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________________ १४ [ भाग २ चैत्यवृक्षों के अतिरिक्त स्तूपों पर भी जिन प्रतिमायें होती हैं । स्तूप वस्तुतः यही कारण है कि उनपर मुख्यतः रामनगर आदि से जो जैनस्तूपों के श्रीमल्लिनाथ तीर्थंकर के समवशरण भास्कर महापुरुषों के समाधिस्थल पर बनाये जाते हैं । सिद्ध- प्रतिमा का बनना बताया है। वैसे मथुरा, नमूने मिले हैं उनमें महंत - प्रतिमायें बनी हुई हैं। के स्तूपों का वर्णन इस प्रकार मिलता है : "वोथीनां मध्यभागे तु नव स्तूपाः समुद्ययुः । पद्मरागमयाः सिद्धजिनबिंबांधलंकृताः ॥ १३४॥ स्तूपानामंतरेष्वेषां रत्नतोरणमालिकाः । भुरिंद्रधनुर्मय्य इवोद्योतितखांगणाः ॥ १३५॥ अर्थात् - "गलियों के मध्यभाग में नौ स्तूप थे जो कि पद्मराग मणिमय थे एवं सिद्ध भगवान की प्रतिमाओं से अलंकृत थे । स्तूपों के मालिका थीं, जिन्होंने कि अपनी कांति से समस्त अतएव वे इन्द्रधनुषमयी सरीखी जान पड़ती थीं ।" मध्यभागों में रत्नमय तोरण और आकाश को व्याप्त कर रक्खा था। - मल्लिनाथपुराण पृष्ट १४६ ) तोरण-द्वारों पर जिन-प्रतिमायें भरत महाराज ने बनवाई थीं और जम्बूद्वीप के चार तोरण-द्वारों पर अकृत्रिम जिन प्रतिमायें हैं; यह पहले लिखा जा चुका है। मथुरा से कतिपय प्राचीन आयागपट मिले हैं जो कला की अद्भुत वस्तु हैं और उनके मध्यभाग में जिनेन्द्र भगवान पल्यंकासन विराजमान हैं । वह आयागपट मंदिरों के सभामंडप अथवा श्रावकों के घरों में पूजा के लिये बने होते थे । इनकी गणना चित्रज प्रतिमां में करना ठीक है । जिस तरह कागज, वस्त्र या काँच पर बना हुआ है उसी तरह इनको भी दीवाल में लगाया जाता था। व काँच के चित्रों की प्रधानता जब बढ़ और अब यह प्रायः नहीं बनाये जाते हैं। पहले बनाये जाते थे जिनपर तीर्थों के चित्र को प्रकट करनेवाला एक शिलापट लन्दन के ब्रिटिश म्युज़ियम में है । चित्र दीवाल पर टांगा जाता मालूम होता है कि कागज गई तब इन प्रयागपटों का रिवाज उठ गया यह भी अनुमान होता है कि ऐसे भी शिलापट उकेरे हुये होते थे । सम्मेदशिखर के दृश्य जैनसंघ में पहले अपने धार्मिक विश्वास को प्रकट करने के लिए तत्सम्बन्धी चिह्नों से अङ्कित मुद्रा बनाने का रिवाज थां । यह मुद्रायें वह विपक्षी को बाद के लिये आह्वान करने के लिये चबूतरों पर रखते थे अथवा स्तूप, वेदी, मंदिर आदि की नीव में उन्हें रख देते थे 1 आजकल भी श्रावक लोग नवीन वेदी आदि के नीचे प्रचलित सिक्कों को रख अब प्राइवेट तौर पर मुद्रायें बनाने का रिवाज कानूनन बन्द कर दिया गया है । देते हैं ।
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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