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________________ किरण ४] विजयनगर साम्राज्य और जैन-धर्म समदर्शी थे इसके लिये यही एक पूर्वोक्त उदाहरण पर्यात समझा जायगा। यह समुज्ज्वल एवं लोकहितकर गुण सभी शासकों में होना परमावश्यक है। किन्तु मुझे यहां कहना पड़ता है कि साम्प्रदायिकता के रंग में सराबोर होकर कई शासक इस अनुकरणीय गुण को भूल जाते हैं यह खेद की बात है। खैर इस महत्त्वपूर्ण शासकोचित सद्गुण का विवरण इस प्रकार है: वहाँ के वैष्णवों ने जैनियों के धार्मिक अधिकार में कुछ हस्तक्षेप किया। जैनियों ने निरुपाय हो कर वैष्णवों के इस धर्मसम्बन्धी हस्तक्षेप का अनौचित्य दिखाते हुए राजा बुक्क राय के पास जा उनसे न्याय भिक्षा मांगी। राजा बुक्क ने जैनियों का हाथ वैष्णवों के हाथ में रखकर शपथपूर्वक यों फैसला किया-"धार्मिक विषयों में जैन और वैष्वण सम्प्रदाय में कोई भेद नहीं है। जैनियों को पूर्ववत् पञ्चमहावाद्य और कलश का अधिकार रक्षित रहेगा। जैनधर्म की वृद्धि और ह्रास वैष्णवों को अपनी ही वृद्धि और हानि समझनी चाहिये। श्रीवैष्णव मेरा यह उल्लिखित शासन मेरे राज्य के सभी देवालयों में स्थापित कर दें। बल्कि सूर्य-चन्द्र के अस्तित्व के साथ अर्थात् जब तक सूर्य और चन्द्रमा का अस्तित्व रहे, मेरे वैष्णव-समुदाय जैन धर्म की रक्षा करते रहेंगे। यह विवरण श्रवण बेल्गोल के नं० १३६ (३४४) वाले शक सम्बत् १२६० के शिलालेख में अङ्कित है। इस शिलालेख में यह भी उल्लेख मिलता है कि श्रवण बेल्गोल में २० वैष्णव अङ्करक्षकों की नियुक्ति के लिये प्रतिवर्ष प्रत्येक जेनी के घर से एक एक हण* संग्रहीत किया जाय और इस द्रव्य का अवशिष्ट भाग वहां के जैन-मन्दिरों के जीर्णोद्धार-कार्य में व्यय किया जाय। और इस कर-संग्रह के व्यवस्थापक तिरुमले तातय्य रहें। साथ ही साथ शिलालेख में यह भी लिखा मिलता है कि इस राज-शासन का उल्लङ्घन करनेवाले राज, संघ एवं समुदाय के द्रोही करार दिये जायें। बुक्क राय के इस पक्ष-पात-शून्य फैसले से वैष्णव होते हुए भी इनकी प्रजा-प्रियता पद-पद पर प्रदर्शित होती है। वास्तव में यह एक आदर्श शासक थे। लगभग शक सम्वत् १३३२ के श्रवणबेलगोलस्थ नं० ४२८ (३३७) के शिलालेख से सात होता है कि देव राय महाराय की रानी भीमादेवी पण्डिताचार्य की शिष्या थीं और इन्होंने मंगायि में श्रीशान्तिनाथ तीर्थङ्कर की बिम्बप्रतिष्ठा करायी थी। यह देव राय प्रायः प्रथम देव राय ही होंगे। मालूम होता है कि भीमादेवी जैनधर्मावलम्बिनी थीं। श्रवणबेल्गोल के शक सम्वत् १३४४ लेख नं० ८२ (२५३) में हरिहर (द्वितीय) के सेनापति इरुगप्प ने श्रवणबेलगोल में जो भूदान किया था उसका वर्णन मिलता है। यह इरुगप्प देव राय द्वितीय * उस समय का प्रचलित मुद्राविशेष ।
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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