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[ भाग २
संतुष्ट हो जाता है।
जोड़ देता है, दुर्गति का समूल नाश कर देता है और शुभगति को सामने ला देता है । एक दान से ही सज्जनता का पोषण होता है और बैरी का भी मन दान कामधेनु है, कल्पवृक्ष है, चिन्तित फल देनेवाला चिन्तामणि है । वाला सिद्धमंत्र है और पाप के मेल को धोने के लिये बीजाक्षर है" " " । यह दान प्रहार, औषधि, अभय और शास्त्र ऐसा चार प्रकार से सुपात्र और कुपात्र का विवेक करके देना
दान स्पष्ट फल देने
चाहिये ।
भास्कर
ग्रन्थ को पूरा करते हुए कवि ने उक्त छह कर्मों की महिमा गाई है - "इन छह कर्मों से श्रावक की पहिचान होती है, दिन भर के किये हुए पाप विलीन हो जाते हैं, सम्यक्त्व की शुद्धि होती है, गृहस्थी के काम काज से चित्त को कुछ विश्रान्ति मिलती है, जैनधर्म जाना जाता है, नर-जन्म में गणना होती है, उपसर्ग श्राने से रुकते हैं, ऋद्धि आने में चूकती नहीं, दुष्कर्म टूट जाते हैं, प्रमाद छूट जाता है, मन में शक्ति उत्पन्न हो जाती है, स्वर्गगति मिलती है, लोक में प्रसिद्धि होती है, त्रिभुवन में हलचल हो जाती है, बड़े बड़े पुरुष वशीभूत हो जाते हैं, देव भी आज्ञाकारी बन जाते हैं, सब वाञ्छाएँ पूरी होती हैं, देव दंदुभि बजाते हैं, केवल ज्ञान उत्पन्न होता है और अविचल सुख की प्राप्ति होती है । जो मनुष्य निःशल्यमन और संसार की बाधाओं से विरक्त होकर षट् कर्म का पालन करेगा वह स्थिर दृष्टि से उसी मोक्षमार्ग का दर्शन पा जायगा जिसे जिनेश्वर भगवान् ने ही देख पाया है ।"१७
१६ दाणु कहिउ गिइ धम्महं सारउ । दाणु होइ दुरियावहि वारउ | सत्त-कलापह भाषणु । भोय- महि- सुह - विस्थार गुरुत्तहि हेउ पउत्तउ । सुपत्त संग-संजोयणु ।
।
दाणु परिद्धि-पुराण उपाय | दाणु दा तिलोयहं खोहहु कारण । दाणु दा लोग वसियर रुित्तः । दाणु दाणु जाइ-कुल- खामुजोयणु । दाणु दाणु होइ दुग्गइ - णिणासणु । दाणु अवसु सुहगइ - उन्भासणु । दाणु इक्कु सुणत्तणु पोसइ । दाखु वि वरिय मणु संतोसह । दाणु विकामधे सुरवर-तरु । दाणु वि चिंतामणि चिंतिययरु । दावि सिद्धमंतु पर्याय - फलु । दाणु वि बोयक्खरु हयकलिमलु ॥१४, ६ ॥ १७ छक्कम्महिं सावहु जाणिज्जइ । छक्कम्महिं दिणि दुरि विलिजइ ।
फिइ ।
छम्महिं सम्मत्तु विसुज्झइ । छकम्महिं घरकम्मु कम्महिं जिधम्मुमुखिज्जइ । छकम्महिं गरजम्मु
गणिज्जइ ।