत कर लिये जाते हैं। जैसा कि सर्वार्थसिद्धि के वाक्य राजवार्तिक में और राजवार्तिक के वाक्य श्लोकवार्तिक में पाये जाते हैं। किन्तु इनके कर्ताओं ने जितना कुछ दूसरों से लिया है उससे कई गुणा अपनी बुद्धि से बनाकर रक्खा है। इसलिये ऐतों को तो ग्रन्थकर्ता ही कहने चाहिये। पर जो ग्रन्थ का बहुभाग या समग्र ही कलेवर दूसरों के रचे वाक्यों से भरते हैं और अपनी बुद्धि कुछ भी खर्च नहीं करते, या करते भी हैं तो इतनी सी जैसे ऊंट के मुंह में जीरा, वे उस ग्रन्थ के निर्माता नहीं कहला सकते। अपना आटा हो और दूसरे का नमक तो वह रोटी अपनी कही जायगी। पर दूसरे का आटा हो और अपना केवल नमक, तो वह रोटी दूसरे ही की कही जायगी। चारित्नसार के संबंध में भी यही बात घटित होती है। चामुंडराय की निज की रचना या तो उसमें कुछ भी नहीं है और हो भी तो नमक के बराबर-बाकी आटा सब दूसरों ही का उधार लिया हुआ है। यह बात चारित्रसार और तत्वार्थराजवार्तिक को तुलनात्मक ढंग से अध्ययन करनेवाले को स्पष्टतः दृग्गोचर हो सकती है। राजवार्तिक में से अनेक जगह का चारित्र-विषयक गद्य-भाग उठा
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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