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________________ किरण ४] अमरकीर्तिगणि-कृत षट्कर्मोपदेश १२७ नित्य स्वाध्याय करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इससे बुद्धि बढ़ती है । बुद्धि-हीन : मनुष्य की बड़ी दुर्दशा होती है; उसकी सब क्रियाओं का फल उलटा ही होता है "वह धूर्त पिशाचों की मीठी मीठी बातों में फँस जाता है और फिर भ्रमता फिरता है। वह तीर्थो में भटकता है, पानी में डूबता है तथा कामक्कशों द्वारा अपने शरीर को दण्ड देता । इस प्रकार वह बहुत से त्रस और स्थावर जीवों का घात करता है पर पुण्यहेतु कुछ नहीं साधता । जिस प्रकार कोशे का कीड़ा अपनी ही क्रिया से अपने आपको बंधन में डाल लेता है वैसे ही यह जीव दुष्कर्मों का अपनी ओर आकर्षित करता है"१३ । इस सन्धि में या आगे की सन्धियों में कोई कथानक नहीं हैं। इस सन्धि को कवि ने 'गुरूपासना - स्वाध्याय निर्णय प्रकाशन' नाम दिया है । reaf सन्धि में चौथे कर्म 'संयम' का उपदेश है। इसके लिये इन्द्रिय-संयम की सबसे प्रथमकता है। "एक ही स्पर्श इन्द्रिय के सुख की लालसा के कारण बन के हाथी को भी दूढ़ बन्धन में पड़कर ताड़नादि दुःख भोगना पड़ता है । रसना इन्द्रिय के लोभ से दुस्तर समुद्र में रहनेवाला मत्स्य भी गल द्वारा फँसा लिया जाता है । घ्राण इन्द्रिय में रक्त भौंरा कमल के भीतर मरता है, नयन इन्द्रिय के वशीभूत होकर मूढ़ पतंग एक क्षण में दीपक के तेज से भस्म हो जाता है, और श्रवण इन्द्रिय के वश में पड़कर गान में आसक्त हुआ हरिण व्याध द्वारा तुरन्त मार डाला जाता है । एक एक इन्द्रिय के दोष से ये सब जीव इस प्रकार विनष्ट हो जाते हैं; फिर जो मनुष्य पाँचों इन्द्रियों के सुखों की अभिलाषा करता है; वह तो भव भव में दुःख सहेगा ही । सर्प, सिंह, हाथी, क्रूरग्रह, रूठे हुए व्यंतर, कुपित नरेश्वर तथा अन्य दुर्जन भी जीव को वह दुःख नहीं दे सकते जो इन्द्रियों के विषय देते हैं। ये तो जीव का एक ही जन्म में विध्वंस कर सकते हैं, किन्तु वे जन्म जन्मान्तर में भी पिंड नहीं छोड़ते " 1 „ १8 जेत्थु ग लोय - विरुद्धा रण । पर्याडज्जहिं बहु - मल- वित्थरणइ । जेथु दुद्दा पडिगाणु । ण वि पोसिज्जइ दुरिय- पसाह ॥११८॥ १३ बुद्धि - ही जणु धुत्त - पिसार्या हि । गहिलउ हिंड किय-सुहिवायहिं । तिरथई अवगाह जले बुड्डइ । काय - किलेसहि गितयु दंड । तस थावर बहु जीव विरोहह । पुराण हेड ण वि काई उ साहइ । कोसियारु जिह अप्पर वेढइ । तिम स जीउ दुक्कम्महु कढई ॥११,६॥ १४ वण- करि फासिंदिय - सुह - गिद्धउ । सहह बंधु ताड दिवद्ध । रसदिय - लुद्धउ दुत्तरि जलि । तिमि बहुउ गलेय णिन्भर गलि ।
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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