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[ माग २
पर इन्द्रियां बेचारी अपने ही बल पर कुछ नहीं कर सकतीं। "जैसे धन्धा मनुष्य, एक स्थान पर खड़ा, अपने काम की अभिलाषा रखता हुआ भी, बिना दर्शक के कहीं आ नहीं सकता, उसी प्रकार बिना मन के व्यापार के इन्द्रियाँ अतीन्द्रिय विषय सुखों का रस नहीं चल सकतीं। जैसे जड़ कट जाने पर बड़े बड़े पत्तोंवाला वृक्ष, जैसे राजा के बिना चतुरंग सेना, जीव के बिना सारा कलेवर और सम्यक्त्व के बिना व्रतों का विस्तार निरर्थक है, उसी प्रकार मन के बिना ये प्रबल इन्द्रियाँ भी कुछ नहीं कर सकतीं। पर यह मन हो तो सुख और दुख के भावों से बँधे हुए ल लोक्य के जीवों के लिये बड़ा दुर्जय है। सब को दिखता है कि मन चंचल है, पर जिनदेव को छोड़ कर और कोई उसे काबू में नहीं ला सका । तिलोत्तमा को रस से नाचती और हावभाव विभ्रम प्रकट करती हुई देखकर चतुरानन का चित्त भी चलायमान हो गया, ब्रह्मा का भी कामोन्माद बढ़ गया । मन में काम-विकार से संतप्त होकर हरि गोपियों में अनुरक्त हुए भटकने लगे। ऋषि के आश्रम में तरुणी से मोहित मन होकर शिव सौ गुना नाचने लगे और गौतम ऋषि की भार्या में आसक्त होकर इन्द्र का चित्त चल पड़ा और वे सहस्राक्ष बन गये ।" " ५ इस बुर्जय मन को ही वश करना बड़ा भारी और सच्चा संयम है
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भास्कर
इंदिदिरु | पंकद मरिवि
घाणिं दिय देय रत्तउ दिय-वसेण खणि दृड्ढउ । सल हु सर्वादिय-वसु गेयासत्तउ । वाहें
मारिड
हरिणु
इ
विण
इ दियहं वि दोसें । इस सयल वि जो रु पंचेंद्रिय - सुर-लालसु । दुक्खु सहइ सो भवि भवि
विं तर ।
तं दुक्खु फणि केसरि कुंजर । कूरग्गह सरोस तह
कुविष गरेसर अवर वि दुज्जय । एय- जम्म विद्धंसण कियमण ।
जीवहु दिति विषय जं भवि भवि । उप्पण्णद्द सरीर तह गवि वि ॥ १२,१॥
१५ अंधु जेम आयह वजिउ ठाराठिओ । अच्छा चलणहु सक्कइ जइ वि सक्ज-पिओ ।
मण-वावार - विमुक्कई तिहपुरा इ' दियई । विसय सुक्खु ण विषाणइ अवसु श्रतिं दिषङ्ग ॥ छिर-मूलु जिह तरु वडिय दलु । विइ- हीखु जिह चउरंगु विबलु ।
वय विस्थरु । खिरस्थइ ।
बिणु जीवें जिह सवल कलेवरु । विणु सम्मतें जिह तिह मण- वज्जियाई सुसमत्थई । पंचेंदिवइ हवे म दुउजेड हवइ तिजयत्थह । जीवहं सुह दुह-भावावस्थहं । म चंचल इह सव्वहं दीसइ । जिए मुएवि अरण्यहं कहु सीसइ । पियेषितिलोत्तम सरसुतिय । विन्भम हाव भाव पवतिय ।
जाउ
दीव ते
सय सहरु ।
विमूढउ |
तुरंतउ ।
कबतोसें ।
सालसु ।