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________________ भास्कर [भाग २ साहित्य, जैनकला, जैनध्वंसावशेष, जैन-शिलालेख, जैनमुद्रा, जैन-तीर्थ इत्यादि सब ही का समावेश हो जाता है। किन्तु इस "जैनपुरातत्त्व" के वास्तविक ज्ञानी नज़र नहीं आते। जैनसाहित्य के मर्मी सर्वाङ्ग विद्वान् ऐसा कोई नहीं जिसने सारे उपलब्ध साहित्य का मथन किया हो और 'दूध का दूध और पानी का पानी' करके उसका सच्चा निखरा हुआ रूप जगत के सामने रक्खा हो। आज एक नहीं अनेक सरस्वती-भाण्डार अछूते पड़े हैं--- उनमें न जाने कितने अमूल्य ग्रन्थ-रत्न छुपे हुये हैं। उनको प्रकाश में लानेवाले जितने चाहिये उतने नहीं हैं। धन्यवाद है श्रीजैकोबी-सदृश पाश्चात्य विद्वानों को जिन्होंने दुनियां में जैनसाहित्य का प्रकाश फैलाया है। किन्तु सोचिये तो एक अजैन और वह भी विदेशी आपके धार्मिक साहित्य का मूल्य क्या आँक सकेगा ? कैसे वह जैन और अजैन प्राचीन कीर्तियों की ठीक-ठीक भेदविवक्षा कर सकेगा ? कैसे वह मानेगा कि भारत के बाहर भी जैनपुरातत्त्व के चिह्न मिल सकते हैं ? वह तो जानता और मानता है कि जैनधर्म का प्रचार भ० पार्श्वनाथ के समय से हुआ है और वह भारत के बाहर नहीं पहुंचा है। उसे एक आस्तिक जैनी की भांति यह कैसे विश्वास हो कि एक समय सारे भूमंडल पर जैन-धर्म व्याप्त था। धर्मविज्ञान के प्रथम प्रचारक तीर्थकर भगवान ही थे। जैन चिह्नों का, वर्तमान की ज्ञात और आगे ज्ञात होनेवाली सारी दुनियां में, मिलना असंभव नहीं है। जम्बूद्वीप में अनेक कृत्रिम और अकृत्रिम जैन कीर्तियों का अस्तित्व जैनशास्त्र बतलाते हैं। संसार में उपलब्ध पुरातत्त्व का जैनदृष्टि से यदि अवलोकन किया जाय तो उपर्युक्त व्याख्या सत्य प्रमाणित हो सकती है। जरा सोचिये, क्या भारत में ऐसी गलतियां नहीं हुई कि जिनमें जैन-कीर्तियां बौद्धादि की बता दी गई? जैनसम्राट् खारवेल और उनका प्रसिद्ध शिलालेख एक समय बौद्धाम्नाय के माने जाते थे। विद्वानों का यह भी खयाल था कि जैनस्तूप होते ही नहीं; परन्तु मथुरा के पुरातत्व ने इस धारणा को गलत साबित कर दिया। अब भी विद्वानों की यह धारणा है कि जैनों में मूर्ति बनाने का रिवाज बहुत प्राचीन नहीं है। उनकी इस मान्यता में कारण यह है कि जैनसाधु के लिये मूर्ति का आश्रय लेना-उसके दर्शन करना आवश्यक नहीं है ! किन्तु किसलिये आवश्यक नहीं है ? इसका ठीक-सा उत्तर उनके पास नहीं है, क्योंकि यह जैनों की मूर्ति-पूजा के उद्देश्य से ही अनभिज्ञ हैं। जैनों की मूर्तिपूजा आदर्शपूजा है-वह पत्थर की पूजा नहीं है। वीतरागविज्ञानता को प्राप्त करने के लिये एक गृहस्थ मुमुक्षु वैसी ही मूर्तियों से उसकी शिक्षा प्रहण करता है। साधु इस शिक्षा को पार कर जाता है इसलिये उसके लिये मूर्ति का दर्शन करना आवश्यक नहीं है परन्तु उसके लिये उसका निषेध भी नहीं है। अब भला कहिये, यह कैसे माना जाय कि एक अत्यन्त प्राचीनकाल में जैनमूर्तियां नहीं थीं). यह
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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