________________
भास्कर
[ भाग २
दउ परसासण-णिण्णासणु सयलकाल जिणणाहहु सासणु । णंदड तह वि देवि वारसरि जिणमुह-कमलुभव परमेसरि। णंदउ धम्मु जिणिंद भासिउ णंदउ संघु सुसीले भूसिउ। णंदउ महिवइ धम्मासत्तउ पय परिपालण-णाय महंतउ । णंदउ भवियणु णिम्मल-दसणु छक्कम्महिं पावियजिणसंसणु। णंदउ अबपसाउ वियक्खणु अमरसूरि लहु-बंधु सुलक्खणु । णंदउ अवरु वि जिण-पय-भत्तउ विबुह-वग्गु भाविय रयणत्तउ । घत्ता-णंदउ णिरु तावहिं सत्थु इहु अमरकित्ति-मुणि-विहिउ पयत्त। .
जाहि महि मारुव-मेरु-गिरि-णहयलु अवपसायणिमित्ते॥१८॥ इय छक्कम्मोवएसे महाकइसिरि-अमरकित्ति-विरइए महाकव्वे महाभब्व-अंबपसायाणुमण्णिए तव-दाण-वण्णणाणाम चउद्दसमो संधी परिच्छेओ समस्तो॥छ॥संधि॥ छ॥१४॥
विशाल विक्रमसंवत्सर के १२४७ वर्ष बीतने पर भाद्रपद मास के द्वितीय पक्ष की चतुर्दशी तिथि गुरुवार को एक मास में यह ग्रंथ समाप्त हुआ। मैंने आलस छोड़ कर स्वयं इसे लिखा है।
विरोधी शासन का नाश करनेवाला जिनशासन सदा काल आनन्द करे। उसी प्रकार तीर्थकर के मुखकमल से उत्पन्न परमेश्वरी वागीश्वरी देवी आनन्द करे। जिनेन्द्र-द्वारा भाषित धर्म आनन्द करे। सच्छोल से भूषित संघ आनन्द करे। धर्म में आसक्त, प्रजा के परिपालन और न्याय में बढ़ा-चढ़ा महीपति आनन्द करे। निर्मल दर्शन का स्मारक तथा षटकर्मों द्वारा जिनशासन का पालक भव्य आनन्द करे। अमरसूरि के लघुबन्धु, शुभलक्षणों से संयुक्त और बुद्धिमान अम्बाप्रसाद आनन्द करें। और भी जिनपद-भक्त तथा रत्नत्रय का धारक बुद्धिमान-वर्ग आनन्द करे। यह अम्बाप्रसाद के निमित्त अमरकीर्ति मुनि-द्वारा प्रयत्नपूर्वक बनाया हुआ शास्त्र इस लोक में तबतक आनन्द करे जबतक यह पृथ्वी है, पवन है, मेरुगिरि है और आकाश है।
इति महाभन्य-अम्बाप्रसादानुमत, महाकवि अमरकीर्ति-विरचित षट्कर्मोपदेश महाकाव्य का तप-दान-वर्णन नामक चतुर्दशं संधि परिच्छेद समाप्त ॥ संधि १४ ॥