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किरण ] प्रमाणनयतत्वालोकालंकार की समीक्षा
परीक्षामुख के सूत्र में जो कोमलतासहित उपहास प्रदर्शित किया गया है वह इस सूत्र में कठोरता को लिये हुए नज़र आता है। वास्तव में तो इसे उपहास कहना ही व्यर्थ है यहाँ पर तो कठोरता को लिये हुए अपने बचन का समर्थन ही प्रतीत होता है। इसमें पूर्वापर-संबन्धवाहकता का अभाव भी कम नहीं है। जैसे
पत्तहेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानम् ॥ २३-३॥ साध्यस्य प्रतिनियतधर्मिसम्बन्धताप्रसिद्धये हेतोरुपसंहारवचनवत् पक्षप्रयोगोऽप्यवश्यमाश्रयितव्यः ॥२४-३॥
त्रिविधं साधनमभिधायैव तत्समर्थनं विदधानः कः खलु न पक्षप्रयोगमङ्गी कुरुते ॥२९-३॥
प्रत्यक्षपरिच्छिन्नार्थाभिधायि वचनं पदार्थ प्रत्यक्षं परप्रत्यक्षहेतुत्वात् ॥२६-३॥ ___ यथा पश्य पुरः स्फुरत्किरणमणिखण्डमण्डिताभरणभारिणीं जिनपतिप्रतिमाम् ॥ २७-३॥ पक्षहेतुवचनलक्षणमवयवद्वयमेव परप्रतिपत्तेरङ्गन दृष्टान्तादिवचनम् ॥ २८-३॥ हेतुप्रयोगस्तथोपपत्यन्यथानुपपत्तिभ्यां द्विपकारः ॥२६-३॥
सत्येव साध्ये हेतोपपत्तिस्तथोपपत्तिः, असति साध्ये हेतोरनुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिः ॥३०-३॥
__ यथा कृशानुमानयं पाकप्रदेशः सत्येव कृशानुमत्त्वे धूमवत्वस्योपपत्तेः, असत्यनुपपत्तेर्वा ॥३१-३॥
अनयोरन्यतरप्रयोगेणैव साध्यप्रतिपत्तौ द्वितीयप्रयोगस्यै कत्रानुपयोगः ॥३२-३॥
न दृष्टान्तादि वचनं परप्रतिपत्तये प्रभवति, तस्यां पक्षहेतुवचनयोरेव • व्यापारोपलब्धेः ॥ ३३-३॥ प्र० न० तस्वा० ॥ .. यहां पर सूत्र नं० २३ में परार्थानुमान का लक्षण कहा गया है। उस में बतलाया है कि पक्ष और हेतु के प्रयोग को परर्थानुमान कहते हैं। सूत्र नं० २४, २५ में परार्थानुमान में पक्ष प्रयोग की आवश्यकता बतलायी है। इसके आगे क्रम-प्राप्त तो हेतुप्रयोग का विवरण था लेकिन ग्रन्थकार ने उसको छोड़ कर सूत्र नं० २६, २७ में परार्थ प्रत्यक्ष का स्वरूप दृष्टान्त बतलाया है। इस क्रम का समर्थन इसकी टीका स्याद्वादरत्नाकरावतारिका के कर्ता ने प्रासङ्गिक मान कर किया है। यह ठीक है कि प्रसङ्ग पाकर किसी वस्तु का विवेवन किया जा सकता है लेकिन जहाँ पर प्रसङ्ग हो वहीं पर वह विवेचन उपयुक्त होता है। इसलिये अन्यकार को यदि परार्थ प्रत्यक्ष का कथन करना अभीष्ट ही था तो परार्थानुमान के लक्षण के बाद ही सूत्र नं० २४, २५ में उसका विवेचन कर सकते थे