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भास्कर
[भाग २
मङ्कित है। इसलिये दोनों लेखों में केवल दो वर्ष का अन्तर है । दोनों लेखों के लेखक भी लोकपार्य नामक सजन हैं। वह सन्धिविग्रहिक-मंत्री देवपालके पुत्र थे। दोनों में साहण्य भी खूब है, परन्तु विलक्षणता भी कुछ कम नहीं है।
प्रस्तुत लेख का आरम्भ 'स्वस्ति' शब्द से होता है और मंगलाचरण के बाद ४-३२ पंक्तियों में रट्टराज के वंश का परिचय है, जो खारेपाटन के लेख के समान है। उससे इसमें कोई खास विशेषता है तो वह स्वयं रट्टराज के सम्बन्ध में है। इन दो वर्षों के अन्तर में उसके धर्मपरिवर्तन के साथ साथ राज्योत्कर्ष भी हो गया था। प्रस्तुत लेख के मंगलाचरण में एक उदारभाव स्पष्ट है। इसमें किसी खास देवता का स्तवन नहीं किया गया है। इसके प्रतिकूल खारेपाटन के लेख में स्पष्टतः 'ॐ नमः शिवाय' लिखा है। इस लेख में ब्राह्मणों का उल्लेख सामान्यरूप से किया गया है-गोत्र आदि लिखने की आवश्यकता नहीं समझी गई है। यद्यपि दान ब्राह्मणों के प्रति किया गया है, परन्तु किसी धार्मिक कार्य के लिये नहीं। इन सब बातों से रट्टराज के धार्मिक श्रद्धान में पड़ा हुआ अन्तर स्पष्ट है। मालूम होता है कि उसका विश्वास जैनधर्म के प्रति हो गया था, क्योंकि लेख का प्रारंभ 'स्वस्ति' शब्द से किया गया है, जैसे कि जैन लेखों में अक्सर होता है। इतने पर भी यद्यपि रट्टराज का अनुराग जैनमत की ओर हो गया था, परन्तु वह अपनी बहुसंख्यक ब्राह्मण-धर्मानुयायी प्रजा का दिल नहीं दुखाना चाहता था। इसीलिये उसने मंगलाचरण में किसी खास देवता का स्मरण नहीं किया है ।* ___ रट्टराज के समय में दक्षिण भारत में जैनमुनियों द्वारा धर्मप्रचार खूब हो रहा था। राष्ट्रकूट वंश के राज्यकाल में जैनधर्म का सूर्य मध्याह्न में था। और सिलारवंश के राजा राष्ट्रकूटों के करद थे। जैनाचार्य श्रीसमन्तभद्र जी ने सिलारवंशी की एक दूसरी शाखा की राजधानी करहाड़ (Karhad) में पहुंच कर वहां के राजा को सम्बोधन किया था। इस आशय के दो श्लोक श्रवणबेलगोल की मल्लिषेण-प्रशस्ति में अङ्कित हैं ।। राष्ट्रकूटों में
* लेख में श्लोक के प्रारंभिक शब्द स्पष्ट प्रकट नहीं होते और वर्तमान रूप में जैसे वे पढ़े गये हैं, उनसे उनकी व्याकरण की असम्बद्धता प्रकट है। सम्भव है, कि यहां वीतरागदेव का स्पष्ट उल्लेख हुआ हो।-अनु० - इपी० इन्डिका, ३ पृष्ठ १८६ :
'पूर्व पाटलिपुत्र-मध्यनगरे भेरी मया ताड़िता, पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये काञ्चीपुरे वैदिशे।
प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं सङ्कटं।। .... वादाी विचराम्यहन्नरपते शाई लविक्रीड़ितं ॥७॥ इत्यादि ।