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भास्कर
[ भाग २
है इसका दिग्दर्शन ऊपर करा ही दिया गया है, तथा इसके लिये ग्रन्थ में जहाँ भी अधिक लिखने की स्वतंत्रता मिली है वहां पर उन्होंने कुछ न कुछ लिख ही डाला है । कहीं कहीं पर तो इसी विचार में परीक्षामुख के कई उपयोगी सूत्रों का विषय भी छोड़ देना पड़ा है। इन दोनों ग्रन्थों को देखने से मालूम पड़ सकता है। यहां पर लेख बढ़ जाने के भय से नहीं लिखा गया है। इनके विषय में इस ग्रन्थ को दिखते हुए यह तो नहीं कहा जा सकता, कि ग्रन्थकर्ता ने उनके लिखने की आवश्यकता नहीं समझी, कारण किं इस प्रन्थ में मामूली भी बात को सूत्र में स्थान दिया गया है।
कहीं कहीं पर सूत्र- परिवर्तन के कारण ग्रन्थकार इतनी दूर पहुंच गये हैं, कि परीक्षा मुख की भावपूर्ण वर्णनशैली भी जाती रही है, इसके लिये अनुमान प्रकरण का वह स्थल, जहां पर उदाहरण, उपनय और निगमन को अनुमान में अप्रयोजक सिद्ध किया गया है, विशेषतया उल्लेखनीय है । दोनों ग्रन्थों के तीसरे परिच्छेद में इस प्रकरण को देखने से इस कथन की सत्यता का भलीभाँति अनुभव होता है। इस लेख में भी आगे इन सूत्रों को उद्धृत किया जायगा ।
इस ग्रन्थ में जितने दृष्टान्त दिये गये हैं उनमें परिवर्तन के कारण अप्रसिद्धों को बहुत स्थान मिला है, जैसे
(१) घटमहमात्मना वेद्मि ॥ ८ - १ | परीक्षामुख० ।
करिकलभकमहमात्मना जानामि ॥ १६ - १ ॥ प्र० न० तस्वा० ।
(२) प्रदीपवत् ॥ १२१ ॥ परीक्षामुख० ।
मिहिरालोकवत् ॥ १७ -१ ॥ प्र० न० तस्वा० ।
दृष्टान्तों' में शब्दाडम्बरता को स्वतंत्रता का पूरा पूरा उपयोग किया गया है।
(३) यथा नद्यास्तीरे मोदकराशयः सन्ति धावभ्वं माणवकाः ॥ ५२ -६ ॥ परीक्षामुख० । यथा मैकलकन्यकायाः कूले ताल हिन्तालयोर्मूले सुलभाः
पिण्डखर्जूराः सन्ति त्वरितं गच्छत गच्छत शावकाः ॥ ४–६॥
(४) यथा पश्य पुरः स्फुरत्किरणमणिखण्डमण्डिताभरणभारिणीं जिनपतिप्रतिमाम् ॥ २७-३ ॥ प्र० न० तस्वा० ॥
कहीं कहीं पर शब्दों के परिवर्तन से परीक्षामुख के भाव को भी धक्का पहुँचा है । को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमन्यत मिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् १ ॥ ११-१ ॥ परीक्षामुख० । खलु ज्ञानस्यालम्बनं बाह्य प्रतिभातमभिमन्यमानस्तदपि तत्प्रकारं नाभिमन्येत ? ॥ १७ - १ ॥ प्र० न० तत्वा० ॥
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