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________________ प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार की समीक्षा ( ले ० -- पंडित वंशीधर व्याकरणाचार्य, न्यामतीर्थ, साहित्य-शास्त्री ) > ( क्रमागत) पाठक देखेंगे कि इसमें उपनय, निगमन का कितना भोवपूर्ण समावेश कर के उनकी अनुमानाङ्गता का निराकरण किया गया है। यहां पर इनका उद्देश हो जाने के कारण इनके लक्षण सूत्रों की भी संगति हो जाती है। सूत्र नं० ३७ में "नोदाहरणम्” के स्थान में "नोदाहरणादिकम्" ऐसा पाठ नहीं रखने का भी गंभीर आशय है । एक तो इस सूत्र के पहिले किसी भी सूत्र में उपनय, निगमन का कथन नहीं है । इसलिये आदि शब्द से उनका अनुसंधान ही नहीं हो सकता है। दूसरी बात यह है कि यहां पर आदि शब्द का पाठ करने से उसके आगे के सूत्र नं० ३८ में " तत्" पद से "उदाहरणादिकम् " इसका अनुसंधान होता, जो कि अनिष्ट था कारण कि उपनय और निगमन का प्रयोजन साध्यप्रतिपत्ति नहीं, किन्तु उदाहरण के प्रयोग से पक्ष में साध्य और साधन के सद्भाव के विषय में उत्पन्न हुए संदेह को दूर करना है। ऐसी हालत में सूत्र नं० ३८ में " तत्” पद के स्थान में "उदाहरणम्” ऐसा पाठ करना पड़ता तथा आगे सूत्रों में किसी प्रकार का परिवर्तन हो नहीं सकता था जिससे सूत्रों में गौरव होता, इसलिये सूत्र नं० ३७ में 'उदाहरणम्' ऐसा पाठ ही परीक्षामुख में किया गया है। वास्तव में सूत्रों में इसी तरह की लघुता, संबद्धता आदि का ध्यान रखना ग्रन्थकर्त्ता का परम कर्त्तव्य होता है । पाठक देखेंगे कि इनका ध्यान प्रामाणनयतत्त्वालोकालंकार में कहां तक रखा गया है। यों तो इस ग्रन्थ में निरर्थक पदों का बहुत स्थानों पर प्रयोग किया गया है, लेकिन कहीं कहीं पर तो पदों की निरर्थकता का स्पष्ट अनुभव होता हैं । साध्येनाविरुद्धानां व्याप्यकार्यकारणपूर्वचरोत्तरचरसहचराणामुपलब्धिः ॥६६–३॥ प्र० न० तस्वा० । इसमें विरुद्धोपलब्धि हेतु के व्याप्य, कार्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर इन छः भेदों का नाम निर्देश किया है। सूत्र नं० ७० में कारण हेतु का समर्थन किया गया है । सूत्र नं० ७१ इस प्रकार है। 1 पूर्वचरोत्तरचरयोर्न स्वभावकार्यकारणभावौ तयोः कालव्यहितावनुपलम्भात् ॥७१–३ प्र० न० तस्वा० ।
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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