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किरण ४]
अमरकीर्तिगणि-कृत षट्कर्मोपदेश
इसके पश्चात् दयाधर्म की प्रशंसा और उसके पालन का उपदेश है। फिर सात मिथ्यात्वों के उल्लेख और उनके त्याग के उपदेश, तथा सम्यक्त्व के व मूल गुणों के धारण की प्रेरणा के साथ संधि समाप्त होती है। इस संधि का नाम कवि ने 'सम्यक्त्वशुद्धि-प्रकाशन' रक्खा है।
तेरहवीं सन्धि में भी संयम का उपदेश चालू है। यहां अहिंसा, अचौर्य, सत्य, शील और अपरिग्रह इन पांच अणुव्रतों का, दिग्वत, देशवत और अनर्थ-दण्ड-व्रत इन तीन गुण प्रतों का, तथा सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग-परिमाण और अतिथि संविभाग इन पार शिक्षाघ्रतों का, और फिर निशिभोजन त्याग का उपदेश है। निशिभोजन त्याग को कवि ने व्रतों का सार कहा है और इस पर उन्होंने बड़ा जोर दिया है। जो इसे पालन नहीं करते उन पर इस जन्म और अगले जन्म में बड़ी बड़ी आपत्तियां आती हैं, पुत्र कलत्रादि सब दुराचारी हो जाते हैं, तथा जो इसे पालते हैं उनके सुखों का पारावार नहीं है, ऐसा कहा है। फिर मौनव्रत का उपदेश है। मल-मूत्रोत्सर्ग, भोजन, स्नान व देवबन्दन क्रियाओं में मौन रखना चाहिये। इसके पश्चात् समाधिमरण के उपदेश के साथ सन्धि समाप्त होती है और संयम कर्म का उपदेश पूरा होता है। इस सन्धि को कवि ने 'संयम कर्म' कहा है।
अन्त की चौदहवीं सन्धि में तप और दान कर्मों का उपदेश है। तप बाह्य और अभ्यन्तर रूप से दो प्रकार का है और प्रत्येक के छह छह भेद हैं, इस प्रकार तप बारह प्रकार का है। बाह्य तप के अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश, तथा आभ्यन्तर तप के प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान भेद हैं। इनका वर्णन प्रथम आठ कडवकों में समाप्त होकर छठवें अन्तिम फर्म दान का उपदेश प्रारम्भ होता है। दान का माहात्म्य बड़ा भारी है- "वह गृहस्थधर्म का सार कहा गया है। दान से पापों की अवधि टलती है तथा ऋद्धि और पुण्य उत्पन्न होते हैं । दान सब कल्याणों का भाजन है, तीनों लोकों को हिला देनेवाली शक्ति है, भागभूमि के सुखों का विस्तार बढ़ानेवाला है, लोक का अद्भुत वशीकरण है और गौरव का हेतु है। दान जाति और कुल के नाम को जगा देता है, सुपात्रों से संयोग
चलिय-चित्तु चउराणणु जायउ । बंभु पड्ढिय-कामुम्भायउ । मणि मणसिय-विवार-संतत्तउ । हरि हिंडइ गोविहिं अणुरत्तउ । रिसि आसम मोहिय तरुणिहिं मणु । हरु दारुपणु पच्चिउ सयगुणु । गोत्तम-रिसि-भजहिं आसत्तठ । हरि,सहसक्खु जाउ चल-चित्तउ ॥१२,२॥