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अमरकीर्तिगणि और उनका षट्कर्मोपदेश (ले०-श्रीयुत प्रोफेसर हीरालाल एम.ए., एल.एल.बी.)
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१ पोथी-परिचय 'जेनमित्र' की पुरानी फाइलों के पन्ने पलटते समय एक जगह मुझे मोती कटरा आगरा, के दिगम्बर जैन मन्दिर के कुछ हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची देख पड़ी। इनमें अमरकीर्तिकृत षट्कर्मोपदेश का भी उल्लेख था। सूचीकार ने इसे केवल प्राकृत ग्रन्थ कहा है, पर जो थोड़ा सा अवतरण वहां उद्धृत किया गया था उससे मुझे निश्चय होगया कि वह प्रन्थ अपभ्रंश भाषा में है। यह भाषा बड़ी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वह प्राचीन संस्कृत, प्राकृत और आधुनिक हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि देशी भाषाओं के बीच की एक कड़ी है। इस भाषा के ग्रन्थ अभीतक बहुत कम मिलते थे। जो मिले है उनको संशोधनपूर्वक प्रकाशित कराने का मैं कई वर्षों से प्रयत्न कर रहा हूँ। अतएव उक्त प्रति को देखने की मुझे इच्छा हुई। निदान, महावीर प्रेस, आगरा, के मालिक श्रीयुक्त महेन्द्र जी की कृपा से वह प्रति मुझे अवलोकनार्थ प्राप्त हो गई।
यह प्रति ११४५" इंच लम्बे चौड़े देशी कागज के १०२ पत्रों पर है। पत्रों में दाये. बांये १॥ इंच, तथा ऊपर नीचे १ इंच हाँसिया छूटा हुआ है। प्रत्येक पृष्ठ पर ११ पंक्तियां, . व प्रतिपंक्ति में लगभग ३५ अक्षर हैं। पुरानो प्रतियों के प्रथानुसार पत्रों के बीच में स्थान छूटा हुआ है। ७० पत्र पुराने और शेष उससे पीछे के दूसरे हाथ से लिखे हुए प्रतीत होते हैं। पुराने पत्रों में भी नं. २ का पत्र गायब हो जाने से किसी तीसरे हाथ का लिखा हुआ पन उसके स्थान पर जोड़ दिया गया है। कई पत्र आधे, चौथाई, फट गये थे, उनको जोड़कर और त्रुटित अश पुनः लिख कर मरम्मत की गई है। इस तरह इस प्रति ने बहुत जमाना देखा है और कागज ने शत्र ओं से काफी युद्ध किया है। अन्त में जो लिपि का समय दिया गया है वह उस शेष अंश के लिखे जाने का है। लेख इस प्रकार है:___"संवत् १८८४ का भादवा माशे शुक्ल पक्ष तिथौ २ शुक्रवासरे लीपकृतं महातमा पनालाल वासी सवाई जयपुरक लीषी आगरा मध्ये ॥ शुभंगमस्तु छाछाछ॥"
मूल प्रति इससे कई सौ वर्ष की पुरानी ज्ञात होती है। अनुमान होता है कि आगरा की पुरानी प्रति खंडित होगई थी, उसकी पूर्ति सवाई जयपुर-निवासी महात्मा पन्नालाल-द्वारा कराई गई थी, सम्भवतः या तो मूल प्रति के जीर्ण अंश पर से ही या जयपुर की किसी