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किरण १ ]
जैन - मूर्तिया
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और उनमें प्रातिहार्यादि नहीं होते हैं । भी मूर्तियां सर्व अलंकारों से भूषित अपने जातीं हैं । ये सब प्रतिमायें दो तरह की
इनके अतिरिक्त यक्षों और शासन- देवताओं की बाहन व आयुधों सहित सर्वागसुन्दर बनाई (१) स्थिर ( २ ) और चल होती हैं। स्थिर
मूर्ति वह होती है जो किसी पहाड़ आदि में उकेर कर अथवा दिवाल में लेप करके बनाई जाती है और जो एक स्थान दूसरे स्थान पर नहीं ले जायी जा सकती है । प्रतिमा इसके विपरीत चाहे कहीं ले जायी जा सकती हैं।
चल
इन प्रतिमाओं का मुख्य स्थान जिनमन्दिर में गन्धकुटी है, किन्तु इसके अतिरिक्त मानस्तम्भ, चैत्यवृत्त, तोरणद्वार, आयागपट और मुद्राओं पर भी जिनमूर्तियां बनी मिलती हैं। मानस्तम्भ जिनमंदिरों के द्वार पर बना होता है, जैसे कि तीर्थकर के समवशरण के चार द्वारों पर बने होते हैं । इनपर कितनी ही जिनमूर्तियां बनी होती हैं। चैत्यवृक्ष के निम्न भाग में जिन - प्रतिमा विराजमान होती हैं, जैसे निम्न श्लोक से स्पष्ट है :
:
"ततोवीथ्यंतरेष्वासीद्वनं कल्पमहीरुहां । नानारत्नप्रभोत्सर्पद्धतध्वांतं मनोहरं ॥ १२४॥
चतुश्चैत्यद्रुमास्तत्त्वाशोकाढ्याः स्युः प्रभास्वराः ।
अधोभागे जिनार्याढ्याः सपीठाश्त्रशोभिताः ॥२२५॥
अर्थात् -"इस बीथी के बाद दूसरी बीथी में: कल्पवृक्षों का एक विशाल बन था जो कि फैली हुई उग्र रत्नों की प्रभा से समस्त अंधकार का नाश करनेवाला और महामनोहर था। उस कल्पवृक्षों के बन के अंदर अशोक आदि चैत्यवृक्ष थे जो कि अपनी महामनोहर कांति से अत्यंत देदीप्यमान थे । उनके नीचे के भाग में भगवान जिनेन्द्र की प्रतिमायें थीं एवं वे वृक्षमय सिंहासन और छत्त्रों से युक्त होने के कारण अत्यंत शोभायमान थे । (मल्लिनाथपुराण पृष्ठ १४४) " यह उल्लेख श्रीमल्लिनाथ तीर्थकर के समवशरण में स्थित चैत्यवृक्षों का है । ऐसे ही चैत्यवृक्ष आदि अन्य तीर्थंकरों के समवशरण में भी होते हैं । इन्हीं चैत्यवृक्षों की नकल करके वृक्ष की जड़ से सिंहासन पर बैठी हुई पाषाण मूर्तियां मिलती हैं ।
१ 'प्रातिहार्य बिना शुद्धं सिद्धं विम्बमपीदृशम् ।' -- जिनयज्ञकल्प |
२ 'यत्ताणां देवतानां च सर्वालंकारभूषितं । स्ववाहनायुधोपेतं कुर्यात्सर्वाङ्गसुन्दरं ॥ -- जिनयज्ञकल्प
३ "चलपडिमाए । उवरणा भणिया थिराए य ।" - - वसुनन्दी श्रावकाचार |
४ "पडिमाणं अग्गेसुं रयणथंभा हवंति वीसपुढं ; पडिमा पीढसरिच्छा पीठा थंभाणणादव्वा ।'
- तिलायपण्यति ।
ततोऽन्तरांतरं किंचिद्गत्वा हेममयोन्नताः अधोमध्य जना गा ध्वजछता भूषिताः । चतुर्गोपुरसंबद्धशाललितजवेष्टिताः । रेजुर्मध्येषु बीथीनां मानस्तंभा मनोहराः ॥ -- महिनाथ पुराणम्
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