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किरण ३]
चामुण्डराय का चारित्रसार
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राय ने ही खुद चारित्रसार के अन्त में एक पद्य देकर इस विषय को खूब स्पष्ट कर दिया है। चामुंडराय लिखते हैं कि “तत्वार्थराजवार्तिक, राद्धांतसूत्र, महापुराण और आचारप्रन्थों में जो विस्तार से कथन है उसी को संक्षेप में इस चारित्रसार में मैंने कहा है।" वह पद्य यह है--
तत्वार्थराद्धांतमहापुराणेष्वाचारशास्त्रेषु च विस्तरोक्तम् ।
पाख्यात्समासादनुयोगवेदी चारित्रसारं रणरंगसिंहः॥ इस पद्य में प्रयुक्त "तत्त्वार्थ" शब्द का अर्थ "तत्वार्थराजवार्तिक" करना चाहिये। तत्वार्थ के साथ राद्धांत नहीं लगाना चाहिये। राद्धांत नामका अलग ग्रन्थ है। उसका उक्तं च चास्निसार पृष्ठ ७१ में "आदाहीणं पदाहीणं......" आदि प्राकृत गद्य दिया है। आचा. रशास्त्र यहाँ मूलाचारादि समझना चाहिये । चारित्रसार में मूलाचार की भी गाथायें उक्तं च रूपसे पाई जाती हैं।
इससे यह साफ सिद्ध हो जाता है कि चामुंडराय न केवल अकलंकदेव के बाद के ही किन्तु महापुराणकार जिनसेन और गुणभद्र के भी बाद के हैं। यही समय नेमिचंद्राचार्य का है। क्योंकि चामुंडराय और नेमिचन्द्र की समकालीनता निर्विवाद है। अतः इतिहासज्ञों ने जो दूसरे प्रमाणों से उनका समय ११वीं शताब्दी प्रकट किया है वह बिल्कुल ठीक जान पड़ता है। और अब तो उसमें काई संदेह ही नहीं है।
इस लेख में जिस चारित्रसार के पृष्ठों का उल्लेख किया है वह 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला'द्वारा प्रकाशित समझना चाहिये। __ सं० नोट-कटारिया जी का यह लेख विचारणीय है। इस “चारित्रसार" के संग्रह ग्रंथ सिद्ध होने पर भी मैं समझता हूं कि पाठकों की दृष्टि में विद्वद्वरेण्य चामुण्डराय जी का पाण्डित्य खटक नहीं सकता। क्योंकि इनके द्वारा रचित आजतक के उपलब्ध कन्नडगद्य ग्रंथों में सर्वप्रथम "आदिपुराण'' ही इनकी विद्वत्ता का ज्वलन्त दृष्टान्त है। इसके अतिरिक्त यह भी निर्विवाद सिद्धान्त है एवं विज्ञ कटारिया जी भी सर्वथा सहमत होंगे कि हमारे यह चामुण्डराय जी संस्कृत के भी अच्छे ज्ञाता थे। इस चारिखसार में जिस प्रकार इन्होंने राजवार्तिकादि ग्रंथों से प्रचुर सहायता लेकर उसका उल्लेख नहीं किया है उसी प्रकार अपने कन्नड आदिपुराण में भी बीच बीच में प्रस्तुत विषय को प्रमाणित करने के लिये चामुण्डराय ने भिन्न भिन्न ग्रंथों के कई संस्कृत प्राकृत पद्यों को उद्धृत किया है। पर वहाँ भी उनका उल्लेख नहीं करने से कुछ विद्वानों ने उन पद्यों को इन्हीं की रचना समझ रक्खा था। इसी भ्रम को दूर करने के लिये मैंने "विवेकाभ्युदय" (मैमैसूर) के एक लेख में सप्रमाण सिद्ध कर दिया है कि ये पद्य अमुक अमुक ग्रंथ के हैं ।
के० बी० शास्त्री