________________
किरण ३ ]
अमरकीर्तिगणि और उनका षट्कर्मोपदेश
है
सुणि कण्हपुर वंस-विजयद्धय णियरूवोहामिय-मयरद्धय । पूयय देवहं सुह-गुरु-वासणा समय सुद्ध-सज्झाय-पयासणा ।
संजम-तव-दाणहं संजुत्तई जिणदंसणि छक्कम्मइ वुत्तई। घत्ता-रयणतय-जुत्तउ, सल्लहिं चत्तउ, गुण-सील-तउ-हणियमलु। १०
जो दिणि दिणि एयई, करइ विहेयई, मणुयजम्मु तहो पर सहलु ॥८॥
षट्कर्मोपदेश की अन्तिम प्रशस्ति
(संधि १४ कडवक १८) विहियाई सुबुद्धीए एयाई मए गिहत्थ-कम्माई।
अमुणतेण सुइत्थं जिणणाह पयासियं सम्मं ॥६॥ ताई मुणिवि सोहेवि णिरंतर हीणाहिउ विरुद्ध णिहियक्खरु । फेडेवउ ममत्तु भावंतिहिं अम्हहं उप्परि बुद्धि-महंतिहिं । छक्कम्मोवएसु इहु भवियहो वक्खाणिवउ भत्तिई णवियहो। अंबपसायई चचिणपुत्ते गिह-छकम्म-पवित्त-पवित्ते गुणवालहु सुरण विरयाविउ अवरेहि मि णियमणि संभाविउ । बारह सयह ससत्त-चयालिहिं विक्कम-संवच्छरहु विसालहिं । गयहिं मि भदवयहु फ्क्वंतरि गुरुवारम्मि चउद्दिसि वासरि ।
इक्के मासे इहु सम्मत्तिउ सई लिहियउ आलसु अवहत्थिउ । प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने कहा "अपने रूप से मकरध्वज को भी लजानेवाले, हे कृष्णपुरवंश के विजयध्वज ! सुनो। देवों की पूजा, सद्गुरु की उपासना, शुद्ध आम्नाय के शास्त्रों का स्वाध्याय, संयम, तप और दान, ये ही मिलकर जैनदर्शन में षट् कर्म कहे गये हैं। रत्नत्रय से युक्त होकर, शन्यों का स्वाग करके, गुण, शील तथा तप द्वारा पापों का नाश करता हुआ जो कोई प्रतिदिन इन सत्कर्मों को करेगा उसका मनुष्य जन्म पूर्णरूप से सफल है।
यद्यपि जिनेश्वर भगवान् द्वारा प्रकाशित श्रुति के अर्थ का मुझे अच्छी तरह ज्ञान नहीं है तथापि इन गृहस्थ-कर्मों का मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार व्याख्यान किया है। इसमें जो कुछ हीन, अधिक या विरुद्ध शब्द आगये हों उन्हें बुद्धिमान मेरे ऊपर ममत्व भाव रखकर विचारपूर्वक शोध लेवें और इस षट्कर्मोपदेश का ब्याख्यान नये भव्य पुरुष को सुनावें। इसकी रचना षटकर्म-द्वारा पवित हुए, चर्चिणी के पुत्र, गुणपाल के सुत अम्बाप्रसाद ने कराई है और दूसरे सजनों ने भी अपने हृदय में इसका सम्मान किया है।