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________________ किरण ३ ] इतिहास का जैनग्रन्थों के मंगलाचरण और प्रशस्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध १०६ बही कुशराज राजा वीरमेन्द्रदेव के आश्रय में मन्त्रित्व करते हुए श्रीचन्द्रप्रभतीर्थङ्कर का सुन्दर चैत्यालय बनवाकर अपना नाम अमर कर गये हैं । उन दिनों आप एक बड़े भारी धनीमानी एवं राजसम्मानित जैनी थे इसीलिये पण्डितप्रवर कायस्थ पद्मनाभ जी ने अपनी ग्रन्थसमाप्ति में जैनधर्म के आश्रयभूत कुशराज का संस्मरण किया है। इन्होंने ग्रंथ में पुस्तकरचनाकाल नहीं दिया है । किन्तु तोमरवंशीय राजा वीरमेन्द्र का वंशवर्णन कर अपने ग्रंथ का रचनाकाल (१४०० ई० सन्) का मार्ग पद्मनाभ जी ने परिष्कृत कर दिया है । अब कुजराज की वंशावली नीचे दी जाती है (१) कुशराज (२) कल्याणसिंह इस ग्रंथ का लिपिकाल १८१२ है । क्योंकि लिखा हुआ है कि वि० सं० १८१२ मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी रविवार पुनर्वसु नक्षत्र में मूलसंघीय, बलात्कारगण एवं सरस्वती गच्छ के कुन्दकुन्दान्नायान्तर्गत श्रीचन्द्रकीर्त्ति जी की शिष्या श्रीमती पास ( पूर्व ) मती जी के पढ़ने के लिये पं० मायारामजी ने काशी के परमप्रसिद्ध भेलूपुरा मन्दिर में इस ग्रंथ की प्रतिलिपि की । उन दिनों तीन तीन राज्यों के अधिपति राजा बल्वणस्पंधदेव का शासनं चल रहा था । इस राजा के विषय में कोई प्रकाश नहीं डाला जा सकता । उल्लिखित भट्टारक चन्द्रकीर्त्तिजी के भट्टारक देवेन्द्रकीर्त्तिजी कौन हैं यह बात ज्ञात नहीं होती । आपकी पट्टावली -- (1) भट्टारक जिनेन्द्रभूषण (२) भट्टारक महेन्द्रभूषण (३) आचार्यदेव नरेन्द्रकी हैं। इस छोटे से लेख में मैंने यही दिखाने की चेष्टा की है कि जैनग्रंथों मे मङ्गलाचरण और प्रशस्तियों में अनन्त ऐतिहासिक साधन संचित हैं । आवश्यकता है केवल उनकी आलोचना एवं प्रत्यालोचना करने की । * 'तोमर' शब्द एवं वंश का विपुलवर्णन देखने की इच्छा करनेवाले कलकत्ता से प्रकाशित "हिन्दी विश्वकोश" की हवीं जिल्द देखें । + इनको रल्हो, लक्षणश्री और कौशीरी माम की तीन स्त्रियाँ थीं । + इनकी माँ का नाम 'ल्हो' था। इनकी काम के समान सुन्दर आकृति थी ।
SR No.529551
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Bhavan
PublisherJain Siddhant Bhavan
Publication Year
Total Pages417
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Siddhant Bhaskar, & India
File Size10 MB
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